नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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183-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(क़ुदरते ख़ुदा फ़ज़ीलते क़ुरान और वसीयते तक़वा के बारे में)

सारी तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जो बग़ैर देखे भी पहचाना हुआ है और बग़ैर किसी तकान के भी ख़ल्क़ करने वाला है। उसने मख़लूक़ात को अपनी क़ुदरत से पैदा किया और अपनी इज्ज़त की बिना पर उनसे मुतालेबा-ए-अबदीयत किया। वह अपने जूद व करम में तमाम अज़माए आलम से बालातर है। उसी ने इस दुनिया में अपनी मख़लूक़ात को आबाद किया है और जिन व इन्स की तरफ़ अपने रसूल भेजे हैं ताके वह निगाहों से परदा उठा दें और नुक़सानात से आगाह कर दें, मिसालें बयान कर दें और उयूब से बाख़बर कर दें। सेहत व बीमारी के तग़य्युरात से इबरत दिलाने का सामान करें और हलाल व हराम और इताअत करने वालों के लिये मुहय्या शुदा अज्र और नाफ़रमानों के लिये अज़ाब से आगाह कर दें। मैं उसकी ज़ाते अक़दस की इसी तरह हम्द करता हूं जिस तरह उसने बन्दों से मुतालबा किया है और हर “शै की एक मिक़दार मुअय्यन है और हर क़द्र की एक मोहलत रखी है और हर तहरीर की एक मेयार मुअय्यन की है। देखो क़ुरान अम्र करने वाला भी है और रोकने वाला भी। वह ख़ामोशभी है और गोया भी, वह मख़लूक़ात पर परवरदिगार की हुज्जत है।

लोगों से अहद लिया गया है और उनके नफ़्सों को उसका पाबन्द बना दिया गया है। मालिक ने उसके नूर को तमाम बनाया है और उसके दीन को कामिल क़रार दिया है। अपने पैग़म्बर को उस वक़्त अपने पास बुलाया है ज बवह उसके एहकाम के ज़रिये लोगों को हिदायत कर चुके थे लेहाज़ा परवरदिगार की अज़मत का एतराफ़ इस तरह करो जिस तरह उसने अपनी अज़मत का ऐलान किया है के उसने दीन की किसी बात को मख़फ़ी नहीं रखा है और कोई ऐसी पसन्दीदा या न पसन्दीदा बात नहीं छोड़ी है जिसके लिये वाज़ेअ निशाने हिदायत न बता दिया हो या कोई मोहकम आयत न नाज़िल कर दी हो जिसके ज़रिये रोका जाए या दावत दी जाए। उसकी रिज़ा और नाराज़गी मुस्तक़बिल में भी वैसी ही रहेगी जिस तरह वक़्ते नुज़ूल थी। और यह याद रखो के वह तुमसे किसी ऐसी बात पर राज़ी न होगा जिस पर पहले वालों से नाराज़ हो चुका है और न किसी ऐसी बात से नाराज़ होगा जिस पर पहले वालों से राज़ी रह चुका है। तुम बिल्कुल वाज़ेअ निशाने क़दम पर चल रहे हो और उन्हीं बातों को दोहरा रहे हो जो पहले वाले कह चुके हैं। उसने तुम्हें दुनिया की ज़हमतों से बचा लिया है और तुम्हें शुक्रे खुदा पर आमादा किया है और तुम्हारी ज़बानों से ज़िक्र का मुतालबा किया है।

तुम्हें तक़वा की नसीहत की है और उसे अपनी मर्ज़ी की हद आखि़र क़रार दिया है और यही मख़लूक़ात से उसका मुतालेबा है लेहाज़ा उससे डरो जिसकी निगाह के सामने हो और जिसके हाथों में तुम्हारी पेशानी है और जिसके क़ब्ज़ए क़ुदरत में करवटें बदल रहे हो। और अगर किसी बात पर पर्दा डालना चाहो तो वह जानता है और अगर एलान करना चाहो तो वह लिख लेता है और तुम्हारे ऊपर मोहतरम कातिबे आमाल मुक़र्रर कर दिये हैं जो किसी हक़ को साक़ित नहीं कर सकते हैं और किसी बातिल को सब्त नहीं कर सकते हैं। और याद रखो के जो शख़्स भी तक़वाए इलाही इख़्तेयार करता है परवरदिगार उसके लिये फ़ित्नों से बाहर निकल जाने का रास्ता बना देता है और उसे तारीकियों में नूर अता कर देता है। उसके नफ़्स के तमाम मुतालबात के दरम्यान दाएमी ज़िन्दगी अता करता है और करामत की मन्ज़िल में नाज़िल करता है। उस घर में जिसको अपने लिये पसन्द फ़रमाया है। जिसका साया उसका अर्श है और जिसका नूर इसकी ज़िया है। इसके ज़ायेरीने मक्का हैं और इसके रफ़क़ाए। अब अपनी बाज़गश्त की तरफ़ सबक़त करो और मौत से पहले सामान मुहैया कर लो के अनक़रीब लोगों की उम्मीदें खत्म हो जाने वाली हैं और मौत का फन्दा गले में पड़ जाने वाला है जब तौबा का दरवाज़ा भी बन्द हो जाएगा, अभी तुम उस मन्ज़िल में हो जिसकी तरफ़ पहले वाले लौट कर आने की आरज़ू कर रहे हैं और तुम मुसाफ़िर हो और इस घर से सफ़र करने वाले हो जो तुम्हारा वाक़ेई घर नहीं है। तुम्हें कूच की इत्तेलाअ दी जा चुकी है और सामाने सफर इकट्ठा करने का हुक्म दिया जा चुका है और यह याद रखो के यह ज़म नाज़ूक जिल्द आतिशे जहन्नुम को बरदाश्त नहीं कर सकती है। लेहाज़ा ख़ुदारा अपने नफ़्सों पर रहम करो के तुम इसे दुनिया के मसाएब में आज़मा चूके हो। क्या तुमने नहीं देखा है के तुम्हारा क्या आलम होता है जब एक कांटा चुभ जाता है या एक ठोकर लगने से ख़ून निकल आता है, या जलती हुई रेत तपने लगती है (तपिश से जलने पर किस तरह बेचैन होकर चीख़ता है) तो फिर उस वक़्त क्या होगा जब तुम जहन्नुम के दो तबक़ों के दरम्यान होगे। दहकते हुए पत्थरों के दहकते तबक़ों में और शयातीन के हमसाये में। क्या तुम्हें यह मालूम है के मालिक (दारोग़ाए जहन्नम) जब आग पर ग़ज़बनाक होता है तो उसके अजज़ा एक दूसरे से टकराने लगते हैं और जब इसे झिड़कता है तो वह घबराकर (तिलमिलाकर) दरवाज़ों के दरम्यान उछलने लगती है।

ऐ पीरे कुहन साल (बूढ़े) के जिस पर बढ़ापा छा चुका है। उस वक़्त तेरा क्या आलम होगा जब आग के तौक़ गरदन की हड्डियों में ग़ुस जाएंगे और हथकड़ियां हाथों में गड़कर कलाइयों का गोश्त तक खा जाएंगी।

अल्लाह के बन्दों! अल्लाह को याद करो उस वक़्त जबके तुम सेहत के आलम में हो क़ब्ल इसके के बीमार हो जाओ और वुसअत के आलम में क़ब्ल इसके के तंगी का शिकार हो जाओ अपनी गर्दनों को आतिशे जहन्नम से आज़ाद कराने की फ़िक्र करो क़ब्ल इसके के वह इस तरह गिरवीदा हो जाएं के फिर चढ़ाई न जा सकें। अपनी आंखों को बेदार रखो अपने शिकम को लाग़र बनाओ और अपने पैरों को राहे अमल में इस्तेमाल करो। अपने माल को ख़र्च करो और अपने जिस्म को अपनी रूह पर क़ुरबार कर दो। ख़बरदार इस राह में कंजूसी न करना के परवरदिगार ने साफ़ साफ़ फ़रमा दिया है के “अगर तुम अल्लाह की नुसरत करोगे तो अल्लाह भी तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हारे क़दमों को सिबात इनायत फ़रमाएगा”उसने यह भी फ़रमा दिया है के “कौन है जो परवरदिगार को बेहतरीन क़र्ज़ दे ताके वह उसे दुनिया में चैगुना बना दे और इसके लिये बेहतरीन जज़ा है”तो उसने तुमसे कमज़ोरी की बिना पर नुसरत का मुतालबा नहीं किया है और न ग़ुरबत की बिना पर क़र्ज़ मांगा है। जबके ज़मीन व आसमान के सारे ख़ज़ाने उसी की मिल्कियत हैं और वह ग़नी हमीद है”। वह चाहता है के तुम्हारा इम्तेहान ले के तुम में हसन अमल के एतबार से सबसे बेहतरीन कौन है। अब अपने आमाल के साथ सबक़त करो ताके अल्लाह के घर में उसके हमसाये के साथ ज़िन्दगी गुज़ारो। जहां मुरसलीन की रिफ़ाक़त होगी और मलाएका ज़ियारत करेंगे और कान जहन्नुम की आवाज़ सुनने से भी महफ़ूज़ रहेंगे और बदन किसी तरह की तकान और ताब से भी दो-चार न होंगे। “यही वह फ़ज़्ले ख़ुदा है के जिसको चाहता है इनायत कर देता है और अल्लाह बेहतरीन फ़ज़्ल करने वाला है।”मैं वह कह रहा हूं जो तुम सुन रहे हो। इसके बाद अल्लाह ही मददगार है मेरा भी और तुम्हारा भी और वही हमारे लिये काफ़ी है और वही बेहतरीन कारसाज़ है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

184-आपका इरशादे गिरामी

(जो आपने बुर्ज में मसहरे ताई ख़ारेजी से फ़रमाया जब यह सुना के वह कह रहा है के ख़ुदा के अलावा किसी को फ़ैसले का हक़ नहीं है)

ख़ामोशहो जा। ख़ुदा तेरा बुरा करे ऐ टूटे हुए दांतों वाले। ख़ुदा शाहिद है के जब हक़ का ज़हूर हुआ था उस वक़्त तेरी शख़्सियत कमज़ोर और तेरी आवाज़ बेजान थी। लेकिन जब बातिल की आवाज़ बलन्द हुई तो तू बकरी की सींग की तरह उभर कर मन्ज़रे आम पर आ गया।

(((-यह एक ख़ारेजी शाएर था जिसने मौलाए कायनात के खि़लाफ़ यह आवाज़ बलन्द की के आपने तहकीम को क़ुबूल करके ग़ैरे ख़ुदा को हकम बना दिया है और इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की हाकमीयत का कोई तसव्वुर नहीं है

हज़रत इमाम आलीमक़ाम (अ0) ने इस फ़ित्ने के दूररस असरात का लेहाज़ करके सख़्त तरीन लहजे में जवाब दिया और क़ाएल की औक़ात का एलान कर दिया के शख़्स बातिल परस्त और हक़ बेज़ार है। वरना उसे इस अम्र का अन्दाज़ा होता के किताबे ख़ुदा से फ़ैसला कराना ख़ुदा की हाकमीयत का इक़रार है इन्कार नहीं है। हाकमीयते ख़ुदा के मुन्किर अम्र व आस जैसे अफ़राद हैं जिन्होंने किताबे ख़ुदा को नज़र अन्दाज़ करके सियासी चालों से फ़ैसला कर दिया और दीने ख़ुदा को यकसर नाक़ाबिले तवज्जो क़रार दे दिया -)))

185-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें हम्दे ख़ुदा, सनाए रसूल (स0) और बाज़ मख़लूक़ात का तज़किरा है)

सारी तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसे न हवास पा सकते हैं और न मकान घेर सकते हैं, न आंखे उसे देख सकती हैं और न परदे उसे छिपा सकते हैं उसने अपने क़दीम होने की तरफ़ मख़लूक़ात के हादिस होने से रहनुमाई की है और उनके वजूद बाद अज़ अदम को अपने वजूदे अज़ल का सबूत बना दिया है और इनकी बाहेमी मुशाबेहत से अपने बेमिसाल होने का इज़हार किया है। वह अपने वादे में सच्चा है और अपने बन्दों पर ज़ुल्म करने से अजल व अरफ़ा है। उसने लोगो में अद्ल का क़याम किया है और फ़ैसलों पर मुकम्मल इन्साफ़ से काम लिया है। अशयाअ के हदूस से अपनी अज़लीयत पर इस्तेदलाल किया है और इन पर आजिज़ी का निशान लगाकर अपनी क़ुदरते कामेला का असबात किया है। अशयाअ के जबदी फ़ना व अदम से अपने दवाम का पता दिया है। वह एक है लेकिन अदद के एतबार से नहीं, दाएमी है लेकिन मुद्दत के एतबार से नहीं और क़ाएम है लेकिन किसी के सहारे नहीं। ज़ेहन उसे क़ुबूल करते हैं लेकिन हवास की बिना पर नहीं और शाहदात उसकी गवाही देते हैं लेकिन इसकी बारगाह में पहुंचने के बाद नही। औहाम इसका अहाता नहीं कर सकते हैं बल्कि वह उनके लिये उन्ही के ज़रिये रौशन हुआ है और उन्हीं के ज़रिये इनके क़ब्ज़े में आने से इन्कार कर दिया है और इसका हकम भी उन्हीं को ठहराया है। वह एतबार से बड़ा नहीं है के उसके एतराफ़ ने फैल कर इसके जिस्म को बड़ा बना दिया है और न ऐसा अज़ीम है के उसकी जसामत ज़्यादा हो और उसने उसके जसद को अज़ीम बना दिया हो, वह अपनी शान में कबीर और अपनी सल्तनत में अज़ीम है।

और मैं गवाही देता हूं के हज़रत मोहम्मद उसके बन्दे और मुख़लिस रसूल और पसन्दीदा अमीन हैं। अल्लाह उन पर रहमत नाज़िल करे। उसने उन्हें नाक़ाबिले इन्कार दलाएल, वाज़ेअ कामयाबी और नुमायां रास्ते के साथ भेजा है और उन्होंने उसके पैग़ाम को वाशगाफ़ अन्दाज़ में पेशकर दिया है और लोगों को सीधे रास्ते की रहनुमाई कर दी है। हिदायत के निशानात क़ायम कर दिये हैं और रोशनी के मिनारे इस्तेवार कर दिये है। इस्लाम की रस्सियों को मज़बूत बना दिया है और ईमान के बन्धनों को मुस्तहकम कर दिया है।

अगर यह लोग इसकी अज़ीम क़ुदरत और वसीअ नेमत में ग़ौर व फ़िक्रर करते तो रास्ते की तरफ़ वापस आ जाते और जहन्नम के अज़ाब से ख़ौफ़ज़दा हो जाते। लेकिन मुश्किल यह है के इनके दिल मरीज़ हैं और इनकी आंखें कमज़ोर हैं। क्या यह एक छोटी सी मख़लूक़ को भी नहीं देख रहे हैं के उसने किस तरह उसकी तख़लीक़ को मुस्तहकम और इसकी तरकीब को मज़बूत बनाया है। इस छोटे से जिस्म में कान और आंखें सब बना दी हैं और इसमें हड्डियां और खाल भी दुरूस्त कर दी है।

ज़रा इस च्यूंटी के छोटे से जिस्म और उसकी लतीफ़ शक्ल व सूरत की बारीकी की तरफ़ नज़र करो जिसका गोशाए चश्म से देखना भी मुश्किल है और फ़िक्रों की गिरफ़्त में आना भी दुशवार है, किस तरह ज़मीन पर रेंगती है और किस तरह अपने रिज़्क़ की तरफ़ लपकती है, दाने को अपने सूराख़ की तरफ़ ले जाती है और फिर वहां मरकज़ पर महफ़ूज़ कर देती है। गर्मी में सर्दी का इन्तेज़ाम करती है और तवानाई के दौर में कमज़ोरी के ज़माने का बन्दोबस्त करती है। इसके रिज़्क़ की कफ़ालत की जा चुकी है और इसी के मुताबिक़ उसे बराबर रिज़्क़ मिल रहा है।

(((-एक छोटी सी मख़लूक़ च्यूंटी में यह दूरअन्देशी और इस क़द्र तन्ज़ीम व तरतीब और एक अशरफ़ुल मख़लूक़ात में इस क़द्र ग़फ़लत और तग़ाफ़िल किस क़द्र हैरत अंगेज़ है और उससे ज़्यादा हैरत अंगेज़ क़िस्साए जनाबे सुलेमान है जहां च्यूंटी ने लशकरे सुलेमान को देखकर आवाज़ दी के फ़ौरन अपने अपने सूराख़ों में दाखि़ल हो जाओ के कहीं लशकरे सुलेमान तुम्हें पामाल न कर दे और उसे एहसास भी न हो। गोया के एक च्यूंटी के दिल में क़ौम का इस क़द्र दर्द है और उसे सरदारे क़ौम होने के एतबार से इस क़द्र ज़िम्मेदारी का एहसास है के क़ौम तबाह न होने पाए और आज आलम इस्लाम व इन्सानियत इस क़द्र तग़ाफ़ुल का शिकार हो गया है के किसी के दिल में क़ौम का दर्द नहीं है बल्कि हक्काम क़ौम के कान्धों पर अपने जनाज़े उठा रहे हैं और उनकी क़ब्रों पर अपने ताजमहल तामीर कर रहे हैं।-)))

