आलमे बरज़ख

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आलमे बरज़ख लेखक:
कैटिगिरी: क़यामत

आलमे बरज़ख

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: शहीदे महराब आयतुल्लाह दस्तग़ैब शीराज़ी
कैटिगिरी: विज़िट्स: 18108
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आलमे बरज़ख
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आलमे बरज़ख

आलमे बरज़ख

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

बरज़ख़ में जमाले मुहम्मदी (स.अ.व.व) के अलावा कोई नूर न होगा

इस बिना पर यौम की ताबीर किस लिये है ?रोज़ यानी रौशन लैल या शब के मुक़ाबिले में है जो तारीक होती है दुनिया में तारीकी है हक़ीक़त पोशीदा या बातीन के अन्दर छुपी हुई है ,हक़ाएक़ आशकार नहीं हैं मौत की इब्तेदा ही से कशफ़े हक़ाएक़ के लिये हक़ीक़ी सुब्ह का आग़ाज़ होता है मसअलन इस दुनिया में तुम हज़रत अली (अ.स) को पहचानने की जितनी कोशीश करोगे कामयाब न होगे इस लिये कि वो हम से पोशीदा हैं लेकिन मौत के साथ ही जब तुम्हारी बरज़ख़ी आँख खुल जाती है तो हज़रत अली (अ.स) की बलन्दी और अज़मत का एक हद तक इदराक कर सकते हो। ख़ुदा का ताक़तवर हाथ ,नेक बन्दों पर ख़ुदा की नेमत और बुरे लोंगो पर ख़ुदा का अज़ाब। ("अस्सलामो अला नेमतुल्लाह अलल अबरार वा नक़्मतुल्लाहे अलल फ़ज्जार" ज़ियारते शशुम हज़रते अमीरूल मोमिनीन) ग़रज़ के विलादत के वक़्त से मौत की घड़ी तक रात है और मौत के बाद कशफ़े हक़ीक़त का दिन ,हक़ीक़त का इन्केशाफ़ होने दो ! उस वक़्त जो लोग पैग़म्बरों का इस्तेहाज़ा करते थे जब उनकी बलन्दी और बुज़ुर्गी का मुशाहिदा करेंगे और उन उल्मा ,साहबाने अमल और औलियाऐ ख़ुदा को देखेगें जिन्हें दुनिया में हिक़ारत की नज़र से देखते थे और उनका मज़ाक़ उड़ाते थे तो उन पर क्या गुज़रेगी ?

मरक़द और बरज़ख़ के बारे में एक नुक्ता

लफ़्ज़े मरक़द के बारे में एक नुक्ता ये है कि मरक़द इस्मे मकान यानी महल्ले वुकूउ यानी महल्ले ख़्वाब या ख़्वाबगाह है। क़यामत के रोज़ लोग क़ब्रों से उठने के बाद कहेंगे कि हमें हमारी ख़्वाबगाह से किसने उठा दिया ?दरहाँलाकि वो बरज़ख़ में अज़ाब झेल रहे थे (वमन वराएहुम बरज़ख़ा इला यौमा याबेसून सूराऐ मोमेनूनः- 23,आयतः- 100)

जो शख़्स दुनिया से जाता है उसे बरज़ख़ में सवाब ओ उक़ाब का सामना होगा ,यहाँ तक कि वो अस्ली बहिश्त या असली जहन्नम में पहुँच जाऐ ,जो गुनाह वो कर चुका है उनका वबाल झेलता है कितने ही ऐसे हैं जो इसी बरज़ख़ में पाक ओ साफ़ हो जाते हैं इसके बावजूद कहते हैं कि मरक़द ,हाँलाकि वो बरज़ख़ में थे।

इसका जो जवाब दिया गया है औऱ दुरूस्त भी है ,ये हैं कि कहते हैं जुमला अवालिम अपनी क़ूवत और ज़ौफ़ के पेशे नज़र बेऐनेही ख़्वाब और बेदारी के मिस्ल हैं। ख़ाक के ऊपर ज़िन्दगी बसर करना आलमे बरज़ख़ की मुनासिबत से ऐसा ही है जैसे तुम यहाँ सो रहे हो और वहाँ बेदारी है चूँकि बरज़ख़ की क़ूवते असर दुनिया से बदरजह ज़्यादा है लिहाज़ा सब लोग यहाँ सो रहे हैं जब मौत आती है तब जागते हैं। ("अन्नासो नियामुन इज़ा मातु इन्तबेहु")

ये रवायत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) से है जो लोग मुर्दों के मुताल्लिक़ सच्चे ख़्वाब देख चुके हैं वो इस गुज़ारिश की तस्दीक़ करते हैं। किताब दास्तानाहाऐ शग़ुफ़्ता में इस तरह के काफ़ी नमूने दर्ज हैं इसी तरह हाजी नूरी की किताब "दारूस्सलाम" में भी इसके शवाहीद मौजूद हैं।

बरज़ख़ की निस्बत से क़यामत ख़्वाब के बाद बेदारी है

चूँकि बरज़ख़ की निस्बत से क़यामत ख़्वाब के बाद बेदारी है इसकी अस्ली तासीर भी क़यामत में है ,बरज़ख़ में सवाब हो या उक़ाब अपनी दरमियानी हद में होता है। वहाँ हर चीज़ दुनिया के मुक़ाबले में बेदारी है लेकिन हयात बाद अज़ मौत के लिहाज़ से ख़्वाब है लिहाज़ा जब इन्सान क़ब्र से सर उठाऐगा तो कहेगा "किसने मुझे बेदार किया है" जब उसकी नज़र जहन्नम के भड़कते हुऐ शोलों पर पड़ेगी जो पहाड़ की तरह बलन्द हो रहे होगें ,एक तरफ़ मलाएका ,ग़िलाज़ ओ शदाद सारी मख़लूक़ को हिसाब के लिये हाज़िर करने पर मामूर होगें और एक तरफ़ ऐसे चेहरे नज़र आऐंगे जो स्याह पड़ चुके होंगे।

(वज्जहू यौमैज़ा अलैहा ग़ैरहू ,सूराऐ अब्सः- 80,आयतः 40).

