नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

1-आपका मकतूबे गिरामी(जोमदीनेसेबसरेकीजानिबरवानाहोतेहुएअहलेकूफ़ाकेनामतहरीरकिया)

ख़ुदा के बन्दे अली अमीरूल मोमेनीन (अ0) की तरफ़ से अहले कूफ़ा के नाम जो मददगारों में सरबरावरदा , और क़ौमे अरब में बलन्द नाम हैं, मैं उस्मान के मामले से तुम्हें इस तरह आगाह किये देता हूँ के सुनने और देखने में कोई फ़र्क़ न रहे। लोगों ने उन पर एतराज़ात किये तो मुहाजेरीन में से एक मैं ऐसा था जो ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश करता था के इनकी मर्ज़ी के खि़लाफ़ कोई बात न हो और शिकवा-शिकायत बहुत कम करता था। अलबत्ता उनके बारे में तल्हा व ज़ुबैर की हल्की से हल्की रफ़्तार भी तुन्द व तेज़ थी और नर्म से नर्म आवाज़ भी सख़्ती व दरश्ती लिये हुए थी, और उन पर आइशा को भी बेतहाशा ग़ुस्सा था चुनांचे एक गिरोह आमादा हो गया और उसने उन्हें क़त्ल कर दिया और लोगों ने मेरी बैयत कर ली इस तरह के न उन पर कोई ज़बरदस्ती थी और न उन्हें मजबूर किया गया था बल्कि उन्होंने रग़बत व इख़्तेयार से ऐसा किया। और तुम्हें मालूम होना चाहिये के दारूल बहत (मदीना) अपने रहने वालों से ख़ाली हो गया है और इसके बाशिन्दों के क़दम वहां से उखड़ चुके हैं और वह देग की तरह उबल रहा है और फ़ित्ने की चक्की चलने लगी है लेहाज़ा अपने अमीर की तरफ़ तेज़ी से बढ़ो और अपने दुश्मनों से जेहाद करने के लिये जल्दी से निकल खड़े हो।

2- आपका मकतूबे गिरामी (जिसे अहले कूफ़ा के नाम बसरा की फ़तेह के बाद लिखा गया)

शहरे कूफ़ा वालों! ख़ुदा तुम्हें तुम्हारे पैग़म्बर (स0) के अहलेबैत (अ0) की तरफ़ से जज़ाए ख़ैर दे , ऐसी बेहतरीन जज़ा जो उसकी इताअत पर अमल करने वालों और उसकी नेमतों का शुक्रिया अदा करने वालों को दी जाती है, के तुमने मेरी बात सुनी और इताअत की, तुम्हें पुकारा गया तो तुमने मेरी आवाज़ पर लब्बैक कही।

3-आपका मकतूबे गिरामी (अपने क़ाज़ी शरीह के नाम)

कहा जाता है के अमीरूलमोमेनीन (अ0) के एक क़ाज़ी शरीह बिन अलहारिस ने आपके दौर में अस्सी दीनार का एक मकान ख़रीद लिया तो हज़रत ने ख़बर पाते ही उसे तलब कर लिया और फ़रमाया के मैंने सुना है तुमने अस्सी दीनार का मकान ख़रीद लिया है और उसके लिये सयामा (दस्तावेज़) भी लिखा है और इस पर गवाही भी ले ली है ? शरीह ने कहा के ऐसा तो हुआ है। आपको ग़ुस्सा आ गया और फ़रमाया

