खुरूजे मुख्तार

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खुरूजे मुख्तार लेखक:
: मौलाना सैय्यद अली हसन अख़तर अमरोहवी
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

खुरूजे मुख्तार

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद मौहम्मद अली अफ़ज़ई
: मौलाना सैय्यद अली हसन अख़तर अमरोहवी
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खुरूजे मुख्तार

खुरूजे मुख्तार

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

ख़ुरूजे मुख़्तार

लेखकःसैय्यद मोहम्मद अली अफ़ज़ई

मुतरजिमःमौलाना सैय्यद अली हसन अख़तर अमरोहवी

नोटः ये किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क के ज़रीऐ अपने पाठको के लिऐ टाइप कराई गई है और इस किताब मे टाइप वग़ैरा की ग़लतीयो पर काम किया गया है।

Alhassanain.org/hindi

इंतेसाब

उस कलामे रब्बानी के नाम जिस की जिसकी आयत ने यह एलान किया कि-

"जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है उन्हें अन्क़रीब मालूम हो जायेगा कि वह लोग

किस जगह लौटाए जाएं गे " (प. 19, आयत 227)

इरशादे रब्बानी

वला तह-सबन्नल लज़ीना क़ोतेलु फ़ी सबी-लिल्लाहे अमवातन. बल अहयाउन इन्दा रब्बे-हिम यर्ज़क़ून. (सूरा आले इमरान आयत 169)

तर्जुमाः- और जो लोग ख़ुदा की राह में शहीद किये गये उन्हें हर्गिज़ मुर्दा न समझना बल्कि वे लोग जीते जागते मौजूद हैं , अपने परवरदिगार के यहाँ से वे रोज़ी पाते हैं

इरशादे इमामत

अगर कोई सियाह ग़ुलाम भी हम अहलेबैत (अ.स) के हक़ में दिफ़ाअ के लिये खड़ा हो जाये और हक़्क़े क़ुरआन व हक़्क़े अहलेबैत (अ.स) ग़ासिबो के पंजे से निकालना चाहे तो हर शख़्स पर ऐसे शख़्स की मदद करना वाजिब है। (इमामे ज़ैनुल आबेदीन (अ.स)

अर्ज़े नाशिर

करबला की जंग में यज़ीद की तरफ़ से जो लोग इमाम हुसैन (अ.स) के क़त्ल में शरीक थे , उनमें से शायद ही कोई बचा हो जिसको मौत से पहले दुनिया ही में सज़ा न मिली हो

कोई क़त्ल किया गया कोई इबरतनाक अज़ाब में मुब्तिला हुआ किसी का चहरा मस्ख़ हो गया किसी के रूख़ पर सियाही दौड़ गई , कोई प्यास से तड़प-तड़प कर मर गया , किसी की ज़बान मुंह से बाहर आ गई , कोई इन्तेहाई भयानक अन्जाम से दो-चार हुआ और कोई तख़्त व ताज से महरूम होकर अपने सियाह आमाल के साथ जहन्नम रसीद हुआ

सिब्ते इब्ने जौज़ी का कहना है के एक बूढ़ा आदमी हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) के क़त्ल में शरीक था वह दफ़अ-तन-नाबीना (अंधा) हो गया तो लोगों ने सबब दरयाफ़्त किया- उसने कहा कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद मुस्तुफ़ा (स 0) को ख़ाब में देखा कि वह आस्तीन चढ़ाये हुए हैं हाथ में तलवार है और आपके सामने चमढ़े का वह फ़र्श है जिस पर किसी को क़त्ल किया जाता है और उस फ़र्श पर क़ातिलाने हुसैन (अ.स) में से दस आदमियों की लाशें ज़िबह की हुई पड़ी हैं उसके बाद आपने मुझे ललकारा और ख़ूने हुसैन (अ.स) की एक सलाई मेंरी आँख़ों में फेर दी , मैं सुबह उठा तो अंधा था

