नहजुल बलाग़ा

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नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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इमाम अली के अक़वाल (कथन) 401-450

401- एक शख़्स ने आपके सामने अपनी औक़ात से ऊंची बात कह दी, तो फ़रमाया तुम तो पर निकलने से पहले ही उड़ने लगे और जवानी आने से पहले ही बिलबिलाने लगे।

सय्यद रज़ी- शकीर परिन्दे के इब्तिदाई परों को कहा जाता है और सक़ब छोटे ऊंट का नाम है जबके बिलबिलाने का सिलसिला जवाने के बाद शुरू होता है।

(((बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके पास इल्म व फ़ज़्ल और कमाल व हुनर कुछ नहीं होता है लेकिन ऊंची महफ़िलों में बोलने का शौक़ ज़रूर रखते हैं जिस तरह के बाज़ ख़ोतबा कमाले जेहालत के बावजूद हर बड़ी से बड़ी मजलिस से खि़ताब करने के उम्मीदवार रहते हैं और उनका ख़याल यह होता है के इस तरह अपनी शख़्सियत का रोब क़ायम कर लेंगे और यह एहसास भी नहीं होता है के रही सही इज़्ज़त भी चली जाएगी और मजमए आम में रूसवा हो जाएंगे।

अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने ऐसे ही अफ़राद को तम्बीह की है जो क़ब्ल अज़ वक़्त बालिग़ हो जाते हैं और बलूगे़ फ़िक्री से पहले ही बिलबिलाने लगते हैंं।)))

402- जो मुख़तलिफ़ चीज़ों पर नज़र रखता है उसकी तदबीरें उसका साथ छोड़ देती हैं।

403- आपसे दरयाफ़्त किया गया के “लाहौला वला क़ूवता इल्ला बिल्लाह”के मानी क्या हैं? तो फ़रमाया के हम अल्लाह के साथ किसी चीज़ का इख़्तेयार नहीं रखते हैं और जो कुछ मिल्कियत है सब उसी की दी हुई है तो जब वह किसी ऐसी चीज़ का इख़्तेयार देता है जिसका इख़्तेयार उसके पास हमसे ज़्यादा है तो हमें ज़िम्मेदारियां भी देता है और जब वापस ले लेता है तो ज़िम्मेदारियों को उठा लेता है।

404- आपने देखा के अम्मार यासिर मग़ीरा बिन शैबा से बहस कर रहे हैं तो फ़रमाया अम्मार! उसे उसके हाल पर छोड़ दो। उसने दीन में से इतना ही हिस्सा लिया है जो उसे दुनिया से क़रीबतर बना सके और जानबूझ कर अपने लिये काम को मुश्तबा बना लिया है ताके उन्हीं शुबहात को अपनी लग्ज़िशों का बहाना क़रार दे सके। (((इब्ने अबी अल हदीद ने मख़ीरा के इस्लामम की यह तारीख़ नक़्ल की है के यह शख़्स एक क़ाफ़िले के साथ सफ़र में जा रहा था एक मक़ाम पर सब को शराब पिलाकर बेहोश कर दिया और फिर क़त्ल करके सारा सामान लूट लिया। इसके बाद जब यह ख़तरा पैदा हुआ के वोरसा इन्तेक़ाम लेंगे और जान का बचाना मुश्किल हो जाएगा तो भागकर मदीने आ गया और फ़ौरन इस्लाम क़ुबूल कर लिया के इस तरह जान बचाने का एक रास्ता निकल आएगा। यह शख़्स इस्लाम व ईमान दोनों से बेबहरा था। इस्लाम जान बचाने के लिये इख़्तेयार किया था और ईमान का यह आलम था के बरसरे मिम्बर “कुल्ले ईमान”को गालियाँ दिया करता था और इसी बदतरीन किरदार के साथ दुनिया से रूख़सत हो गया जो हर दुश्मने अली (अ0) का आखि़री अन्जाम होता है।)))

405- किस क़द्र अच्छी बात है के मालदार लोग अज्रे इलाही की ख़ातिर फ़क़ीरों के साथ तवाज़ो से पेश आएं लेकिन इससे अच्छी बात यह है के फ़ोक़रा ख़ुदा पर भरोसा करके दौलतमन्दों के साथ तमकनत से पेश आएं। (((तकब्बुर और तमकनत कोई अच्छी चीज़ नहीं है लेकिन जहाँ तवाज़ोअ और ख़ाकसारी में फ़ितना व फ़साद पाया जाता हो वरना तकब्बुर और तमकनत का इज़हार बेहद ज़रूरी हो जाता है। फ़ोक़रा के तकब्बुर का मक़सद यह नहीं है के ख़्वाह म ख़्वाह अपनी बड़ाई का इज़हार करें और बेबुनियाद तमकनत का सहारा लें, बल्कि इसका मक़सद यह है के अग़नेया के बजाए परवरदिगार पर भरोसा करें और उसकी के भरोसे पर अपनी बेनियाज़ी का इज़हार करें ताके ईमान व अक़ीदे में इस्तेहकाम पैदा हो और अग़नेया भी तवाज़ो और इन्कार पर मजबूर हो जाएं और इस तवाज़ो से उन्हें भी कुछ अज्र व सवाब हासिल हो जाए)))

406- परवरदिगार किसी शख़्स को अक़्ल इनायत नहीं करता है मगर यह के एक दिन उसी के ज़रिये से हलाकत से निकाल लेता है।

407- जो हक़ से टकराएगा हक़ बहरहाल उसे पछाड़ देगा।

408- दिल आँखों का सहीफ़ा है।

409- तक़वा तमाम एख़लाक़ियात का रास व रईस है।

410- अपनी ज़बान की तेज़ी उसके खि़लाफ़ इस्तेमाल न करो जिसने तुम्हें बोलना सिखाया है और अपने कलाम की फ़साहत का मुज़ाहेरा उस पर न करो जिसने रास्ता दिखाया है।

411- अपने नफ़्स की तरबीयत के लिये यही काफ़ी है के उन चीज़ों से इज्तेनाब करो जिन्हें दूसरों के लिये बुरा समझते हो।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

412- इन्सान जवाँमर्दों की तरह सब्र करेगा वरना सादा लौहों की तरह चुप हो जाएगा।

413- दूसरी रिवायत में है के आपने अश्अस बिन क़ैस को उसके बेटे की ताज़ियत पेश करते हुए फ़रमाया के बुज़ुर्गों की तरह सब्र करो वरना जानवरों की तरह एक दिन ज़रूर भूल जाओगे।

414- आपने दुनिया की तौसीफ़ करते हुए फ़रमाया के यह धोका देती है, नुक़सान पहुंचाती है और गुज़र जाती है, अल्लाह ने इसे न अपने औलिया के सवाब के लिये पसन्द किया है और न दुश्मनों के अज़ाब के लिये, अहले दुनिया उन सवारों के मानिन्द हैं जिन्होंने जैसे ही क़याम किया हंकाने वाले ने ललकार दिया के कूच का वक़्त आ गया है और फिर रवाना हो गए।

