नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 101-150

101- लोगों पर एक ज़माना आने वाला है जब सिर्फ़ लोगों की बुराई बयान करने वाला मुक़र्रबे बारगाह हुआ करेगा और सिर्फ़ फ़ाजिर (पतीत) को ख़ुश मिज़ाज समझा जाएगा और सिर्फ़ मुन्सिफ़ को कमज़ोर क़रार दिया जाएगा, लोग सदक़े को ख़सारा, सिलए रहम को एहसान और इबादत को लोगों पर बरतरी का ज़रिया क़रारे देंगे, ऐसे वक़्त में हुकूमत औरतों के मशविरे, बच्चों के इक़्तेदार और ख़्वाजा सराओं (किन्नरों) की तदबीर के सहारे रह जाएगी।

(((अफ़सोस के अहले दुनिया ने इस इबादत को भी अपनी बरतरी का ज़रिया बना लिया है जिसकी तशरीह इन्सान के ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ और जज़्बए बन्दगी के इज़हार के लिये हुई थी और जिसका मक़सद यह था के इन्सान की ज़िन्दगी से ग़ुरूर और शैतनत निकल जाए और तवाज़ोअ व इन्केसार उस पर मुसल्लत हो जाए।)))

(((बज़ाहिर किसी दौर में भी ख़्वाजा सराओं को मुशीरे ममलेकत की हैसियत हासिल नहीं रही है और न उनके किसी मख़सूस तदब्बुर की निशानदेही की गई है, इसलिये बहुत मुमकिन है के इस लफ़्ज़ से मुराद वह तमाम अफ़राद हों जिनमें इन लोगों की ख़सलतें पाई जाती हैं और जो हुक्काम की हर हाँ में हाँ मिला देते हैं और उनकी हर रग़बत व ख़्वाहिश के सामने सरे तस्लीम ख़म कर देते हैं और उन्हें ज़िन्दगी के अन्दर व बाहर हर शोबे में बराबर का दख़ल रहता है।)))

102-लोगों ने आपकी चादर को बोसीदा देखकर गुज़ारिश कर दी तो आपने फ़रमाया के इससे दिल में ख़ुशू और नफ़्स में एहसासे कमतरी पैदा होता है और मोमेनीन इसकी इक़्तेदा भी कर सकते हैं, याद रखो दुनिया और आख़ेरत आपस में दो नासाज़गार दुश्मन हैं और दो मुख़्तलिफ़ रास्ते, लेहाज़ा जो दुनिया से मोहब्बत और ताल्लुक़ ख़ातिर रखता है वह आख़ेरत का दुश्मन हो जाता है और जो रास्ता एक से क़रीबतर होता है वह दूसरे से दूरतर हो जाता है, फिर यह दोनों आपस में एक-दूसरे की सौत जैसी हैं।

103- नौफ़ बकाली कहते हैं के मैंने एक शब अमीरूल मोमेनीन (अ0) को देखा के आपने बिस्तर से उठकर सितारों पर निगाह की और फ़रमाया के नौफ़! सो रहे हो या बेदार हो ? मैंने अर्ज़ की के हुज़ूर जाग रहा हूँ, फ़रमाया के नौफ़! ख़ुशाबहाल इनके जो दुनिया से किनाराकश हों तो आख़ेरत की तरफ़ रग़बत रखते हों, यही वह लोग हैं जिन्होंने ज़मीन को बिस्तर बनाया है और ख़ाक को फ़र्श, पानी को शरबत क़रार दिया है और क़ुरान व दुआ को अपने ज़ाहिर व बातिन का मुहाफ़िज़, इसके बाद दुनिया से यूँ अलग हो गए जिस तरह हज़रत मसीह (अ0)।

((( इस मक़ाम पर लफ़्जे़ क़र्ज़ इशारा है के निहायत मुख़्तसर हिस्सा हासिल किया है जिस तरह दांत से रोटी काट ली जाती है और सारी रोटी को मुंह में नहीं भर लिया जाता है के इस कैफ़ियत को ख़ज़म कहते हैं, क़र्ज़ नहीं कहते हैं)))

नौफ़! देखो दाऊद (अ0) रात के वक़्त ऐसे ही मौक़े पर क़याम किया करते थे और फ़रमाते थे के यह वह वक़्त है जिसमें जो बन्दा भी दुआ करता है परवरदिगार उसकी दुआ को क़ुबूल कर लेता है , मगर यह के सरकारी टैक्स वसूल करने वाला, लोगों की बुराई करने वाला, ज़ालिम हुकूमत की पुलिस वाला या सारंगी और ढोल ताशे वाला हो।

सय्यद रज़ी – इरतेबतः सारंगी को कहते हैं और कोबत के मानी ढोल के हैं और बाज़ हज़रात के नज़दीक इरतबा ढोल है और कोबा सारंगी।

((( अफ़सोस की बात है के बाज़ इलाक़ो में बाज़ मोमिन अक़वाम की पहचान ही ढोल ताशा और सारंगी बन गई है जबके मौलाए कायनात (अ) ने इस कारोबार को इस क़द्र मज़मूम क़रार दिया है के इस अमल के अन्जाम देने वालों की दुआ भी क़ुबूल नहीं होती है। इस हिकमत में दीगर अफ़राद का तज़किरा ज़ालिमों के ज़ैल में किया गया है और खुली हुई बात है के ज़ालिम हुकूमत के लिये किसी तरह का काम करने वाला पेशे परवरदिगार मुस्तजाबुद् दावात नहीं हो सकता है, जब वह अपने ज़रूरियाते हयात को ज़ालिमों की मदद से वाबस्ता कर देता है तो परवरदिगार अपना करम उठा लेता है।)))

104-परवरदिगार ने तुम्हारे ज़िम्मे कुछ फ़राएज़ क़रार दिये हैं लेहाज़ा ख़बरदार उन्हें ज़ाया न करना और उसने कुछ हुदूद भी मुक़र्रर कर दिये हैं लेहाज़ा उनसे तजावुज़ न करना। उसने जिन चीज़ों से मना किया है उनकी खि़लाफ़वर्ज़ी न करना और जिन चीज़ों से सुकूत इख़्तेयार फ़रमाया है ज़बरदस्ती उन्हें जानने की कोशिश न करना के वह भूला नहीं है।

105-जब भी लोग दुनिया संवारने के लिये दीन की किसी बात को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं तो परवरदिगार उससे ज़्यादा नुक़सानदेह रास्ते खोल देता है।

