दीनियात और नमाज़

दीनियात और नमाज़ लेखक:
कैटिगिरी: मसाइल

दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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दीनियात और नमाज़

दीनियात और नमाज़

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

दीनियात और नमाज़

लेखकः मौलाना फरमान अली साहब

मुक़्द्देमा

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

इस एक अकेले ने सारे जहांन में ज़मीन का फ़र्श बिछाया ,उस पर रंग बिरंगे के गुलबूटे छापे ,आसमान का शामयाना बनाया ,उसमें सीतारों की चमकीली चमकियां टांकी ,आफ़ताब व महताब की कंदीले लटकाई। एक को रौशन और दूसरे को बुझा कर रात दिन की सैर कराता है ,अपनी क़ुदरत के तमाशे दिखाता है। इसका वज़ीर बेनज़ीर है ,यह उसकी कहानी है और क़ुदरती क़िस्सों को हमें यूँ कह सुनाता है।

उसूल-ए-दीन

यानी दीन की जड़े पाँच हैं

(1)तौहीद , (2)अदल , (3)नबूव्वत , (4)इमामत , (5)क़यामत

तौहीद- यानी ख़ुदा एक है ,क्योंकि अगर कई ख़ुदा होते तो जहांन के इन्तेज़ाम में बखेङा होता ,एक ख़ुदा कुछ कहता और दूसरा कुछ कहता ,इससे आपस में तकरार होती और कोई चीज़ पैदा ना हो सकती।

अदल- यानी ख़ुदा इंसाफ़वर है ,ज़ालिम नहीं है क्योंकि ज़ुल्म करना बूरी चीज़ है और ख़ुदा हर बुराई से पाक है।

नबूव्वत- ख़ुदा ने एक लाख चौबीस हज़ार पैग़म्बर पैदा किये ,अव्वल हज़रत आदम (अ 0),आख़ीर इनके हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स 0)हैं ,बाद हज़रत के ना कोई पैग़म्बर हुआ है ना होगा।

इमामत- यानी हर पैग़म्बर ने अपने बाद किसी को अपना नाएब मुर्क़रर किया है ,इसी तरह हमारे पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद मुसतफ़ा (स 0)ने भी अपना नाएब मुर्क़रर फ़रमाया और वोह सब बरहक़ हैं और मासूम हैं ,इन सबका हुक्म बजा लाना भी हम लोगों पर वाजिब है।

क़यामत- यानी एक रोज़ ऐसा होगा कि सब के सब मर जायेगें ,सिवाये ज़ाते ख़ुदा के कुछ बाक़ी ना रहेगा। ना आसमान ना ज़मीन ,ना आफ़ताब ना महताब ,फिर ख़ुदा उनके बदनों में रूह को दाख़िल करेगा ,और हिसाब वग़ैरा के बाद नेकों को बहिश्त में और बदों को दोज़ख़ में भेजेगा।

इमाम बारह हैं

(1)पहले इमाम हज़रत अली अ 0।

(2)दूसरे इमाम हज़रत हसन अ 0।

(3)तीसरे इमाम हज़रत हुसैन अ 0।

(4)चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुलआबिदीन अ 0।

(5)पाँचवे इमाम हज़रत मोहम्मद बाक़िर अ 0।

(6)छठे इमाम हज़रत जाफ़र सादिक़ अ 0।

(7)सातवे इमाम हज़रत मुसा काज़िम अ 0।

(8)आठवें इमाम हज़रत अली रिज़ा अ 0।

(9)नवे इमाम हज़रत मोहम्मद तक़ी अ 0।

(10)दसवें इमाम हज़रत अली नक़ी अ 0।

(11)ग्यारहवें इमाम हज़रत हसन असकरी अ 0।

(12)बारहवें इमाम हज़रत महेदी आख़िरूज़्ज़ामन अ 0।

बारहवें इमाम- बारहवें इमाम अभी तक ज़िन्दा हैं मगर ख़ुदा के हुक्म से हम लोगों की नज़रों से पोशीदा हैं और यूँही पोशीदा रहेगें। जब ख़ुदा का हुक्म होगा तब दुनिया में ज़ाहिर होगें ,उस वक़्त सब लोग एक दीन और मज़हब पर होंगे ,इसी हाल पर दुनिया बरसो क़ायम रहेगी।

चौदह मासूम

जनाबे रसूले ख़ुदा (स. अ.) और जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (अ.) और बारह इमाम (अ.) हैं।

सिफ़ात-ए-सुबूतिया

जो बातें ख़ुदा में पाई जाती हैं वो आठ हैं।

(1)क़दीम: यानी हमेंशा से है और हमेंशा रहेगा।

(2)क़ादिर: यानी हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

(3)आलिम: यानी हर चीज़ का जानने वाला है।

(4)मुदरिक: यानी बग़ैर आँख ,कान वग़ैरा के हर चीज़ दर्याफ़्त करने वाला है।

(5)हई: यानी हमेशा से है और हमेशा ज़िन्दा रहेगा।

(6)मुरीद: यानी हर काम अपने इरादे और अख़त्यार से करता है।

(7)मुतकल्लिम: यानी जिस चीज़ में चाहे कलाम पैदा करे।

(8)सादिक़ यानी: वो हर बात में सच्चा है।

सिफ़ात-ए-सलबिया

जो बातें ख़ुदा में नहीं पाई जाती हैं आठ है।

(1)मुरक्कब नहीं: यानी किसी चीज़ से मिलकर नहीं बना।

(2)जिस्म नहीं: हाथ और पाँव वग़ैरा नहीं रखता।

(3)मकान नहीं उसके रहने की एक जगह नहीं बल्कि हर जगह मौजूद है।

(4)हुलूल नहीं: यानी किसी में समाता नहीं।

(5)मरई नहीं: यानी दिखने में नहीं आता।

(6)महले हवादिस नही: यानी वो एक हाल से दुसरे हाल की तरफ़ नहीं बदलता।

(7)शरीक अपना नहीं रखता।

(8)यह सिफ़तें उसकी ज़ात से अलग नहीं बल्कि सब ऐन ज़ात हैं।

नाम-ए-आमाल

यानी दो फ़रीश्तें ख़ुदा की तरफ़ से हर शख़्स पर मोक़र्रर हैं ,इसके सब काम अच्छे और बुरे लिखते हैं ,एक फ़रिश्ता अच्छे कामों को और दूसरा बुरे कामों को।

सवाल मुनकिर व नकीर

यानी क़ब्र में मुर्दे को दफ़्न करने के बाद तो फ़रिश्ते आते हैं और मुर्दो की रूह को ब हुक्में ख़ुदा फिर जिस्म में दाख़िल करके पूछते हैं।

सवाल                              जवाब

तेरा ख़ुदा कौन है ?               परवरदिगार

तेरा दीन क्या है ?                इस्लाम

तेरा पैग़म्बर कौन है ?             हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स 0)

तेरा इमाम कौन है ?              हज़रत अली ता बारह इमाम (अ 0)

तेरा क़िब्ला क्या है ?              क़ाबा मोहतरम

बस जो शख़्स ईमानदार है और इन बातों का एतेक़ाद दिल से रखता है ,और ठीक-ठीक साफ़-साफ़ जवाब देता है तब वोह फ़रिश्ते उसको बहिश्त की ख़ुशख़बरी देकर चले जाते हैं ,और जो शख़्स इन बातों का जवाब ठीक नहीं देता उसको फ़रिश्ते आग के गुर्ज़ मारते हैं और दोज़ख़ की ख़बर देकर चले जाते हैं।

हिसाब

यानी क़यामत के रोज़ हर शख़्स की बदी और नेकी देखी जाऐगी ,जिसने जो कुछ अच्छा या बुरा काम किया है उसका हिसाब होगा और उसके मवाफ़िक जज़ा या सज़ा पाऐगा।

मीज़ान

यानी बरोज़े क़यामत हर शख़्स के आमाल ख़ुदा की क़ुदरत के तराज़ू में तोले जायेगे ,अगर नेक कामों का पल्ला भारी होगा तो उसको अच्छा बदला मिलेगा ,और जिसके बुरे कामों का पल्ला भारी होगा उसको सज़ा मिलेगी।

सिरात

ये एक पुल का रास्ता है ,बाल से ज़्यादा बारीक और तलवार की धार से ज़्यादा तेज़ ,और आग से ज़्यादा गर्म दोज़ख़ पर क़ायम किया जायेगा। इस पर से लोगों को गुज़रना होगा ,जो लोग कामिल ईमान रखते हैं ,जिन्होंने ख़ुदा और उसके रसूल (स 0)और इमामों की पुरी ताबेदारी की है वह लोग मिस्ल हवा के उस पर से गुज़र जाऐगें। जिन लोगों ने इसके ख़िलाफ़ किया हैं और गुमराह रहें हैं उन से इस पर ना चला जायेगा और दोज़ख़ में गिरेगें।

बहिश्त

ऐसी पाकीज़ा व लतीफ़ आरास्ता ऐश व आराम की जगह है कि यहाँ के बादशाहों को इसके सौवें हिस्से में से एक हिस्सा भी नसीब नहीं ,वहाँ किसी तरह की फ़िक्र और ग़म और बिमारी और दुख नहीं ,जो दाख़िल होगा वो हमेंशा की ज़िन्दगी पाकर ऐश व आराम से रहेगा।

दोज़ख़

ऐसी सख़्त अज़ाब की जगह है कि जितनी अज़ीयतें ,दुख और दर्द रंज ,आफ़ते यहाँ पेश आती हैं ,इन सब से हज़ार दर्जे ज़्यादा वहाँ हमेंशा के लिये होगी।

शिफ़ाअत

यानी क़यामत के दिन जनाबे रसूले ख़ुदा (स 0)और उनके अहलेबैत अतहार (अ 0)गुनाहगार बन्दों की सिफ़ारिश करेगें जो लोग उनकी मोहब्बत और ताबेदारी से बाहर रहे हैं वह शिफ़ाअत से महरूम रहेंगे और जो ताबेदारी में सर गर्म रहे हैं ख़ुदा उनको बख़्श देगा।

कलमा

ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मदु रसूलुल्ला अलीयुन वलीयुल्लाहे वसीयो रसूलिल्लाहे व ख़ली फ़तहू बिला फ़स्ल ।

(तरजुमा: अल्लाह के अलावा कोई और ख़ुदा नहीं ,मोहम्मद अल्लाह के पैग़म्बर हैं। अली अल्लाह के वली हैं और रसूले ख़ुदा के वसी हैं और बिला फ़स्ल रसूल के ख़लीफ़ा हैं।)

दुरूद

अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिन व आले मुहम्मद ।

(तरजुमा: ऐ अल्लाह अपने रसूल मोहम्मद मुस्तफ़ा (स 0)और उनकी औलादे ताहेरा पर दरूद भेज।)

फ़ुरू-ए-दीन

यानी दीन की शाख़ें ,और वो छ: हैं।

(1)नमाज़

(2)रोज़ा

(3)ख़ुम्स

(4)हज

(5)जिहाद

औक़ाते नमाज़

 हर रोज़ पाँच वक़्त की नमाज़ वाजिब है ,सुबह की दो रकअत ,ज़ोहर की चार रकअत ,अस्र की चार रकअत ,मग़रिब की तीन रकअत ,ऐशा की चार रकअत ,इन नमाज़ों के पढ़ने की तरकीब यह कि नमाज़ पढ़ने के क़ब्ल हर तरह की नजासत से बदन और कपङो का पाक होना और वुज़ू या ग़ुस्ल या ज़रूरत पर तयम्मुम कर लेना ज़रूरी है।

वुज़ू की तरकीब

पाक पानी से पहले दोनो हाथों को गट्टे तक दो मर्तबा धोयें ,फिर तीन मर्तबा कुल्ली करें ,फिर तीन मर्तबा नाक में पानी डालें ,फिर वुज़ू की नियत इस तरह करें कि वुज़ू करता हूँ मैं वास्ते दूर होने हदस के और मुबाह होने नमाज़ के वाजिब क़ुर्बतन इलल्लाह  साथ ही नियत के एक चुल्लू पानी मुंह पर डालें ,इस तरह की इब्तेदाई पेशानी से ठुड्डी के नीचे तक और चौङाई में दोनों कानों की जङ के क़रीब तक धोये इसके बाद दाहिने हाथ की कोंहनी कुछ ऊपर से उंगलियों के सिरे तक धोयें ,इसके बाद बाँए हाथ को भी इसी तरह धोयें ,इसके बाद सिर का मसह करें ,यानि हाथ की उंगलियाँ तालू से बालों के इन्तेहा तक खीचें ,इसके बाद दाहिने हाथ से दाहिने पाँव का और बायें हाथ से बायें पाँव का यानी दोनो पाँव की उंगलियों से गट्टे तक मसह करें।

तयम्मुम

अगर पानी ज़रर करता हो ,या ना मिलता हो ,या ग़स्बी हो ,और वक़्ते नमाज़ हो तो ग़ुस्ल या वुज़ू के बदले तयम्मुम करना चाहिये पहले नियत करें कि तयम्मुम करता हूँ या करती हूँ बदले ग़ुस्ल या वुज़ू के वास्ते मुबाह होने नमाज़ के वाजिब क़ुर्बतन इलल्लाह और इसके बाद फ़ौरन दोनों होथों को एक मर्तबा ख़ाक पर मारें ,बाद इसके हाथों को मिलाकर पेशानी के ऊपर से नाक तक खींचे ,इसके बाद बायें हथेली से दाहिने हाथ की पुश्त पर गट्टे से उंगलियों के सिरे तक मसह करे इसके बाद बायें हाथ की पुश्त पर गट्टे से उंगलियों के सिरे तक मसह करे ,मिट्टी पाक हो ,कोई चीज़ इसमें मिली न हो और हाथ से अंगूठी वग़ैरा उतार दें।

अज़ान

वुज़ू के बाद जब नमाज़ का इरादा करें तो पहले इस तरह चार मर्तबा बा आवाज़ बलन्द अल्लाहो अकबर (ख़ुदा बुज़ुर्ग है) कहें ,फिर दो मर्तबा अश्हदो अल्ला इलाहा इलल्लाह (गवाही देता हूँ ब तहक़ीक ख़ुदा कोई नहीं ब जुज़ अल्लाह के) फिर दो मर्तबा कहें अश्हदो अन्ना मोहम्मदर रसूलुल्लाह (गवाही देता हूँ ब तहक़ीक मोहम्मद अल्लाह के रसूल हैं) फिर दो मर्तबा कहें अश्हदो अन्ना अमीरल मोअमेनीना व इमामल मुत्तक़ीना अलीयव वली युल्लाह वसीयो रसूलिल्लाहे व ख़लीफ़तोहू बिला फ़स्ल (गवाही देता हूँ की ब तहक़ीक अली अ 0मोमिनों के अमीर और मुत्तक़ियों के इमाम ,अल्लाह के वली हैं पैग़म्बरे ख़ुदा के वसी और ख़लीफ़ बिला फ़स्ल हैं) फिर दो मर्तबा कहें हय्या अलस्सलाह (नमाज़ के लिये आमादा हों) फिर दो मर्तबा कहें हय्या अललफ़लाह (फ़लाहयत के लिये आमादा हो) फिर दो मर्तबा कहें हय्या अला ख़ैरिल अमल (बेहतरीन अमल के लिये आमादा हों) फिर दो मर्तबा कहें अल्लाहो अकबर (अल्लाह बुज़ुर्ग है) फिर दो मर्तबा कहें ला इलाहा इलल्लाह (अल्लाह के सिवाये कोई माबूद नहीं)।

बाद इसके बैठ जायें और यह दुआ पढ़े

अल्लाहुम्मज अल क़लबी बार रवं व अमली सार रवं व ऐशी क़ार रवं व रिज़्क़ी दारवं व औलादी अबरारवं वज अलली इन्दा क़ब्रे नबीय्येका मुहम्मदिन सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम मुसतक़र रवं वाक़रारन बे रहमते का या अरहमर राहेमीन ।

(तर्जुमा: ऐ पालने वाले मेरे क़ल्ब को नेक और मेरे ऐश को बरक़रार और अमल को जारी रख और मेरे रिज़्क़ को और हमेशगी और मेरी औलाद को नेकोकारी अत फ़रमा ,और मेरे लिये अपने नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की क़ब्र के नज़दीक अता करना ,और इन पर अल्लाह की रहमत और दुरूद और इनकी आल पर सलाम इसतक़रार और बरक़रारी अपनी रहमत के साथ अता फ़रमा ऐ बहुत रहम वाले)

दुआ पढ़ने के बाद इस तरह अक़ामत कहें

अक़ामत

अल्लाहो अकबर दो मर्तबा बाद इसके सब अरकान अज़ान की तरह बजा लायें मगर हय्या अला ख़ैरिल अमल के बाद दो मर्तबा क़द क़ामतिस्सलाह को ज़्यादा करे और ला इलाहा इल्लल्लाह एक मर्तबा कहे। इसके बाद नमाज़ शुरू करें.