415- अपने फ़रज़न्द हसन (अ0) से बयान फ़रमाया - ख़बरदार दुनिया की कोई चीज़ अपने बाद के लिये छोड़कर मत जाना के इसके वारिस दो ही तरह के लोग होंगे। या वह होंगे जो नेक अमल करेंगे तो जो माल तुम्हारी बदबख़्ती का सबब बना है वही उनकी नेकबख़्ती का सबब होगा और अगर उन्होंने गुनाह में लगा दिया तो वह तुम्हारे माल की वजह सी बदबख़्त होंगे और तुम उनकी गुनाह के मददगार शुमार होगे और इन दोनों में से कोई ऐसा नहीं है जिसे तुम अपने नफ़्स पर तरजीह दे सकते हो।

सय्यद रज़ी- इस कलाम को एक दूसरी तरह भी नक़्ल किया गया है के “यह दुनिया जो आज तुम्हारे हाथ में है कल दूसरे इसके अहल रह चुके हैं और कल दूसरे इसके अहल होंगे और तुम इसे दो में से एक के लिये जमा कर रहे हो या वह शख़्स जो तुम्हारे जमा किये हुए को इताअते ख़ुदा में सर्फ़ करेगा तो जमा करने की ज़हमत तुम्हारी होगी और नेकबख़्ती उसके लिये होगी। या वह शख़्स होगा जो गुनाह में सर्फ़़ करेगा तो उसके लिये जमा करके तुम बदबख़्ती का शिकार होगे और इनमें से कोई इस बात का अहल नहीं है के उसे अपने नफ़्स पर मुक़द्दम कर सको और उसके लिये अपनी पुश्त को गराँबार बना सको लेहाज़ा जो गुज़र गए उनके लिये रहमते ख़ुदा की उम्मीद करो और जो बाक़ी रह गए हैं उनके लिये रिज़्क़े ख़ुदा की उम्मीद करो।”

(((इमाम हसन (अ0) से खि़ताब कसले की अहमियत की तरफ़ इशारा है के इतनी अज़ीम बात का समझना और उससे फ़ायदा उठाना हर इन्सान के बस का काम नहीं है वरना इमामे हसन (अ0) जैसी शख़्सियत का इन्सान इन नुकात की तरफ़ तवज्जो दिलाने का मोहताज नहीं है और इनका काम ख़ुद ही आलमे इन्सानियत को उन हक़ाएक़ से बाख़बर करना और उन नुकात की तरफ़ मुतवज्जोह करना है। बहरहाल मसल इन्तेहाई अहम है के इन्सान को अपनी आक़बत के लिये जो कुछ करना है वह अपनी ज़िन्दगी में करना है , मरने के बाद दूसरों से उम्मीद लगाना एक वसवसए शैतानी है और कुछ नहीं है, फिर माल भी परवरदिगार ने दिया है तो उसका फ़ैसला भी ख़ुद ही करना है, चाहे ज़िन्दगी में सर्फ़ कर दे या उसके मसरफ़ का तअय्युन कर दे वरना फ़ायदा दूसरे अफ़राद उठाएंगे और वबाल उसे बरदाश्त करना पड़ेगा।)))

416- एक शख़्स ने आपके सामने अस्तग़फ़ार किया “अस्तग़फ़ेरूल्लाह”तो आपने फ़रमाया के तेरी माँ तेरे मातम में बैठे। यह असतग़फ़ार बलन्दतरीन लोगों का मक़ाम है और इसके मफ़हूम में छः चीज़ें शामिल हैं-1. माज़ी पर शर्मिन्दगी 2. आइन्दा के लिये न करने का अज़्मे मोहकम 3. मख़लूक़ात के हुक़ूक़ का अदा कर देना के इसके बाद यूँ पाकदामन हो जाए के कोई मवाख़ेज़ा न रह जाए। 4. जिस फ़रीज़े को ज़ाया कर दिया है उसे पूरे तौर पर अदा कर देना। 5- गोश्त (अकल) हराम से नशो नुमा पाता रहा है इसको ग़म व अन्दोह से पिघलाओ यहाँ तक के खाल को हड्डियों से मिला दो के फिर से इन दोनों के दरम्यान नया गोश्त पैदा हो। 6- अपने जिस्म को इताअत के रन्ज से आश्ना करो जिस तरह उसे गुनाह की शीरीनी से लज़्ज़त अन्दोज़ किया है तो अब कहो “अस्तग़फ़ेरूल्लाह”।

417- हिल्म व तहम्मुल एक पूरा क़बीला है।

418- बेचारा आदमी कितना बेबस है मौत उससे नेहाँ, बीमारियाँ उससे पोशीदा और उसके आमाल महफ़ूज़ हैं मच्छर के काटने से चीख़ उठता है, उच्छू लगने से मर जाता है और पसीना इसमें बदबू पैदा कर देता है।

419- वारिद हुआ है के हज़रत अपने असहाब के दरम्यान बैठे हुए थे, के उनके सामने से एक हसीन औरत का गुज़र हुआ जिसे उन लोगों ने देखना शुरू किया जिस पर हज़रत ने फ़रमाया- इन मर्दों की आंखें ताकने वाली हैं और यह नज़र बाज़ी इनकी ख़्वाहिशात को बराँगीख़्ता करने का सबब है। लेहाज़ा अगर तुममें से किसी की नज़र ऐसी औरत पर पड़े जो उसे अच्छी मालूम हो तो उसे अपनी ज़ौजा की तरफ़ मुतवज्जो होना चाहिये क्यूंके यह औरत भी औरत के मानिन्द है यह सुनकर एक ख़ारेजी ने कहा के ख़ुदा इस काफ़िर को क़त्ल करे यह कितना बड़ा फ़क़ीह है, यह सुनकर लोग उसे क़त्ल करने उठे, हज़रत ने फ़रमाया के ठहरो! ज़्यादा से ज़्यादा गाली का बदला गाली से हो सकता है, या इसके गुनाही ही से दरगुज़र करो।

420- इतनी अक़्ल तुम्हारे लिये काफ़ी है के जो गुमराही की राहों को हिदायत के रास्तों से अलग करके तुम्हें दिखा दे।

421- अच्छे काम करो और थोड़ी सी भलाई को भी हक़ीर न समझो, क्योंके छोटी सी नेकी भी बड़ी और थोड़ी सी भलाई भी बहुत है। तुममें से कोई शख़्स यह न कहे के अच्छे काम के करने में कोई दूसरा मुझसे ज़्यादा सज़ावार है, वरना ख़ुदा की क़सम ऐसा ही होकर रहेगा। कुछ नेकी वाले होते हैं और कुछ बुराई वाले, जब तुम नेकी या बदी किसी एक को छोड़ दोगे तो तुम्हारे बजाय इसके अहल इसे अन्जाम देकर रहेंगे।

422-जो अपने अन्दरूनी हालात को दुरूस्त रखता है ख़ुदा उसके ज़ाहिर को भी दुरूस्त कर देता है और जो दीन के लिये सरगर्मे अमल होता है अल्लाह उसके दुनिया के कामों को पूरा कर देता है और जो अपने और अल्लाह के दरम्यान ख़ुश मआमलेगी रखता है ख़ुदा उसके और बन्दों के दरम्यान के मामलात ठीक कर देता है।

423- हिल्म व तहम्मुल ढांकने वाला परदा और अक़्ल काटने वाली तलवार है। लेहाज़ा अपने अख़लाक़ के कमज़ोर पहलू को हिल्म व बुर्दबारी से छुपाओ और अपनी अक़्ल स ख़्वाहिशे नफ़सानी का मुक़ाबेला करो।