न एहसान करने वाला ख़ुदा उसे नज़र अन्दाज़ करता है और न साहेबे जज़ा व अता उसे महरूम रखता है चाहे वह ख़ुश्क पत्थर के अन्दर हो या जमे हुए संगे ख़ारा के अन्दर। अगर तुम उसकी ग़िज़ा को पस्त व बलन्द नालियों और उसके जिस्म के अन्दर शिकम की तरफ़ झुके हुए पस्लियों के किनारों और सर में जगह पाने वाले आंख और कान को देखोगे तो तुम्हें वाक़ेअन इसकी तख़लीक़ पर ताअज्जुब होगा और इसकी तौसीफ़ से आजिज़ हो जाओगे। बलन्द व बरतर है वह ख़ुदा जिसने इस जिस्म को उसके पैरों पर क़ायम किया है और उसकी तामीर इन्हीं सुतूनों पर खड़ी की है। न इसकी फ़ितरत (बनाने में) में किसी ख़ालिक़ ने हिस्सा लिया है और न इसके तख़लीक़ में किसी क़ादिर ने कोई मदद की है। और अगर तुम फ़िक्रर के तमाम रास्तों को तय करके इसकी इन्तेहा तक पहुंचना चाहोगे तो एक ही नतीजा हासिल होगा के जो च्यूंटी का ख़ालिक़ है वही दरख़्त का भी परवरदिगार है। इसलिये के हर एक तख़लीक़ में यही बारीकी है और हर जानदार का दूसरे से निहायत दरजाए बारीक ही इख़तेलाफ़ है। इसकी बारगाह में अज़ीम व लतीफ़, सक़ील व ख़फ़ीफ़, क़वी व ज़ईफ़ सब एक ही जैसे हैं।

यही हाल आसमान और फ़िज़ा और हवा और पानी का है, के चाहो शम्स व क़मर को देखो या नबातात व शजर को, पानी और पत्थर पर निगाह करो या शबो रोज़ की आमद व रफ़्त पर, दरयाओं के बहाव को देखो या पहाड़ों की कसरत और च्यूंटियों के तूलवार तफ़ाअ को, लुग़ात के इख़तेलाफ़ को देखो या ज़बानों के इफ़तेराक़ को, सब उसकी क़ुदरते कामेला के बेहतरीन दलाएल हैं। हैफ़ है उन लोगों पर जिन्होंने तक़दीर साज़ से इन्कार किया है और तदबीर करने वाले से मुकर गए। उनका ख़याल है के सब घास फूस की तरह हैं के बग़ैर खेती करने वाले के उग आए हैं और बग़ैर सानेअ के मुख़तलिफ़ शक्लें इख़्तेयार कर ली हैं। हालांके इन्होने इस दावा में न किसी दलील का सहारा लिया है और न ही अपने अक़ाएद की कोई तहक़ीक़ की है वरना यह समझ लेते के न बग़ैर बानी के इमारत हो सकती है और न बग़ैर मुजरिम के जुर्म हो सकता है।

और अगर तुम चाहो तो यही बातें टिड्डी के बारे में कही जा सकती हैं के इसके अन्दर दो सुर्ख़ सुर्ख़ आंखें पैदा की हैं और चान्द जैसे दो हलक़ों में आंखों के चिराग़ रौशन कर दिये हैं। छोटे-छोटे कान बना दिये हैं और मुनासिब सा दहाना खोल दिया है लेकिन इसके लिबास को क़वी बना दिया है। इसके दो तेज़ दांत हैं जिनसे पत्तियों को काटती है और दो पैर दनदानावार हैं जिनसे घास वग़ैरा को काटती है। काष्तकार अपनी काष्त के लिये इनसे ख़ौफ़ज़दा रहते हैं लेकिन इन्हें हंका नहीं सकते हैं चाहे किसी क़द्र ताक़त क्यों न जमा कर लें। यहां तक के वह खेतियों पर जस्त व ख़ेज़ करते हुए हमलावर हो जाती हैं और अपनी ख़्वाहिशपूरी कर लेती हैं। जबके उस का कुल वजूद एक बारीक उंगली से ज़्यादा नहीं है।

पस बा-बरकत है वह ज़ाते अक़दस जिसके सामने ज़मीन व आसमान की तमाम मख़लूक़ात परग़बत या नजबदराकराह सर-ब’सुजूद रहती हैं।

उसके लिये चेहरा और रुख़सार को ख़ाक पर रखे हुए हैं और अज्ज़ व इन्केसार के साथ इसकी बारगाह में सरापा इताअत हैं और ख़ौफ़ व दहशत से अपनी ज़माम इख़्तेयार उन्हीं के हवाले किये हुए हैं। परिन्दे उसके अम्र के ताबे हैं के वह उनके परों और सांसों का शुमार रखता है और उनके परों को तरी या ख़ुश्की में जमा दिया करता है, इनका फ़ौत मुक़र्रर कर दिया है और इनकी जिन्स का एहसा कर लिया है के यह कव्वा है वह अक़ाब है यह कबूतर है वह शुतरमुर्ग़ है, हर परिन्दे को उसके नाम से क़याम वजूद में दावत दी है और हर एक की रोज़ी की केफ़ालत की है। संगीन क़िस्म के बादल पैदा किये तो उनसे मूसलाधार पानी बरसा दिया और इसकी तक़सीमात का हिसाब भी रखा। ज़मीन को ख़ुश्की के बाद तर कर दिया और इसके नबातात को बन्जर हो जाने के बाद दोबारा उगा दिया।

(((- दरहक़ीक़त घास फूस के बारे में भी यह तसव्वुर खि़लाफ़े अक़्ल है के इसकी तख़लीक़ बग़ैर किसी ख़ालिक़ के हो गई है, लेकिन यह तसव्वुर सिर्फ़ इस लिये पैदा कर लेता है के इसकी हिकमत और मसलहत से बाख़बर नहीं है और यह ख़याल करता है के इस बरसात ने पानी के बग़ैर किसी तरतीब व तन्ज़ीम के उगा दिया है और इसके बाद इस तख़लीक़ पर सारी कायनात का क़यास करने लगता है। हालांके उसे कायनात की हिकमत व मसलहत को देखकर यह फ़ैसला करना चाहिये था के तख़लीक़े कायनात के बाज़ इसरार तो वाज़ेह भी हो गए हैं लेकिन तख़लीक़े नबातात का तो कोई राज़ वाज़ेअ नहीं हो सका है और यह इन्सान की इन्तेहाई जेहालत है के वह इस क़द्र हक़ीर और मामूली मख़लूक़ात की हिकमत व मसलेहत से भी बाख़बर नहीं है और हौसला इस क़दर बलन्द है के मालिके कायनात से टक्कर लेना चाहता है। और एक लफ़्ज़ में इसके वजूद का ख़ात्मा कर देना चाहता है-)))

अपने अक़ीदत मन्दों में हज़रत का दौरा

जाफ़र बिन शरीफ़ जरजानी का बयान करते हैं कि मैं हज से फ़राग़त के बाद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ और उनसे अर्ज़ कि मौला ! अहले जरजान आपकी तशरीफ़ आवरी के ख़्वास्त गार और ख़्वाहिश मन्द हैं। आपने फ़रमाया तुम आज से 190 दिन के बाद जरजान पहुँचोगे और जिस दिन तुम पहुँचोंगे उसी दिन शाम को मैं भी पहुँचूगा। तुम उन्हें बा ख़बर कर देना। चुनान्चे ऐसा ही हुआ। मैं वतन पहुँच कर लोगों को आगाह कर चुका था कि इमाम (अ.स.) की तशरीफ़ आवरी हुई। आपने सब से मुलाक़ात की और सब ने शरफ़े ज़ियारत हासिल किया। फिर लोगों ने अपनी मुशकीलात पेश की। इमाम (अ.स.) ने सब को मुतमईन कर दिया। इसी सिलसिले में नसर बिन जाबिर ने अपने फ़रज़न्द को पेश किया , जो नाबीना था। हज़रत ने उसके चेहरे पर दस्ते मुबारक फेर कर उसे बीनाई अता कि। फिर आप उसी रोज़ वापस तशरीफ़ ले गए।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 128 ) एक शख़्स ने आपको एक ख़त बिला रौशनाई के क़लम से लिखा। आपने उसका जवाब मरहमत फ़रमाया और साथ ही लिखने वाले का और उसके बाप का नाम भी तहरीर फ़रमाया दिया। यह करामात देख कर वह शख़्स हैरान हो गया और इस्लाम लाया और आपकी इमामत का मोतक़िद बना गया।(दमए साकेबा पृष्ठ 172 )

इमाम हसन असकरी (अ.स.) का पत्थर पर मोहर लगाना

सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी और इमामे अहले सुन्नत अल्लामा जामी रक़म तराज़ हैं कि एक दिन हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में एक ख़ूबसूरत सायमेनी आया और उसने एक संग पारा यानी पत्थर का टुकड़ा पेश कर के ख़्वाहिश की कि आप इस पर अपनी इमामत की तसदीक़ में मोहर कर दें। हज़रत ने मोहर लगा दी। आपका इसमे गिरामी इस तरह कन्दा हो गया जिस तरह मोम पर लगाने से कन्दा होता है।

एक सवाल के जवाब में कहा गया कि आने वाला मजमूए इब्नुल सलत बिन अक़बा बिन समआन इब्ने ग़ानम था। यह वही संग पारा लाया था जिस पर उसके ख़ान दान की एक औरत उम्मे ख़ानम ने तमाम आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) से मोहर लगवा रखी थी। उसका तरीक़ा यह था कि जब कोई इमामत का दावा करता था तो वह उसको ले कर उसके पास चली जाती थी अगर उस मुद्दई ने पत्थर पर मोहर लगा दी तो उसने समझ लिया कि यह इमामे ज़माना हैं और अगर वह इस अमल से आजिज़ रहा तो वह उसे नज़र अन्दाज़ कर देती थी चूंकि उसने इसी संग पारे पर कई इमामों की मोहर लगवाई थी। इस लिये उसका लक़ब साहेबतुल साअता हो गया था।

अल्लामा जामी लिखते हैं कि जब मजमूए बिन सलत ने मोहर लगवाई तो उससे पूछा गया कि तुम हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) को पहले से पहचानते थे ? उसने कहा नहीं। वाक़ेया यह हुआ कि मैं उनका इन्तेज़ार कर ही रहा था कि आप तशरीफ़ लाये लेकिन मैं चूंकि पहचानता न था इस लिये ख़ामोश बैठा रहा। इतने में एक नाशिनास नौजवान ने मेरी नज़रों के सामने आ कर कहा कि यह हसन बिन अली हैं।

रावी अबू हाशिम बयान करता है कि जब वह जवान आपके दरबार में आया तो मेरे दिल में यह आया कि काश मुझे मालूम होता कि यह कौन हैं। दिल में इस ख़्याल का आना था कि इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मोहर लगवाने के लिये वह संग पारा लाया है जिस पर मेरे बाप दादा की मोहरें लगी हुई हैं। चुनान्चे उसने पेश किया और आपने मोहर लगा दी। वह शख़्स आयाए ‘‘ ज़ुर्रियते बाज़हा मिन बाअज़ ’’ पढ़ता हुआ चला गया।(उसूले काफ़ी व दमए साकेबा , पृष्ठ 164, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 211 प्रकाशित लखनऊ 1905 0, आलामुल वुरा पृष्ठ 214 )

इमाम हसन असकरी (अ.स.) के इल्मी खि़दमात

तफ़सीरे क़ुरआन

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि जब इन्सान को सुकून नसीब न हो तो दिलो दिमाग़ अज़कारे रफ़्ता हो जाते हैं और उसमें इतनी सलाहियत नहीं रहती कि वह कोई ग़ैर फ़ानी दिमाग़ी किरदार पेश कर सके। हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) जिन्हें बिल वास्ता या बिला वास्ता ख़ुलफ़ाए अब्बासिया के सात ज़ालिमों के दस्ते इस्तेबदाद से मुताअस्सिर होना पड़ा। कभी आपके वालिदे माजिद को क़ैद किया गया , कभी नज़र बन्दी की ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर किया गया। गरज़ कि आपका कोई लम्हा ए हयात पुर सुकून नहीं गुज़रा। फिर उम्र भी आपने सिर्फ़ 28 साल की पाई थी। इन्ही वजूह से आपके कमालाते इल्मिया का कमा हक़्क़ा इज़हारो इन्केशाफ़ न हो सका। इसी बिना पर अल्लामा किरमानी लिखते हैं कि आप दुनियां में इतने दिनों ब क़ैदे हयात रहे ही नहीं कि आपके फ़ज़ाएल व मनाक़िब और उलूम व हुक्म लोगों पर ज़ाहिर हो सकें।(अख़बारूल दवल पृष्ठ 117 ) ताहम इन हालात में भी आपने अपने इल्मे लदुन्नी , नीज़ अपने वालिदे बुज़ुर्गवार से हासिल करदा इल्म के सहारे तबहव्वे इल्मी के साथ बड़े बड़े इल्मी कारनामों से लोगों को हैरान कर दिया। आपने मुख़ालेफ़ीने इस्लाम और अज़ीम जां शलीक़ों से अहम मनाज़िरे किये और इल्म व हुक्म के दरया बहाये हैं।

आपके इल्मी कारनामों में एक अहम कारनामा क़ुरआने मजीद की तफ़सीर है। जो तफ़सीरे इमाम हसन असकरी (अ.स.) के नाम से मौसूम व मशहूर है। यह तफ़सीर उलूमे क़ुरआनी और हुक्मे नबवी से मम्लू है।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 164 ) मेरे नज़दीक इसका इन्तेसाब तशना ए तहक़ीक़ है।

आपने अपनी क़लमी सलाहियत को महले इफ़्तेख़ार में ज़िक्र फ़रमाया है। आपका कहना है कि हम वह हैं जिन्हें साहेबे क़लम क़रार दिया है। उलेमा का बयान है कि जब आप लिखते लिखते नमाज़ के लिये चले जाया करते थे तो आपका क़लम बराबर चलता रहता था और आप माफ़िज़ ज़मीर बहुक्मे ख़ुदा वन्दी सतहे क़िरतास पर मरक़ूम होता रहता था।(बेहारूल अनवार दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 179 ) बहवाला ए असबात अल हदाया उर आमली। अल्लामा शेख़ मुफ़ीद का कहना है कि आप इल्म फ़ज़ल , ज़ोहदो तक़वा अक़्लो असमत , शुजाअतो करम आमालो इबादत में अफ़ज़ल अहले ज़माना थे।(इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 502 ) सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी(र.अ.) का बयान है कि हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह तमाम ज़बानों से वाक़िफ़ थे। आप तुर्की , रूमी ग़रज़ कि हर ज़बान में तकल्लुम किया करते थे। ख़ुदा ने आपको हर ज़बान से बहरावर फ़रमाया था और आप इल्मे रजाल , इल्मे अन्साब , इल्मे हवादिस में कमाल रखते थे।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 177, बहवाला उसूले काफ़ी) अब्दुल्लाह इब्ने मोहम्मद का बयान है कि मैंने हज़रत को भेड़िये से बात चीत करते हुए ख़ुद सुना है।(किताब मनाक़िबे फ़ात्मा)

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का ईराक़ के एक अज़ीम फ़लसफ़ी को शिकस्त देना

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि ईराक़ के अज़ीम फ़लसफ़ी इस्हाक़ कन्दी को ख़ब्त सवार हुआ कि क़ुरआन मजीद में तनाक़ज़ साबित करे और यह बता दे कि क़ुरआने मजीद की एक आयत दूसरी आयत से और एक मज़मून दूसरे मज़मून से टकराता है। उसने इस मक़सद की तकमील के लिये किताब ‘‘ तनाक़ुज़े कु़रआन ’’ लिखना शुरू की और इस दर्जा मुनहमिक़ हो गया कि लोगों से मिलना झुलना और कहीं आना जाना सब तर्क कर दिया।

