ज़ुल्मत से निजात

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ज़ुल्मत से निजात लेखक:
कैटिगिरी: विभिन्न

ज़ुल्मत से निजात

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आक़ाई वहीद मुहम्मदी
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ज़ुल्मत से निजात

ज़ुल्मत से निजात

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

तीसरी फ़स्ल

दुश्मनाने दीन के बारे में अहलेबैत (अलैहिस्सलाम )की सीरत

कारेईने किराम! अब जबकि क़ुरआने मजीद की रौशनी से मलऊईन ( जिन पर लानत हो ) की पहचान हो गई है तो आईये अहलेबैत अलैहमुस्सलाम की बज़्म में बैठ कर यह पता लगायें कि इन लोगों पर लानत करने और इन से बेज़ारी की अहमियत क्या है और इन लोगों पर किस तरह लानत की जाये ?।

आइये तारीख़ के सफ़्हात (पन्नों) में तलाश करते हैं-

(1)हज़रते रसूले अकरम (स.अ.) का इरशादे गिरामी है-

 "मैं बहिशत में दाख़िल हुआ तो उसके दरवाज़े पर लिखा हुआ था- "ला इलाहा इलल्ललाह ,मुहम्मदन हबीबल्लाह ,अली इब्ने अबी तालिब वलीउल्लाह ,फ़ातिमा अममतुल्लाह ,अल-हसनो वल हुसैन सिफ़वतुल्लाह ,अला मुबग़ज़ीहुम लानतुल्लाह "।

तरजुमा- "अल्लाह के अलावा कोई माबूद नहीं ,हज़रते मुहम्मद अल्लाह के हबीब हैं ,हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अल्लाह के वली हैं ,और फ़ातिमा ज़हरा ख़ुदा की मुन्तख़ब कनीज़ हैं और इमामे हसन व इमामे हुसैन अल्लाह के चुने हुए हैं इन से बुग़्ज़ ओ हसद रखने वालों पर अल्लाह की लानत है "।

(ख़िसाले शैख़े सुदूक़ ,सफ़्हा- 324,बिहारूल अनवार ,जि- 27स- 228)

दुशमनाने दीन से बेज़ारी और उन पर लानत करना जन्नत में वारिद होने की शर्तों में से एक शर्त है ,जन्नत के दरवाज़े से वही दाख़िल हो सकता है जो दुनिया में हज़राते मोहम्मद वा आले मोहम्मद अलैहमुस्सलाम के दुश्मनो पर लानत को अपना शिआर (आदत) बनाये हुऐ है।

बा-दस्ते ख़ुद बर दरे जन्नत नवशित।

बुग़्ज़े अली  जहन्नम ,व हुब्बे अली बहुश्त।

(अपने हाथ से जन्नत के दरवाज़े पर लिखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बुग़्ज़ और दुशमनी जहन्नम है और उनकी मोहब्बत और दोस्ती जन्नत है।)

(2).ज़ियारते आशूरा- यह वह ज़ियारत है जिसकी सनद (सबूत) मुस्तहक़म और मतीन (प्रमाणित) है ,जिस पर सद्रे इस्लाम (इस्लाम के शुरूआती दौर) ही से उल्मा-ए-इस्लाम ने ताईद और ताक़ीद (ज़ोर देना) की है ,इस ज़ियारत में करबला के दर्दनांक वाक़ेये की बुनियाद डाले जाने का बयान किया गया है और उन बुनियाद डालने को पहचनवाया गया है और उन पर लानत की गई है ,इस ज़ियारत में ख़ुदा और अहलेबैते रसूल के दुश्मनो पर लानत भेजने को दीन की बुनियाद बताया गया है और उन पर लानत को ख़ुदा और औलिया-अल्लाह से तक़र्रूब (क़रीब होने) का ज़रिया बताया हः-

    "अल्ला हुम्मा इन्नी अतक़रूब इलैका-------- बिल बराअते मिनहुम वल लानता अलैहिम"