424- बन्दों की मनफ़अत रसानी के लिये अल्लाह कुछ बन्दगाने ख़ुदा को नेमतों से मख़सूस कर लेता है लेहाज़ा जब तक वह देते दिलाते रहते हैं, अल्लाह उन नेमतों को उनके हाथों में बरक़रार रखता है और जब इन नेमतों को रोक लेते हैं तो अल्लाह उनसे छीनकर दूसरों की तरफ़ मुन्तक़िल कर देता है।

425- किसी बन्दे के लिये मुनासिब नहीं है के वह दो चीज़ों पर भरोसा करे। एक सेहत और दूसरे दौलत। क्योंके अभी तुम किसी को तन्दरूस्त देख रहे थे, के वह देखते ही देखते बीमार पड़ जाता है और अभी तुम उसे दौलतमन्द देख रहे थे के फ़क़ीर व नादार हो जाता है।

426- जो शख़्स अपनी हाजत का गिला किसी मर्दे मोमिन से करता है, गोया उसने अल्लाह के सामने अपनी शिकायत पेश की। और जो काफ़िर के सामने गिला करता है गोया उसने अपने अल्लाह की शिकायत की।

427- एक ईद के मौक़े पर फ़रमाया ईद सिर्फ़ उसके लिये है जिसके रोज़ों को अल्लाह ने क़ुबूल किया हो, और उसके क़याम (नमाज़) को क़द्र की निगाह से देखता हो, और ह रवह दिन के जिसमें अल्लाह की गुनाह न की जाए, ईद का दिन है।

428- क़यामत के दिन सबसे बड़ी हसरत उस शख़्स की होगी जिसने अल्लाह की नाफ़रमानी करके माल हासिल किया हो, और उसका वारिस वह शख़्स हुआ हो जिसने उसे अल्लाह की इताअत में सर्फ़ किया हो के यह तो इस माल की वजह से जन्नत में दाखि़ल हुआ और पहला उसकी वजह से जहन्नुम में गया।

429- लेन देन में सबसे ज़्यादा घाटा उठाने वाला और दौड़ धूप में सबसे ज़्यादा नाकाम होने वाला वह शख़्स है जिसने माल की तलब में अपने बदन को बोसीदा कर डाला हो। मगर तक़दीर ने उसके इरादों में उसका साथ न दिया हो। लेहाज़ा वह दुनिया से भी हसरत लिये हुए गया, और आख़ेरत में भी उसकी पादाश का सामना किया।

430- रिज़्क़ दो तरह का होता है- एक वह जो ढूंढता है और एक वह जिसे ढूंढा जाता है। चुनांचे जो दुनिया का तलबगार होता है, मौत उसको ढूंढती है यहां तक के दुनिया से उसे निकाल बाहर करती है और जो शख़्स आख़ेरत का ख़्वास्तगार होता है दुनिया ख़ुद उसे तलाश करती है यहां तक के वह उसके तमाम व कमाल अपनी रोज़ी हासिल कर लेता है।

431-दोस्ताने ख़ुदा वह हैं के जब लोग दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं तो वह उसके बातिन पर नज़र करते हैं और जब लोग उसकी जल्द मयस्सर आ जाने वाली नेमतों में खो जाते हैं तो वह आख़ेरत में हासिल होने वाली चीज़ों में मुनहमिक रहते हैं और जिन चीज़ों के मुताल्लिक़ उन्हें यह खुटका था के वह उन्हें तबाह करेंगी, उन्हें तबाह करके रख दिया और जिन चीज़ों के मुताल्लिक़ उन्होंने जान लिया के वह उन्हें छोड़ देने वाली हैं उन्हें उन्होंने ख़ुद छोड़ दिया और दूसरों के दुनिया ज़्यादा समेटने को कम ख़याल किया, और उसे हासिल करने को खोने के बराबर जाना। वह उन चीज़ों के दुश्मन हैं जिनसे दूसरों की दोस्ती है और उन चीज़ों के दोस्त हैं जिन चीज़ों से औरों को दुश्मनी है। उनके ज़रिये से क़ुरान का इल्म हासिल हुआ और क़ुरान के ज़रिये से उनका इल्म हासिल हुआ और इनके ज़रिये से किताबे ख़ुदा महफ़ूज़ और वह उसके ज़रिये से बरक़रार हैं। वह जिस चीज़ की उम्मीद रखते हैं, उससे किसी चीज़ को बलन्द नहीं समझते और जिस चीज़ से ख़ाएफ़ हैं उससे ज़्यादा किसी शै को ख़ौफ़नाक नहीं जानते।

432-लज़्ज़तों के ख़त्म होने अैर पादाशों के बाक़ी रहने को याद रखो।

433- आज़माओ के उससे नफ़रत करो।

सय्यद रज़ी- फ़रमाते हैं के कुछ लोगों ने इस फ़िक़रे की जनाब रिसालत मआब (स0) से रिवायत की है मगर इसके कलामे अमीरूल मोमेनीन (अ0) होने के मवीदात में से है वह जिसे सालब ने बयान किया है। वह कहते हैं के मुझसे इब्ने आराबी ने बयान किया के मामूं ने कहा के अगर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने यह न कहा होता के “आज़माओ के इससे नफ़रत करो”तो मैं यूँ कहता के दुश्मनी करो उससे ताके आज़माओ।

434- ऐसा नहीं के अल्लाह किसी बन्दे के लिये शुक्र का दरवाज़ा खोले और (नेमतों की) अफ़ज़ाइश का दरवाज़ा बन्द कर दे और किसी बन्दे के लिये दुआ का दरवाज़ा खोले और दरे क़ुबूलियत को उसके लिये बन्द रखे, और किसी बन्दे के लिये तौबा का दरवाज़ा खोले और मग़फ़ेरत का दरवाज़ा उसके लिये बन्द कर दे।

435- लोगों में सबसे ज़्यादा वह करम व बख़्शिश का वह अहल है जिसका रिश्ता अशराफ़ से मिलता हो।

436- आपसे दरयाफ़्त किया गया के अद्ल बेहतर है या सख़ावत! फ़रमाया के अद्ल तमाम काम को उनके मौक़े व महल पर रखता है और सख़ावत उनको उनकी हदों से बाहर कर देती है। अद्ल सबकी निगेहदाश्त करने वाला है, और सख़ावत उसी से मख़सूस होगी जिसे दिया जाए, लेहाज़ा अद्ल सख़ावत से बेहतर व बरतर है।

437- लोग जिस चीज़ को नहीं जानते उसके दुश्मन हो जाते हैं।

438- ज़ोहद की मुकम्मल तारीफ़ क़ुरान के दो जुमलों में है। इरशादे इलाही है “जो चीज़ तुम्हारे हाथ से जाती रहे, उस पर रन्ज न करो और जो चीज़ ख़ुदा तुम्हें दे उस पर इतराओ नहीं”लेहाज़ा जो शख़्स जाने वाली चीज़ पर अफ़सोस नहीं करता और आने वाली चीज़ पर इतराता नहीं है, उसने ज़ोहद को दोनों सिम्तों से समेट लिया।

439- नीन्द दिन की महम्मों में बड़ी कमज़ोरी पैदा करने वाली है।

440- हुकूमत लोगों के लिये आज़माइश का मैदान है।

441- तुम्हारे लिये एक शहर दूसरे शहर से ज़्यादा हक़दार नहीं (बल्कि) बेहतरीन शहर वह है जो तुम्हारा बोझ उठाए।

