ग़दीर और वहदते इस्लामी

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ग़दीर और वहदते इस्लामी लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

ग़दीर और वहदते इस्लामी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी

ग़दीर और वहदते इस्लामी

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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ऐतेराज़ात की तहक़ीक़

चूँकि हदीस ग़दीर हज़रत अमीरुल मोमिनीन की विलायत व इमामत पर बहुत ही मज़बूत और मुसतहकम दलील है लेकिन अहले सुन्नत ने इस हदीस पर सनदी या दलाली ऐतेराज़ करने की (बेजा) कोशिश की है , लिहाज़ा हम यहाँ पर उन ऐतेराज़ को बयान करे उनके जवाबात पेश करते हैं:

1. हदीसे ग़दीर सिक़ा तरीक़े से नक़्ल नही हुई है।

इब्ने जज़्म का कहना है कि लेकिन हदीस मुवस्सक़ तरीक़े से नक़्ल नही हुई है लिहाज़ा सही नही है।

(अल फ़ेसल जिल्द 4 पेज 224)

जवाब:

अव्वल: जैसा कि हमने पहले अर्ज़ किया कि बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत ने इस हदीसे ग़द़ीर के सही होने का इक़रार किया है।दोबारा इस हिस्से का मुतालआ कर लें)

दुव्वुम: इब्ने हज़्म , उन लोगों में से जिसके बारे में उस वक़्त के उलामा ने उसके गुमराह होने पर इत्तेफ़ाक़ किया है और यही नही बल्कि अवामुन नास को उसके क़रीब होने से मना किया करते थे।

सिव्वुम: उसके कुछ नज़रियात ही कुछ ऐसे थे जिनसे मालूम होता है कि वह एक मुतअस्सिब और हट धर्म आदमी था , यहाँ तक कि हज़रत अली (अ) से बुग़्ज़ की कीना और दुश्मनी रखता था।

वह अपनी किताब अल मुहल्ली में कहता है कि उम्मत के दरमियान इस चीज़ में कोई इख़्तिलाफ़ नही है कि अब्दुर्रहमान बिन मुल्जिम ने अपनी दलील के तहत अली को क़त्ल किया है , उसके इज्तेहाद ने उसको इस नतीजे पर पहुचाया था कि और उसने यह हिसाब किया था कि उसका काम सही है।

(लिसानुल मीज़ान जिल्द 4 पेज 229 रक़्म 5737)

(अल मुहल्ली जिल्द 10 पेज 482)

जबकि बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत ने पैग़म्बरे अकरम (स) से नक़्ल किया है कि आपने हज़रत अली (अ) से फ़रमाया: तुम्हारा क़ातिल आख़रीन में सबसे ज़्यादा सख़ी होगा। एक दूसरी हदीस में बयान हुआ है कि लोगों में सबसे ज़्यादा शक़ी होगा। नीज़ एक दूसरी ताबीर में बयान हुआ है: इस उम्मत का सबसे ज़्यादा शक़ी इंसान होगा जैसा कि क़ौमे समूद में नाक़ ए सालेह को क़त्ल करने वाला था।

और एक दूसरी रिवायत में पैग़म्बरे अकरम (स) से नक़्ल हुआ है कि आँ हज़रत (स 0 ने हज़रत अली (अ) से फ़रमाया: क्या मैं तुम्हे उस शख्स के बार में ख़बर दूँ जिसको रोज़े क़यामत सबसे ज़्यादा अज़ाब किया जायेगा। हज़रत अली (अ) ने अर्ज़ किया: जी या रसूलल्लाह , आप मुझे ख़बरदार फ़रमायें , उस मौक़े पर आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: बेशक रोज़े क़यामत मैं सबसे ज़्यादा अज़ाब होने वाला शख्स नाक़ ए सालेह को क़त्ल करने वाला है और वह शख्स जो आपकी रीशो मुबारक को आपके सर के ख़ून से रंगीन करेगा।

और आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: तुम्हारा क़ातिल यहूदी के मुशाबेह बल्कि ख़ुद यहूदी होगा।

(मुसनद अहमद जिल्द 5 पेज 326 हदीस 17857, ख़सायसे निसाई पेज 162, अल मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 151 हदीस 4679)

(अक़्दुल फ़रीद जिल्द 4 पेज 155)

(क़ंज़ुल उम्माल जिल्द 13 पेज 195 हदीस 36582)

हज़रत अली (अ) ने एक रोज़ इब्ने मुलजिम से ख़िताब करते हुए फ़रमाया: मैं तूझे मख़्लूक़ाते ख़ुदा में सबसे ज़्यादा शरूर और बुर मानता हूँ।

(तारिख़े तबरी जिल्द 5 पेज 145, कामिले इब्ने असीर जिल्द 2 पेज 435)

क़ारेईने मोहतरम , किस तरह से इब्ने मुलजिम को मुजतहिद का नाम दिया जा सकता है जबकि उसने अपने वाजिबुल इताअत इमाम को क़त्ल किया। मगर क्या पैग़म्बरे अकरम (स) ने इमामे मुसलेमीन पर ख़ुरूज करने को मुसलमानों की जमाअत से ख़ारिज होने का सबब क़रार नही दिया है और इमाम के क़त्ल से नही फ़रमाई।

(सही मुस्लिम किताबुल अमारा)

इब्ने हज़्म वह शख्स है जिसने क़ातिल अम्मार (अबुल ग़ादरिया यसार बिन सबए सलमी) को भी अहले तावील और मुजतहिद माना है कि इस काम पर उसके लिये एक सवाब है चुँनाचे वह कहते है कि यह अमल क़त्ले उस्मान की तरह नही हैं क्योकि उस्मान के क़त्ल में इजतेहाद का मक़ाम नही है।(