(तरजुमाः- ख़ुदाया! मैं क़ुरबत चाहता हूँ ,उन लोगों (जिन्होंने आले मुहम्मद पर ज़ुल्म किये) से बराएत बेज़ारी और लानत के ज़रिये)

इस ज़ियारते शरीफ़ में अहलेबैत अलैहुम्मुस्साल पर ज़ुल्मों सितम की बुनियाद डालने वालों पर लानत का हुक्म औलिया-अल्लाह पर दुरूद और सलाम से भी ज़्यादा हुआ है।

इस ज़ियारत के आख़िर में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ,अहलेबैत अलैहुम्मुस्सलाम और आपके असहाब पर सौ मरतबा दुरूद और सलाम से पहले ,सौ मरतबा दुश्मनो पर लानत को मुक़द्दम (अहमियत) रक्ख़ा गया है यानी पहले सौ मरतबा दुश्मनो पर लानत पढ़ी जाती है ,उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आपके असहाब पर सौ मरतबा सलाम भेजा जाता है।

इससे लानत की अहमियत वाज़ेह हो जाती है कि दीने इस्लाम में लानत का मसअला कितना असासी और बुनियादी है।

सलाम के बाद एक बार फिर हाथ बुलन्द किये जाते है और इन तमाम ज़ुल्म व सितम की बुनियाद रखने वालों पर एक-एक करके लानत की जाती हैः-

अल्ला हुम्मा ख़ुस्सा अन्ता अव्वला ज़ालिम (अबूबक्र) बिल-लाअन मिन्नी व अब्दा बेह अव्वलन सुम्मा सानी ( उमर ) वस-सालिस ( उसमान ) वर-राजेह ( माविया ) ,अल्ला हुम्मा लाअन यज़ीद ख़ामेसन--------।

(तरजुमाः- ऐ अल्लाह! सबसे पहले ज़ालिम अबूबक्र पर मेरी तरफ़ से मख़सूस लानत हो और उसी से लानत की शुरूआत करता हूँ और उसके बाद दूसरे उमर पर ,उसके बाद तीसरे उसमान पर और उसके बाद चौथे माविया पर ,परवरदिगार फिर इनके पाँचवे यज़ीद पर लानत फ़रमा)

(मफ़ातिहुल- जिनान)

इन्सान एक के बाद एक लानत के बाद अपने को बारगाहे परवरदिगार में इस क़दर नज़दीक पाता है कि  के जुमरे (गिरोह) में शामिल हो जाये।

(3)-हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम हर नमाज़ के बाद चार मर्दों और चार औरतों पर लानत किया करते थे। मर्दों में अबूबक्र ,उमर ,उसमान और माविया पर लानत और औरतों में अबूबक्रे मलऊन की बेटी आयशा पर ,उमर की बेटी हफ़्सा पर ,अबूसुफ़ियान की बीवी और माविया की माँ हिन्दा पर और उम्मुल-हकम पर।

( उसूले काफ़ी जिल्दः- 3सफ़्हाः- 342 )

कारेईने किराम! इमाम (अ.स.) का हर नमाज़ के बाद इन लोगों पर लानत करना इस बात की वजह से था कि इन लोगों ने ख़ुदा और रसूल और दीने ख़ुदा नीज़ उम्मते रसूल पर ज़ुल्मों सितम किये ,जैसा कि आपने कुमैत इब्ने ज़ैद के जवाब में इरशाद फ़रमायाः-

"ऐ कुमैल बिन ज़ैद! इस्लाम में किसी का ख़ूने ना-हक़ नहीं बहेगा ,हराम तरीक़े से मालो दौलत क़स्ब नहीं की जायेगी ,कोई ज़िना नहीं होगा मगर यह कि इनका हिसाब इन दोनों ( उमर और अबूबक्र ) की गर्दन पर होगा ,यहाँ तक की हम अहलेबैत में से क़ायमें आले मुहम्मद (अ.स.) क़याम (ज़ाहिर) करेगा। "

"हम बनी हाशिम अपने छोटे बड़ों को हुक्म देते हैं कि इन दोनों पर लानत करें और इनके लिये ना-सज़ा कहें।"