इब्ने जौज़ी ने नक़्ल किया है कि जिस शख़्स ने इमामे हुसैन (अ.स) के सरे मुबारक को अपने घोड़े की गर्दन में लटकाया था उसके बाद उसे देखा गया कि उसका मुँह काला मिस्ल तारकोल हो गया है लोगों ने उससे पूछा के तुम तो अरब के ख़ूबसूरतों में से थे और तुम्हारा रंग सुर्ख़ व सफ़ैद था यह तुम्हे क्या हो गया , उसने कहा की जिस रोज़ से मैंने सरे हुसैन (अ.स) को घोड़े की गर्दन में लटकाया उस दिन से मेरी यह हालत है कि जब मैं सोता हुँ तो दो आदमी मेरे बाज़ू पकड़ कर मुझे दहकती हुई आग के क़रीब ले जाते हैं और उसमें डाल देते हैं जो मुझे झुलसा देती है और फिर वह शख़्स उसी हालत में चन्द रोज़ बाद मर गया

इब्ने जौज़ी ने सद्-दी से यह रवायत बी की है कि उन्होंने एक शख़्स की दावत की और बा वक़्ते तआम यह ज़िक्र छिड़ गया कि इमामे हुसैन (अ.स) के क़त्ल में जो भी शरीक हआ उसको बहुत जल्द दुनिया ही में सज़ा मिल गई उस शख़्स ने तमस्ख़ुराना अन्दाज़ में कहा कि बिल्कुल ग़लत है , मैं ख़ुद हुसैन (अ.स) के क़त्ल में शरीक था और मेरा कुछ नहीं बिगड़ा , वह शख़्स दावत के बाद जब अपने घर गया तो चिराग़ की बत्ती दुरूस्त करते वक़्त उसके कपड़ों में आग लग गई और वह जल भुन कर ख़ाक हो गया।

सद्-दी कहते हैं कि मैंने ख़ुद जब उस शख़्स को देखा तो वह कोयला चुका था।

यह मशहूर रवायत है कि जिस शख़्स ने इमाम को पानी पीने से बाज़ रखने के लिये आपको तीर मारा था उस पर ख़ुदा ने ऐसी प्यास मुसल्लत कर दी थी कि वह जिस क़द्र पानी पीता जाता था उसकी प्यास बढ़ती जाती थी यहाँ तक की पानी पीते पीते उसका पेट फट गया और वह मर गया लेकिन उसकी प्यास न बुझ सकी।

ख़ुद यज़ीद का अन्जाम भी सामने है कि क़त्ले हुसैन (अ.स) के बाद उसे एक लम्हा के लिये भी सुकून व चैन मयस्सर न हुआ तमाम इस्लामी ममालिक में ख़ूने शोहदा का मुतालबा और बग़ावते शुरू हो गयीं उसकी ज़िन्दगी भी दो साल आठ माह और एक रवायत के मुताबिक़ तीन सान से ज़्यादा नहीं रही दुनिया ही में अल्लाह ने उसको ज़लील व रूसवा किया और वह उसी ज़िल्लत के साथ हलाक हुआ।

ग़रज़ के इमामे मज़लूम (अ.स) के क़ातिलों पर अल्लाह की तरफ़ से भी इन्तेक़ामन तरह तरह की आफ़ते अर्ज़ी व समावी और अज़ाब का सिलसिला जारी रहा वाक़ेआ-ए-शहादत के पाँचवे बरस 66 हि 0 में जनाबे मुख़्तार ने क़ातिलाने हुसैन (अ.स) से क़सास लेने का इरादा किया। इस कारे ख़ैर में आम लोगों की अक्सरियत ने उनका साथ दिया और थोड़े ही अर्से में उन्हें यह क़ुव्वत व ताक़त हासिल हो गई कि कूफ़ा और इराक़ उनके ज़ेरे तल्लुत हो गया चुनाँचे इक़्तेदार हासिल करने के बाद उन्होंने एलान कर दिया कि क़ातिलाने हुसैन (अ.स) के सिवा तमाम लोगों को अमान दी जाती है। इस एलान के बाद क़ातिलाने हुसैन (अ.स) की तफ़्तीश शुरू हुई और गिरफ़्तारी के बाद वे मौत के घाट उतारे जाने लगे एक दिन 248 आदमियों को इस लिये क़त्ल किया गया कि वे लोग क़त्ले इमाम में शरीक़ थे।

