नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 251-300

251- अल्लाह ने ईमान को लाज़िम क़रार दिया है शिर्क से पाक करने के लिये, और नमाज़ को वाजिब किया है ग़ुरूर से बाज़ रखने के लिये, ज़कात को रिज़्क़ का वसीला क़रार दिया है और रोज़े को आज़माइशे इख़लास का वसीला, जेहाद को इस्लाम की इज़्ज़त के लिये रखा है और अम्रे बिलमारूफ़ को अवाम की मसलेहत के लिये, नहीं अनिल मुन्किर को बेवक़ूफ़ों को बुराइयों से रोकने के लिये वाजिब किया है और सिलए रहम अदद में इज़ाफ़ा करने के लिये, क़सास ख़ून के तहफ़्फ़ुज़ का वसीला है और हुदूद का क़याम मोहर्रमात की अहमियत के समझाने का ज़रिया, शराब ख़्वारी को अक़्ल की हिफ़ाज़त के लिये हराम क़रार दिया है और चोरी से इज्तेनाब को इफ़त की हिफ़ाज़त के लिये लाज़िम क़रार दिया है। तर्के ज़िना का लज़ूम नसब की हिफ़ाज़त के लिये और तर्के लवात की ज़रूरत नस्ल की बक़ा के लिये है, गवाहियों को इन्कार के मुक़ाबले में सबूत का ज़रिया क़रार दिया गया है और तर्के कज़्ब को सिद्क़ की शराफ़त का वसीला ठहरा दिया गया है क़यामे अम्न को ख़तरों से तहफ़्फ़ुज़ के लिये रखा गया है और इमामत को मिल्लत की तन्ज़ीम का वसीला क़रार दिया गया है और फ़िर इताअत को अज़मते इमामत की निशानी क़रार दिया गया है।

(((यह इस्लाम का आलमे इन्सानियत पर उमूमी एहसान है के उसने अपने क़वानीन के ज़रिये इन्सानी आबादी को बढ़ाने का इन्तेज़ाम किया है और फ़िर हराम ज़ादों की दर आमद को रोक दिया है। ताके आलमे इन्सानियत में शरीफ़ अफ़राद पैदा हों और यह आलम हर क़िस्म की बरबादी और तबाहकारी से महफ़ूज़ रहे, इसके बाद इसका सिन्फ़े निसवां पर ख़ुसूसी एहसान यह है के इसने औरत के अलावा जिन्सी तस्कीन के हर रास्ते को बन्द कर दिया है, खुली हुई बात है के इन्सान में जब जिन्सी हैजान पैदा होता है तो उसे औरत की ज़रूरत का एहसास पैदा होता है और किसी भी तरीक़े से ज बवह हैजानी माद्दा निकल जाता है तो किसी मिक़दार में सुकून हासिल हो जाता है और जज़्बात का तूफ़ान रूक जाता है, अहले दुनिया ने इस माद्दे के एख़राज के मुख़्तलिफ़ तरीक़े ईजाद किये हैं अपनी जिन्स का कोई मिल जाता है तो हम जिन्सी से तस्कीन हासिल कर लेते हैं और अगर कोई नहीं मिलता है तो ख़ुदकारी का अमल अन्जाम दे लेते हैं और इस तरह औरत की ज़रूरत से बेनियाज़ हो जाते हैं और यही वजह है के आज आज़ाद मुआशरों में औरत अज़ो मोअतल होकर रह गई है और हज़ार वसाएल इख़्तेयार करने के बाद भी इसके तलबगारों की फ़ेहरिस्त कम से कमतर होती जा रही है। इस्लाम ने इस ख़तरनाक सूरतेहाल से मुक़ाबला करने के लिये मुजामेअत के अलावा हर वसीलए तस्कीन को हराम कर दिया है ताके मर्द औरत के वजूद से बेनियाज़ न होने पाए और औरत का वजूद मुआशरे में ग़़ैर ज़रूरी न क़रार पा जाए। अफ़सोस के इस आज़ादी और अय्याशी की मारी हुई दुनिया में इस पाकीज़ा तसव्वुर का क़द्रदान कोई नहीं है और सब इस्लाम पर औरत की नाक़द्री का इल्ज़ाम लगाते हैं, गोया उनकी नज़र में उसे खिलौना बना लेना और खेलने के बाद फेंक देना ही सबसे बड़ी क़द्रे ज़ाती है।)))

252- किसी ज़ालिम से क़सम लेना हो तो इस तरह क़सम लो के वह परवरदिगार की ताक़त और क़ूवत से बेज़ार है अगर इसका बयान सही न हो के अगर इस तह झूठी क़सम खाएगा तो फ़ौरन मुब्तिलाए अज़ाब हो जाएगा आर अगर ख़ुदाए वहदहू लाशरीक के नाम की क़सम खाई तो अज़ाब में उजलत न होगी के बहरहाल तौहीदे परवरदिगार का इक़रार कर लिया।

253- फ़रज़न्दे आदम (अ0)! अपने माल में अपना वसी ख़ुद बन और वह काम ख़ुद अन्जाम दे जिसके बारे में उम्मीद रखता है के लोग तेरे बाद अन्जाम दे देंगे।

254- ग़ुस्सा जुनून की एक क़िस्म है के ग़ुस्सावर को बाद में शरमिंदा होना पड़ता है और शरमिंदा न हो तो वाक़ेअन उसका जुनून मुस्तहकम है।

255-बदन की सेहत का एक ज़रिया हसद की क़िल्लत भी है।

256-ऐ कुमैल! अपने घरवालों को हुक्म दो के अच्छी ख़सलतों को तलाश करने के लिये दिन में निकलें और सो जाने वालों की हाजत रवाई के लिये रात में क़याम करें। क़सम है उस ज़ात की जात हर आवाज़ की सुनने वाली है के कोई शख़्स किसी दिल में सुरूर वारिद नहीं करता है मगर यह के परवरदिगार उसके लिये उस सुरूर से एक लुत्फ़ पैदा कर देता है के इसके बाद अगर इस पर कोई मुसीबत नाज़िल होती है तो वह नशेब में बहने वाले पानी की तरह तेज़ी से बढ़े और अजनबी ऊंटों को हंकाने की तरह उस मुसीबत को हंका कर दूर कर दे।

