नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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इमाम अली के अक़वाल (कथन) 201-250

201-जब तल्हा व ज़ुबैर ने यह तक़ाज़ा किया के हम बैअत कर सकते हैं लेकिन हमें शरीके कार बनाना पड़ेगा ? तो फ़रमाया के हरगिज़ नहीं, तुम सिर्फ़ क़ूवत पहुंचाने और हाथ बटाने में शरीक हो सकते हो और आजिज़ी और सख़्ती के मौक़े पर मददगार बन सकते हो।

202- लोगों! उस ख़ुदा से डरो जो तुम्हारी हर बात को सुनता है और हर राज़े दिल का जानने वाला है और इसस मौत की तरफ़ सबक़त करो जिससे भागना भी चाहो तो वह तुम्हें पा लेगी और ठहर जाओगे तो तुम्हारी गिरफ्त में ले लेगी और तुम उसे भूल भी जाओगे तो वह तुम्हें याद रखेगी।

203- ख़बरदार किसी शुक्रिया अदा न करने वाले की नालायक़ी तुम्हें कारे ख़ैर से बद्दिल न बना दे, हो सकता है के तुम्हारा शुक्रिया वह अदा कर दे जिसने इस नेमत से कोई फ़ायदा भी नहीं उठाया है और जिस क़द्र कुफ्ऱाने नेमत करने वाले ने तुम्हारा हक़ ज़ाया किया है उस शुक्रिया अदा करने वाले के शुक्रिया के बराबर हो जाए और वैसे भी अल्लाह नेक काम करने वालों को दोस्त रखता है।

(((अव्वलन तो कारे ख़ैर में शुक्रिया का इन्तेज़ार ही इन्सान के एख़लास को मजरूह बना देता है और उसके अमल का वह मरतबा नहीं रह जाता है जो खुदा की राह मे काम करने वाले लोगो का होता है जिसकी तरफ़ क़ुराने मजीद ने सूराए मुबारका दहर में इशारा किया है इसके बाद अगर इन्सान फ़ितरत से मजबूर है और फ़ितरी तौर पर शुक्रिया का ख़्वाहिशमन्द है तो मौलाए कायनात ने इसका भी इशारा दे दिया के हो सकता है के यह कमी दूसरे अफ़राद की तरफ़ से पूरी हो जाए और वह तुम्हारे कारे ख़ैर की क़द्रदानी करके शुक्रिया की कमी का तदारूक कर दें।)))

204- हर ज़र्फ़ (जगह) अपने सामान के लिये तंग हो सकता है, लेकिन इल्म का ज़र्फ़ इल्म के एतबार से बड़ा होता जाता है।

(((इल्म का ज़र्फ़ अक़्ल है और अक़्ल ग़ैर माद्दी होने के एतबार से यूँ भी बेपनाह वुसअत की मालिक है, इसके बाद मालिक ने इसमें यह सलाहियत भी रखी है के जिस क़द्र इल्म में इज़ाफ़ा होता जाएगा उसकी वुसअत किसी मरहले पर तमाम होने वाली नहीं है।)))

205-सब्र करने वाले का उसकी क़ूवते बर्दाश्त पर पहला अज्र यह मिलता है के लोग जाहिल के मुक़ाबले में इसके मददगार हो जाते हैं।

206- अगर तुम हक़ीक़त मे बुर्दबार नहीं भी हो तो बुर्दबारी का इज़हार करो के बहुत कम ऐसा होता है के कोई किसी क़ौम की शबाहत इख़्तेयार करे और उनमें से न हो जाए।

207- जो अपने नफ़्स का हिसाब करता रहता है वहीं फ़ायदे में रहता है और जो ग़ाफ़िल हो जाता है वहीं ख़सारे में रहता है। ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाला अज़ाब से महफ़ूज़ रहता है और इबरत हासिल करने वाला साहबे बसीरत होता है, बसीरत वाला फ़हीम होता है और फ़हीम ही गवर्नर हो जाता है।

208- यह दुनिया मुंहज़ोरी दिखाने के बाद एक दिन हमारी तरफ़ बहरहाल झुकेगी जिस तरह काटने वाली ऊंटनी को अपने बच्चे पर रहम आ जाता है इसके बाद आपने इस आयते करीमा की तिलावत फ़रमाई - “हम चाहते हैं के इन बन्दों पर एहसान करें जिन्हें रूए ज़मीन में कमज़ोर बना दिया है और उन्हें पेशवा क़रार दें और ज़मीन का वारिस बना दें।

(((यह एक हक़ीक़त है के किसी भी ज़ालिम में अगर अदना इन्सानियत पाई जाती है तो उसे एक दिन मज़लूम की मज़लूमियत का बहरहाल एहसास पैदा हो जाता है और उसके हाल पर मेहरबानी का इरादा करने लगता है चाहे हालात और मसालेह उसे इस मेहरबानी को मन्ज़िले अमल तक लाने से रोक दें, दुनिया कोई ऐसी जल्लाद व ज़ालिम नहीं है जिसे दूसरे को हटाकर अपनी जगह बनाने का ख़याल हो लेहाज़ा एक न एक दिन मज़लूम पर रहम करना है और ज़ालिमों को मन्ज़रे तारीख़ से हटाकर मज़लूमों को कुर्सीए रियासत पर बैठाना है यही खुदा का इरादा है और यही वादाए क़ुरानी है जिसके खि़लाफ़ का कोई इमकान नहीं पाया जाता है)))

209- अल्लाह से डरो उस शख़्स की तरह जिसने दुनिया छोड़कर दामन समेट लिया हो और दामन समेट कर कोशिश में लग गया हो, अच्छाइयों के लिये वक़्फ़ए मोहलत में तेज़ी के साथ चल पड़ा हो और ख़तरों के पेशे नज़र तेज़ क़दम बढ़ा दिया हो और अपनी क़रारगाह, अपने आमाल और काम के नतीजे पर नज़र रखी हो।

(((यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के तक़वा किसी ज़बानी जमाख़र्च का नाम है और न लिबास व ग़िज़ा की सादगी से इबारत है, तक़वा एक इन्तेहाई मन्ज़िले दुश्वार है जहां इन्सान को अलग अलग दरजो से गुज़रना पड़ता है, पहले दुनिया को छोड़ना पड़ता है, इसके बाद दामने अमल को समेट कर शुरू करना होता है और अच्छाइयों की तरफ़ तेज़ क़दम बढ़ाना पड़ते हैं, अपने काम के नतीजे पर निगाह रखना होती है और ख़तरात से बचने का इन्तेज़ाम करना पड़ता है, यह सारे मराहेल तय हो जाएं तो इन्सान मुत्तक़ी और परहेज़गार कहे जाने के क़ाबिल होता है।)))