(अल फ़स्ल जिल्द 4 पेज 161)

जबकि अबुल ग़ाद का दुनिया के जाहिलों में शुमार होता है और किसी ने भी उसकी तारीफ़ और तौसीक़ नही है।

यह कैसा इजतेहाद है कि जो बिलकुल वाज़ेह बयान के मुक़ाबले में है ? क्या पैग़म्बरे अकरम (स) ने सहीहुस सनद अहादीस के मुताबिक़ अम्मार से नही फ़रमाया: तुम्हे ज़ालिम गिरोह क़त्ल करेगा। (

मगर क्या पैग़म्बरे अकरम (स) ने उनके बारे में नही फ़रमाया: जब लोगों के दरमियान इख़्तिलाफ़ हो जाये तो (अम्मार) फ़रज़ंदे सुमय्या हक़ पर होगें।

क्या आँ हज़रत (स) ने नही फ़रमाया: पालने वाले , क़ुरैश अम्मार को हिर्स व तमअ की निगाहों से देखते हैं बेशक अम्मार का क़ातिल और (उनके) कपड़ों को फाड़ने वाला आतिशे जहन्नम में जायेगा।

(अल ऐसाबा जिल्द 2 पेज 512 हदीस 5704)

(अल मोजमुल कबीर जिल्द 10 पेज 96 पहदीस 10071)

(अल मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 437 हदीस 5661)

2. हदीसे ग़दीर की सेहत में लोगों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है

(हदीस गद़ीर के सिलसिले में दूसरा ऐतेराज़ यह है कि) इब्ने तैमीया कहते है: लेकिन हदीस ........सेहाह में बयान नही हुई है लेकिन हमारे दीगर उलामा ने इसको नक़्ल किया है और लोगों के दरमियान इस हदीस के सिलसिले में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। बुख़ारी , इब्राहीम हरबी और दीगर उलामा ए हदीस से नक़्ल हुआ है कि उन्होने इस हदीस पर ऐतेराज़ किया है और इस हदीस को जईफ़ शुमार किया है।)

(मिनहाजुस सुन्नह जिल्द 7 पेज 319)

जवाब:

1. तिरमीज़ी ने इस हदीस को अपनी सही में नक़्ल किया है और इसकी सेहत का इक़रार किया है।

2. हम किसी ऐसे शख्स को नही जानते जिसने इस हदीस में इख़्तिलाफ़ किया हो , अगर कोई होता तो इब्ने तैमिया को उस नाम को ज़रूर बयान करना चाहिये था।

3. अहले बैत (अ) मख़्सूसन हज़रत अली (अ) की फ़ज़ीलत में वारिद होने वाली हदीस के सिलसिले में इब्ने तैमिया ने ऐसा रवैया इख़्तियार किया है कि नासिरुद्दीन अलबानी ने जो ऐतेक़ादी मसायल में ख़ुद इब्ने तैमिया के पैरवकार हैं , वह भी इब्ने तैमिया के इस अमल से नाराज़ी हैं और इस बात की वज़ाहत करते हुए कहते हैं कि इब्ने तैमिया ने अहादिस को ज़ईफ़ शुमार करने में बहुत जल्दी बाज़ी से काम लिया है क्योकि अहादिस की सनदों की छानबीन करने से पहले ही उनको ज़ईफ़ क़रार दे दिया है।

(सिलसिलतुल अहादिसिस सहीहा हदीस 1750)

क़ारेईने मोहतरम , दर हक़ीक़त इस सूरते हाल के पेशे नज़र यह कहा जाये कि इब्ने तैमिया ने शियों से बल्कि अहेल बैत (अ) से दुश्मनी की वजह से उन तमाम अहादीस को ज़ईफ़ क़रार देने की कोशिश की है जो अहले बैत (अ) और उनके सर फ़ेहरिस्त हज़रत अली (अ) की शान में बयान हुई हैं।

3. मौला के मअना औला (बित तसर्रुफ़) के नही हैं।

महमूद ज़अबी , अल्लामा शरफ़ुद्दीन पर ऐतेराज़ करते हुए कहते है: लुग़ते अरब में लफ़्ज़े मौला औलवियत और औला (बित तसर्रुफ़) के मअना में इस्तेमाल नही हुआ है।

(अल बय्येनात महमूद जअबा)

यह दावा कि लफ़्ज़ मौला औलवियत और औला (बित तसर्रुफ़) के मअना में इस्तेमाल नही हुआ है बिला दलील बल्कि हक़ीक़त के बर ख़िलाफ़ है , क्योकि इल्मे कलाम , इल्में तफ़सीर औ इल्में लुग़त के दर्ज ज़ैल बुज़ुर्ग उलामा मे लफ़्ज़े मौला के इस मअना को क़बूल किया है।

अलिफ़. मुफ़स्सेरीन के बयानात

अल्लामा फ़ख़रुद्दीन राज़ी आयए शरीफ़ा

(فَالْيَوْمَ لَا يُؤْخَذُ مِنكُمْ فِدْيَةٌ وَلَا مِنَ الَّذِينَ كَفَرُوا ۚ مَأْوَاكُمُ النَّارُ ۖ هِيَ مَوْلَاكُمْ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ ) की तफ़सीरे के सिलसिले में कलबी , ज़ुज्जाज , अबी उबैदा और फ़र्रा से नक़्ल करते हैं कि मौला के मअना औला (बित तसर्रुफ़) के हैं।