आम क़ातिलों को जब मुख़्तार ने मौत के घाट उतार दिया तो ख़ास अफ़राद की तलाश और गिरफ़्तारी शुरू हुई अमरौ बिन हज्जाजे ज़ुबैदी भागा मगर गर्मी की शिद्दत और प्यास से बेहोश होकर गिर पड़ा और तहे तेग़ कर दिया गया शिम्र मलऊन को क़त्ल कर के उसकी नजीस लाश कुत्तों के सामने डाल दी गई। अब्दुल्लाह बिन असीरे जहती , मालिक बिन बशीर , जमल बिन मालिक का जब मुहासिरा किया गया तो उन्होंने रहम की दर्ख़ास्त की मुख़्तार ने कहा , ज़ालिमों! तुमने नवासा-ए- रसूल (अ.स) पर न रहम किया तो तुम पर रहम कैसे किया जा सकता है चुनाँचे सब के सब फ़ना के घाट उतारे गये। मालिक बिन बशीर ने इमाम (अ.स) का अमामा लिया था उसके दोनों हाथ और दोनो पाँव काट कर उसे धूप में डाल दिया गया और वह वहीं तड़प- तड़प कर जहन्नम वासिल हो गया।

उसमान बिन खालिद और बशीर बिन शुमीत ने जनाबे मुस्लिम बिन अक़ील (अ.स) के क़त्ल में मुआवेनत की थी , उन्हें क़त्ल कर के जला दिया गया।

उमरे साद मलऊन जब क़त्ल किया गया तो जनाबे मुख़्तार ने उसके लड़के हफ़्स को दरबार में बुलाकर बैठाया और जब उमरे साद का सर दरबार में लाया गया तो मुख़्तार ने हफ़्स से कहा कि तू जानता है कि यह सर किसका है ? उसने कहा , हाँ मगर इसके बाद मुझे भी अपनी ज़िन्दगी अज़ीज़ नहीं है चुनाँचे इन कलमात के साख उसका काम भी तमाम कर दिया गया गया और मुख़्तार ने कहा के उमरे साद का क़त्ल , क़त्ले हुसैन (अ.स) का बदला है और उसके जवान बेटे हफ़्स का क़त्ल अली अकबर (अ.स) के खून का बदला है लेकिन फिर भी बराबरी नहीं हो सकी ख़ुदा की क़सम अगर मैं तीन चौथाई अरबों को क़त्ल कर दूँ तो इमाम हुसैन (अ.स) की उस एक उगँली का बदला नहीं हो सकता जिसे ज़ालिमों ने एक अँगुश्तरी के लिये काट लिया था ।

हकीम बिन तुफ़ैल का बदन तीरों से छलनी कर दिया गया इस लिये की उस मलऊन ने इमाम (अ.स) के सीने पर तीर मारा था।

सनान बिन अनस और हुर्मुला बिन काहिले असदी का इबरतनाक अन्जाम भी तारीख़ ती नज़रों से पोशीदा नहीं है ग़रज़ के जब हम क़ातिलाने हुसैन (अ.स) के इबरतनाक अन्जाम पर नज़र करते हैं तो बेसाख़्ता ज़बान पर यह क़ुर्आनी आयत आती है

"क्रज़ालेकर अज़ाबो वल अज़ाबुल आख़ेरते अकबरो लौ कानू यअ-ला-मून"

"अज़ाब ऐसा ही होता है और आख़ेरत का अज़ाब इससे बड़ा है , काश वे समझ लेते" अहले क़लम व अहलेदानिश ने क़सासे मुख़्तार से मुताल्लिक़ बहुत सी किताबें "मुख़्तार नामा" और दीगर उनवानात से अपने अपने लब-व-लहजे में तहरीर की हैं जो मुकम्मल हालात के साथ तवील व ज़ख़ीम भी हैं ज़रूरत इस अम्र की थी कि ख़ुरूजे मुख़्तार के सिलसिले में कोई इजमाली किताब भी हो जिससे क़ारेइन इस्तेफ़ादा कर सकें।

ज़ेरे नज़र किताब "इन्तेक़ामे ख़ूनी यी खुरूजे मुख़्तार" जो आक़ाई सै. मो. अली अफ़ज़ई के आलेमाना क़लम का नतीजा है और जिसके मुता-रज्जिम मौलाना सै. अली हसन अख़तर अमरोहवी हैं , अब्बास बुक एजेन्सी का सिलसिला-ए-इशाअत की एक कड़ी है।