ऐसी अजीबो ग़रीब चीज़े नज़र आऐगीं जिनकी मिसाले बरज़ख़ में भी मौजूद नहीं थीं ,ये चीज़े उस तरह लरज़ा बर अन्दाम कर देंगी- कि सभी लोग ज़ानूओ के बल सर निगू हो जाऐगें। (वतरा कुल्ला उम्मतन जासिया ,सूराऐ जासिया) और कहेंगे "रब्बे नफ़्सी" सिवा हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहे वा आलेही वसल्लम के कि आप कहेंगे "रब्बे उम्मती" यानी ख़ुदावन्दा मेरी उम्मत की फ़रियाद को पहुँच ! किसी के पाँओ में खड़े रहने की ताक़त न होगी ,हौल की वजह से हामिला औरतों के हमल साक़ित हो जाऐंगे ,बच्चों को दूध पिलाने वाली औंरतें अपने बच्चों से ग़ाफ़िल हो जाऐंगी और तुम देखोगे की लोग नशे में बेख़ुद हैं लेकिन वो नशे में न होगें अलबत्ता अज़ाबे ख़ुदा बहुत सख़्त है। (वतज़्अ कुल्ला ज़ाता हमलाहमलोहा वतरन्नास सुकारा वमाहुमबे सुकारा वलाकिन्ना अज़ाबल्लाहे शदीद ,सूराऐ हजः- 22,आयतः- 2 )

हम क़यामत के बारे में ऐसी ख़बरें सुनते हैं कि हर चन्द बरज़ख़ में भी अज़ाब होगा लेकिन यहाँ वह अज़ाब क्या चीज़ है ?बिच्छू के डंक के मुक़ाबले में मच्छर का डंक क्या हक़ीक़त रखता है ?हाँ यह वही पैग़म्बर का वादा है जिन्होंने देखा है और सच फ़रमाया है।

आलमे बरज़ख़ में बक़ाऐ अरवाह का सुबूत

जनाब आक़ाऐ सिब्ते ने नक़्ल किया है कि मरहूम आक़ा सैय्यद इब्राहीम शुसत्री जो अहवाज़ के आइम्माऐ जमाअत में से और बहुत मोहतात और मुक़द्दस थे अपने अक़्दे अज़दवाज के बाद सख़्त परेशान और फ़िक्र ओ तहे दस्ती में मुब्तिला हो गऐ यहाँ तक कि अपने और अपने घर वालों के इख़राजात पूरे करने से माज़ूर हो गऐ मजबूर होकर पोशीदा तौर से नजफ़े अशरफ़ चले गऐ और शूसतर के एक तालिबे इल्म के पास मदरसे में रहने लगे ,चन्द माह के बाद शूसतर से एक काफ़िला आया और उनको ख़बर दी कि तुम्हारे घर वाले तुम्हारे नजफ़े अशफ़र आने से मुत्तिला हो गऐ हैं और अब तुम्हारी ज़ौजा ,माँ बाप और बहने यहाँ आईं हैं ये सुन के मौसूफ़ सख़्त परेशान हो गऐ यहाँ न उनके पास ठहराने की जगह है न माली गुंजाइश ,आख़िर क्या करें ?बहरतौर जिस तरह मुमकिन था इधर उधर लोगो से किसी ख़ाली मकान का सुराग लगाना शुरू किया लोगों ने एक दुकानदार का पता दिया कि उसके पास एक ख़ाली मकान की कुँजी मौजूद है ये उसके पास पहुँचे तो उसने कहा ,हाँ ! है तो लेकिन वो घर नामुबारक है और जो शख़्स भी उसमे मुक़ीम होता है परेशानी में मुब्तला होकर मौत का शिकार हो जाता है सैय्यद ने कहा कोई हर्ज नहीं है , (अगर मैं मर भी जाऊँ तो उस से बेहतर क्या है ?इस फ़िक्रो हलाकत की ज़िन्दगी से जल्द निजात मिल जाऐगी) चुनाँचे मकान की कुँजी हासिल करके उसके अन्दर दाख़िल हुऐ तो देखा कि हर तरफ़ मकड़ी के जाले लगे हुऐ हैं और सारा घर गन्दगी और कूड़े से भरा हुआ है जिससे ज़ाहिर होता है कि उसमें मुद्दतों से किसी की सुकूनत नहीं रही उन्होंने उसे साफ़ करके उसमें घर वालों को ठहराया जब रात को सोऐ तो दफ़्अतन देखा कि एक अरब अच्छे क़िस्म का उक़ाल (ऐसा सर बन्द जो मामूली उक़ालों या सरबन्दों से ज़्यादा संगीन और मुअज़्ज़ि होता है) सर पर बाँधे हुऐ आया और ग़ुस्से में उनके सीने पर चढ़ बैठा और कहा सैय्यद ! तुम क्यों मेरे घर में आऐ ?अब मैं तुम्हारा गला घोंट दूगाँ सैय्यद ने जवाब में कहा मैं सैय्यद और औलादे रसूल हूँ और मैंने कोई ख़ता भी नहीं की है अरब ने कहा ये सब ठीक है लेकिन तुमने मेरे घर में क्यों क़याम किया ?सैय्यद ने कहा अब आप जो कुछ भी हुक्म दें मैं उस पर अमल करूँगा और आप से भी यहाँ रहने की इजाज़त चाहता हूँ अरब ने कहा बेहतर है अब तुम्हारा काम ये है कि तहख़ाने के अन्दर जाओ और उसको पाक साफ़ करने के बाद उसमें गच का जो पलास्टर है उसे उखाड़ो उसके नीचे से मेरी क़ब्र ज़ाहिर होगी उसके कूड़े करकट को बाहर फ़ेंक कर हर शब एक ज़ियारत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) की (ग़ालिबन ज़ियारते अमीनुल्लाह बताई थी) पढ़ो और रोज़ाना फ़ुलाँ मिक़दार में (ये मिक़दार नाक़िल के ज़हन से निकल गई थी) क़ुरान की तिलावत किया करो उस वक़्त मकान में रहने की इजाज़त होगी। सैय्यद कहते हैं मैंने इसी तरीक़े से सरदाब फ़र्श को गज से बनाया हुआ था उख़ाड़ा तो क़ब्र नज़र आई मैंने सरदाब को साफ़ किया और हर शब ज़ियारते अमीनुल्लाह और हर रोज़ तिलावते क़ुराने मजीद में मशग़ूल रहता था लेकिन ख़ानगी इख़्राजात की तरफ़ से सख़्त मुसीबत में मुब्तिला था यहाँ तक कि मैं एक रोज़ रौज़ाऐ अक़दस के सहने मुताहिर में बैठा हुआ था कि एक शख़्स ने जिनके मुताल्लिक़ बाद में मालूम हुआ कि वो शैख़ ख़ज़अल से वाबस्ता रईसुस तुज्जार हाजी मारूफ़ बा सरदारे अक़दस थे मुझको देखा ,हालात मालूम किये और घर के अफ़राद के तादाद के मुताबिक़ एक एक उसमानी लीरा (तुर्की का सिक्का) दिया और ज़रूरियाते ज़िन्दगी के लिहाज़ से काफ़ी माहवार रक़म मुअय्यन करके उसका क़िबाला (सनद) लिख दिया चुनाँचे उस से मेरी माशी हालत सुधर गई और मैं पूरे तौर पर आसूदा हाल हो गया ये हिक़ायत चन्द दीगर मज़कूरा वाक़ियात की तरह आलमे बरज़ख़ में रूहों की बक़ा और इस दुनिया का हालात ओ कैफ़ियात से उनकी आगाही पर एक गवाहे सादिक़ है उस हिक़ायत से बख़ूबी समझा जा सकता है की रूहे अपने मक़ामे दफ़्न से और क़ब्रों से काफ़ी दिलचस्पी और ताअल्लुक़ रखती हैं इस मतलब की तौज़ीह ये है कि रूहें सालहा साल अपने जिस्मों के साथ रह चुकी होती हैं उनके वसीले से मुख़्तलिफ़ काम अन्जाम देती हैं उलूम ओ मआरिफ़ हासिल करती हैं ,इबादते करती हैं नेक आमाल बजा लाती हैं और उसके जवाब मे इन अजसाम की ख़िदमते करती हैं ,और उनकी तरबीयत और तदबीरे उमूर में तरह तरह के रंज ओ अलम बर्दाशत करती हैं इसी बिना पर मुहक़्क़ेक़ीन का क़ौल है कि नफ़्स का ताअल्लुक़ बदन के साथ आशिक़ व माशूक़ के दरमियान ताअल्लुक़ और राब्ते के मानिन्द है इसी लिये जब वो मौत के बाद बदन से दूर हो जाता है तो उससे मुकम्मल क़त्ऐ ताअल्लुक़ नहीं करता और जहाँ उसका बदन होता है उस मक़ाम पर ख़ुसूसी नज़र और तवज्जो रखता है चुनाँचे अगर देखता है कि उस मुक़ाम पर कूड़ा और ख़स ओ ख़ाशाक डाला जा रहा है या उस जगह गुनाह और गन्दे काम हो रहे हैं तो वो बहुत रंजीदा होता है और ऐसे बुरे अफ़आल का इरतेकाब करने वालों पर नफ़रीन करता है और इसमें कोई शक नहीं कि रूहों की नफ़रीन बहुत असर रखती है जैसा की मज़कूरा दास्तान में बताया गया है जो लोग उस घर में क़याम करते थे वो कैसी कैसी परेशानियों और मुसीबतों में मुब्तिला होते थे लेकिन वो अपने ख़्याले फ़ासिद में यही समझते थे कि घर मनहूस ओ नामुबारक है अलबत्ता अगर कोई शख़्स क़ब्र को पाक ओ साफ़ रखता है और उसके क़रीब तिलावते क़ुरान जैसे नेक आमाल बजा लाता है तो वो रूहें ख़ुश होती हैं और उसके लिये दुआ करती हैं जैसा कि सैय्यदे मौसूफ़ के बारे में बयान किया गया है कि ज़ियारत और तिलावते क़ुरान की बरकत से उस क़ब्र के नज़दीक उनके लिये कैसी फ़राख़ी और फ़ारगुल बाली हासिल हुई। (किताब दास्तानाहाऐ शगुफ़्त सफ़्हाः- 200)