210-सख़ावत इज़्ज़त व आबरू की निगेहबान है और बुर्दबारी अहमक़ के मुंह का बंद है, माफ़ी कामयाबी की ज़कात है और भूल जाना ग़द्दारी करने वाले का बदला है और मशविरा करना ऐने हिदायत है, जिसने अपनी राय ही पर एतमाद कर लिया उसने अपने को ख़तरे में डाल दिया। सब्र हवादिस का मुक़ाबला करता है और बेक़रारी ज़माने की मददगार साबित होती है। बेहतरीन दौलतमन्दी तमन्नाओं का छोड़ना है। कितनी ही ग़ुलाम अक़्लें हैं जो अमीरो की ख़्वाहिशात के नीचे दबी हुई हैं, तजुर्बात को महफ़ूज़ रखना तौफ़ीक़ की एक क़िस्म है और मोहब्बत एक खुदसाख्ता क़राबत है और ख़बरदार किसी रन्जीदा हो जाने वाले पर एतमाद न करना।

(((इस कलमए हिकमत में मौलाए कायनात (अ0) ने तेरह मुख़्तलिफ़ नसीहतों का ज़िक्र फ़रमाया है और इनमें हर नसीहत इन्सानी ज़िन्दगी का बेहतरीन जौहर है , काश इन्सान इसके एक-एक फ़िक़रे पर ग़ौर करे और ज़िन्दगी की तजुर्बागाह में इस्तेमाल करे तो उसे अन्दाज़ा होगा के एक मुकम्मल ज़िन्दगी गुज़ारने का ज़ाबेता क्या होता है और इन्सार किस तरह दुनिया व आख़ेरत के ख़ैर को हासिल कर लेता है।)))

211-इन्सान का ख़ुदपसन्दी में मुब्तिला हो जाना ख़ुद अपनी अक़्ल से हसद करना है।

212- आँखों के ख़स व ख़ाशाक और रन्जो अलम पर चश्मपोशी करो हमेशा ख़ुश रहोगे।

(((हक़ीक़ते अम्र यह है के दुनिया के हर ज़ुल्म का एक इलाज और दुनिया की हर मुसीबत का एक तोड़ है जिसका नाम है सब्र व तहम्मुल, इन्सान सिर्फ़ यह एक जौहर पैदा कर ले तो बड़ी से बड़ी मुसीबत का मुक़ाबला कर सकता है और किसी मरहले पर परेशान नहीं हो सकता है, रंजीदा व ग़मज़दा ही रहते हैं जिनके पास यह जौहर नहीं होता है और ख़ुशहाल व मुतमईन वही रहते हैं जिनके पास यह जौहर होता है और वह उसे इस्तेमाल करना भी जानते हैं)))

213- जिस दरख़्त की लकड़ी नर्म हो उसकी शाख़ें घनी होती हैं

(लेहाज़ा इन्सान को नर्म दिल होना चाहिये)।

(((कितना हसीन तजुर्बए हयात है जिससे एक देहाती इन्सान भी इस्तेफ़ादा कर सकता है के अगर परवरदिगार ने दरख़्तों में यह कमाल रखा है के जिन दरख़्तों की शाख़ों को घना बनाया है उनकी लकड़ी को नर्म बना दिया है तो इन्सान को भी इस हक़ीक़त से इबरत हासिल करनी चाहिये के अगर अपने एतराफ़ मुख़लेसीन का मजमा देखना चाहता है और अपने को बेसाया दरख़्त नहीं बनाना चाहता है तो अपनी तबीयत को नर्म बना दे ताके इसके सहारे लोग इसके गिर्द जमा हो जाएं और इसकी शख़्सियत एक घनेरे दरख़्त की हो जाए।)))

214-मुख़ालेफ़त सही राय को भी बरबाद कर देती है।

215- जो मन्सब पा लेता है वह दस्त दराज़ी करने लगता है।

((( किस क़द्र अफ़सोस की बात है के इन्सान परवरदिगार की नेमतों का शुक्रिया अदा करने के बजाए कुफ्ऱाने नेमत पर उतर आता है और उसके दिये हुए इक़्तेदार को दस्तदराज़ी में इस्तेमाल करने लगता है हालांके शराफ़त व इन्सानियत का तक़ाज़ा यही था के जिस तरह उसने साहबे क़ुदरत व क़ूवत होने के बाद इसके हाल पर रहम किया है इसी तरह इक़्तेदार पाने के बाद यह दूसरों के हाल पर रहम करे।)))

216-लोगों के जौहर (गुण) हालात के बदलने में पहचाने जाते हैं।

217- दोस्त का हसद करना मोहब्बत की कमज़ोरी है।

218- अक़्लों की तबाही की बेश्तर मन्ज़िलें हिर्स व लालच की बिजलियों के नीचे हैं।

((( हिर्स व लालच की चमक-दमक बाज़ औक़ात अक़्ल की निगाहों को भी खै़रा कर देती है और इन्सान नेक व बद के इम्तियाज़ से महरूम हो जाता है, लेहाज़ा दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यही है के अपने को हिर्स व लालच से दूर रखे और ज़िन्दगी का हर क़दम अक़्ल के ज़ेरे साया उठाए ताके किसी मरहले पर तबाह व बरबाद न होने पाए।)))

219- यह कोई इन्साफ़ नहीं है के सिर्फ़ ज़न व गुमान के एतमाद पर फ़ैसला कर दिया जाए।

((ज़न व गुमानः शक, एतमादः भरोसा))

220- रोज़े क़यामत के लिये सबसे खराब सफ़र का सामान ख़ुदा के बन्दो पर ज़ुल्म है।

221- करीम आदमी का बेहतरीन अमल जानकर भी अन्जान बन जाना है।

222- जिसे हया ने अपना लिबास ओढ़ा दिया उसके ऐब को कोई नहीं देख सकता है।

223- ज़्यादा ख़ामोशी हैबत का सबब बनती है और इन्साफ़ से दोस्तों में इज़ाफ़ा होता है, फ़ज़्ल व करम से क़द्र व मन्ज़िलत बलन्द होती है और तवाज़ोअ से नेमत मुकम्मल होती है दूसरों का बोझ उठाने से सरदारी हासिल होती है और इन्साफ़ पसन्द किरदार से दुश्मन पर ग़लबा हासिल किया जाता है, अहमक़ के मुक़ाबले में बुर्दबारी दिखाने से दोस्त ल मददगारो में इज़ाफ़ा होता है।

(((इस नसीहत में भी ज़िन्दगी के सात मसाएल की तरफ़ इशारा किया गया है और यह बताया गया है के इन्सान एक कामयाब ज़िन्दगी किस तरह गुज़ार सकता है और उसे इस दुनिया में बाइज़्ज़त ज़िन्दगी के लिये किन उसूल व क़वानीन को इख़्तेयार करना चाहिये।)))