257-जब तंगदस्त हो जाओ तो सदक़े के ज़रिये अल्लाह से व्यापार करो।

258-ग़द्दारों से वफ़ा करना अल्लाह के नज़दीक ग़द्दारी है, और ग़द्दारों के साथ ग़द्दारी करना अल्लाह के नज़दीक ऐने वफ़ा है।

259- कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेमतें देकर रफ़्ता रफ़्ता अज़ाब का मुस्तहक़ बनाया जाता है और कितने ही लोग ऐसे हैं जो अल्लाह की परदापोशी से धोका खाए हुए हैं और अपने बारे में अच्छे अलफ़ाज़ सुनकर फ़रेब में पड़ गए और मोहलत देने से ज़्यादा अल्लाह की जानिब से कोई बड़ी आज़माइश नहीं।

सय्यद रज़ी- कहते हैं के यह कलाम पहले भी गुज़र चुका है मगर यहाँ इसमें कुछ उमदा और मुफ़ीद इज़ाफ़ा है।”

फ़स्ल

इस फ़स्ल में हज़रत के उन कलेमात को नक़्ल किया गया है जो मोहताजे तफ़सीर थे और फिर उनकी तफ़सीर व तौज़ीह को भी नक़्ल किया गया है।

1-जब वह वक़्त आएगा तो दीन का यासूब अपनी जगह पर क़रार पाएगा और लोग उसके पास इस तरह जमा होंगे जिस तरह मौसमे ख़रीफ़ के क़ज़अ

सय्यद रज़ी-यासूब उस मुरदार को कहा जाता है जो तमाम काम का ज़िम्मेदार होता है और कज़अ बादलों के उन टुकड़ों का नाम है जिनमें पानी न हो।

(((यासूब शहद की मक्खियों के सरबराह को कहते हैं और “यासूबुद्दीन” (हाकिमे दीन व शरीअत) से मुराद हज़रत हुज्जत (अ0) हैं।

2- यह खतीब शहशह (सासा बिन सौहान अबदी) — शहशह उस ख़तीब को कहते हैं जो खि़ताबत में माहिर होता है और ज़बानआवरी या रफ़्तार में तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसके अलावा दूसरे मुक़ामात पर शहशह बख़ील और कन्जूस के मानी में इस्तेमाल होता है।

3- लड़ाई झगड़े के नतीजे में क़ोहम होते हैं। —क़ोहम से मुराद तबाहियाँ हैं के यह लोगों को हलाकतों में गिरा देती हैं और उसी से लफ़्ज़े “कहमतुल अराब”निकला है, जब ऐसा महत पड़ जाता है के जानवर सिर्फ़ हड्डियों का ढांचा रह जाते हैं और गोया यह उस बला में ढकेल दिये जाते हैं या दूसरे एतबार से क़हतसाली इनको सहराओं से निकालकर शहरों की तरफ़ ढकेल देती है।

4-जब लड़कियां नस्सुलहक़ाक़ (नस्स- आखि़री मन्ज़िल को कहा जाता है) तक पहुँच जाएँ तो उनके लिये दो हयाली रिश्तेदार ज़्यादा हक़ रखते हैं।

नस्सतुलरजल- यानी जहाँ तक मुमकिन था उससे सवाल कर लिया, सस्सुलहकाक़ से मुराद मन्ज़िले इदराक है जो बचपने की आखि़री हद है और यह इस सिलसिले का बेहतरीन कनाया है जिसका मक़सद यह है के जब लड़कियां हद्दे बलूग़ तक पहुंच जाएं तो दो हयाली रिश्तेदार जो महरम भी हों जैसे भाई और चचा वग़ैरह उसका रिश्ता करने के लिये माँ के मुक़ाबले में ज़्यादा हक़ (उलूवियत) रखते हैं और हक़ाक़ से माँ का इन रिश्तेदारों से झगड़ा करना और हर एक का अपने को ज़्यादा हक़दार साबित करना मुराद है जिसके लिये कहा जाता है “हाक़क़तह हकाक़न” - “जादेलतह जेदाला”।

और बाज़ लोगों का कहना है के नस्सुल हक़ाक़ कमाले अक़्ल है जब लड़की इदराक की उस मन्ज़िल पर होती है जहां उसके ज़िम्मे फ़राएज़ व एहकाम साबित हो जाते हैं और जिन लोगों ने नस्सुल हक़ाएक़ नक़्ल किया है। इनके यहाँ हक़ाएक़ हक़ीक़त की जमा है यह सारी बातें अबू उबैदुल कासिम बिन सलाम ने बयान की हैं लेकिन मेरे नज़दीक औरत का क़ाबिले शादी और क़ाबिले तसर्रूफ़ हो जाना मुराद है के हक़ाएक़ हिक़्क़ा की जमा है और हिक़्क़ा वह ऊँटनी है जो चैथे साल में दाखि़ल हो जाए और उस वक़्त सवारी के क़ाबिल हो जाती है और हक़ाएक भी हिक़्क़ा ही के जमा के तौर पर इस्तेमाल होता है और यह मफ़हूम अरब के असलूबे कमाल से ज़्यादा हम आहंग है।

5- ईमान एक लुम्ज़ा की शक्ल में ज़ाहिर होता है और फिर ईमान के साथ यह लुम्ज़ा भी बढ़ता रहता है। (लुम्ज़ा सफ़ेद नुक़्ता होता है जो घोड़े के होंट पर ज़ाहिर होता है)

6- जब किसी शख़्स को देने ज़नून मिल जाए तो जितने साल गुज़र गए हों उनकी ज़कात वाजिब है।