शरीह! अनक़रीब तेरे पास वह शख़्स आने वाला है जो न इस तहरीर को देखेगा और न तुझ से गवाहों के बारे में सवाल करेगा बल्कि तुझे उस घर से निकाल कर तनो तन्हा क़ब्र के हवाले कर देगा। अगर तुमने यह मकान दूसरे के माल से ख़रीदा है और ग़ैर हलाल से क़ीमत अदा की है तो तुम्हें दुनिया और आखि़रत दोनों में ख़सारा होगा। (((-साहब आग़ानी ने इस वाक़ेए को नक़्ल किया है के अमीरूल मोमेनीन (अ0) का इख़्तेलाफ़ एक यहूदी से हो गया जिसके पास आपकी ज़िरह थी , उसने क़ाज़ी से फै़सला कराने पर इसरार किया, आप यहूदी के साथ शरीह के पास आए, उसने आपसे गवाह तलब किये, आपने क़म्बर और इमाम हुसैन (अ0) को पेश किया , शरीह ने क़म्बर की गवाही क़ुबूल कर ली और इमाम हसन (अ0) की गवाही फ़रज़न्द होने की बिना पर रद कर दी , आपने फ़रमाया के रसूले अकरम (स0) ने उन्हें सरदारे जवानाने जन्नत क़रार दिया है और तुम उनकी गवाही को रद कर रहे हो ? लेकिन इसके बावजूद आपने फ़ैसले का ख़याल करते हुए ज़िरह यहूदी को दे दी। उसने वाक़ेए को निहायत दरजए हैरत की निगाह से देखा और फिर कलमए शहादतैन पढ़ कर मुसलमान हो गया। आपने ज़िरह के साथ उसे घोड़ा भी दे दिया और900 दिरहम वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया। वह मुस्तक़िल आपकी खि़दमत में हाज़िर रहा यहां तक के सिफ़्फ़ीन में दरजए शहादत पर फ़ाएज़ हो गया। इस वाक़ेए से अन्दाज़ा होता है के इमाम अलैहिस्सलाम का किरदार क्या था और शरीह की बदनफ़्सी का क्या आलम था और यहूदी के ज़र्फ़ में किस क़द्र सलाहियत पाई जाती थी।)))

याद रखो अगर तुम इस मकान को ख़रीदते वक़्त मेरे पास आते तो मुझसे दस्तावेज़ लिखवाते तो एक दिरहम में भी खरीदने के लिये तैयार न होते, अस्सी दिरहम तो बहुत बड़ी बात है। मैं उसकी दस्तवेज़ इस तरह लिखता-

यह वह मकान है जिससे एक बन्दाए ज़लील ने उस मरने वाले से ख़रीदा है जिसे कूच के लिये आमादा कर दिया गया है। यह मकान दुनियाए पुरफ़रेब में वाक़ेअ है जहाँ फ़ना होने वालों की बस्ती है और हलाक होने वालों का इलाक़ा है, इस मकान के हुदूद राबइया हैं।

एक हद असबाबे आफ़ात की तरफ़ है और दूसरी असबाबे मसाएब से मिलती है, तीसरी हद हलाक कर देने वाली ख़्वाहिशात की तरफ़ है और चौथी गुमराह करने वाले शैतान की तरफ़ और इसी तरफ़ इस घर का दरवाज़ा खुलता है। इस मकान को उम्मीदों के फ़रेब ख़ोरदा ने अजल के राहगीर से ख़रीदा है जिसके ज़रिये क़नाअत की इज़्ज़त से निकल कर तलब व ख़्वाहिश की ज़िल्लत में दाखि़ल हो गया है। अब अगर इस ख़रीदार को इस सौदे में कोई ख़सारा हो तो यह उस ज़ात की ज़िम्मेदारी है जो बादशाहों के जिस्मों का तहो बाला करने वाला, जाबिरों की जान निकाल लेने वाला, फ़िरऔनों की सलतनत को तबाह कर देने वाला, कसरा व क़ैसर तबअ व हमीर और ज़्यादा से ज़्यादा माल जमा करने वालों, मुस्तहकम इमारतें बना कर उन्हें सजाने वालों, उनमें बेहतरीन फ़र्श बिछाने वालों और औलाद के ख़याल से ज़ख़ीरा करने वालों और जागीरें बनाने वालों को फ़ना के घाट उतार देने वाला है के इन सबको क़यामत के मौक़फ़ हिसाब और मन्ज़िले सवाब व अज़ाब में हाज़िर कर दे जब हक़ व बातिल का हतमी फ़ैसला होगा और अहले बातिल यक़ीनन ख़सारे में होंगे। इस सौदे पर इस अक़्ल ने गवाही दी है जो ख़्वाहिशात की क़ैद से आज़ाद और दुनिया की वाबस्तगीयों से महफ़ूज़ है’ (((-जब असहाबे जमल बसरा में वारिद हुए तो वहाँ के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ ने आपके नाम एक ख़त लिखा जिसमें बसरा की सूरते हाल का ज़िक्र किया गया था। आपने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया के जंग में पहल करना हमारा काम नहीं है लेहाज़ा तुम्हारा पहला काम यह है के उन पर एतमामे हुज्जत करो फिर अगर इताअते इमाम (अ0) पर आमादा हो जाएं तो बेहतरीन बात है वरना तुम्हारे पास फ़रमाबरदार क़िस्म के अफ़राद मौजूद हैं , उन्हें साथ लेकर ज़ालिमों का मुक़ाबला करना और ख़बरदार जंग के मामले में किसी पर किसी क़िस्म का जब्र न करना के जंग का मैदान क़ुरबानी का मैदान है और इसमें वही अफ़राद साबित क़दम रह सकते हैं जो जान व दिल से क़ुरबानी के लिये तैयार हों वरना अगर बादल न ख़्वास्ता फ़ौज इकट्ठा भी कर ली गई तो यह ख़तरा बहरहाल रहेगा के यह ऐन वक़्त पर छोडड़ कर फ़रार कर सकते हैं जिसका तजुर्बा तारीख़़े इस्लाम में बारहा हो चुका है और जिसका सबूत ख़ुद क़ुराने हकीम में मौजूद है।-)))