224- हैरत की बात है के हसद करने वाले जिस्मों की सलामती पर हसद क्यों नहीं करते हैं

(दौलतमन्द की दौलत से हसद होता है और मज़दूर की सेहत से हसद नहीं होता है हालांके यह उससे बड़ी नेमत है)।

225- लालची हमेशा ज़िल्लत की क़ैद में गिरफ़्तार रहता है।

(((लालच में दो तरह की ज़िल्लत का सामना करना पड़ता है, एक तरफ़ इन्सान नफ़सियाती ज़िल्लत का शिकार रहता है के अपने को हक़ीर व फ़क़ीर तसव्वुर करता है और अपनी किसी भी दौलत का एहसास नहीं करता है और दूसरी तरफ़ दूसरे अफ़राद के सामने हिक़ारत व ज़िल्लत का इज़हार करता रहता है के शायद इसी तरह किसी को उसके हाल पर रहम आ जाए और वह उसके मुद्दआ के हुसूल की राह हमवार कर दे।)))

226- आपसे ईमान के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के ईमान दिल का अक़ीदा, ज़बान का इक़रार और जिस्म के आज़ा व जवारेह के अमल का नाम है।

(((अली (अ0) वालों को इस जुमले को बग़ौर देखना चाहिये के कुल्ले ईमान ने ईमान को अपनी ज़िन्दगी के सांचे में ढाल दिया है के जिस तरह आपकी ज़िन्दगी में इक़रार , तस्दीक़ और अमल के तीनों रूख़ पाए जाते थे वैसे ही आप हर साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल देखना चाहते हैं और इसके बग़ैर किसी को साहेबे ईमान तस्लीम करने के लिये तैयार नहीं हैं और खुली हुई बात है के बेअमल अगर साहबे ईमान नहीं हो सकता है तो कुल्ले ईमान का शीया और उनका मुख़लिस कैसे हो सकता है।)))

227- जो दुनिया के बारे में रन्जीदा होकर सुबह करे वह दरहक़ीक़त क़ज़ाए इलाही से नाराज़ है और जो सुबह उठते ही किसी नाज़िल होने वाली मुसीबत का शिकवा शुरू कर दे उसने दरहक़ीक़त परवरदिगार की शिकायत की है, जो किसी दौलतमन्द के सामने दौलत की बिना पर झुक जाए उसका दो तिहाई दीन बरबाद हो गया, और जो शख़्स क़ुरान पढ़ने के बावजूद मरकर जहन्नम वासिल हो जाए गोया उसने खुदा की निशानीयो का मज़ाक़ उड़ाया है, जिसका दिल मोहब्बते दुनिया मे खो जाए उसके दिल में यह तीन चीज़ें पेवस्त हो जाती हैं- वह ग़म जो उससे जुदा नहीं होता है, वह लालच जो उसका पीछा नहीं छोड़ती है और वह उम्मीद जिसे कभी हासिल नहीं कर सकता है।

((( इस मक़ाम पर अज़ीम नुकाते ज़िन्दगी की तरफ़ इशारा किया गया है लेहाज़ा इन्सान को उनकी तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये और सब्र व शुक्र के साथ ज़िन्दगी गुज़ारनी चाहिये, न शिकवा व फ़रयाद शुरू कर दे और न दौलत की ग़ुलामी पर आमादा हो जाए, क़ुरान पढ़े तो उस पर अमल भी करे और दुनिया में रहे तो उससे होशियार भी रहे)))

228- क़ेनाअत से बड़ी कोई सल्तनत और हुस्ने अख़लाक़ से बेहतर कोई नेमत नहीं है, आपसे दरयाफ़्त किया गया के “हम हयाते तय्यबा इनायत करेंगे।”इस आयत में हयाते तय्यबा से मुराद क्या है? फ़रमाया क़ेनाअत।

((क़ेनाअतः जितना मिल जाऐ उतने पर राज़ी हो जाना))

229- जिसकी तरफ़ रोज़ी का रूख़ हो उसके साथ शरीक हो जाओ के यह दौलतमन्दी पैदा करने का बेहतरीन ज़रिया और ख़ुश नसीबी का बेहतरीन क़रीना है।

230 आयते करीमा “इन्नल्लाहा या मोरो बिल अद्ल”में अद्ल इन्साफ़ है और एहसान फ़ज़्ल व करम। (((हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन का बयान है के मेरे इस्लाम में मज़बूती उस दिन पैदा हुई जब यह आयते करीमा नाज़िल हुई और मैंने जनाबे अबूतालिब से इस आयत का ज़िक्र किया और उन्होंने फ़रमाया के मेरा फ़रज़न्द मोहम्मद (स0) हमेशा बलन्दतरीन अख़लाक़ की बातें करता है लेहाज़ा इसकी पैरवी और इससे हिदायत हासिल करना तमाम क़ुरैश का फ़रीज़ा है।)))

231- जो आजिज़ हाथ से देता है उसे साहेबे इक़तेराद हाथ से मिलता है।

सय्यद रज़ी- जो शख़्स किसी कारे ख़ैर में मुख़्तसर माल भी ख़र्च करता है परवरदिगार उसकी जज़ा को अज़ीम व कसीर बना देता है, यहाँ दोनों “यद”से मुराद दोनों नेमतें हैं, बन्दे की नेमत को यदे क़सीरा कहा गया है और ख़ुदाई नेमत को यदे तवीला, इसलिये के अल्लाह की नेमतें बन्दों के मुक़ाबले में हज़ारों गुना ज़्यादा होती हैं और वही तमाम नेमतों की असल और सबका मरजअ व मन्शा होती हैं।

232- अपने फ़रज़न्द इमाम हसन (अ0) से फ़रमाया- तुम किसी को जंग की दावत न देना लेकिन जब कोई ललकार दे तो फ़ौरन जवाब दे देना के जंग की दावत देने वाला बाग़ी होता है और बाग़ी बहरहाल हलाक होने वाला है।

(((इस्लाम का तवाज़ुन अमल यही है के जंग में पहल न की जाए और जहां तक मुमकिन हो उसको नज़रअन्दाज़ किया जाए लेकिन इसके बाद अगर दुश्मन जंग की दावत दे दे तो उसे नज़र अन्दाज़ भी न किया जाए के इस तरह उसे इस्लाम की कमज़ोरी का एहसास पैदा हो जाएगा और उसके हौसले बलन्द हो जाएंगे, ज़रूरत इस बात की है के उसे यह महसूस करा दिया जाए के इस्लाम कमज़ोर नहीं है लेकिन पहल करना इसके एख़लाक़ी उसूल व आईन के खि़लाफ़ है)))