तरकीब नमाज़

अक़ामत के बाद सीधा खङा हो क़िब्ला की तरफ़ मुंह करके और इस तरह नियत करें नमाज़ पढ़ता हूँ मैं (जैसे) सुबह की दो रकअत वाजिब क़ुर्बतन इलल्लाह इसके साथ ही तकबीर कहें यानी अल्लाहु अकबर ब आवाज़ बलन्द कहें ,इसके बाद हम्द बिस्मिल्लाह के साथ पढ़ें।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो रहमान रहीम है।

अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन ,अर रहमानिर रहीम ,मालिके यौमिद्दीन ,ईय्याका नअबोदो व इय्याका नसताईन ,एहदिनस्सिरातल मुस्तक़ीम ,सिरातल्लज़ीना अन अमता अलैहिम ग़ैरिल मग़ज़ूबे अलैहिम वलज़्ज़ल्लीन ।

(तर्जुमा : सब तारीफ़े अल्लाह के लिये जो तमाम आलमों का पालने वाले है जो बङा रहम करने वाला है ,क़यामत के दिन का मालिक है। हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझसे ही मदद चाहते हैं। हम को सीधी राह पर बाक़ी रख उन लोगों की राह पर जिनपर अपनी नेमतें नाज़िल फ़रमाई ,न उन लोगों की राह जिन पर तूने अपना ग़ज़ब नाज़ील किया और न गुमराहों की।)

बाद अलहम्द के जो सूरा चाहे पढ़े इख़्तेयार है।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो रहमान रहीम है।

इन्ना अनज़लनाहो फ़ी लैलतिल क़द्र वमा अदरका मा लैलतुल क़द्र लैलतुल क़द्रे ख़ैरूम मिन अलफ़े शहर ,तनज़्ज़लुल मलाएकतो वर रूहो फ़ीहा बेइज़्ने रब्बेहिम मिन कुल्ले अमरिन सलामुन हियाहत्ता मतलाईल फ़ज्र ।

(तर्जुमा- ब तहक़ीक़ हमने क़ुर्आन को शबे क़द्र में नाज़ील किया ,और तू नहीं जानता कि शबे क़द्र कैसी शब है ,शबे बेहतर है हज़ारो महीनों से। अपने परवरदिगार के हुक्म से इस शब में मलायेका और रूह नाज़िल होते हैं ,यह शब आबीदों के लिये हर अमल बाअसे सलामती है यहा तक की तुलूए सुबह हो।)

फिर अल्लाहु अकबर कह कर रूकूउ में जाये और तीन मर्तबा सुबहाना रब्बेयल अज़ीमे व बेहमदेह कहे। (यानी तस्बीह करता हूँ मैं अपने उस परवरदिगार बुज़ुर्ग की और हम्द उसकी।) फिर सिधा खङे हो और समे अल्लाहोलेमन हमेदह कहे (ख़ुदा वन्दे आलम उसका कलाम सुनता है जो उसकी हम्द करता है) फिर अल्लाहो अकबर कह कर सजदे में जायें और तीन मर्तबा कहें सुब्हाना रब्बेयल आला व बेहमदेह (तस्बीह करता हूँ अपने परवरदिगार की जो सबसे ज़्यादा बुज़ुर्ग है और हम्द उसकी) बाद इसके सर उठायें और अल्लाहो अकबर कह कर बैठें और एक मर्तबा असतग़ फ़ेरूल्लाहा रब्बी व अतूबो इलैह कहें (बख़्शीश चाहता हूँ अपने परवरदिगार से अपने गुनाहों की) फिर अल्लाहो अकबर कहें और दोबारा सजदें में जायें और तीन बार कहें सुब्हाना रब्बेयल आला व बेहमदेह और सजदे से सर उठायें और अल्लाहो अकबर कहें और बैठे ,बाद उसके बेहोलिल्लाहे व क़व्वतेही अक़ूमो व अक़ुद (यानी उसी अल्लाह की क़ुव्वत और मदद से खङा होता हूँ और बैठता हूँ) कह के सीधा खङा हो। रकअत अव्वल तमाम हुई।

 दूसरी रकअत

मिस्ल रकअत अव्वल बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कह कर सूरा हम्द पढ़ें। इसके बाद सुरा क़ुल होवल्लाहो अहद ,पढ़े।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो रहमान रहीम है।

क़ुल होवल्लाहो अहद ,अल्ला हुस्समद ,लम यलिद वलम यूलद ,वलम यकुल्लाहू कोफ़ोवन अहद ।

(तर्जुमा- कहदो ऐ रसूल अल्लाह एक है और वह बेनियाज़ है। कोई उससे पैदा नहीं हुआ और न वह किसी से पैदा हुआ और न कोई उसका मिस्ल है।) इसके बाद दोनो हाथों को मुंह के बराबर उठायें और यह दुआ-ए-क़ुनूत पढ़े।

रब्बनग़फ़िरली वले वालेदय्या व लिलमोमिनीना ,यौमा यक़ूमुल हिसाब अल्लाहुम्मग़फ़िरलना वरहमना व आफ़ेना व अफ़ोअन्ना फ़िद्दुनिया वल आख़ेरह इन्नाका अला कुल्ले शैइन क़दीर।

(तर्जुमा- ऐ हमारे पालने वाले क़यामत के दिन हमको और हमारे वालदैन और तमाम मोमिनों को बख़्श दें। परवरदिगार हमारी और तमाम मोमिनों की बख़्शीश कर और दुनिया और आख़ेरत में आफ़ियत अता फ़रमा ब तहक़ीक़ की तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है।)

इसके बाद दुरूद पढ़ कर मिस्ल रकअत अव्वल के रूकूउ और दोनों सजदे बजा लाये ,जब सजदे से सर उठाये अल्लाहो अकबर कह कर दो ज़ानू बैठे और तशहुद पढ़ें।

अशहदो अल्लाइलाहा इल्लल्लाह वहदहूलाशरीका लहू व अशहदो अन्ना मुहम्मदन अबदोहू व रसूलोह।

(तर्जुमा- गवाही देता हूँ कि कोई ख़ुदा सिवाये अल्लाह के नहीं है ख़ुदा एक है और इसका कोई शरीक नहीं और गवाही देता हूँ की मोहम्मद मुस्तफ़ा (स 0अ 0)इसके बन्दे और रसूल हैं।) इसके बाद दुरूद पढ़ें ,अगर नमाज़ दो रकअत है तो यूँ सलाम पढ़ें।

अस्सालो अलैका अय्योहन्नबीयो व रहमतुल्लाहे व बराकातूह ,अस्सलामो अलैना व अला एबादिल्लाहिस्सालिहीन ,अस्सालामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरादातूह।

(तर्जुमा- ऐ पैग़म्बरे ख़ुदा आप पर सलाम हो और अल्लाह की रहमतें और बरकतें हो सलाम हो हम पर और ख़ुदा के नेक बन्दों पर और सलाम हो सब पर और अल्लाह की रहमत और उसकी बरकत।)

अगर नमाज़ सह (तीन) रकअती हो या चार रकअती तो सलाम न पढ़ें ,और तशहुद पढ़ कर उठ खङा हो और फ़क़्त सूरा हम्द या जो सूरा याद हो पढ़े और रूकूउ और दोनों सजदे मिस्ल साबिक़ बजा लाये अगर नमाज़ सह रकअती है तो बाद तीसरी रकअत के और अगर चार रकअती है तो बाद चौथी रकअत के तशहुद और सलाम पढ़ कर नमाज़ तमाम करे फिर तीन मर्तबा अल्लाहो अकबर हाथों को कानो तक लेजा कर कहें।

इसके बाद दुरूद और तसबीह जनाबे सय्यदा (स 0अ 0) 34मर्तबा अल्लाहो अकबर और 33मर्तबा अलहम्दो लिल्लाह और 33मर्तबा सुब्हानल्लाह पढ़े। इस के बाद दुआयें और क़ुरआन मजीद और जोशनीन वग़ैरा पढ़ें और बावास्ता पंजतन पाक (अ 0)और बाराह इमाम (अ 0)बरादरान मोमिन ज़िन्दा और मुर्दा के लिये दुआ-ए-ख़ैर करें और अपनी हाजतें ख़ुदा से तलब करे और बाद इसके ज़ेयारत इमाम हुसैन (अ 0)रोज़-ए-अक़दस की तरफ़ इशारा करके पढ़ें।

नमाज़ जमाअत

इस्लाम एक कामिल और एजतेमाई दीन है। यही वजह है कि इस्लाम नमाज़े जमाअत को बहुत अहमियत देता है। क्योंकि नमाज़े जमाअत मज़हरे वहदत व उल्फ़त व नज़म व ज़ब्त और क़ुव्वते (ताक़त) मुसलेमीन है।

हदीस में आया है कि अगर एक आदमी इमाम जमाअत की एकतेदा करे तो हर रकअत का सवाब एक सौ पचास नमाज़ों का है। अगर दो आदमी हों तो छ: सौ नमाज़ो का सवाब है। इसी तरह जितने मुक़्तदी ज़्यादा होते जायेगें ,सवाब में इज़ाफ़ा होता जायेगा। लेकिन जब या इससे ज़्यादा मुक़्तदी हो जायें तो अगर तमाम आसमान कागज़ बन जाये ,तमाम दरया सियाही बन जाये ,तमाम दरख़्त क़लम बन जायें और तमाम जिन व इन्स व मलायका लिखने वाले हों तो एक रकअत का भी सवाब नहीं लिख सकते। लापरवाही की वजह से जमाअत में हाज़िर ना होना जाएज़ नहीं है। और बग़ैर उज्र के नमाज़े जमाअत तर्क करना मुनासिब नहीं है( 1)।

((1)इमाम ख़ुमैनी ,आक़ाए ख़ुई ,आक़ाए गुलपाएगानी ,आक़ाए मोहम्मद अली अराक़ी)

18- आपकाइरशादेगिरामी

(उलमा के दरमियान इख़तेलाफ़े फ़तवा के बारे में और इसी में अहल राय की मज़म्मत और क़ुरआन की मरजईयत का ज़िक्र किया गया है)

मज़म्मत अहल राय- उन लोगों का आलम यह है के एक शख़्स के पस किसी मसले का फ़ैसला आता है तो वह अपनी राय से फ़ैसला कर देता है और फ़िर यही क़ज़िया बअय्यना दूसरे के पास जाता है तो वह उसके खि़लाफ़ फ़ैसला कर देता है। इसके बाद तमाम क़ज़ात इस हाकिम के पास जमा होते हैं जिसने इन्हें क़ाज़ी बनाया है तो वह सबकी राय से ताईद कर देता है जबके सबका ख़ुदा एक, नबी एक और किताब एक है तो क्या ख़ुदा ही ने इन्हें इख़्तेलाफ़ का हुक्म दिया है और यह इसी की इताअत कर रहे हैं या उसने उन्हें इख़्तेलाफ़ से मना किया है मगर फ़िर भी इसकी मुख़ालेफ़त कर रहे हैं? या ख़ुदा ने दीने नाक़िस नाज़िल किया है और उनसे इसकी तकमील के लिये मदद मांगी है या यह सब ख़ुद इसकी ख़ुदाई ही में शरीक हैं और इन्हें यह हक़ हासिल है के यह बात कहें और ख़ुदा का फ़र्ज़ है के वह क़ुबूल करे या ख़ुदा ने दीने कामिल नाज़िल किया था और रसूले अकरम (स) ने इसकी तबलीग़ और अदायगी में कोताही कर दी है, जबके इसका एलान है के हमने किताब में किसी तरह की कोताही नहीं की है और इसमें हर शै का बयान मौजूद है -2-। और यह भी बता दिया है के इसका एक हिस्सा दूसरे की तस्दीक़ करता है और इसमें किसी तरह का इख़्तेलाफ़ नहीं है। यह क़ुरआन ग़ैर ख़ुदा की तरफ़ से होता तो इसमें बेपनाह इख़्तेलाफ़ात होता। यह क़ुरआन वह है जिसका ज़ाहिर ख़ूबसूरत और बातिन अमीक़ और गहराए। इसके अजाएब फ़ना होने वाले नहीं हैं और तारीकियों का ख़ात्मा इसके अलावा और किसी कलाम से नहीं हो सकता है।

19- आपका इरशादे गिरामी

(जिसे उस वक़्त फ़रमाया जब मिम्बरे कूफ़े पर ख़ुत्बा दे रहे थे और अशअस बिन क़ैस ने टोक दिया के यह बयान आप ख़ुद अपने खि़लाफ़ दे रहे हैं। आपने पहले निगाहों को नीचा करके सुकूत फ़रमाया और फिर पुरजलाल अन्दाज़ से फ़रमाया)

तुझे क्या ख़बर के कौन सी बात मेरे मवाफ़िक़ है और कौन सी मेरे खि़लाफ़ है। तुझ पर ख़ुदा और तमाम लाअनत करने वालों की लानत, तू सुख़न बाफ़ और ताने बाने दुरूस्त करने वाले का फ़रज़न्द है। तू मुनाफ़िक़ है और तेरा बाप खुला हुआ काफ़िर था। ख़ुदा की क़सम तू एक मरतबा कुफ्ऱ का क़ैदी बना और दूसरी मरतबा इस्लाम का। लेकिन न तेरा माल काम आया न हसब। और जो शख़्स भी अपनी क़ौम की तरफ़ तलवार को रास्ता बताएगा और मौत को खींच कर लाएगा वह इस बात का हक़दार है के क़रीब वाले उससे नफ़रत करें और दूर वाले इस पर भरोसा न करें।

सय्यद रज़ी - - इमाम (अ) का मक़सद यह है के अशअत बिन क़ैस एक मरतबा दौरे कुफ्ऱ में क़ैदी बना था और दूसरी मरतबा इस्लाम लाने के बाद। तलवार की रहनुमाई का मक़सद यह है के जब यमामा में ख़ालिद बिन वलीद ने चढ़ाई की तो उसने अपनी क़ौम से ग़द्दारी की और सबको ख़ालिद की तलवार के हवाले कर दिया जिसके बाद इसका लक़ब “उरफ़ुल नार”हो गया जो उस दौर में हर ग़द्दार का लक़ब हुआ करता था।

20- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें ग़फ़लत से बेदार किया गया है और ख़ुदा की तरफ़ दौड़कर आने की दावत दी गई है।)

यक़ीनन जिन हालात को तुमसे पहले मरने वालों ने देख लिया है अगर तुम भी देख लेते तो परेशान व मुज़तरिब हो जाते और बात सुनने और इताअत करने के लिये तैयार हो जाते लेकिन मुश्किल यह है के अभी वह चीज़ तुम्हारे लिये पस हिजाब हैं और अनक़रीब यह परदा उठने वाला है। बेशक तुम्हें सब कुछ दिखाया जा चुका है अगर तुम निगाह बीना रखते हो और सब कुछ सुनाया जा चुका है अगर तुम गोश शनवार रखते हो और तुम्हें हिदायत दी जा चुकी है अगर तुम हिदायत हासिल करना चाहो और मैं बिल्कुल बरहक़ कह रहा हूँ के अनक़रीब तुम्हारे सामने खुल कर आ चुकी हैं और तुम्हें इस क़दर डराया जा चुका है जो बक़द्र काफ़ी है और ज़ाहिर है के आसमानी फ़रिश्तों के बाद इलाही पैग़ाम को इन्सान ही पहुंचाने वाला है।

21- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जो एक कलमा है लेकिन तमाम मोअज़त व हिकमत को अपने अन्दर समेटे हुए है)

बेशक मन्ज़िले मक़सूद तुम्हारे सामने है और साअते मौत तुम्हारे तआक़ब में है और तुम्हें अपने साथ लेकर चल रही है। अपना बोझ हल्का कर लो -1- ताके पहले वालों से मुलहक़ हो जाओ के अभी तुम्हारे साबेक़ीन से तुम्हारा इन्तेज़ार कराया जा रहा है।

