नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 151-200

151- हर आने वाला पलटने वाला है और जो पलट जाता है वह ऐसा हो जाता है जैसे था ही नहीं।

152- सब्र करने वाला कामयाबी से महरूम नहीं हो सकता है चाहे कितना ही ज़माना क्यों न लग जाए।

153- किसी क़ौम के अमल से राज़ी हो जाने वाला भी उसी के साथ शुमार किया जाएगा और जो किसी बातिल में दाखि़ल हो जाएगा उस पर दोहरा गुनाह होगा, अमल का भी गुनाह और राज़ी होने का भी गुनाह।

154- अहद व पैमान की ज़िम्मेदारी उनके हवाले करो जो कीलो की तरह मुस्तहकम और मज़बूत हों।

155- उसकी इताअत ज़रूर करो जिससे नावाक़फ़ीयत क़ाबिले माफ़ी नहीं है, (यानी ख़ुदाई मन्सबदार)।

156- अगर तुम बसीरत रखते हो तो तुम्हें हक़ाएक़ दिखलाए जा चुके हैं और अगर हिदायत हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें हिदायत दी जा चुकी है और अगर सुनना चाहते हो तो तुम्हें पैग़ाम सुनाया जा चुका है।

157- अपने भाई को तम्बीह करो तो एहसान करने के बाद और उसके शर का जवाब दो तो लुत्फ़ व करम के ज़रिये।

(((खुली हुई बात है के इन्सान अगर सिर्फ़ तम्बीह करता है और काम नहीं करता है तो उसकी तम्बीह का कोई असर नहीं होता है के दूसरा शख़्स पहले ही बदज़न हो जाता है तो कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं होता है और नसीहत बेकार चली जाती है, इसके बरखि़लाफ़ अगर पहले एहसान करके दिल में जगह बना ले और उसके बाद गुनाह करे तो यक़ीनन नसीहत का असर होगा और बात ज़ाया व बरबाद न होगी।)))

158- जिसने अपने नफ़्स को तोहमत के मवाक़े पर रख दिया उसे किसी बदज़नी करने वाले को मलामत करने का हक़ नहीं है।

(((अजीब व ग़रीब बात है के इन्सान उन लोगों से फ़ौरन बेज़ार हो जाता है जो उससे बदगुमानी रखते हैं लेकिन इन हालात से बेज़ारी का इज़हार नहीं करता है उसकी बिना पर बदगुमानी पैदा होती है जबके इन्साफ़ का तक़ाज़ा यह है के पहले बदज़नी के मक़ामात से इज्तेनाब करे और उसके बाद उन लोगों से नाराज़गी का इज़हार करे जो बिला सबब बदज़नी का शिकार हो जाते हैं।)))

159- जो इक़्तेदार हासिल कर लेता है वह जानिबदारी करने लगता है।

160- जो अपनी बात को बड़ा समझेगा वह हलाक हो जाएगा और जो लोगों से मशविरा करेगा वह उनकी अक़्लों में शरीक हो जाएगा।

161- जो अपने राज़ को पोशीदा रखेगा उसका इख़्तेयार उसके हाथ में रहेगा।

162- फ़क़ीरी सबसे बड़ी मौत है।

163- जो किसी ऐसे शख़्स का हक़ अदा कर दे जो इसका हक़ अदा न करता हो तो गोया उसने उसकी परस्तिश कर ली है।

(((मक़सद यह है के इन्सान के अमल की कोई बुनियाद होनी चाहिये और मीज़ान और मेयार के बग़ैर किसी अमल को अन्जाम नहीं देना चाहिये अब अगर कोई शख़्स किसी के हुक़ूक़ की परवाह नहीं करता है और वह इसके हुक़ूक़ को अदा किये जा रहा है तो इसका मतलब यह है के अपने को इसका बन्दाए बेदाम तसव्वुर करता है और इसकी परस्तिश किये चला जा रहा है।)))

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

164- ख़ालिक़ की गुनाह के ज़रिये मख़लूक़ की इताअत नहीं की जा सकती है।

165- अपना हक़ लेने में ताख़ीर कर देना ऐब नहीं है, दूसरे के हक़ पर क़ब्ज़ा कर लेना ऐब है।

((( इन्सान की ज़िम्मेदारी है के ज़िन्दगी में हुक़ूक़ हासिल करने से ज़्यादा हुक़ूक़ की अदायगी पर तवज्जो दे के अपने हुक़ूक़ को नज़रअन्दाज़ कर देना न दुनिया में बाएसे मलामत है और न आख़ेरत में वजहे अज़ाब है लेकिन दूसरों के हुक़ूक़ पर क़ब्ज़ा कर लेना यक़ीनन बाएसे मज़म्मत भी है और वज्हे अज़ाब व अक़ाब भी है।)))