233- औरतों की बेहतरीन ख़सलतें जो मर्दों की बदतरीन ख़सलतें शुमार होती हैं, उनमें ग़ुरूर, बुज़दिली और कंजूसी है के औरत अगर मग़रूर होगी तो कोई उस पर क़ाबू न पा सकेगा और अगर बख़ील होगी तो अपने और अपने शौहर के माल की हिफ़ाज़त करेगी और अगर बुज़दिल होगी तो हर पेश आने वाले ख़तरे से ख़ौफ़ज़दा रहेगी।

(((यह तफ़सील इस अम्र की तरफ़ इशारा है के यह तीनों सिफ़ात उन्हीं बलन्दतरीन मक़ासिद की राह में महबूब हैं वरना ज़ाती तौर पर न ग़ुरूर महबूब हो सकता है और न कंजूसी व बुज़दिली। हर सिफ़त अपने मसरफ़ के एतबार से ख़ूबी या ख़राबी पैदा करती है। और औरत के यह सिफ़ात इन्हीं मक़ासिद के एतबार से पसन्दीदा हैं मुतलक़ तौर पर यह सिफ़ात किसी के लिये भी पसन्दीदा नहीं हो सकते हैं)))

234- आपसे गुज़ारिश की गई के मर्दे आक़िल की तौसीफ़ फ़रमाएं तो फ़रमाया के आक़िल वह है जो हर चीज़ को उसकी जगह पर रखता है, अर्ज़ किया गया फिर जाहिल की तारीफ़ क्या है- फ़रमाया यह तो मैं बयान कर चुका।

सय्यद रज़ी - मक़सद यह है के जाहिल वह है जो हर चीज़ को बेमहल रखता है और इसका बयान न करना ही एक तरह का बयान है के वह आक़िल की ज़िद है।

235-ख़ुदा की क़सम यह तुम्हारी दुनिया मेंरी नज़र में कोढ़ी के हाथ में सुअर की हड्डी से भी बदतर है। (((एक तो सुअर जैसे नजिसुल ऐन जानवर की हड्डी और वह भी कोढ़ी इन्सान के हाथ में। इससे ज़्यादा नफ़रत अंगेज़ चीज़ दुनिया में क्या हो सकती है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इस ताबीर से इस्लाम और अक़्ल दोनों के तालीमात की तरफ़ मुतवज्जो किया है के इस्लाम नजिसुल ऐन से इज्तेनाब की दावत देता है और अक़्ल मोतादी इमराज़ के मरीज़ों से बचने की दावत देती है। ऐसे हालात में अगर कोई शख़्स दुनिया पर टूट पड़े तो न मुसलमान कहे जाने के क़ाबिल है और न साहेबे अक़्ल।)))

236-एक क़ौम सवाब की लालच में इबादत करती है तो यह ताजिरों की इबादत है और एक क़ौम अज़ाब के ख़ौफ़ से इबादत करती है तो यह ग़ुलामों की इबादत है, अस्ल वह क़ौम है जो शुक्रे ख़ुदा के उनवान से इबादत करती है और यही आज़ाद लोगों की इबादत है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

237- औरत सरापा शर है और इसकी सबसे बड़ी बुराई यह है के इसके बग़ैर काम भी नहीं चल सकता है। (((बाज़ हज़रात का ख़याल है के हज़रत का यह इशारा किसी “ख़ास औरत”की तरफ़ है वरना यह बात क़रीने क़यास नहीं है के औरत की सिन्फ़ को शर क़रार दिया जाए और उसे इस हिक़ारत की नज़र से देखा जाए “ला बदमिनहा”इस रिश्ते की तरफ़ इशारा हो सकता है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है और उनके बग़ैर ज़िन्दगी को अधूरा और नामुकम्मल क़रार दिया गया है। और अगर बात उमूमी है तो औरत का शर होना उसकी ज़ात या उसके किरदार के नुक़्स की बुनियाद पर नहीं है बल्कि उसकी बुनियाद सिर्फ़ उसकी ज़रूरत और उसके सरापा का इन्सानी जिन्दगी पर तसल्लत है के मर्द किसी वक़्त भी उससे बेनियाज़ नहीं हो सकता है और इस तरह अकसर औक़ात उसके सामने सरे तस्लीम ख़म करने के लिये तैयार हो जाता है। ज़रूरत इस बात की है के मर्द उसके अन्दर पाए जाने वाले जज़्बात और एहसासात की संगीनी की तरफ़ मुतवज्जो रहे और यह ख़याल रखे के इसके जज़्बात व ख़्वाहिशात के आगे सिपरअन्दाख़्ता हो जाना पूरे समाज और मुआशरे की तबाही का बाएस हो सकता है। इसके शर होने में एक हिस्सा उसके जज़्बात व ख़्वाहिशात का है और एक हिस्सा उसके वजूद की ज़रूरत का है जिससे कोई इन्सान बेनियाज़ नहीं हो सकता है और किसी वक़्त भी इसके सामने सिपरअन्दाख़्ता हो सकता है।)))

238- जो शख़्स काहेली और सुस्ती से काम लेता है वह अपने हुक़ूक़ को भी बरबाद कर देता है और जो चुग़लख़ोर की बात मान लेता है वह दोस्तों को भी खो बैठता है।

239- घर में एक पत्भर भी ग़स्बी लगा हो तो वह उसकी बरबादी की ज़मानत है।

सय्यद रज़ी - इस कलाम को रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है के दोनों का सरचश्माए इल्म एक ही है।

240- मज़लूम का दिन (क़यामत) ज़ालिम के लिये उस दिन से सख़्ततर होता है जो ज़ालिम का मज़लूम के लिये होता है।

241- अल्लाह से डरते रहो चाहे मुख़्तसर ही क्यों न हो और अपने और उसके दरम्यान पर्दा रखो चाहे बारीक ही क्यों न हो।

242- जब जवाबात की कसरत हो जाती है तो अस्ल बात गुम हो जाती है।

243- अल्लाह का हर नेमत में एक हक़ है जो उसे अदा कर देगा अल्लाह उसकी नेमत को बढ़ा देगा और जो कोताही करेगा वह मौजूदा नेमत को भी ख़तरे में डाल देगा।

244-जब ताक़त ज़्यादा हो जाती है तो ख़्वाहिश कम हो जाती है।

(((जब फ़ितरत का यह निज़ाम है के कमज़ोर आदमी में ख़्वाहिश ज़्यादा होती है और ताक़तवर इस क़द्र ख़्वाहिशात का हामिल नहीं होता है तो सियासी दुनिया में भी इन्सान का तर्ज़े अमल वैसा ही होना चाहिये के जिस क़द्र ताक़त व क़ूवत में इज़ाफ़ा होता जाए अपने को ख़्वाहिशाते दुनिया से बे नियाज़ बनाता जाए और अपने किरदार से साबित कर दे के उसकी ज़िन्दगी निज़ामे फ़ितरत से अलग और जुदागाना नहीं है)))