ज़नून उस क़र्ज़ का नाम है जिसके कर्ज़दार को यह न मालूम हो के वह वसूल भी हो सकेगा या नहीं और इस तरह तरह-तरह के ख़यालात पैदा होते रहते हैं और इसी बुनियाद पर हर ऐसे अम्र को ज़नून कहा जाता है जैसा के अश्या ने कहा हैः “वह जुद ((जुद- सहरा के पुराने कनवीं को कहा जाता है और ज़नून उसको कहा जाता है जिसके बारे में यह न मालूम हो के इसमें पानी है या नहीं)) ज़नून है जो गरज कर बरसने वाले अब्र की बारिश से भी महरूम हो, उसे दरियाए फ़ुरात के मानिन्द नहीं क़रार दिया जा सकता है जबके वह ठाठें मार रहा हो और किश्ती और तैराक दोनों को ढकेल कर बाहर फेंक रहा हो”

7- आपने एक लशकर को मैदाने जंग में भेजते हुए फ़रमाया- जहां तक मुमकिन हो औरतों से आज़ब रहो ((यानी उनकी याद से दूर रहो)), उनमें दिल मत लगाओ और उनसे मुक़ारेबत मत करो के यह तरीक़ए कार बाज़ुए हमीयत में कमज़ोरी और अज़्म की पुख़्तगी में सुस्ती पैदा कर देता है और दुश्मन के मुक़ाबले में कमज़ोर बना देता है और जंग में कोशिशे वुसई से रूगर्दां कर देता है और जो उन तमाम चीज़ों से अलग रहता है उसे आज़ब कहा जाता है, आज़ब या उज़ू़ब खाने पीने से दूर रहने वाले को भी कहा जाता है।))

8-वह उस यासिर फ़ालिज के मानिन्द है जो जुए के तीरों का पांसा फेंककर पहले ही मरहले पर कामयाबी की उम्मीद लगा लेता है —

“यासिरून”वह लोग हैं जो नहर की हुई ऊंटनी पर जुए के तीरों का पांसा फेंकते हैं और फ़ालिज उनमें कामयाब हो जाने वाले को कहा जाता है। “फ़लज अलैहिम”या “फलजहुम”उस मौक़े पर इस्तेमाल होता है जब कोई ग़ालिब आ जाता है जैसा के रिज्ज़ ख़्वाँ शाएर ने कहा हैः “जब मैंने किसी फ़ालिज को देखा के वह कामयाब हो गया”

9- “जब अहमरअरबास होता था (दुश्मन का ख़तरा बढ़ जाता था) तो लोग रसूले अकरम की पनाह में रहा करते थे और कोई शख़्स भी आपसे ज़्यादा दुश्मन से क़रीब नहीं होता था।”

(((पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का कमाले एहतेराम है के हज़रत अली (अ0) जैसे अश्जअ अरब ने आपके बारे में यह बयान दिया है और आपकी अज़मत व हैबत व शुजाअत का एलान किया है , दूसरा कोई होता तो उसके बरअक्स बयान करता के मैदाने जंग में सरकार हमारी पनाह में रहा करते थे और हम न होते तो आपका ख़ात्मा हो जाता लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) जैसा साहबे किरदार इस अन्दाज़ का बयान नहीं दे सकता है और न यह सोच सकता है। आपकी नज़र में इन्सान कितना ही बलन्द किरदार और साहेबे ताक़त व हिम्मत क्यों न हो जाए , सरकारे दो आलम (अ0) का उम्मती ही शुमार होगा और उम्मती का मर्तबा पैग़म्बर (स0) से बलन्दतर नहीं हो सकता))) इसका मतलब यह है के जब दुश्मन का ख़तरा बढ़ जाता था और जंग की काट शदीद हो जाती थी तो मुसलमान मैदान में रसूले अकरम (स0) की पनाह तलाश किया करते थे और आप पर नुसरते इलाही का नुज़ूल हो जाता था और मुसलमानों को अम्न व अमान हासिल हो जाता था। अहमरअरबास दर हक़ीक़त सख़्ती का केनाया है जिसके बारे में मुख़्तलिफ़ अक़वाल पाए जाते हैं और सबसे बेहतर क़ौल यह है के जंग की तेज़ी और गर्मी को आगणन के तश्बीह दी गई है जिसमें गर्मी और सुखऱ्ी दोनों होती हैं और इसका मवीद सरकारे दो आलम (स0) का यह इरशाद है के आपने हुनैन के दिन क़बीलए बनी हवाज़न की जंग में लोगों को जंग करते देखा तो फ़रमाया के अब वतीस गर्म हो गया है यानी आपने मैदाने कारज़ार की गर्म बाज़ारी को आग के भड़कने और उसके शोले से तश्बीह दी है के वतीस उस जगह को कहते हैं जहाँ आग भड़काई जाती है।

260- जब आपको इत्तेला दी गई के माविया के असहाब ने अम्बार पर हमला कर दिया है तो आप ब-नफ़्से नफ़ीस निकल कर नख़ीला तक तशरीफ़ ले गए और कुछ लोग भी आपके साथ पहुंच गए और कहने लगे के आप तशरीफ़ रखें। हम लोग उन दुश्मनों के लिये काफ़ी हैं तो आपने फ़रमाया के तुम लोग अपने लिये काफ़ी नहीं हो दुश्मन के लिये क्या काफ़ी हो सकते हो? तुमसे पहले जनता हुक्काम के ज़ुल्म से फ़रियादी थी और आज मैं जनता के ज़ुल्म से फ़रयाद कर रहा हूँ, जैसे के यही लोग क़ाएद हैं और मैं जनता हूँ। मैं हलक़ाबगोश हूँ और यह फ़रमान रवा।

जिस वक़्त आपने यह कलाम इरशाद फ़रमाया जिसका एक हिस्सा ख़ुतबे के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है तो आपके असहाब में से दो अफ़राद आगे बढ़े जिनमें से एक ने कहा के मैं अपना और अपने भाई का ज़िम्मेदार हूँ। आप हुक्म दें हम तामील के लिये तैयार हैं, आपने फ़रमाया के मैं जो कुछ चाहता हूँ तुम्हारा उससे क्या ताल्लुक़ है।

