नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा0%

नहजुल बलाग़ा लेखक:
कैटिगिरी: हदीस

नहजुल बलाग़ा

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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नहजुल बलाग़ा
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नहजुल बलाग़ा

नहजुल बलाग़ा

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 451-479

451- मालदारी और ग़ुरबत का फ़ैसला परवरदिगार की बारगाह में पेशी के बाद होगा।

452-ज़ुबैर हमेशा हम अहलेबैत (अ0) की एक फ़र्द शुमार होता था यहाँ तक के उसका मख़सूस फ़रज़न्द अब्दुल्लाह नमूदार हो गया।

453- आखि़र फ़रज़न्दे आदम का फ़ख़र व मुबाहात से क्या ताल्लुक़ है जबके इसकी इब्तिदा नुत्फ़ा है और इन्तेहा मुरदार। वह न अपनी रोज़ी का इख़्तेयार रखता है और न अपनी मौत को टाल सकता है।

(((इन्सानी ज़िन्दगी के तीन दौर होते हैं: इब्तेदा, इन्तेहा, वसत और इन्सान का हाल यह है के वह इब्तिदा में एक क़तरए नजिस होता है और इन्तेहा में मुरदार हो जाता है, दरम्यानी हालात यक़ीनन ताक़त व क़ूवत और तहारत व पाकीज़गी के होते हैं लेकिन इसका भी यह हाल होता है के अपना रिज़्क़ अपने हाथ में होता है और न अपनी मौत अपने इख़्ितयार में होती है ऐसे हालात में इन्सान के लिये तकब्बुर व ग़ुरूर का जवाज़ कहाँ से पैदा होता है। तक़ाज़ाए शराफ़त व दयानत यही है के जिसने पैदा किया है उसी का शुक्रिया अदा करे और उसकी इताअत में ज़िन्दगी गुज़ार दे ताके मरने के बाद ख़ुद भी पाकीज़ा रहे और वह ज़मीन भी पाकीज़ा हो जाए जिसमें दफ़्न हो गया है।)))

454- आपसे दरयाफ़्त किया गया के सबसे बड़ा शाएर कौन था?

तो फ़रमाया के सारे शोअरा ने एक मैदान में क़दम नहीं रखा के सबक़ते अमल से उनकी इन्तिहाए कमाल का फ़ैसला किया जा सके लेकिन अगर फ़ैसला ही करना है तो बादशाहे गुमराह (यानी अम्र अल क़ैस)।

455- क्या कोई ऐसा आज़ाद नहीं है जो दुनिया के इस चबाए हुए लुक़्मे को दूसरों के लिये छोड़ दे? याद रखो के तुम्हारे नफ़्स की कोई क़ीमत जन्नत के अलावा नहीं है लेहाज़ा इसे किसी और क़ीमत पर बेचने का इरादा मत करना।

(((दुनिया वह ज़ईफ़ा है जो लाखों के तसरूफ़ में रह चुकी है और वह लुक़्मा है जिसे करोड़ों आदमी चबा चुके हैं, क्या ऐसी दुनिया भी इस लाएक़ होती है के इन्सान इससे दिल लगाए और इसकी ख़ातिर जान देने के लिये तैयार हो जाए। इसका तो सबसे बेहतरीन मसरफ़ यह होता है के दूसरों के हवाले करके अपनी जन्नत का इन्तेज़ाम कर ले जहां हर चीज़ नई है और कोई नेमत इस्तेमाल शुदा नहीं है।)))

456- दो भूके ऐसे हैं जो कभी सेर नहीं हो सकते हैं- एक तालिबे इल्म और एक तालिबे दुनिया।

457-ईमान की अलामत यह है के सच नुक़सान भी पहुंचाए तो उसे फ़ायदा पहुंचाने वाले झूट पर मुक़द्दम रखो और तुम्हारी बातें तुम्हारी अमल से ज़्यादा न हों और दूसरों के बारे में बात करते हुए ख़ुदा से डरते रहो।

