नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा0%

नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

115-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(तलबे बारिश के सिलसिले में)

ख़ुदाया! हमारे पहाड़ों का सब्ज़ा ख़ुश्क हो गया है और हमारी ज़मीन पर ख़ाक उड़ रही है। हमारे जानवर प्यासे हैं और अपनी मन्ज़िल की तलाश में सरगर्दां हैं और अपने बच्चों के हक़ में इस तरह फ़रयादी हैं जैसे ज़न पिसर मुर्दा, सब चरागाहों की तरफ़ फेरे लगाने और तालाबों की तरफ़ वालेहाना तौर पर दौड़ने से आजिज़ आ गए हैं, ख़ुदाया! अब इनकी फ़रयादी की बकरियों और इष्तिेयाक़ आमेज़ पुकारने वाली ऊंटनियों पर रहम फ़रमा। ख़ुदाया! इनकी राहों में परेशानी और मन्ज़िलों पर चीख़ व पुकार पर रहम फ़रमा। ख़ुदाया् हम इस वक़्त घर से निकल कर आए हैं जब क़हत साली के मारे हूए लाग़र ऊंट हमारी तरफ़ पलट पड़े हैं और जिनसे करम की उम्मीद थी वह बादल आकर चले गए हैं। अब दर्द के मारों का तू ही आसरा है और इल्तिजा करने वालों का तू ही सहारा है। हम उस वक़्त दुआ कर रहे हैं जब लोग मायूस हो चुके हैं। बादलों के ख़ैर को रोक दिया गया है और जानवर हलाक हो रहे हैं तो ख़ुदाया हमारे आमाल की बिना पर हमारा मवाखि़ज़ा न करना, और हमें हमारे गुनाहों की गिरफ़्त में मत ले लेना, अपने दामने रहमत को हमारे ऊपर फैला दे बरसने वाले बादल, मूसलाधार बरसात और इसीन सब्ज़ा के ज़रिये। ऐसी बरसात जिससे मुरदा ज़मीन ज़िन्दा हो जाएं और गई हुई बहार वापस आ जाए। ख़ुदाया! ऐसी सेराबी अता फ़रमा जो ज़िन्दा करने वाली, सेराब बनाने वाली। कामिल व शामिल, पाकीज़ा व मुबारक, ख़ुशगवार व शादाब हो जिसकी बरकत से नबातात फलने फूलने लगें। शाख़ें बारआवर हो जाएं, पत्ते हरे हो जाएं, कमज़ोर बन्दों को उठने का सहारा मिल जाए, मुर्दा ज़मीनों को ज़िन्दगी अता हो जाए। ख़ुदाया! ऐसी सेराबी अता फ़रमा जिससे टीले सब्ज़ापोश हो जाएं, नहरें जारी हो जाएं, आस-पास के इलाक़े शादाब हो जाएं, फल निकलने लगें, जानवर जी उठें, दूर दराज़ के इलाक़े भी तर हो जाएं और खुले मैदान भी तेरी इस वसीअ बरकत और अज़ीम अता से मुस्तफ़ैज़ हो जाएं जो तेरी तबाह हाल मख़लूक़ आवारागर्द जानवरों पर है। हम पर ऐसी बारिश नाज़िल फ़रमा जो पानी से शराबोर कर देने वाली, मूसलाधार, मुसलसल बरसने वाली हो, जिसमें क़तरात, क़तरात को ढकेल रहे हों और बून्दें बून्दों को तेज़ी से आगे बढ़ा रही हों। न उसकी बिजली धोका देने वाली हो और न उसके बादल पानी से ख़ाली हों न उसके अब्र से सफ़ेद टुकड़े बिखरे हों और न सिर्फ़ ठण्डे झोंकों की बून्दाबान्दी हो, ऐसी बारिश हो के क़हत के मारे हुए इसकी सरसब्ज़ियों से ख़ुशहाल हो जाएं और ख़ुश्क साली के शिकार इसकी बरकत से जी उठें। इसलिये के तू ही हमारी मायूसी के बाद पानी बरसाने वाला और दामाने रहमत का फैलाने वाला है तू ही क़ाबिले हम्द व सताइश, सरपरस्त व मददगार है।

सय्यद रज़ी- इन्साहत जबालना- यानी पहाड़ों में ख़ुश्कसाली से शिगाफ़ पड़ गए हैं के इन्साहलसौब कपड़े के फट जाने को कहा जाता है। या इसके मानी घास के ख़ुश्क हो जाने के हैं। साहा-इन्साह ऐसे मवाक़ेअ पर भी इस्तेमाल होता है, हामत दवाबना - यानी प्यासे हैं और हयाम यहाँ अतश के मानी हैं।

हदाबीरल सनीन- हदबार की जमा है, वह ऊंट जिसे सफ़र लाग़र बना दे, गोया के क़हतज़दा साल को इस ऊंट से तशबीह दी गई है जैसा के ज़वालरमा शाएर ने कहा था- (यह लाग़र और कमज़ोर ऊंटनिया हैं जो सख़्ती झेलकर बैठ गई हैं या फिर बेआब व ग्याह सहरा में ले जाने पर चली जाती हैं)