4- आपकामकतूबेगिरामी(लशकर के कुछ सरदारोकेनाम)

अगर दुश्मन इताअत के ज़ेरे साया आ जाएं तो यही हमारा मुद्दआ है और अगर मुआमलात इफ़तेराक़ और नाफ़रमानी की मन्ज़िल ही की तरफ़ बढ़े तो तुम अपने इताअत गुज़ारों को लेकर नाफ़रमानों के मुक़ाबले में उठ खड़े हो और अपने फ़रमाबरदारों के वसीले से इन्हेराफ़ करने वालों से बेनियाज़ हो जाओ के बादल नाख़्वास्ता हाज़िरी देने वालों की हाज़िरी से ग़ैबत बेहतर है (जो बददिली से साथ हो उसका न होना होने से बेहतर है) और उनका बैठ जाना ही उठ जाने से ज़्यादा मुफ़ीद है।

5-आपका मकतूबे गिरामी(आज़रबाईजानकेगवर्नरअशअसबिनक़ैसकेनाम)

यह तुम्हारा मन्सब कोई लुक़्मए तर नहीं है बल्कि तुम्हारी गर्दन पर अमानते इलाही है और तुम एक बलन्द हस्ती के ज़ेरे निगरानी हिफ़ाज़त पर मामूर हो, तुम्हें रिआया के मामले में इस तरह के एक़दाम का हक़ नहीं है और ख़बरदार किसी मुस्तहकम दलील के बग़ैर किसी बड़े काम में हाथ मत डालना, तुम्हारे हाथों में जो माल है यह भी परवरदिगार के असवाल का एक हिस्सा है और तुम इसके ज़िम्मेदार हो जब तक मेरे हवाले न कर दो, बहरहाल शायद इस नसीहत की बिना पर मैं तुम्हारा बुरा वाली न हूंगा, वस्स्सलाम।

6- आपका मकतूबे गिरामी

देख मेरी बैअत उसी क़ौम ने की है जिसने अबूबकर व उमर व उस्मान की बैअत की थी और उसी तरह की है जिस तरह उनकी बैअत की थी, के न किसी हाज़िर को नज़रेसानी का हक़ था और न किसी ग़ायब को रद कर देने का इख़्तेयार था। शूरा का इख़्तेयार भी सिर्फ महाजेरीन व अन्सार को होता है लेहाज़ा वह किसी शख़्स पर इत्तेफ़ाक़ कर लें और उसे इमाम नामज़द कर दे तो गोया के इसी में रिज़ाए इलाही है और अगर कोई शख़्स तन्क़ीद करके या बिदअत की बुनियाद पर इस अम्र से बाहर निकल जाए तो लोगों का फ़र्ज़ है के इसे वापस दे दें और अगर इन्कार कर दे तो उससे जंग करें के इसने मोमेनीन के रास्ते से हट कर राह निकाली है और अल्लाह भी उसे उधर ही फेर देगा जिधर वह फिर गया है।