106- बहुत से आलिम हैं जिन्हें दीन से नावाक़फ़ीयत ने मार डाला है और फ़िर उनके इल्म ने भी कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाया है।

(((यह दानिश्वराने मिल्लत हैं जिनके पास डिग्रियों का ग़ुरूर तो है लेकिन दीन की बसीरत नहीं है, ज़ाहिर है के ऐसे अफ़राद का इल्म तबाह कर सकता है आबाद नहीं कर सकता है)))

107- इस इन्सान के वजूद में सबसे ज़्यादा ताज्जुबख़ेज़ वह गोश्त का टुकड़ा है जो एक रग से आवेज़ां कर दिया गया है और जिसका नाम क़ल्ब है के इसमें हिकमत के सरचश्मे भी हैं और इसकी ज़िदें भी हैं के जब उसे उम्मीद की झलक नज़र आती है तो लालच ज़लील बना देती है और जब लालच में हैजान पैदा होता है तो हिरस बरबाद कर देती है

(((इन्सानी क़ल्ब को दो तरह की सलाहियतों से नवाज़ा गया है, इसमें एक पहलू अक़्ल व मन्तिक़ का है और दूसरा जज़्बात व अवातिफ़ का, इस इरशादे गिरामी में दो पहलू की तरफ़ इशारा किया गया है और इसके मुतज़ाद ख़ुसूसियात की तफ़सील बयान की गई है।)))

और जब मायूसी का क़ब्ज़ा हो जाता है तो हसरत मार डालती है और जब ग़ज़ब तारी होता है तो ग़म व ग़ुस्सा शिद्दत इख़्तेयार कर लेता है और जब ख़ुशहाल हो जाता है तो हिफ़्ज़ मा तक़द्दुम (आने वाले खतरे से बचना) को भूल जाता है और जब ख़ौफ़ तारी होता है तो एहतियात दूसरी चीज़ों से ग़ाफ़िल कर देती है और जब हालात में वुसअत पैदा होती है तो ग़फ़लत क़ब्ज़ा कर लेती है, और जब माल हासिल कर लेता है तो बेनियाज़ी सरकश बना देती है और जब कोई मुसीबत नाज़िल हो जाती है तो फ़रयाद रूसवा कर देती है और जब फ़ाक़ा काट खाता है तो बलाए गिरफ़्तार कर लेती है और जब भूक थका देती है तो कमज़ोरी बिठा देती है और जब ज़रूरत से ज़्यादा पेट भर जाता है तो शिकमपुरी की अज़ीयत में मुब्तिला हो जाता है, मुख़्तसर यह है के हर कोताही नुक़सानदेह होती है और हर ज़्यादती तबाहकुन।

108-हम अहलेबैत (अ0) वह नुक़्तए एतदाल हैं जिनसे पीछे रह जाने वाला आगे बढ़कर उनसे मिल जाता है और आगे बढ़ जाने वाला पलट कर मुलहक़ हो जाता है।

(((शेख़ मोहम्मद अब्दहू ने इस फ़िक़रे की यह तशरीह की है के अहलेबैत अलै0 इस मसनद से मुशाबेहत रखते हैं जिसके सहारे इन्सान की पुश्त मज़बूत होती है और उसे सुकूने ज़िन्दगी हासिल होता है , वसता के लफ़्ज़ से इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है के तमाम मसनदें इसी से इत्तेसाल रखती हैं और सबका सहारा वही है, अहलेबैत (अ0) उस सिराते मुस्तक़ीम पर हैं जिनसे आगे बढ़ जाने वालों को भी उनसे मिलना पड़ता है और पीछे रह जाने वालों को भी। )))

109- हुक्मे इलाही का निफ़ाज़ वही कर सकता है जो हक़ के मामले में मुरव्वत न करता हो और आजिज़ी व कमज़ोरी का इज़हार न करता हो और लालच के पीछे न दौड़ता हो।

110-जब सिफ़्फ़ीन से वापसी पर सहल बिन हनीफ़ अन्सारी का कूफ़े में इन्तेक़ाल हो गया जो हज़रत के महबूब सहाबी थे तो आपने फ़रमाया के “मुझसे कोई पहाड़ भी मोहब्बत करेगा तो टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। मक़सद यह है के मेरी मोहब्बत की आज़माइश सख़्त है और इसमें मसाएब की हमले हो जाते है जो शरफ़ सिर्फ़ मुत्तक़ी और नेक किरदार लोगों को हासिल होता है जैसा के आपने दूसरे मौक़े पर इरशाद फ़रमाया है।

111-जो हम अहलेबैत (अ0) से मोहब्बत करे उसे जामाए फ़क़्र (गुरबत का लिबास) पहनने के लिये तैयार हो जाना चाहिये।

सय्यद रज़ी- “बाज़ हज़रात ने इस इरशाद की एक दूसरी तफ़सीर की है जिसके बयान का यह मौक़ा नहीं है”

(((मक़सद यह है के अहलेबैत (अ0) का कुल सरमायाए हयात दीन व मज़हब और हक़ व हक़्क़ानियत है और उसके बरदाश्त करने वाले हमेशा कम होते हैं लेहाज़ा इस राह पर चलने वालों को हमेशा मसाएब का सामना करना पड़ता है और इसके लिये हमेशा तैयार रहना चाहिये।)))

112- अक़्ल से ज़्यादा फ़ायदेमन्द कोई दौलत नहीं है और ख़ुदपसन्दी से ज़्यादा वहशतनाक कोई तन्हाई नहीं है, तदबीर जैसी कोई अक़्ल नहीं है और तक़वा जैसी कोई बुज़ुर्गी नहीं है हुस्ने अख़लाक़ जैसा कोई साथी नहीं है और अदब जैसी कोई मीरास नहीं है, तौफ़ीक़ जैसा कोई पेशरौ नहीं है और अमले सालेह जैसी कोई तिजारत नहीं है, सवाब जैसा कोई फ़ायदा नहीं है और शहादत में एहतियात जैसी कोई परहेज़गारी नहीं है, हराम की तरफ़ से बेरग़बती जैसा कोई ज़ोहद नहीं है और तफ़क्कुर जैसा कोई इल्म नहीं है और अदाए फ़राएज़ जैसी कोई इबादत नहीं है और हया व सब्र जैसा कोई ईमान नहीं है, तवाज़ोह जैसा कोई हसब नहीं है और इल्म जैसा कोई शरफ़ नहीं है, हिल्म जैसी कोई इज्ज़त नहीं है और मशविरे से ज़्यादा मज़बूत कोई पुश्त पनाह नहीं है।