बरज़ख़ के बारे में इमाम मूसा काज़िम (अ.स) का मोजिज़ा

ये वाक़िया लाएक़े ग़ौर ओ फ़िक्र है किताब कशफ़ुल ग़म्मा में जो शियों की मोतबर किताबों में से है इमामे लिखते हैं मैंने बुज़ुर्गाने इराक़ से सुना है कि अब्बासी ख़लीफ़ा का एक बहुत शानदार मुतमव्वुल वज़ीर था जो फ़ौजी और मुल्की मुआमलात की तंज़ीम ओ दुरूस्ती में काफ़ी माहिर और मुस्तइद और ख़लीफ़ा का मन्ज़ूरे नज़र था जव वो मरा तो ख़लीफ़ा ने उसकी ख़िदमत गुज़ारियों की तलाफ़ी के लिये हुक्म दिया कि उसकी मय्यत को हरमे इमाम हफ़तुम के अन्दर ज़रीऐ अक़दस के क़रीब दफ़्न किया जाऐ हरमे मुत्ताहर का मुतावल्ली जो एक मर्दे मुतक़्क़ी इबादत गुज़ार और हरम का ख़ादिम था रात को रिवाक़े मुत्ताहर में क़याम करता था चुनाँचे उसने ख़्वाब में देखा कि उस वज़ीर की क़ब्र शिग़ाफ़्ता हो गई है उसमें से आग के शोले निकल रहे हैं और ऐसा धुआं उठ रहा है जिससे जली हुई हड्डी की बदबू आ रही है यहाँ तक कि सारा हरम धुऐं और आग से भर गया उसने देखा कि इमाम इस्तादा हैं और बलन्द आवाज़ से मुतावल्ली का नाम लेकर फ़रमा रहे हैं कि ( ख़लीफ़ा का नाम लेकर) ख़लीफ़ा से कहो कि तुमने इस ज़ालिम को मेरे क़रीब दफ़्न करके मुझे अज़ीयत पहुँचाई है ,मुतावल्ली की आँख खुल गई दरहालाँकि वो ख़ौफ़ की शिद्दत से लरज़ रहा था उसने फ़ौरन सारा वाक़िया तफ़्सील के साथ लिख के ख़लीफ़ा के पास रवाना किया ख़लीफ़ा उसी रात बग़दाद से काज़मैन आया ,हरम को लोगों से ख़ाली करा के हुक्म दिया कि वज़ीर की क़ब्र खोदी जाऐ और उसके जसद को बाहर निकाल के दूसरे मक़ाम पर दफ़्न किया जाऐ चुनाँचे जब ख़लीफ़ा के रू ब रू क़ब्र शिग़ाफ़्ता की गई तो उसके अन्दर बाजुज़ जले हुऐ जिस्म की ख़ाकस्तर के और कुछ भी नहीं था।