261-कहा जाता है के हारिस बिन जोत ने आपके पास आकर यह कहा के क्या आपका यह ख़्याल है के मैं असहाबे जमल को गुमराह मान लूँगा ? तो आपने फ़रमाया के हारिस! तुमने अपने नीचे की तरफ़ देखा है इसलिये हैरान हो गए हो, तुम हक़ ही को नहीं पहचानते हो तो क्या जानो के हक़दार कौन है और बातिल ही को नहीं जानते हो तो क्या जानो के बातिल परस्त कौन है? हारिस ने कहा के मैं सईद बिन मालिक और अब्दुल्लाह बिन उमर के साथ गोशानशीन हो जाऊंगा तो आपने फ़रमाया के सईद और अब्दुल्लाह बिन उमर ने हक़ की मदद की है और न बातिल को नज़रअन्दाज़ किया है (न इधर के हुए न उधर के हुए)

(((यह बात उस शख़्स से कही जाती है जिसकी निगाह इन्तेहाई महदूद होती है और अपने ज़ेरे क़दम चीज़ो से ज़्यादा देखने की सलाहियत नहीं रखता है वरना इन्सान की निगाह बलन्द हो जाए तो बहुत से हक़ाएक़ का इदराक कर सकती है, हारिस का सबसे बड़ा ऐब यह है के उसने सिर्फ़ उम्मुल मोमेनीन की ज़ौजियत पर निगाह की है और तलहा व ज़ुबैर की सहाबियत पर, और ऐसी महदूद निगाह रखने वाला इन्सान हक़ाएक़ का इदराक नहीं कर सकता है। हक़ाएक़ का मेयार क़ुरान व सुन्नत है जिसमें ज़ौजा को घर में बैठने की तलक़ीन की गई है और इन्सान को बैअत शिकनी से मना किया गया है। हक़ाएक़ का मेयार किसी की ज़ौजियत या सहाबियत नहीं है, वरना ज़ौजाए नूह (अ0) और ज़ौजाए लूत (अ0) को क़ाबिले मज़म्मत न क़रार दिया जाता और असहाबे मूसा की सरीही मज़म्मत न की जाती। ”)))

262- बादशाह का साथ बैठने वाला शेर का सवार होता है के लोग उसके हालात पर रश्क करते हैं और वह ख़ुद अपनी हालत को बेहतर पहचानता है।

(((हक़ीक़ते अम्र यह है के मसाहेबत की ज़िन्दगी देखने में इन्तेहाई हसीन दिखाई देती है के सारा अम्र व नहीं का निज़ाम बज़ाहिर मसाहेब के हाथ में होता है लेकिन उसकी वाक़ई हैसियत क्या होती है यह उसी का दिल जानता है के न साहेबे इक़्तेदार के मिज़ाज का कोई भरोसा होता है और न मसाहेबत के ओहदए इक़्तेदार का। रब्बे करीम हर इन्सान को ऐसी बलाओं से महफ़ूज़ रखे जिनका ज़ाहिर इन्तेहाई हसीन होता है और वाक़ेई इन्तेहाई संगीन और ख़तरनाक।)))

263- दूसरों के पसमान्दगान से अच्छा बरताव करूं ताके लोग तुम्हारे पसमान्दगान के साथ भी अच्छा बरताव करें।

264- होकमा का कलाम दुरूस्त होता है तो दवा बन जाता है और ग़लत होता है तो बीमारी बन जाता है।

265- एक शख़्स ने आपसे मुतालबा किया के ईमान की तारीफ़ फ़रमाएं, तो फ़रमाया के कल आना तो मैं मजमए आम में बयान करूंगा ताके तुम भूल जाओ तो दूसरे लोग महफ़ूज़ रख सकें इसलिये के कलाम भड़के हुए शिकार के मानिन्द होता है के एक पकड़ लेता है और एक के हाथ से निकल जाता है

(मुफ़स्सल जवाब इससे पहले ईमान के शोबों के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है।)

266-फ़रज़न्दे आदम! उस दिन का ग़म जो अभी नहीं आया है उस दिन पर मत डालो जो आ चुका है के अगर वह तुम्हारी उम्र में शामिल होगा तो उसका रिज़्क़ भी उसके साथ ही आएगा।

267- अपने दोस्त से एक महदूद हद तक दोस्ती करो, कहीं ऐसा न हो के एक दिन दुश्मन हो जाए और दुश्मन से भी एक हद तक दुश्मनी करो शायद एक दिन दोस्त बन जाए (तो शर्मिन्दगी न हो)।

(((यह एक इन्तेहाई अज़ीम मुआशेरती नुक्ता है जिसका अन्दाज़ा हर उस इन्सान को है जिसने मुआशरे में आंख खोल कर ज़िन्दगी गुज़ारी है और अन्धों जैसी ज़िन्दगी नहीं गुज़ारी है। इस दुनिया के सर्द व गर्म का तक़ाज़ा यही है के यहाँ अफ़राद से मिलना भी पड़ता है और कभी अलग भी होना पड़ता है लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्लमन्दी यही है के ज़िन्दगी में ऐसा एतदाल रखे के अगर अलग होना पड़े तो सारे इसरार दूसरे के क़ब्ज़े में न हों के उसका ग़ुलाम बन कर रह जाए और अगर मिलना पड़े तो ऐसे हालात न हों के शर्मिन्दगी के अलावा और कुछ हाथ न आए।)))

268- दुनिया में दो तरह के अमल करने वाले पाए जाते हैं, एक वह है जो दुनिया ही के लिये काम करता है और उसे दुनिया ने आख़ेरत से ग़ाफ़िल बना दिया है। वह अपने बाद वालों के फ़क़्र से ख़ौफ़ज़दा रहता है और अपने बारे में बिल्कुल मुतमईन रहता है, नतीजा यह होता है के सारी ज़िन्दगी दूसरों के फ़ायदे के लिये फ़ना कर देता है और एक शख़्स वह होता है जो दुनिया में उसके बाद के लिये अमल करता है और उसे दुनिया बग़ैर अमल के मिल जाती है। वह दुनिया व आख़ेरत दोनों को पा लेता है और दोनों घरों का मालिक हो जाता है। ख़ुदा की बारगाह में सुरख़ुरू हो जाता है और किसी भी हाजत का सवाल करता है तो परवरदिगार उसे पूरा कर देता है।