113- जब ज़माना और अहले ज़माना पर नेकियों का ग़लबा हो और कोई शख़्स किसी शख़्स से कोई बुराई देखे बग़ैर बदज़नी पैदा करे तो उसने उस शख़्स पर ज़ुल्म किया है और जब ज़माना और अहले ज़माना पर फ़साद का ग़लबा हो और कोई शख़्स किसी से हुस्ने ज़न क़ायम करे तो गोया उसने अपने ही को धोका दिया है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

114-एक शख़्स ने आपसे मिज़ाजपुरसी कर ली तो फ़रमाया के इसका हाल क्या होगा जिसकी बक़ा ही फ़ना की तरफ़ ले जा रही है और सेहत ही बीमारी का पेशख़ेमा है और वह अपनी पनाहगाह से एक दिन गिरफ़्त में ले लिया जाएगा।

115- कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेकियां देकर गिरफ़्त में लिया जाता है और वह पर्दापोशी ही से धोके में रहते हैं और अपने बारे में अच्छी बात सुनकर धोका खा जाते हैं और देखो अल्लाह ने मोहलत से बेहतर कोई आज़माइश का ज़रिया नहीं क़रार दिया है।

116- मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो गए हैं- वह दोस्त जो दोस्ती में ग़ुलू से काम लेते हैं और वह दुश्मन जो दुश्मनी में मुबालेग़ा करते हैं।

117- फ़ुरसत को छोड़ देना रन्ज व ग़म की वजह बनता है। (((इन्सानी ज़िन्दगी में ऐसे मक़ामात बहुत कम आते हैं जब किसी काम का मुनासिब मौक़ा हाथ आ जाता है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस मौक़े से फ़ायदा उठा ले और उसे ज़ाया न होने दे के फ़ुर्सत का निकल जाना इन्तेहाई रन्ज व अन्दोह का बाएस हो जाता है)))

118- दुनिया की मिसाल सांप जैसी है जो छूने में इन्तेहाई नर्म होता है और इसके अन्दर ज़हरे क़ातिल होता है। फ़रेब मे आने वाला जाहिल इसकी तरफ़ माएल हो जाता है और साहेबे अक़्ल व होश इससे होशियार रहता है। (((अक़्ल का काम यह है के वह चीज़ो के बातिन पर निगाह रखे और सिर्फ़ ज़ाहिर के फ़रेब में न आए वरना सांप का ज़ाहिर भी इन्तेहाई नर्म व नाज़ुक होता है जबके उसके अन्दर का ज़हर इन्तेहाई क़ातिल और तबाहकुन होता है)))

119- आपसे क़ुरैश के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो आपने फ़रमाया के बनी मख़ज़ूम क़ुरैश का महकता हुआ फ़ूल हैं, उनसे गुफ़्तगू भी अच्छी लगती है और उनकी औरतों से रिश्तेदारी भी महबूब है और बनी अब्द शम्स बहुत दूर तक सोचने वाले और अपने पीछे की बातों की रोक थाम करने वाले हैं। लेकिन हम बनी हाशिम अपने हाथ की दौलत के लुटाने और मौत के मैदान में जान देने वाले हैं, वह लोग अदद में ज़्यादा मक्रो फ़रेब में आगे और बदसूरत हैं और हम लोग फ़सीह व बलीग़, मुख़लिस और रौशन चेहरा हैं।

120-इन दो तरह के आमाल में किस क़द्र फ़ासला पाया जाता है, वह अमल जिसकी लज़्ज़त ख़त्म हो जाए और उसका वबाल बाक़ी रह जाए और वह अमल जिसकी ज़हमत ख़त्म हो जाए और अज्र बाक़ी रह जाए। (((दुनिया व आखि़रत के आमाल का बुनियादी फ़र्क़ यही है के दुनिया के आमाल की लज़्ज़त ख़त्म हो जाती है और आखि़रत में इसका हिसाब बाक़ी रह जाता है और आख़ेरत के आमाल की ज़हमत ख़त्म हो जाती है और इसका अज्र व सवाब बाक़ी रह जाता है)))

121-आपने एक जनाज़े में शिरकत फ़रमाई और एक शख़्स को हंसते हुए देख लिया तो फ़रमाया “ऐसा मालूम होता है के मौत किसी और के लिये लिखी गई है और यह हक़ किसी दूसरे पर लाज़िम क़रार दिया गया है और गोया के जिन मरने वालों को हम देख रहे हैं वह ऐसे मुसाफ़िर हैं जो अनक़रीब वापस आने वाले हैं के इधर हम उन्हें ठिकाने लगाते हैं और उधर उनका तरका खाने लगते हैं जैसे हम हमेशा रहने वाले हैं, इसके बाद हमने हर नसीहत करने वाले मर्द और औरत को भुला दिया है और हर आफ़त व मुसीबत का निशाना बन गए हैं।” (((इन्सान की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है के वह किसी मरहले पर इबरत हासिल करने के लिये तैयार नहीं होता है और हर मन्ज़िल पर इस क़द्र ग़ाफ़िल हो जाता है जैसे न इसके पास देखने वाली आंख है और न समझने वाली अक़्ल, वरना इसके मानी क्या हैं के आगे-आगे जनाज़ा जा रहा है और पीछे लोग हंसी मज़ाक़ कर रहे हैं या सामने मय्यत को क़ब्र में उतारा जा रहा है और हाज़िरीने कराम दुनिया के सियासी मसाएल हल कर रहे हैं, यह सूरते हाल इस बात की अलामत है के इन्सान बिल्कुल ग़ाफ़िल हो चुका है और उसे किसी तरह का होश नहीं रह गया है।)))

122-ख़ुशाबहाल उसका जिसने अपने अन्दर तवाज़ोह की अदा पैदा की, अपने कस्ब को पाकीज़ा बना लिया, अपने बातिन को नेक कर लिया, अपने अख़लाक़ को हसीन बना लिया, अपने माल के ज़्यादा हिस्से को राहे ख़ुदा में ख़र्च कर दिया और अपनी ज़बानदराज़ी पर क़ाबू पा लिया। अपने शर को लोगों से दूर रखा और सुन्नत को अपनी ज़िन्दगी में जगह दी और बिदअत से कोई निस्बत नहीं रखी।