(((यक़ीनन ईमान का तक़ाज़ा यही है के सच को झूट पर मुक़द्दम रखा जाए और मामूली मफ़ादात की राह में इस अज़ीम नेमते सिद्क़ को क़ुरबान न किया जाए लेकिन कभी कभी ऐसे मवाक़ेअ आ सकते हैं जब सच का नुक़सान नाक़ाबिले बरदाश्त हो जाए तो ऐसे मौक़े पर अक़्ल और शरअ दोनों की इजाज़त है के कज़्ब का रास्ता इख़्तेयार करके उस नुक़सान से तहफ़्फ़ुज़ का इन्तेज़ामक र लिया जाए जिस तरह के क़ातिल किसी नबी बरहक़ की तलाश में हो और आपको उसका पता मालूम हो तो अपके लिये शरअन जाएज़ नहीं है के पता बताकर नबीए बरहक़ के क़त्ल में हिस्सादार हो जाएं।)))

458- (कभी ऐसा भी हो सकता है के) क़ुदरत का मुक़र्रर किया हुआ मुक़द्दर इन्सान के अन्दाज़ों पर ग़ालिब आ जाता है यहाँ तक के यही तदबीर बरबादी क सबब बन जाती है।

सय्यद रज़ी- यह बात दूसरे अन्दाज़ से पहले गुज़र चुकी है।

459- बुर्दबारी और सब्र दोनों जुड़वाँ हैं और इनकी पैदावार का सरचश्मा बलन्द हिम्मती है।

(((यह ग़लत मशहूर हो गया है के मजबूरी का नाम सब्र है, सब्र मजबूरी नहीं है, सब्र बलन्द हिम्मती है, सब्र इन्सान को मसाएब से मुक़ाबला करने की दावत देता है, सब्र इन्सान में अज़ाएम की बलन्दी पैदा करता है, सब्र पिछले हालात पर अफ़सोस करने के बजाय अगले हालात के लिये आमादगी की दावत देता है। “इन्ना एलैहे राजेऊन”)))

460- ग़ीबत करना कमज़ोर आदमी की आख़री कोशिश होती है। (((ग़ीबत के मानी यह हैं के इन्सान के उस ऐब का तज़किरा किया जाए जिसे वह ख़ुद पोशीदा रखना चाहता है और उसके इज़हार को पसन्द नहीं करता है। इस्लाम ने इस अमल को फ़साद की इशाअत से ताबीर किया है और इसी बिना पर हराम कर दिया है लेकिन अगर किसी मौक़े पर ऐब के इज़हार न करने ही में समाज या मज़हब की बरबादी का ख़तरा हो तो बयान करना जाएज़ बल्के बाज़ औक़ात वाजिब हो जाता है जिस तरह के इल्मे रिजाल में मरावियों की तहक़ीक़ का मसला है के अगर उनके उयूब पर पर्दा डाल दिया गया तो मज़हब के तबाह व बरबाद हो जाने का अन्देशा है और हर झूठा शख़्स रिवायात का अम्बार लगा सकता है।)))

461- बहुत से लोग अपने बारे में तारीफ़ ही से मुब्तिलाए फ़ित्ना हो जाते हैं।

462- दुनिया दूसरों के लिये पैदा हुई है और अपने लिये नहीं पैदा की गई है।

(((दुनिया की तख़लीक़ मक़सूद बिलज़ात नहीं है वरना परवरदिगार इसको दाएमी और अबदी बना देता। दुनिया को फ़ना करके आख़ेरत को मन्ज़रे आम पर ले आना इस बात की दलील है के उसकी तख़लीक़ आख़ेरत के मुक़दमे के तौर पर हुई है अब अगर कोई शख़्स इसे क़ुरबान करके आख़ेरत कमा लेता है तो गोया उसने सही मसरफ़ में लगा दिया वरना अपनी ज़िन्दगी भी बरबाद की और मौत को भी सही रास्ते पर नहीं लगाया।)))

463- बनी उमय्या में सबका एक ख़ास मैदान है जिसमें दौड़ लगा रहे हैं वरना जिस दिन इनमें इख़्तेलाफ़ हो गया तो उसके बाद बिज्जू भी उन पर हमला करना चाहेगा तो ग़ालिब आ जाएगा।