166- ख़ुद पसन्दी ज़्यादा अमल से रोक देती है।

(((खुली हुई बात है के जब तक मरीज़ को मर्ज़ का एहसास रहता है वह इलाज की फ़िक्र भी करता है लेकिन जिस दिन वरम को सेहत तसव्वुर कर लेता है उस दिन से इलाज छोड़ देता है, यही हाल ख़ुद पसन्दी का है के ख़ुदपसन्दी किरदार का वरम है जिसके बाद इन्सान अपनी कमज़ोरियों से ग़ाफ़िल हो जाता है और उसके शुबह में अमल ख़त्म कर देता है या रफ़्तारे अमल को सुस्त बना देता है और यही चीज़ इसके किरदार की कमज़ोरी के लिये काफ़ी है।)))

167- आखि़रत क़रीब है और दुनिया की सोहबत बहुत मुख़्तसर है।

168- आंखों वालों के लिये सुबह रौशन हो चुकी है।

169- गुनाह का न करना बाद में मदद मांगने से आसानतर है।

((( मसल मशहुर है के परहेज़ करना इलाज करने से बेहतर है के परहेज़ इन्सान को बीमारियों से बचा सकता है और इस तरह उसकी फ़ितरी ताक़त महफ़ूज़ रहती है लेकिन परहेज़ न करने की बिना पर अगर मर्ज़ ने हमला कर दिया तो ताक़त ख़ुद ब ख़ुद कमज़ोर हो जाती है और फिर इलाज के बाद भी वह फ़ितरी हालत वापस नहीं आती है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के गुनाहों के ज़रिये नफ़्स के आलूदा होने और तौबा के ज़रिये इसकी ततहीर करने से पहले उसकी सेहत का ख़याल रखे और उसे आलूदा न होने दे ताके इलाज की ज़हमत से महफ़ूज़ रहे।)))

170-अक्सर औक़ात एक खाना कई खानों से रोक देता है।

171- लोग उन चीज़ों के दुश्मन होते हैं जिनसे बेख़बर होते हैं।

172- जो विभिन्न सुझावो का सामना करता है वह ग़लती के स्थान को जान लेता है।

(((इसका एक मतलब यह भी है के मशविरा करने वाला ग़लतियों से बचा रहता है के उसे किसी तरह के उफ़कार हासिल हो जाते हैं और हर शख़्स के ज़रिये दूसरे की फ़िक्र की कमज़ोरी का भी अन्दाज़ा हो जाता है और इस तरह सही राय इख़्तेयार करने में कोई ज़हमत नहीं रह जाती है।)))

173- जो अल्लाह के लिये ग़ज़ब के सिनान को तेज़ कर लेता है वह बातिल के सूरमाओं के क़त्ल पर भी क़ादिर हो जाता है।

174- जब किसी अम्र से दहशत महसूस करो तो उसमें फान्द पड़ो के ज़्यादा ख़ौफ़ व एहतियात ख़तरे से ज़्यादा ख़तरनाक होती है।

175- रियासत का वसीला दिल का बड़ा होना है।

176- बद अमल की सरज़न्श के लिये नेक अमल वाले को अज्र व इनआम दो।

(((हमारे मुआशरे की कमज़ोरियों में से एक अहम कमज़ोरी यह है के यहाँ बदकिरदारों पर तन्क़ीद तो की जाती है लेकिन नेक किरदार की ताईद व तौसीफ़ नहीं की जाती है, आप एक दिन ग़लत काम करें तो सारे शहर में हंगामा हो जाएगा लेकिन एक साल तक बेहतरीन काम करें तो कोई बयान करने वाला भी न पैदा होगा, हालांके उसूली बात यह है के नेकी के फैलाने का तरीक़ा सिर्फ़ बुराई पर तन्क़ीद करना नहीं है बल्कि उससे बेहतर तरीक़ा ख़ुद नेकी की हौसला अफ़ज़ाई करना है जिसके बाद हर शख़्स में नेकी करने का शऊर बेदार हो जाएगा और बुराइयों का क़ला क़मा हो जाएगा)))