(सूरए हदीद आयत 15 तर्जुमा वही तुम सबका साहिबे इख़्तियार (मौला) है।)

(तफ़सीरे राज़ी जिल्द 29 पेज 227)

बग़वी ने भी इस आयत की तफ़सीर यूँ बयान की है: (यानी तुम्हारा हमदम और तुम पर औला और ज़्यादा हक़दार शख्स।

यही तफसीर जमख़्शरी , अबुल फ़रज , इब्ने जौज़ी , नैशापुरी , क़ाज़ी बैज़ावी , नसफ़ी , सुयूती और अबुस सऊद से भी वज़कूरा आयत के ज़ैल में बयान हुई है।

(मआलिमुत तंजील जिल्द 8 पेज 29)

(अल कश्शाफ़ जिल्द 4 पेज 476, ज़ादुल मसीर जिल्द 8 पेज 168, ग़रायबुल क़ुरआन दर हाशिय ए तफसीर तबरी जिल्द 27 पेज 131, अनवारुत तंज़ील , मदारिकुत तंज़ील जिल्द 4 पेज 226, तफसीरे जलालैन व ..।)

बे. मुतकल्लेमीन के बयानात

बहुत से उलामा ए इल्में कलाम जैसे साद तफ़तज़ानी , अला क़ौशजी वग़ैरह ने भी लफ़्ज़े मौला के लिये इसी मअना को क़बूल किया है , चुँनाचे तफ़तज़ानी कहते हैं: कलामे अरब में लफ़्ज़े मौला का इस्तेमाल , मुतवल्ली , मालिके अम्र और औला बित तसर्रुफ़ के मअना में मशहूर है और बहुत से उलामा ए लुग़त ने इस मअना की तरफ़ इशारा किया है।

जीम. अहले लुग़त का बयान

बुज़ुर्ग उलामा ए लुग़त जैसो फ़र्रा , ज़ुज्जाज़ , अबू उबैदा , अख़फ़श , अली बिन ईसा रम्मानी , हुसैन बिन अहमद ज़ूज़नी , सअलब और जौहरी वग़ैरह ने लफ़्ज़े मौला के लिये औला बित तसर्रुफ़ के मअना की तरफ़ इशारा किया है।

लफ़्ज़े मौला की अस्ल

लफ़्ज़े मौला की अस्ल विलायत है , इस लफ़्ज़ का अस्ल माद्दा क़ुर्ब और नज़दीकी पर दलालत करते है यानी दो चीज़ों के दरमियान ऐसे क़ुर्ब की निस्बत हो जिनके दरमियान कोई चीज़ फासला न हो।

इब्ने फ़ारस कहते है: वाव , लाम , या (वली) क़ुर्ब और नज़दीकी पर दलालत करता है , लफ़्ज़े वली की अस्ल क़ुर्ब और नज़दीकी है और लफ़्ज़े मौला भी इसी बाब से है और यह लफ़्ज़ आज़ाद करने वाला , आज़ाद होने वाला , साहिब , हम क़सम , इब्ने अम , नासिर और पड़ोसी पर भी इतलाक़ होता है , उन तमाम की अस्ल वली है जो क़ुर्ब के मअना मे हैं।

(इब्ने फ़ारस मोअजम मक़ायसुल लुग़त पेज 1104)

राग़िब इसफ़हानी कहते हैं: विला और तवाली का मतलब यह है कि दो या चंद चीज़ों का इसतरह होना कि कोई दूसरी चीज़ उनके फ़ासला न हो , यह मअना क़ुरबे मकानी और निस्बत के लिहाज़ से दीन , सदाक़त , नुसरत और ऐतेक़ाद के लिये इसतेआरे के तौर पर इस्तेमाल होता है।

लफ़्ज़े विलायत (बर वज़्ने हिदायत) नुसरत के मअना में और लफ़्ज़े विलायत (बर वज़्ने शहादत) वली अम्र के मअना हैं और यह भी कहा गया है कि उन दोनो लफ़्ज़ के एक ही मअना हैं और उनकी हक़ीक़त वही वली अम्र (सर परस्त) होना है।

(राग़िबे इसफ़हानी पेज 533 )

क़ारेईने मोहतरम , इँसान के क़दीमी हालात के पेशे नज़र शुरु शुरु में अल्फ़ाज़ महसूसात से मुतअल्लिक़ मअना के लिये इस्तेमाल होते हैं , चुँनाचे इस मौक़े पर कहा जाये कि लफ़्ज़ विलायत शुरु शुरु में महसूसात के बारे में मख्सूस क़ुर्ब व नज़दीकी के मअना में इस्तेमाल हुआ , जिसके बाद मअनवी क़ुर्ब के मअना में इस्तेआरा (और इशारा) में इस्तेमाल होने लगा। लिहाज़ा जब यह लफ़्ज़ मअनवी उमूर में इस्तेमाल हो तो एक क़िस्म की क़राबत पर दलालत करता है , जिसका मुलाज़ेमा यह है कि वली जिस पर दलालत करता है उस पर एक ऐसा हक़ रखता है दो दूसरा नही रखता और वह ऐसे तसर्रुफ़ात कर सकता है जो दूसरा बग़ैर इजाज़त के नही कर सकता। मिसाल के तौर पर वली ए मय्यत (मय्यत) के माल में तसर्रुफ़ कर सकता है और यह दलालत वारिस होने की वजह से है और जो शख्स किसी बच्चे पर विलायत रखता है वह उसके उमूर में तसर्रुफ़ का हक़ रखता है। जो शख्स विलायते नुसरत रखता है वह मंसूर (जिसकी नुसरत व मदद का अहद किया हो) पर तसर्रुफ़ का हक़ रखता है।और ख़ुदा वंदे आलम अपने बंदों का वली है यानी अपने बंदों के दुनयवी व दीनी कामों का तदबीर करता है और वह मोमिनीन का वली है यानी उन पर मख़्सूस विलायत रखता है।