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) को जब इसकी इत्तेला हुई तो आपने उसके ख़ब्त को दूर करने का इरादा फ़रमाया। आपका ख़्याल था कि उस पर कोई ऐसा एतराज़ कर दिया जाये कि जिसका वह जवाब न दे सके और मजबूरन अपने इरादे से बाज़ आ जाये। इत्तेफ़ाक़न एक दिन आपकी खि़दमत में उसका एक शार्गिद हाज़िर हुआ। हज़रत ने फ़रमाया कि तुम में कोई ऐसा नहीं है जो इस्हाक़ कन्दी को ‘‘ तनाकुज़ अल क़ुरआन ’’ लिखने से बाज़ रख सके। उसने अर्ज़ कि मौला ! मैं उसका शार्गिद हूँ भला उसके सामने लब कुशाई कर सकता हूँ। आपने फ़रमाया कि अच्छा यह तो कर सकते हो कि जो मैं कहूँ वह उस तक पहुँचा दो। उसने कहा कर सकता हूँ। हज़रत ने फ़रमाया कि पहले तो तुम उस से मवानस्त पैदा करो और उस पर एतेबार जमाओ। जब वह तुम से मानूस हो जाये और तुम्हारी बात तवज्जो से सुन ने लगे तो उससे कहना कि मुझे एक शुबहा पैदा हो गया है , आप उसको दूर फ़रमा दें। जब वह कहे कि बयान करो तो कहना कि ‘‘ इन्ना एताका हज़ल मुताकल्लिम बे हज़ारूल क़ुरआन हल यह बज़ूअन यकून मुरादा बेमा तकल्लुम मिन्हा अनल मआनी अल लती क़द ज़न सतहा इन्का ज़ेबतहा इलैहा ’’ अगर इस किताब यानी क़ुरआन का मालिक तुम्हारे पास इसे लाये तो क्या हो सकता है कि इस कलाम से जो मतलब उसका हो वह तुम्हारे समझे हुए मआनी व मतालिब के खि़लाफ़ हो। ज बवह तुम्हारा यह एतेराज़ सुनेगा तो चुंकि ज़हीन आदमी है फ़ौरन कहेगा बेशक ऐसा हो सकता है। जब वह यह कहे तो तुम उससे कहना कि फिर किताब ‘‘ तनाक़ुज़ अल क़ुरआन ’’ लिखने से क्या फ़ायेदा ? क्यों कि तुम उसके जो मानी समझ कर उस पर जो एतेराज़ कर रहे हो हो सकता है िकवह ख़ुदाई मक़सूद के खि़लाफ़ हो। ऐसी सूरत में तुम्हारी मेहनत ज़ाया और बरबाद हो जायेगी। क्यों कि तनाक़िज़ तो जब हो सकता है कि तुम्हारा समझा हुआ मतलब सही और मक़सूदे ख़ुदा वन्दी के मुताबिक़ हो और ऐसा यक़ीनी तौर पर नही ंतो तनाक़िस कहां रहा ? अल ग़रज़ वह शार्गिद इस्हाक़ कन्दी के पास गया और उसने इमाम (अ.स.) के बताए हुए उसूल पर उससे मज़कूरा सवाल किया। इस्हाक़ कन्दी यह एतेराज़ सुन कर हैरान रह गया और कहने लगा कि सवाल को दोहराओ। उसने फिर दोहराया। इस्हाक़ थोड़ी देर के लिये महवे तफ़क्कुर हो गया और दिल में कहने लगा कि बे शक इस क़िस्म का एहतेमाल ब एतेबारे लुग़त और ब लेहाज़े फ़िकरो तदब्बुर मुम्किन है। फिर अपने शार्गिद की तरफ़ मुतावज्जे हो कर बोला ! मैं तुम्हें क़सम देता हूँ , तुम मुझे सही सही बताओ कि तुम्हें यह एतेराज़ किसने बताया है ? उसने जवाब दिया , मेरे शफ़ीक़ उस्ताद यह मेरे ही ज़हन की पैदावार है। इस्हाक़ ने कहा हरगिज़ नहीं , यह तुम्हारे जैसे इल्म वाले के बस की चीज़ नहीं है। तुम सच कहो कि तुम्हें किसने बताया और इस एतेराज़ की तरफ़ किसने रहबरी की है ? शार्गिद ने कहा सच तो यह है कि मुझे हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने फ़रमाया था और मैंने उन्हीं के बताये हुए उसूल पर सवाल किया है।

इस्हाक़ कन्दी बोला ‘‘ एलान जेहत बेह ’’ अब तुम ने सच कहा है। ऐसे ऐतराज़ और ऐसी अहम बातें ख़ानादाने रिसालत ही से बरामद हो सकती हैं। ‘‘ सुम अनह दुआ बिन नार व अहरक़ जीमए मा काना अनफ़हा ’’ फिर उसने आग मंगाई और किताब ‘‘ तनाक़ज़ अल क़ुरआन ’’ का सारा मसवेदा नज़रे आतश कर दिया।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब मा ज़न्दरानी जिल्द 5 पृष्ठ 127 व बेहारूल अनवार जिल्द 12 पृष्ठ 172 दमए साकेबा पृष्ठ 183 जिल्द 3 )

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) और ख़ुसूसियाते मज़हब

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का इरशाद है कि हमारे मज़हब में उन लोगों का शुमार होगा जो उसूल व फ़ुरू और दीगर लवाज़िम के साथ साथ इन दस चीज़ों के क़ायल बल्कि उन पर आमिल हों।

1. शबो रोज़ में 51 रकअत नमाज़ पढ़ना। 2. सजदा गाहे करबला पर सजदा करना। 3. दाहिने हाथ में अंगूठी पहन्ना। 4. अज़ान व अक़ामत के जुमले दो दो मरतबा कहना। 5. अज़ान व अक़ामत में हय्या अला ख़ैरिल अमल कहना। 6. नमाज़ में बिस्मिल्लिाह ज़ोर से पढ़ना। 7. हर दूसरी रकअत में क़ुनूत पढ़ना। 8. आफ़ताब की ज़रदी से पहले नमाज़े अस्र और तारों के डूब जाने से पहले नमाज़े सुबह पढ़ना। 9. सर और दाढ़ी में वसमा का खि़ज़ाब करना। 10. नमाज़े मय्यत में पांच तकबीरे कहना।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 172 )

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) और ईदे नुहुम रबीउल अव्वल

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) चन्द अज़ीम अस्हाब जिनमें अहमद बिन इस्हाक़ क़ुम्मी भी थे। एक दिन मोहम्मद बिन अबी आला हम्दानी और यहिया बिन मोहम्मद बिन जरीह बग़दादी के दरमियान 9 रबीउल अव्वल के यौमे ईद होने पर गुफ़्तुगू हो रही थी। बात चीत की तकमील के लिये यह दोनों अहमद बिन इस्हाक़ के मकान पर गए। दक़्क़ुल बाब किया , एक ईराक़ी लड़की निकली , आने का सबब पूछा , कहा अहमद से मिलना है। उसने कहा वह आमाल कर रहे हैं। उन्होंने कहा कैसा अमल है ? लड़की ने कहा अहमद बिन इस्हाक़ ने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) से रवायत की है कि 9 रबीउल अव्वल यौमे ईद है और हमारी बड़ी ईद है , और हमारे दोस्तों की ईद है। अल ग़रज़ वह अहमद से मिले। उन्होंने कहा कि मैं अभी ग़ुस्ले ईद से फ़ारिग़ हुआ हूँ और आज ईदे नहुम 9 है। फिर उन्होंने कहा कि मैं आज ही हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ हूँ। उनके यहां अंगीठी सूलग रही थी और तमाम घर के लोग अच्छे कपड़े पहने हुए थे। ख़ुशबू लगाए हुए थे। मैंने अर्ज़ कि इब्ने रसूल अल्लाह (स अ व व ) आज क्या कोई ताज़ा यौमे मसर्रत है ? फ़रमाया हां आज 9 रबीउल अव्वल है। हम अहले बैत और हमारे मानने वालों के लिये यौमे ईद है। फिर इमाम (अ.स.) ने इस दिन के यौमे ईद होने और रसूले ख़ुदा (स अ व व ) और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के तरज़े अमल की निशान देही फ़रमाई।

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.)के अक़वाल

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के पन्दो नसायह हुक्म और मवाएज़ में से कुछ नीचे लिखे जा रहे हैं।

1. दो बेहतरीन आदतें यह हैं कि अल्लाह पर ईमान रखे और लोगों को फ़ायदे पहुँचायें।

2. अच्छों को दोस्त रखने में सवाब है।

3. तवाज़ो और फ़रोतनी यह है कि जब किसी के पास से गुज़रे तो सलाम करें और मजलिस में मामूली जगह बैठें।

4. बिला वजह हंसना जिहालत की दलील है।

5. पड़ोसियों की नेकी को छुपाना और बुराईयों को उछालना हर शख़्स के लिये कमर तोड़ देने वाली मुसीबत और बेचारगी है।

6. यह इबादत नहीं है कि नमाज़ रोज़े अदा करता रहे , बल्कि यह भी अहम इबादत है कि ख़ुदा के बारे में सोच विचार करे।

7. वह शख़्स बदतरीन है जो दो मुहा और दो ज़बान हो , जब दोस्त सामने आये तो अपनी ज़बान से ख़ुश कर दे और जब वह चला जाए तो उसे खा जाने की तदबीर सोचे जब उसे कुछ मिले तो यह हसद करे और जब उस पर कोई मुसीबत आ जाए तो क़रीब न फटके।

8. गु़स्सा हर बुराई की कुन्जी है।

9. हसद करने और कीना रखने वाले को भी सुकूने क़ल्ब नसीब नहीं होता।

10. परहेज़गार वह है जो शब के वक़्त तवकुफ़ व तदब्बुर से काम ले और हर अमर से मोहतात रहे।

11. बेहतरीन इबादत गुज़ार वह है जो फ़राएज़ अदा करता रहे।

12. बेहतरीन सईद और ज़ाहिर वह है जो गुनाह मुतलक़न छोड़ दे।

13. जो दुनियां में बोऐगा वही आख़ेरत में काटेगा।

14. मौत तुम्हारे पीछे लगी हुई है अच्छा बोओगे तो अच्छा काटोगे , बुरा बोओगे तो निदामत होगी।

15. हिरस और लालच से कोई फ़ाएदा नहीं जो मिलना है वही मिलेगा।

16. एक मोमिन दूसरे मोमिन के लिये बरकत है।

17. बेवकूफ़ का दिल उसके मुंह में होता है और अक़ल मन्द का मुंह उसके दिल में होता है।

18. दुनिया की तलाश में कोई फ़रीज़ा न गवा देना। 19. तहारत में शक की वजह से ज़्यादती करना ग़ैर मम्दूह है।

20. कोई कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो जब वह अक़ को छोड़ देगा ज़लील तर हो जायेगा।

21. मामूली आदमी के साथ हक़ हो तो वही बड़ा है।

22. जाहिल की दोस्ती मुसीबत है।

23. ग़मगीन के सामने हंसना बे अदबी और बद अमली है।

24. वह चीज़ मौत से बदतर है जो तुम्हें मौत से बेहतर नज़र आए।

25. वह चीज़ ज़िन्दगी से बेहतर है जिसकी वजह से तुम ज़िन्दगी को बुरा समझो।

26. जाहिल की दोस्ती और इसके साथ गुज़ारा करना मोजिज़े के मानिन्द है।

27. किसी की पड़ी हुई आदत को छुड़ाना ऐजाज़ की हैसीयत रखता है।

28. तवाज़े ऐसी नेमत है जिस पर हसद नहीं किया जा सकता।

29. इस अन्दाज़ से किसी की ताज़ीम न करो जिसे वह बुरा समझे।

30. अपनी भाई की पोशीदा नसीहत करनी इसकी ज़ीनत का सबब होता है।

31. किसी की ऐलानिया नसीहत करना बुराई का पेश ख़ेमा है।

32. हर बला और मुसीबत के पस मन्ज़र में रहमत और नेमत होती है।

33. मैं अपने मानने वालों को नसीहत करता हूँ कि अल्लाह से डरें दीन के बारे में परेहगारी को शआर बना लें ख़ुदा के मुताअल्लिक़ पूरी सई करें और उसके अहकाम की पैरवी में कमी न करें। सच बोलें , अमानतें चाहे मोमिन की हो या काफ़िर की , अदा करें , और अपने सजदों को तूल दें और सवालात के शीरीं जवाब दें। तिलावते कु़रआने मजीद किया करें मौत और ख़ुदा के ज़िक्र से ग़ाफ़िल न हों।

34. जो शख़्स दुनियां से दिल का अन्धा उठेगा , आख़ेरत में भी अन्धा रहेगा। दिल का अन्धा होना हमारी मुवद्दत से ग़ाफ़िल रहना है। क़ुरआन मजीद में है कि क़यामत के दिन ज़ालिम कहेंगे ‘‘रब्बे लमा हश्रतनी आएमी व क़नत बसीरन ’’ मेरे पालने वाले हम तो दुनियां में बीना थे हमें यहां अन्धा क्यों उठाया है ? जवाब मिलेगा , हम ने जो निशानियां भेजी थी तुमने उन्हें नज़र अन्दाज़ किया था। लोगों! अल्लाह की नेमत अल्लाह की निशानियां हम आले मोहम्मद (स अ व व ) हैं। एक रवायत में है कि आपने दो शम्बे के शर व नहूसत से बचने के लिये इरशाद फ़रमाया है कि नमाज़े सुब्ह की रक्ते अव्वल में सुरह ‘‘ हल अता ’’ पढ़ना चाहिए। नीज़ यह फ़रमाया है कि नहार मुंह ख़रबुज़ा नहीं खाना चाहिये क्यो कि इससे फ़ालिज का अन्देशा है।(बेहार अल अनवार जिल्द 14 )

इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत बा सआदत

15 शाबान 255 हिजरी में बतने जनाबे नरजिस ख़ातून से क़ाएमे आले मोहम्मद हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत ब सआदत हुई। इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने दुश्मनों के ख़ौफ़ से आपकी विलादत को ज़ाहिर होने नहीं दिया।

मुल्ला जामी लिखते हैं कि इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत के बाद हज़रते जिब्राईल उन्हें परवरिश व परदाख़्त के लिये उठा कर ले गए।(शवाहेदुन नबूवत)

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि आप तीन साल की उम्र में देखे गए और आपने हुज्जतुल्लाह होने का इज़हार किया।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 138 )

मोतमिद अब्बासी की खि़लाफ़त और इमाम हसन असकरी (अ.स.) की गिरफ़्तारी

गर क़लम दर दस्ते ग़द्दारे बूद , ला जुर्म मन्सूर , बरदारे बूद

256 हिजरी में मोतमिद अब्बासी खि़लाफ़त मकबूज़ा तख़्त पर मुतमक्किन हुआ इसने हुकूमत की कमान संभालते ही अपने अबाई तर्ज़े अमल को इख़्तेयार करना और जद्दी किरदार को पेश करना शुरू कर दिया और दिल से सई शुरू कर दी कि आले मोहम्मद (स अ व व ) के वजूद से ज़मीन ख़ाली हो जाए। यह अगरचे हुकूमत की बाग डोर अपने हाथों में लेते ही मुल्की बग़ावत का शिकार हो गया था लेकिन फिर भी अपने वज़ीफ़े और अपने मिशन से ग़ाफ़िल नहीं रहा। इसने हुक्म दिया अहदे हाज़िर में ख़ानदाने रिसालत की यादगार इमाम हसन असकरी (अ.स.) को क़ैद कर दिया जाए और उन्हें क़ैद में किसी क़िस्म का सुकून न दिया जाए। हुक्मे हाकिम मरगे मफ़ाजात आखि़र इमाम हसन असकरी (अ.स.) बिला जुर्मो ख़ता आज़ाद फ़ेज़ा से क़ैद ख़ाने में पहुँचा दिये गए और आप पर अली बिन अवताश नामी एक नासबी मुसल्लत कर दिया गया जो आले मोहम्मद (स अ व व ) , आले अबी तालिब (अ.स.) का सख़्त तरीन दुश्मन था और उससे कह दिया गया कि जो जी चाहे करो तुम्से कोई पूछने वाला नहीं है। इब्ने औतश ने असबे हिदायत आप पर तरह तरह की सख़्तियां शुरू कर दीं। इसने न ख़ुदा का ख़ौफ़ किया न पैग़म्बर की औलाद होने का कोई लिहाज़ किया लेकिन अल्लाह रे आपका ज़ोहदो तक़वा कि दो चार ही यौम में दुश्मन का दिल मोम हो गया और वह हज़रत के पैरों पर पड़ गया। आपकी इबादत गुज़ारी और तक़वा व तहारत देख कर वह इतना मुताअस्सिर हुआ कि हज़रत की तरफ़ नजर उठा कर देख न सकता था। आपकी अज़मतो व जलालत की वजह से सर झुका कर आता व चला जाता। यहां तक कि वह वक़्त आ गया कि दुश्मन बसीरत आगे बन कर आपका मोतरिफ़ और मानने वाला हो गया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 218 )