177-दूसरे के दिल से शर को काट देना है तो पहले अपने दिल से उखाड़कर फेंक दो।

178- हटधर्मी सही राय को भी दूर कर देती है।

179- लालच हमेशा हमेशा की ग़ुलामी है।

(((यह इन्सानी ज़िन्दगी की अज़ीमतरीन हक़ीक़त है के हिर्स व लालच रखने वाला इन्सान नफ़्स का ग़ुलाम और ख़्वाहिशात का बन्दा हो जाता है और जो शख़्स ख़्वाहिशात की बन्दगी में मुब्तिला हो गया वह किसी क़ीमत पर इस ग़ुलामी से आज़ाद नहीं हो सकता है, इन्सानी ज़िन्दगी की दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यह है के इन्सान अपने को ख़्वाहिशाते दुनिया और हिर्स व लालच से दूर रखे ताके किसी ग़ुलामी में मुब्तिला न होने पाए के यहाँ “शौक़ हर रंग रक़ीब सरो सामान”हुआ करता है और यहाँ की ग़ुलामी से निजात मुमकिन नहीं है।)))

180-कोताही का नतीजा शर्मिन्दगी है और होशियारी का समरह सलामती।

181- हिकमत से ख़ामोशी में कोई ख़ैर नहीं है जिस तरह के जेहालत से बोलने में कोई भलाई नहीं है। (((इन्सान को हर्फे हिकमत का एलान करना चाहिये ताके दूसरे लोग उससे इस्तेफ़ादा करें और हर्फ़े जेहालत से परहेज़ करना चाहिये के जेहालत की बात करने से ख़ामोशी ही बेहतर होती है, इन्सान की इज़्ज़त भी सलामत रहती है और दूसरों की गुमराही का भी कोई अन्देशा नहीं होता है)))

182- जब दो मुख़्तलिफ़ दावतें दी जाएं तो दो में से एक यक़ीनन गुमराही होगी।

183- मुझे जब से हक़ दिखला दिया गया है मैं कभी शक का शिकार नहीं हुआ हूँ।

184- मैंने न ग़लत बयानी की है और न मुझे झूठ ख़बर दी गई है, न मैं गुमराह हुआ हूँ और न मुझे गुमराह किया जा सका है।

185- ज़ुल्म की इब्तिदा करने वाले को कल निदामत से अपना हाथ काटना पड़ेगा।

(((अगर यह दुनिया में हर ज़ुल्म करने वाले का अन्जाम है तो उसके बारे में क्या कहा जाएगा जिसने आलमे इस्लाम में ज़ुल्म की इब्तिदा की है और जिसके मज़ालिम का सिलसिला आज तक जारी है और औलादे रसूले अकरम (स0) किसी आन भी मज़ालिम से महफ़ूज़ नहीं है)))

186-जाने का वक़्त (मौत) क़रीब आ गया है।

187-जिसने हक़ से मुंह मोड़ लिया वह हलाक हो गया।

188- जिसे सब्र निजात नहीं दिला सकता है उसे बेक़रारी मार डालती है।

((( दुनिया में काम आने वाला सिर्फ़ सब्र है के इससे इन्सान का हौसला भी बढ़ता है और उसे अज्र व सवाब भी मिलता है, बेक़रारी में उनमें से कोई सिफ़त नहीं है और न उससे कोई मसला हल होने वाला है, लेहाज़ा अगर किसी शख़्स ने सब्र को छोड़कर बेक़रारी का रास्ता इख़्तेयार कर लिया तो गोया अपनी तबाही का आप इन्तेज़ाम कर लिया और परवरदिगार की मईत से भी महरूम हो गया के वह सब्र करने वालों के साथ रहता है, जज़अ व फ़ज़अ करेन वालों के साथ नहीं रहता है।)))

189-ताज्जुब है ! खि़लाफ़त सिर्फ़ सहाबियत की बिना पर मिल सकती है लेकिन अगर सहाबियत और क़राबत दोनों जमा हो जाएं तो नहीं मिल सकती है।

सय्यद रज़ी - इस मानी में हज़रत का यह शेर भी हैः “अगर तुमने शूरा से इक़्तेदार हासिल किया तो यह शूरा कैसा है जिसमें मुशीर ही सब ग़ायब थे। और अगर तुमने क़राबत से अपनी ख़ुसूसियत का इज़हार किया है तो तुम्हारा ग़ैर तुमसे ज़्यादा रसूले अकरम (स0) के लिये औला और अक़रब है। ”