आलमे बरज़ख़ के बारे में चन्द सवालात

उल्माऐ आलाम और सादाते किराम की एक बुज़ुर्ग शख़सियत ने जो शायद अपना नाम ज़ाहिर न करना चाहते हों नक़्ल फ़रमाया है कि मैंने अपने पिदरे अल्लामा को ख़्वाब में देखा और उनसे कुछ सवालात किये और उन्होंने उनके जवाबात दिये।

1.मैंने पूछा कि जो रूहें आलमें बरज़ख़ के अन्दर अज़ाब में मुब्तिला हैं उनका अज़ाब और सख़्तियाँ किस तरह की हैं ?उन्हों ने फ़रमाया चूँकि अभी तुम आलमे दुनिया में हो लिहाज़ा मिसाल के तौर पर यही बताया जा सकता है कि जिस तरह तुम किसी कोहिस्तान में एक दर्रे के अन्दर हो और उसके चारों तरफ़ इतने बलन्द पहाड़ हों कि कोई शख़्स उन पर चढ़ने की ताक़त न रखता हो और इस आलम में एक भेड़िया तुम पर हमला करदे जिस से फ़रार कोई रास्ता न हो।

2.फ़िर मैंने दरयाफ़्त किया कि मैंने दुनिया में आपके लिये जो उमूरे ख़ैर आपके लिये अन्जाम दिये हैं वो आप तक पहुँचे या नहीं ?और हमारी ख़ैरात से आपको किस तरह से फ़वायद हासिल होतें हैं ?फ़रमाया हाँ वो सब हम तक पहुँच गऐ लेकिन उस से फ़ायदा उठाने की कैफ़ियत भी तुम्हारे सामने एक मिसाल के ज़रिये बयान करता हूँ ,जिस वक़्त तुम एक ऐसे हम्माम के अन्दर जो बहुत ही गर्म और मजमे के हुजूम से छलक रहा हो वहाँ सांस लेने की कसरत ,बुख़ारात और हरारत की वजह से तुम्हें साँस लेना दुशवार हो जाऐ ऐसे आलम में एक गोशे से हम्माम का दरवाज़ा खुल जाए और उस से ख़ुशगवार नसीमे सहरी का ठन्डा झोंका तुम्हारे पास पहुँचे तो तुम किस क़दर मसर्रत ओ राहत ओ आज़ादी महसूस करोगे ?बस तुम्हारी ख़ैरात देखने क बाद यही कैफ़ियत हमारी होती है।

3.जब मैंने अपने बाप को सही ओ सालिम और नूरानी सूरत में पाया और देखा कि सिर्फ़ उनके होंठ ज़ख़्मी हैं और उनसे पीप और ख़ून रिस रहा है तो मैंने उन मरहूम से इसका सबब दरयाफ़्त किया और कहा कि अगर मुझसे कोई ऐसा अमल हो सकता हो जिस से आपके होंठों को फ़ायदा पहुँच सके तो फ़रमाइये ताकि उसे अन्जाम दूँ ,उन्होंने जवाब में फ़रमाया कि इसका इलाज सिर्फ़ तुम्हारी अलवीया माँ के हाथ में है क्योंकि इसका बाएस फ़क़त उसकी वो इहानत है जो मैं दुनिया में किया करता था चूकि उसका नाम सकीना है लिहाज़ा जब मैं पुकारता था तो ख़ानम सक्को कहा करता था और वो इस से रंजीदा ख़ातिर होती थी अगर तुम मुझ से राज़ी कर सको तो फ़ायदे की उम्मीद है मोहतरम नाक़िल फ़रमाते हैं कि मैंने ये सूरते हाल अपनी माँ के सामने पेश की तो उन्होंने जवाब में कहा कि हाँ ! तुम्हारे बाप मुझको पुकारते थे तो मेरी तहक़ीर के लिये ख़ानम सक्को कहते थे मुझे जिस से मैं सख़्त आज़ुरदा ख़ातिर और रंजीदा होती थी लेकिन उसका इज़हार नहीं करती थी और उनके ऐहतेराम के पेशेनज़र कुछ नहीं कहती थी अब जबकि वो ज़हमत में मुब्तिला और परेशान हैं तो मैं उन्हें मुआफ़ करती हूँ और उनसे राज़ी हूँ और उनके लिये समीमे क़ल्ब से दुआ करती हूँ। इन तीन सवालात और उनके जवाबात में ऐसे मतालिब पोशीदा हैं जिनका जानना ज़रूरी है और मैं मोहतरम नाज़िरीन को मुतावज्जे करने के लिये मुख़्सर तौर पर उनकी यादआवरी करता हूँ।