(रिजालकशी- सः- 206,हः- 364,बिहारूल- अनवार जः- 47,सः- 323,हः- 17)।

इस सिलसिले में अहलेबैत इस्मतो तहारत (अ.स.) से बहुत सी रवायतें मौजूद हैं जो इस मुख़्तसर किताब की वुस्अत से बाहर हैं ,मसअलन हज़रते अमीरूल- मोमिनीन (अ.स.) की वह दुआ जिसको आप शबो रोज़ की नमाज़े में दर्द भरी आवाज़ से पढ़ा करते थे और अबूबक्र और उमर और उनकी बेटियों पर लानत किया करते थे। (वह दुआ सनमी क़ुरैश (बलदुल-अमीनः – सः- 551)है जिसका तरजुमा किताब के आख़ीर में पेश किया जाऐगा)।

इसी तरह हज़रत इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से एक दूसरी दुआ जिसमें इन ना-अहलों पर बेशुमार लानते की गई हैं ,आप फ़रमाते हैः-

"हमारे दोस्तो और शियों पर हमारा हक़ यह है कि हर नमाज़ के बाद इस दुआ को पढ़ें "।

(महजुद-दावात ,सफ़्हाः- 333)

बराअत (तबर्रा) शर्ते ईमान है

(1)हज़रते रसूले अकरम (स.अ.) फ़रमाते हैः-

"ख़ुदा वन्दे आलम किसी बन्दे के ईमान को उस वक़्त तक क़ुबूल नहीं करता जब तक हज़रत अली (अ.स.) की विलायत और उनके दुश्मनो से बेज़ारी न करे "।

(माअते मन्क़बता ,स़ः- 176,बिहारूल अनवार ,जिः- 26,सः- 229)

(2)हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः-

"अगर कोई शख़्स हमारे दुश्मनो को दोस्त रक्खे या हमारी दोस्ती को दुश्मन रक्खे! क़सम उस परवरदिगार की जिसने सबऐ मसानी और क़ुरआने करीम को नाज़ील किया ऐसा शख़्स काफ़िर है " ।

(अमाली ,शैखे सुदूक़ ,सः- 52,हदीसः- 4)

(3)यह भी फ़रमाते हैः-

"उस ख़ुदा की क़सम जिसने हज़रते मुहम्मदे मुस्तफ़ा (स.अ.) को मबऊस बा-रिसालत किया अगर जनाबे जिबरईल और मिकाईल के दिल में ज़र्रा बराबर भी उमर और अबूबक्र की मुहब्बत होती तो ख़ुदा उनको आतीशे जहन्नम में डाल देता "।

(सराएरः- सः- 43,हदीसः- 16,बिहारूल अनवार जिः- 45,सः- 339)

(4)फिर इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः-

"जो शख़्स भी हमारे दुश्मनो और हम पर ज़ुल्म करने वालों के काफ़िर होने में शक करे बेशक वो काफ़िर है "।

(रिजालकशी ,जिल्दः- 2,सः- 811 )

अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने की फ़ज़ीलत

हज़रत इमाम ज़ैनुल-आबिदीन (अ.स.) फ़रमाते हैः-

"जो शख़्स उमर और अबूबक्र पर दिन में एक मरतबा लानत करे ख़ुदा वन्दे आलम सत्तर-सत्तर हज़ार नेकियाँ उसके नामा-ए-आमाल में लिख देता है और सत्तर-सत्तर हज़ार गुनाह मिटा देता है और सत्तर-सत्तर हज़ार दरजात बुलन्द कर देता है और जो शख़्स राम में उन पर एक मरतबा लानत करे उसके लिये भी वही अज्र और सवाब है "। (शिफ़ा-उस-सुदूर ,जिः- 2,सः- 378)

1.बहुत से दलाएल और शवाहिद मौजूद हैं कि जिब्त और ताग़ूत से अबूबक्र और उमर मुराद हैं।