सय्यद रज़ी - मिरवद अरवाद से मिफ़अल के वज़्न पर है और अरवाद के मानी फ़ुरसत और मोहलत देने के हैं जो फ़सीहतरीन और अजीबतरीन ताबीर है जिसका मक़सद यह है के उनका मैदाने अमल यही मोहलते ख़ुदावन्दी है जिसमें सब भागे चले जा रहे हैं वरना जिस दिन यह मोहलत ख़त्म हो गई सारा निज़ाम दरहम व बरहम होकर रह जाएगा।

464- अन्सारे मदीना की तारीफ़ करते हुए फ़रमाया - ख़ुदा की क़सम इन लोगों ने इस्लाम को उसी तरह पाला है जिस तरह एक साला बच्चे नाक़ा को पाला जाता है अपने करीम हाथों और तेज़ ज़बानों के साथ।

465- आंख एक़ब का तस्मा है।

सय्यद रज़ी - यह एक अजीब व ग़रीब इसतआरा है जिसमें इन्सान के एक़ब को ज़र्फ़े को तशबीह दी गई है और उसकी आंख को तस्मा से तश्बीह दी गई है के जब तस्मा खोल दिया जाता है तो बरतन का सामान महफ़ूज़ नहीं रहता है। आम तौर से शोहरत यह है के पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का कलाम है लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) से भी नक़्ल किया गया है और इसका ज़िक्र किताबुल मुक़तज़ब में बाबुल फ़ज़ बिल हुरूफ़ में किया है।

(((मक़सद यह है के इन्सान की आंख ही उसकी तहफ़्फ़ुज़ का ज़रिया है सामने से हो चाहे पीछे से। लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस नेमते परवरदिगार की क़द्र करे और इस बात का एहसास करे के यह एक आंख न होती तो इन्सान का रास्ता चलना भी दुश्वार हो जाता। हमलों से तहफ़्फ़ुज़ तो बहुत दूर की बात है।)))

466- लोगों के काम का ज़िम्मेदार एक ऐसा हाकिम बना जो ख़ुद भी सीधे रास्ते पर चला और लोगों को भी उसी रास्ते पर चलाया। यहाँ तक के दीन ने अपना सीना टेक दिया।

(((शेख़ मोहम्मद अब्दा का ख़याल है के यह सरकारे दो आलम (स0) के किरदार की तरफ़ इशारा है के जब आपका इक़्तेदार क़ायम हो गया तो आपने लोगों को हक़ के रास्ते पर चलाना शुरू किया और इसका नतीजा यह हुआ के इस्लाम ने अपना सीना टेक दिया और उसे इस्तेक़रार व इस्तेक़लाल हासिल हो गया।)))

467- लोगों पर एक ऐसा सख़्त ज़माना आने वाला है जिसमें मवस्सर अपने माल में इन्तेहाई कंजूसी से काम लेगा हालांके उसे इस बात का हुक्म नहीं दिया गया है और परवररिदगार ने फ़रमाया है के “ख़बरदार आपस में हुस्ने सुलूक को फ़रामोश न कर देना।”इस ज़माने में अशरार ऊंचे हो जाएंगे और अख़्यार को ज़लील समझ लिया जाएगा। मजबूर व बेकस लोगों की ख़रीद व फ़रोख़्त की जाएगी हालांके रसूले अकरम (स0) ने इस बात से मना फ़रमाया है।

(((यहाँ मजबूर व बेकस से मुराद वह अफ़राद हैं जिनको ख़रीद व फ़रोख़्त पर मजबूर कर दिया जाए के इस्लाम ने इस तरह के मामले को ग़लत क़रार दिया है और इस शरा को ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया है। लेकिन अगर इन्सान को मामले पर मजबूर न किया और वह हालात से मजबूर होकर मामला करने पर तैयार हो जाए तो फ़िक़ही एतबार से इसमें कोई हर्ज नहीं है के इसमें इन्सान की रिज़ामन्दी शामिल है चाहे वह रज़ामन्दी हालात की मजबूरी ही से पैदा हुई हो)))

468- मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो जाएंगे - हद से आगे बढ़ जाने वाला दोस्त और ग़लत बयानी और अफ़तरपरवाज़ी करने वाला दुश्मन।