माविया! मेरी जान की क़सम, अगर तू ख़्वाहिशात को छोड़कर अक़्ल की निगाहों में देखोगा तो मुझे सबसे ज़्यादा ख़ूने उस्मान से में इस सिलसिले मसले से पाक दामन (बरी) पाएगा और तुझे मालूम हो जाएगा के मैं इस मसले से बिल्कुल अलग थलग था। मगर यह के तू हक़ाएक़ की परदा पोशी करके इल्ज़ाम ही लगाना चाहे तो तुझे मुकम्मल इख़्तेयार है, (यह गुजिश्ता बैअतों की सूरते हाल की तरफ़ इशारा है वरना इस्लाम में खि़लाफ़त शूरा से तै नहीं होती है-- जवादी)

7-आपका मकतूबे गिरामी

अम्माबाद! मेरे पास तेरी बेजोड़ नसीहतों का मजमुआ और तेरा ख़ूबसूरत सजाया बनाया हुआ ख़त वारिद हुआ है जिसे तेरे गुमराही के क़लम ने लिखा है और इस पर तेरी बेअक़्ली ने इमज़ा किया है, यह एक ऐसे शख़्स का ख़त है जिसके पास न हिदायत देने वाली बसीरत है और न रास्ता बताने वाली क़यादत, उसे ख़्वाहिशात ने पुकारा तो उसने लब्बैक कह दी और गुमराही ने खींचा तो उसके पीछे चल पड़ा और इसके नतीजे में औल-फ़ौल बकने लगा और रास्ता भूलकर गुमराह हो गया। देख यह बैअत एक मरतबा होती है जिसके बाद न किसी को नज़रे सानी का हक़ होता है और न दोबारा इख़्तेयार करने का। इससे बाहर निकल जाने वाला इस्लामी निज़ाम पर मोतरज़ शुमार किया जाता है और इसमें सोच विचार करने वाला मुनाफ़िक़ कहा जाता है। (((-अब्बास महमूद एक़ाद ने अबक़रीतुल इमाम (अ0) में इस हक़ीक़त का एलान किया है के ख़ूने उस्मान की तमामतर ज़िम्मेदारी ख़ुद माविया पर है के वह उनका तहफ़्फ़ुज़ करना चाहता तो उसके पास तमामतर इमकानात मौजूद थे , वह शाम का हाकिम था और उसके पास एक अज़ीमतरीन फ़ौज मौजूद थी जिससे किसी तरह का काम लिया जा सकता था। इमाम अली (अ0) की यह हैसियत नहीं थी - आप पर दोनों तरफ़ से दबाव पड़ रहा था , इन्क़ेलाबियों का ख़याल था के अगर आप बैअत क़ुबूल कर लें तो उस्मान को ब-आसानी माज़ूल किया जा सकता है और उस्मान का ख़याल था के आप चाहें तो इन्क़ेलाबियों को हटाकर मेरे मन्सब का तहफ़्फ़ुज़ कर सकते हैं और मेरी जान बचा सकते हैं। ऐसे हालात में हज़रत ने जिस ईमानी फ़रासत और इरफ़ानी हिकमत का मुज़ाहिरा किया है उससे ज़्यादा किसी फ़र्दे बशर के इमकान में नहीं था।-)))

8-आपका मकतूबे गिरामी(जरीरबिनअब्दुल्लाहबजलीकेनामजबउन्हेंमावियाकीफ़हमाइशकेलियेरवानाफ़रमाया)

अम्माबाद- जब तुम्हें यह मेरा ख़त मिल जाए तो माविया से हतमी फ़ैसले का मुतालेबा कर देना (उसे दो टूक फ़ैसले पर आमादा करो, और उसे किसी आखि़री और क़तई राय का पाबन्द बनाओ और दो बातों में से किसी एक के इख़्तेयार करने पर मजबूर करो), के घर से बेघर कर देने वाली जंग या रूसवा करने वाली सुलह, अगर वह जंग को इख़्तेयार करे तो तमाम ताल्लुक़ात और गफ़्त व शनीद ख़तम कर दो और अगर सुलह चाहे तो उससे बैअत ले लो।

9- आपकामकतूबेगिरामी(मावियाकेनाम)