या क़ज़अ रबाबहा- क़जअ - बादल के छोटे-छोटे टुकड़े, ला शफ़्फ़ान ज़हाबहा - असल में “ज़ाते शफ़ान”है- शफ़ान ठण्डी हवा को कहा जाता है और ज़ेहाब हल्की फवार का नाम है। यहाँ लफ़्ज़ “ज़ात”हज़फ़ हो गया है।

116- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें अपने असहाब को नसीहत फ़रमाई है)

अल्लाह ने पैग़म्बर (स0) को इस्लाम की तरफ़ दावत देने वाला और मख़लूक़ात के आमाल का गवाह बनाकर भेजा तो आपने पैग़ामे इलाही को मुकम्मल तौर से पहुंचा दिया। न कोई सुस्ती और न कोई कोताही , दुश्मनाने ख़ुदा से जेहाद किया और इस राह में न कोई कमज़ोरी दिखलाई और न किसी बख़ीला और बहाने का सहारा लिया। आप मुत्तक़ीन के इमाम और तलबगाराने हिदायत के लिये आंखों की बसारत थे।

अगर तुम इनत माम बातों को जान लेते जो तुमसे मख़फ़ी रखी गई हैं और जिनको मैं जानता हूँ तो सहराओं में निकल जाते। अपने आमाल पर गिरया करते और अपने किये पर सर व सीना पीटते और सारे अमवाल को इस तरह छोड़ कर चल देते के न इनका कोई निगहबान होता और न वारिस और हर शख़्स को सिर्फ़ अपनी ज़ात की फ़िक्र होती। कोई दूसरे की तरफ़ रूख़ भी न करता। लेकिन अफ़सोस के तुमने इस सबक़ को बिल्कुल भुला दिया जो तुम्हें याद कराया गया था और उन हौलनाक मनाज़िर की तरफ़ से यकसर मुतमईन हो गए जिनसे डराया गया था। तो तुम्हारी राय भटक गई और तुम्हारे कामो में इन्तेशार पैदा हो गया और मैं यह चाहने लगा के काश अल्लाह मेरे और तुम्हारे दरम्यान जुदाई डाल देता और मुझे उन लोगों से मिला देता जो मेरे लिये ज़्यादा सज़ा थे। वह लोग जिनकी राय मुबारक और जिनका हिल्म ठोस है। हक़ की बातें करते हैं और बग़ावत व सरकशी से किनारा करने वाले हैं। उन्होंने रास्ते पर क़दम आगे बढ़ाए और राहे रास्त पर तेज़ी से बढ़ते चले गये, जिसके नतीजे में दाएमी आख़ेरत और पुरसुकून करामत हासिल कर ली।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

आगाह हो जाओ के ख़ुदा की क़सम तुम पर वह नौजवान बनी सक़ीफ़ का मुसल्लत हो जाएगा जिसका क़द तवील होगा और वह लहराकर चलने वाला होगा। तुम्हारे सब्ज़े को हज़म कर जाएगा और तुम्हारी चर्बी को पिघला दे, हाँ, हाँ अबू ऐ अबू वज़हा कुछ और।

(((- अमीरूल मोमेनीन (अ0) की ज़िन्दगी का अज़ीमतरीन इल्मिया है के आँख खोलने के बाद से 30 साल तक रसूले अकरम (स0) के साथ गुज़ारे। इसके बाद चन्द मुख़लिस असहाबे कराम के साथ रहा इसके बाद जब ज़माने ने पलटा खाया और इक़्तेदार क़दमों में आया तो एक तरफ़ नाक्सीन , क़ासेतीन और ख़वारिज का सामना करना पड़ा और दूसरी तरफ़ अपने गिर्द कूफ़े के बेवफ़ाओं का मजमा लग गया। ज़ाहिर है के ऐसा शख़्स इस हाल को देख कर उसके माज़ी की तमन्ना न करे तो और क्या करे और उसने ज़ेहन से अपना माज़ी किस तरह निकल जाए।-)))

117- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें जान व माल से कंजूसी करने वालों की सरज़निश गई है)

न तुमने माल को उसकी राह में ख़र्च किया जिसने तुम्हें अता किया था और न जान को उसकी ख़ातिर ख़तरे में डाला जिसने पैदा किया था। तुम अल्लाह के नाम पर बन्दों में इज्ज़त हासिल करते हो और बन्दों के बारे में अल्लाह का एहतेराम नहीं करते हो, ख़ुदारा इस बात से ग़ैरत हासिल करो के अनक़रीब उन्हें मनाज़िल में नाज़िल होने वाले हो जहां पहले लोग नाज़िल हो चुके हैं और क़रीबतरीन भाइयों से पलट कर रह जाने वाले हो।

118-आपका इरशादे गिरामी

(अपने असहाब में नेक किरदार अफ़राद के बारे में)

तुम हक़ के सिलसिले में मददगार और दीन के मामले में भाई हो। जंग के रोज़ मेरी सिपर और तमाम लोगों में मेरे राज़दार हो। मैं तुम्हारे ही ज़रिया रूगरदानी करने वालों पर तलवार चलाता हूँ और रास्ते पर आने वालों की इताअत की उम्मीद रखता हूँ। लेहाज़ा ख़ुदारा मेरी मदद करो इस नसीहत के ज़रिये जिसमें मिलावट न हो और किसी तरह के शक व शुबहे की गुन्जाइश न हो के ख़ुदा की क़सम मैं लोगों की क़यादत के लिये तमाम लोगों से ऊला और अहक़ हूँ।