सय्यद रज़ी- बाज़ लोगों ने इस कलाम को रसूले अकरम (स0) के हवाले से भी बयान किया है जिस तरह के इससे पहले वाला कलामे हिकमत है।

123- औरत का ग़ैरत करना कुफ्ऱ है और मर्द का ग़ुयूर होना ऐने ईमान है। (((इस्लाम ने अपने मख़सूस मसालेह के तहत मर्द को चार शादीयों की इजाज़त दी है और इसी को आलमी मसाएल का हल क़रार दिया है लेहाज़ा किसी औरत को यह हक़ नहीं है के वह मर्द की दूसरी शादी पर एतराज़ करे या दूसरी औरत से हसद और बेज़ारी का इज़हार करे के यह बेज़ारी दरहक़ीक़त उस दूसरी औरत से नहीं है इस्लाम के क़ानूने अज़वाज से है और क़ानूने इलाही से बेज़ारी और नफ़रत का एहसास करना कुफ्ऱ है इस्लाम नहीं है। इसके बरखि़लाफ़ औरत को दूसरी शादी की इजाज़त नहीं दी गई है लेहाज़ा शौहर का हक़ है के अपने होते हुए दूसरे शौहर के तसव्वुर से बेज़ारी का इज़हार करे और यही उसके कमाले हया व ग़ैरत और कमाले इस्लाम व ईमान के बराबर है।)))

124-मैं इस्लाम की वह तारीफ़ कर रहा हूँ जो मुझसे पहले कोई नहीं कर सका है, इस्लाम सुपुर्दगी है और सुपुर्दगी यक़ीन, यक़ीन तस्दीक़ है और तस्दीक़ इक़रार, इक़रार अदाए फ़र्ज़ है और अदाए फ़र्ज़ अमल।

125- मुझे कंजूस के हाल पर ताज्जुब होता है के उसी फ़क़्र में मुब्तिला हो जाता है जिससे भाग रहा है और फिर उस दौलतमन्दी से महरूम हो जाता है जिसको हासिल करना चाहता है, दुनिया में फ़क़ीरों जैसी ज़िन्दगी गुज़ारता है और आख़ेरत में मालदारों जैसा हिसाब देना पड़ता है, इसी तरह मुझे मग़रूर आदमी पर ताज्जुब होता है के जो कल नुत्फ़ा (वीर्य) था और कल मुरदार हो जाएगा और फ़िर अकड़ रहा है, मुझे उस शख़्स के बारे में भी हैरत होती है जो वजूदे ख़ुदा में शक करता है हालांके मख़लूक़ाते ख़ुदा को देख रहा है और उसका हाल भी हैरतअंगेज़ है जो मौत को भूला हुआ है हालां के मरने वालों को बराबर देख रहा है, मुझे उसके हाल पर भी ताज्जुब होता है जो आख़ेरत के इमकान का इन्कार कर देता है हालांके पहले वजूद का मुशाहेदा कर रहा है, और उसके हाल पर भी हैरत है जो फ़ना हो जाने वाले घर को आबाद कर रहा है और बाक़ी रह जाने वाले घर को छोड़े हुए है।

126- जिसने अमल में कमी की वह रंज व अन्दोह में हर हाल मे मुब्तिला होगा और अल्लाह को अपने उस बन्दे की कोई परवाह नहीं है जिसके जान व माल में अल्लाह का कोई हिस्सा न हो। (((कंजूसी और बुज़दिली इस बात की अलामत है के इन्सान अपने जान व माल में से कोई हिस्सा अपने परवरदिगार को नहीं देना चाहता है और खुली हुई बात है के जब बन्दा मोहताज होकर मालिक से बेनियाज़ होना चाहता है तो मालिक को उसकी क्या ग़र्ज़ है, वह भी क़तअ ताल्लुक़ कर लेता है।)))

127- सर्दी के मौसम से इब्तिदा में एहतियात करो और आखि़र में इसका ख़ैर मक़दम करो के इसका असर बदन पर दरख़्तों के पत्तों जैसा होता है के यह मौसम इब्तिदा में पत्तों को झुलसा देता है और आखि़र में शादाब बना देता है।

128- अगर ख़़ालिक़ की अज़मत का एहसास पैदा हो जाएगा तो मख़लूक़ात ख़ुद ब ख़ुद निगाहों से गिर जाएगी।

129- सिफ़्फ़ीन से वापसी पर कूफ़े से बाहर क़ब्रिस्तान पर नज़र पड़ गई तो फ़रमाया, ऐ वहशतनाक घरों के रहने वालों! ऐ वीरान मकानात के बाशिन्दों! और तारीक क़ब्रों में बसने वालों, ऐ ख़ाक नशीनों, ऐ ग़ुरबत, वहदत और वहशत वालों! तुम हमसे आगे चले गए हो और हम तुम्हारे नक़्शे क़दम पर चलकर तुमसे मुलहक़ होने वाले हैं, देखो तुम्हारे मकानात आबाद हो चुके हैं, तुम्हारी बीवियों का दूसरा अक़्द हो चुका है और तुम्हारे अमवाल तक़सीम हो चुके हैं। यह तो हमारे यहाँ की ख़बर है, अब तुम बताओ के तुम्हारे यहाँ की ख़बर क्या है? इसके बाद असहाब की तरफ़ रूख़ करके फ़रमाया के “अगर इन्हें बोलने की इजाज़त मिल जाती तो तुम्हें सिर्फ़ यह पैग़ाम देते के बेहतरीन ज़ादे राह तक़वाए इलाही है।” (((इन्सानी ज़िन्दगी के दो जुज़ हैं एक का नाम है जिस्म और एक का नाम है रूह और इन्हीं दोनों के इत्तेहाद व इत्तेसाल का नाम है ज़िन्दगी और इन्हीं दोनों की जुदाई का नाम है मौत। अब चूंकि जिस्म की बक़ा रूह के वसीले से है लेहाज़ा रूह के जुदा हो जाने के बाद वह मुर्दा भी हो जाता है और सड़ गल भी जाता है और इसके अज्ज़ा मुन्तशिर होकर ख़ाक में मिल जाते हैं, लेकिन रूह ग़ैर माद्दी होने की बुनियाद पर अपने आलिम से मुलहक़ हो जाती है और ज़िन्दा रहती है यह और बात है के इसके तसर्रूफ़ात इज़्ने इलाही के पाबन्द होते हैं और उसकी इजाज़त के बग़ैर कोई तसर्रूफ़ नहीं कर सकती है, और यही वजह है के मुर्दा ज़िन्दों की आवाज़ सुन लेता है लेकिन जवाब देने की सलाहियत नहीं रखता है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इसी राज़े ज़िन्दगी की नक़ाब कुशाई फ़रमाई है के यह मरने वाले जवाब देने के लाएक़ नहीं हैं लेकिन परवरदिगार ने मुझे वह इल्म इनायत फ़रमाया है जिसके ज़रिये मैं यह एहसास कर सकता हूँ के इन मरनेवालों के ला शऊर में क्या है और यह जवाब देने के क़ाबिल होते तो क्या जवाब देते और तुम भी इनकी सूरते हाल को महसूस कर लो तो इस अम्र का अन्दाज़ा कर सकते हो के इनके पास इसके अलावा कोई जवाब और कोई पैग़ाम नहीं है के बेहतरीन ज़ादे राह तक़वा है।)))