190-इन्सान इस दुनिया में वह निशाना है जिस पर मौत अपने तीर चलाती रहती है और वह मसाएब की ग़ारतगरी की जूला निगाह बना रहता है, यहाँ के हर घूंट पर उच्छू है और हर लुक़्मे पर गले में एक फन्दा है इन्सान एक नेमत को हासिल नहीं करता है मगर यह के दूसरी हाथ से निकल जाती है और ज़िन्दगी के एक दिन का इस्तेक़बाल नहीं करता है मगर यह के दूसरा दिन हाथ से निकल जाता है। हम मौत के मददगार हैं और हमारे नफ़्स हलाकत का निशाना हैं, हम कहां से बक़ा की उम्मीद करें जबके शब व रोज़ किसी इमारत को ऊंचा नहीं करते हैं मगर यह के हमले करके उसे मुनहदिम कर देते हैं और जिसे भी यकजा करते हैं उसे बिखेर देते हैं।

(((किसी तरह का कोई इज़ाफ़ा नहीं है बल्कि एक दिन ने जाकर दूसरे दिन के लिये जगह ख़ाली है और इसकी आमद की ज़मीन हमवार की है तो इस तरह इन्सान का हिसाब बराबर ही रह गया, एक दिन जेब में दाखि़ल हुआ और एक दिन जेब से निकल गया और इसी तरह एक दिन ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाएगा)))

191- फ़रज़न्दे आदम! अगर तूने अपनी ग़िज़ा से ज़्यादा कमाया है तो गोया इस माल में दूसरों का ख़ज़ान्ची है।

(((यह बात तयशुदा है के मालिक का निज़ामे तक़सीम ग़लत नहीं है और उसने हर शख़्स की ताक़त एक जैसी नहीं रखी है तो इसका मतलब यह है के उसने दुनिया के गोदामो में हिस्सा सबका रखा है लेकिन सबमें उन्हें हासिल करने की यकसां ताक़त नहीं है बल्कि एक को दूसरे के लिये वसीला और ज़रिया बना दिया है तो अगर तुम्हारे पास तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा माल आ जाए तो इसका मतलब यह है के मालिक ने तुम्हें दूसरों के हुक़ूक़ का ख़ाज़िन बना दिया है और अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है के इसमें किसी तरह की ख़यानत न करो और हर एक को उसका हिस्सा पहुंचा दो।)))

192- दिलों के लिये रग़बत व ख़्वाहिश, आगे बढ़ना और पीछे हटना सभी कुछ है लेहाज़ा जब मीलान और तवज्जो का वक़्त हो तो उससे काम ले लो के दिल को मजबूर करके काम लिया जाता है तो वह अन्धा हो जाता है।

193-मुझे ग़ुस्सा आ जाए तो मैं उससे तस्कीन किस तरह हासिल करूँ ? इन्तेक़ाम से आजिज़ हो जाऊँगा तो कहा जाएगा के सब्र करो और इन्तेक़ाम की ताक़त पैदा कर लूँगा तो कहा जाएगा के काश माफ़ कर देते (ऐसी हालत में ग़ुस्से का कोई फ़ायदा नहीं है।)

((आप इस इरशादेगिरामी के ज़रिये लोगों को सब्र व तहम्मुल की नसीहत करना चाहते हैं के इन्तेक़ाम आम तौर से क़ाबिले तारीफ़ नहीं होता है, इन्सान मक़ाम इन्तेक़ाम में कमज़ोर पड़ जाता है तो लोग मलामत करते हैं के जब ताक़त नहीं थी तो इन्तेक़ामक लेने की ज़रूरत ही क्या थी और ताक़तवर साबित होता है तो कहते हैं के कमज़ोर आदमी से क्या इन्तेक़ाम लेना है, मुक़ाबला किसी बराबर वाले से करना चाहिये था, ऐसी सूरत में तक़ाज़ाए अक़्ल व मन्तक़ यही है के इन्सान सब्र व तहम्मुल से काम ले और जब तक इन्तेक़ाम फ़र्ज़े शरई न बन जाए उस वक़्त तक इसका इरादा भी न करे और फिर जब मालिके कायनात इन्तेक़ाम लेने वाला मौजूद है तो इन्सान को इस क़द्र ज़हमत बरदाश्त करने की क्या ज़रूरत है)))

194- एक कूड़ाघर से गुज़रते हुए फ़रमाया - “यही वह चीज़ है जिसके बारे में कंजूसी करने वालों ने कंजूसी किया था”या दूसरी रिवायत की बिना पर “जिसके बारे में कल एक दूसरे से रश्क कर रहे थे, (यह है अन्जामे दुनिया और अन्जामे लज़्ज़ाते दुनिया)