सय्यद रज़ी - यह इरशाद मिस्ल इस कलामे साबिक के है के “मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो गए ग़ूलू करने वाला दोस्त और अनाद रखने वाला दुश्मन”

469- आपसे तौहीद और अदालत के मफ़हूम के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के तौहीद यह है के उसकी वहमी तसवीर न बनाई जाए और अदालत यह है के इसके हकीमाना अफ़आल को मुतहम न किया जाए।

470- हिकमत की बात से ख़ामोशी इख़्तेयार करना कोई ख़ूबी नहीं, जिस तरह जेहालत के साथ बात करने में कोई भलाई नहीं है।

471-बारिश के सिलसिले में दुआ करते हुए फ़रमाया “ख़ुदाया, हमें फ़रमाबरदार बादलों से सेराब करना न के दुश्वारगुज़ार अब्रों से।

सय्यद रज़ी- यह इन्तेहाई अजीब व ग़रीब फ़सीह कलाम है जिसमें हज़रत ने गरज चमक और आन्धियों से भरे हुए बादलों को सरकश ऊँटों से तशबीह दी है जो दूहने में मुतीअ और सवारी में फ़रमाबरदार हों।

472-आपसे अर्ज़ किया गया के अगर आप अपने सफ़ेद बालों का रंग बदल देते तो ज़्यादा अच्छा होता ? फ़रमाया के ख़ेज़ाब एक ज़ीनत है लेकिन हम लोग हालाते मुसीबत में हैं (के सरकारे दोआलम (स0) का इन्तेक़ाल हो गया है)

(((इसमें कोई शक नहीं है के ख़ेज़ाब भी सरकारे दो आलम (स0) की सुन्नत का एक हिस्सा था और आप इसे इस्तेमाल फ़रमाया करते थे चुनांचे एक मरतबा हज़रत ने सरकार (स0) से अर्ज़ की के या रसूलल्लाह! इजाज़त है के मैं भी आपके इत्तेबाअ में ख़ेज़ाब इस्तेमाल करूं तो फ़रमाया नहीं उस वक़्त का इन्तेज़ार करो जब तुम्हारे मोहासिन तुम्हारे सर के ख़ून से रंगीन होंगे और तुम सजदए परवरदिगार में होगे। यह सुनकर आपने अर्ज़ की के या रसूलल्लाह इस हादसे में मेरा दीन तो सलामत रहेगा ? फ़रमाया बेशक! जिसके बाद आप मुस्तक़िल उस वक़्त का इन्तेज़ार करने लगे और अपने को राहे ख़ुदा में क़ुरबान करने की तैयारी में मसरूफ़ हो गए।)))

473- राहे ख़ुदा में जेहाद करके शहीद हो जाने वाला इससे ज़्यादा अज्र का हक़दार नहीं होता है जितना अज्र उसका है जो इख़्तेयारात के मावजूद इफ़फ़त से काम ले के अफ़ीफ़ व पाकदामन इन्सान क़रीब है के मलाएकाए आसमान में शुमार हो जाए।

(((यह बात तय शुदा है के राहे ख़ुदा में क़ुरबानी एक बहुत बड़ा कारनामा है और सरकारे दो आलम (स0) ने भी इस शहादत को तमाम नेकियों के लिये सरे फ़ेहरिस्त क़रार दिया है लेकिन इफ़्फ़त एक ऐसा अज़ीम ख़ज़ाना है जिसकी क़द्र व क़ीमत का अन्दाज़ा करना हर एक के बस का काम नहीं है ख़ुसूसियत के साथ दौरे हाज़िर में जबके अज़मत का तसव्वुर ही ख़त्म हो गया है और दामाने किरदार के दाग़ों ही को सबबे ज़ीनत तसव्वुर कर लिया गया गया है वरना इफ़्फ़त के बग़ैर इन्सानियत का कोई मफ़हूम नहीं है और वह इन्सान , इन्सान कहे जाने के क़ाबिल नहीं है जिसमें इफ़्फ़ते किरदार न पाई जाती हो। अफ़ीफ़ुल हयात इन्सान मलाएका में शुमार किये जाने के क़ाबिल इसीलिये है के इफ़फ़ते किरदार मलाएका का एक इम्तियाज़ी कमाल है और उनके यहाँ तरदामनी का कोई इमकान नहीं है लेकिन इसके बाद भी अगर बशर इस किरदार को पैदा कर ले तो इसका मरतबा मलाएका से अफ़ज़ल हो सकता है। इसलिये के मलाएका की इफ़फ़त क़हरी है और इसका राज़ इन जज़्बात और ख़्वाहिशात का न होना है जो इन्सान को खि़लाफ़े इफ़फ़त ज़िन्दगी पर आमादा करते हैं और इन्सान इन जज़्बात व ख़्वाहिशात से मामूर है लेहाज़ा वह अगर इफ़्फ़ते किरदार इख़्तेयार कर ले तो इसका मरतबा यक़ीनन मलाएका से बलन्दतर हो सकता है।)))