अबू हाशिम दाऊद बिन क़ासिम का बयान है कि मैं और मेरे हमराह हसन बिन मोहम्मद अलक़तफ़ी व मोहम्मद बिन इब्राहीम उमर और दीगर बहुत से हज़रात इस क़ैद ख़ाने में आले मोहम्मद (स अ व व ) की मोहब्बत के जुर्म की सज़ा भुगत रहे थे कि नागाह हमें मालूम हुआ कि हमारे इमामे ज़माना हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) भी ला रहे हैं। हम ने उनका इस्तेक़बाल किया वह तशरीफ़ ला कर क़ैद ख़ाने में हमारे पास बैठ गए और बैठते ही एक अन्धे की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया कि अगर यह शख़्स न होता तो मैं तुम्हें यह बता देता कि अन्दरूनी मामला किया है और तुम कब रिहा होगे। लोगों ने यह सुन कर उस अन्धे से कहा कि तुम ज़रा हमारे पास से चन्द मिनट के लिये हट जाओ चुनान्चे वह हट गया। उसके चले जाने के बाद आपने फ़रमाया कि यह नाबीना क़ैदी नहीं है तुम्हारे लिये हुकूमत का जासूस है। इसकी जेब में ऐसे कागज़ात मौजूद हैं जो इसकी जासूसी का सुबूत देते हैं। यह सुन कर लोगों ने उसकी तलाशी ली और वाक़िया बिल्कुल सही निकला। अबू हाशिम कहते हैं कि अय्याम गुज़र रहे थे कि एक दिन ग़ुलाम खाना लाया। हज़रत ने शाम का खाना खाने से इन्कार कर दिया और फ़रमाया कि मैं समझता हूँ कि मेरा अफ़्तार क़ैद से बाहर होगा। इस लिये खाना न लूंगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ आप असर के वक़्त क़ैद खाने से बरामद हो गए।(आलामुल वुरा पृष्ठ 214 )

इस्लाम पर इमाम हसन असकरी (अ.स.) का एहसाने अज़ीम

वाक़िए क़हत

इमाम हसन असकरी (अ.स.) क़ैद ख़ाने ही में थे कि सामरा में जो तीन साल से क़हत पड़ा हुआ था उसने शिद्दत इख़्तेयार कर ली और लोगों का हाल यह हो गया कि मरने के क़रीब पहुँच गए। भूख और प्यास की शिद्दत ने ज़िन्दगी से आजिज़ कर दिया। यह हाल देख कर ख़लीफ़ा मोतमिद अब्बासी ने लोगों को हुक्म दिया कि तीन दिन तक बाहर निकल कर नमाज़े इसतेस्क़ा पढ़ें। चुनान्चे सब ने ऐसा किया , मगर पानी न बरसा। चौथे रोज़ बग़दाद के लसारा की जमाअत सहरा में आई और इनमें से एक राहिब ने आसमान की जानिब अपना हाथ बुलन्द किया , उसका हाथ बुलन्द होना था कि बादल छा गए और पानी बरसना शुरू हुआ। इसी तरह उस राहिब ने दूसरे दिन भी अमल किया और बदस्तूर उस दिन भी बाराने रहमत का नुज़ूल हुआ। यह हालत देख कर सब को निहायत ताअज्जुब हुआ। हत्ता कि बाज़ जाहिलों के दिलों में शक पैदा हो गया। बल्कि बाज़ उनमें से इसी वक़्त मुरतिद हो गए।

यह वाक़िया ख़लीफ़ा पर बहुत शाक गुज़रा और उसने इमाम हसन असकरी (अ.स.) को तलब कर के कहा , अबू मोहम्मद अपने जद के कलमे गोयों की ख़बर लो और उनको हलाकत यानी गुमराही से बचाओ। हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने फ़रमाया कि अच्छा राहिबों को हुक्म दिया जाए कि कल फिर वह मैदान में आ कर दोआए बारान करें , इन्शा अल्लाह ताला मैं लोगों के शकूक ज़ाएल कर दूँगा। फिर जब दूसरे दिन वह लोग मैदान में तलबे बारां के लिये जमा हुए तो इस राहिब ने मामूल के मुताबिक़ आसमान की तरफ़ हाथ बुलन्द किया नागाह आसमान पर अब्र नमूदार हुआ और मेह बरसने लगा। यह देख कर इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने एक शख़्स से कहा कि राहिब के हाथ पकड़ कर जो चीज़ राहिब के हाथ में मिले ले ले , उस शख़्स ने राहिब के हाथ में एक हड्डी दबी हुई पाई और उससे ले कर हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में पेश की। उन्होंने राहिब से फ़रमाया कि तू हाथ उठा कर बारिश की दुआ कर उसने हाथ उठाया तो बजाए बारिश होने के मतला साफ़ हो गया और धूप निकल आई , लोग कमाले मुताअज्जिब हुए और ख़लीफ़ा मोतमिद ने हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) से पूछा कि ऐ अबू मोहम्मद यह क्या चीज़ है ? आपने फ़रमाया कि यह एक नबी की हड्डी है जिसकी वजह से राहिब अपनी मुद्दोआ में कामयाब होता रहा। क्यों कि नबी की हड्डी का यह असर है कि जब जब वह ज़ेरे आसमान खोल दी जायेगी तो बाराने रहमत ज़रूर नाज़िल होगा। यह सुन कर लोगों ने इस हड्डी का इम्तेहान किया तो उसकी वही तासीर देखी जो हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने की थी। इस वाक़िये से लोगों के दिलों के शकूक ज़ाएल हो गए जो पहले पैदा हो गए थे। फिर इमाम हसन असकरी (अ.स.) इस हड्डी को ले कर अपनी क़याम गाह पर तशरीफ़ लाए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 व कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 129 ) फिर आपने इस हड्डी को कपड़े मे लपेट कर दफ़्न कर दिया।(अख़बार अल दवल पृष्ठ 117 )

शेख़ शहाबुद्दीन क़लदूनी ने किताब ग़राएब व अजाएब में इस वाक़िये को सूफ़ियों की करामत के सिलसिले में लिखा है बाज़ किताबों ंमें है कि हड्डी की गिरफ़्त के बाद आपने नमाज़ अदा की और दुआ फ़रमाई। ख़ुदा वन्दे आलम ने इतनी बारिश की कि जल थल हो गया और क़हत जाता रहा। यह भी मरक़ूम है कि इमाम (अ.स.) ने क़ैद से निकलते वक़्त अपने साथियों की रिहाई का मुतालेबा फ़रमाया था जो मंज़ूर हो गया था और वह लोग भी राहिब की हवा उखाड़ने के लिये हमराह थे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 151 )

एक रवायत में है कि जब आपने दुआ ए बारान की और अब्र आया तो आपने फ़रमाया कि फ़लां मुल्क के लिये है और वह वहीं चला गया। इसी तरह कई बार हुआ फिर वहां बरसा।

वाक़ीयाए क़हत के बाद

256 हिजरी के आखि़र में वाक़िए क़हत के बाद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का चर्चा तमाम आलम में फैल गया। अब क्या था मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ सब ही का मैलान व रूझान आपकी तरफ़ होने लगा। आपके वह नए मानने वाले जिनके दिलों में आले मोहम्मद (स अ व व ) की मोअद्दत कमाल को पहुँची हुई थी वह यह चाहते थे कि किसी सूरत से इमाम (अ.स.) की खि़दमत में इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत की मुबारक बाद पेश करें लेकिन इसका मौक़ा न मिलता था क्यों कि या इमाम क़ैद में होते या हिरासत में। उनसे मिलने की किसी को इजाज़त न होती थी लेकिन क़हत के वाक़िये से इतना हुआ कि आप तक़रीबन एक साल क़ैद ख़ाने से बाहर रहे। इसी दौरान में लोगों ने मसाएल वग़ैरा दरयाफ़्त किये और जो लोग ज़्यारत के मुश्ताक़ थे उन्होंने ज़ियारत की और जो ख़ुफ़िया तहनियते विलादत हज़रते हज़रत हुज्जत (अ.स.) अदा करना चाहते थे उन्होंने तहनियत अदा की।

अल्लामा मोहम्मद बाक़र लिखते हैं कि 257 हिजरी में तक़रीबन 70 आदमी मदाएन से करबला होते हुए सामरा पहुँचे और हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर तहनियत गुज़ार हुए। हज़रत ने फ़रते मसर्रत से आंखों में आंसू भर कर उनका इस्तेक़बाल किया और उनके सवालात के जवाबात दिये।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 172 )

अक़ीदत मंदों की आमद का चुंकि तांता बंध गया था इस लिये ख़लीफ़ा मोतमिद ने आपके हालात की निगरानी के लिये बेशुमार जासूस मुक़र्रर कर दिये। इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने जिन्हें हुकूमत की नियत का बहुत अच्छी तरह इल्म था ख़ामोशी और ंगोशा नशीनी की ज़िन्दगी बसर करने लगे और आपने इसकी एहतीयात बरती कि मुल्की मामेलात पर कोई तबसेरा न किया जाय और सिर्फ़ दीनी उमूर से बहस की जाय। चुनान्चे 257 हिजरी के आखि़र तक यही कुछ होता रहा लेकिन ख़लीफ़ा मुतमईन न हुआ और उसने हसबे आदत रोक टोक शुरू की और सब से पहले उसने ख़ुम्स की आमद की बन्दिश कर दी।

इमाम हसन असकरी (अ.स.) और अबीदुल्लाह वज़ीरे मोतमिद अब्बासी

इसी ज़माने में एक दिन हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) मुतवक्किल के वज़ीर फ़तेह इब्ने ख़ाकान के बेटे अबीदुल्लाह इब्ने ख़ाक़ान जो कि मोतमिद का वज़ीर था मिलने के लिये तशरीफ़ ले गए। उसने आपकी बेइन्तेहां ताज़ीम की और आपसे इस तरह महवे गुफ़्तुगू रहा कि मोतमिद का भाई मौक़फ़ दरबार में आया तो उसने कोई परवाह न की। यह हज़रत की जलालत और ख़ुदा की दी हुई इज़्ज़त का नतीजा था। हम इस वाक़िये को अबीदुल्लाह के बेटे अहमद ख़ाक़ान की ज़बानी बयान करते हैं। कुतुबे मोतबरा में है कि जिस ज़माने में अहमद ख़ाक़ान क़ुम का वाली था , उसके दरबार में एक दिन अलवियों का तज़किरा छिड़ गया। वह अगरचे दुशमने आले मोहम्मद होने में मिसाली अहमियत रखता था लेकिन यह कहने पर मजबूर हो गया कि मेरी नज़र में इमाम हसन असकरी (अ.स.) से बेहतर कोई नहीं। उनकी जो वक़अत उनके मानने वालों और अराकीने दौलत की नज़र में थी वह उनके अहद में किसी को भी नसीब नहीं हुई। सुनो! एक मरतबा मैं अपने वालिद अबीदुल्लाह इब्ने ख़ाक़ान के पास खड़ा हुआ था कि नागाह दरबान ने आ कर इत्तेला दी कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) तशरीफ़ लाए हुए हैं , वह इजाज़ते दाखि़ला चाहते हैं। यह सुन कर मेरे वालिद ने पुकार कर कहा कि हज़रत इब्नुब रज़ा को आने दो। वालिद ने चूंकि कुन्नियत के साथ नाम लिया था इस लिये मुझे सख़्त ताअज्जुब हुआ क्यो कि इस तरह ख़लीफ़ा या वली अहद के अलावा किसी का नाम नहीं लिया जाता था। इसके बाद ही मैंने देखा कि एक साहब जो सब्ज़ रंग , ख़ुश क़ामत , ख़ूब सूरत , नाज़ुक अन्दाम जवान थे , दाखि़ल हुए। जिनके चहरे से रोबो जलाल हुवेदा था। मेरे वालिद की नज़र ज्यों ही उनके ऊपर पड़ी वह उठ खड़े हुए और उनके इस्तेक़बाल के लिये आगे बढ़े और उन्हें सीने से लगा कर उनके चेहरे और सीने का बोसा दिया और अपने मुसल्ले पर उनको बिठा लिया और कमाले अदब से उनकी तरफ़ मुख़ातिब रहे और थोड़ी थोड़ी देर के बाद कहते थे , मेरी जान आप पर क़ुरबान ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व )। इसी असना में दरबान ने आ कर इत्तेला दी कि ख़लीफ़ा का भाई मौफ़िक़ आया है। मेरे वालिद ने कोई तवज्जो न की हालांकि उसका उमूमन यह एज़ाज़ रहता था कि जब तक वापस न चला जाए , दरबार के लोग दो रोया सर झुकाय खड़े रहते थे। यहां तक कि मौफ़ि़क़ के ग़ुलामे ख़ास को उसने अपनी नज़रों से देख लिया। उन्हें देखने के बाद मेरे वालिद ने कहा या इब्ने रसूल अल्लाह (स अ व व ) अगर इजाज़त हो तो मौफ़िक़ से कुछ बातें कर लूं। हज़रत ने वहां से उठ कर रवाना हो जाने का इरादा किया। मेरे वालिद ने उन्हें सीने से लगाया और दरबानों को हुक्म दिया कि उन्हें दो मुकम्मल सफ़ों के दरमियान से ले जाओ कि मौफ़िक़ की नज़र आप पर न पड़े। चुनान्चे हज़रत इसी अन्दाज़ से वापस तशरीफ़ ले गए। आप के जाने के बाद मैंने ख़ादिमों और ग़ुलामों से कहा कि वाए हो तुमने कुन्नियत के साथ किस का नाम ले कर उसे मेरे वालिद के सामने पेश किया था , जिसकी उसने इस दर्जा ताज़ीम की जिसकी मुझे तवक़्क़ो न थी। उन लोगों ने फिर कहा कि यह शख़्स सादाते अलविया में से था। उसका नाम हसन बिन अली और कुन्नियत इब्नुल रज़ा है। यह सुन कर मेरे ग़म व ग़ुस्से की कोई इन्तेहां न रही और मैं दिन भर इसी ग़ुस्से में भुनता रहा कि अलवी सादात की मेरे वालिद ने इतनी इज़्ज़त व तौक़िर क्यो कि , यहां तक कि रात आ गई। मेरे वालिद नमाज़ में मशग़ूल थे। जब वह फ़रीज़ा ए इशा से फ़ारिग़ हुए तो मैं उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। उन्होंने पूछा , ऐ अहमद ! इस वक़्त आने का क्या सबब है ? मैंने अर्ज़ की कि इजाज़त दीजिए तो कुछ पूछूं। उन्होंने फ़रमाया कि जो जी चाहे पूछो। मैंने कहा यह कौन शख़्स था , जो सुबह आपके पास आया था ? जिसकी आपने ज़बर दस्त ताज़ीम की और हर बात में अपने को और अपने बाप को उस पर से फ़िदा करते थे। उन्होंने फ़रमाया कि ऐ फ़रज़न्द यह राफ़ज़ियों के इमाम हैं। उनका नाम हसन बिन अली और उनकी मशहूर कुन्नियत इब्नुल रज़ा है। यह फ़रमा कर वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले ऐ फ़रज़न्द यह वह कामिल इंसान हैं कि अगर अब्बासीयों से सलतन चली जाए तो इस वक़्त दुनियां में इससे ज़्यादा इस हुकूमत का मुस्तहक़ कोई नहीं। यह शख़्स इफ़्फ़त , ज़ोहद , कसरते इबादत , हुस्ने इख़लाक़ , सलाह , तक़वा वग़ैरा में तमाम बनी हाशिम से अफ़ज़ल और आला हैं , और ऐ फ़रज़न्द अगर तू उनके बाप को देखता तो हैरान रह जाता , वह इतने साहबे करम और फ़ाज़िल थे कि उनकी मिसाल भी नहीं थी। यह सब बातें सुन कर मैं ख़ामोश तो हो गया लेकिन वालिद से हद दर्जा नाख़ुश रहने लगा और साथ ही साथ इब्नुल रज़ा के हालात को मालूम करना अपना शेवा बना लिया। इस सिलसिले में मैंने बनी हाशिम , उमरा , लशकर , मुन्शियाने दफ़्तरे क़ज़्ज़ाता और फ़ुक़हा और अवामुन नास से हज़रत के हालात का इस्तेफ़सार किया। सब के नज़दीक हज़रत इब्नुल रज़ा को जलील उल क़द्र और अज़ीम पाया और सबने बिल इत्तेफ़ाक़ यही बयान किया कि इस मरतबे और खू़बियों का कोई शख़्स किसी ख़ानदान में नहीं है। जब मैंने हर दोस्त और दुश्मन को हज़रत के बयाने इख़्लाक़ और इज़हारे मकारमे इख़्लाक़ में मुत्तफ़िक़ पाया तो मैं भी उनका दिल से मानने वाला हो गया और अब उनकी क़द्रो मंज़िलत मेरे नज़दीक़ बे इन्तेहा है। यह सुन कर तमाम अहले दरबार ख़ामोश हो गए। अलबत्ता एक शख़्स बोल उठा कि ऐ अहमद तुम्हारी नज़र में उनके बरादर जाफ़र की क्या हैसियत है ? अहमद ने कहा उनके मुक़ाबले में उसका क्या ज़िक्र करते हो वह तो ऐलानिया फ़िस्क़ व फ़ुजूर का इरतेक़ाब करता था। दाएमुल ख़ुमर था , ख़फ़ीफ़ उल अक़्ल था , अनवाए मलाही व मनाही का मुरतक़िब होता था। इब्नुल रज़ा के बाद जब ख़लीफ़ा मोतमिद से उसने उनकी जा नशीनी का सवाल किया तो उसने उसके किरदार की वजह से दरबार से निकलवा दिया था।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 124 व इरशादे मुफ़ीद पृष्ठ 505 ) बाज़ उलेमा ने लिखा है कि यह गुफ़्तुगू इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत के 18 साल बाद माहे शाबान 278 हिजरी की है।(दमए साकेबा पृष्ठ 192 जिल्द 3 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