सय्यद रज़ी- - इस कलाम का कलामे ख़ुदा व कलामे रसूल (स) के बाद किसी कलाम के साथ रख दिया जाए तो इसका पल्ला भारी ही रहेगा और यह सबसे आगे निकल जाएगा। “तख़फ़फ़वा तलहक़वा”से ज्यादा मुख़्तसर और बलीग़ कलाम तो कभी देखा और सुना ही नहीं गया है। इस कलमे में किस क़द्र गहराई पाई जाती है और इस हिकमत का चश्मा किस क़द्र शफ़फाफ़ है। हमने किताबे ख़साएस में इसकी क़द्र व क़ीमत और अज़मत व शराफ़त पर मुकम्मल तब्सिरा किया है।

(( इसमें कोई शक नहीं है के गुनाह इन्सानी ज़िन्दगी के लिए एक बोझ की हैसियत रखता है और यही बोझ है जो इन्सान को आगे नहीं बढ़ने देता है और वह इसी दुनियादारी में मुब्तिला रह जाता है वरना इन्सान का बोझ हल्का हो जाए तो तेज़ क़दम बढ़ाकर उन साबेक़ीन से मुलहक़ हो सकता है जो नेकियों की तरफ़ सबक़त करते हुए बलन्दतरीन मन्ज़िलों तक पहुंच गये हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ) की दी हुई यह मिसाल वह है जिसका तजुरबा हर इन्सान की ज़िन्दगी में बराबर सामने आता रहता है के क़ाफ़िले में जिसका बोझ ज़्यादा होता है वह पीछे रह जाता है और जिसका बोझ हल्का होता है वह आगे बढ़ जाता है। सिर्फ़ मुश्किल यह है के इन्सान को गुनाहों के बोझ होने का एहसास नहीं है। शायर ने क्या ख़ुब कहा है- चलने न दिया बारे गुनह न पैदल ताबूत में कान्धों पे सवार आया हूँ। ))

22- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जब आपको ख़बर दी गई के कुछ लोगों ने आपकी बैअत तोड़ दी है)

आगाह हो जाओ के शैतान ने अपने गिरोह को भड़काना शुरू कर दिया है और फ़ौज को जमा कर लिया है ताके ज़ुल्म अपनी मन्ज़िल पर पलट आए और बातिल अपने मरकज़ की तरफ़ वापस आ जाए। ख़ुदा की क़सम उन लोगों ने मुझ पर कोई सच्चा इल्ज़ाम लगाया है और न मेरे और अपने दरम्यान कोई इन्साफ़ किया है। यह मुझसे उस हक़ का मुतालबा कर रहे हैं जो ख़ुद इन्होंने नज़रअन्दाज़ किया है और उस ख़ून का तक़ाज़ा कर रहे हैं जो ख़ुद इन्होंने बहाया है। फ़िर अगर मैं इनके साथ शरीक था तो इनका भी तो एक हिस्सा था और वह तन्हा मुजरिम थे तो ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर है। बेशक इनकी अज़ीमतरीन दलील भी इन्हीं के खि़लाफ़ है। यह उस माँ से दूध पीना चाहते हैं जिसका दूध ख़त्म हो चुका है और उस बिदअत को ज़िन्दा करना चाहते हैं जो मर चुकी है। हाए किस क़दर नामुराद यह जंग का दाई है। कौन पुकार रहा है और किस मक़सद के लिये इसकी बात सुनी जा रही है? मैं इस बात से ख़ुश हू के परवरदिगार की हुज्जत इनपर तमाम हो चुकी है और वह इनके हालात से बाख़बर है।

अब अगर इन लोगों ने हक़ का इन्कार किया है तो मैं इन्हें तलवार की बाढ़ अता करूंगा के वही बातिल की बीमारी से शिफ़ा देने वाली और हक़ की वाक़ई मददगार है। हैरतअंगेज़ बात है के यह लोग मुझे नेज़ाबाज़ी के मैदान में निकलने और तलवार की जंग सहने की दावत दे रहे हैं- रोने वालियां इनके ग़म में रोएं। मुझे तो कभी भी जंग से ख़ौफ़ज़दा नहीं किया जा सका है और न मैं शमशीरज़नी से मरऊब हुआ हूँ। मैं तो अपने परवरदिगार की तरफ़ से मन्ज़िले यक़ीन पर हँ और मुझे दीन के बारे में किसी तरह कोई शक नहीं है।

((तारीख़ का मसला है के उस्मान ने अपने दौरे हुकूमत में अपने पेशरौ तमाम हुक्काम के खि़लाफ़ अक़रबा परस्ती और बैतुलमाल की बे-बुनियाद तक़सीम का बाज़ार गर्म कर दिया था और यही बात उनके क़त्ल का बुनियादी सबब बन गयी। ज़ाहिर है के उनके क़त्ल के बाद यह बिदअत भी मुरदा हो चुकी थी लेकिन तलहा ने अमीरूलमोमेनीन (अ) से बसरा की गवरनरी और ज़ुबैर ने कूफ़े की गवरनरी का मतालबा करके फिर इस बिदअत को ज़िन्दा करना चाहा जो एक इमामे मासूम (अ) किसी क़ीमत पर बरदाश्त नहीं कर सकता है चाहे उसकी कितनी ही बड़ी क़ीमत क्यों न अदा करना पड़े।

इब्ने अबील हदीद के नज़दीक दाई से मुराद तलहा, ज़ुबैर और आईशा हैं जिन्होंने आप (अ) के खि़लाफ़ जंग की आग भड़काई थी लेकिन अन्जाम कार सबको नाकाम और नामुराद होना पड़ा और कोई नतीजा हाथ न आया जिसकी तरफ़ आपने तहक़ीर आमेज़ लहजे में इशारा किया है और साफ़ वाज़ेअ कर दिया है के मैं जंग से डरने वाला नहीं हूँ, तलवार मेरा तकिया है और यक़ीन मेरा सहारा। इसके बाद मुझे किस चीज़ से ख़ौफ़ज़दा किया जा सकता है।))

23- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें फ़ोक़रा को ज़ोहद और सरमायेदारों को शफ़क़त की हिदायत दी गई है)

अम्मा बाद!- इन्सान के मक़सूम में कम या ज़्यादा जो कुछ भी होता है उसका अम्र आसमान से ज़मीन की तरफ़ बारिश के क़तरात की तरह नाज़िल होता है। लेहाज़ा अगर कोई शख़्स अपने भाई के पास अहल व माल या नफ़्स की फ़रावानी देखे तो इसके लिये फ़ितना न बने।

के मर्दे मुस्लिम के किरदार में अगर ऐसी पस्ती नहीं है जिसके ज़ाहिर हो जाने के बाद जब भी उसका ज़िक्र किया जाए उसकी निगाह शर्म से झुक जाए और पस्त लोगों के हौसले उससे बलन्द हो जाएं तो इसकी मिसाल उस कामयाब जवारी की है जो जुए के तीरों का पाँसा फेंक कर पहले ही मरहले में कामयाबी का इन्तज़ार करता है जिससे फ़ायदा हासिल हो और गुज़िश्ता फसाद की तलाफ़ी हो जाए।

यही हाल उस मर्दे मुसलमान का है जिसका दामन ख़यानत से पाक हो के वह हमेशा परवरदिगार से दो में से एक नेकी का उम्मीदवार रहता है या दाई अजल आजाए तो जो कुछ इसकी बारगाह में है वह इस दुनिया से कहीं ज़्यादा बेहतर है या रिज़क़े ख़ुदा हासिल हो जाए तो वह साहबे अहल व माल भी होगा और इसका दीन और वक़ार भी बरक़रार रहेगा। याद रखो माल और औलाद दुनिया की खेती हैं और अमले स्वालेह आख़ेरत की खेती है और कभी भी परवररिगार बाज़ अक़वाम के लिये दोनों को जमा कर देता है। लेहाज़ा ख़ुदा से इस तरह डरो जिस तरह उसने डरने का हुक्म दिया है और इसका ख़ौफ़ इस तरह पैदा करो के कुछ मारेफ़त न करना पड़े, अमल करो तो दिखाने सुनाने से अलग रखो के जो शख़्स भी ग़ैरे ख़ुदा के वास्ते अमल करता है ख़ुदा उसी शख़्स के हवाले कर देता है। मैं परवरदिगार से शहीदों की मन्ज़िल, नेक बन्दों की सोहबत और अम्बियाए कराम की रिफ़ाक़त की दुआ करता हूं।

ऐ लोगो! याद रखो के कोई शख़्स किसी क़द्र भी साहबे माल क्यों न हो जाए, अपने क़बीले और उन लोगों के हाथ और ज़बान के ज़रिये दफ़ाअ करने से बेनियाज़ नहीं हो सकता है। यह लोग इन्सान के बेहतरीन मुहाफ़िज़ होते हैं। इसकी परागन्दगी के दूर करने वाले और मुसीबत के नज़ूल के वक़्त इसके हाल पर मेहरबान होते हैं। परवरदिगार बन्दे के लिए जो ज़िक्रे ख़ैर लोगों के दरमियान क़रार देता है वह उस माल से कहीं ज़्यादा बेहतर होता है जिसके वारिस दूसरे अफ़राद हो जाते हैं।

((अगरचे इस्लाम ने बज़ाहिर फ़क़ीर को ग़नी के माल में या रिश्तेदार को रिश्तेदार के माल में शरीक नहीं बनाया है लेकिन उसका यह फ़ैसला के तमाम अमलाके दुनिया का मालिके हक़ीक़ी परवरदिगार है और इसके एतबार से तमाम बन्दे एक जैसे हैं। सब उसके बन्दे हैं और सबके रिज़्क़ की ज़िम्मादारी इसी की ज़ाते अक़दस पर है। इस अम्र की अलामत है के उसने हर ग़नी के माल में एक हिस्सा फ़क़ीरों और मोहताजों का ज़रूर क़रार दिया है और इसे जबरन वापस नहीं लिया है बल्के ख़ुद ग़नी को इनफ़ाक़ का हुक्म दिया है ताके माल इसके इख़्तेयार से फ़क़ीर तक जाए। इस तरह वह आखि़रत में अज्र व सवाब का हक़दार हो जाएगा और दुनिया में फ़ोक़रा के दिल में इसकी जगह बन जायेगी जो साहेबाने ईमान का शरफ़ है के परवरदिगार लोगों के दिलों में इनकी मोहब्बत क़रार दे देता है। फिर इस इनफ़ाक में किसी तरह का नुक़सान भी नहीं है। माल यूँ ही बाक़ी रह गया तो भी दूसरों ही के काम आएगा तो क्यों न ऐसा हो के उसी के काम आ जाए जिसके ज़ोरे बाज़ू ने जमा किया है और फिर वह जमाअत भी हाथ आ जाए जो किसी वक़्त भी काम आ सकती है। जिगर जिगर होता है और दिगर दिगर होता है।))

आगाह हो जाओ के तुमसे कोई शख़्स भी अपने अक़रबा को मोहताज देखकर इस माल से हाजत बरआरी करने से गुरेज़ न करे जो बाक़ी रह जाए तो बढ़ नहीं जाएगा और ख़र्च कर दिया जाए कम नहीं हो जाएगा। इसलिये जो शख़्स भी अपने अशीरा और क़बीला से अपना हाथ रोक लेता है तो इस क़बीले से एक हाथ रूक जाता है और ख़ुद इसके लिये बेशुमार हाथ रूक जाते हैं। और जिसके मिज़ाज में नरमी होती है वह क़ौम की मोहब्बत को हमेशा के लिये हासिल कर लेता है।

सय्यद रज़ी- इस मक़ाम पर ग़फ़ीरा कसरत के मानी में है जिस तरह जमा कसीर को जमा कशीर कहा जाता है। बाज़ रवायत में ग़फ़ीरा के बजाए इफ़वह है जो मुन्तख़ब और पसन्दीदा शै के मानी है, इस्तेमाल होता है। “अफ़वतिल तआम”पसन्दीदा खाने को कहा जाता है और इमाम अलैहिस्सलाम ने इस मक़ाम पर बेहतरीन नुक्ते की तरफ़ इशारा फ़रमाया है के अगर किसी ने अपना हाथ अशीरा से खींच लिया तो गोया के एक हाथ कम हो गया। लेकिन जब इसे इनकी नुसरत और इमदाद की ज़रूरत होगी और वह हाथ खींच लेंेगे और उसकी आवाज़ पर लब्बैक नहीं कहेंगे तो बहुत से बढ़ने वाले हाथों और उठने वाले क़दमों से महरूम हो जाएगा।

24-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें इताअते ख़ुदा की दावत दी गई है)

मेरी जान की क़सम। मैं हक़ की मुख़ालफ़त करने वालों और गुमराही में बैठने वालों से जेहाद करने में न कोई नरमी कर सकता हूँ और न सुस्ती। अल्लाह के बन्दों! अल्लाह से डरो और उसके ग़ज़ब से फ़रार करके उसकी रहमत में पनाह लो। उस रास्ते पर चलो जो उसने बना दिया है और उन एहकाम पर अमल करो जिन्हें तुम से मरबूत कर दिया गया है। इसके बाद अली (अ) तुम्हारी कामयाबी का आखि़रत में बहरहाल ज़िम्मेदार है चाहे दुनिया में हासिल न हो सके।((अमीरूल मोमेनीन (अ) की खि़लाफ़त का जाएज़ा लिया जाए तो मसाएब व मुश्किलात में सरकारे दो आलम (स) के दौरे रिसालत से कुछ कम नहीं है। आपने तेरा साल मक्के में मुसीबते बरदाश्त कीं और दस साल मदीने में जंगों का मुक़ाबला करते रहे और यही हाल मौलाए कायनात (अ) का रहा। ज़िलहिज्जा35 हि0 में खि़लाफ़त मिली और माहे मुबारक 40 हि0 में शहीद हो गए। कुल दौरे हुकूमत 4 साल 9 माह 2 दिन रहा और इसमें भी तीन बड़े-बड़े मारके हुए और छोटी-छोटी झड़पें मुसलसल होती रहीं। जहां इलाक़ों पर क़ब्ज़ा किया जा रहा था और चाहने वालों को अज़ीयत दी जा रही थी। माविया ने अम्र व आस के मश्विरे से बुसर बिन अबी अरताह को तलाश कर लिया था और इस जल्लाद को मुतलक़ुल अनान बनाकर छोड़ दिया था। ज़ाहिर है के “पागल कुत्ते”को आज़ाद छोड़ दिया जाए तो शहरवालों का क्या हाल होगा और इलाक़े के अम्नो अमान में क्या बाक़ी रह जाएगा।))

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

25- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

जब आपको मुसलसल ख़बर दी गई के मआविया के साथियों ने शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया है और आपके दो आमिले यमन अब्दुल्लाह बिन अब्बास और सईद बिन नमरान, बुसर बिन अबी अरताह के मज़ालिम से परेशान होकर आपकी खि़दमत में आ गए। तो आपने असहाब की कोताही जेहाद से बददिल होकर मिम्बर पर खड़े होकर यह ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। अब यही कूफ़ा है जिसका बस्त व कशाद मेरे हाथ में है। ऐ कूफ़ा अगर तू ऐसा ही रहा और यूँ ही तेरी आन्धियाँ चलती रहीं तो ख़ुदा तेरा बुरा करेगा। (इसके बाद शाएर के “शेर की तमसील बयान फ़रमाई) ऐ अमरो! तेरे अच्छे बाप की क़सम, मुझे तो उस बरतन की तह में लगी हुई चिकनाई ही मिली है। इसके बाद फ़रमाया, मुझे ख़बर दी गई है के बुसर यमन तक आ गया है और ख़ुदा की क़सम मेरा ख़याल यह है के अनक़रीब यह लोग तुमसे इक़तेदार को छीन लेंगे। इसलिये यह अपने बातिल पर मुत्तहिद हैं और तुम अपने हक़ पर मुत्तहिद नहीं हो। यह अपने पेशवा की बातिल में इताअत करते हैं और तुम अपने इमाम की हक़ में भी नाफ़रमानी करते हो। यह अपने मालिक की अमानत उसके हवाले कर देते हैं और तुम ख़यानत करते हो। यह अपने शहरों में अमन व अमान रखते हैं और तुम अपने शहर में भी फ़साद करते हो।