इस किताब में जनाबे मुख़्तार के इजमाली हालात इन्तेहाई पुर-असर अन्दाज़ में क़लम बन्द किये गये हैं और क़ातिलाने मज़लूमे करबला के इबरतनाक अन्जाम को बड़े सलीक़े से रक़म किया गया है ताकि आवाम जनाबे मुख़्तार के कारनामों से बा-ख़बर हो सके- उम्मीद है के यह किताब हिन्दुस्तानी मुसलमानों में ख़ातिर ख़ाह मक़बूलियत हासिल करेगी।

ख़ाक पाये अहलेबैत

सै. अली अब्बास तबातबाई , अब्बास बुक एजेन्सी दरगाह हज़रत अब्बास (अ.स) लखनऊ

मुख़्तसर गुफ़्तुगू

दरबार-ए-रवायत व अख़बार

मुख़्तार के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ मुताज़ाद अख़बार व रवायात नज़र से गुज़रते हैं लिहाज़ा उस ज़माने के हालात को देखना ज़रूरी है कि वे रवायत किस मौक़े और महल पर बयान हुई हैं। तारीख़ गवाह है के अकसर रवायात उस ज़माने की हैं जिनमें तक़य्या ज़रूरी था क्योंकि दीगर औक़ात में आइम्मा-ए-अतहार (अ.स) ने मुख़्तार के इस इक़दाम की मदह फ़रमाई है। इसके बर-अक्स हर ज़माने और हर दौर में ख़ुद-गर्ज़ और ख़ुद-फ़रामोश मोअर्रेख़ो (लेखक) ने हुकूमते वक़्त की चापलूसी और ख़ुशनूदी में ग़लत वाक़ेआत करके आवाम को फ़रेब दिया है। चुनाँचे दौरे उमवी और उसके बाद के ज़माने में ऐसे बहरूपिये ब कसरत (ज़्यादा) नज़र आते हैं जो दीन के भेस में दुनिया कमाते रहे , अबु हुरेरा उसमें पेश-पेश नज़र आते हैं मुख़्तार का यह सियासी और मज़हबी ख़ुरूज था। जिसने हुकूमतें बनी उमय्या को हिला दिया , जिसके बाद हुकूमते उमवी ने झूठी रवायतें माहिरे मोअर्रेख़ीन के ज़रीये मुख़्तार को बदनाम और रूस्वा करने के लिये आइम्मा-ए-दीन के हवाले से लिखवायीं ताकि लोग इस रहबरे मुजाहिद के कारनामों से मुता-नफ़्फ़िर हो जायें लेकिन हक़ीक़त शनास निगाहें उन मसनूई रवायत से हर्गिज़ मुतास्सिर नहीं हो सकी , मसलअन मुख़्तार की मज़म्मत में लिखा गया कि हज़रत सज्जाद (अ.स) ने मुख़्तार के भेजे हुए हदाया क़ुबूल नहीं फ़रमाये और न उन लोगों से मिलना पसन्द फ़रमाया या मसलन हज़रत ने मजमा-ए-आम में मुख़्तार को दरोग़-गो बतलाया और मलऊन कहा वग़ैरा- वग़ैरा।

बयाने हक़ीक़त

हक़ीक़त यह है कि मोमेनीन और मुसलेमीन बल्कि ग़ैरे मुस्लिम के क़ुलूब में भी उस वक़्त ख़ूने शोहदा-ए-कर्बला जोश-ज़न था। और अम्माले हुकूमते उमवी के जासूम मज़ीद इन्क़ेलाब के ख़ौफ़ से हर गली व कूचे में फैले हुए थे। हज़रत ने मुनासिब न समझा के मुख़्तार के कारनामों को सराह कर मोमेनीन को मुदाफ़ेअत पर उभारा जाये। लिहाज़ा तक़य्या ही इख़्तेयार किया जो बहर-हाल मुनासिब था वरना ऐसी मोअतबर रवायत भी मौजूद है कि हज़रत (अ.स) मसरूफ़े गिज़ा थे कि मुख़्तार की जानिब से उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद का सरे नजिस आया , इमाम (अ.स) ने लुक़मा हाथ से रख दिया और दरबारे इब्ने ज़्याद में जब कि वह मशग़ूले ग़िज़ा था अपना जाना याद करके सजदा-ए-शुक्र अदा किया और मजलिस को अग़यार से ख़ाली देख कर फ़रमाया- ख़ुदावन्दा तेरा हज़ार शुक्र की तूने हमारा इन्तेक़ाम दुश्मनाने अहलेबैत से लिया , ख़ुदाया मुख़्तार को जज़ा-ए-ख़ैर अता फ़रमा। उसके बाद हज़रत ने कुछ मेवा मदीने के घरो में तक़सीम फ़रमाया और बनी हाशीम को हुक्म दिया कि आज से सोग बढ़ाया जाये।