442- जब मालिके अश्तर रहमल्लाह की ख़बरे शहादत आई तो फ़रमाया मालिक! और मालिक क्या शख़्स था, ख़ुदा की क़सम अगर वह पहाड़ होता तो एक कोहे बलन्द होता, और अगर वह पत्थर होता तो एक संगे गराँ होता, के न तो उसकी बलन्दियों तक कोई सुम पहुंच सकता और न कोई परिन्दा वहाँ तक पर मार सकता।

सय्यद रज़ी- फ़न्दा उस पहाड़ को कहते हैं जो दूसरे पहाड़ों से अलग हो।

443- वह थोड़ा सा अमल जिसमें हमेशगी हो उस ज़्यादा से बेहतर है जो दिल तन्गी का बाएस हो।

444- अगर किसी इन्सान में कोई अच्छी ख़सलत पाई जाती है तो उससे दूसरी ख़सलतों की भी तवक़्क़ो की जा सकती है। (((चूंके अच्छी ख़सलत शराफ़ते नफ़्स से पैदा होती है लेहाज़ा एक ख़सलत को भी देखकर यह अन्दाज़ा किया जा सकता है के इस शख़्स में शराफ़ते नफ़्स पाई जाती है और यह शराफ़ते नफ़्स जिस तरह इस एक ख़सलत पर आमादा कर सकती है उसी तरह दूसरी ख़सलतें भी पैदा कर सकती है के एक दरख़्त में एक ही मेवा नहीं पैदा होता है।)))

445- ग़ालिब बिन सासा (पिदरे फ़रज़दक़) से गुफ़्तगू के दौरान फ़रमाया - तुम्हारे बेशुमार ऊंटों का क्या हुआ? उन्होंने कहा के हुकू़क़ की अदायगी ने फ़ैला कर दिया। फ़रमाया के यह बेहतरीन और क़ाबिले तारीफ़ रास्ता है।

(((इब्ने अबी अल हदीद का बयान है के ग़ालिब फ़रज़दक़ को लेकर हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ तो आपने ऊँटों के बारे में भी सवाल किया और फ़रज़दक़ के बारे में भी सवाल किया तो ग़ालिब ने कहा के यह मेरा फ़रज़न्द है और इसे मैंने ‘ोर व अदब की तालीम दी है। आपने फ़रमाया के ऐ काश तुमने क़ुराने मजीद की तालीम दी होती, जिसका नतीजा यह हुआ के यह बात दिल को लग गई और उन्होंने अपने पैरों में ज़न्जीरें डाल लीं और उन्हें उस वक़्त तक नहीं खोला जब तक सारा क़ुरान हिफ़्ज़ नहीं कर लिया।)))

446-जो एहकाम को दरयाफ़्त किये बग़ैर तिजारत करेगा वह कभी न कभी सूद में ज़रूर मुब्तिला हो जाएगा।

(((यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के फ़िक़ की ज़रूरत सिर्फ़ सलवात व सयाम के लिये नहीं है बल्कि इसकी ज़रूरत ज़िन्दगी के हर शोबे में है ताके इन्सान बुराइयों से महफ़ूज़ रह सके और लुक़्मए हलाल पर ज़िन्दगी गुज़ार सके वरना फ़िक़ के बग़ैर तिजारत करने में भी सूद का अन्देशा है और सूद से बदतर इस्लाम में कोई माल नहीं है जिसका एक पैसा भी हलाल नहीं कहा गया है।)))

447-जो छोटे मसाएब को भी बड़ा ख़याल करेगा उसे ख़ुदा बड़े मसाएब में भी मुब्तिला कर देगा। (((इन्सान का हुनर यह है के हमेशा मसाएब का मुक़ाबला करने के लिये तैयार रहे और बड़ी से बड़ी मुसीबत भी आ जाए तो उसे हक़ीर व मामूली ही समझे ताके दीगर मसाएब को हमला करने का मौक़ा न मिले वरना एक मरतबा अपनी कमज़ोरी का इज़हार कर दिया तो मसाएब का हुजूम आम हो जाएगा और इन्सान एक लम्हे के लिये भी निजात हासिल न कर सकेगा)))

448- जिसे उसका नफ़्स अज़ीज़ होगा उसकी नज़र में ख़्वाहिशात बेक़ीमत होंगी (के उन्हीं से इज़्ज़ते नफ़्स की तबाही पैदा होती है) (((ख़्वाहिश उस क़ैद का नाम है जिसका क़ैदी ता हयात आज़ाद नहीं हो सकता है के हर क़ैद का ताल्लुक़ इन्सान की बैरूनी ज़िन्दगी से होता है और ख़्वाहिश इन्सान को अन्दर से जकड़ लेती है जिसके बाद कोई आज़ाद कराने वाला भी नहीं पैदा होता है और यही वजह है के जब एक मर्द हकीम से पूछा गया के दुनिया में तुम्हारी ख़्वाहिश क्या है? तो उसने बरजस्ता यही जवाब दिया के बस यही के किसी चीज़ की ख़्वाहिश न पैदा हो।)))

449- इन्सान जिस क़द्र भी मिज़ाह करता है उसी क़द्र अपनी अक़्ल का एक हिस्सा अलग कर देता है। (((मिज़ाह एक बेहतरीन चीज़ है जिससे इन्सान ख़ुद भी ख़ुश होता है और दूसरों को भी ख़ुशहाल बनाता है लेकिन इसकी शर्त यही है के मिज़ाह बहद्दे मिज़ाह हो और इसमें ग़लत बयानी, फ़रेबकारी, ईज़ाए मोमिन, तौहीने मुसलमान का पहलू न पैदा होने पाए और हद से ज़्यादा भी न हो वरना हराम और बाएसे हलाकत व बरबादी हो जाएगा।)))

450- जो तुम्हारी तरफ़ रग़बत करे उससे किनाराकशी ख़सारा है और जो तुमसे किनाराकश हो जाए उसकी तरफ़ रग़बत ज़िल्लते नफ़्स है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 50-100

51- सबसे ज़्यादा माफ़ करने का हक़दार वह है जो सबसे ज़्यादा सज़ा देने की ताक़त रखता हो।

52- सख़ावत वही है जो इब्तेदाअन की जाए वरना मांगने के बाद तो शर्म व हया और इज़्ज़त की पासदारी की बिना पर भी देना पड़ता है।

(((मक़सद यह है के इन्सान सख़ावत करना चाहे और उसका अज्र व सवाब हासिल करना चाहे तो उसे साएल के सवाल का इन्तेज़ार नहीं करना चाहिये के सवाल के बाद तो यह शुबह भी पैदा हो जाता है के अपनी आबरू बचाने के लिये दे दिया है और इस तरह इख़लासे नीयत का अमल मजरूह हो जाता है और सवाब इख़लासे नीयत पर मिलता है, अपनी ज़ात के तहफ़्फ़ुज़ पर नहीं।)))

53- अक़्ल जैसी कोई दौलत नहीं है और जेहालत जैसी कोई फ़क़ीरी नहीं है अदब जैसी कोई मीरास नहीं है और मशविरा जैसा कोई मददगार नहीं है।

(((आज मुसलमान तमाम अक़वामे आलम का मोहताज इसीलिये हो गया है के उसने इल्म व फ़न के मैदान से क़दम हटा लिया है और सिर्फ़ ऐश व इशरत की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहता है, वरना इस्लामी अक़्ल से काम लेकर बाबे मदीनतुल इल्म से वाबस्तगी इख़्तेयार की होती तो बाइज़्ज़त ज़िन्दगी गुज़ारता और बड़ी-बड़ी ताक़तें भी उसके नाम से दहल जातीं जैसा के दौरे हाज़िर में बाक़ायदा महसूस किया जा रहा है।)))