130- एक शख़्स को दुनिया की मज़म्मत करते हुए सुना तो फ़रमाया - ऐ दुनिया की मज़म्मत करने वाले और इसके फ़रेब में मुब्तिला होकर इसके महमिलात से धोका खा जाने वाले! तू इसी से धोका भी खाता है और इसी की मज़म्मत भी करता है, यह बता के तुझे इस पर इल्ज़ाम लगाने का हक़ है या इसे तुझ पर इल्ज़ाम लगाने का हक़ है, आखि़र इसने कब तुझसे तेरी अक़्ल को छीन लिया था और कब तुझको धोका दिया था? क्या तेरे आबा-व-अजदाद की कहन्गी की बिना पर गिरने से धोका दिया है या तुम्हारी माओं की ज़ेरे ख़ाक ख़्वाबगाह से धोका दिया है? कितने बीमार हैं जिनकी तुमने तीमारदारी की है और अपने हाथों से उनका इलाज किया है और चाहा है के वह शिफ़ायाब हो जाएं और हकीमो से रुजू भी किया है। उस सुबह के हंगाम जब न कोई दवा काम आ रही थी और न रोना धोना फ़ायदा पहुंचा रहा था, न तुम्हारी हमदर्दी किसी को फ़ायदा पहुंचा सकी और न तुम्हारा मक़सद हासिल हो सका और न तुम मौत को दफ़ा कर सके। इस सूरते हाल में दुनिया ने तुमको अपनी हक़ीक़त दिखला दी थी और तुम्हें तुम्हारी हलाकत से आगाह कर दिया था (लेकिन तुम्हें होश न आया)। याद रखो के दुनिया बावर करने वाले के लिये सच्चाई का घर है और समझदार के लिये अम्न व आफ़ियत की मन्ज़िल है और नसीहत हासिल करने वाले के लिये नसीहत का मक़ाम है, यह दोस्ताने ख़ुदा के सुजूद की मन्ज़िल और मलाएका-ए आसमान का मसला है। यहीं वहीए इलाही का नुज़ूल होता है और यहीं औलियाए ख़ुदा आखि़रत का सौदा करते हैं जिसके ज़रिये रहमत को हासिल कर लेते हैं और जन्नत को फ़ायदे में ले लेते हैं, किसे हक़ है के इसकी मज़म्मत करे जबके उसने अपनी जुदाई का एलान कर दिया है और अपने फ़िराक़ की आवाज़ लगा दी है और अपने रहने वालों की सुनानी सुना दी है। अपनी बला से इनके इब्तिला का नक़्शा पेश किया है और अपने सुरूर से आखि़रत के सुरूर की दावत दी है, इसकी शाम आफ़ियत में होती है तो सुबह मुसीबत में होती है ताके इन्सान में रग़बत भी पैदा हो और ख़ौफ़ भी। उसे आगाह भी कर दे और होशियार भी बना दे, कुछ लोग निदामत की सुबह इसकी मज़म्मत करते हैं और कुछ लोग क़यामत के रोज़ इसकी तारीफ़ करेंगे, जिन्हें दुनिया ने नसीहत की तो उन्होंने उसे क़ुबूल कर लिया, इसने हक़ाएक़ बयान किये तो उसकी तस्दीक़ कर दी और मोएज़ा किया तो इसके मोएज़ा से असर लिया।

131-परवरदिगार की तरफ़ से एक मलक मुअय्यन है जो हर रोज़ आवाज़ देता है के ऐ लोगो ! पैदा करो तो मरने के लिये, जमा करो तो फ़ना होने के लिये और तामीर करो तो ख़राब होने के लिये (यानी आखि़री अन्जाम को निगाह में रखो) (((भला उस सरज़मीन को कौन बुरा कह सकता है जिस पर मलाएका का नुज़ूल होता है, औलियाए ख़ुदा सजदा करते हैं, ख़ासाने ख़ुदा ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और नेक बन्दे अपनी आक़ेबत बनाने का सामान करते हैं, यह सरज़मीन बेहतरीन सरज़मीन है और यह इलाक़ा मुफ़ीदतरीन इलाक़ा है मगर सिर्फ़ उन लोगों के लिये जो इसका वही मसरफ़ क़रार दें जो ख़ासाने ख़ुदा क़रार देते हैं और इससे इसी तरह आक़ेबत संवारने का काम लें जिस तरह औलियाए ख़ुदा काम लेते हैं, वरना इसके बग़ैर यह दुनिया बला है बला, और इसका अन्जाम तबाही और बरबादी के अलावा कुछ नहीं है।)))

132-दुनिया एक गुज़रगाह है मन्ज़िल नहीं है, इसमें लोग दो तरह के हैं, एक वह शख़्स है जिसने अपने नफ़्स को बेच डाला और हलाक कर दिया और एक वह है जिसने ख़रीद लिया और आज़ाद कर दिया।

133-दोस्त उस वक़्त तक दोस्त नहीं हो सकता जब तक अपने दोस्त के तीन मवाक़े पर काम न आए मुसीबत के मौक़े पर, उसकी ग़ैबत में, और मरने के बाद।