बरज़ख़ में नेक आमाल बेहतरीन सूरतों में

अक़्ली और नक़्ली दलीलों से साबित और मुसल्लम है कि आदमी मौत से फ़ना नहीं होता बल्कि उसकी रूह माददी और ख़ाकी बदन से रिहाई के बाद एक इन्तेहाईं लतीफ़ से क़ालिब से मुल्हक़ हो जाती है और वो तमाम इदराकात ओ ऐहसासात जो उसे दुनिया में हासिल थे जिसे सुनना ,देखना ,ख़ुशी और ग़म वग़ैरा उसके साथ रहते हैं बल्कि आलमे दुनिया से ज़्यादा शदीद और क़वी हो जाते हैं और चूँकि जिस्मे मिसाली मुकम्मल सफ़ाई और लताफ़त का हामिल होता है लिहाज़ा माददी आँखे उसे नहीं देखती है यानी ये कम चशमी माददी तरफ़ से है कि वो हवा जैसी चीज़ को भी जिसका जिस्म मुरक़्क़ब है लेकिन चूँकि लतीफ़ है नहीं देख सकती । मौत के बाद से क़यामत तक आदमी की रूह की इस हालत को आलमे मिसाली और बरज़ख़ कहते हैं चुनाँचे क़ुराने मजीद में इरशाद है कि उनके पीछे बरज़ख़ है उस दिन तक जब वो उठाऐ जाऐंगे (वमन वराऐहुम बरज़ख़ा इला यौमल याबेसून ,सूराः- 13,आयतः- 100)इस मक़ाम पर चीज़ की याददहानी और जिस पर तवज्जो ज़रूरी है ये है कि जो लोग ख़ुशनसीबी के साथ इस दुनिया से गऐ हैं वो बरज़ख़ में अपने तमाम नेक आमाल और इख़लाक़े फ़ाज़िला का बेहतरीन और इन्तेहाई ख़ूबसूरत शक्लों में मुशाहिदा करते हैं और उनसे फ़ायदा उठा कर शाद ओ मसरूर होते हैं। इसी तरह बदबख़्त नुफ़ूस अपने नाजायज़ अफ़आल ,अपनी ख़यानतों गुनाहों और पस्त ओ रज़ील इख़लाक़ को बदतरीन और बहुत ही वहशतनाक सूरतों में देखते हैं और आरज़ू करते हैं कि उनसे दूर रहें लेकिन ये होने वाला नहीं जैसी की उन बुज़ुर्गवार मरहूम के जवाब के जवाब में एक हमलावर भेड़िये से तशबीह दी गई है जिस से फ़रार का कोई रास्ता न हो।

इस आयते मुबारिका में ग़ौर करने की ज़रूरत है "जिस रोज़ हर नफ़्स अपने आमाले नेक को अपनी सामने हाज़िर पाऐगा और अपने बुरे अफ़आल के बारे में आरज़ू करेगा कि काश उसके और उनके (अफ़आले बद) दरमियान लम्बा फ़ासला होता और ख़ुदा तुम्हे अपने उक़ाब से दूर रखना चाहता है और ख़ुदा अपने बन्दों पर मेहरबान है" (यौमा तजुदो कुल्ला नफ़्स........................ वल्लाहो रऊफ़ुन बिल इबाद ,सूराः- 3आयतः- 30)ये भी उसकी मेहरबानी है कि उसने दुनिया ही में ख़तरे का ऐलान फ़रमा दिया ताकि लोग आलमे आख़िरत में फ़िशार और सख़्तियों में गिरफ़्तार होने से बचें। (किताब दास्तानहाए शग़ुफ़्त सफ़्हाः- 312से 316 )

जनाज़े के ऊपर एक कुत्ता बरज़ख़ी सूरत

मोमिन और मुतक़्क़ी और साहबे ईमान बुज़ुर्ग मरहूम डाक्टर अहमद एहसान ने जो बरसो करबलाऐ मुअल्ला में मुक़ीम रहे और अपनी उम्र के आख़री चन्द साल क़ुम के मुजाविर रहे और वहीं उनका इन्तेक़ाल और दफ़्न, कफ़न हुआ तक़रीबन पच्चीस साल क़ब्ल करबला में बयान फ़रमाया कि मैंने एक रोज़ एक जनाज़ा देखा जिसे कुछ लोग तबर्रूक और ज़ियारत के क़स्द से हज़रते सैय्यदुश शोहदा (अ.स) के हरमे मुताहर की तरफ़ ले जा रहे थे मैं भी जनाजा ले जाने वालो मे शामिल हो गया एक बार मैंने देखा कि ताबूत के ऊपर एक ख़ौफ़नाक स्याह कुत्ता बैठा हुआ है मैं हैरतज़दा हो गया और ये जानने के लिये की कोई दूसरा शख़्स उसे देख रहा है या तन्हा मैं ही इस अजीब ओ ग़रीब अम्र का मुशाहिदा कर रहा हूँ अपनी दाहिनी ओर चलने वाले एक शख़्स से पूछा कि जनाज़े के ऊपर जो कपड़ा है वो कैसा है ?उसने कहा कि कशमीरी शाल है ! मैंने कहा कपड़े के ऊपर कुछ और देख रहे हो ?उसने कहा नहीं! यही सवाल मैंने अपने बाऐं तरफ़ वाले से भी किया और यही जवाब मिला तो मैंने समझ लिया कि सिवा मेरे कोई और नहीं देख रहा है ,जब हम सहने मुबारक के दरवाज़े तक पहुँचे तो वो कुत्ता जनाज़े से अलग हो गया यहाँ तक कि जब जनाज़े को हरमे मुताहर और सहने मुबारक से बाहर लाए तो फिर उसको जनाज़े के साथ पाया मैं उसके साथ क़ब्ररिस्तान तक गया कि देखूं क्या होता है ?मैंने ग़ुस्लख़ाने और तमाम हालात में कुत्ते को जनाज़े से मुतस्सिल पाया यहाँ तक कि जब मय्यत को दफ़्न किया गया तो वो कुत्ता भी उसी क़ब्र में मेरी नज़र से ओझल हो गया।