474- क़नाअत वह माल है जो कभी ख़त्म होने वाला नहीं है।

सय्यद रज़ी- बाज़ हज़रात ने इस कलाम को रसूले अकरम (स0) के नाम से नक़्ल किया है।

475- जब अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने जि़याद अबीह को फ़ारस और उसके एतराफ़ पर क़ायम मुक़ाम बना दिया तो एक मरतबा पेशगी ख़ेराज वसूल करने से रोकते हुए ज़ियाद से फ़रमाया के ख़बरदार- अद्ल को इस्तेमाल करो और बेजा दबाव और ज़ुल्म से होशियार रहो के दबाव अवाम को ग़रीबुलवतनी पर आमादा कर देगा और ज़ुल्म तलवार उठाने पर मजबूर कर देगा।

476- सख़्त तरीन गुनाह वह है जिसे इन्सान हलका तसव्वुर कर ले।

477- परवरदिगार ने जाहिलों से इल्म हासिल करने का अहद लेने से पहले ओलमा से तालीम देने का अहद लिया है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

478- बदतरीन भाई वह है जिसके लिये ज़हमत उठानी पड़े।

सय्यद रज़ी - यह इस तरह के तकलीफ़ से मशक़्क़त पैदा होती है और वह शर है जो उस भाई के लिये बहरहाल लाज़िम है जिसके लिये ज़हमत बरदाश्त करना पड़े।

479-अगर मोमिन अपने भाई से एहतेशाम करे तो समझो के उससे जुदा हो गया।

सय्यद रज़ी‘- चश्महु अहशमहू उस वक़्त इस्तेमाल होता है जब यह कहना होता है के उसे ग़ज़बनाक कर दिया या बक़ौले शर्मिन्दा कर दिया इस तरह एहतशमहू के मानी होंगे “उससे ग़ज़ब या शरमिन्दगी का तक़ाज़ा किया- ज़ाहिर है के ऐसे हालात में जुदाई लाज़मी है।

(((यह हमारे अमल की आखि़री मन्ज़िल है जिसका मक़सद अमीरूल मोमेनीन (अ0) के मुन्तख़ब कलाम का हिन्दी में शाया करना था और ख़ुदा का शुक्र है के उसने हम पर यह एहसान किया के हमें आप (अ0) के मुक़द्दस कलेमात को बक़द्रे मुकम्मल करने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमाई। हमारी तौफ़ीक़ सिर्फ़ परवरदिगार से वाबस्ता है और उसी पर हमारा भरोसा है , वही हमारे लिये काफ़ी है और वही हमारा कारसाज़ है और यह काम माहे रजब1432 हिजरी में इख़्तेताम को पहुंचा है (माहे रजब में ही मौलाए कायनात हज़रत अली (अ0) की विलादत के मौक़े पर एक कोशिशे मेहनत है) अल्लाह हमारे सरदार हज़रत ख़ातेमुल मुरसलीन और सिलसिलए हिदायत के सरचश्मों पर रहमत नाज़िल करे। व आख़ेरु दावाना अनिल हम्द)))

(टाइपिंग वग़ैरा की ग़लतियों के लिये माज़ेरत ख़ाँ हूँ)