इस बिना पर विलायत के हर मअना के इस्तेमाल एक क़िस्म की क़राबत पाई जाती है जो एक क़िस्म का तसर्रुफ़ और साहिबे तदबीर होने का सबब बनती है।

दूसरे लफ़्ज़ो में यूँ कहा जाये कि विलायत ऐसी क़राबत और नज़दीकी है जो दरमियान से हिजाब और मवानेअ को ख़त्म कर देती है।

(तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 6 पेज 12)

(तफ़सीरे अलमीज़ान जिल्द 5 पेज 368)

अब अगर कोई नफ़्सियाती रियाज़तों और अपनी क़ाबिलीयत की बेना पर नीज़ ख़ुदा वंद आलम के मख़्सूस लुत्फ़ व करम की वजह से मुकम्मल क़ुरबे इलाही पर पहुच जाये और ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से विलायत हासिल कर लो तो वह शख्स ऐसा हक़ हासिल कर लेता है जो दूसरा नही रखता और वह ऐसे दख्ल व तसर्रुफ़ात कर सकता है जो कोई दूसरा बग़ैर इजाज़त के नही कर सकता और यह तमाम चीज़ें ख़ुदा वंदे आलम के इज़्न व इरादा और उसकी मशीयत से है।

4. मुहब्बत में औला और सज़ावार होना

(हदीस ग़दीर के सिलसिले में एक ऐतेराज़) ज़अबी और दूसरे यह करते हैं कि शियों ने लफ़्ज़े मौला के मअना औला लेने के बाद उसकी निस्बत तसर्रुफ़ की तरफ़ दी है और उस लफ़्ज़ से औला बित तसर्रुफ़ के मअना किये हैं क्योकि उन लोगों ने उसकी निस्बत मुहब्बत की तरफ़ नही दी है ?()

(अल बय्येनात)

जवाब:

अव्वल. कु़रआने करीम में लफ़्ज़े मौला उमूर में दख्ल व तसर्रुफ़ करने वाले के मअना में इस्तेमाल हुआ है , ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है ( وَاعْتَصِمُوا بِاللَّـهِ هُوَ مَوْلَاكُمْ ) अल्लामा फ़ख़रुद्दीन राज़ी ने इस आयत की तफ़सीर में लफ़्ज़े मौला के मअना आक़ा और तसर्रुफ़ करने वाले के लिये है।

(सूरए हज आयत 78 तर्जुमा , और अल्लाह से बक़ायदा तौर पर वाबस्ता हो जाओ कि वही तुम्हारा मौला है।)

(तफ़सीरे राज़ी जिल्द 23 पेज 74)

नैशापुरी ने आयए शरीफ़ा ( ثُمَّ رُدُّوا إِلَى اللَّـهِ مَوْلَاهُمُ الْحَقِّ ) के ज़ैल में लफ़्ज़े मौला के मअना दख्ल व तसर्रुफ़ करनेवाले के लिये है. , चुनाँचे मौसूफ़ कहते हैं: वह लोग दुनिया में बातिल मौला के तसर्रुफ़ के तहत थे।(

(सूरए अनआम आयत 62 तर्जुमा , फिर सब अपने मौला ए बरहक़ परवरदिगार की तरफ़ पलटा दिये जाते हैं।()

(तफ़सीरे नैशापुरी जिल्द 7 पेज 128)

दूसरे. यह बात साबित हो चुकी है कि लफ़्ज़े मौला का इस्तेमाल वली ए अम्र के मअना में होता है और मुतवल्ली व मुतसर्रिफ़ में कोई फ़र्क़ नही है।

तीसरे. लफ़्ज़े मौला मलीक के मअना में (भी) आया है जिसके मअना वही उमूर में दख्ल व तसर्रुफ़ करने वाले के हैं।

चौथे. अपनी जगह यह बात साबित हो चुकी है कि हदीसे ग़दीर मुहब्बत से हम आहंग नही है और सिर्फ़ उमूर में तसर्रुफ़ और मुतवल्ली के मअना से मुनासेबत रखता है।

5. उस्मान के बाद हज़रत अमीर (अ) की इमामत

बाज़ लोगों का यह कहना है: हम इस हदीस को हज़रत अली (अ) की इमामत व ख़िलाफ़त पर सनद और दलालत के लिहाज़ से सही मानते हैं लेकिन इस हदीस में यह इशारा नही हुआ है कि हज़रत अली (अ) रसूले अकरम (स) के फ़ौरन बाद ख़लीफ़ा व इमाम हैं लिहाज़ा हम दूसरी दलीलों के साथ जमा करते हुए आप को चौथा ख़लीफ़ा मानते हैं।

जवाब:

अव्वल. कोई भी दलील हज़रत अली अ) की ख़िलाफ़त से पहले दीगर ख़ुलाफ़ा की ख़िलाफ़त पर मौजूद नही है ताकि उनके दरमियान जमा करते हुए यह बात कहें।

दूसरे. इस हदीस और हदीसे विलायत को जमा करते हुए कि जिसमें ...(यानी मेरे बाद) को लफ़्ज़ मौजूद है , यह नतीजा हासिल होता है कि हज़रत अली (अ) , रसूले अकरम (स) के बाद फ़ौरन ख़लीफ़ा हैं। क्योकि सहीहुस सनद अहादीस के मुताबिक़ रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) के बारे मे फ़रमाया:

हदीस

(मुसनद अहमद जिल्द 4 पेज 438)

(अली (अ) मेरे बाद हर मोमिन के वली व आक़ा है।)

तीसरे. ख़ुद हदीसे ग़दीर का ज़हूर मख़सूसन क़रायने हालिया व मक़ालिया के पेशे नज़र यह है कि हज़रत अली (अ) पैगम्बरे अकरम (स) के बिला फ़स्ल ख़लीफ़ा है।

चौथे. हदीसे गद़ीर का नतीजा यह है कि हज़रत अली (अ) तमाम मुसलमानों के यहाँ तक कि ख़ुलाफ़ा ए सलासा के भी सरपरस्त हैं तो फिर यह बात हज़रत अली (अ) की बिला फ़स्त खिलाफ़त से हम आहंग हैं।

पाँचवे. अगर उस्मान के बाद हजरत अली (अ) ख़लीफ़ा है तो फिर उमर बिन ख़त्ताब ने रोज़े ग़दीरे ख़ुम हज़रत अली (अ) को क्यो मुबारकबाद पेश की और आपको अपना और हर मोमिन व मोमिना का मौला कह कर ख़िताब किया ?।

6. बातिनी इमामत , न कि ज़ाहिरी इमामत

बाज़ लोगों का कहना है: हदीसे ग़दीर में विलायत से मुराद विलायते बातिनी है न कि ज़ाहिरी , जो हुकूमत और आम मुसलमानों पर ख़िलाफ़त और सर परस्ती के मुतारादिफ़ है , इस ताविल के ज़रिये अहले सुन्नत ने कोशिश की है कि हज़रत अमीर (अ) और ख़ुलाफ़ा ए सलासा की ख़िलाफ़त के दरमियान जमा करें।

जवाब:

अव्वल. अगर यह तय हो कि इस तरह के अलफ़ाज़ को ज़ाहिर के ख़िलाफ़ हम्ल किया जाये तो फिर नबूव्वत के लिये भी इसी तरह की तावील करना सही होना चाहिये जबकि ऐसा करना किसी भी सूरत में सही नही है।

दूसरे. किस दलील के ज़रिये ख़ुलाफ़ा ए सलासा की ख़िलाफ़त साबित है ताकि उनकी ख़िलाफ़त और हदीसे ग़दीर के दरमियान जमा करने की कोशिश की जाये।

तीसरे. यह तफ़सीरे लफ़्ज़े मौला के ज़ाहिर और मफ़हूफ़े विलायत के बर ख़िलाफ़ है क्योकि लफ़्ज़े मौला और विलायत के ज़ाहिर से वही सर परस्त के मअना हासिल होते हैं।

चौथे. हम इस बात का अक़ीदा रखते हैं कि हदीसे ग़दीर और दीगर अहादीस में विलायत से वही ख़ुदा वंदे आलम की विलायते आम्मा मुराद है जो सियासी हाकिमियत और दीनी मरजईत की क़ीस्म में से है।

7. ताज़ीम में अवलवियत का ऐहतेमाल

शाह वलीयुल्लाह देहलवी कहते हैं: इस बात का ऐहतेमाल पाया जाता है कि लफ़्ज़े मौला से ताज़ीम में अवलवियत मुराद हो।

जवाब:

अव्वल. यह ऐहतेमाल लफ़्ज़े मौला के ज़ाहिर के ख़िलाफ़ है जैसा कि पहले इशारा किया जा चुका है कि किसी लफ़्ज़ को ख़िलाफ़े ज़ाहिर और मजाज़ी मअना में इस्तेमाल करने के लिये हक़ीक़ी मअना से मुनसरिफ़ करने वाले करीने की ज़रूरत होती है।

दूसरे. यह ऐहतेमाल हदीसे ग़दीर में मौजूद क़रायन जो कि सर परस्ती के मअना से मुनासिबत रखते हैं , उनके बर ख़िलाफ़ है क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने ख़ुतबे से आग़ाज़ फ़रमाया और उसके ज़रिये बित तसर्रुफ़ और विलायत के मफ़हूफ़ का इक़रार लिया जिसके बाद आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: जो हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) की विलायत व इमामत पर साफ़ साफ़ अल्फ़ाज़ है।

तीसरे. लफ़्ज़े मौला के ज़ाहिर से इमामत व सर परस्ती के मफ़हूफ़ के अलावा कोई दूसरे मअना मुराद लेना किस तरह हज़रत उमर बिन ख़त्ताब की मुबारकबाद से हम आहंग हो सकते हैं।

चौथे. (अगर थोड़ी देर के लिये) फ़र्ज करें कि लफ़ज़े मौला से ताज़ीम में अवलवियत मुराद हो तो हम कहते है कि इससे कोई मुनाफात नही है क्योकि जो शख्स दूसरों की निसाबत दीनी और शरई लिहाज़ से ताज़ीम में औला हो तो वह सबसे अफ़ज़ल व बरतर है , ज़ाहिर है कि जो अफ़ज़ल व बरतर हो वही ख़िलाफ़त व इमामत के लिये मुनासिब होता है।

8. सूरए आले इमरान की आयत 68 की मुख़ालिफ़त

शाह वलीयुल्लाह देहलवी साहब यह भी कहते हैं: इस बात की क्या ज़रूरत है कि हम हदीसे ग़दीर में लफ़्ज़े मौला के मअना औला बित तसर्रुफ़ और सर परस्ती के लें जबकि क़ुरआने मजीद में इस मअना के बर ख़िलाफ़ इस्तेमाल हुआ है जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम की इरशाद है