134- जिसे चार चीज़ें दे दी गईं वह चार से महरूम नहीं रह सकता है, जिसे दुआ की तौफ़ीक़ मिल गई वह क़ुबूलियत से महरूम न होगा और जिसे तौबा की तौफ़ीक़ हासिल हो गई वह क़ुबूलियत से महरूम न होगा, अस्तग़फ़ार हासिल करने वाला मग़फ़ेरत से महरूम न होगा और शुक्र करने वाला इज़ाफ़े से महरूम न होगा। सय्यद रज़ी इस इरशादे गिरामी की तस्दीक़ आयाते क़ुरआनी से होती है के परवरदिगार ने दुआ के बारे में फ़रमाया है “मुझसे दुआ करो मैं क़ुबूल करूंगा, और अस्तग़फ़ार के बारे में फ़रमाया है “जो बुराई करने के बाद या अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करने के बाद ख़ुदा से तौबा करेगा वह उसे ग़फ़ूरूर्रहीम पाएगा”शुक्र के बारे में इरशाद होता है “अगर तुम शुक्रिया अदा करोगे तो हम नेमतों में इज़ाफ़ा कर देंगे”और तौबा के बारे में इरशाद होता है “तौबा उन लोगों के लिये है जो जेहालत की बिना पर गुनाह करते हैं और फ़िर फ़ौरन तौबा कर लेते हैं, यही वह लोग हैं जिनकी तौबा अल्लाह क़ुबूल कर लेता है और वह हर एक की नीयत से बाख़बर भी है और साहेबे हिकमत भी है।” (((इस बेहतरीन बरताव में इताअत, उफ़्फत, तदबीरे मन्ज़िल, क़नाअत, अदम मुतालेबात, ग़ैरत व हया और तलबे रिज़ा जैसी तमाम चीज़ें शामिल हैं जिनके बग़ैर अज़द्वाजी ज़िन्दगी ख़ुशगवार नहीं हो सकती है और दिन भर ज़हमत बरदाश्त करके नफ़्क़ा फ़राहम करने वाला शौहर आसूदा व मुतमईन नहीं हो सकता है)))

135-नमाज़ हर मुत्तक़ी के लिये वसीलए तक़र्रूब है और हज हर कमज़ोर के लिये जेहाद है, हर शै की एक ज़कात होती है और बदन की ज़कात रोज़ा है, औरत का जेहाद शौहर के साथ बेहतरीन बरताव है।

136-रोज़ी के नूज़ूल का इन्तेज़ाम सदक़े के ज़रिये से करो।

137- जिसे मुआवज़े का यक़ीन होता है वह अता में दरियादिली से काम लेता है।

138- ख़ुदाई इमदाद का नुज़ूल बक़द्रे ख़र्च होता है (ज़ख़ीराअन्दोज़ी और फ़िज़ूल ख़र्ची के लिये नहीं)

139- जो मयानारवी से काम लेगा वह मोहताज न होगा।

140- मुताल्लेक़ीन की कमी भी एक तरह की आसूदगी है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के तन्ज़ीमे हयात एक अक़्ली फ़रीज़ा है और हर मसले को सिर्फ़ तवक्कल बख़ुदा के हवाले नहीं किया जा सकता है, इस्लाम ने अज़्दवाजी कसरते नस्ल पर ज़ोर दिया है, लेकिन दामन देख कर पैर फैलाने का शऊर भी दिया है लेहाज़ा इन्सान की ज़िम्मेदारी है के इन दोनों के दरम्यान से रास्ता निकाले और इस अम्र के लिये आमादा रहे के कसरते मुताल्लिक़ीन से परेशानी ज़रूर पैदा होगी और फिर परेशानी की शिकायत और फ़रयाद न करे।)))

141-मेल मोहब्बत पैदा करना अक़्ल का आधा हिस्सा है।

142- हम व ग़म ख़ुद भी आधा बुढ़ापा है।

143- सब्र बक़द्रे मुसीबत नाज़िल होता है और जिसने मुसीबत के मौक़े पर रान पर हाथ मारा, गोया के अपने अमल और अज्र को बरबाद कर दिया। (हम्ज़ सब्र है हंगामा नहीं है, लेकिन यह सब अपनी ज़ाती मुसीबत के लिये है)

144- कितने रोज़ेदार हैं जिन्हें रोज़े से भूक और प्यास के अलावा कुछ नहीं हासिल होता है और कितने आबिद शब ज़िन्दावार हैं जिन्हें अपने क़याम से शब बेदारी और मशक़्क़त के अलावा कुछ हासिल नहीं होता है, होशमन्द इन्सान का सोना और खाना भी क़ाबिले तारीफ़ होता है।

(((मक़सद यह है के इन्सान इबादत को बतौरे रस्म व आदत अन्जाम न दे बल्कि जज़्बाए इताअत व बन्दगी के तहत अन्जाम दे ताके वाक़ेअन बन्दाए परवरदिगार कहे जाने के क़ाबिल हो जाए वरना शऊरे बन्दगी से अलग हो जाने के बाद बन्दगी बे अर्ज़िश होकर रह जाती है।)))

145- अपने ईमान की निगेहदाश्त सदक़े से करो और अपने अमवाल की हिफ़ाज़त ज़कात से करो, बलाओं के तलातुम को दुआओं से टाल दो। (((सदक़ा इस बात की अलामत है के इन्सान को वादाए इलाही पर एतबार है और वह यह यक़ीन रखता है के जो कुछ उसकी राह में दे दिया है वह ज़ाया होने वाला नहीं है बल्कि दस गुना, सौ गुना, हज़ार गुना होकर वापस आने वाला है और यही कमाले ईमान की अलामत है)))