245- नेमतों के ज़वाल से डरते रहो के हर बेक़ाबू होकर निकल जाने वाली चीज़ वापस नहीं आया करती है।

246- जज़्बए करम क़राबतदारी से ज़्यादा मेहरबानी का वजह होता है।

247- जो तुम्हारे बारे में अच्छा ख़याल रखता हो उसके ख़याल को सच्चा करके दिखला दो।

(((ह|य इन्सानी ज़िन्दगी का इन्तेहाई हस्सास नुक्ता है के इन्सान आम तौर से लोगों को हुस्ने ज़न में मुब्तिला कर उससे ग़लत फ़ायदा उठाने की कोशिश करता है और उसे यह ख़याल पैदा हो जाता है के जब लोग शराबख़ाने में देख कर भी यही तसव्वुर करेंगे के तबलीग़े मज़हब के लिये गए थे तो शराब ख़ाने से फ़ायदा उठा लेना चाहिये हालांके तक़ाज़ाए अक़्ल व दानिश और मुक़तज़ाए शराफ़त व इन्सानियत यह है के लोग जिस क़द्र शरीफ़ तसव्वुर करते हैं उतनी शराफ़त का इसाबात करे और उनके हुस्ने ज़न को सूए ज़न में तब्दील न होने दें)))

248- बेहतरीन अमल वह है जिस पर तुम्हें अपने नफ़्स को मजबूर करना पड़े।

(((इन्सान तमाम आमाल को नफ़्स की ख़्वाहिश के मुताबिक़ अन्जाम देगा तो एक दिन नफ़्स का ग़ुलाम होकर रह जाएगा लेहाज़ा ज़रूरत है के ऐसे अमल अन्जाम देता रहे जहां नफ़्स पर जब्र करना पड़े और उसे इसकी औक़ात से आश्ना बनाता रहे ताके उसके हौसले इस क़द्र बलन्द न हो जाएं के इन्सान को मुकम्मल तौर पर अपनी गिरफ़्त में ले ले और फिर निजात का कोई रास्ता न रह जाए।

249- मैंने परवरदिगार को इरादों के टूट जाने, नीयतों के बदल जाने और हिम्मतों के पस्त हो जाने से पहचाना है।

250- दुनिया की तल्ख़ी आख़ेरत की शीरीनी है और दुनिया की शीरीनी आख़ेरत की तल्ख़ी है।

63-आपकामकतूबेगिरामी

(कूफ़े के गवर्नर अबूमूसा अशअरी के नाम, जब यह ख़बर मिली के आप लोगों को जंगे जमल की दावत दे रहे हैं और वह रोक रहा है)

बन्दए ख़ुदा, अमीरूल मोमेनीन अली (अ0) का ख़त अब्दुल्लाह बिन क़ैस के नाम-

अम्माबाद! मुझे एक ऐसे कलाम की ख़बर मिली है जो तुम्हारे हक़ में भी हो सकता है और तुम्हारे खि़लाफ़ भी, लेहाज़ा अब मुनासिब यही है के मेरे क़ासिद के पहुंचते ही दामन समेट लो और कमर कस लो और फ़ौरन बिल से बाहर निकल आओ और अपने साथियों को भी बुला लो। (((-सूरते हाल यह थी के उम्मत ने पैग़म्बर (स0) के बताए हुए रास्ते को नज़रअन्दाज़ कर दिया और अबू बक्र के हाथ पर बैअत कर ली लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) की मुश्किल यह थी के अगर मुसलमानों में जंग व जेदाल का सिलसिला शुरू कर देते हैं तो मसीलमा कज़्ज़ाब और तलीहा जैसे बदअयान को मौक़ा मिल जाएगा और वह लोगों को गुमराह करके इस्लाम से मुनहरिफ़ कर देंगे इसलिये आपने सुकूत इख़्तेयार फ़रमाया और खि़लाफ़त के बारे में कोई बहस नहीं की लेकिन मुरतदों के हाथों इस्लाम की तबाही का मन्ज़र देख लिया तो मजबूरन बाहर निकल आए के बाला आखि़र अपने हक़ की बरबादी पर सुकूत इख़्तेयार किया जा सकता है , इस्लाम की बरबादी पर सब्र नहीं किया जा सकता है-)))

इसके बाद हक़ साबित हो जाए तो खड़े हो जाओ और कमज़ोरी दिखलाना है तो नज़रों से दूर हो जाओ, ख़ुदा की क़सम तुम जहां रहोगे घेरकर लाए जाओगे और छोड़े नहीं जाओगे यहां तक के दूध मक्खी के साथ और पिघला हुआ मुनजमिद के साथ मख़लूत हो जाए और तुम्हें इत्मीनान से बैठना नसीब न होगा और सामने से इस तरह डरोगे जिस तरह अपने पीछे से डरते हो, और यह काम इस क़द्र आसान नहीं है जैसा तुम समझ रहे हो, यह एक मुसीबत कुबरा है जिसके ऊँट पर बहरहाल सवार होना पड़ेगा और इसकी दुश्वारियों को हमवार करना पड़ेगा और इसके पहाड़ को सर करना पड़ेगा लेहाज़ा होश के नाखन लो और हालात पर क़ाबू रखो और अपना हिस्सा हासिल कर लो और अगर यह बात पसन्द नहीं है तो उधर चले जाओ जिधर न कोई आव भगत है और न छुटकारे की सूरत, और अब मुनासिब यही है के तुम्हें बेकार समझकर छोड़ दिया जाए के सोते रहो और कोई यह भी न दरयाफ़्तत करे के फ़लां शख़्स किधर चला गया, ख़ुदा की क़सम यह हक़ परस्त का वाक़ई इक़दाम है और मुझे बेदीनों के आमाल की कोई परवाह नहीं है, वस्सलाम।

64-आपकामकतूबेगिरामी(मावियाकेजवाबमें)

अम्माबाद! यक़ीनन हम और तुम इस्लाम से पहले एक साथ ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे लेकिन कल यह तफ़रिक़ा पैदा हो गया के हमने ईमान का रास्ता इख़्तेयार कर लिया और तुम काफ़िर रह गए और आज यह इख़्तेलाफ़ है के हम राहे हक़ पर क़ायम हैं और तुम फ़ित्ना में मुब्तिला हो, तुम्हारा मुसलमान भी उस वक़्त मुसलमान हुआ है जब मजबूरी पेश आ गई और सारे अशराफ़े अरब इस्लाम में दाखि़ल होकर रसूले अकरम (स0) की जमाअत में शामिल हो गए।