: إِنَّ أَوْلَى النَّاسِ بِإِبْرَاهِيمَ لَلَّذِينَ اتَّبَعُوهُ وَهَـذَا النَّبِيُّ وَالَّذِينَ آمَنُوا

(सूरए आले इमरान आयत 69)

तर्जुमा

, यक़ीनन इब्राहीम से क़रीब तर उनके पैरव हैं और फिर यह पैग़म्बर साहिबाने ईमान हैं।

मुकम्मल तौर पर वाज़ेह व रौशन है कि हज़रत इब्राहीम (अ) के पैरव ख़ुद जनाबे इब्राहीम (अ) से औला और तसर्रुफ़ में सज़ावार तर नही थे।

जवाब:

अव्वल यह कि क़ुरआने करीम की बाज़ आयतों में लफ़्ज़े मौला उसी औवलवियत के मअना में इस्तेमाल हुआ है जैसे कि यह आयते शरीफ़ा مَأْوَاكُمُ النَّارُ ۖ هِيَ مَوْلَاكُمْ

(सूरए हदीद आयत 15)

तर्जुमा

तुम सब का ठिकाना जहन्नम है वही तुम सब का साहिबे इख़्तियार (मौला) है।

दूसरे यह कि हदीसे ग़दीर में लफ़्ज़े मौला हदीस में मौजूद बाज़ क़रायन की वजह से औला बित तसर्रुफ़ के मअना में है।

तीसरे. हज़रत इब्राहीम (अ) से मुताअल्लिक़ आयते शरीफ़ा में ऐसा क़रीना मौजूद है जिसकी वजह से औला बित तसर्रुफ़ के मअना नही लिये जा सकते और वह क़रीना यह है कि कोई भी शख्स पैग़म्बरे ख़ुदा से अफ़ज़ल व मुकद्दम नही होता , बर ख़िलाफ़े हदीसे ग़दीर के (इसमें कोई ऐसा क़रीना नही है जो औला बित तसर्रुफ़ के मअना मुराद लेने में माने हो)

9. ज़ैले हदीस

मौसूफ़ भी कहते है: हदीसे ग़दीर के ज़ैल में ऐसा क़रीना मौजूद है जो इस बात पर दलालत करता है कि लफ़्ज़े मौला से मुहब्बत मुराद है क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स 0 ने फ़रमाया: पालने वाले तू उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और दुश्मन रख उसको जो अली को दुश्मन रख।

जवाब:

अव्वल. इस दुआ के सदरे हदीस की वजह से यह मअना होगे कि पालने वाले जो शख्स अली की विलायत को क़बूल करे उसको दोस्त रख और जो उनकी विलायत को क़बूल न करे उसको दुश्मन रख।

दूसरे. यह मअना पैग़म्बरे अकरम (स) के उस अज़ीम ऐहतेमाम के पेशे नज़र क़ाबिले ज़िक्र नही है क्योकि यह किस तरह कहा जा सकता है कि हम यह कहें कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने उस तपते सहरा में उस अज़ीम मजमें को जमा किया और एक मामूली बात को बयान करने के लिये उस मजमें को इतनी ज़हमत में डाला कि हज़रत अली (अ) तुम्हारे दोस्त हैं।

तीसरे. बाज़ रिवायात में के साथ साथ भी आया है जो इस बात पर शाहिद है कि पहला फ़िक़रा मुहब्बत के मअना में नही है वर्ना अगर पहला जुमला के मअना में हो तो दूसरे जुमले में उसी मतलब की तकरार होती है।

इब्ने कसीर ने वाक़ेय ए रहबा को तबरानी से नक़्ल किया है जिसके ज़ैल में बयान हुआ है कि उस मौक़े पर 13 असहाब खड़े हुए और उन्होने गवाही दी कि रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया:

मुत्तक़ी हिन्दी ने भी इस हदीस को नक़्ल किया हैऔर उसके ज़ैल में हैसमी से नक़्ल किया है कि उन्होने कहा कि इस हदीस के सारे रिजाल सिक़ह हैं।

चौथे. अहले सुन्नत के बाज़ बुज़ुर्गों नें जैसे मुहिबुद्दीन तबरी शाफ़ेई ने इस मअना (यानी मौला ब मअना मुहब्बत) को बईद शुमार किया है।

(अल बिदाया वन निहाया जिल्द 7 पेज 347

(कंज़ुल उम्माल जिल्द 13 पेज 158)

(अर रियाज़ुन नज़रा जिल्द 1 पेज 205)

पाँचवे. एक ऐसी दुआ जिसको पैग़म्बरे अकरम (स) ने ख़ुतबे के बाद की है लिहाज़ा इस जुमले में लफ्ज़े मौला को मुहब्बत के मअना मुराद लेने के लिये क़रीना नही बनाया जा सकता। बल्कि उससे पहले वाला जुमला इस बात पर बेहतरीन क़रीना है कि लफ़्ज़े मौला को इमामत , औला बित तसर्रुफ़ और सर परस्ती के मअना में लिया जाये।

छठे. बाज़ रिवायात में लफ़्ज़े (यानी मेरे बाद) आया है। इब्ने कसीर अपनी सनद के साथ बरा बिन आज़िब से नक़्ल करते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने ग़दीरे ख़ुम में असहाब के मजमे में फ़रमाया:

हदीस

तर्जुमा , अगर पैग़म्बरे अकरम (स) ने लफ़्ज़े मौला से मुहब्बत का इरादा किया होता तो बअदी का लफ़्ज़ कहने की क्या ज़रूरत थी , क्योकि यह मअना सही नही है कि पैग़म्बरे अकरम (स 0 फ़रमायें कि हज़रत अली (अ) मेरे बाद तुम्हारे दोस्त हैं न कि मेरे रहते हुए।

10. मौला के मअना महबूब के हैं।

इब्ने हजरे मक्की और शाह वलीयुल्लाह देहलवी जैसे अफ़राद कहते हैं: हदीसे ग़दीर में लफ़्ज़े मौला से महबूब मुराद है यानी रसूल अकरम (स) के फ़रमान के यह मअना हैं कि जिस का मैं महबूब हूँ उसके यह अली भी महबूब हैं।

जवाब:

अव्वल , यह दावा बग़ैर दलील के हैं , क्योकि लुग़क की किताबों को देखने के बाद इंसान इस नतीजे पर पहुचता है कि किसी भी लुग़वी ने लफ़्ज़े मौला के लिये यह मअना नही किये हैं।

दूसरे , यह मअना क़रीने के ब़गैर हदीस में मुताबादिर मअना से हम आहंग नही है।

तीसरे , यह मअना रिवायत में मौजूद क़रायने मख़सूसन हदीस के शुरु में से मुनासेबत नही रखता।

चौथे , अगर पैग़म्बरे अकरम (स 0 की इस हदीस से यह मअना मुराद हों तो फिर मुआविया , आयशा , तलहा , ज़ुबैर और अम्र बिन आस जैसे लोगों ने हज़रत अली (अ 0 से जंग क्यो की ? क्यो मुआविया ने हज़रत अली (अ) पर अलल ऐलान लानत नही कराई ?

पाँचवें , यह मअना उस चीज़ के बर ख़िलाफ़ हैं जो हदीस ग़दीर से सहाबा ने समझा है लिहाज़ा हस्सान बिन साबित अपने शेयर में क़ौले रसूले अकरम (स) को बयान करते हुए कहते हैं ..........(मैं इस बात से राज़ी हूँ कि मेरे बाद अली (अ) इमाम और हादी हैं।)

11. हसने मुसन्ना की रिवायत से इस्तिदलाल

शाह वलीयुल्लाह देहलवी कहते है: अबू नईम इस्फ़हानी ने हसने मुसन्ना से नक़्ल किया है कि उनसे सवाल हुआ कि हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त पर दलील है ? तो उन्होने जवाब में कहा: अगर इस हदीस से रसूले अकरम (स) की मुराद ख़िलाफ़त थी तो उसको उसको साफ़ साफ़ अल्फ़ाज़ में बयान करना चाहिये था क्योकि आँ हज़रत (स) सबसे ज़्यादा फ़सीह व बलीग़ थे...।

जवाब:

अगर हसन मुसन्ना की रिवायत को थोड़ी देर के लिये क़बूल भी कर लिया जाये तो भी उसकी कोई ऐतेबार और हुज्जत नही है क्योकि वह कोई मासूम नही थे और उनका शुमार सहाबा नही होता ताकि उनका यह यह मअना समझना अहले सुन्नत के नज़दीक मोतबर माना जाये।

दूसरे , इस हदीस की कोई सनद नही है।

तीसरे , किस तरह हज़रत रसूले अकरम (स) ने इस हदीस में इमामत व ख़िलाफ़त के मसले को फ़सीह तौर पर बयान नही किया है ? जबकि क़रायने हालिया और क़रायने मक़ालिया के पेशे नज़र रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) के लिये ख़िलाफ़त व इमामत को हदीसे ग़दीर में वाज़ेह तौर पर बयान किया है और उलामा ए बलाग़त का कहना है कि किनाया सराहत से ज़्यादा फ़सीह होता है , नीज़ यह कि रसूले अकरम (स) ने दूसरी रिवायात में हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त व इमामत को वाज़ेह तौर पर बयान किया है।

12. मुहब्बत के मअना मुराद लेने पर क़रीने का मौजूद होना

शेख सलीम अल बशरी का कहना है: हदीस ग़दीर में ऐसा क़रीना पाया जाता है जिसकी बेना पर लफ़्ज़े मौला से मुहब्बत के मअना लेना सही है और वह क़रीना यह है कि यह हदीस उस वाक़ेया के बाद बयान हुई है जो यमन में पेश आया था और बाज़ लोगों ने आपके ख़िलाफ़ क़दम उठाया था लिहाज़ा रसूले अकरम (स) ने रोज़े ग़दीर हज़रत अली (अ) की महद व तारीफ़ करना चाहते थे ताकि लोगों के सामने उनके फ़ज़ायल व अज़मत बयान हो जाये और जिनसे हज़रत अली (अ) पर हमला किया था उसके मुक़ाबले पर यह बात कहें।

(अल मुराजेआत रक़्म 58)

देहलवी साहब कहते है: इस ख़ुतबे का सबब (जैसा कि मुवर्रेख़ीन और सीरह नवीसान कहते हैं) यह था कि असहाब की एत जमाअत जो हज़रत अली (अ) के साथ यमन में थी जैसे बुरैद ए असलमी , ख़ालिद बिन वलीद वग़ैरह उन्होने यह तय किया था कि वापसी पर आँ हजरत (स) से हज़रत अली (अ) के ख़िलाफ़ जंग की शिकायत करेगें...पैग़म्बरे अकरम (स) ने उन हालात के पेशे नज़र रोज़े ग़दीरे ख़ुम हज़रत अली (अ) की मुहब्बत की दावत दी।

जवाब:

पैग़म्बरे अकरम (स) ने उसी मौक़े पर हज़रत अली (अ) के ख़िलाफ़ ऐतेराज़ करने वालों के लिये डराते हुए तीन बार फ़रमाया: तुम अली (अ) से क्या चाहते हो..