119-आपका इरशादे गिरामी

(जब आपने लोगों को जमा करके जेहाद की तलक़ीन की और लोगों ने सुकूत इख़्तेयार कर लिया तो फ़रमाया)

तुम्हें क्या हो गया है, क्या तुम गूंगे हो गए हो? इस पर एक जमाअत ने कहा के या अमीरूल मोमेनीन (अ0)! आप चलें हम चलने के लिये तैयार हैं। फ़रमाया , तुम्हें क्या हो गया है- अल्लाह तुम्हें हिदायत की तौफ़ीक़ न दे और तुम्हें सीधा रास्ता नसीब न हो। क्या ऐसे हालात में मेरे लिये मुनासिब है के मैं ही निकलूँ? ऐसे मौक़े पर एक शख़्स को निकलना चाहिये जो तुम्हारे बहादुरों और जवाँमर्दों में मेरा पसन्दीदा हो और हरगिज़ मुनासिब नहीं है के मैं लशकर, शहर बैतुलमाल, ख़ेराज की फ़राहेमी, क़ज़ावत, मुतालबात करने वालों के हुक़ूक़ की निगरानी का सारा काम छोड़कर निकल जाऊँ और लशकर लेकर दूसरे लशकर का पीछा करूं और इस तरह जुम्बिश करता रहूँ जिस तरह ख़ाली तरकश में तीर। मैं ख़ेलाफ़त की चक्की का मरकज़ हूँ जिसे मेरे गिर्द चक्कर लगाना चाहिये के अगर मैंने मरकज़ छोड़ दिया तो उसकी गर्दिश का दाएरा मुतज़लज़ल हो जाएगा और उसके नीचे की बिसात भी जाबजा हो जाएगी। ख़ु़दा की क़सम यह बदतरीन राय है और वही गवाह है के अगर दुशमन का मुक़ाबला करने में मुझे शहादत की आरज़ू न होती, जबके वह मुक़ाबला मेरे लिये मुक़द्दर हो चुका हो, तो मैं अपनी सवारियों को क़रीब करके उनपर सवार होकर तुमसे बहुत दूर निकल जाता और फिर तुम्हें उस वक़्त तक याद भी न करता जब तक शिमाली व जुनूबी हवाएं चलती रहें। तुम तन्ज़ करने वाले, ऐब लगाने वाले, किनारा कशी करने वाले और सिर्फ़ शोर मचाने वाले हो, तुम्हारे आदाद की कसरत का क्या फाएदा है जब तुम्हारे दिल यकजा नहीं हैं। मैंने तुमको इस वाज़ेअ रास्ते पर चलाना चाहा जिस पर चलकर कोई हलाक नहीं हो सकता है मगर यह के हलाकत इसका मुक़द्दर हो। इसी राह पर चलने वाले की वाक़ेई मन्ज़िल जन्नत है और यहाँ फिसल जाने वाले का रास्ता जहन्नम है।

(((-ऐ लोग हर दौर में दीनदारों में भी रहे हैं और दुनियादारों में भी, जो क़ौम से हर तरह के एहतेराम के तलबगार होते हैं और क़ौम का किसी तरह का एहतेराम नहीं करते हैं, लोगों से दीने ख़ुदा की ठेकेदारी के नाम पर हर तरह की क़ुरबानी का तक़ाज़ा करते हैं और ख़ुद किसी तरह की क़ुरबानी का इरादा नहीं करते हैं उनकी नज़र में दीने ख़ुदा दुनिया कमाने का बेहतरीन ज़रिया है और यह दरहक़ीक़त बदतरीन तिजारत है के इन्सान दीन की अज़ीम व शरीफ़ दौलत को देकर दुनिया जैसी हक़ीर व ज़लील शै को हासिल करने का मन्सूबा बनाए, ज़ाहिर है के जब दनिदारों में ऐसे किरदार पैदा हो जाते हैं तो दुनियादारों का क्या ज़िक्र है उन्हें तो बहरहाल उससे बदतर होना चाहिये।-)))

120- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें अपनी फ़ज़ीलत का ज़िक्र करते हुए लोगों को नसीहत फ़रमाई है)

ख़ुदा की क़सम- मुझे पैग़ामे इलाही के पहुँचाने, वादाए इलाही के पूरा करने और कलेमाते इलाहिया की मुकम्मल वज़ाहत करने का इल्म दिया गया है। हम अहलेबैत (अ0) के पास हिकमतों के अबवाब और मसाएल की रौशनी मौजूद है , याद रखो, दीन की तमाम शरीअतों का मक़सद एक है और उसके सारे रास्ते दुरूस्त हैं, जो इन रास्तों को इख़्तेयार कर लेगा वह मन्ज़िल तक पहुंच भी जाएगा और फ़ायदा भी हासिल कर लेगा और जो रास्ते ही में ठहर जाएगा वह बहक भी जाएगा और शर्मिन्दा भी होगा। अमल करो उस दिन के लिये जिस के लिये ज़ख़ीरे फ़राहम किये जाते हैं और जिस दिन नीयतों का इम्तेहान होगा और जिसको अपनी मौजूद अक़्ल फ़ायदा न पहुँचाए उसे दूसरों की ग़ायब और दूरतरीन अक़्ल क्या फ़ायदा पहुंचा सकती है। इस आगणन से डरो जिसकी तपिश शदीद, गहराई बईद, आराइश हदीद और पीने की शै सदीद (पीप) है। याद रखो, वह ज़िक्रे ख़ैर जो परवरदिगार किसी इन्सान के लिये बाक़ी रखता है वह उस माल से कहीँ ज़्यादा बेहतर होता है जिसे इन्सान उन लोगों के लिये छोड़ जाता है जो तारीफ़ तक नहीं करते हैं।