195- जो माल नसीहत का सामान फ़राहम कर दे वह बरबाद नहीं हुआ है।

196- यह दिल इसी तरह उकता जाते हैं जिस तरह बदन, लेहाज़ा इनके लिये लतीफ़ तरीन हिकमतें फ़राहम करो।

197-जब आपने ख़वारिज का यह नारा सुना के “ख़ुदा के अलावा किसी के लिये हुक्म नहीं है’तो फ़रमाया के “यह कलमए हक़ है”लेकिन इससे बातिल मानी मुराद लिये गए हैं।

198- बाज़ारी लोगों की भीड़ भाड़ के बारे में फ़रमाया के - यही वह लोग हैं जो इकट्ठा हो जाते हैं तो ग़ालिब आ जाते हैं और फ़ैल जाते हैं तो पहचाने भी नहीं जाते हैं। और बाज़ लोगों का कहना है के हज़रत ने इस तरह फ़रमाया था के - जब जमा हो जाते हैं तो नुक़सानदेह होते हैं और जब फ़ैल हो जाते हैं तभी फ़ायदेमन्द होते हैं। तो लोगों ने अर्ज़ की के जमा हो जाने में नुक़सान तो समझ में आ गया लेकिन फ़ैलने में फ़ायदे के क्या मानी हैं? तो फ़रमाया के सारे कारोबार वाले अपने कारोबार की तरफ़ पलट जाते हैं और लोग उनसे फ़ायदा उठा लेते हैं जिस तरह मेमार अपनी इमारत की तरफ़ चला जाता है, कपड़ा बुनने वाला कारख़ाने की तरफ़ चला जाता है और रोटी पकाने वाला तनूर की तरफ़ पलट जाता है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के अवामी ताक़त बहुत बड़ी ताक़त होती है और दुनिया का कोई निज़ाम इस ताक़त के बग़ैर कामयाब नहीं हो सकता है और इसीलिये मौलाए कायनात ने भी मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर इनकी अहमियत की तरफ़ इशारा किया है और इन पर ख़ास तवज्जो देने की हिदायत की है, लेकिन अवामुन्नास की एक बड़ी कमज़ोरी यह है के इनकी अकसरीयत अक़्ल व मन्तक़ से महरूम और जज़्बात व अवातिफ़ से मामूर होती है और इनके अकसर काम सिर्फ़ जज़्बात व एहसासात की बिना पर अन्जाम पाते हैं और इस तरह जो निज़ाम भी इनके जज़्बात व ख़्वाहिशात की ज़मानत दे देता है वह फ़ौरन कामयाब हो जाता है और अक़्ल व मन्तक़ का निज़ाम पीछे रह जाता है लेहाज़ा हज़रत ने चाहा के इस कमज़ोरी की तरफ़ भी मुतवज्जो कर दिया जाए ताके अरबाबे हल व ओक़द हमेशा उनके जज़्बाती और हंगामी वजूद पर एतमाद न करें बल्कि इसकी कमज़ोरियों पर भी निगाह रखें।)))

199-आपके पास एक मुजरिम को लाया गया जिसके साथ तमाशाइयों का हुजूम था तो फ़रमाया के “उन चेहरों पर फिटकार हो जो सिर्फ़ बुराई और रूसवाई के मौक़े पर नज़र आते हैं।

(((आम तौर से इन्सानों का मिज़ाज यही होता है के जहां किसी बुराई का मन्ज़र आता है फ़ौरन उसके गिर्द जमा हो जाते हैं, मस्जिद के नमाज़ियों का देखने वाला कोई नहीं होता है लेकिन क़ैदी का तमाशा देखने वाले हज़ारों निकल आते हैं और इस तरह इस जमा होने का कोई मक़सद भी नहीं होता, आापका मक़सद यह है के यह जमा होने वाला मजमा इबरत हासिल करने के लिये होता तो कोई बात नहीं थी मगर अफ़सोस के यह सिर्फ तमाशा देखने के लिये होता है और इन्सान के वक़्त का इससे कहीं ज़्यादा अहम मसरफ़ मौजूद है लेहाज़ा उसे इससी मसरफ़ में सर्फ़ करना चाहिये।)))

200- हर इन्सान के साथ दो मुहाफ़िज़ फ़रिश्ते रहते हैं लेकिन जब मौत का वक़्त आ जाता है तो दोनों साथ छोड़ कर चले जाते हैं गोया के मौत ही बेहतरीन सिपर हैं।