इमाम हसन असकरी (अ.स.) की दोबारा गिरफ़्तारी

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि ख़ुल्फ़ाए बनी अब्बासिया ख़ूब जानते थे कि सिलसिला ए आले मोहम्मद (स अ व व ) के वह अफ़राद जो रसूल अल्लाह (स अ व व ) की सही जा नशीनी के मिसदाक़ व हक़दार हो सकते हैं वह वही अफ़राद हैं जिनमें से ग्यारहवीं हस्ती इमाम हसन असकरी (अ.स.) की है। इस लिये उनका फ़रज़न्द वह हो सकता है जिसके बारे में रसूल अल्लाह (स अ व व ) की पेशीन गोई सही क़रार पा सके। लेहाज़ा कोशिश यह थी कि उनकी ज़िन्दगी का दुनिया से ख़ात्मा हो जाए। इस तरह की उनका जा नशीन दुनिया में मौजूद ने हो। यही सबब था कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) के लिये नज़र बन्दी पर इक़तेफ़ा नहीं की गई। जो इमाम अली नक़ी (अ.स.) के लिये ज़रूरी समझी गई थी बल्कि आपके लिये अपने घर बार से अलग क़ैद तन्हाई को ज़रूरी समझा गया। यह और बात है कि क़ुदरती इन्तेज़ाम के मातहत दरमियान में इन्के़लाबाते सलतनत के वाक़ए आपकी क़ैदे मुसलसल के बीच में क़हरी रिहाई के सामान पैदा कर दिया करते थे , मगर फिर भी जो बादशाह तख़्त पर बैठता वह अपने पेश रौ के नज़रिये के मुताबिक़ आपको दोबारा मुक़य्यद करने पर तैयार हो जाता था। इस तरह आपकी मुख़्तसर ज़िन्दगी जो दौरे इमामत के बाद थी उसका बेशतर हिस्सा क़ैदो बन्द में ही गुज़रा। इस क़ैद की सख़्ती मोतमिद के ज़माने में बहुत बढ़ गई थी। अगरचे वह मिस्ल दीगर सलातीन के आपके मरतबे और हक़्क़ानियत से ख़ूब वाक़िफ़ था लेकिन फिर भी वह बुग़्ज़े लिल्लाही को छोड़ न सका और दस्तूरे साबिक़ के मुताबिक़ उन्होंने ज़िन्दगी की मंज़िले आखि़र तक पहुँचाने के दरपए रहा। यही वहज है कि वह नज़र बन्दियों से मुतमईन न हो सका और उसने 258 हिजरी में इमाम हसन असकरी (अ.स.) को फिर मुक़य्यद कर दिया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 214 ) और अबकी मरतबा चूंकि नियत बिल्कुल ख़राब थी इस लिये क़ैद में भी पूरी सख़्ती की गई। हुक्म था कि आपके साथ किसी क़िस्म की कोई रियायत न की जाए। चुनान्चे यही कुछ होता रहा लेकिन उसे इससे तसल्ली न हुई और उसने अपने एक ज़ालिम खि़दमतगार जिसका नाम ‘‘ नख़रीर ’’ था को बुला कर कहा कि उन्हें तू अपनी निगरानी में ले ले और जिस दर्जा सता सके उन्हें परेशान कर। नख़रीर ने हुक्म पाते ही तशद्दुद शुरू कर दिया। इमाम (अ.स.) को दिन की रौशनी और पानी की फ़रावानी तक से महरूम कर दिया। आपको दिन और रात का पता सूरज की रौशनी से न चलता था सिर्फ़ तारीकी ही रहती थी। एक दिन उसकी बीवी ने उससे दरख़्वास्त की के फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व ) है उसके साथ तुम्हारा यह बरताव अच्छा नहीं है। उसने कहा यह क्या है अभी तो उन्हें जानवरों से फड़वा डालना बाकी़ है।

हुज्जते ख़ुदा दरिन्दों में

चुनान्दे उसने इजाज़त हासिल कर के इमाम हसन असकरी (अ.स.) को दरिन्दों मे डाल दिया। शेर और दीगर दरिन्दों की नज़र जब आप पर पड़ी तो उन्होंने हुज्जते ख़ुदा को पहचान लिया और उन्हें फाड़ खाने के बजाए उनके क़दमों पर सर रख दिया इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने उनके दरमियान मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ना शुरू कर दिया दुश्मनों ने एक बुलन्द मक़ाम से यह हाल देखा और सख़्त शर्मिन्दा हो कर इमाम (अ.स.) की फ़ज़ीलत का एतेराफ़ किया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 218, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 127, इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 514 )

इस वाक़िये ने आप की दबी हुई फ़ज़ीलत को उभार दिया लोगों में इस करामत का चरचा हो गया अब तो मुतामिद के लिये इस के सिवा कोई चारा न था कि उन्हें जल्द से जल्द इस दारे फ़ानी से रूख़सत कर दे चुनान्चे उसने एक ऐसे क़ैद ख़ाने में आपको मुक़य्यद कर दिया जिसमें रह कर ज़िन्दा रहने से मौत बेहतर है।

इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत

इमाम याज़ दहुम ग्यारहवें इमाम हज़रत हसन असकरी (अ.स.) क़ैदो बन्द की ज़िन्दगी गुज़ारने के दौरान में एक दिन अपने ख़ादिम अबुल अदयान से इरशाद फ़रमाते हुए कि तुम जब अपने सफ़रे मदाएन से पन्द्रह दिन के बाद पलटोगे तो मेरे घर से शेवनो बुका की आवाज़ आती होंगी।(जिलाउल उयून , पृष्ठ 299 ) नीज़ आपका यह फ़रमाना भी मन्क़ूल है कि 260 हिजरी में मेरे मानने वालों के दरमियान इन्के़लाबे अज़ीम आयेगा।(दमए साकबे जिल्द 3 पृष्ठ 177 )

अल ग़रज़ इमाम हसन असकरी (अ.स.) को बातारीख़ 1 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को मोतमिद अब्बासी ने ज़हर दिलवा दिया और आप 8 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को जुमे के दिन ब वक़्ते नमाज़े सुबह खि़लअते हयाते ज़ाहेरी उतार कर ब त फ़े मुल्के जावेदानी रेहलत फ़रमा गए। ‘‘ इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 व फ़ुसूल अल महमा व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 464 जिलाउल उयून पृष्ठ 296, अनवारूल हुसैनिया जिल्द 3 पृष्ठ 56 )

उलेमा का बयान है कि वफ़ात से क़ब्ल आपने इमाम मेहदी (अ.स.) को तबर्रूकात सिपुर्द फ़रमा दिये थे।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 192 )

शहादत के वक़्त आपकी उम्र 28 साल की थी।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 )

उलमाए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि आपने हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के अलावा कोई औलाद नहीं छोड़ी।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 292 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124, नूरूल अबसार , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 462, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 126 व आलामुल वुरा पृष्ठ 218 )

शहादत के बाद

वाक़िए क़हत , दरिन्दों की सजदा रेज़ी और आपकी मज़लूमियत की वजह से हर एक के दिल में आप की वक़अत , आपकी मोहब्बत जा गुज़ी हो चुकी थी। यही वजह है कि आपकी शहादत की ख़बर का शोहरत पाना था कि हर घर से रोने की आवाज़ें आने लगीं। हर दिल में इज़तेराब की लहरे दौड़ने लगीं। शोरो शेवन से सामरा की गलियां क़यामत का मन्ज़र पेश करने लगीं।

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) के इरशाद के मुताबिक़ जब 15 दिन के बाद अबुल अदयान दाखि़ले सामरा हुए तो आप शहीद हो चुके थे और शेवन व मातम की आवाज़ें बुलन्द थीं।(जिलाउल उयून पृष्ठ 297 )

इमाम शिब्लन्जी लिखते हैं कि आपके इन्तेक़ाल की ख़बर के मशहूर होते ही तमाम सामरा में हल चल मच गई और हर तरफ़ रोने पीटने का शोर बुलन्द हो गया। बाज़ारों में हरताल हो गई , दुकानें बन्द हो गईं। फिर तमाम बनी हाशिम और हाकिमाने क़सास , अरकाने अदालत , अयाने हुकूमत , मुन्शी , क़ाज़ी और आइम्मा ए ख़लाएक़ आपके जनाज़े में शिरकत के लिये दौड़ पड़े। सरमन राय इस दिन क़यामत का नमूना था।(नूरूल अबसार पृष्ठ 168, फुसूल मूहिम्मा , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 468 )

ग़रज़ कि निहायत तुज़ुक व एहतेशाम और ज़ाहेरी शानो शौकत के साथ आपका जनाज़ा उठाया गया और उस मुक़ाम पर ले जा कर रखा गया जिस जगह नमाज़ पढ़ाई जाती थी। इतने में मोतमिद के हुक्म से ईसा इब्ने मुतावक्किल जो उमूमन नमाज़े मय्यत पढ़ाया करता था आगे बढ़ा और उसने चेहरे से कफ़न सरका कर बनी हाशिम अलवी व अब्बासी और सब अमीरों , मुन्शियों , क़ाज़ियों ग़रज़ कि कुल अशराफ़ों अयान को दिखाते हुए कहा कि ‘‘ माता हतफ़ अनफ़ा अला फ़राशा ’’ देखो यह अपनी मौत से मरे हैं। यानी इन्हें किसी ने कुछ खिलाया नहीं है।(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 229 )

इसके बाद जाफ़रे तव्वाब नमाज़ पढ़ाने के लिये आगे बढ़े , अभी आप तकबीरतुल हराम न कहने पाए थे कि मोहम्मद इब्ने हसन अल क़ायम अल मेहदी (अ.स.) बरामद हो कर सामने आ गए और आपने चचा को हटा कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई।(जला उल उयून पृष्ठ 292 ) इस के बाद आपको इमाम अली नक़ी (अ.स.) के रौज़ा ए मुबारक में दफ़्न कर दिया गया।(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 264 )

यह आपकी ख़ानदानी करामत है कि आपके रौज़े पर ताएर बीट नहीं करते।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 179 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) की तदफ़ीन के बाद इमाम मेहदी (अ.स.) के तजस्सुस में आपके घर की तलाशी ली गई और आपकी औरतों को गिरफ़्तार किया गया। मक़सद यह था कि इमाम मेहदी (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के क़त्ल कर दिया जाए ताकि ख़ानदाने रिसालत का ख़ात्मा हो जाए और क़यामत के क़रीब अदलो इन्साफ़ की बस्ती न बसाई जा सके और ज़ालिमों के ज़ुल्म का बदला न लिया जा सके , लेकिन ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने वादे ‘‘ वल्लाह मतम नूरा ’’ के मुताबिक़ उन्हें इस ज़ालिम मोतमिद के दस्त रस से महफ़ूज़ कर दिया। अब इन्शा अल्लाह जब हुक्मे ख़ुदा होता तो आप ज़हूर फ़रमायेंगे।(अजल्लाह तआला फ़राजहू)

अपने अक़ीदत मन्दों में हज़रत का दौरा

जाफ़र बिन शरीफ़ जरजानी का बयान करते हैं कि मैं हज से फ़राग़त के बाद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ और उनसे अर्ज़ कि मौला ! अहले जरजान आपकी तशरीफ़ आवरी के ख़्वास्त गार और ख़्वाहिश मन्द हैं। आपने फ़रमाया तुम आज से 190 दिन के बाद जरजान पहुँचोगे और जिस दिन तुम पहुँचोंगे उसी दिन शाम को मैं भी पहुँचूगा। तुम उन्हें बा ख़बर कर देना। चुनान्चे ऐसा ही हुआ। मैं वतन पहुँच कर लोगों को आगाह कर चुका था कि इमाम (अ.स.) की तशरीफ़ आवरी हुई। आपने सब से मुलाक़ात की और सब ने शरफ़े ज़ियारत हासिल किया। फिर लोगों ने अपनी मुशकीलात पेश की। इमाम (अ.स.) ने सब को मुतमईन कर दिया। इसी सिलसिले में नसर बिन जाबिर ने अपने फ़रज़न्द को पेश किया , जो नाबीना था। हज़रत ने उसके चेहरे पर दस्ते मुबारक फेर कर उसे बीनाई अता कि। फिर आप उसी रोज़ वापस तशरीफ़ ले गए।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 128 ) एक शख़्स ने आपको एक ख़त बिला रौशनाई के क़लम से लिखा। आपने उसका जवाब मरहमत फ़रमाया और साथ ही लिखने वाले का और उसके बाप का नाम भी तहरीर फ़रमाया दिया। यह करामात देख कर वह शख़्स हैरान हो गया और इस्लाम लाया और आपकी इमामत का मोतक़िद बना गया।(दमए साकेबा पृष्ठ 172 )

इमाम हसन असकरी (अ.स.) का पत्थर पर मोहर लगाना

सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी और इमामे अहले सुन्नत अल्लामा जामी रक़म तराज़ हैं कि एक दिन हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में एक ख़ूबसूरत सायमेनी आया और उसने एक संग पारा यानी पत्थर का टुकड़ा पेश कर के ख़्वाहिश की कि आप इस पर अपनी इमामत की तसदीक़ में मोहर कर दें। हज़रत ने मोहर लगा दी। आपका इसमे गिरामी इस तरह कन्दा हो गया जिस तरह मोम पर लगाने से कन्दा होता है।

एक सवाल के जवाब में कहा गया कि आने वाला मजमूए इब्नुल सलत बिन अक़बा बिन समआन इब्ने ग़ानम था। यह वही संग पारा लाया था जिस पर उसके ख़ान दान की एक औरत उम्मे ख़ानम ने तमाम आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) से मोहर लगवा रखी थी। उसका तरीक़ा यह था कि जब कोई इमामत का दावा करता था तो वह उसको ले कर उसके पास चली जाती थी अगर उस मुद्दई ने पत्थर पर मोहर लगा दी तो उसने समझ लिया कि यह इमामे ज़माना हैं और अगर वह इस अमल से आजिज़ रहा तो वह उसे नज़र अन्दाज़ कर देती थी चूंकि उसने इसी संग पारे पर कई इमामों की मोहर लगवाई थी। इस लिये उसका लक़ब साहेबतुल साअता हो गया था।

अल्लामा जामी लिखते हैं कि जब मजमूए बिन सलत ने मोहर लगवाई तो उससे पूछा गया कि तुम हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) को पहले से पहचानते थे ? उसने कहा नहीं। वाक़ेया यह हुआ कि मैं उनका इन्तेज़ार कर ही रहा था कि आप तशरीफ़ लाये लेकिन मैं चूंकि पहचानता न था इस लिये ख़ामोश बैठा रहा। इतने में एक नाशिनास नौजवान ने मेरी नज़रों के सामने आ कर कहा कि यह हसन बिन अली हैं।

रावी अबू हाशिम बयान करता है कि जब वह जवान आपके दरबार में आया तो मेरे दिल में यह आया कि काश मुझे मालूम होता कि यह कौन हैं। दिल में इस ख़्याल का आना था कि इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मोहर लगवाने के लिये वह संग पारा लाया है जिस पर मेरे बाप दादा की मोहरें लगी हुई हैं। चुनान्चे उसने पेश किया और आपने मोहर लगा दी। वह शख़्स आयाए ‘‘ ज़ुर्रियते बाज़हा मिन बाअज़ ’’ पढ़ता हुआ चला गया।(उसूले काफ़ी व दमए साकेबा , पृष्ठ 164, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 211 प्रकाशित लखनऊ 1905 0, आलामुल वुरा पृष्ठ 214 )