तुम्हारा यह कहना के मैंने तल्हा व ज़ुबैर को क़त्ल किया है और आइशा को घर से बाहर निकाल दिया है और मदीना छोड़कर कूफ़े और बसरा में क़याम किया है तो इसका तुमसे कोई ताल्लुक़ नहीं है, न तुम पर कोई ज़ुल्म हुआ है और न तुमसे माज़ेरत की कोई ज़रूरत है। और तुम्हारा यह कहना के तुम महाजेरीन व अन्सार के साथ मेरे मुक़ाबले पर आ रहे हो तो हिजरत तो उसी दिन ख़त्म हो गई जब तुम्हारा भाई गिरफ़्तार हुआ था और अगर कोई जल्दी है तो ज़रा इन्तेज़ार कर लो के मैं तुमसे ख़ुद मुलाक़ात कर लूं और यही ज़्यादा मुनासिब भी है के इस तरह परवरदिगार मुझे तुम्हें सज़ा देने के लिये भेजेगा और अगर तुम ख़ुद भी आ गए तो इसका अन्जाम वैसा ही होगा जैसा के बनी असद के शाएर ने कहा थाः “वह मौसमे गरमा की ऐसी हवाओं का सामना करने वाले हैं जो नशेबों और चट्टानों पर संगरेज़ों की बारिश कर रही हैं’ (((-माविया ने हस्बे आदत अपने इस ख़त में चन्द मसाएल उठाए थे, एक मसला यह था के हम दोनों एक ख़ानदान के हैं तो इख़्तेलाफ़ की क्या वजह है? हज़रत ने इसका जवाब यह दिया यह इख़्तेलाफ़ उसी दिन शुरू हो गया था जब हम दाएराए इस्लाम में थे और तुम कुफ्ऱ की ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। दूसरा मसला यह था के जंगे जमल की सारी ज़िम्मेदारी अमीरूल मोमेनीन (अ0) पर है ? इसका जवाब यह है के इस मसले का तुमसे कोई ताल्लुक़ नहीं है लेहाज़ा इसके उठाने की ज़रूरत नहीं है। तीसरा मसला अपने लशकर के मुहाजेरीन व अन्सार में होने का था? इसका जवाब यह दिया गया के हिजरत फ़तहे मक्का के बाद ख़त्म हो गई और फ़तहे मक्का में तेरा भाई गिरफ़्तार हो चुका है जिसके बाद तेरे साथी औलाद तलक़ा तो हो सकते हैं महाजेरीन कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं।-)))

और मेरे पास वही तलवार है जिससे तुम्हारे नाना, मामू और भाई को एक ठिकाने तक पहुंचा चुका हूँ और तुम ख़ुदा की क़सम मेरे इल्म के मुताबिक़ वह शख़्स जिसके दिल पर ग़िलाफ़ चढ़ा हुआ है और जिसकी अक़्ल कमज़ोर है और तुम्हारे हक़ में मुनासिब यह है के इस तरह कहा जाए के तुम ऐसी सीढ़ी चढ़ गए हो जहां से बदतरीन मन्ज़र ही नज़र आता है के तुमने दूसरे के गुमशुदा की जुस्तजू की है और दूसरे के जानवर को चराना चाहा है और ऐसे अम्र को तलब किया है जिसके न अहल हो और न उससे तुम्हारा कोई बुनियादी लगाव है। तुम्हारे क़ौल व फ़ेल में किस क़द्र फ़ासला पाया जाता है और तुम अपने चचा और मामूं से किस क़द्र मुशाबेह हो जिनको बदबख़्ती और बातिल की तमन्ना ने पैग़म्बर (स0) के इनकार पर आमादा किया और उसके नतीजे में अपने अपने मक़तल में मर-मरकर गिरे जैसा के तुम्हें मालूम है , न किसी मुसीबत को दिफ़ाअ कर सके और न किसी हरीम की हिफ़ाज़त कर सके, उन तलवारों की मार की बिना पर जिनसे कोई मैदाने जंग ख़ाली नहीं होता और जिनमें सुस्ती का गुज़र नहीं है।

और तुमने जो बार बार उस्मान के क़ातिलों का ज़िक्र किया है तो उसका आसान हल यह है के जिस तरह सबने बैअत की है पहले मेरी बैअत करो उसके बाद मेरे पास मुक़दमा लेकर आओ, मैं तुम्हें और ततुम्हारे मुद्दआ अलैहम को किताबे ख़ुदा के फ़ैसले पर आमादा करूंगा लेकिन इसके अलावा जो तुम्हारा मुद्दआ है वह एक धोका है जो बच्चे को दूध छुड़ाते वक़्त दिया जाता है, और सलाम हो उसके अहल पर।

65-आपका मकतूबे गिरामी (माविया ही के नाम)

अम्माबाद! अब वक़्त आ गया है के तुम काम का मुशाहेदा करने के बाद उनसे फ़ायदा उठा लो के तुमने बातिल दावा करने, झूठ और ग़लत बयानी के फ़रेब में कूद पड़ने, जो चीज़ तुम्हारी औक़ात से बलन्द है उसे इख़्तेयार करने और जो तुम्हारे लिये ममनूअ है उसको हथिया लेने में अपने इस्लाफ़ का रास्ता इख़्तेयार कर लिया है और इस तरह हक़ से फ़रार और जो चीज़ गोश्त व ख़ून से ज़्यादा तुमसे चिमटी हुई है उसका इनकार करना चाहते हो जिसे तुम्हारे कानों से सुना है और तुम्हारे सीने में भरी हुई है, तो अब हक़ के बाद खुली हुई गुमराही के अलावा क्या बाक़ी रह जाता है। और वज़ाहत के बाद धोका के अलावा क्या है? (((-इब्ने अबी अल हदीद का बयान है के माविया रोज़े ग़दीर मौजूद था जब सरकारे दो आलम (स0) ने हज़रत अली (अ0) के मौलाए कायनात होने का एलान किया था और उसने अपने कानों से सुना था और इसी तरह रोज़े तबूक भी मौजूद था जब हज़रत ने ऐलान किया था के अली (अ0) का मरतबा वही है जो हारून का मूसा के साथ है और उसे मालूम था के हुज़ूर ने अली (अ0) की सुलह को अपनी सुलह और उनकी जंग को अपनी जंग क़रार दिया है , मगर इसके बावजूद उसकी सेहत पर कोई असर नहीं हुआ के इसका रास्ता उसकी फूफी उम्मे हबील और उसके मामू ख़ालिद बिन वलीद जैसे अफ़राद का था जिनके दिल व दिमाग़ में न इस्लाम दाखि़ल हुआ था और न दाखि़ल होने का कोई इमकान था।-)))