बरज़ख़ में आदमी के किरदार मुनासिब हाल सूरतों में

इसी से मिलता झुलता एक वाक़िया काज़ी सैइदे क़ुम्मी ने अपनी किताब "अर-बइयानात" में उस्तादे कुल शैख़े बहाई आलल्लाहो मक़ामाहू से नक़्ल किया है जिसका ख़ुलासा ये है कि साहबाने मारिफ़त ओ बसीरत में से एक शख़्स अस्फ़ेहान के एक मक़बरे में मुजाविर थे एक रोज़ जनाबे शैख़े बहाई रह. उनकी मुलाक़त को गऐ तो उन्होंनेक कहा कि मैंने गुज़िश्ता रोज़ इस कब्ररिस्तान में चन्द अजीबो ग़रीब उमूर मुशाहिदा किये हैं मैंने देखा कि एक जमाअत एक जनाज़ा लेकर आई और उसे फ़ुलाँ मक़ाम पर दफ़्न करके चली गई थोड़ी देर बाद एक बहुत नफ़ीस ख़ुशबू मेरे मशाम में पहुँची जो दुनियावी ख़ुशबूओं में से नहीं थी मैं मुताहय्यर हुआ और ये मालूम करने के लिये कि ख़ुश्बू कहाँ से आ रही है चारो तरफ़ नज़र दौड़ाई नागाह एक बहुत हसीन ओ जमील सूरत शहाना अन्दाज़ में नज़र आई मैंने देखा कि वो उस क़ब्र के क़रीब गई अभी ज़्यादा देर नहीं गुज़री थी कि दफ़अतन एक गन्दी बदबू जो हर बदबू से ज़्यादा गन्दी और नागवार थी मेरे मशाम में पहुँची जब देखा तो एक कुत्ता नज़र आया जो उसी क़ब्र की तरफ़ जा रहा था और फिर क़ब्र के पास पहुँच के ग़ायब हो गया मैं इस मन्ज़र से हैरत और तआज्जुब में था कि उस ख़ूबसूरत जवान को उसी रास्ते बदहाली और बदहैयती के साथ ज़ख़्मी हालत में वापिस होते हुऐ देखा मैंने उसका तआक़्क़ुब किया और उसके पास पहुँच के हक़ीक़ते हाल दरयाफ़्त की ,उसने कहा मैं उस मय्यत का अमले सालेह हूँ और मुझे हुक्म हुआ था कि उसके साथ रहूँ नागाह वो कुत्ता जिसको तुमने अभी देखा है आ गया और वो उसका अमले बद था चूँकि मरने वाले के अफ़आले बद ज़्यादा थे लिहाज़ा वो मुझ पर ग़ालिब आ गया और मुझे उसके साथ नहीं रहने दिया अब मुझे बाहर निकाल देने के बाद उस मय्यत के साथ वही कुत्ता है।

शैख़ फ़रमाते हैं कि ये मुकाशिफ़ा दुरूस्त है क्योंकि हमारा अक़ीदा ये है कि बरज़ख़ में आदमी के आमाल उन्हीं से मुनासिबत रखने वाली सूरतों में उसके साथ रहेंगे और आमाल का मुजस्सम होना और मरने वाले के हालात से मुनासिबत रखने वाली शक्लों में मुशक्कल होना मुसल्लम है चुनाँचे बुज़ुर्गाने मिल्लत ने फ़रमाया है कि रोज़े क़यामत जब परदा हट जाऐगा (यौमा यक्केशफ़ा अन साक़ ,सूराऐ क़लम आयतः- 42)और हक़ीक़ते ज़ाहिर हो जाऐंगी तो इन्सान अपने मुआमलात को उनकी सही नोवियत में देखे और समझेगा और इस क़दर शर्मिन्दा होगा कि इस चीज़ की आरज़ू करेगा कि उसे जल्द अज़ जल्द दोज़ख़ में डाल दिया जाऐ ताकि इस ख़िजालत की मुसीबत से रिहाई मिल जाऐ।

इस सिलसिले में रवायतों के अन्दर दिगर ताबीरें भी मिलती हैं मिनजुमला उनके ये है कि जिस वक़्त आदमी क़ब्र से सर उठाऐगा और जब हक़ाएक़ मुनकशिफ़ हो जाऐगे तो हर शख़्स समझ लेगा कि उसने अपने मौला और मालिक के रू ब रू क्या कहा है और क्या किया है। उस वक़्त इस क़दर अरक़े निदामत जारी होगा कि उसके बदन का एक हिस्सा उसी पसीने में डूब जाऐगा।

इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से मरवी है कि किसी नमाज़ ( ज़ौहर ,अस्र ,मग़रिब ,इशा और सुब्ह) का वक़्त ऐसा नहीं है जिसमें एक फ़रिश्ता निदा न करता हो कि ऐ लोगों! ऐ मुसलमानों ! उठो उन आग के शोलों की तरफ़ जिन्हें ख़ुद तुमने अपने लिये भड़काया है पस उनको अपनी नमाज़ से ख़ामोश करो

(किताब राज़गोईये क़ुरान)

दुनिया हमारे लिये सज़ावार नहीं है दुनिया में ग़ुलामी से आज़ादी ज़ाहिरी और जल्द गुज़र जाने वाली आज़ादी है ख़ुदा करे हक़ीक़ी और वाक़ेयी आज़ादी नसीब हो ,हक़ीक़ी आज़ादी अज़ाब से रिहाई है काश आदमी सिरात से आसानी के साथ गुज़र जाऐ ख़ुदा अपना लुत्फ़ो करम शामिले हाल फ़रमाऐ अपने बन्दे को याद फ़रमाए और उसे बर्क़ की तरह सिरात से गुज़ार दे। हाँ ! "फ़अज़करूनी अज़करकुम" तुम मुझे दुनिया में याद करो ताकि मैं भी तुम्हे क़ब्र में ,सिरात में ,मीज़ान में ,गरज़ के क़यामत में याद रक्खूँ।

ख़ुदा के नामों में से एक नाम सलाम भी है

(हुवल्लाहुल लज़ी लाइलाहा इल्ला हुवा मलेकुल क़ुददूस्सलाम अलमोमिन अल मुहीमिन) ख़ुदा अपने पैग़म्बरों को भी हुक्म देता है कि जो लोग हमारी आयतों पर ईमान लाऐं जब वो तुम्हारे पास आऐं तो उन्हें सलाम कहो (इज़ा जआकल लज़ीना.................... नफ़्सहुररहमत ,सूराऐ इन्आम आयतः- 54, 38, 54)

क़ब्र और बरज़ख़ की कुशादगी इलाही तलाफ़ी

अगर तुम्हारा दिल चाहता है कि तुम्हारी क़ब्र कुशादा हो जाऐ तो अपने मोमिन भाई के हालात का लिहाज़ और रियायत करो ख़ुदाऐ तआला बाज़ अफ़राद की क़ब्रों को इतनी वुस्अत अता फ़रमाता है कि जहाँ तक नज़र काम करती है "मददल बसर" वहाँ तक उनमें फ़राख़ी पैदा हो जाती है यानी बरज़ख़ में उनकी जाऐ क़याम हद्दे निगाह तक वसीय होती है "यफ़सल्लाहो लकुम" यानी ख़ुदा तुम्हें वुस्अत अता फ़रमाए क़यामत मे ,सिरात में और बहिश्त में। बहरहाल यफ़सह से मुताल्लिक़ ज़्यादा तफ़सील मज़कूर नहीं है क्योंकि उसकी कैफ़ीयत अशख़ास की नियतों और हिम्मतो के ऐतेबार से मुख़्तलिफ़ होती है। (किताब राज़गोइये क़ुरआन सफ़्हाः- 96, 126)