इमाम हसन असकरी (अ.स.) के इल्मी खि़दमात

तफ़सीरे क़ुरआन

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि जब इन्सान को सुकून नसीब न हो तो दिलो दिमाग़ अज़कारे रफ़्ता हो जाते हैं और उसमें इतनी सलाहियत नहीं रहती कि वह कोई ग़ैर फ़ानी दिमाग़ी किरदार पेश कर सके। हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) जिन्हें बिल वास्ता या बिला वास्ता ख़ुलफ़ाए अब्बासिया के सात ज़ालिमों के दस्ते इस्तेबदाद से मुताअस्सिर होना पड़ा। कभी आपके वालिदे माजिद को क़ैद किया गया , कभी नज़र बन्दी की ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर किया गया। गरज़ कि आपका कोई लम्हा ए हयात पुर सुकून नहीं गुज़रा। फिर उम्र भी आपने सिर्फ़ 28 साल की पाई थी। इन्ही वजूह से आपके कमालाते इल्मिया का कमा हक़्क़ा इज़हारो इन्केशाफ़ न हो सका। इसी बिना पर अल्लामा किरमानी लिखते हैं कि आप दुनियां में इतने दिनों ब क़ैदे हयात रहे ही नहीं कि आपके फ़ज़ाएल व मनाक़िब और उलूम व हुक्म लोगों पर ज़ाहिर हो सकें।(अख़बारूल दवल पृष्ठ 117 ) ताहम इन हालात में भी आपने अपने इल्मे लदुन्नी , नीज़ अपने वालिदे बुज़ुर्गवार से हासिल करदा इल्म के सहारे तबहव्वे इल्मी के साथ बड़े बड़े इल्मी कारनामों से लोगों को हैरान कर दिया। आपने मुख़ालेफ़ीने इस्लाम और अज़ीम जां शलीक़ों से अहम मनाज़िरे किये और इल्म व हुक्म के दरया बहाये हैं।

आपके इल्मी कारनामों में एक अहम कारनामा क़ुरआने मजीद की तफ़सीर है। जो तफ़सीरे इमाम हसन असकरी (अ.स.) के नाम से मौसूम व मशहूर है। यह तफ़सीर उलूमे क़ुरआनी और हुक्मे नबवी से मम्लू है।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 164 ) मेरे नज़दीक इसका इन्तेसाब तशना ए तहक़ीक़ है।

आपने अपनी क़लमी सलाहियत को महले इफ़्तेख़ार में ज़िक्र फ़रमाया है। आपका कहना है कि हम वह हैं जिन्हें साहेबे क़लम क़रार दिया है। उलेमा का बयान है कि जब आप लिखते लिखते नमाज़ के लिये चले जाया करते थे तो आपका क़लम बराबर चलता रहता था और आप माफ़िज़ ज़मीर बहुक्मे ख़ुदा वन्दी सतहे क़िरतास पर मरक़ूम होता रहता था।(बेहारूल अनवार दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 179 ) बहवाला ए असबात अल हदाया उर आमली। अल्लामा शेख़ मुफ़ीद का कहना है कि आप इल्म फ़ज़ल , ज़ोहदो तक़वा अक़्लो असमत , शुजाअतो करम आमालो इबादत में अफ़ज़ल अहले ज़माना थे।(इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 502 ) सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी(र.अ.) का बयान है कि हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह तमाम ज़बानों से वाक़िफ़ थे। आप तुर्की , रूमी ग़रज़ कि हर ज़बान में तकल्लुम किया करते थे। ख़ुदा ने आपको हर ज़बान से बहरावर फ़रमाया था और आप इल्मे रजाल , इल्मे अन्साब , इल्मे हवादिस में कमाल रखते थे।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 177, बहवाला उसूले काफ़ी) अब्दुल्लाह इब्ने मोहम्मद का बयान है कि मैंने हज़रत को भेड़िये से बात चीत करते हुए ख़ुद सुना है।(किताब मनाक़िबे फ़ात्मा)

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का ईराक़ के एक अज़ीम फ़लसफ़ी को शिकस्त देना

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि ईराक़ के अज़ीम फ़लसफ़ी इस्हाक़ कन्दी को ख़ब्त सवार हुआ कि क़ुरआन मजीद में तनाक़ज़ साबित करे और यह बता दे कि क़ुरआने मजीद की एक आयत दूसरी आयत से और एक मज़मून दूसरे मज़मून से टकराता है। उसने इस मक़सद की तकमील के लिये किताब ‘‘ तनाक़ुज़े कु़रआन ’’ लिखना शुरू की और इस दर्जा मुनहमिक़ हो गया कि लोगों से मिलना झुलना और कहीं आना जाना सब तर्क कर दिया।

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) को जब इसकी इत्तेला हुई तो आपने उसके ख़ब्त को दूर करने का इरादा फ़रमाया। आपका ख़्याल था कि उस पर कोई ऐसा एतराज़ कर दिया जाये कि जिसका वह जवाब न दे सके और मजबूरन अपने इरादे से बाज़ आ जाये। इत्तेफ़ाक़न एक दिन आपकी खि़दमत में उसका एक शार्गिद हाज़िर हुआ। हज़रत ने फ़रमाया कि तुम में कोई ऐसा नहीं है जो इस्हाक़ कन्दी को ‘‘ तनाकुज़ अल क़ुरआन ’’ लिखने से बाज़ रख सके। उसने अर्ज़ कि मौला ! मैं उसका शार्गिद हूँ भला उसके सामने लब कुशाई कर सकता हूँ। आपने फ़रमाया कि अच्छा यह तो कर सकते हो कि जो मैं कहूँ वह उस तक पहुँचा दो। उसने कहा कर सकता हूँ। हज़रत ने फ़रमाया कि पहले तो तुम उस से मवानस्त पैदा करो और उस पर एतेबार जमाओ। जब वह तुम से मानूस हो जाये और तुम्हारी बात तवज्जो से सुन ने लगे तो उससे कहना कि मुझे एक शुबहा पैदा हो गया है , आप उसको दूर फ़रमा दें। जब वह कहे कि बयान करो तो कहना कि ‘‘ इन्ना एताका हज़ल मुताकल्लिम बे हज़ारूल क़ुरआन हल यह बज़ूअन यकून मुरादा बेमा तकल्लुम मिन्हा अनल मआनी अल लती क़द ज़न सतहा इन्का ज़ेबतहा इलैहा ’’ अगर इस किताब यानी क़ुरआन का मालिक तुम्हारे पास इसे लाये तो क्या हो सकता है कि इस कलाम से जो मतलब उसका हो वह तुम्हारे समझे हुए मआनी व मतालिब के खि़लाफ़ हो। ज बवह तुम्हारा यह एतेराज़ सुनेगा तो चुंकि ज़हीन आदमी है फ़ौरन कहेगा बेशक ऐसा हो सकता है। जब वह यह कहे तो तुम उससे कहना कि फिर किताब ‘‘ तनाक़ुज़ अल क़ुरआन ’’ लिखने से क्या फ़ायेदा ? क्यों कि तुम उसके जो मानी समझ कर उस पर जो एतेराज़ कर रहे हो हो सकता है िकवह ख़ुदाई मक़सूद के खि़लाफ़ हो। ऐसी सूरत में तुम्हारी मेहनत ज़ाया और बरबाद हो जायेगी। क्यों कि तनाक़िज़ तो जब हो सकता है कि तुम्हारा समझा हुआ मतलब सही और मक़सूदे ख़ुदा वन्दी के मुताबिक़ हो और ऐसा यक़ीनी तौर पर नही ंतो तनाक़िस कहां रहा ? अल ग़रज़ वह शार्गिद इस्हाक़ कन्दी के पास गया और उसने इमाम (अ.स.) के बताए हुए उसूल पर उससे मज़कूरा सवाल किया। इस्हाक़ कन्दी यह एतेराज़ सुन कर हैरान रह गया और कहने लगा कि सवाल को दोहराओ। उसने फिर दोहराया। इस्हाक़ थोड़ी देर के लिये महवे तफ़क्कुर हो गया और दिल में कहने लगा कि बे शक इस क़िस्म का एहतेमाल ब एतेबारे लुग़त और ब लेहाज़े फ़िकरो तदब्बुर मुम्किन है। फिर अपने शार्गिद की तरफ़ मुतावज्जे हो कर बोला ! मैं तुम्हें क़सम देता हूँ , तुम मुझे सही सही बताओ कि तुम्हें यह एतेराज़ किसने बताया है ? उसने जवाब दिया , मेरे शफ़ीक़ उस्ताद यह मेरे ही ज़हन की पैदावार है। इस्हाक़ ने कहा हरगिज़ नहीं , यह तुम्हारे जैसे इल्म वाले के बस की चीज़ नहीं है। तुम सच कहो कि तुम्हें किसने बताया और इस एतेराज़ की तरफ़ किसने रहबरी की है ? शार्गिद ने कहा सच तो यह है कि मुझे हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने फ़रमाया था और मैंने उन्हीं के बताये हुए उसूल पर सवाल किया है।

इस्हाक़ कन्दी बोला ‘‘ एलान जेहत बेह ’’ अब तुम ने सच कहा है। ऐसे ऐतराज़ और ऐसी अहम बातें ख़ानादाने रिसालत ही से बरामद हो सकती हैं। ‘‘ सुम अनह दुआ बिन नार व अहरक़ जीमए मा काना अनफ़हा ’’ फिर उसने आग मंगाई और किताब ‘‘ तनाक़ज़ अल क़ुरआन ’’ का सारा मसवेदा नज़रे आतश कर दिया।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब मा ज़न्दरानी जिल्द 5 पृष्ठ 127 व बेहारूल अनवार जिल्द 12 पृष्ठ 172 दमए साकेबा पृष्ठ 183 जिल्द 3 )

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) और ख़ुसूसियाते मज़हब

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का इरशाद है कि हमारे मज़हब में उन लोगों का शुमार होगा जो उसूल व फ़ुरू और दीगर लवाज़िम के साथ साथ इन दस चीज़ों के क़ायल बल्कि उन पर आमिल हों।

1. शबो रोज़ में 51 रकअत नमाज़ पढ़ना। 2. सजदा गाहे करबला पर सजदा करना। 3. दाहिने हाथ में अंगूठी पहन्ना। 4. अज़ान व अक़ामत के जुमले दो दो मरतबा कहना। 5. अज़ान व अक़ामत में हय्या अला ख़ैरिल अमल कहना। 6. नमाज़ में बिस्मिल्लिाह ज़ोर से पढ़ना। 7. हर दूसरी रकअत में क़ुनूत पढ़ना। 8. आफ़ताब की ज़रदी से पहले नमाज़े अस्र और तारों के डूब जाने से पहले नमाज़े सुबह पढ़ना। 9. सर और दाढ़ी में वसमा का खि़ज़ाब करना। 10. नमाज़े मय्यत में पांच तकबीरे कहना।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 172 )

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) और ईदे नुहुम रबीउल अव्वल

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) चन्द अज़ीम अस्हाब जिनमें अहमद बिन इस्हाक़ क़ुम्मी भी थे। एक दिन मोहम्मद बिन अबी आला हम्दानी और यहिया बिन मोहम्मद बिन जरीह बग़दादी के दरमियान 9 रबीउल अव्वल के यौमे ईद होने पर गुफ़्तुगू हो रही थी। बात चीत की तकमील के लिये यह दोनों अहमद बिन इस्हाक़ के मकान पर गए। दक़्क़ुल बाब किया , एक ईराक़ी लड़की निकली , आने का सबब पूछा , कहा अहमद से मिलना है। उसने कहा वह आमाल कर रहे हैं। उन्होंने कहा कैसा अमल है ? लड़की ने कहा अहमद बिन इस्हाक़ ने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) से रवायत की है कि 9 रबीउल अव्वल यौमे ईद है और हमारी बड़ी ईद है , और हमारे दोस्तों की ईद है। अल ग़रज़ वह अहमद से मिले। उन्होंने कहा कि मैं अभी ग़ुस्ले ईद से फ़ारिग़ हुआ हूँ और आज ईदे नहुम 9 है। फिर उन्होंने कहा कि मैं आज ही हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ हूँ। उनके यहां अंगीठी सूलग रही थी और तमाम घर के लोग अच्छे कपड़े पहने हुए थे। ख़ुशबू लगाए हुए थे। मैंने अर्ज़ कि इब्ने रसूल अल्लाह (स अ व व ) आज क्या कोई ताज़ा यौमे मसर्रत है ? फ़रमाया हां आज 9 रबीउल अव्वल है। हम अहले बैत और हमारे मानने वालों के लिये यौमे ईद है। फिर इमाम (अ.स.) ने इस दिन के यौमे ईद होने और रसूले ख़ुदा (स अ व व ) और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के तरज़े अमल की निशान देही फ़रमाई।

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.)के अक़वाल

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के पन्दो नसायह हुक्म और मवाएज़ में से कुछ नीचे लिखे जा रहे हैं।

1. दो बेहतरीन आदतें यह हैं कि अल्लाह पर ईमान रखे और लोगों को फ़ायदे पहुँचायें।

2. अच्छों को दोस्त रखने में सवाब है।

3. तवाज़ो और फ़रोतनी यह है कि जब किसी के पास से गुज़रे तो सलाम करें और मजलिस में मामूली जगह बैठें।

4. बिला वजह हंसना जिहालत की दलील है।

5. पड़ोसियों की नेकी को छुपाना और बुराईयों को उछालना हर शख़्स के लिये कमर तोड़ देने वाली मुसीबत और बेचारगी है।

6. यह इबादत नहीं है कि नमाज़ रोज़े अदा करता रहे , बल्कि यह भी अहम इबादत है कि ख़ुदा के बारे में सोच विचार करे।

7. वह शख़्स बदतरीन है जो दो मुहा और दो ज़बान हो , जब दोस्त सामने आये तो अपनी ज़बान से ख़ुश कर दे और जब वह चला जाए तो उसे खा जाने की तदबीर सोचे जब उसे कुछ मिले तो यह हसद करे और जब उस पर कोई मुसीबत आ जाए तो क़रीब न फटके।

8. गु़स्सा हर बुराई की कुन्जी है।

9. हसद करने और कीना रखने वाले को भी सुकूने क़ल्ब नसीब नहीं होता।

10. परहेज़गार वह है जो शब के वक़्त तवकुफ़ व तदब्बुर से काम ले और हर अमर से मोहतात रहे।

11. बेहतरीन इबादत गुज़ार वह है जो फ़राएज़ अदा करता रहे।

12. बेहतरीन सईद और ज़ाहिर वह है जो गुनाह मुतलक़न छोड़ दे।

13. जो दुनियां में बोऐगा वही आख़ेरत में काटेगा।

14. मौत तुम्हारे पीछे लगी हुई है अच्छा बोओगे तो अच्छा काटोगे , बुरा बोओगे तो निदामत होगी।

15. हिरस और लालच से कोई फ़ाएदा नहीं जो मिलना है वही मिलेगा।

16. एक मोमिन दूसरे मोमिन के लिये बरकत है।

17. बेवकूफ़ का दिल उसके मुंह में होता है और अक़ल मन्द का मुंह उसके दिल में होता है।

18. दुनिया की तलाश में कोई फ़रीज़ा न गवा देना। 19. तहारत में शक की वजह से ज़्यादती करना ग़ैर मम्दूह है।

20. कोई कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो जब वह अक़ को छोड़ देगा ज़लील तर हो जायेगा।

21. मामूली आदमी के साथ हक़ हो तो वही बड़ा है।

22. जाहिल की दोस्ती मुसीबत है।

23. ग़मगीन के सामने हंसना बे अदबी और बद अमली है।

24. वह चीज़ मौत से बदतर है जो तुम्हें मौत से बेहतर नज़र आए।

25. वह चीज़ ज़िन्दगी से बेहतर है जिसकी वजह से तुम ज़िन्दगी को बुरा समझो।

26. जाहिल की दोस्ती और इसके साथ गुज़ारा करना मोजिज़े के मानिन्द है।

27. किसी की पड़ी हुई आदत को छुड़ाना ऐजाज़ की हैसीयत रखता है।

28. तवाज़े ऐसी नेमत है जिस पर हसद नहीं किया जा सकता।

29. इस अन्दाज़ से किसी की ताज़ीम न करो जिसे वह बुरा समझे।

30. अपनी भाई की पोशीदा नसीहत करनी इसकी ज़ीनत का सबब होता है।

31. किसी की ऐलानिया नसीहत करना बुराई का पेश ख़ेमा है।

32. हर बला और मुसीबत के पस मन्ज़र में रहमत और नेमत होती है।

33. मैं अपने मानने वालों को नसीहत करता हूँ कि अल्लाह से डरें दीन के बारे में परेहगारी को शआर बना लें ख़ुदा के मुताअल्लिक़ पूरी सई करें और उसके अहकाम की पैरवी में कमी न करें। सच बोलें , अमानतें चाहे मोमिन की हो या काफ़िर की , अदा करें , और अपने सजदों को तूल दें और सवालात के शीरीं जवाब दें। तिलावते कु़रआने मजीद किया करें मौत और ख़ुदा के ज़िक्र से ग़ाफ़िल न हों।