चौथी फ़स्ल

अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने वालों पर ख़ास इनायतें

अहलेबैत (अ.स.) के दुश्मनो पर लानत करने वालों और उनसे बेज़ारी करने वालों पर हमेशा ख़ुदा वन्दे आलम की इनायात शामिल रहीं हैं और आईम्मा-ए-ताहिरीन (अ.स.) की तरफ़ से भी उनकी हौंसला-अफ़ज़ाई और तशवीक़ (मदद) की गई है ,और जिन लोगों ने इस अमले लानत को मुसलसल अन्जाम दिया है उन पर ख़ास तरीक़े से रहमतें और बरकतें नाज़ील हुईं हैं।

इस सिलसिले में चन्द नमूने आपकी ख़िदमत में पेश करना मुनासिब समझता हूः-

हज़रते ज़हरा (स.अ.) के क़ातिलों पर लानत करने वालों पर इमामें सादिक़ (अ.स.) की ख़ास इनायत

बशारे मकारी कहते हैः-

"मैं शहरे कूफ़ा में हज़रते इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ख़िदमते मुबारक में हाज़िर हुआ तो देखा कि हज़रत के सामने एक तख़्त में खुरमा रक्खा हुआ है और आप तनावुल फ़रमा रहें हैं ,इमाम (अ.स.) ने मुझे देख कर ख़ुरमा खाने के लिये कहा ,तो मैंने अर्ज़ किया "मौला! आप नोश फ़रमायें ,मुझे माफ़ फ़रमायें ,मैंने रास्ते में ऐसा दर्दनाक वाक़ेया देखा कि मेरा दिल तड़प रहा है लिहाज़ा कुछ खाने की तबीयत नहीं हो रही है"।

यह सुनकर हज़रत ने मुझसे फ़रमायाः- "तुम्हें मेरे हक़ की क़सम आगे बढ़ो और ख़ुरमा खाओ" पस मैंने मौला के हुक्म की तामील की और आगे बढ़कर ख़ुरमा खाना शुरू कर दिया।

उस वक़्त इमाम (अ.स.) ने मुझसे सवाल किया कि अब बताओ रास्ते में क्या देखा ?उस वक़्त मैंने अर्ज़ कियाः- "मौला मैंने एक सिपाही को देखा जो एक औरत को बुरी तरह मारता हुआ क़ैदख़ाने की तरफ लिये जा रहा है और वह औरत नाला-ओ-फ़रियाद कर रही है और लोगों को ख़ुदा व रसूल का वास्ता देकर मदद के लिये पुकार रही है लेकिन कोई भी उसकी फ़रियाद-रसी नहीं करता।

उस वक़्त इमाम (अ.स.) ने मुझसे सवाल किया कि "उस औरत पर यह सब कुछ ज़ुल्म क्यों हो रहे थे " ?

मैंने अर्ज़ कियाः- "मौला मैंने सुना कि लोग कह रहे है कि इस औरत का पैर ज़मीन पर लड़खड़ाया और ज़मीन पर गिर पड़ी तो इस औरत की ज़ुबान से यह जुमला जारी हुआः-

"लानल्लाहो क़ातिलीयके या फ़ातिमा (स.अ.)" (ऐ फ़ातिमा ज़हरा! आप को क़त्ल करने वालों पर अल्लाह की लानत करे)

जैसे ही इमामे सादिक़ (अ.स.) ने यह जुमला सुना तो खाने से हाथ रोक लिया और इस क़दर रोऐ के आपकी रीशे मुबारक और सीना-ए-मुबारक आँसूओं से भीग गये और इसके बाद इमाम अलेहिस्सलाम ने मुझ से फ़रमायाः- "ऐ बशार! उठो ,मस्जिदे सहला में जाकर उस औरत की रिहाई के लिये दुआ करते है ,और एक शख़्स को उस औरत की ख़बरगीरी के लिये रवाना किया और हम लोगों ने मस्जिदे सहला में जाकर दो रकअत नमाज़ पढ़ी और परवरदिगारे आलम की बारगाह में बा-दस्ते दुआ हुए और उस औरत की रिहाई के लिये दुआ की ,इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम सजदे में गये और कुछ देर बाद सजदे से सर उठाया और फ़रमायाः- "चलो चलते हैं! कि वह औरत आज़ाद हो गई" रास्ते में उस शख़्स से मुलाक़ात हुई जो उस औरत की ख़बरगीरी करने गया था ,उसने भी उस औरत की आज़ादी की ख़बर सुनाई।

इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने उस औरत के लिये अशरफ़ियों की एक थैली भिजवाई।

(बिहारूल- अनवार ,जिः- 97,सः- 441)

अबूराजेह पर इमामे ज़माना (अ.स.) की ख़ास इनायत

जनाबे अबूराजेह शहरे हिल्ला में साहबे हम्माम थे और वह बहुत ही कमज़ोर होने के साथ-साथ ख़ूबसूरत भी नहीं थे ,उनका रंग गन्दुमी था।

यह उस ज़माने की बात है ,जब दुश्मने अहलेबैत शहरे हिल्ला पर हुकूमत करता था और अहलेबैत (अ.स.) से उसको इस क़दर दुशमनी थी के जिस वक़्त वह बैठता था तो मक़ामें इमामे ज़माना( 1)पर कमर लगा कर बैठता था।

(1.मक़ामे इमामे ज़माना शहरे हिल्ला में इमामे ज़माना से मनसूब एक जगह को कहते हैं।)

अबूराजेह हज़रते अमीरूलमोमिनीन अलैहिस्सलाम और जनाबे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा के ऐसे दोस्तदारों और चाहने वालों में से था जो आपके क़ातिलों के सख़्त दुश्मन थे।

जनाबे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा के क़ातिलो से उनके दिल में दुशमनी की आग इस क़दर थी कि उठते-बैठते उनकी ज़बान पर लानत और नफ़रीन हुआ करती थी।

जिस वक़्त यह ख़बर हाकिम को पहुँची तो ग़ुस्से के आलम में अबूराजेह की गिरफ़्तारी और शिकन्जा (एक तरह की सज़ा) देने का हुक्म सादिक़ कर दिया।

चुनाँचे उनको गिरफ़्तार करके इस तरह शिकन्जा दिया गया कि तमाम बदन मजरूह और ज़ख़्मी हो गया ,दाँत टूट गये ,उनकी ज़बान को बाहर निकलवाया गया और लोहे की ज़न्जीर से बाँध देते थे ,उनकी नाक में सुराख़ करके उसमें रस्सी बाँध दी गई और उनको शहर के गली कूचों में मारते-पीटते हुऐ फिराया गया ,यहाँ तक कि वह शहादत के क़रीब पहुँच गये।

कुछ लोगों ने बीच बचाव करके उनको क़त्ल होने से बचा लिया ,उनके मजरूह और ज़ख़्मी बदन को घर ले जाया गया ,रात ग़ुज़रती रही सुब्हा के वक़्त उनके रिश्तेदार अपने गुमान के मुताबिक़ उनकी लाश देखने के लिये आए लेकिन लोगों ने बड़े तआज्जुब से देखा कि अबूराजेह नमाज़ पढ़ने में मशग़ूल हैं और उनके तमाम ज़ख़्म बिल्कुल ठीक हो गये है।

और उनको पहले के बर-ख़िलाफ़ एक ख़ूबसूरत ,सुर्ख़ दाढ़ी वाला बीस साल के जवान के जैसा पाया तो लोगों ने सवाल कियाः- "ऐ अबूराजेह! यह कैसे हुआ ?"