54-सब्र की दो क़िस्में है, एक नागवार हालात पर सब्र और एक महबूब और पसन्दीदा चीज़ों के मुक़ाबले में सब्र।

55- मुसाफ़िर में दौलतमन्दी हो तो वह भी वतन का दर्जा रखती है और वतन में ग़ुर्बत हो तो वह भी परदेस की हैसियत रखता है।

56- क़नाअत वह सरमाया है जो कभी ख़त्म होने वाला नहीं है।

सय्यद रज़ी - यह फ़िक़रा रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है (और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है , अली (अ0) बहरहाल नफ़्से रसूल (स0) हैं।)

(((कहा जाता है के एक शख़्स ने सुक़रात को सहराई घास पर गुज़ारा करते देखा तो कहने लगा के अगर तुमने बादशाह की खि़दमत में हाज़िरी दी होती तो इस घास पर गुज़ारा न करना पड़ता तो सुक़रात ने फ़ौरन जवाब दिया के अगर तुमने घास पर गुज़ारा कर लिया होता तो बादशाह की खि़दमत के मोहताज न होते, घास पर गुज़ारा कर लेना इज़्ज़त है और बादशाह की खि़दमत में हाज़िर रहना ज़िल्लत है।)))

57- माल ख़्वाहिशात का सरचश्मा है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के ज़बान इन्सानी ज़िन्दगी में जिस क़द्र कारआमद है उसी क़द्र ख़तरनाक भी है, यह तो परवरदिगार का करम है के उसने इस दरिन्दे को पिन्जरे के अन्दर बन्द कर दिया है और उस पर32 हज़ार पहरेदार बिठा दिये हैं लेकिन यह दरिन्दा जब चाहता है ख़्वाहिशात से साज़बाज़ करके पिन्जरे का दरवाज़ा खोल लेता है और पहरेदारों को धोका देकर अपना काम शुरू कर देता है और कभी कभी सारी क़ौम को खा जाता है।)))

58- जो तुम्हें बुराइयों से डराए गोया उसने नेकी की बशारत दे दी।

59- ज़बान एक दरिन्दा है, ज़रा आजाद कर दिया जाए को काट खाएगा।

60- औरत एक बिच्छू के मानिन्द है जिसका डसना भी मज़ेदार होता है।

(((इस फ़िक़रे में एक तरफ़ औरत के मिज़ाज की तरफ़ इशारा किया गया है जहां इसका डंक भी मज़ेदार मालूम होता है)))

61- जब तुम्हें कोई तोहफ़ा दिया जाए तो उससे बेहतर वापस करो और जब कोई नेमत दी जाए तो उससे बढ़ाकर उसका बदला दो लेकिन इसके बाद भी फ़ज़ीलत उसी की रहेगी जो पहले कारे ख़ैर अन्जाम दे।

62- सिफ़ारिश करने वाला तलबगार के बाल-व-पर के मानिन्द होता है।

63- अहले दुनिया उन सवारों के मानिन्द हैं जो ख़ुद सो रहे हैं और उनका सफ़र जारी है।

64- अहबाब का न होना भी एक ग़ुर्बत है।

65- हाजत का पूरा न होना ना-अहल से मांगने से बेहतर है।

(((-इन्सान को चाहिये के दुनिया से महरूमी पर सब्र कर ले और जहां तक मुमकिन हो किसी के सामने हाथ न फैलाए के हाथ फैलाना किसी ज़िल्लत से कम नहीं है।)))

66- मुख़्तसर माल देने में भी शर्म न करो के महरूम कर देना इससे ज़्यादा कमतर दर्जे का काम है।

67- पाक दामनी फ़क़ीरी की ज़ीनत है और शुक्रिया मालदारी की ज़ीनत है।

(((मक़सद यह है के इन्सान को ग़ुरबत में अज़ीफ़ और ग़ैरतदार होना चाहिये और दौलतमन्दी में मालिक का शुक्रगुज़ार होना चाहिये के इसके अलावा शराफ़त व करामत की कोई निशानी नहीं है।)))

68-अगर तुम्हारे हस्बे ख़्वाहिश काम न हो सके तो जिस हाल में रहो ख़ुश रहो। (के अफ़सोस का कोई फ़ायदा नहीं है)

(((बाज़ ओरफ़ा ने इस हक़ीक़त को उस अन्दाज़ से बयान किया है के “मैं उस दुनिया को लेकर क्या करूं जिसका हाल यह है के मैं रह गया तो वह न रह जाएगी और वह रह गई तो मैं न रह जाऊंगा)))

69- जाहिल हमेशा अफ़रात व तफ़रीत का शिकार रहता है या हद से आगे बढ़ जाता है या पीछे ही रह जाता है (के उसे हर का अन्दाज़ा ही नहीं है)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

70- जब अक़्ल मुकम्मल होती है तो बातें कम हो जाती हैं (क्यूं की आक़िल को हर बात तोल कर कहना पड़ती है)

71- ज़माना बदन को पुराना कर देता है और ख़्वाहिशात को नया, मौत को क़रीब बना देता है और तमन्नाओं को दूर, यहां जो कामयाब हो जाता है वह भी ख़स्ताहाल रहता है और जो इसे खो बैठता है वह भी थकन का शिकार रहता है।

(((माले दुनिया का हाल यही है के आ जाता है तो इन्सान कारोबार में मुब्तिला हो जाता है और नहीं रहता है तो उसके हुसूल की राह में परेशान रहता है)))

72- जो शख़्स अपने को क़ाएदे मिल्लत बनाकर पेश करे उसका फ़र्ज़ है के लोगों को नसीहत करने से पहले अपने नफ़्स को तालीम दे और ज़बान से तबलीग़ करने से पहले अपने अमल से तबलीग़ करे और यह याद रखो के अपने नफ़्स को तालीम व तरबियत देने वाला दूसरों को तालीम व तरबियत देने वाले से ज़्यादा क़ाबिले एहतेराम होता है।

73- इन्सान की एक-एक सांस मौत की तरफ़ एक-एक क़दम है।

74- हर शुमार होने वाली चीज़ ख़त्म होने वाली है (सांसें) और हर आने वाला बहरहाल आकर रहेगा (मौत) ।

75- जब मसाएल में शुबह पैदा हो जाए तो इब्तिदा को देखकर अन्जामे कार का अन्दाज़ा कर लेना चाहिये।

76- ज़र्रार बिन हमज़ा अलज़बाई माविया के दरबार में हाज़िर हुए तो उसने अमीरूल मोमेनीन (अ0) के बारे में दरयाफ़्त किया ?