121-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

जब लैलतलहरीर के बाद आपके असहाब में से एक शख़्स ने उठकर कहा के आपने पहले हमें हकम बनाने से रोका और फिर उसी का हुक्म दे दिया तो आखि़र इन दोनों में से कौन सी बात सही थी? तो आपने हाथ पर हाथ मारकर फ़रमाया, अफ़सोस यही उसकी जज़ा होती है जो अहद व पैमान को नज़र अन्दाज़ कर देता है। याद रखो अगर मैं तुमको इस नागवार अम्र (जंग) पर मामूर कर देता जिसमें यक़ीनन अल्लाह ने तुम्हारे लिये ख़ैर रखा था, इस तरह के तुम सीधे रहते तो तुम्हें हिदायत देता और टेढ़े हो जाते तो सीधा कर देता और इन्कार करते तो इसका इलाज करता तो यह इन्तेहाई मुस्तहकम तरीक़ए कार होता, लेकिन यह काम किसके ज़रिये करता और किसके भरोसे पर करता। मैं तुम्हारे ज़रिये क़ौम का इलाज करना चाहता था लेकिन तुम्हें तो मेरी बीमारी हो, यह तो ऐसा ही होता जैसे कांटे से कांटा निकाला जाए, जबके इसका झुकाव उसी की तरफ़ हो। ख़ुदाया! गवाह रहना के इस मूज़ी मर्ज़ के इतबा आजिज़ आ चुके हैं और इस कुएं से रस्सी निकालने वाले थक चुके हैं।

कहाँ हैं वह लोग जिन्हें इस्लाम की दावत दी गई तो फ़ौरत क़ुबूल कर ली और उन्होंने क़ुरान को पढ़ा तो बाक़ाएदा अमल भी किया और जेहाद के लिये आमादा किये गए तो इस तरह शौक़ से आगे बढ़े जिस तरह ऊंटनी अपने बच्चों की तरफ़ बढ़ती है।

(((- मक़सद यह है के तुम लोगों ने मुझसे इताअत का अहद व पैमान किया था लेकिन जब मैंने सिफ़्फ़ीन में जंग जारी रखने पर इसरार किया तो तुमने नैज़ों पर क़ुरआन देखकर जंग बन्दी का मुतालबा कर दिया और अपने अहद व पैमान को नज़रअन्दाज़ कर लिया, ज़ाहिर है के ऐसे एक़दाम का ऐसा ही नतीजा होता है जो सामने आ गया तो अब फ़रयाद करने का क्या जवाज़ है?-)))

मैंने तलवारों को न्यामों से निकाल लिया और दस्त दस्त, सफ़ ब सफ़ आगे बढ़कर तमाम एतराफ़े ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। उनमें से बाज़ चले गये और बाज़ बाक़ी रह गये। उन्हें न ज़िन्दगी की बशारत से दिलचस्पी थी और न मुर्दों की ताज़ियत से। उनकी आंखें ख़ौफ़े ख़ुदा में गिरया से सफ़ेद हो गई थीं, पेट रोज़ों से धंस गए थे, होंट दुआ करते-करते ख़ुश्क हो गए थे, चेहरे शब-बेदारी से ज़र्द हो गए थे और चेहरों पर ख़ाकसारी की गर्द पड़ी हुई थी। यही मेरे पहले वाले भाई थे जिनके बारे में हमारा यक़ीन है के हम इनकी तरफ़ प्यासों की तरह निगाह करें और इनके फ़िराक़ में अपने ही हाथ काटें।

यक़ीनन शैतान तुम्हारे लिये अपनी राहों को आसान बना देता है और चाहता है के तुम एक-एक करके तुम्हारी सारी गिरहें खोल दे, वह तुम्हें इज्तेमाअ के बजाए इफ़तेराक़ देकर फ़ितनों में मुब्तिला करना चाहता है लेहाज़ा इसके ख़यालात और इसकी झाड़ फूंक से मुंह मोड़े रहो और उस शख़्स की नसीहत क़ुबूल करो जो तुम्हें नसीहत का तोहफ़ा दे रहा है और अपने दिल में इसकी गिरह बांध लो।

122- आपका इरशादे गिरामी

(जब आप ख़वारिज के उस पड़ाव की तरफ़ तशरीफ़ ले गए जो तहकीम के इन्कार पर अड़ा हुआ था और फ़रमाया)

क्या तुम सब हमारे साथ सिफ़्फ़ीन में थे? लोगों ने कहा बाज़ अफ़राद थे और बाज़ नहीं थे! फ़रमाया तो तुम दो हिस्सों में तक़सीम हो जाओ, सिफ़्फ़ीन वाले अलग और ग़ैर सिफ़्फ़ीन वाले अलग, ताके मैं हर एक से उसके हाल के मुताबिक़ गुफ़्तगू कर सकूँ।