हमारी क़ौम (क़ुरैश) का इरादा था के हमारे पैग़म्बर (स0) को क़त्ल कर दे और हमें जड़ से उखाड़ कर फेंक दे , उन्होंने हमारे बारे में रंजो ग़म के असबाब फ़राहम किये और हमसे तरह-तरह के बरताव किये, हमें राहत व आराम से रोक दिया और हमारे लिये मुख़्तलिफ़ क़िस्म के हौफ़ का इन्तेज़ाम किया। कभी हमें नाहमवार पहाड़ों में पनाह लेने पर मजबूर किया और कभी हमारे लिये जंग की आग भड़का दी, लेकिन परवरदिगार ने हमें ताक़त दी के हम उनके दीन की हिफ़ाज़त करें और उनकी हुरमत से हर तरह से दिफ़ाअ करें। हममें साहेबे ईमान अज्रे आखि़रत के तलबगार थे और कुफ़्फ़ार अपनी अस्ल की हिमायत कर रहे थे। क़ुरैश में जो लोग मुसलमान हो गए थे वह इन मुश्किलात से आज़ाद थे या इसलिये के उन्होंने कोई हिफ़ाज़ती मुआहेदा कर लिया था या उनके पास क़बीला था जो उनके सामने खड़ा हो जाता था और वह क़त्ल से महफ़ूज़ रहते थे और रसूले अकरम (स0) का यह आलम था के जब जंग के शोले भड़क उठते थे और लोग पीछे हटने लगते थे तो आप अपने अहलेबैत (अ0) को आगे बढ़ा देते थे और वह अपने को सिपर बनाकर असहाब को तलवार और नैज़ों की गरमी से महफ़ूज़ रखते थे। चुनांचे बद्र के दिन जनाबे उबैदा बिन अलहारिस मार दिये गए , ओहद के दिन हमज़ा शहीद हुए और मौतह में जाफ़र काम आ गए। एक शख़्स ने जिसका नाम मैं बता सकता हूँ उन्हीं लोगों जैसी शहादत का क़स्द किया था लेकिन उन सब की मौत जल्दी आ गई और उसकी मौत पीछे टाल दी गई।

किस क़द्र ताज्जुबख़ेज़ है जमाने का यह हाल के मेरा मुक़ाबला ऐसे अफराद से होता है जो कभी मेरे साथ क़दम मिलाकर नहीं चले और न इस दीन में उनका कोई कारनामा है जो मुझसे मवाज़ना किया जा सके मगर यह के कोई मुद्दई किसी ऐसे शरफ़ का दावा करे जिसको न मैं जानता हूँ या “शायद”ख़ुदा ही जानता है (यानी कुछ हो तो वह जाने) मगर हर हाल में ख़ुदा का शुक्र है। रह गया तुम्हारा यह मुतालेबा के मैं क़ातिलाने उस्मान को तुम्हारे हवाले कर दूं तो मैंने इस मसले में काफ़ी ग़ौर किया है। मेरे इमकान में उन्हें तुम्हारे हवाले करना है और न किसी और के, मेरी जान की क़सम अगर तुम अपनी गुमराही और अदावत से बाज़ न आए तो अनक़रीब उन्हें देखोगे के वह ख़ुद तुम्हें ढूंढ लेंगे और इस बात की ज़हमत न देंगे के तुम उन्हें ख़ुश्की या तरी, पहाड़ या सहरा में तलाश करो, अलबत्ता यह तलब होगी के जिसका हुसूल तुम्हारे लिये बाइसे मसर्रत न होगा (नागवारी का बाएस होगा) और वह मुलाक़ात होगी जिससे किसी तरह की ख़ुशी न होगी और सलाम उसके अहल पर। (((-क़ुरैश की ज़िन्दगी का सारा इन्तेज़ाम क़बाइली बुनियादों पर चल रहा था और हर क़बीले को कोई न कोई हैसियत हासिल थी लेकिन इस्लाम के आने के बाद इन तमाम हैसियतों का ख़ातेमा हो गया और इसके नतीजे में सबने इस्लाम के खि़लाफ़ इत्तेहाद कर लिया और मुख़्तलिफ़ मारके भी सामने आ गए लेकिन परवरदिगारे आलम ने रसूले अकरम (स0) के घराने के ज़रिये अपने दीन को बचा लिया और इसमें कोई क़बीला भी इनका शरीक नहीं है और न किसी को यह शरफ़ हासिल है , न किसी क़बीले में कोई अबूतालिब जैसा मुहाफ़िज़ पैदा हुआ है और न उबैदा जैसा मुजाहिद, न किसी क़बीले ने हमज़ा जैसा सय्यदुश शोहदा पैदा किया है और न जाफ़र जैसा तय्यार यह सिर्फ़ बनी हाशिम का शरफ़ है और इस्लाम की गरदन पर उनके अलावा किसी का कोई एहसान नहीं है।-)))