34. जो शख़्स दुनियां से दिल का अन्धा उठेगा , आख़ेरत में भी अन्धा रहेगा। दिल का अन्धा होना हमारी मुवद्दत से ग़ाफ़िल रहना है। क़ुरआन मजीद में है कि क़यामत के दिन ज़ालिम कहेंगे ‘‘रब्बे लमा हश्रतनी आएमी व क़नत बसीरन ’’ मेरे पालने वाले हम तो दुनियां में बीना थे हमें यहां अन्धा क्यों उठाया है ? जवाब मिलेगा , हम ने जो निशानियां भेजी थी तुमने उन्हें नज़र अन्दाज़ किया था। लोगों! अल्लाह की नेमत अल्लाह की निशानियां हम आले मोहम्मद (स अ व व ) हैं। एक रवायत में है कि आपने दो शम्बे के शर व नहूसत से बचने के लिये इरशाद फ़रमाया है कि नमाज़े सुब्ह की रक्ते अव्वल में सुरह ‘‘ हल अता ’’ पढ़ना चाहिए। नीज़ यह फ़रमाया है कि नहार मुंह ख़रबुज़ा नहीं खाना चाहिये क्यो कि इससे फ़ालिज का अन्देशा है।(बेहार अल अनवार जिल्द 14 )

इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत बा सआदत

15 शाबान 255 हिजरी में बतने जनाबे नरजिस ख़ातून से क़ाएमे आले मोहम्मद हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत ब सआदत हुई। इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने दुश्मनों के ख़ौफ़ से आपकी विलादत को ज़ाहिर होने नहीं दिया।

मुल्ला जामी लिखते हैं कि इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत के बाद हज़रते जिब्राईल उन्हें परवरिश व परदाख़्त के लिये उठा कर ले गए।(शवाहेदुन नबूवत)

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि आप तीन साल की उम्र में देखे गए और आपने हुज्जतुल्लाह होने का इज़हार किया।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 138 )

मोतमिद अब्बासी की खि़लाफ़त और इमाम हसन असकरी (अ.स.) की गिरफ़्तारी

गर क़लम दर दस्ते ग़द्दारे बूद , ला जुर्म मन्सूर , बरदारे बूद

256 हिजरी में मोतमिद अब्बासी खि़लाफ़त मकबूज़ा तख़्त पर मुतमक्किन हुआ इसने हुकूमत की कमान संभालते ही अपने अबाई तर्ज़े अमल को इख़्तेयार करना और जद्दी किरदार को पेश करना शुरू कर दिया और दिल से सई शुरू कर दी कि आले मोहम्मद (स अ व व ) के वजूद से ज़मीन ख़ाली हो जाए। यह अगरचे हुकूमत की बाग डोर अपने हाथों में लेते ही मुल्की बग़ावत का शिकार हो गया था लेकिन फिर भी अपने वज़ीफ़े और अपने मिशन से ग़ाफ़िल नहीं रहा। इसने हुक्म दिया अहदे हाज़िर में ख़ानदाने रिसालत की यादगार इमाम हसन असकरी (अ.स.) को क़ैद कर दिया जाए और उन्हें क़ैद में किसी क़िस्म का सुकून न दिया जाए। हुक्मे हाकिम मरगे मफ़ाजात आखि़र इमाम हसन असकरी (अ.स.) बिला जुर्मो ख़ता आज़ाद फ़ेज़ा से क़ैद ख़ाने में पहुँचा दिये गए और आप पर अली बिन अवताश नामी एक नासबी मुसल्लत कर दिया गया जो आले मोहम्मद (स अ व व ) , आले अबी तालिब (अ.स.) का सख़्त तरीन दुश्मन था और उससे कह दिया गया कि जो जी चाहे करो तुम्से कोई पूछने वाला नहीं है। इब्ने औतश ने असबे हिदायत आप पर तरह तरह की सख़्तियां शुरू कर दीं। इसने न ख़ुदा का ख़ौफ़ किया न पैग़म्बर की औलाद होने का कोई लिहाज़ किया लेकिन अल्लाह रे आपका ज़ोहदो तक़वा कि दो चार ही यौम में दुश्मन का दिल मोम हो गया और वह हज़रत के पैरों पर पड़ गया। आपकी इबादत गुज़ारी और तक़वा व तहारत देख कर वह इतना मुताअस्सिर हुआ कि हज़रत की तरफ़ नजर उठा कर देख न सकता था। आपकी अज़मतो व जलालत की वजह से सर झुका कर आता व चला जाता। यहां तक कि वह वक़्त आ गया कि दुश्मन बसीरत आगे बन कर आपका मोतरिफ़ और मानने वाला हो गया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 218 )

अबू हाशिम दाऊद बिन क़ासिम का बयान है कि मैं और मेरे हमराह हसन बिन मोहम्मद अलक़तफ़ी व मोहम्मद बिन इब्राहीम उमर और दीगर बहुत से हज़रात इस क़ैद ख़ाने में आले मोहम्मद (स अ व व ) की मोहब्बत के जुर्म की सज़ा भुगत रहे थे कि नागाह हमें मालूम हुआ कि हमारे इमामे ज़माना हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) भी ला रहे हैं। हम ने उनका इस्तेक़बाल किया वह तशरीफ़ ला कर क़ैद ख़ाने में हमारे पास बैठ गए और बैठते ही एक अन्धे की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया कि अगर यह शख़्स न होता तो मैं तुम्हें यह बता देता कि अन्दरूनी मामला किया है और तुम कब रिहा होगे। लोगों ने यह सुन कर उस अन्धे से कहा कि तुम ज़रा हमारे पास से चन्द मिनट के लिये हट जाओ चुनान्चे वह हट गया। उसके चले जाने के बाद आपने फ़रमाया कि यह नाबीना क़ैदी नहीं है तुम्हारे लिये हुकूमत का जासूस है। इसकी जेब में ऐसे कागज़ात मौजूद हैं जो इसकी जासूसी का सुबूत देते हैं। यह सुन कर लोगों ने उसकी तलाशी ली और वाक़िया बिल्कुल सही निकला। अबू हाशिम कहते हैं कि अय्याम गुज़र रहे थे कि एक दिन ग़ुलाम खाना लाया। हज़रत ने शाम का खाना खाने से इन्कार कर दिया और फ़रमाया कि मैं समझता हूँ कि मेरा अफ़्तार क़ैद से बाहर होगा। इस लिये खाना न लूंगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ आप असर के वक़्त क़ैद खाने से बरामद हो गए।(आलामुल वुरा पृष्ठ 214 )

इस्लाम पर इमाम हसन असकरी (अ.स.) का एहसाने अज़ीम

वाक़िए क़हत

इमाम हसन असकरी (अ.स.) क़ैद ख़ाने ही में थे कि सामरा में जो तीन साल से क़हत पड़ा हुआ था उसने शिद्दत इख़्तेयार कर ली और लोगों का हाल यह हो गया कि मरने के क़रीब पहुँच गए। भूख और प्यास की शिद्दत ने ज़िन्दगी से आजिज़ कर दिया। यह हाल देख कर ख़लीफ़ा मोतमिद अब्बासी ने लोगों को हुक्म दिया कि तीन दिन तक बाहर निकल कर नमाज़े इसतेस्क़ा पढ़ें। चुनान्चे सब ने ऐसा किया , मगर पानी न बरसा। चौथे रोज़ बग़दाद के लसारा की जमाअत सहरा में आई और इनमें से एक राहिब ने आसमान की जानिब अपना हाथ बुलन्द किया , उसका हाथ बुलन्द होना था कि बादल छा गए और पानी बरसना शुरू हुआ। इसी तरह उस राहिब ने दूसरे दिन भी अमल किया और बदस्तूर उस दिन भी बाराने रहमत का नुज़ूल हुआ। यह हालत देख कर सब को निहायत ताअज्जुब हुआ। हत्ता कि बाज़ जाहिलों के दिलों में शक पैदा हो गया। बल्कि बाज़ उनमें से इसी वक़्त मुरतिद हो गए।

यह वाक़िया ख़लीफ़ा पर बहुत शाक गुज़रा और उसने इमाम हसन असकरी (अ.स.) को तलब कर के कहा , अबू मोहम्मद अपने जद के कलमे गोयों की ख़बर लो और उनको हलाकत यानी गुमराही से बचाओ। हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने फ़रमाया कि अच्छा राहिबों को हुक्म दिया जाए कि कल फिर वह मैदान में आ कर दोआए बारान करें , इन्शा अल्लाह ताला मैं लोगों के शकूक ज़ाएल कर दूँगा। फिर जब दूसरे दिन वह लोग मैदान में तलबे बारां के लिये जमा हुए तो इस राहिब ने मामूल के मुताबिक़ आसमान की तरफ़ हाथ बुलन्द किया नागाह आसमान पर अब्र नमूदार हुआ और मेह बरसने लगा। यह देख कर इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने एक शख़्स से कहा कि राहिब के हाथ पकड़ कर जो चीज़ राहिब के हाथ में मिले ले ले , उस शख़्स ने राहिब के हाथ में एक हड्डी दबी हुई पाई और उससे ले कर हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में पेश की। उन्होंने राहिब से फ़रमाया कि तू हाथ उठा कर बारिश की दुआ कर उसने हाथ उठाया तो बजाए बारिश होने के मतला साफ़ हो गया और धूप निकल आई , लोग कमाले मुताअज्जिब हुए और ख़लीफ़ा मोतमिद ने हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) से पूछा कि ऐ अबू मोहम्मद यह क्या चीज़ है ? आपने फ़रमाया कि यह एक नबी की हड्डी है जिसकी वजह से राहिब अपनी मुद्दोआ में कामयाब होता रहा। क्यों कि नबी की हड्डी का यह असर है कि जब जब वह ज़ेरे आसमान खोल दी जायेगी तो बाराने रहमत ज़रूर नाज़िल होगा। यह सुन कर लोगों ने इस हड्डी का इम्तेहान किया तो उसकी वही तासीर देखी जो हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने की थी। इस वाक़िये से लोगों के दिलों के शकूक ज़ाएल हो गए जो पहले पैदा हो गए थे। फिर इमाम हसन असकरी (अ.स.) इस हड्डी को ले कर अपनी क़याम गाह पर तशरीफ़ लाए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 व कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 129 ) फिर आपने इस हड्डी को कपड़े मे लपेट कर दफ़्न कर दिया।(अख़बार अल दवल पृष्ठ 117 )

शेख़ शहाबुद्दीन क़लदूनी ने किताब ग़राएब व अजाएब में इस वाक़िये को सूफ़ियों की करामत के सिलसिले में लिखा है बाज़ किताबों ंमें है कि हड्डी की गिरफ़्त के बाद आपने नमाज़ अदा की और दुआ फ़रमाई। ख़ुदा वन्दे आलम ने इतनी बारिश की कि जल थल हो गया और क़हत जाता रहा। यह भी मरक़ूम है कि इमाम (अ.स.) ने क़ैद से निकलते वक़्त अपने साथियों की रिहाई का मुतालेबा फ़रमाया था जो मंज़ूर हो गया था और वह लोग भी राहिब की हवा उखाड़ने के लिये हमराह थे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 151 )

एक रवायत में है कि जब आपने दुआ ए बारान की और अब्र आया तो आपने फ़रमाया कि फ़लां मुल्क के लिये है और वह वहीं चला गया। इसी तरह कई बार हुआ फिर वहां बरसा।

वाक़ीयाए क़हत के बाद

256 हिजरी के आखि़र में वाक़िए क़हत के बाद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का चर्चा तमाम आलम में फैल गया। अब क्या था मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ सब ही का मैलान व रूझान आपकी तरफ़ होने लगा। आपके वह नए मानने वाले जिनके दिलों में आले मोहम्मद (स अ व व ) की मोअद्दत कमाल को पहुँची हुई थी वह यह चाहते थे कि किसी सूरत से इमाम (अ.स.) की खि़दमत में इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत की मुबारक बाद पेश करें लेकिन इसका मौक़ा न मिलता था क्यों कि या इमाम क़ैद में होते या हिरासत में। उनसे मिलने की किसी को इजाज़त न होती थी लेकिन क़हत के वाक़िये से इतना हुआ कि आप तक़रीबन एक साल क़ैद ख़ाने से बाहर रहे। इसी दौरान में लोगों ने मसाएल वग़ैरा दरयाफ़्त किये और जो लोग ज़्यारत के मुश्ताक़ थे उन्होंने ज़ियारत की और जो ख़ुफ़िया तहनियते विलादत हज़रते हज़रत हुज्जत (अ.स.) अदा करना चाहते थे उन्होंने तहनियत अदा की।

अल्लामा मोहम्मद बाक़र लिखते हैं कि 257 हिजरी में तक़रीबन 70 आदमी मदाएन से करबला होते हुए सामरा पहुँचे और हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर तहनियत गुज़ार हुए। हज़रत ने फ़रते मसर्रत से आंखों में आंसू भर कर उनका इस्तेक़बाल किया और उनके सवालात के जवाबात दिये।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 172 )

अक़ीदत मंदों की आमद का चुंकि तांता बंध गया था इस लिये ख़लीफ़ा मोतमिद ने आपके हालात की निगरानी के लिये बेशुमार जासूस मुक़र्रर कर दिये। इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने जिन्हें हुकूमत की नियत का बहुत अच्छी तरह इल्म था ख़ामोशी और ंगोशा नशीनी की ज़िन्दगी बसर करने लगे और आपने इसकी एहतीयात बरती कि मुल्की मामेलात पर कोई तबसेरा न किया जाय और सिर्फ़ दीनी उमूर से बहस की जाय। चुनान्चे 257 हिजरी के आखि़र तक यही कुछ होता रहा लेकिन ख़लीफ़ा मुतमईन न हुआ और उसने हसबे आदत रोक टोक शुरू की और सब से पहले उसने ख़ुम्स की आमद की बन्दिश कर दी।