लेहाज़ा शुबह और उसके दसीसेकारी पर मुश्तमिल होने से डरो के फ़ित्ना एक मुद्दत से अपने दामन फैलाए हुए है और उसकी तारीकी ने आंखों को अन्धा बना रखा है। मेरे पास तुम्हारा वह ख़त आया है जिसमें तरह-तरह की बेजोड़ बातें पाई जाती हैं और उनसे किसी सुलह व आश्ती को तक़वीयत नहीं मिल सकती है और इसमें वह ख़ुराफ़ात हैं जिनके ताने-बाने न इल्म से तैयार हुए हैं और न हिल्म से, इस सिलसिले में तुम्हारी मिसाल उस शख़्स की है जिसका हुसूल मुश्किल है और जिसके निशानात गुम हो गए हैं और जहां तक उक़ाब परवाज़ नहीं कर सकता है और उसकी बलन्दी सिताराए उयूक़ से टक्कर ले रही है।

हाशा वकला यह कहां मुमकिन है के तुम मेरे इक़तेदार के बाद मुसलमानों के हल व उक़द के मालिक बन जाओ या मैं तुम्हें किसी एक शख़्स पर भी हुकूमत करने का परवाना या दस्तावेज़ दे दूं लेहाज़ा अभी ग़नीमत है के अपने नफ़्स का तदारूक करो और उसके बारे में ग़ौरो फ़िक्र करो के अगर तुमने उस वक़्त तक कोताही से काम लिया जब अल्लाह के बन्दे उठ खड़े हों तो ततुम्हारे सारे रास्ते बन्द हो जाएंगे और फिर इस बात का भी मौक़ा न दिया जाएगा जो आज क़ाबिले क़ुबूल है, वस्सलाम। (((-माविया ने हज़रत से मुतालबा किया था के अगर उसे वलीअहदी का ओहदा दे दिया जाए तो वह बैअत करने के लिये तैयार है और फ़िर ख़ूने उस्मान कोई मसला न रह जाएगा। आपने बिलकुल वाज़ेह तौर पर इस मुतालबे को ठुकरा दिया है और माविया पर रौशन कर दिया है के मेरी हुकूमत में तेरे जैसे अफ़राद की कोई जगह नहीं है और तूने जिस मक़ाम का इरादा किया है वह तेरी परवाज़ से बहुत बलन्द है और वहां तक जाना तेरे इमकान में नहीं है। बेहतर यह है के अपनी औक़ात का इदराक कर ले और राहे रास्त पर आ जाए।-)))

66-आपका मकतूबे गिरामी

(अब्दुल्लाह बिन अब्बास के नाम, जिसका तज़किरा पहले भी दूसरे अलफ़ाज़ में हो चुका है)

अम्माबाद! इन्सान कभी-कभी ऐसी चीज़ को पाकर भी ख़ुश नहीं होता है जो जाने वाली नहीं थी और ऐसी चीज़ को खोकर भी रन्जीदा हो जाता है जो मिलने वाली नहीं थी लेहाज़ा ख़बरदार तुम्हारे लिये दुनिया की सबसे बड़ी नेमत किसी लज़्ज़त का हुसूल या जज़्बाए इन्तेक़ाम ही न बन जाए बल्कि बेहतरीन नेमत बातिल के मिटाने और हक़ के ज़िन्दा करने को समझो और तुम्हारा सुरूर उन आमाल से हो जिन्हें पहले भेज दिया है और तुम्हारा अफ़सोस उन काम पर हो जिसे छोड़कर चले गए हो और तमामतर फ़िक्र मौत के बाद के मरहले के बारे में होनी चाहिये।

67-आपका मकतूबे गिरामी (मक्के के गवर्नर क़ुसम बिन अलअबास के नाम)

अम्माबाद! लोगों के लिये हज के क़याम का इन्तेज़ार करो और उन्हें अल्लाह के यादगार दिनों को याद दिलाओ, सुबह व शाम उमूमी जलसे रखो, सवाल करने वालों के सवालात के जवाबात दो, जाहिल को इल्म दो और ओलमा से तज़किरा करो, लोगों तक तुम्हारा कोई तर्जुमान तुम्हारी ज़बान के अलावा न हो और तुम्हारा काई दरबान तुम्हारे चेहरे के अलावा न हो, किसी ज़रूरतमन्द को मुलाक़ात से मत रोकना के अगर पहली ही मरतबा उसे वापस कर दिया गया तो उसके बाद काम कर भी दोगे तो तुम्हारी तारीफ़ न होगी, जो अमवाल तुम्हारे पास जमा हो जाएं उन पर नज़र रखो और तुम्हारे यहां जो अयालदार और भूके प्यासे लोग हैं उन पर सर्फ़ कर दो बशर्ते के उन्हें वाक़ई मोहताजों और ज़रूरतमन्दों तक पहुंचा दो और उसके बाद जो बच जाए वह मेरे पास भेज दो ताके यहाँ के मोहताजों पर तक़सीम कर दिया जाए।

अहले मक्का से कहो के ख़बरदार मकानात का किराया न लें के परवरदिगार ने मक्के को मुक़ीम और मुसाफ़िर दोनों के लिये बराबर क़रार दिया है। (आकिफ़ मुक़ीम को कहा जाता है और यादी जो बाहर से हज करने के लिये आता है) अल्लाह हमें और तुम्हें अपपने पसन्दीदा आमाल की तौफ़ीक़ दे, वस्सलाम।

(((-खुली हुई बात है के यह अम्रे वजूबी नहीं है और सिर्फ़ इस्तेहबाबी और एहतेरामी है वरना हज़रत (अ0) ने जिस आयते करीमा से इस्तेदलाल फ़रमाया है उसका ताल्लुक़ मस्जिदुल हराम से है , सारे मक्के से नहीं है और मक्के को मस्जिदुल हरामम मिजाज़न कहा जाता है जिस तरह के आयते मेराज में जनाबे उम हानी के मकान को मस्जिदुल हराम क़रार दिया गया है वैसे यह मसला ओलमाए इस्लाम में इख़्तेलाफ़ी हैसियत रखता है और अबू हनीफ़ा ने सारे मक्के के मकानात को किराये पर देने को हराम क़रार दिया है और इसकी दलील अब्दुल्लाह बिन अम्रो बिनअल आस की रिवायत को क़रार दिया गया है जो ओलमाए शिया के नज़दीक क़तअन मोतबर नहीं है और हैरत अंगेज़ बात यह है के जो अहले मक्का अपने को हनफ़ी कहने में फ़ख़्र महसूस करते हैं वह भी अय्यामे हज के दौरान दुगना चैगना बल्कि दस गुना किराया वसूल करने ही को इस्लाम व हरमे इलाही की खि़दमत तसव्वुर करते हैं, और हज्जाजे कराम को “ज़यूफ़ल रहमान’क़रार देकर उन्हें “अर्ज़ुल रहमान”पर क़याम करने का हक़ नहीं देते हैं।-)))

68-आपका मकतूबे गिरामी (जनाबे सलमान फ़ारसी के नाम-अपने दौरे खि़लाफ़त से पहले)