इसके बाद क़ौम से पुकारकर फ़रमाया तुम सब ख़ामोश हो जाओ और मेरी बात सुनो और अपने दिलों को भीं मेरी तरफ़ मुतवज्जो रखो ताके अगर मैं किसी बात की गवाही तलब करूं तो हर शख़्स अपने इल्म के मुताबिक़ जवाब दे सके, (यह कहकर आपने एक तवील गुफ़्तगू फ़रमाई जिसका एक हिस्सा यह था)

ज़रा बतलाओ के जब सिफ़्फ़ीन वालों ने हीला व मक्र और जाल व फ़रेब से नैज़ों पर क़ुरआन बलन्द कर दिये थे तो क्या तुमने यह नहीं कहा था के यह सब हमारे भाई और हमारे साथ के मुसलमान हैं। अब हमसे माफ़ी के तलबगार हैं और किताबे ख़ुदा से फैसला चाहते हैं लेेहाज़ा मुनासिब यह है के इनकी बात मान ली जाय और उन्हें सांस लेने का मौक़ा दे दिया जाए। मैंने तुम्हें समझाया था के इसका ज़ाहिर ईमान है लेकिन बातिन सिर्फ ज़ुल्म और तादी है। इसकी इब्तेदा रहमत व राहत है लेकिन इसका अन्जाम शर्मिन्दगी और निदामत है लेहाज़ा अपनी हालत पर क़ायम रहो और अपने रास्ते को मत छोड़ो और जेहाद पर दांतों को भींचे रहो और किसी बकवास करने वाले की बकवास को मत सुनो के उसके क़ुबूल कर लेने में गुमराही है और नज़रअन्दाज़ कर देने में ज़िल्लत है। लेकिन जब तहकीम की बात तय हो गई तो मैंने देखा के तुम्हीं लोगों ने उसकी रज़ामन्दी दी थी हालांके ख़ुदा गवाह है के अगर मैंने उससे इन्कार कर दिया होता तो उससे मुझ पर कोई फ़रीज़ा आयद न होता और न परवरदिगार मुझे गुनहगार क़रार देता और अगर मैंने उसे इख़्तेयार किया होता तो मैं ही वह साहेबे हक़ था जिसका इत्तेबाअ होना चाहिए था के किताबे ख़ुदा मेरे साथ है और जबसे मेरा इसका साथ हुआ है कभी जुदाई नहीं हुई। हम रसूले अकरम (स0) के ज़माने में उस वक़्त जंग करते थे जब मुक़ाबले पर ख़ानदानों के बुज़ुर्ग , बच्चे, भाई बन्द और रिश्तेदार होते थे लेकिन हर मुसीबत व शिद्दत पर हमारे ईमान में इज़ाफ़ा ही होता था और हम अम्रे इलाही के सामने सरे तस्लीम ख़म किये रहते थे। राहे हक़ में बढ़ते ही जाते थे और ज़ख़्मों की टीस पर सब्र ही करते थे मगर अफ़सोस के अब हमें मुसलमान भाइयों से जंग करना पड़ रही है के इनमें कजी, इन्हेराफ़, शुबह और ग़लत तावीलात का दख़ल हो गया है लेकिन इसके बावजूद अगर कोई रास्ता निकल आए जिससे ख़ुदा हमारे इन्तेशार को दूर कर दे और हम एक-दूसरे से क़रीब होकर रहे सहे, ताल्लुक़ात को बाक़ी रख सकें तो हम इसी रास्ते को पसन्द करेंगे और दूसरे रास्ते से हाथ रोक लेंगे।

123- आपका इरशादे गिरामी

(जो सिफ़्फ़ीन के मैदान में अपने असहाब से फ़रमाया था)

देखो! अगर तुमसे कोई शख़्स भी जंग के वक़्त अपने अन्दर क़ूवते क़ल्ब और अपने किसी भाई में कमज़ोरी का एहसास करे तो उसका फ़र्ज़ है के अपने भाई से इसी तरह दिफ़ाअ करे जिस तरह अपने नफ़्स से करता है के ख़ुदा चाहता तो उसे भी वैसा ही बना देता लेकिन उसने तुम्हें एक ख़ास फ़ज़ीलत अता फ़रमाई है।

देखो! मौत एक तेज़ रफ़्तार तलबगार है जिससे न कोई ठहरा हुआ बच सकता है और न भागने वाला बच निकल सकता है और बेहतरीन मौत शहादत है। क़सम है उस परवरदिगार की जिसके क़ब्ज़ए क़ुदरत में फ़रज़न्दे अबूतालिब की जान है के मेरे लिये तलवार की हज़ार ज़र्बें इताअते ख़ुदा से अल होकर बिस्तर पर मरने से बेहतर हैं। गोया मैं देख रहा हूँ के तुम लोग वैसी ही आवाज़ें निकाल रहे हो जैसी सौ समारों के जिस्मों की रगड़ से पैदा होती हैं के न अपना हक़ हासिल कर रहे हो और न ज़िल्लत का दिफ़ाअ कर रहे हो जबके तुम्हें रास्ते पर खुला छोड़ दिया गया है और निजात इसीके लिये है जो जंग में कूद पड़े और हलाकत उसी के लिये है जो देखता ही रह जाए।