146- आपका इरशादे गिरामी जनाबे कुमैल बिन ज़ियाद नख़ई से कुमैल कहते हैं के अमीरूल मोमेनीन (अ0) मेरा हाथ पकड़कर क़ब्रिस्तान की तरफ़ ले गए और जब आबादी से बाहर निकल गए तो एक लम्बी आह खींचकर फ़रमायाः ऐ कुमैल बिन ज़ियाद! देखो यह दिल एक तरह के ज़र्फ़ हैं लेहाज़ा सबसे बेहतरीन वह दिल है जो सबसे ज़्यादा हिकमतों को महफ़ूज़ कर सके। अब तुम मुझसे उन बातों को महफ़ूज़ कर लो , लोग तीन तरह के होते हैं ख़ुदा रसीदा आलिम, राहे निजात पर चलने वाला तालिबे इल्म और अवामुन्नास का वह गिरोह जो हर आवाज़ के पीछे चल पड़ता है और हर हवा के साथ लहराने लगता है, इसने न नूर की रोशनी हासिल की है और न किसी मुस्तहकम सुतून का सहारा लिया है। (((इल्म व माल के मरातब के बारे में यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जो है के माल की पैदावार भी इल्म का नतीजा होती है वरना रेगिस्तानी इलाक़ों में हज़ारों साल से पेट्रोल के ख़ज़ाने मौजूद थे और इन्सान इनसे बिलकुल बेख़बर था, इसके बाद जैसे ही इल्म ने मैदाने इन्केशाफ़ात में क़दम रखा, बरसों के फ़क़ीर अमीर हो गए और सदियों के फ़ाक़ाकश साहेबे माल व दौलत शुमार होने लगे))) ऐ कुमैल! देखो इल्म माल से बहरहाल बेहतर होता है के इल्म ख़ुद तुम्हारी हिफ़ाज़त करता है और माल की हिफ़ाज़त तुम्हें करना पड़ती है। माल ख़र्च करने से कम हो जाता है और इल्म ख़र्च करने से बढ़ जाता है, फ़िर माल के नताएज व असरात भी इसके फ़ना होने के साथ ही फ़ना हो जाते हैं। ऐ कुमैल बिन ज़ियाद! इल्म की मारेफ़त एक दीन है जिसकी इक़्तेदा की जाती है और उसी के ज़रिये इन्सान ज़िन्दगी में इताअत हासिल करता है और मरने के बाद ज़िक्रे जीमल फ़राहम करता है, इल्म हाकिम होता है और माल महकूम होता है। कुमैल! देखो माल का ज़ख़ीरा करने वाले जीतेजी हलाक हो गए और साहेबाने इल्म ज़माने की बक़ा के साथ रहने वाले हैं, इनके अजसाम नज़रों से ओझल हो गए हैं लेकिन इनकी सूरतें दिलों पर नक़्श हैं, देखो इस सीने में इल्म का एक ख़ज़ाना है, काश मुझे इसके ठिकाने वाले मिल जाते। हाँ मिले भी तो बाज़ ऐसे ज़हीन जो क़ाबिले एतबार नहीं हैं और दीन को दुनिया का आलाएकार बनाकर इस्तेमाल करने वाले हैं और अल्लाह की नेमतों के ज़रिये उसके बन्दों और उसकी मोहब्बतों के ज़रिये उसके औलिया पर बरतरी जतलाने वाले हैं या हामेलाने हक़ के इताअत गुज़ार तो हैं लेकिन इनके पहलुओं में बसीरत नहीं है और अदना शुबह में भी शक का शिकार हो जाते हैं। याद रखो के न यह काम आने वाले हैं या सिर्फ़ माल जमा करने और ज़ख़ीरा अन्दोज़ी करने के दिलदादा हैं, यह दोनों भी दीन के क़तअन मुहाफ़िज़ नहीं हैं और इनसे क़रीबतरीन शबाहत रखने वाले चरने वाले जानवर होते हैं और इस तरह इल्म हामेलाने इल्म के साथ मर जाता है। लेकिन इसके बाद भी ज़मीन ऐसे शख़्स से ख़ाली नहीं होती है जो हुज्जते ख़ुदा के साथ क़याम करता है चाहे वह ज़ाहिर और मशहूर हो या ख़ाएफ़ और पोशीदा, ताके परवरदिगार की दलीलें और उसकी निशानियां मिटने न पाएं। लेकिन यह हैं ही कितने और कहाँ हैं? वल्लाह इनके अदद बहुत कम हैं लेकिन इनकी क़द्र व मन्ज़िलत बहुत अज़ीम है। अल्लाह उन्हीं के ज़रिये अपने दलाएल व बय्येनात की हिफ़ाज़त करता है ताके यह अपने ही जैसे अफ़राद के हवाले कर दें अैर अपने इमसाल के दिलों में बो दें। उन्हें इल्म ने बसीरत की हक़ीक़त तक पहुंचा दिया है और यह यक़ीन की रूह के साथ घुल मिल गए हैं, उन्होंने इन चीज़ों को आसान बना लिया है जिन्हें राहत पसन्दों ने मुश्किल बना रखा था और उन चीज़ों से उन्स हासिल किया है जिनसे जाहिल वहशत ज़दा थे और इस दुनिया में इन अजसाम के साथ रहे हैं जिनकी रूहें मलाएआला से वाबस्ता हैं, यही रूए ज़मीन पर अल्लाह के ख़लीफ़ा और उसके दीन के दाई हैं। हाए मुझे उनके दीदार का किस क़द्र इश्तियाक़ है! कुमैल! (मेरी बात तमाम हो चुकी) अब तुम जा सकते हो। (((यह सही है के हर सिफ़त उसके हामिल के फ़ौत हो जाने से ख़त्म हो जाती है और इल्म भी हामिलाने इल्म की मौत से मर जाता है लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस दुनिया में कोई दौर ऐसा भी आता है जब तमाम अहले इल्म मर जाएं और इल्म का फ़िक़दान हो जाए, इसलिये के ऐसा हो गया तो एतमामे हुज्जत का कोई रास्ता न रह जाएगा और एतमामे हुज्जत बहरहाल एक अहम और ज़रूरी मसला है लेहाज़ा हर दौर में एक हुज्जते ख़ुदा का रहना ज़रूरी है चाहे ज़ाहिर बज़ाहिर मन्ज़रे आम पर हो या ग़ैबत में हो के एतमामे हुज्जत के लिये इसका वजूद ही काफ़ी है, इसके ज़हूर की शर्त नहीं है।)))