तो उन्होंने मुस्तुराते हुऐ कहाः- मैं जिस वक़्त दर्द और परेशानी के आलम में था ,मेरी जान निकली जा रही थी ,ज़बान में कुछ बोलने की ताक़त भी नहीं थी ,उस वक़्त मेरे दिल ने बे-पनाहों की पनाह ,मज़लूमों की फ़रियाद सुनने वाले इमामे ज़माना को पुकारा और कहाः- "ऐ मेरे मौला व आक़ा! आपकी दादी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के दुश्मनो की दुशमनी में मेरी यह हालत हो गई है"।

नागहाँ अन्धेरी रात में मेरा घर नूरानी हो गया ,मैंने देखा की मेरे मौला व आक़ा मेरे सर पर हाथ फेर रहे हैं और कह रहे हैः- "ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हें दुबारा सेहत व सलामती अता करेगा"।

फ़ौरन मैंने अपने आपको इस हालत में देखा।

(अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिन व आले मुहम्मद ,अल्ला हुम्मा लाअन मन ज़ल्मा आले मुहम्मदिन)

(बिहारूल- अनवार जिल्दः- 52,सफ़्हाः- 70)

अल्लामा अमीनी पर अहलेबैत अलैहुम्मुस्सलाम की करम-फ़रमाई

अल्लामा अमीनी रह 0 "अल-ग़दीर" जैसी अज़ीमुश्शान किताब के मुअल्लिफ़ हैं और अहलेबैत अलैहमुस्सलाम की तरफ़ से दिफ़ाअ करने वाले अस्रे हाज़िर के अज़ीमुश्शान उल्मा में से हैं। मौसूफ़ ख़लीफ़ा (उमर) के मरग (मौत) के मौक़े पर महफ़िले जशन मनाया करते थे ,एक रोज़ इत्तेफ़ाक के एक कट्टर सुन्नी जो अल्लामा अमीनी के मनाज़िरों से आगाह हो गया था उस महफ़िल में आ गया लेकिन जैसे ही उसे महफ़िल में सुन्ने को मिला तो ग़ुस्से की हालत में भरा एक कोने में चुपचाप बैठा रहा ,उसके चहरे से ग़ुस्से के आसार नुमायाँ थे।

कुछ दिन बाद इस बिन बुलाये महमान ने अपने मेज़बान अल्लामा अमीनी की बग़दाद में अपने घर पर दावत की और जब मरहूम अल्लामा अमीनी तय शुदा तारीख़ पर इसके घर पहुँचे तो वहाँ पर एक जलील-उल-क़दर सय्यद से मुलाक़ात हुई और उनके साथ चलने पर बहुत ज़्यादा इसरार किया आख़ीर उस मेज़बान के घर पहुँचे तो उसने गर्म अन्दाज़ में उनका इस्तेक़बाल किया और उनके दुसरे तबक़े (हिस्से) की तरफ़ ले गया ,जब यह लोग वहाँ पहुँचे तो देखा कि एक कमरा बन्द है जिसके अन्दर से कुछ इस तरह की आवाज़ें आ रहीं हैं जैसे उस कमरे में बहुत से लोग जमा हों।

मेज़बान इन दोनों हज़रात के लिये चाय लेकर आया और मुख़्तसर सी गुफ़्तुगू के बाद कहाः- "ऐ अमीनी साहब! आज मैं नवी रबी-उल-अव्वल और किताबे ग़दीर का हिसाब इकठ्ठा चुकाना चाहता हूँ! "

यह सुनते ही वह सय्यदे बुज़ुर्गवार खड़े हो जाते हैं और कहते हैः-

"क्या कहा ?धमकी देते हो! " और उस शख़्स के गले को पकड़ कर ऐसे दबाया कि वह ज़मीन पर गिर पड़ा ,उसके बाद उसके हाथ पैर बाँध कर दजले (एक नहर) की तरफ़ मौजूद ख़िड़की से उसको नहर में फेंक दिया। और यह दोनों हज़रात कमरे से बाहर निकले और बराबर वाले कमरे का ताला लगाकर वहाँ से रूख़सत हो गये ,अल्लामा अमीनी कहते हैं कि कुछ देर बाद वह सैय्यदे बुर्ज़गवार अचानक ग़ायब हो गये।