अगर हम बरज़ख़ की ज़ुल्मतों में गिरफ़्तार हुऐ तो फ़रियाद करेंगे

अगर हम बरज़ख़ की ज़ुल्मतों में गिरफ़्तार भी होंगे तो नाला ओ फ़रियाद करेंगे कि ख़ुदावन्दा ! अगरचे हम गुनाहगार हैं लेकिन हज़रत अली (अ.स) के चाहने वाले हैं अगर हम जहन्नम के किसी गोशे में डाल भी दिये गये तो बक़ौल इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स) अहले जहन्नम को बताऐंगे कि हम तुझे (यानी ख़ुदा को) दोस्त रखते हैं (ला ख़बरोना अहलल नार जुब्बा लका) तेरे दोस्तों को दोस्त रखते हैं और हुसैन (अ.स) को दोस्त रखते हैं। रवायत में भी वारिद है कि ऐसे अशख़ास मलाएका से कहेंगे कि मोहम्मद सलल्लाहो अलैहे वा आलेही वस्सलम को हमारा सलाम पहुँचा दो और आँहज़रत को हमारे हाल से आगाह कर दो।

इमाम हुसैन (अ.स) की इज़्ज़त बरज़ख़ और क़यामत में ज़ाहिर होगी

इज़्ज़त उसी शख़्स के लिये है कि वो जो कुछ चाहे हो जाऐ रवायत के मुताबिक़ उबैद इब्ने क़ाब कहता है कि मैं हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)   की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो देखा कि हुसैने (अ.स) अज़ीज़ आपके दामन पर बैठे हुऐं हैं और आप उन्हें सूंघ रहे हैं और बोसे दे रहे हैं मैंने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह ! क्या आप हुसैन (अ.स) को बहुत दोस्त रखते हैं ?आँहज़रत ने फ़रमाया (मज़मून रवायते मुबारक) आसमान वाले हुसैन (अ.स) को ज़मीन वालों से ज़्यादा दोस्त रखते हैं दरहक़ीक़त ज़मीन वाले उनकी अज़मत से आगाह नहीं हैं बरज़ख़ और क़यामत में हुसैन (अ.स) की अज़मत और शान आशकार होगी हुसैन (अ.स) की इज़्ज़त और हुकूमत ,हुसैन (अ.स) और दीगर आइम्मा का इरादा और सलतनत वहीं ज़ाहिर होगी ,ज़िल्लत यज़ीदे मलऊन वालों और हर काफ़िर ओ मुलहिद का हिस्सा है। (किताबे विलायत सफ़्हाः- 74, 165)ऐ इन्सान ! तू फ़ानी नहीं है ,हैवान और नबातात के मानिन्द नहीं है कि तेरी ज़िन्दगी का ठिकाना मौत हो तेरा बदन बज़ाहिर फ़ना हो जाता है लेकिन तेरी रूह बाक़ी बक़ाउल्लाह है। जो शख़्स मरता है उसकी मौत के वक़्त से आलमे बरज़ख़ यानी इस दुनिया और क़यामत के दरमियान एक वास्ता है जो क़यामत से मुतास्सिल है इस्लाम की एक अहम तालीम आदमी की शान को पहचनवाना है इन्सान को चाहिये कि ख़ुद अपने को पहचाने जो दिगर तमाम मौजूदात से जुदागाना और रब्बुल आलेमीन की बख़्शीश और करामत की मंज़िल है । (वलक़द करमना बनी आदमा ,सूराऐ असरा आयतः- 70)

ख़ुदावन्दे आलम इन्सान की हस्ती पर लुत्फ़े इनायत फ़रमाता है हर चीज़ आदमी पर क़ुरबान है और यही ग़रज़े आफ़रीनश है ,क़ुराने मजीद ने इस मतलब की बार बार सराहत की है शैख़ बहाई अलैहिर्रहमा ने कितने लतीफ़ अन्दाज़ में कहा हैः- (तरजुमा)

ऐ दायरऐ इमकान के मरकज़    ::   ऐ आलमे कौनो मकाँ के जौहर

तू जौहरे नासूती का बादशाह है    ::  तू मज़ाहिरे लाहूती का आफ़ताब है

सैकड़ों फ़रिशते तेरे लिये चश्म बराह है  ::    तू यूसुफ़े मिस्र है चाह से बाहर आजा

ताकि मुल्के वुजूद का हाकिम हो जाऐ    ::   और तख़्ते वुजूद का सुल्तान बन जाऐ

(किताब विलायत सफ़्हाः- 202)

बरज़ख़ वसीय तर ज़िन्दगी का आलम

क़ुराने मजीद ने हयाते इन्सानी को एक बलन्दतर और मुस्तक़िल ज़िन्दगी क़रार दिया है इस मौत के बाद आलमे बरज़ख़ है (वमन वराऐहुम इला यौमा याबेसून सूराऐ मोमिनून आयतः- 100)बरज़ख़ वास्ते के मानी में है यानी एक ऐसा आलम जो आलमे माददी और आलमे आख़िरत के दरमियान है जिस वक़्त रूह इस क़ालिब से जुदा होती है तो एक दूसरे आलम में दाख़िल होती है ,सूराऐ तबारक के आग़ाज़ में इरशादे ख़ुदावन्दी है कि "वो ख़ुदा जिसने मौत और हयात को पैदा किया है" (अल लज़ी ख़लाक़ल मौता वल हयात............. सूराऐ मलक आयतः- 2)।

ये ज़रूरी नहीं कि हम इस आयत में तावील की कोशिश करें (और क़ल्क़ को क़द्र के माने में लें और कहें कि ख़ुदा ने मौत और ज़िन्दगी को मुक़द्दर फ़रमाया है)  मौत कोई अम्रे अदमी नहीं बल्कि अम्रे वुजूदी है यानी आदमी की रूह का तकामिल यानी माददी क़ालिब से रूह की रिहाई यानी क़सफ़े जिस्म से जान की आज़ादी और आलमे माददी की क़ैद ओ बन्द से ख़लासी यानी इन्सान की तकमील और उसका आमाल के नतीजे तक पहुँचना। (किताबे विलायत सफ़्हाः- 214).