147-इन्सान अपनी ज़बान के नीचे छुपा रहता है।

148- जिस शख़्स ने अपनी क़द्र व मन्ज़िलत को नहीं पहचाना वह हलाक हो गया।

149- एक शख़्स ने आपसे नसीहत का तक़ाज़ा किया तो फ़रमाया “उन लोगों में न हो जाना जो अमल के बग़ैर आख़ेरत की उम्मीद रखते हैं और तूलानी उम्मीदों की बिना पर तौबा को टाल देते हैं, दुनिया में बातें ज़ाहिदों जैसी करते हैं और काम राग़िबों जैसा अन्जाम देते हैं, कुछ मिल जाता है तो सेर नहीं होते हैं और नहीं मिलता है तो क़नाअत नहीं करते हैं, जो दे दिया गया है उसके शुक्रिया से आजिज़ हैं लेकिन मुस्तक़बिल में ज़्यादा के तलबगार ज़रूर हैं, लोगों को मना करते हैं लेकिन ख़ुद नहीं रूकते हैं, और उन चीज़ों का हुक्म देते हैं जो ख़ुद नहीं करते हैं। नेक किरदारों से मोहब्बत करते हैं लेकिन इनका जैसा अमल नहीं करते हैं और गुनहगारों से बेज़ार रहते हैं लेकिन ख़ुद भी उन्हीं में से होते हैं, गुनाहों की कसरत की बिना पर मौत को नापसन्द करते हैं और फिर ऐसे ही आमाल पर क़ाएम भी रहते हैं जिनसे मौत नागवार हो जाती है, बीमार होते हैं तो गुनाहों पर शरमिंदा हो जाते हैं और सेहतमन्द होते हैं तो फिर लहू व लोआब (बुराईयो) में मुब्तिला हो जाते हैं। बीमारियों से निजात मिल जाती है तो अकड़ने लगते हैं और आज़माइश में पड़ जाते हैं तो मायूस हो जाते हैं, कोई बला नाज़िल हो जाती है तो बशक्ले मुज़तर दुआ करते हैं और सहूलत व आसानी फ़राहम हो जाती है तो फ़रेब खाऐ हुए होकर मुंह फेर लेते हैं। इनका नस उन्हें ख़्याली बातों पर आमादा कर लेता है लेकिन वह यक़ीनी बातों में इस पर क़ाबू नहीं पा सकते हैं दूसरों के बारे में अपने से छोटे गुनाह से भी ख़ौफ़ज़दा रहते हैं और अपने लिये आमाल से ज़्यादा जज़ा के उम्मीदवार रहते हैं, मालदार हो जाते हैं तो मग़रूर व मुब्तिलाए फ़ित्ना हो जाते हैं और ग़ुरबतज़दा होते हैं तो मायूस और सुस्त हो जाते हैं। अमल में कोताही करते हैं और सवाल में मुबालेग़ा करते हैं ख़्वाहिशे नफ़्स सामने आ जाती है तो गुनाह फ़ौरन कर लेते हैं और तौबा को टाल देते हैं, कोई मुसीबत लाहक़ हो जाती है तो इस्लामी जमाअत से अलग हो जाते हैं। इबरतनाक वाक़ेआत बयान करते हैं लेकिन ख़ुद इबरत हासिल नहीं करते हैं, नसीहत करने में मुबालेग़ा से काम लेते हैं लेकिन ख़ुद नसीहत नहीं हासिल करते हैं। क़ौल में हमेशा ऊंचे रहते हैं और अमल में हमेशा कमज़ोर रहते हैं, फ़ना होने वाली चीज़ों में मुक़ाबला करते हैं और बाक़ी रह जाने वाली चीज़ों में सहलअंगारी से काम लेते हैं। वाक़ेई फ़ायदे को नुक़सान समझते हैं और हक़ीक़ी नुक़सान को फ़ायदा तसव्वुर करते हैं।

(((मौलाए कायनात (अ0) के इस इरशादे गिरामी का बग़ौर मुतालेआ करने के बाद अगर दौरे हाज़िर के मोमेनीने कराम , वाएज़ीने मोहतरम, ख़ोतबाए शोला नवा, शोअराए तूफ़ान अफ़ज़ा, सरबराहाने मिल्लत, क़ायदीने क़ौम के हालात का जाएज़ा लिया जाए तो ऐसा मालूम होता है के आप हमारे दौर के हालात का नक़्शा खींच रहे हैं और हमारे सामने किरदार का एक आईना रख रहे हैं जिसमें हर शख़्स अपनी शक्ल देख सकता है और अपने हाले ज़ार से इबरत हासिल कर सकता है।))) मौत से डरते हैं लेकिन वक़्त निकल जाने से पहले अमल की तरफ़ सबक़त नहीं करते हैं, दूसरों की इस गुनाह को भी अज़ीम तसव्वुर करते हैं जिससे बड़ी गुनाह को अपने लिये मामूली तसव्वुर करते हैं और अपनी मामूली इताअत को भी कसीर शुमार करते हैं जबके दूसरे की कसीर इताअत को भी हक़ीर ही समझते हैं, लोगों पर तानाज़न रहते हैं और अपने मामले में नर्म व नाज़ुक रहते हैं, मालदारों के साथ लहू व लोआब को फ़क़ीरों के साथ बैठ कर ज़िक्रे ख़ुदा से ज़्यादा दोस्त रखते हों, अपने हक़ में दूसरों के खि़लाफ़ फ़ैसला कर देते हैं और दूसरों के हक़ में अपने खि़लाफ़ फ़ैसला नहीं कर सकते हैं। दूसरों को हिदायत देते हैं और अपने नफ़्स को गुमराह करते हैं, ख़ुद इनकी इताअत की जाती है और ख़ुद मासीयत करते रहते हैं अपने हक़ को पूरा-पूरा ले लेते हैं और दूसरों के हक़ को अदा नहीं करते हैं। परवरदिगार को छोड़कर मख़लूक़ात से ख़ौफ़ खाते हैं और मख़लूक़ात के बारे में परवरदिगार से ख़ौफ़ज़दा नहीं होते हैं। सय्यद रज़ी- अगर इस किताब में इस कलाम के अलावा कोई दूसरी नसीहत न भी होती तो ही कलाम कामयाब मोअज़त, बलीग़ हिकमत और साहेबाने बसीरत की बसीरत और साहेबाने फिक्रो नज़र की इबरत के लिये काफ़ी था।

(((दौरे हाज़िर का अज़ीमतरीन मेयारे ज़िन्दगी यही है और हर शख़्स ऐसी ही ज़िन्दगी के लिये बेचैन नज़र आता है, काफ़ी हाउस, नाइट क्लब और दीगर लगवियात के मक़ामात पर सरमायादारों की मसाहेबत के लिये हर मतूसत तबक़े का आदमी मरा जा रहा है और किसी को यह शौक़ नहीं पैदा होता है के चन्द लम्हे ख़ानाए ख़ुदा में बैठ कर फ़क़ीरों के साथ मालिक की बारगाह में मुनाजात करे और यह एहसास करे के उसकी बारगाह में सब फ़क़ीर हैं और यह दौलत व इमारत सिर्फ़ चन्द रोज़ा तमाशा है वरना इन्सान ख़ाली हाथ आया है और ख़ाली हाथ ही जाने वाला है, दौलत आक़बत बनाने का ज़रिया थी अगर उसे भी आक़बत की बरबादी की राह पर लगा दिया तो आख़ेरत में हसरत व अफ़सोस के अलावा कुछ हाथ आने वाला नहीं है।)))

150- हर शख़्स का एक अन्जाम बहरहाल होने वाला है चाहे शीरीं हो या तल्ख़।