अम्माबाद! इस दुनिया की मिसाल सिर्फ़ सांप जैसी है जो छूने में इन्तेहाई नर्म होता है लेकिन इसका ज़हर इन्तेहाई क़ातिल होता है, इसमें जो चीज़ अच्छी लगे उससे भी किनाराकशी करो के इसमें से साथ जाने वाला बहुत कम है, इसके हम्म व ग़म को अपने से दूर रखो के इससे जुदा होना यक़ीनी है और इसके हालात बदलते ही रहते हैं। इससे जिस वक़्त ज़्यादा इन्स महसूस करो उस वक़्त ज़्यादा होशियार रहो के इसका साथी जब भी किसी ख़ुशी की तरफ़ से मुतमईन होता है यह उसे किसी नाख़ुशगवार के हवाले कर देती है और उन्स से निकाल कर वहशत के हालात तक पहुंचा देती है, वस्सलाम।

69-आपका मकतूबे गिरामी (हारिस हमदानी के नाम)

क़ुरान की रीसमाने हिदायत से वाबस्ता रहो और उससे नसीहत हासिल करो, उसके हलाल को हलाल क़रार दो और हराम को हराम, हक़ की गुज़िश्ता बातों की तस्दीक़ करो और दुनिया के माज़ी से उसके मुस्तक़बिल के लिये इबरत हासिल करो के इसका एक हिस्सा दूसरे से मुशाबेहत रखता है और आखि़र अव्वल से मुलहक़ होने वाला है और सबका सब ज़ाएल होने वाला और जुदा हो जाने वाला है, नामे ख़ुदा को इस क़द्र अज़ीम क़रार दो के सिवाए हक़ के किसी मौक़े पर इस्तेमाल न करो, मौत और उसके बाद के हालात को बराबर याद करते रहो और उसकी आरज़ू उस वक़्त तक न करो जब तक मुस्तहकम असबाब न फ़राहम हो जाएं, हर उस काम से परहेज़ करो जिसे आदमी अपने लिये पसन्द करता हो और आम मुसलमानों के लिये नापसन्द करता हो और हर उस काम से बचते रहो जो तन्हाई में किया जा सकता हो और अलल एलान अन्जाम देने में शर्म महसूस की जाती हो और इसी तरह हर उस काम से परहेज़ करो जिसके करने वाले से पूछ लिया जाए तो या इन्कार कर दे या माज़ेरत करे, अपनी आबरू का लोगों के तीरे मलामत का निशाना न बनाओ और हर सुनी हुई बात को बयान न कर दो के यह हरकत भी झूठ होने के लिये काफ़ी है और इसी तरह लोगों की हर बात की तरदीद भी न कर दो के यह अम्र जेहालत के लिये काफ़ी है, ग़ुस्से को ज़ब्त करो, ताक़त रखने के बावजूद लोगों को माफ़ करो, ग़ज़ब में हिल्म का मुज़ाहेरा करो, इक़्तेदार पाकर दरगुज़र करना सीखो ताके अन्जामकार तुम्हारे लिये रहे अल्लाह ने जो नेमतें दी हैं उन्हें दुरूस्त रखने की कोशिश करो और उसकी किसी नेमत को बरबाद न करना बल्कि उन नेमतों के आसार तुम्हारी ज़िन्दगी में वाज़ेह तौर पर नज़र आएं।

और याद रखो के तमाम मोमेनीन में सबसे बेहतर इन्सान वह है जो अपने नफ़्स, अपने अहल व अयाल और अपने माल की तरफ़ से ख़ैरात करे के यही पहले जाने वाला ख़ैर वहां जाकर ज़ख़ीरा हो जाता है और तुम हो कुछ छोड़ कर चले जाओगे वह तुम्हारे ग़ैर के काम आएगा, ऐसे शख़्स की सोहबत इख़्तेयार न करना जिसकी राय कमज़ोर और उसके आमाल नापसन्दीदा हों के हर साथी का क़यास उसके साथी पर किया जाता है, सुकूनत के लिये बड़े शहरों का इन्तेख़ाब करो के वहां मुसलमानों का इज्तेमाअ ज़्यादा होता है और उन जगहों से परहेज़ करो जो जो ग़फ़लत, बेवफ़ाई और इताअते ख़ुदा में मददगारों की क़िल्लत के मरकज़ हों, अपनी फ़िक्र को सिर्फ़ काम की बातों में इस्तेमाल करो और ख़बरदार बाज़ारी अड़डों पर मत बैठना के यह शैतान की हाज़िरी की जगहें और फ़ितनों के मरकज़ हैं, ज़्यादा हिस्सा उन अफ़राद पर निगाह रखो जिनसे परवरदिगार ने तुम्हें बेहतर क़रार दिया है के यह भी शुक्रे ख़ुदा का एक रास्ता है, जुमे के दिन नमाज़ पढ़े बग़ैर सफ़र न करना मगर यह के राहे ख़ुदा में जा रहे हो या किसी ऐसे काम में जो तुम्हारे लिये बहाना बन जाए और तमाम काम में परवरदिगार की इताअत करते रहना के इताअते ख़ुदा दुनिया के तमाम कामों से अफ़ज़ल और बेहतर है। ((-वाज़ेह रहे के जुमे के दिन तातील कोई इस्लामी क़ानून नहीं है, सिर्फ़ मुसलमानों का एक तरीक़ा है, वरना इस्लाम ने सिर्फ़ बक़द्रे नमाज़ कारोबार बन्द करने का हुक्म दिया है और इसके बाद फ़ौरन यह हुक्म दिया है के ज़मीन में मुन्तशिर हो जाओ और रिज़्क़े ख़ुदा तलाश करो, मगर अफ़सोस के जुमे की तातील के बेहतरीन रोज़े इबादत को भी अय्याशियों और बदकारियों का दिन बना दिया गया और इन्सान सबसे ज़्यादा निकम्मा और नाकारा उसी दिन होता है, इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन-)))

अपने नफ़्स को बहाने करके इबादत की तरफ़ ले आओ और उसके साथ नर्मी बरतो, जब्र न करो और उसी की फ़ुर्सत और फ़ारिग़ुलबाली से फ़ायदा उठाओ, मगर जिन फ़राएज़ को परवरदिगार ने तुम्हारे ज़िम्मे लिख दिया है उन्हें बहरहाल अन्जाम देना है और उनका ख़याल रखना है और देखो ख़बरदार ऐसा न हो के तुम्हे इस हाल में मौत आ जाए के तुम तलबे दुनिया में परवरदिगार से भाग रहे हो, और ख़बरदार फ़ासिक़ों की सोहबत इख़्तेयार न करना के शर बालाआखि़र शर से मिल जाता है, अल्लाह की अज़मत का एतराफ़ करो और उसके महबूब बन्दों से मोहब्बत करो और ग़ुस्से से इजतेनाब करो के यह शैतान के लश्करों में सबसे अज़ीमतर लशकर है, वस्सलाम।


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