(((दौरे क़दीम में इसका नाम दूर अन्देशी रखा जाता था जहां इन्सान सुबह व शाम मेहनत करने के बावजूद न माल अपनी दुनिया पर सर्फ़ करता था और न आख़ेरत पर। बल्कि अपने वारिसों के लिये ज़ख़ीरा बनाकर चला जाता था, इस ग़रीब को यह एहसास भी नहीं था के जब उसे ख़ुद अपनी आक़ेबत बनाने की फ़िक्र नहीं है तो वोरसा को उसकी आक़ेबत से क्या दिलचस्पी हो सकती है, वह तो एक माले ग़नीमत के मालिक हो गए हैं और जिस तरह चाहेंगे उसी तरह सर्फ़ करेंगे।)))

269- रिवायत में वारिद हुआ है के उमर बिन ख़त्ताब के दौरे हुकूमत में उससे ख़ानाए काबा के ज़ेवरात की कसरत का ज़िक्र किया गया और एक क़ौम ने यह तक़ाज़ा किया के अगर आप उन ज़ेवरात को मुसलमानों के लशकर पर सर्फ़ कर दे तो बहुत बड़ा अज्र व सवाब मिलेगा, काबे को उन ज़ेवरात की क्या ज़रूरत है? तो उन्होंने इस राय को पसन्द करते हुए हज़रत अमीर (अ0) से दरयाफ़्त कर लिया। आपने फ़रमाया के यह क़ुरान पैग़म्बरे इस्लाम पर नाज़िल हुआ है और आपके दौर में अमवाल की चार क़िस्में थीं। एक मुसलमान का ज़ाती माल था जिसे हस्बे फ़राएज़ वोरसा में तक़सीम कर दिया करते थे। एक बैतुलमाल का माल था जिसे मुस्तहक़ीन में तक़सीम करते थे। एक ख़ुम्स था जिसे उसके हक़दारों के हवाले कर देते थे और कुछ सदक़ात थे जिन्हें उनके महल पर सर्फ़ किया करते थे। काबे के ज़ेवरात उस वक़्त भी मौजूद थे और परवरदिगार ने उन्हें इसी हालत में छोड़ रखा था न रसूले अकरम (स0) उन्हें भूले थे और न उनका वजूद आपसे पोशीदा था , लेहाज़ा आप उन्हें इसी हालत पर रहने दें जिस हालत पर ख़ुदा और रसूल ने रखा है, यह सुनना था के उमर ने कहा आज अगर आप न होते तो मैं रूसवा हो गया होता और यह कहकर ज़ेवरात को उनकी जगह छोड़ दिया।

270-कहा जाता है के आपके सामने दो आदमियों को पेश किया गया जिन्होंने बैतुलमाल से माल चुराया था। एक उनमें से ग़ुलाम और बैतुलमाल की मिल्कियत था और दूसरा लोगों में से किसी की मिल्कियत था। आपने फ़रमाया के जो बैतुलमाल की मिल्कियत है उस पर कोई हद नहीं है के माले ख़ुदा के एक हिस्से ने दूसरे हिस्से को खा लिया है लेकिन दूसरे पर शदीद हद जारी की जाएगी जिसके बाद उसके हाथ काट दिये गए।

271-अगर इन फिसलने वाली जगहों पर मेरे क़दम जम गए तो मैं बहुत सी चीज़ों को बदल दूंगा

(जिन्हें पहले वाले ख़ोलफ़ा ने ईजाद किया है और जिनका सुन्नते पैग़म्बर (स0) से कोई ताल्लुक़ नहीं है।)

272- यह बात यक़ीन के साथ जान लो के परवरदिगार ने किसी बन्दे के लिये इससे ज़्यादा नहीं क़रार दिया है जितना किताबे हकीम में बयान कर दिया गया है चाहे उसकी तदबीर कितनी ही अज़ीम, उसकी जुस्तजु कितनी ही शदीद और उसकी तरकीबें कितनी ही ताक़तवर क्यों न हों और इसी तरह वह बन्दे तक उसका मक़सूम पहुंचने की राह में कभी हाएल नहीं होता है चाहे वह कितना ही कमज़ोर और बेचारा क्यों न हो। जो इस हक़ीक़त को जानता है और उसके मुताबिक़ अमल करता है वही सबसे ज़्यादा राहत और फ़ायदे में रहता है और जो इस हक़ीक़त को नज़रअन्दाज़ कर देता है और इसमें शक करता है वही सबसे ज़्यादा नुक़सान में मुब्तिला होता है, कितने ही अफ़राद हैं जिन्हें नेमतें दी जाती हैं और उन्हीं के ज़रिये अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और कितने ही अफ़राद हैं जो मुब्तिलाए मुसलबत होते हैं लेकिन यही इब्तिला उनके हक़ में बाएसे बरकत बन जाता है। लेहाज़ा ऐ फ़ायदे के तलबगारों! शुक्र में इज़ाफ़ा करो और अपनी जल्दी कम कर दो और अपने रिज़्क़ की हदों पर ठहर जाओ।

(((यह सूरतेहाल बज़ाहिर ख़ानए काबा के साथ मख़सूस नहीं है बल्कि तमाम मुक़द्दस मुक़ामात का यही हाल है के उनके ज़ीनत व आराइश के असबाब अगर ज़रूरी है, लेकिन अगर उनकी कोई अफ़ादियत नहीं है तो उनके बारे में ज़िम्मेदार इन शरीअत से रूजू करके सही मसरफ़ में लगा देना चाहिये। बक़ौल शख़्से बिजली के दौर में मोमबत्ती और ख़ुशबू के दौर में अगरबत्ती के तहफ़्फ़ुज़ की कोई ज़रूरत नहीं है, यही पैसा इसी मुक़द्दस मक़ाम के दीगर ज़ुरूरियात पर सर्फ़ किया जा सकता है।)))