असहाबे हज़रते मोहम्मद बाक़िर (अ.स) से रवायत है कि हम हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर थे कि एक शख़्स आया आगे बढ़ा और चाहा कि इमाम (अ.स) के हाथों को बोसा दे , इमाम ने हाथ ख़ीच लिये और मना फ़रमाया असल व नसब का सवाल किया उसने अर्ज़ की मौला मैं मुख़्तारे सक़ाफ़ी का फ़रज़न्द हूँ , हज़रत ने उसका हाथ पकड़ कर इस तरह अपनी तरफ़ ख़ींचा जैसे अपनी आग़ोश में बैठाना चाहते हैं यह मेहरबानी और नवाज़िश देखकर फ़रज़न्दे मुख़्तार ने कहाः- मेरे बाप के मुताल्लिक़ लोग ग़लत बयान करते हैं इमाम का क्या ख़याल है , फ़रमाया- मुख़्तार को दरोग़ा-गो कहने वाले ख़ुद दरोग़ा-गो हैं , मेरे पदरे बुज़ुर्गवार ने मुझसे फ़रमाया कि मेरी ज़ौजा का महर उस माल से जो मुख़्तार ने हदियातन भेजा था उसी माल से बनी हाशिम के मकान की मरम्मत हुई उसने हमारे क़ातिलों से इन्तेक़ाम लिया , दुश्मनाने अहलेबैत को क़त्ल किया ख़ुदा उस पर रहमत नाज़िल फ़रमायें। बेहारूल अनवार की रवायत , रवायते बाला की ताईद कर रही है कि इमामे मो. बाक़िर (अ.स) ने फ़रमाया कि मुख़्तार को बुरा न कहो- वह माल जो हदियातन भेजा था हम मर्दों और औरतों के अज़्दवाज में काम आया। उसने क़ातिलाने शौहदा-ए-कर्बला से इन्तेक़ाम लिया।

हासिले रवायात

क्या इन रवायात से जो मुख़्तार के हक़ में हैं यह पता नहीं चलता कि मुख़ालिफ़ रवायात बर-बिनाये तक़य्यामख़सूस मवाक़े पर कही गई हैं

समझ में नहीं आता कि यह दुनिया झूठ पर क्यों तुली हुई है।

इस अवाम् फ़रेबी से क्या फ़ायदा- मक्कारी और इस अय्यारी से क्या हासिल आख़िर इस इस्लाम कुशी से क्या मन्ज़ूर है- यही न कि अवाम को बेख़बर और ग़ाफ़िल रख़ें- हाँ यही मक़सद और सिर्फ़ यही मक़सद है कि दीन को मस्ख़-शुदा सूरत में पेश करके दीनदारी का (ग़ाज़ा) लागाया जाये। क्या ये बेहक़ीक़त और झूठे अख़बार ज़हरीले इश्तेहार का बायस नहीं क्या ये ग़लत रवायत नहीं बतला रहे कि यह सब कुछ क़स्त्रहाय बनी उमय्या के चमकाने और आज़ादी ख़ाह मुजाहिदों के कारनामों को मिटाने के लिये लिखे गयें हैं।

बेशक ये अख़बारात मुख़्तार की मुक़द्दस रूह के इन्क़ेलाबी समरात का निशान दे रहें हैं। बेशक ये रवायते फ़िदाकारिये मुख़्तार ही है जो जब्र व इस्तेबदाद् के सुनहरे क़स्त्रो से नफ़रत दिला कर मुजाहिदाना रूह फ़ूँक रहे हैं।