इमाम हसन असकरी (अ.स.) और अबीदुल्लाह वज़ीरे मोतमिद अब्बासी

इसी ज़माने में एक दिन हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) मुतवक्किल के वज़ीर फ़तेह इब्ने ख़ाकान के बेटे अबीदुल्लाह इब्ने ख़ाक़ान जो कि मोतमिद का वज़ीर था मिलने के लिये तशरीफ़ ले गए। उसने आपकी बेइन्तेहां ताज़ीम की और आपसे इस तरह महवे गुफ़्तुगू रहा कि मोतमिद का भाई मौक़फ़ दरबार में आया तो उसने कोई परवाह न की। यह हज़रत की जलालत और ख़ुदा की दी हुई इज़्ज़त का नतीजा था। हम इस वाक़िये को अबीदुल्लाह के बेटे अहमद ख़ाक़ान की ज़बानी बयान करते हैं। कुतुबे मोतबरा में है कि जिस ज़माने में अहमद ख़ाक़ान क़ुम का वाली था , उसके दरबार में एक दिन अलवियों का तज़किरा छिड़ गया। वह अगरचे दुशमने आले मोहम्मद होने में मिसाली अहमियत रखता था लेकिन यह कहने पर मजबूर हो गया कि मेरी नज़र में इमाम हसन असकरी (अ.स.) से बेहतर कोई नहीं। उनकी जो वक़अत उनके मानने वालों और अराकीने दौलत की नज़र में थी वह उनके अहद में किसी को भी नसीब नहीं हुई। सुनो! एक मरतबा मैं अपने वालिद अबीदुल्लाह इब्ने ख़ाक़ान के पास खड़ा हुआ था कि नागाह दरबान ने आ कर इत्तेला दी कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) तशरीफ़ लाए हुए हैं , वह इजाज़ते दाखि़ला चाहते हैं। यह सुन कर मेरे वालिद ने पुकार कर कहा कि हज़रत इब्नुब रज़ा को आने दो। वालिद ने चूंकि कुन्नियत के साथ नाम लिया था इस लिये मुझे सख़्त ताअज्जुब हुआ क्यो कि इस तरह ख़लीफ़ा या वली अहद के अलावा किसी का नाम नहीं लिया जाता था। इसके बाद ही मैंने देखा कि एक साहब जो सब्ज़ रंग , ख़ुश क़ामत , ख़ूब सूरत , नाज़ुक अन्दाम जवान थे , दाखि़ल हुए। जिनके चहरे से रोबो जलाल हुवेदा था। मेरे वालिद की नज़र ज्यों ही उनके ऊपर पड़ी वह उठ खड़े हुए और उनके इस्तेक़बाल के लिये आगे बढ़े और उन्हें सीने से लगा कर उनके चेहरे और सीने का बोसा दिया और अपने मुसल्ले पर उनको बिठा लिया और कमाले अदब से उनकी तरफ़ मुख़ातिब रहे और थोड़ी थोड़ी देर के बाद कहते थे , मेरी जान आप पर क़ुरबान ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व )। इसी असना में दरबान ने आ कर इत्तेला दी कि ख़लीफ़ा का भाई मौफ़िक़ आया है। मेरे वालिद ने कोई तवज्जो न की हालांकि उसका उमूमन यह एज़ाज़ रहता था कि जब तक वापस न चला जाए , दरबार के लोग दो रोया सर झुकाय खड़े रहते थे। यहां तक कि मौफ़ि़क़ के ग़ुलामे ख़ास को उसने अपनी नज़रों से देख लिया। उन्हें देखने के बाद मेरे वालिद ने कहा या इब्ने रसूल अल्लाह (स अ व व ) अगर इजाज़त हो तो मौफ़िक़ से कुछ बातें कर लूं। हज़रत ने वहां से उठ कर रवाना हो जाने का इरादा किया। मेरे वालिद ने उन्हें सीने से लगाया और दरबानों को हुक्म दिया कि उन्हें दो मुकम्मल सफ़ों के दरमियान से ले जाओ कि मौफ़िक़ की नज़र आप पर न पड़े। चुनान्चे हज़रत इसी अन्दाज़ से वापस तशरीफ़ ले गए। आप के जाने के बाद मैंने ख़ादिमों और ग़ुलामों से कहा कि वाए हो तुमने कुन्नियत के साथ किस का नाम ले कर उसे मेरे वालिद के सामने पेश किया था , जिसकी उसने इस दर्जा ताज़ीम की जिसकी मुझे तवक़्क़ो न थी। उन लोगों ने फिर कहा कि यह शख़्स सादाते अलविया में से था। उसका नाम हसन बिन अली और कुन्नियत इब्नुल रज़ा है। यह सुन कर मेरे ग़म व ग़ुस्से की कोई इन्तेहां न रही और मैं दिन भर इसी ग़ुस्से में भुनता रहा कि अलवी सादात की मेरे वालिद ने इतनी इज़्ज़त व तौक़िर क्यो कि , यहां तक कि रात आ गई। मेरे वालिद नमाज़ में मशग़ूल थे। जब वह फ़रीज़ा ए इशा से फ़ारिग़ हुए तो मैं उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। उन्होंने पूछा , ऐ अहमद ! इस वक़्त आने का क्या सबब है ? मैंने अर्ज़ की कि इजाज़त दीजिए तो कुछ पूछूं। उन्होंने फ़रमाया कि जो जी चाहे पूछो। मैंने कहा यह कौन शख़्स था , जो सुबह आपके पास आया था ? जिसकी आपने ज़बर दस्त ताज़ीम की और हर बात में अपने को और अपने बाप को उस पर से फ़िदा करते थे। उन्होंने फ़रमाया कि ऐ फ़रज़न्द यह राफ़ज़ियों के इमाम हैं। उनका नाम हसन बिन अली और उनकी मशहूर कुन्नियत इब्नुल रज़ा है। यह फ़रमा कर वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले ऐ फ़रज़न्द यह वह कामिल इंसान हैं कि अगर अब्बासीयों से सलतन चली जाए तो इस वक़्त दुनियां में इससे ज़्यादा इस हुकूमत का मुस्तहक़ कोई नहीं। यह शख़्स इफ़्फ़त , ज़ोहद , कसरते इबादत , हुस्ने इख़लाक़ , सलाह , तक़वा वग़ैरा में तमाम बनी हाशिम से अफ़ज़ल और आला हैं , और ऐ फ़रज़न्द अगर तू उनके बाप को देखता तो हैरान रह जाता , वह इतने साहबे करम और फ़ाज़िल थे कि उनकी मिसाल भी नहीं थी। यह सब बातें सुन कर मैं ख़ामोश तो हो गया लेकिन वालिद से हद दर्जा नाख़ुश रहने लगा और साथ ही साथ इब्नुल रज़ा के हालात को मालूम करना अपना शेवा बना लिया। इस सिलसिले में मैंने बनी हाशिम , उमरा , लशकर , मुन्शियाने दफ़्तरे क़ज़्ज़ाता और फ़ुक़हा और अवामुन नास से हज़रत के हालात का इस्तेफ़सार किया। सब के नज़दीक हज़रत इब्नुल रज़ा को जलील उल क़द्र और अज़ीम पाया और सबने बिल इत्तेफ़ाक़ यही बयान किया कि इस मरतबे और खू़बियों का कोई शख़्स किसी ख़ानदान में नहीं है। जब मैंने हर दोस्त और दुश्मन को हज़रत के बयाने इख़्लाक़ और इज़हारे मकारमे इख़्लाक़ में मुत्तफ़िक़ पाया तो मैं भी उनका दिल से मानने वाला हो गया और अब उनकी क़द्रो मंज़िलत मेरे नज़दीक़ बे इन्तेहा है। यह सुन कर तमाम अहले दरबार ख़ामोश हो गए। अलबत्ता एक शख़्स बोल उठा कि ऐ अहमद तुम्हारी नज़र में उनके बरादर जाफ़र की क्या हैसियत है ? अहमद ने कहा उनके मुक़ाबले में उसका क्या ज़िक्र करते हो वह तो ऐलानिया फ़िस्क़ व फ़ुजूर का इरतेक़ाब करता था। दाएमुल ख़ुमर था , ख़फ़ीफ़ उल अक़्ल था , अनवाए मलाही व मनाही का मुरतक़िब होता था। इब्नुल रज़ा के बाद जब ख़लीफ़ा मोतमिद से उसने उनकी जा नशीनी का सवाल किया तो उसने उसके किरदार की वजह से दरबार से निकलवा दिया था।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 124 व इरशादे मुफ़ीद पृष्ठ 505 ) बाज़ उलेमा ने लिखा है कि यह गुफ़्तुगू इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत के 18 साल बाद माहे शाबान 278 हिजरी की है।(दमए साकेबा पृष्ठ 192 जिल्द 3 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

इमाम हसन असकरी (अ.स.) की दोबारा गिरफ़्तारी

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि ख़ुल्फ़ाए बनी अब्बासिया ख़ूब जानते थे कि सिलसिला ए आले मोहम्मद (स अ व व ) के वह अफ़राद जो रसूल अल्लाह (स अ व व ) की सही जा नशीनी के मिसदाक़ व हक़दार हो सकते हैं वह वही अफ़राद हैं जिनमें से ग्यारहवीं हस्ती इमाम हसन असकरी (अ.स.) की है। इस लिये उनका फ़रज़न्द वह हो सकता है जिसके बारे में रसूल अल्लाह (स अ व व ) की पेशीन गोई सही क़रार पा सके। लेहाज़ा कोशिश यह थी कि उनकी ज़िन्दगी का दुनिया से ख़ात्मा हो जाए। इस तरह की उनका जा नशीन दुनिया में मौजूद ने हो। यही सबब था कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) के लिये नज़र बन्दी पर इक़तेफ़ा नहीं की गई। जो इमाम अली नक़ी (अ.स.) के लिये ज़रूरी समझी गई थी बल्कि आपके लिये अपने घर बार से अलग क़ैद तन्हाई को ज़रूरी समझा गया। यह और बात है कि क़ुदरती इन्तेज़ाम के मातहत दरमियान में इन्के़लाबाते सलतनत के वाक़ए आपकी क़ैदे मुसलसल के बीच में क़हरी रिहाई के सामान पैदा कर दिया करते थे , मगर फिर भी जो बादशाह तख़्त पर बैठता वह अपने पेश रौ के नज़रिये के मुताबिक़ आपको दोबारा मुक़य्यद करने पर तैयार हो जाता था। इस तरह आपकी मुख़्तसर ज़िन्दगी जो दौरे इमामत के बाद थी उसका बेशतर हिस्सा क़ैदो बन्द में ही गुज़रा। इस क़ैद की सख़्ती मोतमिद के ज़माने में बहुत बढ़ गई थी। अगरचे वह मिस्ल दीगर सलातीन के आपके मरतबे और हक़्क़ानियत से ख़ूब वाक़िफ़ था लेकिन फिर भी वह बुग़्ज़े लिल्लाही को छोड़ न सका और दस्तूरे साबिक़ के मुताबिक़ उन्होंने ज़िन्दगी की मंज़िले आखि़र तक पहुँचाने के दरपए रहा। यही वहज है कि वह नज़र बन्दियों से मुतमईन न हो सका और उसने 258 हिजरी में इमाम हसन असकरी (अ.स.) को फिर मुक़य्यद कर दिया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 214 ) और अबकी मरतबा चूंकि नियत बिल्कुल ख़राब थी इस लिये क़ैद में भी पूरी सख़्ती की गई। हुक्म था कि आपके साथ किसी क़िस्म की कोई रियायत न की जाए। चुनान्चे यही कुछ होता रहा लेकिन उसे इससे तसल्ली न हुई और उसने अपने एक ज़ालिम खि़दमतगार जिसका नाम ‘‘ नख़रीर ’’ था को बुला कर कहा कि उन्हें तू अपनी निगरानी में ले ले और जिस दर्जा सता सके उन्हें परेशान कर। नख़रीर ने हुक्म पाते ही तशद्दुद शुरू कर दिया। इमाम (अ.स.) को दिन की रौशनी और पानी की फ़रावानी तक से महरूम कर दिया। आपको दिन और रात का पता सूरज की रौशनी से न चलता था सिर्फ़ तारीकी ही रहती थी। एक दिन उसकी बीवी ने उससे दरख़्वास्त की के फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व ) है उसके साथ तुम्हारा यह बरताव अच्छा नहीं है। उसने कहा यह क्या है अभी तो उन्हें जानवरों से फड़वा डालना बाकी़ है।

हुज्जते ख़ुदा दरिन्दों में

चुनान्दे उसने इजाज़त हासिल कर के इमाम हसन असकरी (अ.स.) को दरिन्दों मे डाल दिया। शेर और दीगर दरिन्दों की नज़र जब आप पर पड़ी तो उन्होंने हुज्जते ख़ुदा को पहचान लिया और उन्हें फाड़ खाने के बजाए उनके क़दमों पर सर रख दिया इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने उनके दरमियान मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ना शुरू कर दिया दुश्मनों ने एक बुलन्द मक़ाम से यह हाल देखा और सख़्त शर्मिन्दा हो कर इमाम (अ.स.) की फ़ज़ीलत का एतेराफ़ किया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 218, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 127, इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 514 )

इस वाक़िये ने आप की दबी हुई फ़ज़ीलत को उभार दिया लोगों में इस करामत का चरचा हो गया अब तो मुतामिद के लिये इस के सिवा कोई चारा न था कि उन्हें जल्द से जल्द इस दारे फ़ानी से रूख़सत कर दे चुनान्चे उसने एक ऐसे क़ैद ख़ाने में आपको मुक़य्यद कर दिया जिसमें रह कर ज़िन्दा रहने से मौत बेहतर है।

इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत

इमाम याज़ दहुम ग्यारहवें इमाम हज़रत हसन असकरी (अ.स.) क़ैदो बन्द की ज़िन्दगी गुज़ारने के दौरान में एक दिन अपने ख़ादिम अबुल अदयान से इरशाद फ़रमाते हुए कि तुम जब अपने सफ़रे मदाएन से पन्द्रह दिन के बाद पलटोगे तो मेरे घर से शेवनो बुका की आवाज़ आती होंगी।(जिलाउल उयून , पृष्ठ 299 ) नीज़ आपका यह फ़रमाना भी मन्क़ूल है कि 260 हिजरी में मेरे मानने वालों के दरमियान इन्के़लाबे अज़ीम आयेगा।(दमए साकबे जिल्द 3 पृष्ठ 177 )

अल ग़रज़ इमाम हसन असकरी (अ.स.) को बातारीख़ 1 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को मोतमिद अब्बासी ने ज़हर दिलवा दिया और आप 8 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को जुमे के दिन ब वक़्ते नमाज़े सुबह खि़लअते हयाते ज़ाहेरी उतार कर ब त फ़े मुल्के जावेदानी रेहलत फ़रमा गए। ‘‘ इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 व फ़ुसूल अल महमा व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 464 जिलाउल उयून पृष्ठ 296, अनवारूल हुसैनिया जिल्द 3 पृष्ठ 56 )

उलेमा का बयान है कि वफ़ात से क़ब्ल आपने इमाम मेहदी (अ.स.) को तबर्रूकात सिपुर्द फ़रमा दिये थे।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 192 )

शहादत के वक़्त आपकी उम्र 28 साल की थी।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 )

उलमाए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि आपने हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के अलावा कोई औलाद नहीं छोड़ी।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 292 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124, नूरूल अबसार , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 462, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 126 व आलामुल वुरा पृष्ठ 218 )

शहादत के बाद

वाक़िए क़हत , दरिन्दों की सजदा रेज़ी और आपकी मज़लूमियत की वजह से हर एक के दिल में आप की वक़अत , आपकी मोहब्बत जा गुज़ी हो चुकी थी। यही वजह है कि आपकी शहादत की ख़बर का शोहरत पाना था कि हर घर से रोने की आवाज़ें आने लगीं। हर दिल में इज़तेराब की लहरे दौड़ने लगीं। शोरो शेवन से सामरा की गलियां क़यामत का मन्ज़र पेश करने लगीं।

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) के इरशाद के मुताबिक़ जब 15 दिन के बाद अबुल अदयान दाखि़ले सामरा हुए तो आप शहीद हो चुके थे और शेवन व मातम की आवाज़ें बुलन्द थीं।(जिलाउल उयून पृष्ठ 297 )

इमाम शिब्लन्जी लिखते हैं कि आपके इन्तेक़ाल की ख़बर के मशहूर होते ही तमाम सामरा में हल चल मच गई और हर तरफ़ रोने पीटने का शोर बुलन्द हो गया। बाज़ारों में हरताल हो गई , दुकानें बन्द हो गईं। फिर तमाम बनी हाशिम और हाकिमाने क़सास , अरकाने अदालत , अयाने हुकूमत , मुन्शी , क़ाज़ी और आइम्मा ए ख़लाएक़ आपके जनाज़े में शिरकत के लिये दौड़ पड़े। सरमन राय इस दिन क़यामत का नमूना था।(नूरूल अबसार पृष्ठ 168, फुसूल मूहिम्मा , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 468 )

ग़रज़ कि निहायत तुज़ुक व एहतेशाम और ज़ाहेरी शानो शौकत के साथ आपका जनाज़ा उठाया गया और उस मुक़ाम पर ले जा कर रखा गया जिस जगह नमाज़ पढ़ाई जाती थी। इतने में मोतमिद के हुक्म से ईसा इब्ने मुतावक्किल जो उमूमन नमाज़े मय्यत पढ़ाया करता था आगे बढ़ा और उसने चेहरे से कफ़न सरका कर बनी हाशिम अलवी व अब्बासी और सब अमीरों , मुन्शियों , क़ाज़ियों ग़रज़ कि कुल अशराफ़ों अयान को दिखाते हुए कहा कि ‘‘ माता हतफ़ अनफ़ा अला फ़राशा ’’ देखो यह अपनी मौत से मरे हैं। यानी इन्हें किसी ने कुछ खिलाया नहीं है।(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 229 )

इसके बाद जाफ़रे तव्वाब नमाज़ पढ़ाने के लिये आगे बढ़े , अभी आप तकबीरतुल हराम न कहने पाए थे कि मोहम्मद इब्ने हसन अल क़ायम अल मेहदी (अ.स.) बरामद हो कर सामने आ गए और आपने चचा को हटा कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई।(जला उल उयून पृष्ठ 292 ) इस के बाद आपको इमाम अली नक़ी (अ.स.) के रौज़ा ए मुबारक में दफ़्न कर दिया गया।(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 264 )

यह आपकी ख़ानदानी करामत है कि आपके रौज़े पर ताएर बीट नहीं करते।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 179 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) की तदफ़ीन के बाद इमाम मेहदी (अ.स.) के तजस्सुस में आपके घर की तलाशी ली गई और आपकी औरतों को गिरफ़्तार किया गया। मक़सद यह था कि इमाम मेहदी (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के क़त्ल कर दिया जाए ताकि ख़ानदाने रिसालत का ख़ात्मा हो जाए और क़यामत के क़रीब अदलो इन्साफ़ की बस्ती न बसाई जा सके और ज़ालिमों के ज़ुल्म का बदला न लिया जा सके , लेकिन ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने वादे ‘‘ वल्लाह मतम नूरा ’’ के मुताबिक़ उन्हें इस ज़ालिम मोतमिद के दस्त रस से महफ़ूज़ कर दिया। अब इन्शा अल्लाह जब हुक्मे ख़ुदा होता तो आप ज़हूर फ़रमायेंगे।(अजल्लाह तआला फ़राजहू)


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