273- ख़बरदार अपने इल्म को जेहल न बनाओ और अपने यक़ीन को शक न क़रार दो। जब जान लो तो अमल करो और जब यक़ीन हो जाए तो क़दम आगे बढ़ाओ। (((इमाम अलैहिस्सलाम की नज़र में इल्म और यक़ीन के एक मख़सूस मानी हैं जिनका इज़हार इन्सान के किरदार से होता है। आपकी निगाह में इल्म सिर्फ़ जानने का नाम नहीं है और न यक़ीन सिर्फ़ इत्मीनाने क़ल्ब का नाम है बल्कि दोनों के वजूद का एक फ़ितरी तक़ाज़ा है जिससे उनकी वाक़ईयत और असालत का अन्दाज़ा होता है के इन्सान वाक़ेअन साहेबे इल्म है तो बाअमल भी होगा और वाक़ेअन साहेबे यक़ीन है तो क़दम भी आगे बढ़ाएगा। ऐसा न हो तो इल्म जेहल कहे जाने के क़ाबिल है और यक़ीन शक से बालातर कोई शै नहीं है।)))

274- लालच जहां वारिद कर देती है वहां से निकलने नहीं देती है और यह एक ऐसी ज़मानतदार है जो वफ़ादार नहीं है के कभी कभी तो पानी पीने वाले को सेराबी से पहले ही उच्छू लग जाता है और जिस क़द्र किसी मरग़ूब की क़द्र व मन्ज़िलत ज़्यादा होती है उसके खो जाने का रन्ज ज़्यादा होता है। आरज़ूएं दीदाए बसीरत को अन्धा बना देती हैं और जो कुछ नसीब में होता है वह बग़ैर कोशिश के भी मिल जाता है। (((लालच इन्सान को हज़ारों चीज़ों का यक़ीन दिला देती है और उससे वादा भी कर लेती है लेकिन वक़्त पर वफ़ा नहीं करती है और बसावक़ात ऐसा होता है के सेराब होने से पहले ही उच्छू लग जाता है और सेराब होने की नौबत ही नहीं आती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्ल व मवानिश यही है के इन्सान लालच से इज्तेनाब करे और बक़द्रे ज़रूरत पर इक्तिफ़ा करे जो बहरहाल उसे हासिल होने वाला है।)))

275- ख़ुदाया मैं इस बात से पनाह चाहता हूँ के लोगों की ज़ाहेरी निगाह में मेरा ज़ाहिर हसीन हो और जो बातिन तेरे लिये छिपाए हुए हूँ वह क़बीह हो, मैं लोगों के दिखावे के लिये उन चीज़ों की निगेहदाश्त करूं जिन पर तू इत्तेलाअ रखता है। के लोगों पर हुस्ने ज़ाहिर का मुज़ाहेरा करूं और तेरी बारगाह में बदतरीन अमल के साथ हाज़ेरी दूँ। तेरे बन्दों से क़ुरबत इख़्तेयार करूं और तेरी मर्ज़ी से दूर हो जाऊं। (((आम तौर से लोगों का हाल यह होता है के अवामुन्नास के सामने आने के लिये अपने ज़ाहिर को पाक व पाकीज़ा और हसीन व जीमल बना लेते हैं और यह ख़याल ही नहीं रह जाता है के एक दिन उसका भी सामना करना है जो ज़ाहिर को नहीं देखता है बल्कि बातिन पर निगाह रखता है और इसरार का भी हिसाब करने वाला है। मौलाए कायनात (अ0) ने आलमे इन्सानियत को इसी कमज़ोरी की तरफ़ मुतवज्जो करने के लिये इस दुआ का लहला इख़्तेयार किया है जहां दूसरों पर बराहे रास्त तन्क़ीद भी न हो और अपना पैग़ाम भी तमाम अफ़राद तक पहुंच जाए। शायद इन्सानों को यह एहसास पैदा हो जाए के अवामुन्नास का सामना करने से ज़्यादा अहमियत मालिक के सामने जाने की है और इसके लिये बातिन का पाक व साफ़ रखना बेहद ज़रूरी है।)))

276- उस ज़ात की क़सम जिसकी बदौलत हम शबे तारीक के उस बाक़ी हिस्से को गुज़ार दिया है जिसके छंटते ही एक चमकता हुआ दिन ज़ाहिर होगा ऐसा और ऐसा नहीं हुआ है।

277- थोड़ा अमल जिसे पाबन्दी से अन्जाम दिया जाए उस कसीर अमल से बेहतर है जिससे आदमी उकता जाए।

278- जब नवाफ़िल फ़राएज़ को नुक़सान पहुंचाने लगें तो उन्हें छोड़ दो।

((( तक़द्दुस मआब हज़रात के लिये यह बेहतरीन नुसख़ए हिदायत है जो इज्तेमाअ और अवामी फ़राएज़ से ग़ाफ़िल होकर मुस्तहबात पर जान दिये पड़े रहते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास नहीं करते हैं और इसी तरह ये उन साहेबाने ईमान के लिये सामाने तम्बीह है जो मुस्तहबात पर इतना वक़्त और सरमाया सर्फ़ कर देते हैं के वाजेबात के लिये न वक़्त बचता है और न सरमाया। जबके क़ानूनी एतबार से ऐसे मुस्तहबात की कोई हैसियत नहीं है जिनसे वाजेबात मुतास्सिर हो जाएं और इन्सान फ़राएज़ की अदाएगी में कोताही का शिकार हो जाए।))))

279-जो दौरे सफ़र को याद रखता है वह तैयारी भी करता है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

280- आंखों का देखना हक़ीक़त में देखना शुमार नहीं होता है के कभी कभी आंखें अपने अश्ख़ास को धोका दे देती हैं लेकिन अक़्ल नसीहत हासिल करने वाले को फ़रेब नहीं देती है।