हमारे उलमा का फ़ैसला

शिया रावी मुख़्तार के बारे में मख़सूस नज़रिया रखते हैं। अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा इस बारे में ख़ामोश हैं। फ़रमातें हैं रवायत से यही ज़ाहिर है कि अहले-मग़्फ़ेरत है और उलमा-ए-शिया ने भी मुख़्तार की तारीफ़ की है।

अल्लामा अमीनी फ़रमाते हैः- शहीदे अव्वल ने जो ज़ियारत मुख़्तार के वास्ते लिखी है उससे मालूम होता है कि माज़ी में क़ब्रे मुख़्तार शियों की ज़ियारत गाह थी। आख़ीर में हम अल्लामा जवाद लिबनानी की रवायत नक़्ल करते हैं जो अल्लामा मजलिसी के हम ख़्याल होते हुए फ़रमाते हैं कि हम नियते मुख़्तार से आगह नहीं लिहाज़ा ख़ुदा पर छोड़ते हैं अगर मुख़्तार का मक़सद ख़िलाफ़त को उसके अहल तक पहुँचाना और शोहदा-ए-कर्बला का इन्तेक़ाम लेना था तो ख़ुशनूदिये ख़ुदा के लिये इससे बढ़ कर और क्या बात हो सकती है।

नतीजा

मुख़्तार की नुमाया शख़्सियत पर हम कितना ही परदा डालें लेकिन उसको हर्गिज़ नहीं छुपा सकते कि मुख़्तार ने हज़रत महदी (अ.स) के ज़ुहूर तक के लिये शियों के ज़ख़्मी दिलो पर मरहम लगाया है , लेकिन फिर भी यह ज़ख़्म कहाँ भर सकते हैं अगर चे मुख़्तार का यह इन्तेक़ामे अहलेबैत (अ.स) शियाने अहलेबैत (अ.स) के लिये बायसे मसर्रत हुआ लेकिन आशूरा के अलमनांक वाक़ेआ को कब भुला सकते हैं।

क्या वह दिन जिस दिन बनी उमय्या के दरिन्दों ने जाँबाज़ मुजाहिदों का ख़ून बहाया , भुलाया जा सकता है ? क्या वह दिन जिस दिन तेरह साल के मुजाहिदे इस्लाम क़ासिम बिन हसन (अ.स) ने मुसलमानों की आज़ादी की ख़ातिर जान दी क्या वह दिन जिस दिन पीरे मुजाहिद हबीब इब्ने मज़ाहिर मुजाहिदे आज़म की नुसरत को दौड़ा किया , वह दिन के बनी हाशिम के शेर दिल जवाने बा-वफ़ा ने जामे शाहादत पिया , ख़ुसूसन वह दिन जिस दिन पेशवाये मुजाहेदीन जान हथेली पर रखकर रोज़े आशूरा हैय-हात मिनज़-ज़िल्ला फ़रमाता हुआ सब कुछ क़ुर्बान कर गया और सय्यादुश शोहदा लक़ब पाया भुलाया जा सकता है , हर्गिज़ मुजाहेदीने कर्बला का सुर्ख़ ख़ून का जोश व ख़रोश कम नहीं हो सकता। ये वह जेहाद है जिसका सूरज ग़ुरूब नहीं हो सकता। यह जंग उस वक़्त तक दिलों से नहीं भुलाई जा सकती जब तक इमामे आख़िर (अ.स) ख़ूने नाहक़ का इन्तेक़ाम ना ले लें , और जब तक जा-उल-हक़ (हक़ आ गया) का पर्चम चहार- दांग- आलम में न लहराये , यज़ीद और यज़ीदियत का ज़ुल्म व इस्तेबदाद् सफ़ा-ए-हस्ती से न मिट जाये और आज़ादारी का स्याह पर्चम इन्तेक़ाम के सुर्ख़ पर्चम से न बदल जाये हम पुकार पुकार कर यह कहते रहेंगे कि शोहदा- ए- कर्बला के ख़ून का इन्तेक़ाम लेने वालो कहाँ हो ?