(((बाज़ हज़रात ने इनका नाम ज़रार बिन ज़मरह लिखा है और यह इनका कमाले किरदार है के माविया जैसे दुश्मने अली (अ0) के दरबार में हक़ाएक़ का एलान कर दिया और इस मशहूर हदीस के मानी को मुजस्सम बना दिया के बेहतरीन जेहाद बादशाहे ज़ालिम के सामने कलमए हक़ का इज़हार व ऐलान है)))

ज़र्रार ने कहा के मैंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है के रात की तारीकी में मेहराब में खड़े हुए रेशे मुबारक को हाथों में लिये हुए ऐसे तड़पते थे जिस तरह सांप का काटा हुआ तड़पता है और कोई ग़म रसीदा गिरया करता है, और फ़रमाया करते थे-

‘ऐ दुनिया, ऐ दुनिया ! मुझसे दूर हो जा, तू मेरे सामने बन संवर कर आई है या मेरी वाक़ेअन मुश्ताक़ बन कर आई है? ख़ुदा वह वक़्त न लाए के तू मुझे धोका दे सके, जा मेरे अलावा किसी और को धोका दे, मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है, मैं तुझे तीन मरतबा तलाक़ दे चुका हूँ जिसके बाद रूजूअ का कोई इमकान नहीं है, तेरी ज़िन्दगी बहुत थोड़ी है और तेरी हैसियत बहुत मामूली है और तेरी उम्मीद बहुत हक़ीर शै है”आह ज़ादे सफ़र किस क़द्र कम है , रास्ता किस क़द्र तूलानी है, मन्ज़िल किस क़द्र दूर है और वारिद होने की जगह किस क़द्र ख़तरनाक है।

((( खुली हुई बात है के जब कोई शख़्स किसी औरत को तलाक़ दे देता है तो वह औरत भी नाराज़ होती है और उसके घरवाले भी नाराज़ रहते हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ0) से दुनिया का इन्हेराफ़ और अहले दुनिया की दुश्मनी का राज़ यही है के आपने उसे तीन मरतबा तलाक़ दे दी थी तो इसका कोई इमकान नहीं था के अहले दुनिया आपसे किसी क़ीमत पर राज़ी हो जाते और यही वजह है के पहले अबनाए दुनिया ने तीन खि़लाफ़तों के मौक़े पर अपनी बेज़ारी का इज़हार किया और उसके बाद तीन जंगों के मौक़े पर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया लेकिन आप किसी क़ीमत पर दुनिया से सुलह करने पर आमादा न हुए और हर मरहले पर दीने इलाही और उसके तालीमात को कलेजे से लगाए रहे।)))

77- एक मर्दे शामी ने सवाल किया के क्या हमारा शाम की तरफ़ जाना क़ज़ा व क़द्रे इलाही की बिना पर था (अगर ऐसा था तो गोया कोई अज्र व सवाब न होगा) तो आपने फ़रमाया के “शायद तेरा ख़याल यह है के इससे मुराद क़ज़ाए लाज़िम और क़द्रे हतमी है के जिसके बाद अज़ाब व सवाब बेकार हो जाता है और वादा व वईद का निज़ाम मोअत्तल हो जाता है, ऐसा हरगिज़ नहीं है, परवरदिगार ने अपने बन्दों को हुक्म दिया है तो उनके इख़्तेयार के साथ और नहीं की है तो उन्हें डराते हुए। उसने आसान सी तकलीफ़ दी है और किसी ज़हमत में मुब्तिला नहीं किया है। थोड़े अमल पर बहुत सा अज्र दिया है और उसकी नाफ़रमानी इसलिये नहीं होती है के वह मग़लूब हो गया है और न इताअत इसलिये होती है के उसने मजबूर कर दिया है। उसने न अम्बिया को खेल करने के लिये भेजा है और न किताब को अबस नाज़िल किया है और न ज़मीन व आसमान पर उनकी दरम्यानी मख़लूक़ात को बेकार पैदा किया है। यह सिर्फ़ काफ़िरों का ख़याल है और काफ़िरों के लिये जहन्नम में वील है।’

(आखि़र में वज़ाहत फ़रमाई के क़ज़ा अम्र के मानी में है और हम उसके हुक्म से गए थे न के जब्र व इकराह से)

78- हर्फ़े हिकमत जहां भी मिल जाए ले लो के ऐसी बात अगर मुनाफ़िक़ के सीने में दबी होती है तो वह उस वक़्त तक बेचैन रहता है जब तक वह निकल न जाए और मोमिन के सीने में जाकर दूसरी हिकमतों से मिलकर बहल जाती है।

79- हिकमत मोमिन की गुमशुदा दौलत है लेहाज़ा जहाँ मिले ले लेना चाहिये, चाहे वह मुनाफिक़ो से ही क्यों न हासिल हो।

80- हर इन्सान की क़द्र व क़ीमत वही नेकियां हैं जो उसमें पाई जाती हैं।

सय्यद रज़ी-यह वह कलमए क़ुम्मिया है जिसकी कोई क़ीमत नहीं लगाई जा सकती है और उसके हमपल्ला कोई दूसरी हिकमत भी नहीं है और कोई कलम इसके हम पाया भी नहीं हो सकता है।

((( यह अमीरूल मोमेनीन (अ0) का फ़लसफ़ाए हयात है के इन्सान की क़द्र व क़ीमत का ताअय्युन न उसके हसब व नसब से होता है और न क़ौम व क़बीले से , न डिग्रियाँ उसके मरतबे को बढ़ा सकती हैं और न ख़ज़ाने उसको शरीफ़ बना सकते हैं, न कुर्सी उसके मेयार को बलन्द कर सकती हैं और न इक़्तेदार उसके कमालात का ताअय्युन कर सकता है, इन्सानी कमाल का मेयार सिर्फ़ वह कमाल है जो उसके अन्दर पाया जाता है। अगर उसके नफ़्स में पाकीज़गी और किरदार में हुस्न है तो यक़ीनन अज़ीम मरतबे का हामिल है वरना उसकी कोई क़द्र व क़ीमत नहीं है।)))

81- मैं तुम्हें ऐसी पांच बातों की नसीहत कर रहा हूँ के जिनके हुसूल के लिये ऊंटों को एड़ लगाकर दौड़ाया जाए तो भी वह उसकी अहल हैं।

ख़बरदार! तुममें से कोई शख़्स अल्लाह के अलावा किसी से उम्मीद न रखे और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरे और जब किसी चीज़ के बारे में सवाल किया जाए और न जानता हो तो लाइल्मी के एतराफ़ में न शरमाए और जब नहीं जानता है तो सीखने में न शरमाए और सब्र इख़्तेयार करे के सब्र ईमान के लिये वैसा ही है जैसा बदन के लिये सर और ज़ाहिर है के उस बदन में कोई ख़ैर नहीं होता है जिसमें सर न हो।

(((सब्र इन्सानी ज़िन्दगी का वह जौहर है जिसकी वाक़ेई अज़मत का इदराक भी मुश्किल है। तारीख़े बशरीयत में उसके मज़ाहिर का हर क़दम पर मुशाहेदा किया जा सकता है। हज़रत आदम (अ0) जन्नत में थे , परवरदिगार ने हर तरह का आराम दे रखा था, सिर्फ एक दरख़्त से रोक दिया था लेकिन उन्होंने मुकम्मल क़ूवते सब्र का मुज़ाहिरा न किया जिसका नतीजा यह हुआ के जन्नत से बाहर आ गए और लम्हों में “ग़ुलामी”से “शाही”का फासला तय कर लिया।

सब्र और जन्न्नत के इसी रिश्ते की तरफ़ क़ुरआने मजीद ने सूरए दहर में इशारा किया है “जज़ाहुम बेमा सबरू जन्नतंव व हरीरन”अल्लाह ने उनके सब्र के बदले में उन्हें जन्नत और हरीरे जन्नत से नवाज़ दिया। )))