10-आपका मकतूबे गिरामी(मावियाहीकेनाम)

तुम उस वक़्त क्या करोगे जब दुनिया के यह लिबास जिनमें लिपटे हुए हो तुमसे उतर जाएंगे, यह दुनिया जो अपनी सज-धज की झलक दिखाती और अपने हज़ व कैफ़ से वरग़लाती है जिसने तुम्हें पुकारा तो तुमने लब्बैक कही, उसने तुम्हें खींचा तो तुम उसके पीछे हो लिये और उसने तुम्हें हुक्म दिया तो तुमने उसकी पैरवी की, वह वक़्त दूर नही के बताने वाला तुम्हें उन चीज़ों से आगाह करे के जिनसे कोई सिपर तुम्हें बचा न सकेगी, लेहाज़ा मुनासिब है के इस दावे से बाज़ आ जाओ और हिसाब व किताब का सामान तैयार कर लो, आने वाली मुसीबतों के लिये आरास्ता (तैयार) हो जाओ और गुमराहों को अपनी समाअत पर हावी न बनाओ वरना ऐसा न किया तो मैं तुम्हें इन तमाम चीज़ों से बाख़बर कर दूंगा जिनसे तुम ग़ाफ़िल हो, तुम ऐश व इशरत के दिलदादह हो शैतान ने तुम्हें अपनी गिरफ़्त में ले लिया है और अपनी उम्मीदों को हासिल कर लिया है और तुम्हारे रग व पै में रूह और ख़ून की तरह सरायत कर गया है।

माविया! आखि़र तुम लोग कब रिआया की निगरानी के क़ाबिल और उम्मत के मसाएल के वाली थे जबके तुम्हारे पास न कोई साबेक़ा शरफ़ था और न कोई बलन्द व बाला इज़्ज़त हम अल्लाह से तमाम दीरीना बदबख़्तीयों से पनाह मांगते हैं और तुम्हें बाख़बर करते हैं के ख़बरदार उम्मीदों के धोखे में और ज़ाहिर व बातिन के इख़्तेलाफ़ में मुब्तिला होकर गुमराही में दूर तक मत चले जाओ। तुमने मुझे जंग की दावत दी है तो बेहतर यह है के लोगों को अलग कर दो और बज़ाते ख़ुद मैदान में आ जाओ, फ़रीक़ैन को जंग से माफ़ कर दो और हम तुम बराहे रास्त मुक़ाबला कर लें ताके तुम्हें मालूम हो जाए के किस के दिल पर रंग लग गया है और किस की आंखों पर परदे पड़े हुए हैं। मैं वही अबुलहसन हूँ जिसने रोज़्रे बद्र तुम्हारे नाना (उतबा) मामू (वलीद बिन उतबा) और भाई हन्ज़ला का सर तोड़कर ख़ात्मा कर दिया है। (((-इस मुक़ाम पर सियासत से मुराद सियासते आदिला और आयते कामेला है के इस काम का अन्जाम देना हर कस व नाकस के बस का नहीं है वरना सियासत से मक्कारी, दग़ाबाज़ी और ग़द्दारी मुराद ली जाए तो बनी उमय्या हमेशा से सियासत के मुराद थे और अबू सुफ़यान ने हर महाज़ पर इस्लाम के खि़लाफ़ लशकरकशी की है और इस राह में किसी भी मौक़े को नज़र अन्दाज़ नहीं किया है। कभी मैदानों में मुक़ाबला किया है और कभी बैअत करके इस्लाम का सफ़ाया किया है। हज़रत का यह वह मुतालेबा था जिसकी अम्र व आस ने भी ताईद कर दी थी लेकिन माविया फ़ौरन ताड़ गया और उसने कहा के तू खि़लाफ़त का उम्मीदवार दिखाई दे रहा है और फिर मैदान का रूख़ करने का इरादा भी नहीं किया के अली की तलवार से बच कर निकल जाना मुहालात में से है।-)))