((ज़रा जाए ख़त की क़ाबलीयत मुलाहेज़ा फ़रमाएं- फ़रमाते हैं के कूफ़े वाले इस लिये नहीं इताअत करते थे के इनकी निगाह तनक़ीदी और बसीरत आमेज़ थी और शाम ववाले अहमक़ और जाहिल थे इसलिये इताअत कर लेते थे। इन क़ाबेलीयत मआब से कौन दरयाफ़्त करे के कूफ़ावालों ने मौलाए कायनात (अ) के किस ऐ़ब की बिना पर इताअत छोड़ दी थी और किस तनक़ीदी नज़र से आप की ज़िन्दगी को देख लिया था। हक़ीक़ते अम्र यह है के कूफ़े व शाम दोनों ज़मीर फ़रोश थे। शाम वालों को ख़रीदार मिल गया था और कूफ़े में हज़रत अली (अ) ने यह तरीक़ाएकार इख़्तेयार कर लिया था के मुँह मांगी क़ीमत नहीं अता की थी लेहाज़ा बग़ावत का होना नागुज़ीर था और यह कोई हैरतअंगेज़ अम्र नहीं है।))

मैं तो तुम में से किसी को लकड़ी के प्याले का भी अमीन बनाऊं तो यह ख़ौफ़ रहेगा के वह कुन्डा लेकर भाग जाएगा। -1- ख़ुदाया मैं इनसे तंग आ गया हूँ और यह मुझसे तंग आ गए हैं। मैं इनसे उकता गया हूँ और यह मुझसे उकता गये हैं। लेहाज़ा मुझे इनसे बेहतर क़ौम इनायत कर दे और इन्हें मुझसे “बदतर”हाकिम दे दे और इनके दिलों को यूँ पिघला दे जिस तरह पानी में नमक भिगोया जाता है। ख़ुदा की क़सम मैं यह पसन्द करता हूँ के इन सब के बदले मुझे बनी फ़रास बिन ग़नम के हरफ़ एक हजार शाही मिल जाएं, जिनके बारे में इनके शाएर ने कहा थाः- “इस वक़्त में अगर तू इन्हें आवाज़ देगा तो ऐसे शहसवार सामने आएंगे जिनकी तेज़ रफ़्तारी गर्मियों के बादलों से ज़्यादा सरीहतर होगी”

सय्यद रज़ी - अरमिया रमी की जमा है जिसके मानी बादल हैं और हमीम गर्मी के ज़माने के मानी में हैं, शायर ने गर्मी के बादलों का ज़िक्र इसलिये किया है कि इनकी रफ़तार तेज़ औश्र सुबकतर होती है इसलिये के इनमें पानी नहीं होता है। बादल की रफ़तार उस वक़्त सुस्त हो जाती है जब उसमें पानी भर जाता है और यह आम तौर से सरदी के ज़माने में होता है। शायर ने अपनी क़ौम को आवाज़ पर लब्बैक कहने और मज़लूम की फ़रयाद रसी में सुबक रफ़तारी का ज़िक्र किया है जिसकी दलील “लौ दऔतो”है।

26- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें बासत से पहले अरब की हालत का ज़िक्र किया गया है और फिर अपनी बैअत से पहले के हालात का तज़किरा किया गया है)

यक़ीनन अल्लाह ने हज़रत मोहम्मद (स) को आलमीन के अज़ाबे इलाही से डराने वाला और तन्ज़ील का अमानतदार बनाकर उस वक़्त भेजा है जब तुम गिरोहे अरब बदतरीन दीन के मालिक और बदतरीन इलाक़े के रहने वाले थे। न हमवार पत्थरों और ज़हरीले सांपों के दरमियान बूदोबाश रखते थे। गन्दा पानी पीते थे और ग़लीज़ ग़िज़ा इस्तेमाल करते थे। आपस में एक दूसरे का ख़ून बहाते थे और क़राबतदारों से बेतआल्लुक़ी रखते थे। बुत तुम्हारे दरम्यान नसब थे और गुनाह तुम्हें घेरे हुए थे।

(बैयत के हंगाम)

मैंने देखा के सिवाए मेरे घरवालों के कोई मेरा मददगार नहीं है तो मैंने उन्हें मौत के मुंह में दे देने से गुरेज़ किया और इस हाल में चश्मपोशी की के आंखों में ख़स्द ख़ाशाक था। मैंने ग़म व ग़ुस्से के घूंट पिये और गुलू गिरफ्तगी और हन्ज़ाल से ज़्यादा तल्क़ हालात पर सब्र किया।

याद रखो! अमर व आस ने माविया की बैयत उस वक़्त तक नहीं की जब तक के बैयत की क़ीमत नहीं तय कर ली। ख़ुदा ने चाहा तो बैयत करने वाले का सौदा कामयाब न होगा और बैयत लेने वाले को भी सिर्फ़ रूसवाई ही नसीब होगी। लेहाज़ा जंग का सामान संभाल लो और इसके असबाब मुहैया कर लो के इसके शोले भड़क उट्ठे हैं और लपटें बलन्द हो चुकी हैं और देखो सब्र को अपना शआर बना लो के यह नुसरत व कामरानी का बेहतरीन ज़रिया है।

((किसी क़ौम के लिये डूब मरने की बात है के उसका मासूम रहनुमा उससे इस क़द्र आजिज़ आ जाए के उसके हक़ में दरपरदा बद्दुआ करने के लिये तैयार हो जाए और उसे दुशमन के हाथ फ़रोख़्त कर देने पर आमादा हो जाए।

अहले कूफ़ा की बदबख़्ती की आखि़री मन्ज़िल थी के वह अपने मासूम रहनुमा को भी तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम न कर सके और इनके दरम्यान इनका रहनुमा ऐन हालते सजदा में शहीद कर दिया गया। कूफ़े का क़यास मदीने के हालात पर नहीं किया जा सकता है। मदीने ने अपने हाकिम का साथ नहीं दिया इस लिये के वह ख़ुद इसके हरकात से आजिज़ थे और मुसलसल एहतेजाज कर चुके थे लेकिन कूफ़े में ऐसा कुछ नहीं था या वाजे़अ लफ़्ज़ों में यूँ कहा जा सकता है के मदीने के हुक्काम के क़ातिल अपने अमल पर मुतमईन थे और उन्हें किसी तरह की शर्मिन्दगी का एहसास नहीं था लेकिन कूफ़े में जब अमीरूल मोमेनीन (अ) ने अपने क़ातिल से दरयाफ़त किया के क्या मैं तेरा कोई बुरा इमाम था? तो उसने बरजस्ता यही जवाब दिया के आप किसी जहन्नुम में जाने वाले को रोक नहीं सकते हैं। गोया मदीने से कूफ़े तक के हालात से यह बात बिल्कुल वाज़ेअ हो जाती है के मदीने के मक़तूल अपने ज़ुल्म के हाथों क़त्ल हुए थे और कूफ़े का शहीद अपने अद्लो इन्साफ़ की बुनियाद पर शहीद हुआ है और ऐसे ही शहीद को यह कहने का हक़ है के “फ़ुज़्तो बे रब्बिल काबा” (परवरदिगारे काबा की क़सम मैं कामयाब हो गया)))

27-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जो उस वक़्त इरशाद फ़रमाया जब आपको ख़बर मिली के माविया के लशकर ने अनबार पर हमला कर दिया है। इस ख़ुतबे में जेहाद की फ़ज़ीलत का ज़िक्र करके लोगों को जंग पर आमादा किया गया है और अपनी जंगी महारत का तज़किरा करके नाफ़रमानी की ज़िम्मेदारी लशकरवालों पर डाली गई है)

अम्मा बाद! जेहाद जन्नत के दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा है जिसे परवरदिगार ने अपने मख़सूस औलिया के लिये खोला है। यह तक़वा का लिबास और अल्लाह की महफ़ूज़ व मुस्तहकम ज़िरह और मज़बूत सिपर है। जिसने एराज़ करते हुए नज़रअन्दाज़ कर दिया उसे अल्लाह ज़िल्लत का लिबास पिन्हा देगा और उस पर मुसीबत हावी हो जाएगी और उसे ज़िल्लत व ख़्वारी के साथ ठुकरा दिया जाएगा और उसके दिल पर ग़फ़लत का परदा डाल दिया जाएगा और जेहाद को वाज़ेअ करने की बिना पर हक़ उसके हाथ से निकल जाएगा और उसे ज़िल्लत बरदाश्त करना पड़ेगा और वह इन्साफ़ से महरूम हो जाएगा। (((माविया ने अमीरूलमोमेनीन (अ0) की खि़लाफ़त के खि़लाफ़ बग़ावत का एलान करके पहले सिफ़्फ़ीन का मैदाने कारज़ार गरम किया। उसके बाद हर इलाक़े में फ़ितना व फ़साद की आगणन भड़काई ताके आपको एक लम्हे के लिये सुकून नसीब न हो सके और आप अपने निज़ामे अद्ल व इन्साफ़ को सुकून के साथ राएज न कर सकें। माविया के इन्हीं हरकात में से एक काम यह भी था के बनी ग़ामद के एक शख़्स सुफ़यान बिन औफ़ को छः हज़ार लशकर देकर रवाना कर दिया के इराक़ के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों पर ग़ारत का काम शुरू कर दे। चुनान्चे इसने अनबा पर हमला कर दिया जहाँ हज़रत (अ0) का मुख़्तसर सरहदी हिफ़ाज़ती दस्ता था और वह इस लशकर से मुक़ाबला न कर सका सिर्फ़ चन्द अफ़राद साबित क़दम रहे। बाक़ी सब भाग खड़े हुए और इसके बाद सुफ़ियान का लशकर आबादी में दाखि़ल हो गया और बेहद लूट मचाई। जिसकी ख़बर ने हज़रत (अ) को बेचैन कर दिया और आपने मिम्बर पर आकर क़ौम को ग़ैरत दिलाई लेकिन कोई लशकर तैयार न हो सका जिसके बाद आप ख़ुद रवाना हो गए और इस सूरते हाल को देख कर चन्द अफ़राद को ग़ैरत आ गई और एक लशकर सुफ़ियान के मुक़ाबले के लिये सईद बिन क़ैस की क़यादत में रवाना हो गया मगर इत्तेफ़ाक़ से उस वक़्त सुफ़ियान का लशकर वापस जा चुका था और लशकर जंग किये बग़ैर वापस आ गया और आपने नासाज़िए मिज़ाज के बावजूद ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह ख़ुत्बा कूफ़े वापस आने के बाद इरशाद फ़रमाया है और बाज़ का कहना है के मक़ामे नख़ीला ही पर इरशाद फ़रमाया था बहरहाल सूरत वाक़ेअन इन्तेहाई अफ़सोसनाक और दर्दनाक थी और इस्लाम में इसकी बेशुमार मिसालें पाई जाती हैं))) आगाह हो जाओ के मैंने तुम लोगों को इस क़ौम से जेहाद करने के लिये दिन में पुकारा और रात में आवाज़ दी। ख़ुफ़िया तरीक़े से दावत दी और अलल एलान आमादा किया और बराबर समझाया के इनके हमला करने से पहले तुम मैदान में निकल आओ के ख़ुदा की क़सम जिस क़ौम से उसके घर के अन्दर जंग की जाती है उसका हिस्सा ज़िल्लत के अलावा कुछ नहीं होता है लेकिन तुमने टाल मटोल किया और सुस्ती का मुज़ाहेरा किया। यहां तक के तुम पर मुसलसल हमले शुरू हो गए और तुम्हारे इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। देखो यह बनी ग़ामिद के आदमी (सुफ़यान बिन औफ़) की फ़ौज अनबार में दाखि़ल हो गई है और उसने हेसान बिन हेसान बकरी को क़त्ल कर दिया है और तुम्हारे सिपाहियों को उनके मराकज़ से निकाल बाहर कर दिया है और मुझे तो यहाँ तक ख़बर मिली है के दुशमन का एक सिपाही मुसलमान या मुसलमानों के मुआहेदे में रहने वाली औरत के पास वारिद होता था। और उसके पैरों के कड़े , हाथ के कंगन, गले के गुलूबन्द और कान के गोशवारे उतार लिया था और वह सिवाए इन्नालिल्लाह पढ़ने और रहमो करम की दरख़्वास्त करने के कुछ नहीं कर सकती थी और वह सारा साज़ोसामान लेकर चला जाता था न कोई ज़ख़्म खाता था और न किसी तरह का ख़ून बहता था। इस सूरतेहाल के बाद अगर कोई मर्दे मुसलमान सदमे से मर भी जाए तो क़ाबिले मलामत नहीं है बल्के मेरे नज़दीक हक़ ब जानिब है। किस क़द्र हैरतअंगेज़ और ताअज्जुबख़ेज़ सूरते हाल है। ख़ुदा की क़सम यह बात दिल को मुर्दा बना देने वाली है व ग़म को समेटने वाली है के यह लोग अपने बातिल पर इकट्ठा और मुज्तहिद हैं और तुम अपने हक़ पर भी मुत्तहिद नहीं हो। तुम्हारा बुरा हो, क्या अफ़सोसनाक हाल है तुम्हारा। के तुम तीरअन्दाज़ों का मुस्तक़िल निशाना बन गए हो। तुम पर हमला किया जा रहा है और तुम हमला नहीं करते हो। तुमसे जंग की जा रही है और तुम बाहर नहीं निकलते हो। लोग ख़ुदा की नाफ़रमानी कर रहे हैं और तुम इस सूरतेहाल से ख़ुश हो। मैं तुम्हें गरमी में जेहाद के लिये निकलने की दावत देता हूँ तो कहते हो के शदीद गर्मी है, थोड़ी मोहलत दे दीजिये के गर्मी गुज़र जाए। इसके बाद सर्दी में बुलाता हूँ तो कहते हो सख़्त जाड़ा पड़ रहा है ज़रा ठहर जाइये के सर्दी ख़त्म हो जाए, हालाँके यह सब जंग से फ़रार करने के बहाने हैं वरना जो क़ौम सर्दी और गर्मी से फ़रार करती हो वह तलवारों से किस क़द्र फ़रार करेंगी। ऐ मर्दों की शक्ल व सूरत वालों और वाक़ेअन नामर्दों! तुम्हारी फ़िक्रें बच्चों जैसी और तुम्हारी अक़्लें हुजलानशीन औरतों जैसी हैं। मेरी दिली ख़्वाहिश थी के काश मैं तुम्हें न देखता और तुमसे मुताअर्रूफ़ न होता। जिसका नतीजा सिर्फ़ निदामत और रन्ज व अफ़सोस है। अल्लाह तुम्हें ग़ारत कर दे तुमने मेरे दिल को पीप से भर दिया है और मेरे सीने को रंजो ग़म से छलका दिया है। तुमने हर साँस में हम व ग़म के घूँट पिलाए हैं और अपनी नाफ़रमानी और सरकशी से मेरी राय को भी बेकार व बे असर बना दिया है यहाँ तक के अब क़ुरैश वाले यह कहने लगे हैं के फ़रज़न्दे अबूतालिब बहादुर तो हैं लेकिन इन्हें फ़नूने जंग का इल्म नहीं है। अल्लाह इनका भला करे, क्या इनमें कोई भी ऐसा है जो मुझसे ज़्यादा जंग का तजुर्बा रखता हो और मुझसे पहले से कोई मक़ाम रखता हो, मैंने जेहाद के लिये उस वक़्त क़याम किया है जब मेरी उम्र20 साल भी नहीं थी और अब तो 60 से ज़्यादा हो चुकी है। लेकिन क्या किया जाए। जिसकी इताअत नहीं की जाती है उसकी राय कोई राय नहीं होती है। (((किसी क़ौम की ज़िल्लत व रूसवाई के लिये इन्तेहाई काफ़ी है के उनका सरबराह हज़रत अली (अ0) बिन अबूतालिब जैसा इन्सान हो और वह उनसे इस क़दर बददिल हो के इनकी शक्लों को देखना भी गवारा न करता हो। ऐसी क़ौम दुनिया में ज़िन्दा रहने के क़ाबिल नहीं है और आखि़रत में भी इसका अन्जाम जहन्नम के अलावा कुछ नहीं है। इस मक़ाम पर मौलाए कायनात (अ0) ने एक और नुक्ते की तरफ़ भी इशारा किया है के तुम्हारी नाफ़रमानी और सरकशी ने मेरी राय को भी बरबाद कर दिया है और हक़ीक़ते अम्र यह है के राहनुमा और सरबराह किसी क़द्र भी ज़की और अबक़री क्यों न हो , अगर क़ौम इसकी इताअत से इन्कार कर दे तो नाफ़हम इन्सान यही ख़याल करता है के शायद यह राय और हुक्म क़ाबिले अहले सनअत न था इसीलिये क़ौम ने इसे नज़रअन्दाज़ कर दिया है। ख़ुसूसियत के साथ अगर काम ही इज्तेमाई हो तो इज्तेमाअ का इन्हेराफ़ काम को भी मुअत्तल कर देता है और इसके नताएज बहरहाल नामुनासिब और ग़लत होते हैं जिसका तजुर्बा मौलाए कायनात (अ0) के सामने आया के क़ौम ने आपके हुक्म के मुताबिक़ जेहाद करने से इनकार कर दिया और गर्मी व सर्दी के बहाने बनाना शुरू कर दे और इसके नतीजे में दुश्मनों ने यह कहना शुरू कर दिया के अली (अ0) फ़नूने जंग से बाख़बर नहीं हैं हालांके अली (अ0) से ज़्यादा इस्लाम में कोई माहिरे जंग व जेहाद नहीं था जिसने अपनी सारी ज़िन्दगी इस्लामी मुजाहेदात के मैदानों में गुज़ारी थी और मुसलसल तेग़ आज़माई का सबूत दिया था और जिसकी तरफ़ ख़ुद आपने भी इशारा फ़रमाया है और अपनी तारीख़े हयात को इसका गवाह क़रार दिया है। दुश्मनों के तानों से एक बात बहरहाल वाज़ेअ हो जाती है के दुश्मनों को आपकी ज़ाती शुजाअत का इक़रार था और फ़न्ने जंग की नावाक़फ़ीयत से मुराद क़ौम का बेक़ाबू हो जाना था और खुली हुई बात है के अली (अ0) इस तरह क़ौम को क़ाबू में नहीं कर सकते थे जिस तरह माविया जैसे दीन व ज़मीर के ख़रीदार इस कारोबार को अन्जाम दे रहे थे और हर दीन व बेदीनी के ज़रिये क़ौम को अपने क़ाबू में रखना चाहते थे और इनका मन्षा सिफ़ यह था के लशकर वालों को ऊंट और ऊंटनी का फ़र्क़ मालूम न हो सके।)))

28- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जो उस ख़ुतबे की एक फ़ज़ीलत की हैसियत रखता है जिसका आग़ाज़ “अलहम्दो लिल्लाह ग़ैरे मक़नूत मन रहमत’से हुआ और इसमें ग्यारह तम्बीहात हैं)

अम्माबाद! यह दुनिया पीठ फेर चुकी है और इसने अपने विदा का एलान कर दिया है और आख़ेरत सामने आ रही है और इसके आसार नुमाया हो गए हैं। याद रखो के आज मैदाने अमल है और कल मुक़ाबला होगा जहाँ सबक़त करने वाले का इनआम जन्नत होगा और बदअमली का अन्जाम जहन्नम होगा। क्या अब भी कोई ऐसा नहीं है जो मौत से पहले ख़ताओं से तौबा कर ले और सख़्ती के दिन से पहले अपने नफ़्स के लिये अमल कर ले। याद रखो के तुम आज उम्मीदों के दिनों में हो जिसके पीछे मौत लगी हुई है तो जिस शख़्स ने उम्मीद के दिनों में मौत आने से पहले अमल कर लिया उसे इसका अमल यक़ीनन फ़ाएदा पहुँचाएगा और मौत कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएगी, लेकिन जिसने मौत से पहले उम्मीद के दिनों में अमल नहीं किया उसने अमल की मन्ज़िल में घाटा उठाया और इसकी मौत भी नुक़सानदेह हो गई। आगाह हो जाओ- तुम लोग राहत के हालात में इसी तरह अमल करो जिस तरह ख़ौफ़ के आलम में करते हो, के मैंने जन्नत जैसा कोई मतलूब नहीं देखा है जिसके तलबगार सब सो रहे हैं और जहन्नम जैसा कोई ख़तरा नहीं देखा है जिससे भागने वाले सब ख़्वाबे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं। याद रखो के जिसे हक़ फ़ायदा न पहुँचा सके उसे बातिल ज़रूर नुक़सान पहुंचाएगा और जिसे हिदायत सीधे रास्ते पर न ला सकेगी इसे गुमराही बहरहाल खींच कर हलाकत तक पहुँचा देगी। आगाह हो जाओ के तुम्हें कोच का हुक्म मिल चुका है और तुम्हें ज़ादे सफ़र भी बताया जा चुका है और तुम्हारे लिये सबसे बड़ा ख़ौफ़नाक ख़तरा दो चीज़ों का है। ख़्वाहिशात का इत्तेबाअ और उम्मीदों का तूलानी होना। लेहाज़ा जब तक दुनिया में हुआ इस दुनिया से वह ज़ादे राह हासिल कर लो जिसके ज़रिये कल अपने नफ़्स का तहफ़्फ़ुज़ कर सको। सय्यद रज़ी- अगर कोई ऐसा कलाम हो सकता है जो इन्सान की गर्दन पकड़ कर इसे ज़ोहद की मन्ज़िल तक पहुँचा दे और उसे अमल आखि़रत पर मजबूर कर दे तो वह यही कलाम है। (((ज़माने के हालात का जाएज़ा लिया जाए तो अन्दाज़ा होगा के शायद इस दुनिया के इससे बड़ी कोई हक़ीक़त और सिदाक़त नहीं है। जिस शख़्स से पूछिये वह जन्नत का मुशताक है और जिस शख़्स को देखिये वह जहन्नुम के नाम से पनाह मांगता है। लेकिन मन्ज़िले अमल में दोनों इस तरह सो रहे हैं जैसे के यह माषूक़ अज़ ख़ुद घर आने वाला है और यह ख़तरा अज़ख़ुद टल जाने वाला है। न जन्नत के आशिक़ जन्नत के लिये कोई अमल कर रहे हैं और न जहन्नम से ख़ौफ़ज़दा इससे बचने का इन्तेज़ाम कर रहे हैं बल्कि दोनों का ख़याल यह है के मन्सब में कुछ अफ़राद ऐसे हैं जिन्होंने इस बात का ठेका ले लिया है के वह जन्नत का इन्तेज़ाम भी करेंगे और जहन्नम से बचाने का बन्दोबस्त भी करेंगे और इस सिलसिले में हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। हालाँके दुनिया के चन्द रोज़ा माषूक़ का मामला इससे बिल्कुल मुख़तलिफ़ है। यहाँ कोई दूसरे पर भरोसा नहीं करता है। दौलत के लिये सब ख़ुद दौड़ते हैं, शोहरत के लिये सब ख़ुद मरते हैं, औरत के लिये सब ख़ुद दीवाने बनते हैं, ओहदे के लिये सब ख़ुद रातों की नीन्द हराम करते हैं, ख़ुदा जाने यह अबदी माषूक़ जन्नत जैसा महबूब है जिसका मामला दूसरों के रहमो करम पर छोड़ दिया जाता है और इन्सान ग़फ़लत की नींद सो जाता है। काश यह इन्सान वाक़ेअन मुशताक और ख़ौफ़ज़दा होता तो यक़ीनन इसका यह किरदार न होता। “फ़ाअतबरू या ऊलिल अबसार”)) यह कलाम दुनिया की उम्मीदों को क़ता करने और वाअज़ व नसीहत क़ुबूल करने के जज़्बात को मुष्तअल करने के लिये काफ़ी होता। ख़ुसूसियत के साथ हज़रत का यह इरशाद के “आज मैदाने अमल है और कल मुक़ाबला, इसके बाद मन्ज़िले मक़सूद जन्नत है और अन्जाम जहन्नम।”इसमें अल्फ़ाज़ की अज़मत मानी की क़द्रो मन्ज़ेलत तहशील की सिदाक़त और तस्बीह की वाक़ेअत के साथ वह अजीबो ग़रीब राज़े निजात और लताफ़त मफ़हूम है जिसका अन्दाज़ा नहीं किया जा सकता है। फिर हज़रत (अ0) ने जन्नत व जहन्नम के बारे में “सबक़ा”और “ग़ायत”का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है जिसमें सिर्फ़ लफ़्ज़ी इख़्तेलाफ़ नहीं है बल्के वाक़ेअन मानवी इफ़तेराक़ व इम्तेयाज़ पाया जाता है के न जहन्नम को सबक़ा (मन्ज़िल) कहा जा सकता है और न जन्नत को ग़ायत (अन्जाम) जहाँ तक इन्सान ख़ुद ब ख़ुद पहुंच जाएगा बल्कि जन्नत के लिये दौड़ धूप करना होगी जिसके बाद इनआम मिलने वाला है और जहन्नम बदअमली के नतीजे में ख़ुद ब ख़ुद सामने आ जाएगा। इसके लिये किसी इष्तेयाक़ और मेहनत की ज़रूरत नहीं है। इसी बुनियाद पर आपने जहन्नम को ग़ायत (अन्जाम) क़रार दिया है जिस तरह के क़ुरआन मजीद ने “मसीर”से ताबीर किया है, “फान मसीर कुम एलन्नार”। हक़ीक़तनइ स नुक्ते पर ग़ौर करने की ज़रूरत है के इसका बातिन इन्तेहाई अजीब व ग़रीब और इसकी गहराई इन्तेहाई लतीफ़ है और यह तन्हा इस कलाम की बात नहीं है। हज़रत के कलमात में आम तौर से यही बलाग़त पाई जाती है और इसके मआनी में इसी तरह की लताफ़त और गहराई नज़र आती है। बाज़ रिवायात में जन्नत के लिये सबक़त के बजाए सुबक़त का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी इनआम के हैं और खुली हुई बात है के इनआम भी किसी मज़मूम अमल पर नहीं मिलता है बल्के इसका ताअल्लुक़ भी क़ाबिले तारीफ़ आमाल ही से होता है लेहाज़ा अमल बहरहाल ज़रूरी है और अमल का क़ाबिले तारीफ़ होना भी लाज़मी है।

29- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जब तहकीम के बाद माविया के सिपाही ज़हाक बिन क़ैस ने हज्जाज के क़ाफ़िले पर हमला करवा दिया और हज़रत को इसकी ख़बर दी गई तो आप (अ0) ने लोगों को जेहाद पर आमादा करने के लिये यह ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया)

ऐ वह लोग! जिनके जिस्म एक जगह पर हों और ख़्वाहिशात अलग-अलग हों। तुम्हारा कलाम तो सख़्त तरीन पत्थर को भी नर्म कर सकता है लेकिन तुम्हारे बारे में पुरउम्मीद बना देते हैं। तुम महफ़िलों में बैठकर ऐसी-ऐसी बातें करते हो के ख़ुदा की पनाह लेकिन जब जंग का नक़्षा सामने आता है तो कहते हो “दूर बाश दूर”हक़ीक़ते अम्र यह है के जो तुमको पुकारेगा उसकी पुकार कभी कामयाब न होगी और जो तुम्हें बरदाश्त करेगा उसके दिल को कभी सुकून न मिलेगा। तुम्हारे पास सिर्फ बहाने हैं और ग़लत सलत हवाले और फिर मुझसे ताख़ीरे जंग की फ़रमाइश जैसे कोई नादहन्द क़र्ज़ को टालना चाहता है। याद रखो ज़लील आदमी ज़िल्लत को नहीं रोक सकता है और हक़ मेहनत के बग़ैर हासिल नहीं किया हो सकता है। तुम जब अपने घर का दिफ़ाअ न कर सकोगे तो किसके घर का दिफ़ाअ करोगे और जब मेरे साथ्ज्ञ जेहाद न करोगे तो किसके साथ जेहाद करोगे। ख़ुदा की क़सम वह फ़रेब खोरदा है जो तुम्हारे धोके में आ जाए और जो तुम्हारे सहारे कामयाबी चाहेगा इसे सिर्फ नाकामी का तीर हाथ आएगा।

(((माविया का एक मुस्तक़िल मुक़द्दर यह भी था के अमीरूल मोमेनीन (अ0) किसी आन चैन से न बैठने पाएं कहीं ऐसा न हो के आप वाक़ई इस्लाम क़ौम के सामने पेश कर दें और अमवी उफ़कार का जनाज़ा निकल जाए। इसलिये वह मुसलसल रेशा रवानियों में लगा रहता था। आखि़र एक मरतबा ज़हाक बिन क़ैस को चार हज़ार का लशकर देकर रवाना कर दिया और उसने सारे इलाक़े में कुश्त व ख़ून शुरू कर दिया। आपने मिम्बर पर आकर क़ौम को ग़ैरत दिलाई लेकिन कोई खातिर ख़्वाह असर नहीं हुआ और लोग जंग से किनाराकशी करते रहे। यहाँ तक के हजर बिन अदी चार हज़ार सिपाहियों को लेकर निकल पड़े और मुक़ाम तदमर पर दोनों का सामना हो गया। लेकिन माविया का लशकर भाग खड़ा हुआ और सिर्फ़ 19 अफ़राद माविया के काम आए जबके हजर के सिपाहियों में दो अफ़राद ने जामे शहादत नौश फ़रमाया।)))

और जिसने तुम्हारे ज़रिये तीर फेंका उसने वह तीर फेंका जिसका पैकान टूट चुका है और सूफार ख़त्म हो चुका है। ख़ुदा की क़सम मैं इन हालात में तुम्हारे क़ौल की तस्दीक़ कर सकता हूँ और न तुम्हारी नुसरत की उम्मीद रखता हूँ और न तुम्हारे ज़रिये किसी दुशमन को तहदीद कर सकता हूँ। आखि़र तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारी दवा क्या है? तुम्हारा इलाज क्या है? आखि़र वह लोग भी तो तुम्हारे ही जैसे इन्सान हैं, यह बग़ैर इल्म की बातें कब तक और यह बग़ैर तक़वा की ग़फ़लते ताबके और बग़ैर हक़ के बलन्दी की ख़्वाहिश कहाँ तक?

18- आपकाइरशादेगिरामी

(उलमा के दरमियान इख़तेलाफ़े फ़तवा के बारे में और इसी में अहल राय की मज़म्मत और क़ुरआन की मरजईयत का ज़िक्र किया गया है)

मज़म्मत अहल राय- उन लोगों का आलम यह है के एक शख़्स के पस किसी मसले का फ़ैसला आता है तो वह अपनी राय से फ़ैसला कर देता है और फ़िर यही क़ज़िया बअय्यना दूसरे के पास जाता है तो वह उसके खि़लाफ़ फ़ैसला कर देता है। इसके बाद तमाम क़ज़ात इस हाकिम के पास जमा होते हैं जिसने इन्हें क़ाज़ी बनाया है तो वह सबकी राय से ताईद कर देता है जबके सबका ख़ुदा एक, नबी एक और किताब एक है तो क्या ख़ुदा ही ने इन्हें इख़्तेलाफ़ का हुक्म दिया है और यह इसी की इताअत कर रहे हैं या उसने उन्हें इख़्तेलाफ़ से मना किया है मगर फ़िर भी इसकी मुख़ालेफ़त कर रहे हैं? या ख़ुदा ने दीने नाक़िस नाज़िल किया है और उनसे इसकी तकमील के लिये मदद मांगी है या यह सब ख़ुद इसकी ख़ुदाई ही में शरीक हैं और इन्हें यह हक़ हासिल है के यह बात कहें और ख़ुदा का फ़र्ज़ है के वह क़ुबूल करे या ख़ुदा ने दीने कामिल नाज़िल किया था और रसूले अकरम (स) ने इसकी तबलीग़ और अदायगी में कोताही कर दी है, जबके इसका एलान है के हमने किताब में किसी तरह की कोताही नहीं की है और इसमें हर शै का बयान मौजूद है -2-। और यह भी बता दिया है के इसका एक हिस्सा दूसरे की तस्दीक़ करता है और इसमें किसी तरह का इख़्तेलाफ़ नहीं है। यह क़ुरआन ग़ैर ख़ुदा की तरफ़ से होता तो इसमें बेपनाह इख़्तेलाफ़ात होता। यह क़ुरआन वह है जिसका ज़ाहिर ख़ूबसूरत और बातिन अमीक़ और गहराए। इसके अजाएब फ़ना होने वाले नहीं हैं और तारीकियों का ख़ात्मा इसके अलावा और किसी कलाम से नहीं हो सकता है।

19- आपका इरशादे गिरामी

(जिसे उस वक़्त फ़रमाया जब मिम्बरे कूफ़े पर ख़ुत्बा दे रहे थे और अशअस बिन क़ैस ने टोक दिया के यह बयान आप ख़ुद अपने खि़लाफ़ दे रहे हैं। आपने पहले निगाहों को नीचा करके सुकूत फ़रमाया और फिर पुरजलाल अन्दाज़ से फ़रमाया)