124- आपका इरशादे गिरामी

(अपने असहाब को जंग पर आमादा करते हुए)

ज़िरहपोश अफ़राद को आगे बढ़ाओ और बेज़िरह लोगों को पीछे रखो। दांतों को भींच लो के इससे तलवारें सर से उचट जाती हैं और नैज़ों के एतराफ़ से पहलूओं को बचाए रखो के इससे नैज़ों के रूख़ पलट जाते हैं। निगाहों को नीचा रखोे के इससे क़ूवते क़ल्ब में इज़ाफ़ा होता है और हौसले बलन्द रहते हैं। आवाज़ें धीमी रखो के इससे कमज़ोरी दूर होती है। देखो अपने परचम का ख़याल रखना। वह न झुकने पाए और न अकेला रहने पाए। उसे सिर्फ़ बहादुर अफ़राद और इज़्ज़त के पासबानों के हाथों में रखना के मसाएब पर सब्र करने वाले ही परचमों के गिर्द जमा होते हैं और दाहिने बाएं, आगे-पीछे हर तरफ़ से घेरा डालकर उसका तहफ़्फ़ुज़ करते हैं, न इससे पीछे रह जाते हैं के इसे दुश्मनों के हवाले कर दें और न आगे बढ़ जाते हैं के वह तन्हा रह जाए।

देखो। हर शख़्स अपने मुक़ाबिल का ख़ुद मुक़ाबला करे और अपने भाई का भी साथ दे और ख़बरदार अपने मुक़ाबिल को अपने साथी के हवाले न कर देना के इस पर यह और इसका साथी दोनों मिलकर हमला कर दें।

ख़ुदा की क़सम अगर तुम दुनिया की तलवार से बचकर भाग भी निकले तो आखि़रत की तलवार से बचकर नहीं जा सकते हो। फिर तुम तो अरब के जवाँमर्द और सरबलन्द अफ़राद हो। तुम्हें मालूम है के फ़रार में ख़ुदा का ग़ज़ब भी है और हमेशा की ज़िल्लत भी है। फ़रार करने वाला न अपनी उम्र में इज़ाफ़ा कर सकता है और न अपने वक़्त के दरम्यान हाएल हो सकता है। कौन है अल्लाह की तरफ़ यूँ जाए जिस तरह प्यासा पानी की तरफ़ जाता है। जन्नत नैज़ों के एतराफ़ के साये में है आज हर एक के हालात का इम्तेहान हो जाएगा। ख़ुदा की क़सम मुझे दुश्मनों से जंग का इष्तेयाक़ उससे ज़्यादा है जितना उन्हें अपने घरों का इष्तेयाक़ है। ख़ुदाया यह ज़ालिम अगर हक़ को रद कर दें तो उनकी जमाअत को परागन्दा कर दे, उनके कलमे को मुत्तहिद न होने दे, उनको उनके किये की सज़ा दे दे के यह उस वक़्त तक अपने मौक़फ़ से न हटेंगे जब तक नैज़े इनके जिस्मों में नसीम सहर के रास्ते न बना दें और तलवारें उनके सरों को शिगाफ़्ता, हड्डियों को चूर-चूर और हाथ पैर को शिकस्ता न बना दें और जब तक उन पर लशकर के बाद लशकर और सिपाह के बाद सिपाह हमलावर न हो जाएं और उनके शहरों पर मुसलसल फ़ौजों की यलग़ार हो और घोड़े उनकी ज़मीनों को आखि़र तक रौन्द न डालें और उनकी चरागाहों और सब्ज़े जारों को पामाल न कर दें।

(((- हक़ीक़ते अम्र यह है के इन्सान की ज़िन्दगी की हर तशनगी का इलाज जन्नत के अलावा कहीं नहीं है, यह दुनिया सिर्फ़ ज़र व रियात की तकमील के लिये बनाई गई है और बड़े से बड़े इन्सान का हिस्सा भी उसके ख़्वाहिशात से कमतर है वरना सारे रूए ज़मीन पर हुकूमत करने वाला भी उससे बेशतर का ख़्वाहिश मन्द रहता और दामाने ज़मीन में उससे ज़्यादा वुसअत नहीं है। यह सिर्फ़ जन्नत है जिसके बारे में यह एलान किया गया है के वहां हर ख़्वाहिश नफ़्स और लज़्ज़ते निगाह की तस्कीन का सामान मौजूद है। अब सवाल सिर्फ़ यह रह जाता है के वहाँ तक जाने का रास्ता क्या है। मौलाए कायनात ने अपने साथियों को इसी नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जो किया है के जन्नत तलवारों के साये के नीचे है और इसका रास्ता सिर्फ़ मैदाने जेहाद है लेहाज़ा मैदाने जेहाद की तरफ़ उस तरह बढ़ो जिस तरह प्यासा पानी की तरफ़ बढ़ता है के इसी राह में हर जज़्बए दिल की तस्कीन का सामान पाया जाता है और फिर दीने ख़ुदा की सरबलन्दी से बालातर कोई शरफ़ भी नहीं है।-)))

125- आपका इरशादे गिरामी

(तहकीम के बारे में, हकमीन की दास्तान सुनने के बाद)