अभी वह तलवार मेरे पास है और मैं उसी हिम्म्मते क़ल्ब के साथ दुश्मन का मुक़ाबला करूंगा, मैंने न दीन तब्दील किया है और न नया नबी खड़ा किया है और मैं बिला शुबह उसी शाहेराह पर हूँ जिसे तुमने अपने इख़्तेयार से छोड़ रखा था और फिर ब-मजबूरी इसमें दाखि़ल हुए और तुम ऐसा ज़ाहिर करते हो के तुम ख़ूने उस्मान का बदला लेने को उठे हो हालांके तुम्हें अच्छी तरह मालूम है के उनका ख़ून किसके सर है, अगर वाक़ई बदला ही लेना मन्ज़ूर है तो उन्हीं से लो। मुझे तो यह मन्ज़र नज़र आ रहा है के जंग तुम्हें दांतों से काट रही है और तुम इस तरह फ़रयाद कर रहे हो जिस तरह ऊंट भारी बोझ से बिलबिलाने लगते हैं और तुम्हारी जमाअत मुसलसल तलवार की ज़र्ब और मौत की गर्म बाज़ारी और क़ज़ा और कश्तों के पुश्ते लग जाने की बिना पर मुझे किताबे ख़ुदा की तरफ़ दावत दे रही होगी, हालांके वह ऐसे लोग हैं जो काफ़िर और हक़ के मुनकिर हैं या बैअत के बाद उसे तोड़ देने वाले हैं।

11-आपका मकतूबे गिरामी (दुश्मनकीतरफ़भेजेहुएएकलशकरकोयहहिदायतेंफ़रमाईं)

जब तुम दुश्मन की तरफ़ बढ़ो या दुश्मन तुम्हारी तरफ़ बढ़े तो तुम्हारा पड़ाव टीलों के आगे या पहाड़ के दामन में या नहरों के मोड़ में होना चाहिये ताके यह चीज़ तुम्हारे लिये पुश्त पनाही और रोक का काम दे और जंग बस एक तरफ़ या (ज़ाएद से ज़ाएद दो तरफ़ से हो) और पहाड़ों की चोटियों और टीलों की बलन्द सतहों पर दीदबानों को बिठा दो ताके दुश्मन किसी खटके की जगह से या इत्मीनान वाली जगह से (अचानक) न आ पड़े और उसको जाने रहो के फ़ौज का हर अव्वल दस्ता फ़ौज का ख़बर रसाँ होता है और हर अव्वल दस्ते को इत्तेलाआत उन मुख़बिरों से हासिल होती है (लोग आगे बढ़ कर सुराग़ लगाते हैं) देखो तितर-बितर होने से बचे रहो, उतरो तो एक साथ उतरो, और कूच करो तो एक साथ करो और जब रात तुम पर छा जाए तो नैज़ों को (अपने गिर्द) गाड़कर एक दाएरा सा बना लो और सिर्फ़ ऊंघ लेने और एक-आध झपकी ले लेने के सिवा नीन्द का मज़ा न चखो।

12- आपकी नसीहत (जो माक़ल बिन क़ैस रियाही को उस वक़्त फ़रमाई है जब उन्हें तीन हज़ार का लशकर देकर शाम की तरफ़ रवाना फ़रमाया है)

उस अल्लाह से डरते रहना जिसकी बारगाह में बहरहाल हाज़िर होना है और जिसके अलावा कोई आखि़री मन्ज़िल नहीं है, जंग उसी से करना जो तुमसे जंग करे, ठण्डे औक़ात में सुबह व शाम सफ़र करना और गरमी के वक़्त में क़ाफ़िले को रोक कर लोगों को आराम करने देना। (((-यह वह हिदायात हैं जो हर दौर में काम आने वाली हैं और क़ाएदे इस्लाम का फ़र्ज़ है के जिस दौर में जिस तरह का मैदान और जिस तरह के असलहे हों उन सब की तन्ज़ीम इन्हीं उसूलों की बुनियाद पर करे जिनकी तरफ़ अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने दौरे नैज़ा व शमशीर में इशारा फ़रमाया है। हालात और असलहों के बदल जाने से उसूले हर्ब व ज़र्ब और क़वानीने जेहाद व क़ेताल में फ़र्क़ नहीं हो सकता है-)))