तुझे क्या ख़बर के कौन सी बात मेरे मवाफ़िक़ है और कौन सी मेरे खि़लाफ़ है। तुझ पर ख़ुदा और तमाम लाअनत करने वालों की लानत, तू सुख़न बाफ़ और ताने बाने दुरूस्त करने वाले का फ़रज़न्द है। तू मुनाफ़िक़ है और तेरा बाप खुला हुआ काफ़िर था। ख़ुदा की क़सम तू एक मरतबा कुफ्ऱ का क़ैदी बना और दूसरी मरतबा इस्लाम का। लेकिन न तेरा माल काम आया न हसब। और जो शख़्स भी अपनी क़ौम की तरफ़ तलवार को रास्ता बताएगा और मौत को खींच कर लाएगा वह इस बात का हक़दार है के क़रीब वाले उससे नफ़रत करें और दूर वाले इस पर भरोसा न करें।

सय्यद रज़ी - - इमाम (अ) का मक़सद यह है के अशअत बिन क़ैस एक मरतबा दौरे कुफ्ऱ में क़ैदी बना था और दूसरी मरतबा इस्लाम लाने के बाद। तलवार की रहनुमाई का मक़सद यह है के जब यमामा में ख़ालिद बिन वलीद ने चढ़ाई की तो उसने अपनी क़ौम से ग़द्दारी की और सबको ख़ालिद की तलवार के हवाले कर दिया जिसके बाद इसका लक़ब “उरफ़ुल नार”हो गया जो उस दौर में हर ग़द्दार का लक़ब हुआ करता था।

20- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें ग़फ़लत से बेदार किया गया है और ख़ुदा की तरफ़ दौड़कर आने की दावत दी गई है।)

यक़ीनन जिन हालात को तुमसे पहले मरने वालों ने देख लिया है अगर तुम भी देख लेते तो परेशान व मुज़तरिब हो जाते और बात सुनने और इताअत करने के लिये तैयार हो जाते लेकिन मुश्किल यह है के अभी वह चीज़ तुम्हारे लिये पस हिजाब हैं और अनक़रीब यह परदा उठने वाला है। बेशक तुम्हें सब कुछ दिखाया जा चुका है अगर तुम निगाह बीना रखते हो और सब कुछ सुनाया जा चुका है अगर तुम गोश शनवार रखते हो और तुम्हें हिदायत दी जा चुकी है अगर तुम हिदायत हासिल करना चाहो और मैं बिल्कुल बरहक़ कह रहा हूँ के अनक़रीब तुम्हारे सामने खुल कर आ चुकी हैं और तुम्हें इस क़दर डराया जा चुका है जो बक़द्र काफ़ी है और ज़ाहिर है के आसमानी फ़रिश्तों के बाद इलाही पैग़ाम को इन्सान ही पहुंचाने वाला है।

21- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जो एक कलमा है लेकिन तमाम मोअज़त व हिकमत को अपने अन्दर समेटे हुए है)

बेशक मन्ज़िले मक़सूद तुम्हारे सामने है और साअते मौत तुम्हारे तआक़ब में है और तुम्हें अपने साथ लेकर चल रही है। अपना बोझ हल्का कर लो -1- ताके पहले वालों से मुलहक़ हो जाओ के अभी तुम्हारे साबेक़ीन से तुम्हारा इन्तेज़ार कराया जा रहा है।

सय्यद रज़ी- - इस कलाम का कलामे ख़ुदा व कलामे रसूल (स) के बाद किसी कलाम के साथ रख दिया जाए तो इसका पल्ला भारी ही रहेगा और यह सबसे आगे निकल जाएगा। “तख़फ़फ़वा तलहक़वा”से ज्यादा मुख़्तसर और बलीग़ कलाम तो कभी देखा और सुना ही नहीं गया है। इस कलमे में किस क़द्र गहराई पाई जाती है और इस हिकमत का चश्मा किस क़द्र शफ़फाफ़ है। हमने किताबे ख़साएस में इसकी क़द्र व क़ीमत और अज़मत व शराफ़त पर मुकम्मल तब्सिरा किया है।

(( इसमें कोई शक नहीं है के गुनाह इन्सानी ज़िन्दगी के लिए एक बोझ की हैसियत रखता है और यही बोझ है जो इन्सान को आगे नहीं बढ़ने देता है और वह इसी दुनियादारी में मुब्तिला रह जाता है वरना इन्सान का बोझ हल्का हो जाए तो तेज़ क़दम बढ़ाकर उन साबेक़ीन से मुलहक़ हो सकता है जो नेकियों की तरफ़ सबक़त करते हुए बलन्दतरीन मन्ज़िलों तक पहुंच गये हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ) की दी हुई यह मिसाल वह है जिसका तजुरबा हर इन्सान की ज़िन्दगी में बराबर सामने आता रहता है के क़ाफ़िले में जिसका बोझ ज़्यादा होता है वह पीछे रह जाता है और जिसका बोझ हल्का होता है वह आगे बढ़ जाता है। सिर्फ़ मुश्किल यह है के इन्सान को गुनाहों के बोझ होने का एहसास नहीं है। शायर ने क्या ख़ुब कहा है- चलने न दिया बारे गुनह न पैदल ताबूत में कान्धों पे सवार आया हूँ। ))

22- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जब आपको ख़बर दी गई के कुछ लोगों ने आपकी बैअत तोड़ दी है)

आगाह हो जाओ के शैतान ने अपने गिरोह को भड़काना शुरू कर दिया है और फ़ौज को जमा कर लिया है ताके ज़ुल्म अपनी मन्ज़िल पर पलट आए और बातिल अपने मरकज़ की तरफ़ वापस आ जाए। ख़ुदा की क़सम उन लोगों ने मुझ पर कोई सच्चा इल्ज़ाम लगाया है और न मेरे और अपने दरम्यान कोई इन्साफ़ किया है। यह मुझसे उस हक़ का मुतालबा कर रहे हैं जो ख़ुद इन्होंने नज़रअन्दाज़ किया है और उस ख़ून का तक़ाज़ा कर रहे हैं जो ख़ुद इन्होंने बहाया है। फ़िर अगर मैं इनके साथ शरीक था तो इनका भी तो एक हिस्सा था और वह तन्हा मुजरिम थे तो ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर है। बेशक इनकी अज़ीमतरीन दलील भी इन्हीं के खि़लाफ़ है। यह उस माँ से दूध पीना चाहते हैं जिसका दूध ख़त्म हो चुका है और उस बिदअत को ज़िन्दा करना चाहते हैं जो मर चुकी है। हाए किस क़दर नामुराद यह जंग का दाई है। कौन पुकार रहा है और किस मक़सद के लिये इसकी बात सुनी जा रही है? मैं इस बात से ख़ुश हू के परवरदिगार की हुज्जत इनपर तमाम हो चुकी है और वह इनके हालात से बाख़बर है।

अब अगर इन लोगों ने हक़ का इन्कार किया है तो मैं इन्हें तलवार की बाढ़ अता करूंगा के वही बातिल की बीमारी से शिफ़ा देने वाली और हक़ की वाक़ई मददगार है। हैरतअंगेज़ बात है के यह लोग मुझे नेज़ाबाज़ी के मैदान में निकलने और तलवार की जंग सहने की दावत दे रहे हैं- रोने वालियां इनके ग़म में रोएं। मुझे तो कभी भी जंग से ख़ौफ़ज़दा नहीं किया जा सका है और न मैं शमशीरज़नी से मरऊब हुआ हूँ। मैं तो अपने परवरदिगार की तरफ़ से मन्ज़िले यक़ीन पर हँ और मुझे दीन के बारे में किसी तरह कोई शक नहीं है।

((तारीख़ का मसला है के उस्मान ने अपने दौरे हुकूमत में अपने पेशरौ तमाम हुक्काम के खि़लाफ़ अक़रबा परस्ती और बैतुलमाल की बे-बुनियाद तक़सीम का बाज़ार गर्म कर दिया था और यही बात उनके क़त्ल का बुनियादी सबब बन गयी। ज़ाहिर है के उनके क़त्ल के बाद यह बिदअत भी मुरदा हो चुकी थी लेकिन तलहा ने अमीरूलमोमेनीन (अ) से बसरा की गवरनरी और ज़ुबैर ने कूफ़े की गवरनरी का मतालबा करके फिर इस बिदअत को ज़िन्दा करना चाहा जो एक इमामे मासूम (अ) किसी क़ीमत पर बरदाश्त नहीं कर सकता है चाहे उसकी कितनी ही बड़ी क़ीमत क्यों न अदा करना पड़े।

इब्ने अबील हदीद के नज़दीक दाई से मुराद तलहा, ज़ुबैर और आईशा हैं जिन्होंने आप (अ) के खि़लाफ़ जंग की आग भड़काई थी लेकिन अन्जाम कार सबको नाकाम और नामुराद होना पड़ा और कोई नतीजा हाथ न आया जिसकी तरफ़ आपने तहक़ीर आमेज़ लहजे में इशारा किया है और साफ़ वाज़ेअ कर दिया है के मैं जंग से डरने वाला नहीं हूँ, तलवार मेरा तकिया है और यक़ीन मेरा सहारा। इसके बाद मुझे किस चीज़ से ख़ौफ़ज़दा किया जा सकता है।))

23- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें फ़ोक़रा को ज़ोहद और सरमायेदारों को शफ़क़त की हिदायत दी गई है)

अम्मा बाद!- इन्सान के मक़सूम में कम या ज़्यादा जो कुछ भी होता है उसका अम्र आसमान से ज़मीन की तरफ़ बारिश के क़तरात की तरह नाज़िल होता है। लेहाज़ा अगर कोई शख़्स अपने भाई के पास अहल व माल या नफ़्स की फ़रावानी देखे तो इसके लिये फ़ितना न बने।

के मर्दे मुस्लिम के किरदार में अगर ऐसी पस्ती नहीं है जिसके ज़ाहिर हो जाने के बाद जब भी उसका ज़िक्र किया जाए उसकी निगाह शर्म से झुक जाए और पस्त लोगों के हौसले उससे बलन्द हो जाएं तो इसकी मिसाल उस कामयाब जवारी की है जो जुए के तीरों का पाँसा फेंक कर पहले ही मरहले में कामयाबी का इन्तज़ार करता है जिससे फ़ायदा हासिल हो और गुज़िश्ता फसाद की तलाफ़ी हो जाए।

यही हाल उस मर्दे मुसलमान का है जिसका दामन ख़यानत से पाक हो के वह हमेशा परवरदिगार से दो में से एक नेकी का उम्मीदवार रहता है या दाई अजल आजाए तो जो कुछ इसकी बारगाह में है वह इस दुनिया से कहीं ज़्यादा बेहतर है या रिज़क़े ख़ुदा हासिल हो जाए तो वह साहबे अहल व माल भी होगा और इसका दीन और वक़ार भी बरक़रार रहेगा। याद रखो माल और औलाद दुनिया की खेती हैं और अमले स्वालेह आख़ेरत की खेती है और कभी भी परवररिगार बाज़ अक़वाम के लिये दोनों को जमा कर देता है। लेहाज़ा ख़ुदा से इस तरह डरो जिस तरह उसने डरने का हुक्म दिया है और इसका ख़ौफ़ इस तरह पैदा करो के कुछ मारेफ़त न करना पड़े, अमल करो तो दिखाने सुनाने से अलग रखो के जो शख़्स भी ग़ैरे ख़ुदा के वास्ते अमल करता है ख़ुदा उसी शख़्स के हवाले कर देता है। मैं परवरदिगार से शहीदों की मन्ज़िल, नेक बन्दों की सोहबत और अम्बियाए कराम की रिफ़ाक़त की दुआ करता हूं।

ऐ लोगो! याद रखो के कोई शख़्स किसी क़द्र भी साहबे माल क्यों न हो जाए, अपने क़बीले और उन लोगों के हाथ और ज़बान के ज़रिये दफ़ाअ करने से बेनियाज़ नहीं हो सकता है। यह लोग इन्सान के बेहतरीन मुहाफ़िज़ होते हैं। इसकी परागन्दगी के दूर करने वाले और मुसीबत के नज़ूल के वक़्त इसके हाल पर मेहरबान होते हैं। परवरदिगार बन्दे के लिए जो ज़िक्रे ख़ैर लोगों के दरमियान क़रार देता है वह उस माल से कहीं ज़्यादा बेहतर होता है जिसके वारिस दूसरे अफ़राद हो जाते हैं।

((अगरचे इस्लाम ने बज़ाहिर फ़क़ीर को ग़नी के माल में या रिश्तेदार को रिश्तेदार के माल में शरीक नहीं बनाया है लेकिन उसका यह फ़ैसला के तमाम अमलाके दुनिया का मालिके हक़ीक़ी परवरदिगार है और इसके एतबार से तमाम बन्दे एक जैसे हैं। सब उसके बन्दे हैं और सबके रिज़्क़ की ज़िम्मादारी इसी की ज़ाते अक़दस पर है। इस अम्र की अलामत है के उसने हर ग़नी के माल में एक हिस्सा फ़क़ीरों और मोहताजों का ज़रूर क़रार दिया है और इसे जबरन वापस नहीं लिया है बल्के ख़ुद ग़नी को इनफ़ाक़ का हुक्म दिया है ताके माल इसके इख़्तेयार से फ़क़ीर तक जाए। इस तरह वह आखि़रत में अज्र व सवाब का हक़दार हो जाएगा और दुनिया में फ़ोक़रा के दिल में इसकी जगह बन जायेगी जो साहेबाने ईमान का शरफ़ है के परवरदिगार लोगों के दिलों में इनकी मोहब्बत क़रार दे देता है। फिर इस इनफ़ाक में किसी तरह का नुक़सान भी नहीं है। माल यूँ ही बाक़ी रह गया तो भी दूसरों ही के काम आएगा तो क्यों न ऐसा हो के उसी के काम आ जाए जिसके ज़ोरे बाज़ू ने जमा किया है और फिर वह जमाअत भी हाथ आ जाए जो किसी वक़्त भी काम आ सकती है। जिगर जिगर होता है और दिगर दिगर होता है।))

आगाह हो जाओ के तुमसे कोई शख़्स भी अपने अक़रबा को मोहताज देखकर इस माल से हाजत बरआरी करने से गुरेज़ न करे जो बाक़ी रह जाए तो बढ़ नहीं जाएगा और ख़र्च कर दिया जाए कम नहीं हो जाएगा। इसलिये जो शख़्स भी अपने अशीरा और क़बीला से अपना हाथ रोक लेता है तो इस क़बीले से एक हाथ रूक जाता है और ख़ुद इसके लिये बेशुमार हाथ रूक जाते हैं। और जिसके मिज़ाज में नरमी होती है वह क़ौम की मोहब्बत को हमेशा के लिये हासिल कर लेता है।

सय्यद रज़ी- इस मक़ाम पर ग़फ़ीरा कसरत के मानी में है जिस तरह जमा कसीर को जमा कशीर कहा जाता है। बाज़ रवायत में ग़फ़ीरा के बजाए इफ़वह है जो मुन्तख़ब और पसन्दीदा शै के मानी है, इस्तेमाल होता है। “अफ़वतिल तआम”पसन्दीदा खाने को कहा जाता है और इमाम अलैहिस्सलाम ने इस मक़ाम पर बेहतरीन नुक्ते की तरफ़ इशारा फ़रमाया है के अगर किसी ने अपना हाथ अशीरा से खींच लिया तो गोया के एक हाथ कम हो गया। लेकिन जब इसे इनकी नुसरत और इमदाद की ज़रूरत होगी और वह हाथ खींच लेंेगे और उसकी आवाज़ पर लब्बैक नहीं कहेंगे तो बहुत से बढ़ने वाले हाथों और उठने वाले क़दमों से महरूम हो जाएगा।

24-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें इताअते ख़ुदा की दावत दी गई है)

मेरी जान की क़सम। मैं हक़ की मुख़ालफ़त करने वालों और गुमराही में बैठने वालों से जेहाद करने में न कोई नरमी कर सकता हूँ और न सुस्ती। अल्लाह के बन्दों! अल्लाह से डरो और उसके ग़ज़ब से फ़रार करके उसकी रहमत में पनाह लो। उस रास्ते पर चलो जो उसने बना दिया है और उन एहकाम पर अमल करो जिन्हें तुम से मरबूत कर दिया गया है। इसके बाद अली (अ) तुम्हारी कामयाबी का आखि़रत में बहरहाल ज़िम्मेदार है चाहे दुनिया में हासिल न हो सके।((अमीरूल मोमेनीन (अ) की खि़लाफ़त का जाएज़ा लिया जाए तो मसाएब व मुश्किलात में सरकारे दो आलम (स) के दौरे रिसालत से कुछ कम नहीं है। आपने तेरा साल मक्के में मुसीबते बरदाश्त कीं और दस साल मदीने में जंगों का मुक़ाबला करते रहे और यही हाल मौलाए कायनात (अ) का रहा। ज़िलहिज्जा35 हि0 में खि़लाफ़त मिली और माहे मुबारक 40 हि0 में शहीद हो गए। कुल दौरे हुकूमत 4 साल 9 माह 2 दिन रहा और इसमें भी तीन बड़े-बड़े मारके हुए और छोटी-छोटी झड़पें मुसलसल होती रहीं। जहां इलाक़ों पर क़ब्ज़ा किया जा रहा था और चाहने वालों को अज़ीयत दी जा रही थी। माविया ने अम्र व आस के मश्विरे से बुसर बिन अबी अरताह को तलाश कर लिया था और इस जल्लाद को मुतलक़ुल अनान बनाकर छोड़ दिया था। ज़ाहिर है के “पागल कुत्ते”को आज़ाद छोड़ दिया जाए तो शहरवालों का क्या हाल होगा और इलाक़े के अम्नो अमान में क्या बाक़ी रह जाएगा।))