याद रखो, हमने अफ़राद को हकम नहीं बनाया था बल्के क़ुरआन को हकम क़रार दिया था और क़ुरान वही किताब है जो दफ़्तियों के दरम्यान मौजूद है लेकिन मुश्किल यह है के यह ख़ुद नहीं बोलता है और उसे तर्जुमान की ज़रूरत है और तर्जुमान अफ़राद ही होते हैं। इस क़ौम ने हमें दावत दी के हम क़ुरान से फ़ैसले कराएं तो हम तो क़ुरान से रूगर्दानी करने वाले नहीं थे जबके परवरदिगार ने फ़रमाया है के अपने खि़लाफ़त को ख़ुदा व रसूल की तरफ़ मोड़ दो और ख़ुदा की तरफ़ मोड़ने का मतलब उसकी किताब से फ़ैसला कराना ही है और रसूल (स0) की तरफ़ मोड़ने का मक़सद भी सुन्नत का इत्तेबाअ करना है और यह तय है के अगर किताबे ख़ुदा से सच्चाई के साथ फ़ैसला किया जाए तो उसके सबसे ज़्यादा हक़दार हम ही हैं और इसी तरह सुन्नते पैग़म्बर के लिये सबसे ऊला व अक़रब हम ही हैं।

अब तुम्हारा यह कहना के आपने तहकीम की मोहलत क्यों दी? तो किसका राज़ यह है के मैं चाहता था के बेख़बर बाख़बर हो जाए और बाख़बर तहक़ीक़ कर ले के शायद परवरदिगार इस वक़्फ़े में उम्मत के कामो की इस्लाह कर दे और इसका गला न घोंटा जाए के तहक़ीक़े हक़ से पहले गुमराही के पहले ही मरहले में भटक जाएं और याद रखो के परवरदिगार के नज़दीक बेहतरीन इन्सान वह है जिसे हक़ पर अमल दरआमद करना (चाहे इसमें नुक़सान ही क्यों न हो) बातिल पर अमल करने से ज़्यादा महबूब हो (चाहे इसमें फ़ायदा ही क्यों न हो), तो आखि़र तुम्हें किधर ले जाया जा रहा है और तुम्हारे पास शैतान किधर से आ गया है, देखो इस क़ौम से जेहाद के लिये तैयार हो जाओ जो हक़ के मामले में इस तरह सरगर्दां है के उसे कुछ दिखाई ही नहीं देता है और बातिल पर इस तरह अक़ारद कर दी गई है के सीधे रास्ते पर जाना ही नहीं चाहती है। यह किताबे ख़ुदा से अलग और वह राहे हक़ से मुन्हरिफ़ हैं मगर तुम भी क़ाबिले एतमाद अफ़राद और लाएक़ तमस्सुक शरफ़ के पासबान नहीं हो। तुम आतिशे जंग के भड़काने का बदतरीन ज़रिया हो, तुम पर हैफ़ है मैंने तुमसे बहुत तकलीफ़ उठाई है, तुम्हें अलल एलान भी पुकारा है और आहिस्ता भी समझाया है लेकिन तुम न आवाज़े जंग पर सच्चे शरीफ़ साबित हुए और न राज़दारी पर क़ाबिले एतमाद साथी निकले।

(((- हज़रत ने तहकीम का फ़ैसला करते हुए दोनों अफ़राद को एक साल की मोहलत दी थी ताके इस दौरान नावाक़िफ़ अफ़राद हक़ व बातिल की इत्तेलाअ हासिल कर लें और जो किसी मिक़दार में हक़ से आगाह हैं वह मज़ीद तहक़ीक़ कर लें, ऐसा न हो के बेख़बर अफ़राद पहले ही मरहले में गुमराह हो जाएं और अम्र व आस की मक्कारी का शिकार हो जाएं। मगर अफ़सोस यह है के हर दौर में ऐसे अफ़राद ज़रूर रहते हैं जो अपने अक़्ल व फ़िक्र को हर एक से बालातर तसव्वुर करते हैं और अपने क़ाएद के फ़ैसलों को भी मानने के लिये तैयार नहीं होते हैं और खुली हुई बात है के जब इमाम (अ0) के साथ ऐसा बरताव किया गया है तो नाएब इमाम या आलिमे दीन की क्या हक़ीक़त है ?-)))

126- आपका इरशादे गिरामी

(जब अताया की बराबरी पर एतराज़ किया गया)

क्या तुम मुझे इस बात पर आमादा करना चाहते हो के मैं जिन रिआया का ज़िम्मेदार बनाया गया हूँ उन पर ज़ुल्म करके चन्द अफ़राद की कमक हासिल कर लूँ। ख़ुदा की क़सम जब तक इस दुनिया का क़िस्सा चलता रहेगा और एक सितारा दूसरे सितारे की तरफ़ झुकता रहेगा ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता है। यह माल अगर मेरा ज़ाती होता जब भी मैं बराबर से तक़सीम करता, चे जाएका यह माल माले ख़ुदा है और याद रखो के माल का नाहक़ अता कर देना भी इसराफ़ और फ़िज़ूल ख़र्ची में शुमार होता है और यह काम इन्सान को दुनिया में बलन्द भी कर देता है तो आख़ेरत में ज़लील कर देता है। लोगों में मोहतरम भी बना देता है तो ख़ुदा की निगाह में पस्ततर बना देता है और जब भी कोई शख़्स माल को नाहक़ या ना अहल पर सर्फ़ करता है तो परवरदिगार उसके शुक्रिया से भी महरूम कर देता है और उसकी मोहब्बत का रूख़ भी दूसरों की तरफ़ मुड़ जाता है। फ़िर अगर किसी दिन पैर फैल गए और उनकी इमदाद का भी मोहताज हो गया तो वह बदतरीन दोस्त और ज़लीलतरीन साथी ही साबित होते हैं।

127- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें बाज़ एहकामे दीन के बयान के साथ ख़वारिज के शुबहात का एज़ाला और हकमीन के तोड़ का फ़ैसला बयान किया गया है।)

अगर तुम्हारा इसरार इसी बात पर है के मुझे ख़ताकार और गुमराह क़रार दो तो सारी उम्मते पैग़म्बर (स0) को क्यों ख़ताकार दे रहे हो और मेरी “ग़लती”का मवाख़ेज़ा उनसे क्यों कर रहे हो और मेरे “गुनाह”की बिना पर उन्हें क्यों काफ़िर क़रार दे रहे हो। तुम्हारी तलवारें तुम्हारे कान्धों पर रखी हैं जहां चाहते हो ख़ता, बेख़ता चला देते हो और गुनहगार और बेगुनाह में कोई फ़र्क़ नहीं करते हो हालांके तुम्हें मालूम है के रसूले अकरम (स0) ने ज़िनाए महज़ा के मुजरिम को संगसार किया तो उसकी नमाजे़ जनाज़ा भी पढ़ी थी और उसके अहल को वारिस भी क़रार दिया था और इसी तरह क़ातिल को क़त्ल किया तो उसकी मीरास भी तक़सीम की और चोर के हाथ काटे या ग़ैर शादी शुदा ज़िनाकार को कोड़े लगवाए तो उन्हें माले ग़नीमत में हिस्सा भी दिया और उनका मुसलमान औरतों से निकाह भी कराया गोया के आपने इन लोगों के गुनाहों का मवाख़ेज़ा किया और उनके बारे में हक़े खुदा को क़ायम किया लेकिन इस्लाम में उनके हिस्से को नहीं रोका और न उनके नाम को अहले इस्लाम की फ़ेहरिस्त से ख़ारिज किया। मगर बदतरीन अफ़राद हो के शैतान तुम्हारे ज़रिये अपने मक़ासिद को हासिल कर लेता है और तुम्हें सहराए ज़लालत में डाल देता है और अनक़रीब मेरे बारे में दो तरह के अफ़राद गुमराह होंगे- मोहब्बत में ग़लू करने वाले जिन्हें मोहब्बत ग़ैरे हक़ की तरफ़ ले जाएगी और अदावत में ज़्यादती करने वाले जिन्हें अदावत बातिल की तरफ़ खींच ले जाएगी और बेहतरीन अफ़राद वह होंगे जो दरम्यानी मन्ज़िल पर हों , लेहाज़ा तुम भी इसी रास्ते को इख़्तेयार करो और इसी नज़रिये की जमाअत के साथ हो जाओ के अल्लाह का हाथ इसी जमाअत के साथ है और ख़बरदार तफ़रिक़े की कोशिश न करना के जो ईमानी जमाअत से कट जाता है वह उसी तरह शैतान का शिकार हो जाता है जिस तरह गल्ले से अलग हो जाने वाली भेड़ भेड़िये की नज़र हो जाती है। आगाह हो जाओ के जो भी इस इन्हेराफ़ का नारा लगाए उसे क़त्ल कर दो चाहे वह मेरे ही अमामे के नीचे क्यों न हो। इन दोनों अफ़राद को हकम बनाया गया था ताके उन उमूर को ज़िन्दा करें जिन्हें क़ुरआन ने ज़िन्दा किया है और इन उमूर को मुर्दा करें जिन्हें क़ुरान ने मुर्दा बना दिया है और ज़िन्दा करने के मानी इस पर इत्तेफ़ाक़ करने और मुर्दा बनाने के मानी इससे अलग हो जाने के हैं। हम इस बात पर तैयार थे के अगर क़ुरान हमें दुश्मनों की तरफ़ खींच ले जाएगा तो हम उनका इत्तेबाअ कर लेंगे और अगर उन्हें हमारी तरफ़ ले आएगा तो उन्हें आना पड़ेगा लेकिन ख़ुदा तुम्हारा बुरा करे, इस बात में मैंने कोई ग़लत काम तो नहीं किया और न तुम्हें कोई धोका दिया है और न किसी बात को शुबह में रखा है। लेकिन तुम्हारी जमाअत ने दो आदमियों के इन्तेख़ाब पर इत्तेफ़ाक़ कर लिया और मैंने उन पर शर्त लगा दी के क़ुरान के हुदूद से तजावुज़ नहीं करेंगे मगर वह दोनों क़ुरान से मुन्हरिफ़ हो गए और हक़ को देख भाल कर नज़रअन्दाज कर दिया और असल बात यह है के इनका मक़सद ही ज़ुल्म था और वह उसी रास्ते पर चले गए जबके मैंने उनकी ग़लत राय और ज़ालिमाना फ़ैसले से पहले ही फ़ैसले में अदालत और इरादाए हक़ की शर्त लगा दी थी।