आहिस्ता सफ़र करना और अव्वले शब में सफ़र मत करना के परवरदिगार ने रात को सुकून के लिये बनाया है और उसे क़याम के लिये क़रार दिया है, सफ़र के लिये नहीं, लेहाज़ा रात में अपने बदन को आराम देना और अपनी सवारी के लिये सूकून फ़राहम करना, उसके बाद जब देख लेना के सहर तुलूअ हो रही है और सुबह रौशन हो रही है तो बरकते ख़ुदा के सहारे उठ खड़े होना और जब दुश्मन का सामना हो जाए तो अपने असहाब के दरम्यान ठहरना और न दुश्मन से इस क़दर क़रीब हो जाना के जैसे जंग छेड़ना चाहते हो और न इस क़द्र दूर हो जाना के जैसे जंग से ख़ौफ़ज़दा हो, यहां तक के मेरा हुक्म आ जाए और देखो ख़बरदार दुश्मन की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर आमादा न कर दे के उसे हक़ की दावत देने और हुज्जत तमाम करने से पहले जंग का आग़ाज़ कर दो।

13-आपकी नसीहत

मैंने तुम पर और तुम्हारे मातहत लशकर पर मालिक बिन अलहारिस अल अशतर को सरदार क़रार दे दिया है लेहाज़ा उनकी बातों पर तवज्जोह देना और उनकी इताअत करना और उन्हीं को अपनी ज़िरह और सिपर क़रार देना के मालिक उन लोगों में हैं जिनकी कमज़ोरी और लग़्ज़िश का कोई ख़तरा नहीं है और न वह इस मौक़े पर सुस्ती कर सकते हैं जहां तेज़ी ज़्यादा मुनासिब हो, और न वहां तेज़ी कर सकते हैं जहां सुस्स्ती उमदा क़रीने अक़्ल हो। (((-यह सारी हिदायात माक़ल बिन क़ैस के बारे में हैं जिन्हें आपने तीन हज़ार अफ़राद का सरदारे लशकर बनाकर भेजा था और ऐसे हिदायात से मसलेह फ़रमा दिया था जो सुबहे क़यामत तक काम आने वाली हों और हर दौर का इन्सान उनसे इस्तेफ़ाज़ा कर सके। मालिके अश्तर उन लोगों में हैं जिन्होंने अबूज़र के ग़ुस्ल व कफ़न का इन्तेज़ाम किया था जिनके बारे में रसूले अकरम (स0) ने फ़रमाया था के मेरा एक सहाबी आलमे ग़ुरबत में इन्तेक़ाल करेगा और साहेबाने ईमान की एक जमाअत इसकी तजहीज़ व तकफ़ीन का इन्तेज़ाम करेगी।-)))

14- हिदायत (अपने लशकर के नाम सिफ़्फ़ीन की जंग के आग़ाज़ से पहले)

ख़बरदार! उस वक़्त तक जंग शुरू न करना जब तक वह लोग पहल न कर दें के तुम बेहम्दे अल्लाह अपनी दलील रखते हो और उन्हें उस वक़्त तक का मौक़ा देना जब तक पहल न कर दें, एक दूसरी हुज्जत हो जाए, इसके बाद जब हुक्मे ख़ुदा से दुश्मन को शिकस्त हो जाए तो किसी भागने वाले को क़त्ल न करना और किसी आजिज़ को हलाक न करना और किसी ज़ख़्मी पर क़ातिलाना हमला न करना और औरतों को अज़ीयत मत देना चाहे वह तुम्हें गालियां ही क्यों न दें और तुम्हारे हुकाम को बुरा भला ही क्यों न कहें के यह क़ूवते नफ़्स और अक़्ल के एतबार से कमज़ोर हैं और हम पैग़म्बर (स0) के ज़माने में भी उनके बारे में हाथ रोक लेने पर मामूर थे। जबके वह मुशरिक थीं और उस वक़्त भी अगर कोई शख़्स औरतों से पत्थर या लकड़ी के ज़रिये तारज़ करता था तो उसे और उसकी नस्लों को मतऊन किया जाता था। (((-यह दलील सूरए हिजरात की आयत नम्बर 9 है जिसमें बाग़ी से क़ेताल का हुक्म दिया गया है और इसमें कोई शक नहीं है के माविया और उसकी जमाअत बाग़ी थी जिसकी तसदीक़ जनाबे अम्मारे यासिर की शहादत से हो गई , जिनके क़ातिल को सरकारे दो आलम (स0) ने बाग़ी क़रार दिया था-)))