(((इन्सानी इल्म के तीन वसाएल हैं एक उसका ज़ाहेरी एहसास व इदराक है और एक उसकी अक़्ल है जिस पर तमाम ओक़लाए बशर का इत्तेफ़ाक़ है और तीसरा रास्ता वहीए इलाही है जिस पर साहेबाने ईमान का ईमान है और बेईमान उस वसीले इदराक से महरूम हैं। इन तीनों में अगरचे वही के बारे में ख़ता का कोई इमकान नहीं है और इस एतबार से इसका मरतबा सबसे अफ़ज़ल है लेकिन ख़ुद ववही का इदराक भी अक़्ल के बग़ैर मुमकिन नहीं है और इसस एतबार से अक़्ल का मरतबा एक बुनियादी हैसियत रखता है और यही वजह है के कुतुब अहादीस में किताबुल अक़्ल को सबसे पहले क़रार दिया गया है और इस तरह उसकी बुनियादे हैसियत का ऐलान किया गया है।)))

281- तुम्हारे और नसीहत के दरम्यान ग़फ़लत का एक परदा हाएल रहता है।

282-तुम्हारे जाहिलों को दौलते फ़रावां दे दी जाती है और आलिम को सिर्फ़ मुस्तक़बिल की उम्मीद दिलाई जाती है।

283- इल्म हमेशा बहाना बाज़ों के बहानो को ख़त्म कर देता है।

(((अगर इन्सान वाक़ेअन आलिम है तो इल्म का तक़ाज़ा यह है के उसके मुताबिक़ अमल करे और किसी तरह की बहानाबाज़ी से काम न ले जिस तरह के दरबारी और सियासी ओलमा दीदा व दानिस्ता हक़ाएक़ से इन्हेराफ़ करते हैं और दुनियावी मफ़ादात की ख़ातिर अपने इल्म का ज़बीहा कर देते हैं, ऐसे लोग क़ातिल और रहज़न कहे जाने के क़ाबिल हैं, आलिम और फ़ाज़िल कहे जाने के लाएक़ नहीं है।)))

284- जिसकी मौत जल्दी आ जाती है वह मोहलत का मुतालबा करता है और जिसे मोहलत मिल जाती है वह टाल-मटोल करता है।

285- जब भी लोग किसी चीज़ पर वाह-वाह करते हैं तो ज़माना उसके वास्ते एक बुरा दिन छुपाकर रखता है।

286- आपसे क़ज़ा व क़द्र के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के यह एक तारीक रास्ता है इस पर मत चलो और एक गहरा समन्दर है इसमें दाखि़ल होने की कोशिश न करो और एक राज़े इलाही है लेहाज़ा इसे मालूम करने की ज़हमत न करो।

(((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस्लाम किसी भी मौज़ू के बारे में जेहालत का तरफ़दार है और न जानने ही को अफ़ज़लीयत अता करता है, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है के अकसर लोग उन हक़ाएक़ के मुतहम्मल नहीं होते हैं लेहाज़ा इन्सान को उन्हीं चीज़ों का इल्म हासिल करना चाहिये जो उसके लिये क़ाबिले तहम्मुल व बर्दाश्त हो इसके बाद अगर हुदूदे तहम्मुल से बाहर हो तो पड़ लिख कर बहक जाने से नावाक़िफ़ रहना ही बेहतर है।)))

287-जब परवरदिगार किसी बन्दे को ज़लील करना चाहता है तो उसे इल्म व दानिश से महरूम कर देता है।

288- गुज़िश्ता ज़माने में मेरा एक भाई था, जिसकी अज़मत मेरी निगाहों में इसलिये थी के दुनियां उसकी निगाहों में हक़ीर थी और उस पर पेट की हुकूमत नहीं थी। जो चीज़ नहीं मिलती थी उसकी ख़्वाहिश नहीं करता था और जो मिल जाती थी उसे ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करता था। अकसर औक़ात ख़ामोश रहा करता था और अगर बोलता था तो तमाम बोलने वालों को चुप कर देता था। साएलों की प्यास को बुझा देता था और बज़ाहिर आजिज़ और कमज़ोर था लेकिन जब जेहाद का मौक़ा आ जाता था तो एक शेर बेशाए शुजाअत और अश्दरवादी हो जाया करता था। कोई दलील नहीं पेश करता था जब तक फै़सलाकुन न हो और जिस बात में बहाने की गुन्जाइश होती थी उस पर किसी की मलामत नहीं करता था जब तक उज्ऱ सुन न ले। किसी दर्द की शिकायत नहीं करता था जब तक इससे सेहत न हासिल हो जाए। जो करता था वही कहता था और जो नहीं कर सकता था वह कहता भी नहीं था। अगर बोलने में उस पर ग़लबा हासिल भी कर लिया जाए तो सुकूत में कोई उस पर ग़ालिब नहीं आ सकता था। वह बोलने से ज़्यादा सुने का ख़्वाहिशमन्द रहता था। जब उसके सामने दो तरह की चीज़ें आती थीं और एक ख़्वाहिश से क़रीबतर होती थी तो उसी की मुख़ालेफ़त करता था। लेहाज़ा तुम सब भी इन्हीं अख़लाक़ को इख़्तेयार करो और उन्हीं की फ़िक्र करो और अगर नहीं कर सकते हो तो याद रखो के क़लील का इख़्तेयार कर लेना कसीर के तर्क कर देने से बहरहाल बेहतर होता है।

(((बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह वाक़ेअन किसी शख़्सियत की तरफ़ इशारा है जिसके हालात व कैफ़ियात का अन्दाज़ा नहीं हो सका है और बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह एक आईडियल और मिसालिया की निशानदेही है के साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल होना चाहिये और अगर ऐसा नहीं है तो इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करना चाहिये ताके इसका शुमार वाक़ेअन साहेबाने ईमान व किरदार में हो जाए।)))

289-अगर ख़ुदा नाफ़रमानी पर अज़ाब की वईद न भी करता जब भी ज़रूरत थी के शुक्रे नेमत की बुनियाद पर उसकी नाफ़रमानी न की जाए।

(((ज़रूरत नहीं है के इन्सान सिर्फ़ अज़ाब के ख़ौफ़ से मोहर्रमात से परहेज़ करे बल्कि तक़ाज़ाए शराफ़त यह है के नेमते परवरदिगार का एहसास पैदा करके उसकी दी हुई नेमतों को हराम में सर्फ़ करने से इज्तेनाब करे)))