आलमे बरज़ख़ में मोमिन के वुरूद का जशन

दो बुज़ुर्ग आलिमों के हालात में ज़िक्र हुआ है कि उन्होंने आपस में क़ौल ओ क़रार किया था कि हम दोंनो में से जो शख़्स पहले दुनिया से जाऐ वो आलमे बरज़ख़ में अपने हालात से दूसरे को ख़्वाब में मुत्तेला करे ,जब उनमें से एक का इन्तेक़ाल हुआ तो एक मुद्दत के बाद वो अपने रफ़ीक़ के ख़्वाब में आऐ उन्होंने पूछा कि तुमने इतने दिनों तक क्यों मुझे याद नहीं किया ?उन्होंने जवाब दिया कि यहाँ हम लोग एक बड़ा जशन मना रहे थे जिस में मैं मसरूफ़ रहा उन्होंने कहा जशन किस लिये ?तो जवाब मिला क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि शैख़े अन्सारी दुनिया से रेहलत करके यहाँ आऐ हैं लिहाज़ा यहाँ चालीस शबों रोज़ का जशन है।

अज़ाबे बरज़ख़ मिक़दारे गुनाह के मुताबिक़

"फ़यौमैज़ा लायसअल रब्बे अक़ज़ब" यानी उस रोज़ न किसी इन्सान से उसके गुनाहों के बारे में पूछा जाऐगा न किसी जिन से ,तो तुम दोनों अपने मालिक की किस किस नेमतों को झुठलाओगे ?गुनाहगार लोग तो अपने चेहरों से ही पहचान लिये जाऐंगे बस वो पेशानियों और पाँव से पकड़ लिये जाऐंगे (और जहन्नम में डाल दिये जाऐंगे) आख़िर तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेमत से इन्कार करोगे ?उर्दू मुतारज्जिम)। इन आयाते मुबारिका में गुफ़्तगू ये है कि रफ़्ऐ तनाक़िज़ या तआदुदे मकान की सूरत में है कि पहले मौक़फ़ में किसी से उनके गुनाहों के बारे में नहीं पूछा जाता इसलिये कि वो दहशत और वहशत का मौक़फ़ होता है और सवाल ओ हिसाब का मौक़फ़ उसके बाद आता है या तनाक़िज़ रफ़्अ करने की दूसरी सूरत अशख़ास के ताअदुद में है कि रोज़े क़यामत शियों से उनके गुनाहों की बाज़पुरस न होगी क्योंकि वो तौबा के साथ दुनिया से गऐ हैं या बरज़ख़ में अपने गुनाहों की मिक़दार के मुताबिक़ अज़ाब झेल चुके हैं और इस मौज़ू में मुताअदिद रवायतें मनक़ूल है अब देखना ये होगा कि गुनाह कैसा है ?बाज़ गुनाह मुमकिन है एक साल तक और बाज़ एक हज़ार साल तक हिसाब की मुअत्तिली के बाएस हों या मसअलन हूक़्क़ुनास हों कि वाक़ियन उस से डरना चाहिये इसकी मुनासिबत से एक वाक़िया पेश कर रहा हूँ।

 
लोगो के हक़ के लिये बरज़ख़ में एक साल की सख़्ती

मरहूम हाज़ी नूरी ने दारूस्सलाम में इस्फ़ेहान के एक बुज़ुर्ग आलिम हाजी सैय्यद मुहम्मद साहब मरहूम से नक़्ल किया है कि उन्होंने फ़रमाया कि मैंने अपने बाप की वफ़ात के एक साल बाद एक रात उन्हें ख़्वाब में देखा और उनसे हाल दरयाफ़्त किया तो उन्होंने फ़रमाया कि अब तक मैं गिरफ़्तार था लेकिन अब आराम से हूँ मैंने ताअज्जुब के साथ पूछा कि आपकी गिरफ़्तारी का सबब क्या था ?तो फ़रमाया कि मैं मशहदी रज़ा सक़्क़ा के अठारह क़िरान (ईरान का एक साबिक़ छोटा सिक्का जिसे अब रियाल कहते हैं) का मक़रूज़ था लेकिन अदाएगी की वसीयत करना भूल गया था लिहाज़ा जिस वक़्त से मुझको मौत आई है अब तक मैं गिरफ़्तार था लेकिन कल मशहदी रज़ा ने मुझे माफ़ कर दिया है इस वजह से अब मैं राहत में हूँ।

जनाब सैय्यद मोहम्मद ने ये ख़्वाब देखने के बाद नजफ़े अशरफ़ से इस्फ़हान में अपने भाईयों को लिखा कि मैंने ऐसा ख़्वाब देखा है उसकी तहक़ीक करो अगर मेरा बाप किसी का क़र्ज़दार है तो उसे अदा कर दो ! चुनाँचे उन्होंने सक़्क़ाऐ मज़कूर को तलाश करके उस से सूरते हाल दरयाफ़्त की ,उसने कहा हाँ मेरे अठराह क़ीरान उनके ज़िम्मे वाजिबुलअदा थे लेकिन मरहूम की वफ़ात के बाद मेरे पास उसकी कोई सनद नहीं थी लिहाज़ा मुतालिबा नहीं किया क्योंकि उससे कोई नतीजा न होता यहाँ तक कि इसी तरह से एक साल गुज़र गया तो मैंने सोचा कि बावजूदे कि सैय्यद ने ये कोताही की कि मुझे सनद नहीं दी और वसीयत भी नहीं की लेकिन मैं उनके जद की ख़ातिर उन्हें मुआफ़ करता हूँ ताकि वो अज़ीयत में मुब्तिला न रहें।

उन मरहूम के फ़रज़न्दों ने वो अठारह क़िरान अदा करने की कोशीश की लेकिन मशहदी रज़ा ने क़ुबूल नहीं किया और कहा कि जो चीज़ मैं मुआफ कर चुका हूँ उसे नहीं ले सकता।

ग़रज़ ये कि बरज़ख़ की मुअत्तली गुनाह और हुक़्क़ूनास की नौइयत से वाबस्ता है लेकिन  बहरहाल शियायाने अली (अ.स) बरज़ख़ में पाक हो जाते हैं। (किताब बहिश्ते जावेदाँ सफ़्हाः- 287)

अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मादीव वा आले मुहम्मद

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