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

25- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

जब आपको मुसलसल ख़बर दी गई के मआविया के साथियों ने शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया है और आपके दो आमिले यमन अब्दुल्लाह बिन अब्बास और सईद बिन नमरान, बुसर बिन अबी अरताह के मज़ालिम से परेशान होकर आपकी खि़दमत में आ गए। तो आपने असहाब की कोताही जेहाद से बददिल होकर मिम्बर पर खड़े होकर यह ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। अब यही कूफ़ा है जिसका बस्त व कशाद मेरे हाथ में है। ऐ कूफ़ा अगर तू ऐसा ही रहा और यूँ ही तेरी आन्धियाँ चलती रहीं तो ख़ुदा तेरा बुरा करेगा। (इसके बाद शाएर के “शेर की तमसील बयान फ़रमाई) ऐ अमरो! तेरे अच्छे बाप की क़सम, मुझे तो उस बरतन की तह में लगी हुई चिकनाई ही मिली है। इसके बाद फ़रमाया, मुझे ख़बर दी गई है के बुसर यमन तक आ गया है और ख़ुदा की क़सम मेरा ख़याल यह है के अनक़रीब यह लोग तुमसे इक़तेदार को छीन लेंगे। इसलिये यह अपने बातिल पर मुत्तहिद हैं और तुम अपने हक़ पर मुत्तहिद नहीं हो। यह अपने पेशवा की बातिल में इताअत करते हैं और तुम अपने इमाम की हक़ में भी नाफ़रमानी करते हो। यह अपने मालिक की अमानत उसके हवाले कर देते हैं और तुम ख़यानत करते हो। यह अपने शहरों में अमन व अमान रखते हैं और तुम अपने शहर में भी फ़साद करते हो।

((ज़रा जाए ख़त की क़ाबलीयत मुलाहेज़ा फ़रमाएं- फ़रमाते हैं के कूफ़े वाले इस लिये नहीं इताअत करते थे के इनकी निगाह तनक़ीदी और बसीरत आमेज़ थी और शाम ववाले अहमक़ और जाहिल थे इसलिये इताअत कर लेते थे। इन क़ाबेलीयत मआब से कौन दरयाफ़्त करे के कूफ़ावालों ने मौलाए कायनात (अ) के किस ऐ़ब की बिना पर इताअत छोड़ दी थी और किस तनक़ीदी नज़र से आप की ज़िन्दगी को देख लिया था। हक़ीक़ते अम्र यह है के कूफ़े व शाम दोनों ज़मीर फ़रोश थे। शाम वालों को ख़रीदार मिल गया था और कूफ़े में हज़रत अली (अ) ने यह तरीक़ाएकार इख़्तेयार कर लिया था के मुँह मांगी क़ीमत नहीं अता की थी लेहाज़ा बग़ावत का होना नागुज़ीर था और यह कोई हैरतअंगेज़ अम्र नहीं है।))

मैं तो तुम में से किसी को लकड़ी के प्याले का भी अमीन बनाऊं तो यह ख़ौफ़ रहेगा के वह कुन्डा लेकर भाग जाएगा। -1- ख़ुदाया मैं इनसे तंग आ गया हूँ और यह मुझसे तंग आ गए हैं। मैं इनसे उकता गया हूँ और यह मुझसे उकता गये हैं। लेहाज़ा मुझे इनसे बेहतर क़ौम इनायत कर दे और इन्हें मुझसे “बदतर”हाकिम दे दे और इनके दिलों को यूँ पिघला दे जिस तरह पानी में नमक भिगोया जाता है। ख़ुदा की क़सम मैं यह पसन्द करता हूँ के इन सब के बदले मुझे बनी फ़रास बिन ग़नम के हरफ़ एक हजार शाही मिल जाएं, जिनके बारे में इनके शाएर ने कहा थाः- “इस वक़्त में अगर तू इन्हें आवाज़ देगा तो ऐसे शहसवार सामने आएंगे जिनकी तेज़ रफ़्तारी गर्मियों के बादलों से ज़्यादा सरीहतर होगी”

सय्यद रज़ी - अरमिया रमी की जमा है जिसके मानी बादल हैं और हमीम गर्मी के ज़माने के मानी में हैं, शायर ने गर्मी के बादलों का ज़िक्र इसलिये किया है कि इनकी रफ़तार तेज़ औश्र सुबकतर होती है इसलिये के इनमें पानी नहीं होता है। बादल की रफ़तार उस वक़्त सुस्त हो जाती है जब उसमें पानी भर जाता है और यह आम तौर से सरदी के ज़माने में होता है। शायर ने अपनी क़ौम को आवाज़ पर लब्बैक कहने और मज़लूम की फ़रयाद रसी में सुबक रफ़तारी का ज़िक्र किया है जिसकी दलील “लौ दऔतो”है।

26- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें बासत से पहले अरब की हालत का ज़िक्र किया गया है और फिर अपनी बैअत से पहले के हालात का तज़किरा किया गया है)

यक़ीनन अल्लाह ने हज़रत मोहम्मद (स) को आलमीन के अज़ाबे इलाही से डराने वाला और तन्ज़ील का अमानतदार बनाकर उस वक़्त भेजा है जब तुम गिरोहे अरब बदतरीन दीन के मालिक और बदतरीन इलाक़े के रहने वाले थे। न हमवार पत्थरों और ज़हरीले सांपों के दरमियान बूदोबाश रखते थे। गन्दा पानी पीते थे और ग़लीज़ ग़िज़ा इस्तेमाल करते थे। आपस में एक दूसरे का ख़ून बहाते थे और क़राबतदारों से बेतआल्लुक़ी रखते थे। बुत तुम्हारे दरम्यान नसब थे और गुनाह तुम्हें घेरे हुए थे।

(बैयत के हंगाम)

मैंने देखा के सिवाए मेरे घरवालों के कोई मेरा मददगार नहीं है तो मैंने उन्हें मौत के मुंह में दे देने से गुरेज़ किया और इस हाल में चश्मपोशी की के आंखों में ख़स्द ख़ाशाक था। मैंने ग़म व ग़ुस्से के घूंट पिये और गुलू गिरफ्तगी और हन्ज़ाल से ज़्यादा तल्क़ हालात पर सब्र किया।

याद रखो! अमर व आस ने माविया की बैयत उस वक़्त तक नहीं की जब तक के बैयत की क़ीमत नहीं तय कर ली। ख़ुदा ने चाहा तो बैयत करने वाले का सौदा कामयाब न होगा और बैयत लेने वाले को भी सिर्फ़ रूसवाई ही नसीब होगी। लेहाज़ा जंग का सामान संभाल लो और इसके असबाब मुहैया कर लो के इसके शोले भड़क उट्ठे हैं और लपटें बलन्द हो चुकी हैं और देखो सब्र को अपना शआर बना लो के यह नुसरत व कामरानी का बेहतरीन ज़रिया है।

((किसी क़ौम के लिये डूब मरने की बात है के उसका मासूम रहनुमा उससे इस क़द्र आजिज़ आ जाए के उसके हक़ में दरपरदा बद्दुआ करने के लिये तैयार हो जाए और उसे दुशमन के हाथ फ़रोख़्त कर देने पर आमादा हो जाए।

अहले कूफ़ा की बदबख़्ती की आखि़री मन्ज़िल थी के वह अपने मासूम रहनुमा को भी तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम न कर सके और इनके दरम्यान इनका रहनुमा ऐन हालते सजदा में शहीद कर दिया गया। कूफ़े का क़यास मदीने के हालात पर नहीं किया जा सकता है। मदीने ने अपने हाकिम का साथ नहीं दिया इस लिये के वह ख़ुद इसके हरकात से आजिज़ थे और मुसलसल एहतेजाज कर चुके थे लेकिन कूफ़े में ऐसा कुछ नहीं था या वाजे़अ लफ़्ज़ों में यूँ कहा जा सकता है के मदीने के हुक्काम के क़ातिल अपने अमल पर मुतमईन थे और उन्हें किसी तरह की शर्मिन्दगी का एहसास नहीं था लेकिन कूफ़े में जब अमीरूल मोमेनीन (अ) ने अपने क़ातिल से दरयाफ़त किया के क्या मैं तेरा कोई बुरा इमाम था? तो उसने बरजस्ता यही जवाब दिया के आप किसी जहन्नुम में जाने वाले को रोक नहीं सकते हैं। गोया मदीने से कूफ़े तक के हालात से यह बात बिल्कुल वाज़ेअ हो जाती है के मदीने के मक़तूल अपने ज़ुल्म के हाथों क़त्ल हुए थे और कूफ़े का शहीद अपने अद्लो इन्साफ़ की बुनियाद पर शहीद हुआ है और ऐसे ही शहीद को यह कहने का हक़ है के “फ़ुज़्तो बे रब्बिल काबा” (परवरदिगारे काबा की क़सम मैं कामयाब हो गया)))

27-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जो उस वक़्त इरशाद फ़रमाया जब आपको ख़बर मिली के माविया के लशकर ने अनबार पर हमला कर दिया है। इस ख़ुतबे में जेहाद की फ़ज़ीलत का ज़िक्र करके लोगों को जंग पर आमादा किया गया है और अपनी जंगी महारत का तज़किरा करके नाफ़रमानी की ज़िम्मेदारी लशकरवालों पर डाली गई है)

अम्मा बाद! जेहाद जन्नत के दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा है जिसे परवरदिगार ने अपने मख़सूस औलिया के लिये खोला है। यह तक़वा का लिबास और अल्लाह की महफ़ूज़ व मुस्तहकम ज़िरह और मज़बूत सिपर है। जिसने एराज़ करते हुए नज़रअन्दाज़ कर दिया उसे अल्लाह ज़िल्लत का लिबास पिन्हा देगा और उस पर मुसीबत हावी हो जाएगी और उसे ज़िल्लत व ख़्वारी के साथ ठुकरा दिया जाएगा और उसके दिल पर ग़फ़लत का परदा डाल दिया जाएगा और जेहाद को वाज़ेअ करने की बिना पर हक़ उसके हाथ से निकल जाएगा और उसे ज़िल्लत बरदाश्त करना पड़ेगा और वह इन्साफ़ से महरूम हो जाएगा। (((माविया ने अमीरूलमोमेनीन (अ0) की खि़लाफ़त के खि़लाफ़ बग़ावत का एलान करके पहले सिफ़्फ़ीन का मैदाने कारज़ार गरम किया। उसके बाद हर इलाक़े में फ़ितना व फ़साद की आगणन भड़काई ताके आपको एक लम्हे के लिये सुकून नसीब न हो सके और आप अपने निज़ामे अद्ल व इन्साफ़ को सुकून के साथ राएज न कर सकें। माविया के इन्हीं हरकात में से एक काम यह भी था के बनी ग़ामद के एक शख़्स सुफ़यान बिन औफ़ को छः हज़ार लशकर देकर रवाना कर दिया के इराक़ के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों पर ग़ारत का काम शुरू कर दे। चुनान्चे इसने अनबा पर हमला कर दिया जहाँ हज़रत (अ0) का मुख़्तसर सरहदी हिफ़ाज़ती दस्ता था और वह इस लशकर से मुक़ाबला न कर सका सिर्फ़ चन्द अफ़राद साबित क़दम रहे। बाक़ी सब भाग खड़े हुए और इसके बाद सुफ़ियान का लशकर आबादी में दाखि़ल हो गया और बेहद लूट मचाई। जिसकी ख़बर ने हज़रत (अ) को बेचैन कर दिया और आपने मिम्बर पर आकर क़ौम को ग़ैरत दिलाई लेकिन कोई लशकर तैयार न हो सका जिसके बाद आप ख़ुद रवाना हो गए और इस सूरते हाल को देख कर चन्द अफ़राद को ग़ैरत आ गई और एक लशकर सुफ़ियान के मुक़ाबले के लिये सईद बिन क़ैस की क़यादत में रवाना हो गया मगर इत्तेफ़ाक़ से उस वक़्त सुफ़ियान का लशकर वापस जा चुका था और लशकर जंग किये बग़ैर वापस आ गया और आपने नासाज़िए मिज़ाज के बावजूद ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह ख़ुत्बा कूफ़े वापस आने के बाद इरशाद फ़रमाया है और बाज़ का कहना है के मक़ामे नख़ीला ही पर इरशाद फ़रमाया था बहरहाल सूरत वाक़ेअन इन्तेहाई अफ़सोसनाक और दर्दनाक थी और इस्लाम में इसकी बेशुमार मिसालें पाई जाती हैं))) आगाह हो जाओ के मैंने तुम लोगों को इस क़ौम से जेहाद करने के लिये दिन में पुकारा और रात में आवाज़ दी। ख़ुफ़िया तरीक़े से दावत दी और अलल एलान आमादा किया और बराबर समझाया के इनके हमला करने से पहले तुम मैदान में निकल आओ के ख़ुदा की क़सम जिस क़ौम से उसके घर के अन्दर जंग की जाती है उसका हिस्सा ज़िल्लत के अलावा कुछ नहीं होता है लेकिन तुमने टाल मटोल किया और सुस्ती का मुज़ाहेरा किया। यहां तक के तुम पर मुसलसल हमले शुरू हो गए और तुम्हारे इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। देखो यह बनी ग़ामिद के आदमी (सुफ़यान बिन औफ़) की फ़ौज अनबार में दाखि़ल हो गई है और उसने हेसान बिन हेसान बकरी को क़त्ल कर दिया है और तुम्हारे सिपाहियों को उनके मराकज़ से निकाल बाहर कर दिया है और मुझे तो यहाँ तक ख़बर मिली है के दुशमन का एक सिपाही मुसलमान या मुसलमानों के मुआहेदे में रहने वाली औरत के पास वारिद होता था। और उसके पैरों के कड़े , हाथ के कंगन, गले के गुलूबन्द और कान के गोशवारे उतार लिया था और वह सिवाए इन्नालिल्लाह पढ़ने और रहमो करम की दरख़्वास्त करने के कुछ नहीं कर सकती थी और वह सारा साज़ोसामान लेकर चला जाता था न कोई ज़ख़्म खाता था और न किसी तरह का ख़ून बहता था। इस सूरतेहाल के बाद अगर कोई मर्दे मुसलमान सदमे से मर भी जाए तो क़ाबिले मलामत नहीं है बल्के मेरे नज़दीक हक़ ब जानिब है। किस क़द्र हैरतअंगेज़ और ताअज्जुबख़ेज़ सूरते हाल है। ख़ुदा की क़सम यह बात दिल को मुर्दा बना देने वाली है व ग़म को समेटने वाली है के यह लोग अपने बातिल पर इकट्ठा और मुज्तहिद हैं और तुम अपने हक़ पर भी मुत्तहिद नहीं हो। तुम्हारा बुरा हो, क्या अफ़सोसनाक हाल है तुम्हारा। के तुम तीरअन्दाज़ों का मुस्तक़िल निशाना बन गए हो। तुम पर हमला किया जा रहा है और तुम हमला नहीं करते हो। तुमसे जंग की जा रही है और तुम बाहर नहीं निकलते हो। लोग ख़ुदा की नाफ़रमानी कर रहे हैं और तुम इस सूरतेहाल से ख़ुश हो। मैं तुम्हें गरमी में जेहाद के लिये निकलने की दावत देता हूँ तो कहते हो के शदीद गर्मी है, थोड़ी मोहलत दे दीजिये के गर्मी गुज़र जाए। इसके बाद सर्दी में बुलाता हूँ तो कहते हो सख़्त जाड़ा पड़ रहा है ज़रा ठहर जाइये के सर्दी ख़त्म हो जाए, हालाँके यह सब जंग से फ़रार करने के बहाने हैं वरना जो क़ौम सर्दी और गर्मी से फ़रार करती हो वह तलवारों से किस क़द्र फ़रार करेंगी। ऐ मर्दों की शक्ल व सूरत वालों और वाक़ेअन नामर्दों! तुम्हारी फ़िक्रें बच्चों जैसी और तुम्हारी अक़्लें हुजलानशीन औरतों जैसी हैं। मेरी दिली ख़्वाहिश थी के काश मैं तुम्हें न देखता और तुमसे मुताअर्रूफ़ न होता। जिसका नतीजा सिर्फ़ निदामत और रन्ज व अफ़सोस है। अल्लाह तुम्हें ग़ारत कर दे तुमने मेरे दिल को पीप से भर दिया है और मेरे सीने को रंजो ग़म से छलका दिया है। तुमने हर साँस में हम व ग़म के घूँट पिलाए हैं और अपनी नाफ़रमानी और सरकशी से मेरी राय को भी बेकार व बे असर बना दिया है यहाँ तक के अब क़ुरैश वाले यह कहने लगे हैं के फ़रज़न्दे अबूतालिब बहादुर तो हैं लेकिन इन्हें फ़नूने जंग का इल्म नहीं है। अल्लाह इनका भला करे, क्या इनमें कोई भी ऐसा है जो मुझसे ज़्यादा जंग का तजुर्बा रखता हो और मुझसे पहले से कोई मक़ाम रखता हो, मैंने जेहाद के लिये उस वक़्त क़याम किया है जब मेरी उम्र20 साल भी नहीं थी और अब तो 60 से ज़्यादा हो चुकी है। लेकिन क्या किया जाए। जिसकी इताअत नहीं की जाती है उसकी राय कोई राय नहीं होती है। (((किसी क़ौम की ज़िल्लत व रूसवाई के लिये इन्तेहाई काफ़ी है के उनका सरबराह हज़रत अली (अ0) बिन अबूतालिब जैसा इन्सान हो और वह उनसे इस क़दर बददिल हो के इनकी शक्लों को देखना भी गवारा न करता हो। ऐसी क़ौम दुनिया में ज़िन्दा रहने के क़ाबिल नहीं है और आखि़रत में भी इसका अन्जाम जहन्नम के अलावा कुछ नहीं है। इस मक़ाम पर मौलाए कायनात (अ0) ने एक और नुक्ते की तरफ़ भी इशारा किया है के तुम्हारी नाफ़रमानी और सरकशी ने मेरी राय को भी बरबाद कर दिया है और हक़ीक़ते अम्र यह है के राहनुमा और सरबराह किसी क़द्र भी ज़की और अबक़री क्यों न हो , अगर क़ौम इसकी इताअत से इन्कार कर दे तो नाफ़हम इन्सान यही ख़याल करता है के शायद यह राय और हुक्म क़ाबिले अहले सनअत न था इसीलिये क़ौम ने इसे नज़रअन्दाज़ कर दिया है। ख़ुसूसियत के साथ अगर काम ही इज्तेमाई हो तो इज्तेमाअ का इन्हेराफ़ काम को भी मुअत्तल कर देता है और इसके नताएज बहरहाल नामुनासिब और ग़लत होते हैं जिसका तजुर्बा मौलाए कायनात (अ0) के सामने आया के क़ौम ने आपके हुक्म के मुताबिक़ जेहाद करने से इनकार कर दिया और गर्मी व सर्दी के बहाने बनाना शुरू कर दे और इसके नतीजे में दुश्मनों ने यह कहना शुरू कर दिया के अली (अ0) फ़नूने जंग से बाख़बर नहीं हैं हालांके अली (अ0) से ज़्यादा इस्लाम में कोई माहिरे जंग व जेहाद नहीं था जिसने अपनी सारी ज़िन्दगी इस्लामी मुजाहेदात के मैदानों में गुज़ारी थी और मुसलसल तेग़ आज़माई का सबूत दिया था और जिसकी तरफ़ ख़ुद आपने भी इशारा फ़रमाया है और अपनी तारीख़े हयात को इसका गवाह क़रार दिया है। दुश्मनों के तानों से एक बात बहरहाल वाज़ेअ हो जाती है के दुश्मनों को आपकी ज़ाती शुजाअत का इक़रार था और फ़न्ने जंग की नावाक़फ़ीयत से मुराद क़ौम का बेक़ाबू हो जाना था और खुली हुई बात है के अली (अ0) इस तरह क़ौम को क़ाबू में नहीं कर सकते थे जिस तरह माविया जैसे दीन व ज़मीर के ख़रीदार इस कारोबार को अन्जाम दे रहे थे और हर दीन व बेदीनी के ज़रिये क़ौम को अपने क़ाबू में रखना चाहते थे और इनका मन्षा सिफ़ यह था के लशकर वालों को ऊंट और ऊंटनी का फ़र्क़ मालूम न हो सके।)))

28- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जो उस ख़ुतबे की एक फ़ज़ीलत की हैसियत रखता है जिसका आग़ाज़ “अलहम्दो लिल्लाह ग़ैरे मक़नूत मन रहमत’से हुआ और इसमें ग्यारह तम्बीहात हैं)

अम्माबाद! यह दुनिया पीठ फेर चुकी है और इसने अपने विदा का एलान कर दिया है और आख़ेरत सामने आ रही है और इसके आसार नुमाया हो गए हैं। याद रखो के आज मैदाने अमल है और कल मुक़ाबला होगा जहाँ सबक़त करने वाले का इनआम जन्नत होगा और बदअमली का अन्जाम जहन्नम होगा। क्या अब भी कोई ऐसा नहीं है जो मौत से पहले ख़ताओं से तौबा कर ले और सख़्ती के दिन से पहले अपने नफ़्स के लिये अमल कर ले। याद रखो के तुम आज उम्मीदों के दिनों में हो जिसके पीछे मौत लगी हुई है तो जिस शख़्स ने उम्मीद के दिनों में मौत आने से पहले अमल कर लिया उसे इसका अमल यक़ीनन फ़ाएदा पहुँचाएगा और मौत कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएगी, लेकिन जिसने मौत से पहले उम्मीद के दिनों में अमल नहीं किया उसने अमल की मन्ज़िल में घाटा उठाया और इसकी मौत भी नुक़सानदेह हो गई। आगाह हो जाओ- तुम लोग राहत के हालात में इसी तरह अमल करो जिस तरह ख़ौफ़ के आलम में करते हो, के मैंने जन्नत जैसा कोई मतलूब नहीं देखा है जिसके तलबगार सब सो रहे हैं और जहन्नम जैसा कोई ख़तरा नहीं देखा है जिससे भागने वाले सब ख़्वाबे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं। याद रखो के जिसे हक़ फ़ायदा न पहुँचा सके उसे बातिल ज़रूर नुक़सान पहुंचाएगा और जिसे हिदायत सीधे रास्ते पर न ला सकेगी इसे गुमराही बहरहाल खींच कर हलाकत तक पहुँचा देगी। आगाह हो जाओ के तुम्हें कोच का हुक्म मिल चुका है और तुम्हें ज़ादे सफ़र भी बताया जा चुका है और तुम्हारे लिये सबसे बड़ा ख़ौफ़नाक ख़तरा दो चीज़ों का है। ख़्वाहिशात का इत्तेबाअ और उम्मीदों का तूलानी होना। लेहाज़ा जब तक दुनिया में हुआ इस दुनिया से वह ज़ादे राह हासिल कर लो जिसके ज़रिये कल अपने नफ़्स का तहफ़्फ़ुज़ कर सको। सय्यद रज़ी- अगर कोई ऐसा कलाम हो सकता है जो इन्सान की गर्दन पकड़ कर इसे ज़ोहद की मन्ज़िल तक पहुँचा दे और उसे अमल आखि़रत पर मजबूर कर दे तो वह यही कलाम है। (((ज़माने के हालात का जाएज़ा लिया जाए तो अन्दाज़ा होगा के शायद इस दुनिया के इससे बड़ी कोई हक़ीक़त और सिदाक़त नहीं है। जिस शख़्स से पूछिये वह जन्नत का मुशताक है और जिस शख़्स को देखिये वह जहन्नुम के नाम से पनाह मांगता है। लेकिन मन्ज़िले अमल में दोनों इस तरह सो रहे हैं जैसे के यह माषूक़ अज़ ख़ुद घर आने वाला है और यह ख़तरा अज़ख़ुद टल जाने वाला है। न जन्नत के आशिक़ जन्नत के लिये कोई अमल कर रहे हैं और न जहन्नम से ख़ौफ़ज़दा इससे बचने का इन्तेज़ाम कर रहे हैं बल्कि दोनों का ख़याल यह है के मन्सब में कुछ अफ़राद ऐसे हैं जिन्होंने इस बात का ठेका ले लिया है के वह जन्नत का इन्तेज़ाम भी करेंगे और जहन्नम से बचाने का बन्दोबस्त भी करेंगे और इस सिलसिले में हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। हालाँके दुनिया के चन्द रोज़ा माषूक़ का मामला इससे बिल्कुल मुख़तलिफ़ है। यहाँ कोई दूसरे पर भरोसा नहीं करता है। दौलत के लिये सब ख़ुद दौड़ते हैं, शोहरत के लिये सब ख़ुद मरते हैं, औरत के लिये सब ख़ुद दीवाने बनते हैं, ओहदे के लिये सब ख़ुद रातों की नीन्द हराम करते हैं, ख़ुदा जाने यह अबदी माषूक़ जन्नत जैसा महबूब है जिसका मामला दूसरों के रहमो करम पर छोड़ दिया जाता है और इन्सान ग़फ़लत की नींद सो जाता है। काश यह इन्सान वाक़ेअन मुशताक और ख़ौफ़ज़दा होता तो यक़ीनन इसका यह किरदार न होता। “फ़ाअतबरू या ऊलिल अबसार”)) यह कलाम दुनिया की उम्मीदों को क़ता करने और वाअज़ व नसीहत क़ुबूल करने के जज़्बात को मुष्तअल करने के लिये काफ़ी होता। ख़ुसूसियत के साथ हज़रत का यह इरशाद के “आज मैदाने अमल है और कल मुक़ाबला, इसके बाद मन्ज़िले मक़सूद जन्नत है और अन्जाम जहन्नम।”इसमें अल्फ़ाज़ की अज़मत मानी की क़द्रो मन्ज़ेलत तहशील की सिदाक़त और तस्बीह की वाक़ेअत के साथ वह अजीबो ग़रीब राज़े निजात और लताफ़त मफ़हूम है जिसका अन्दाज़ा नहीं किया जा सकता है। फिर हज़रत (अ0) ने जन्नत व जहन्नम के बारे में “सबक़ा”और “ग़ायत”का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है जिसमें सिर्फ़ लफ़्ज़ी इख़्तेलाफ़ नहीं है बल्के वाक़ेअन मानवी इफ़तेराक़ व इम्तेयाज़ पाया जाता है के न जहन्नम को सबक़ा (मन्ज़िल) कहा जा सकता है और न जन्नत को ग़ायत (अन्जाम) जहाँ तक इन्सान ख़ुद ब ख़ुद पहुंच जाएगा बल्कि जन्नत के लिये दौड़ धूप करना होगी जिसके बाद इनआम मिलने वाला है और जहन्नम बदअमली के नतीजे में ख़ुद ब ख़ुद सामने आ जाएगा। इसके लिये किसी इष्तेयाक़ और मेहनत की ज़रूरत नहीं है। इसी बुनियाद पर आपने जहन्नम को ग़ायत (अन्जाम) क़रार दिया है जिस तरह के क़ुरआन मजीद ने “मसीर”से ताबीर किया है, “फान मसीर कुम एलन्नार”। हक़ीक़तनइ स नुक्ते पर ग़ौर करने की ज़रूरत है के इसका बातिन इन्तेहाई अजीब व ग़रीब और इसकी गहराई इन्तेहाई लतीफ़ है और यह तन्हा इस कलाम की बात नहीं है। हज़रत के कलमात में आम तौर से यही बलाग़त पाई जाती है और इसके मआनी में इसी तरह की लताफ़त और गहराई नज़र आती है। बाज़ रिवायात में जन्नत के लिये सबक़त के बजाए सुबक़त का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी इनआम के हैं और खुली हुई बात है के इनआम भी किसी मज़मूम अमल पर नहीं मिलता है बल्के इसका ताअल्लुक़ भी क़ाबिले तारीफ़ आमाल ही से होता है लेहाज़ा अमल बहरहाल ज़रूरी है और अमल का क़ाबिले तारीफ़ होना भी लाज़मी है।

29- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जब तहकीम के बाद माविया के सिपाही ज़हाक बिन क़ैस ने हज्जाज के क़ाफ़िले पर हमला करवा दिया और हज़रत को इसकी ख़बर दी गई तो आप (अ0) ने लोगों को जेहाद पर आमादा करने के लिये यह ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया)

ऐ वह लोग! जिनके जिस्म एक जगह पर हों और ख़्वाहिशात अलग-अलग हों। तुम्हारा कलाम तो सख़्त तरीन पत्थर को भी नर्म कर सकता है लेकिन तुम्हारे बारे में पुरउम्मीद बना देते हैं। तुम महफ़िलों में बैठकर ऐसी-ऐसी बातें करते हो के ख़ुदा की पनाह लेकिन जब जंग का नक़्षा सामने आता है तो कहते हो “दूर बाश दूर”हक़ीक़ते अम्र यह है के जो तुमको पुकारेगा उसकी पुकार कभी कामयाब न होगी और जो तुम्हें बरदाश्त करेगा उसके दिल को कभी सुकून न मिलेगा। तुम्हारे पास सिर्फ बहाने हैं और ग़लत सलत हवाले और फिर मुझसे ताख़ीरे जंग की फ़रमाइश जैसे कोई नादहन्द क़र्ज़ को टालना चाहता है। याद रखो ज़लील आदमी ज़िल्लत को नहीं रोक सकता है और हक़ मेहनत के बग़ैर हासिल नहीं किया हो सकता है। तुम जब अपने घर का दिफ़ाअ न कर सकोगे तो किसके घर का दिफ़ाअ करोगे और जब मेरे साथ्ज्ञ जेहाद न करोगे तो किसके साथ जेहाद करोगे। ख़ुदा की क़सम वह फ़रेब खोरदा है जो तुम्हारे धोके में आ जाए और जो तुम्हारे सहारे कामयाबी चाहेगा इसे सिर्फ नाकामी का तीर हाथ आएगा।

(((माविया का एक मुस्तक़िल मुक़द्दर यह भी था के अमीरूल मोमेनीन (अ0) किसी आन चैन से न बैठने पाएं कहीं ऐसा न हो के आप वाक़ई इस्लाम क़ौम के सामने पेश कर दें और अमवी उफ़कार का जनाज़ा निकल जाए। इसलिये वह मुसलसल रेशा रवानियों में लगा रहता था। आखि़र एक मरतबा ज़हाक बिन क़ैस को चार हज़ार का लशकर देकर रवाना कर दिया और उसने सारे इलाक़े में कुश्त व ख़ून शुरू कर दिया। आपने मिम्बर पर आकर क़ौम को ग़ैरत दिलाई लेकिन कोई खातिर ख़्वाह असर नहीं हुआ और लोग जंग से किनाराकशी करते रहे। यहाँ तक के हजर बिन अदी चार हज़ार सिपाहियों को लेकर निकल पड़े और मुक़ाम तदमर पर दोनों का सामना हो गया। लेकिन माविया का लशकर भाग खड़ा हुआ और सिर्फ़ 19 अफ़राद माविया के काम आए जबके हजर के सिपाहियों में दो अफ़राद ने जामे शहादत नौश फ़रमाया।)))

और जिसने तुम्हारे ज़रिये तीर फेंका उसने वह तीर फेंका जिसका पैकान टूट चुका है और सूफार ख़त्म हो चुका है। ख़ुदा की क़सम मैं इन हालात में तुम्हारे क़ौल की तस्दीक़ कर सकता हूँ और न तुम्हारी नुसरत की उम्मीद रखता हूँ और न तुम्हारे ज़रिये किसी दुशमन को तहदीद कर सकता हूँ। आखि़र तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारी दवा क्या है? तुम्हारा इलाज क्या है? आखि़र वह लोग भी तो तुम्हारे ही जैसे इन्सान हैं, यह बग़ैर इल्म की बातें कब तक और यह बग़ैर तक़वा की ग़फ़लते ताबके और बग़ैर हक़ के बलन्दी की ख़्वाहिश कहाँ तक?