290-अश्अस बिन क़ैस को उसके फ़रज़न्द का पुरसा देते हुए फ़रमाया - अश्अस! अगर तुम अपने फ़रज़न्द के ग़म में महज़ून हो तो यह उसकी क़राबत का हक़ है। लेकिन अगर सब्र कर लो तो अल्लाह के यहाँ हर मुसीबत का एक अज्र है।

अश्अस! अगर तुमने सब्र कर लिया तो क़ज़ा व क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम अज्र के हक़दार होगे और अगर तुमने फ़रयाद की तो क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम पर गुनाह का बोझ होगा।

अश्अस! तुम्हारे लिये बेटा मसर्रत का सबब था जबके वह एक आज़माइश और इम्तेहान था और हुज़्न का बाएस हो गया जबके इसमें सवाब और रहमत है।

(((यह इस बात की अलामत है के बेटे के मिलने पर मसर्रत भी एक फ़ितरी अम्र है और इसके चले जाने पर हुज़्न व अलम भी एक फ़ितरी तक़ाज़ा है लेकिन इन्सान की अक़्ल का तक़ाज़ा यह है के मसर्रत में इम्तेहान को नज़रअन्दाज़ न करे और ग़म के माहौल में अज्र व सवाब से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))

291- पैग़म्बरे इस्लाम (स0) के दफ़्न के वक़्त क़ब्र के पास खड़े होकर फ़रमाया- सब्र आम तौर से बेहतरीन चीज़ है मगर आपकी मुसीबत के अलावा , और परेशानी व बेक़रारी बुरी चीज़ है लेकिन आपकी वफ़ात के अलावा, आपकी मुसीबत बड़ी अज़ीम है और आपसे पहले और आपके बाद हर मुसीबत आसान है।

(((इसका मतलब यह नही के सब्र या जज़्अ व फ़ज़्अ की दो क़िस्में हैं और वह कभी जमील होता है और कभी ग़ैरे जीमल, बल्कि ये मुसीबत पैग़म्बरे इस्लाम (स0) की अज़मत की तरफ़ इशारा है के इस मौक़े पर सब्र का इमकान ही नहीं है जिस तरह दूसरे मसाएब में जज़्अ व फ़ज़्अ का कोई जवाज़ नहीं है और इन्सान को उसे बरदाश्त ही कर लेना चाहिए।)))

292- बेवक़ूफ़ की सोहबत मत इख़्तेयार करना के वह अपने अमल को ख़ूबसूरत बनाकर पेश करेगा और तुमसे भी वैसे ही अमल का तक़ाज़ा करेगा।

293- आपसे मशरिक़ व मग़रिब के फ़ासले के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के आफ़ताब का एक दिन का रास्ता।

294- तुम्हारे दोस्त भी तीन तरह के हैं और दुश्मन भी तीन क़िस्म के हैं। दोस्तों की क़िस्में यह हैं के तुम्हारा दोस्त, तुम्हारे दोस्त का दोस्त और तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन और इसी तरह दुश्मनों की किस्में यह हैं- तुम्हारा दुश्मन, तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त।

(((यह उस मौक़े के लिये कहा गया है के दोनों की दोस्ती की बुनियाद एक हो वरना अगर एक शख़्स एक बुनियाद पर दोस्ती करता है और दूसरा दूसरी बुनियाद पर मोहब्बत करता है तो दोस्त का दोस्त हरगिज़ दोस्त शुमार नहीं किया जा सकता है जिस तरह के दुश्मन के दुश्मन के लिये भी ज़रूरी है के दुश्मनी की बुनियाद वही हो जिस बुनियाद पर यह शख़्स दुश्मनी करता है वरना अपने अपने मफ़ादात के लिये काम करने वाले कभी एक रिश्तए मोहब्बत में मुन्सलिक नहीं किये जा सकते हैं।)))

295- आपने एक शख़्स को देखा के वह अपने दुश्मन को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है मगर उसमें ख़ुद उसका नुक़सान भी है तो फ़रमाया के तेरी मिसाल उस शख़्स की है जो अपने सीने में नैज़ा चुभो ले ताके पीछे बैठने वाला हलाक हो जाए।

296- इबरतें कितनी ज़्यादा हैं और उसके हासिल करने वाले कितने कम हैं।

297- जो लड़ाई-झगड़े में हद से आगे बढ़ जाए वह गुनहगार होता है और जो कोताही करता है वह अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करता है और इस तरह झगड़ा करने वाला तक़वा के रास्ते पर नहीं चल सकता है (लेहाज़ा मुनासिब यही है के झगड़े से परहेज़ करे)

298- उस गुनाह की कोई उम्र नहीं है जिसके बाद इतनी मोहलत मिल जाए के इन्सान दो रकअत नमाज़ अदा करके ख़ुदा से आफ़ियत का सवाल कर सके (लेकिन सवाल यह है के इस मोहलत की ज़मानत क्या है)

299- आपसे दरयाफ़्त किया गया के परवरदिगार इस क़द्र बेपनाह मख़लूक़ात का हिसाब किस तरह करेगा? तो फ़रमाया के जिस तरह उन सबको रिज़्क़ देता है। दोबारा सवाल किया गया के जब वह सामने नहीं आएगा तो हिसाब किस तरह लेगा? फ़रमाया जिस तरह सामने नहीं आता है और रोज़ी दे रहा है। (((इन्सान के ज़ेहन में यह ख़यालात और शुबहात इसीलिये पैदा होते हैं के वह उसकी रज़ाक़ियत से ग़ाफ़िल हो गया है वरना एक मसलए रिज़्क़ समझ में आ जाए तो मसलए मौत भी समझ में आ सकता है और मसलए हिसाब व किताब भी। जो मौत दे सकता है वह रोज़ी भी दे सकता है और जो रोज़ी का हिसाब रख सकता है वह आमाल का हिसाब भी कर सकता है)))

300- तुम्हारा क़ासिद तुम्हारी अक़्ल का तर्जुमान होता है और तुम्हारा ख़त तुम्हारा बेहतरीन तर्जुमान होता है।