इसी असना में किसी ने अल्लामा अमीनी को आवाज़ लगाई और दजला में मौजूद एक छोटी सी किश्ती में सवार करके उनको दूसरी तरफ़ उतार दिया ताकि कोई ख़तरा बाक़ी न रहे और वह साहेबे किश्ती कहता है कि मैंने ख़्वाब में हज़रत मूसा काज़िम (अ.स.) को देखा कि आपने मुझसे फ़रमायाः- "उठो! और फ़ुलाँ जगह जाकर अब्दुल हुसैन (अल्लामा अमीनी) जो कि जो कि हमारे दोस्तों में से हैं उनको ख़तरे से निजात दो और उनको बग़दाद से काज़मैन पहुँचा दो"। (करामाते सालेहीन ,सः- 291 )

शैख़े काज़िम अज़री पर जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की इनायत

शैख़े काज़िम अज़री एक क़दीमी शायर थे ,जिन्होंने अपने अशआर में अहलेबैत (अ.स.) की मदहो सना की है और उनके अशआर की एक ख़ुसूसूयत यह भी थी कि उनके अशआर में अहलेबैत (अ.स.) के दुश्मनो पर साफ़-साफ़ तबर्रा होता था ,चुनाँचे इस सिलसिले में पेश आने वाला एक हादसा अपनी ज़बानी बयान करते हैः-

"मैं जिस जगह रहता था वहाँ पर एक नासिबी (दुश्मने अहलेबैत) की दुकान थी और मैं जब भी वहाँ से गुज़रता था तो अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करता हुआ और बुरा भला कहता था ,वह नासिबी यह सब सुनकर बहुत लाल पीला हो जाता था।

एक रोज़ रात में मैंने हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) को ख़्वाब में देखा कि आप फ़रमा रहीं हैः- "ऐ शैख़ (सिर्फ़ कल तक के लिये) अपने कलाम के रूख़ को बदल लो"!

मैं उठा तो ख़तरे का एहसास किया ,दूसरे रोज़ जब उस नासबी से मुलाक़ात हुई तो बहुत नर्म लहजे में उसकी अहवाल पुरसी की और उसके बाद कहाः- "ऐ शैख़ तुमने जो पचास दिरहम मुझसे क़र्ज़ लिया था ,कब देने का इरादा है ?"

 मुझे नहीं मालूम था कि नासिबी ने सुन्नी हाकिमें वक़्त से मेरी शिकायत की है कि यह फ़ुलाँ-फ़ुलाँ पर लानत करता है।

हाकिम ने इस बात की तहक़ीक़ के लिये दो अफ़राद को मुअय्यन किया था और वह उसकी दुकान में छुपे हुए थे ताकि उसकी लानत और ज़बान से नफ़रीन सुनें।

लेकिन जिस वक़्त उन लोगों ने मेरे नर्म लहजे को सुना और मेरे क़र्ज़ की बात सुनी तो उन्होंने क़ाज़ी से वाक़िये की तफ़्सील पेश की ,यह सुन कर क़ाज़ी ने उस नासिबी को बुलाया और उसकी पिटाई की और उससे पचास दीनार दिलाकर हमें बा-इज़्ज़त वापस कर दिया।

इसके बाद जब मैंने देख लिया कि ख़तरा टल गया है फिर अपना पुराना तरीक़ा इख़्तियार कर लिया और हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के क़ातिलों पर लानत और नफ़रीन शुरू कर दी।

जिस वक़्त उस नासिबी ने यह करामत और इस मोजिज़े को देखा तो नर्मी के साथ इस वाक़िये का राज़ मालूम किया ,मैंने भी उससे अपना सारा वाक़िया बयान कर दिया कि हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) ख़्वाब में तशरीफ़ लाईं थीं और मुझसे फ़रमाया थाः- "ऐ शैख़ अपने कलाम को बदल लो! "।

चुनाँचे यह पूरा वाक़िया सुन कर उस सुन्नी की आँख़ों से सैलाबे अश्क जारी हो गया और उसकी ज़बान पर यह जुमला ज़मज़मा करने लगाः-

"लअनल्लाहो क़ातीलीके या फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.)"

(ऐ फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) आपके क़ातिलों पर ख़ुदा की लानत हो)