82- आपने उस शख़्स से फ़रमाया जो आपका अक़ीदतमन्द तो न था लेकिन आपकी बेहद तारीफ़ कर रहा था “मैं तुम्हारे बयान से कमतर हूँ लेकिन तुम्हारे ख़याल से बालातर हूँ” (यानी जो तुमने मेरे बारे में कहा है वह मुबालेग़ा है लेकिन जो मेरे बारे में अक़ीदा रखते हो वह मेरी हैसियत से बहुत कम है)

(((यही वजह है के रसूले अकरम (स0) के बाद मौलाए कायनात के अलावा जिसने भी “सलूनी”का दावा किया उसे ज़िल्लत से दो-चार होना पड़ा और सारी इज़्ज़त ख़ाक में मिल गई।)))

83- तलवार के बचे हुए लोग ज़्यादा बाक़ी रहते हैं और उनकी औलाद भी ज़्यादा होती है।

84-जिसने नावाक़फ़ीयत का इक़रार छोड़ दिया वह कहीं न कहीं ज़रूर मारा जाएगा।

85- बूढ़े की राय, जवान की हिम्मत से ज़्यादा महबूब होती है, या बूढ़े की राय जवान के ख़तरे में डटे रहने से ज्यादा पसन्दीदा होती है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के ज़िन्दगी के हर मरहलए अमल पर जवान की हिम्मत ही काम आती है काश्तकारी, सनअतकारी से लेकर मुल्की दिफ़ाअ तक सारा काम जवान ही अन्जाम देते हैं और चमनाते ज़िन्दगी की सारी बहार जवानों की हिम्म्मत ही से वाबस्ता है लेकिन इसके बावजूद निशाते अमल के लिये सही ख़ुतूत का तअय्युन बहरहाल ज़रूरी है और यह काम बुज़ुर्ग लोगों के तजुर्बात ही से अन्जाम पा सकता है, लेहाज़ा बुनियाद हैसियत बुज़ुर्गों के तजुर्बात की है और सानवी हैसियत नौजवानों की हिम्मते मर्दाना की है, अगरचे ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिये यह दोनों पहिये ज़रूरी हैं।)))

86- मुझे उस शख़्स के हाल पर ताज्जुब होता है जो अस्तग़फ़ार की ताक़त रखता है और फ़िर भी रहमते ख़ुदा से मायूस हो जाता है।

87- इमाम मोहम्मद बाक़ीर (अ0) ने आपका यह इरशादे गिरामी नक़्ल किया है के “रूए ज़मीन पपर अज़ाबे इलाही से बचाने के दो ज़राए थे, एक को परवरदिगार ने उठा लिया है (पैग़म्बरे इस्लाम स0) लेहाज़ा दूसरे से तमस्सुक इख़्तेयार करो। यानी अस्तग़फ़ार- के मालिके कायनात ने फ़रमाया है के “ख़ुदा उस वक़्त तक उन पर अज़ाब नहीं कर सकता है जब तक आप मौजूद हैं, और उस वक़्त तक अज़ाब करने वाला नहीं है जब तक यह अस्तग़फ़ार कर रहे हैं”

सय्यद रज़ी- यह आयते करीमा से बेहतरीन इसतेख़राज और लतीफ़तरीन इस्तनबात है।

88- जिसने अपने और अल्लाह के दरम्यान के मामलात की इस्लाह कर ली, अल्लाह उसके और लोगों के दरम्यान के मामलात की इस्लाह कर देगा और जो आख़ेरत के काम की इस्लाह कर लेगा अल्लाह उसकी दुनिया के काम की इस्लाह कर देगा। और जो अपने नफ़्स को नसीहत करेगा अल्लाह उसकी हिफ़ाज़त का इन्तेज़ाम कर देगा।

(((उमूरे आख़ेरत की इस्लाह का दायरा सिर्फ़ इबादात व रियाज़ात में महदूद नहीं है बल्कि इसमें ववह तमाम उमूरे दुनिया शामिल हैं जो आखि़रत के लिये अन्जाम दिये जाते हैं के दुनिया आख़ेरत की खेती है और आख़ेरत की इस्लाह दुनिया की इस्लाह के बग़ैर मुमकिन नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह होता है के आख़ेरत वाले दुनिया को बराए आखि़रत इख़्तेयार करते हैं और दुनियादार इसी को अपना हदफ़ और मक़सद क़रार दे लेते हैं और इस तरह आखि़रत से यकसर ग़ाफ़िल हो जाते हैं।)))

89- मुकम्मल आलिमे दीन वही है जो लोगों को रहमते ख़ुदा से मायूस न बनाए और उसकी मेहरबानियों से ना उम्मीद न करे और उसके अज़ाब की तरफ़ मुतमईन न बना दे।

90- यह दिल उसी तरह उकता जाते हैं जिस तरह बदन उकता जाते हैं लेहाज़ा उनके लिये नई-नई लतीफ़ हिकमतें तलाश करो।

91- सबसे हक़ीर इल्म वह है जो सिर्फ़ ज़बान पर रह जाए और सबसे ज़्यादा क़ीमती इल्म वह है जिसका इज़हार आज़ा व जवारेह से हो जाए।

(((अफ़सोस के दौरे हाज़िर में इल्म का चर्चा सिर्फ़ ज़बानों पर रह गया है और क़ूवते गोयाई ही को कमाले इल्म को तसव्वुर कर लिया गया है और इसका नतीजा यह है के अमल व किरदार की कमी होती जा रही है और लोग अपनी ज़ाती जेहालत से ज़्यादा दानिशवरों की दानिशवरी और अहले इल्म के इल्म की बदौलत तबाह व बरबाद हो रहे हैं।)))

92- ख़बरदार, तुममें से कोई शख़्स यह न कहे के ख़ुदाया मैं फ़ित्ने से तेरी पनाह मांगता हूँ। के कोई शख़्स भी फ़ित्ने से अलग नहीं हो सकता है। अगर पनाह मांगना है तो फ़ित्नों की गुमराहियों से पनाह मांगो इसलिये के परवरदिगार ने अमवाल और औलाद को भी फ़ित्ना क़रार दिया है और इसके मानी यह हैं के अमवाल और औलाद के ज़रिये इम्तेहान लेना चाहता है ताके इस तरह रोज़ी से नाराज़ होने वाला क़िस्मत पर राज़ी रहने वाले से अलग हो जाए जबके वह उनके बारे में ख़ुद उनसे बहेतर जानता है लेकिन चाहता है के इन आमाल का इज़हार हो जाए जिनसे इन्सान सवाब या अज़ाब का हक़दार होता है के बाज़ लोग लड़का चाहते हैं लड़की नहीं चाहते हैं और बाज़ माल के बढ़ाने को दोस्त रखते हैं और शिकस्ताहाली को बुरा समझते हैं।

सय्यद रज़ी - यह वह नादिर बात है जो आयत “इन्नमा अमवालोकुम”की तफ़सीर में आपसे नक़्ल की गई है।

(((यह उस आयते करीमा की तरफ़ इशारा है के परवरदिगार सिर्फ़ मुत्तक़ीन के आमाल को क़ुबूल करता है, और उसका मक़सद यह है के अगर इन्सान तक़वा के बग़ैर आमाल अन्जाम दे तो आमाल देखने में बहुत नज़र आएंगे लेकिन वाक़ेअन कसीर कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं। और इसके बरखि़लाफ़ अगर तक़वा के साथ अमल अन्जाम दे तो देखने में शायद वह अमल क़लील दिखाई दे लेकिन वाक़ेअन क़लील न होगा के दरजए क़ुबूलियत पर फ़ाएज़ हो जाने वाला अमल किसी क़ीमत पर क़लील नहीं कहा जा सकता है।)))

93-आपसे ख़ैर के बारे में सवाल किया गया ? तो फ़रमाया के ख़ैर, माल और औलाद की कसरत नहीं है, ख़ैर इल्म की कसरत और हिल्म की अज़मत है और यह है के लोगों पर इबादते परवरदिगार से नाज़ करो, लेहाज़ा अगर नेक काम करो तो अल्लाह का शुक्र बजा लाओ और बुरा काम करो तो अस्तग़फ़ार करो, और याद रखो के दुनिया में ख़ैर सिर्फ़ दो तरह के लोगों के लिये है, वह इन्सान जो गुनाह करे तो तौबा से उसकी तलाफ़ी कर ले और वह इन्सान जो नेकियों में आगे बढ़ता जाए।

94- तक़वा के साथ कोई अमल क़लील नहीं कहा जा सकता है, के जो अमल भी क़ुबूल हो जाए उसे क़लील किस तरह कहा जा सकता है।

(((यह उस आयते करीमा की तरफ़ इशारा है के परवरदिगार सिर्फ़ मुत्तक़ीन के आमाल को क़ुबूल करता है, और इसका मक़सद यह है के अगर इन्सान तक़वा के बग़ैर आमाल अन्जाम दे तो यह आमाल देखने में बहुत नज़र आएंगे लेकिन वाक़ेअन कसीर कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं, और इसके बरखि़लाफ़ अगर तक़वा के साथ अमल अन्जाम दे तो देखने में शायद वह अमल क़लील दिखाई दे लेकिन वाक़ेअन क़लील न होगा के दरजए क़ुबूलियत पर फ़ाएज़ हो जाने वाला अमल किसी क़ीमत पर क़लील नहीं कहा जा सकता है।)))

95- लोगों में अम्बिया से सबसे ज़्यादा क़रीब वह लोग होते हैं जो सबसे ज़्यादा उनके तालीमात से बाख़बर हों, यह कहकर आपने आयत शरीफ़ की तिलावत फ़रमाई “इब्राहीम (अ0) से क़रीबतर वह लोग हैं जो उनकी पैरवी करें , और यह पैग़म्बर (स0) है और साहेबाने ईमान हैं। ”इसके बाद फ़रमाया के पैग़म्बर (स0) का दोस्त वही है जो उनकी इताअत करे , चाहे नसब के एतबार से किसी क़द्र दूर क्यों न हो और आपका दुश्मन वही है जो आपकी नाफ़रमानी करे चाहे क़राबत के ऐतबार से कितना ही क़रीब क्यों न हो।”

96- आपने सुना के ख़ारेजी शख़्स नमाज़े शब पढ़ रहा है और तिलावते क़ुरान कर रहा है तो फ़रमाया के यक़ीन के साथ सो जाना शक के साथ नमाज़ पढ़ने से बेहतर है।

(((यह इस्लाहे अक़ीदा की तरफ़ इशारा है के जिस शख़्स को हक़ाएक़ का यक़ीन नहीं है और वह शक की ज़िन्दगी गुज़ार रहा है उसके आमाल की क़द्र व क़ीमत ही क्या है, आमाल की क़द्र व क़ीमत का ताअय्युन इन्सान के इल्म व यक़ीन और उसकी मारेफ़त से होता है, लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के जितने अहले यक़ीन हैं सबको सो जाना चाहिये और नमाज़े शब का पाबन्द नहीं होना चाहिये के यक़ीन की नीन्द शक के अमल से बेहतर है।

ऐसा मुमकिन होता तो सबसे पहले मासूमीन (अ0) इन आमाल को नज़र अन्दाज़ कर देते जिनके यक़ीन की शान यह थी के अगर परदे उठा दिये जाते जब भी यक़ीन में इज़ाफ़े की गुन्जाइश नहीं थी।)))

97- जब किसी ख़बर को सुनो तो अक़्ल के मेयार पर परख लो और सिर्फ़ नक़्ल पर भरोसा न करो के इल्म के नक़्ल करने वाले बहुत होते हैं और समझने वाले बहुत कम होते हैं।

(((आलमे इस्लाम की एक कमज़ोरी यह भी है के मुसलमान रिवायात के मज़ामीन से एक दम ग़ाफ़िल है और सिर्फ़ रावियों के एतमाद पर रिवायात पर अमल कर रहा है जबके बेशुमार रिवायात के मज़ामीन खि़लाफ़े अक़्ल व मन्तिक़ और मुख़ालिफ़े उसूल व अक़ाएद हैं और मुसलमान को इस गुमराही का एहसास भी नहीं है।)))

98- आपने एक शख़्स को कलमा इन्ना लिल्लाह ज़बान पर जारी करते हुए सुना तो फ़रमाया के इन्नालिल्लाह इक़रार है के हम किसी की मिल्कियत हैं और इन्नल्लाहा राजेऊन एतराफ़ है के एक दिन फ़ना हो जाने वाले हैं।

99- एक क़ौम ने आपके सामने आपकी तारीफ़ कर दी तो आपने दुआ के लिये हाथ उठा दिये, ख़ुदाया तू मुझे मुझसे बेहतर जानता है और मैं अपने को इनसे बेहतर पहचानता हूँ लेहाज़ा मुझे इनके ख़याल से बेहतर क़रार दे देना और यह जिन कोताहियों को नहीं जानते हैं उन्हें माफ़ कर देना।

(((ऐ काश हर इन्सान इस किरदार को अपना लेता और तारीफ़ों से धोका खाने के बजाए अपने काम की इस्लाह की फ़िक्र करता और मालिक की बारगाह में इसी तरह अर्ज़ करता जिस तरह मौलाए कायनात ने सिखाया है मगर अफ़सोस के ऐसा कुछ नहीं है और जेहालत इस मन्ज़िल पर आ गई है के साहेबाने इल्म आम लोगो की तारीफ़ से धोका खा जाते हैं और अपने को बाकमाल तसव्वुर करने लगते हैं जिसका मुशाहेदा ख़ोतबा की ज़िन्दगी में भी हो सकता है और शोअरा की महफ़िलों में भी जहां इज़हारे इल्म करने वाले बाकमाल होते हैं और तारीफ़ करने वालों की अकसरीयत उनके मुक़ाबले में बेकमाल, मगर इसके बाद भी इन्सान तारीफ़ से ख़ुश होता है और मग़रूर हो जाता है।)))

100- हाजत रवाई तीन चीज़ों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होती है1. अमल को छोटा समझे ताके वह बड़ा क़रार पा जाए 2. उसे पोशीदा तौर पर अन्जाम दे ताके वह ख़ुद अपना इज़हार करे 3. उसे जल्दी पूरा कर दे ताके ख़ुशगवार मालूम हो।

(((ज़ाहिर है के हाजत पूरी होने का अमल जल्द हो जाता है तो इन्सान को बेपनाह मसर्रत होती है वरना इसके बाद काम तो हो जाता है लेकिन मसर्रत का फ़िक़दान रहता है और वह रूहानी इम्बेसात हासिल नहीं होता है जो मुद्दआ पेश करने के फ़ौरन बाद पूरा हो जाने में हासिल होता है)))


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