दूसरे , बहुत सी रिवायात के मुताबिक़ रोज़े ग़दीर का वाक़ेया ख़ुदा वंदे आलम के हुक्म से था न कि बाज़ लोगों की तरफ़ से हज़रत अली (अ) की शिकायत की बेना पर।

तीसरे , और अगर फ़र्ज़ करें कि दोनो वाक़ेया एक हैं तो भी हदीसे ग़दीर की दलालत हज़रत अली (अ) की इमामत और सर परस्ती पर कामिल है क्योकि बुरैदा वग़ैरह का ऐतेराज़ तक़सीम से पहले ग़नायम में तसर्रुफ़ करने की वजह से था कि हज़रत रसूले ख़ुदा (स) ने इस हदीस और हदीस ग़दीर को बयान करके इस नुक्ते की तरफ़ इशारा फ़रमाया कि हज़रत अली (अ) हर क़िस्म के दख़ल और तसर्रुफ़ का हक़ रखते हैं क्योकि वह इमाम और वली ए ख़ुदा हैं।

चौथे , रोज़े ग़दीर का वाक़ेया बुरैदा के वाक़ेया से बाद पेश आया और जिसका इस वाक़ेया से कोई ताअल्लुक़ नही था। अल्लामा सैयद शरफ़ुद्दीन तहरीर करते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) को दो मर्तबा यमन भेजा , पहली मर्तबा सन् 8 हिजरी में कि जब जब हज़रत अली (अ) यमन से वापस आये तो कुछ लोगों ने रसूले अकरम (स) की ख़िदमत में आपकी शिकायत की , उस मौक़े पर रसूले अकरम (स) उन लोगों पर ग़ज़बनाक हुए और उन लोगों ने भी ख़ुद अपने से अहद किया कि उसके बाद फिर कभी हज़रत अली (अ) पर ऐतेराज़ न करेंगें। दूसरी मर्तबा सन् 10 हिजरी में उस साल पैग़म्बरे अकरम (स) ने अलम हज़रत अली (अ) के हाथों में दिया , अपने मुबारक हाथो से आपके सर पर अम्मामा बाँधा और आपसे फ़रमाया: रवाना हो जाये और किसी पर तवज्जो न करें। उस मौक़े पर किसी ने रसूले अकरम (स) से हज़रत अली (अ) की शिकायत नही की और आप पर हमला नही किया तो फिर किस तरह मुमकिन है कि हदीसे ग़दीर बुरैद वग़ैरह के ऐतेराज़ करने की वजह से बयान हुई हो।

(सीरए नबविया ज़ैनी दहलान दर हाशिय ए सीरए हलबी जिल्द 2 पेज 346)

(सीरए इब्ने हिशाम जिल्द 4 पेज 212)

(अल मुराजेआत पेज 407)

पाँचवे , फ़र्ज़ करें कि किसी ने हज़रत अली (अ) के ख़िलाफ़ कुछ कहा हो तो कोई भी वजह दिखाई नही देती कि पैग़म्बरे अकरम (स) उस अज़ीन मजमे को तपते हुए सहरा में रोकें और एक छोटी की चीज़ की वजह से उसको इतनी अहमियत दें।

छठे , अगर रसूले अकरम (स) की मुराद सिर्फ़ हज़रत अमीर (अ) की फ़ज़ीलत बयान करना और ऐतेराज़ करने वालों की तरदीद थी तो वाज़ेह अल्फ़ाज़ में इस मतलब को बयान करना चाहिये था , मिसाल के तौर पर फ़रमाना चाहिये था: यह शख्स मेरे चचाज़ाद , मेरे दामाद , मेरे फ़रज़ंदों के पेदरे गिरामी और मेरे अहले बैत के सैयद व सरदार हैं , उनको अज़ीयत न पहुचाना वग़ैरह वगैरह , ऐसे अल्फ़ाज़ जो हज़रत अली (अ) की अज़मत व जलालत पर दलालत करते हों।

सातवे , इस हदीस शरीफ़ से औला बित तसर्रुफ़ , सर परस्ती और इमामत के अलावा कोई दूसरे मअना ज़हन में तबादुर नही करते , अब चाहे इस हदीस के ज़िक्र करने का सबब कुछ भी है , हम अल्फ़ाज़ को उनके हक़ीक़ी मअना पर हम्ल करेंगें और असबाब व एलल से हमें कोई ताअल्लुक़ नही है मख़सूसन जबकि अक़्ली और मंक़ूला क़रायन इस मअना का ताईद करते हैं।

13. दो तसर्रुफ़ करने वालों को एक साथ जमा होना

महमूद ज़अबी का कहना है: अगर हदीसे ग़दीर की दलालत को विलायत , औला बित तसर्रुफ़ और सर परस्ती पर क़बूल करें तो इससे यह लाज़िम आता है कि एक ज़माने में मुसलमानों के दो सर परस्त और दो मुतलक़ तसर्रुफ़ करने वाले जमा हो जायेगें। चुनाचे अगर ऐसा हो तो बहुत सी मुश्किलात पैदा हो जायेगी।

(अल बय्येनात)

जवाब:

अव्वल , हदीसे ग़दीर से हज़रत अली (अ) की विलायत , सर परस्ती और औला बित तसर्रुफ़ होना साबित होता है लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने के तसर्रुफ़ात रसूले अकरम (स) के तसर्रुफ़ के मा तहत होते थे , यानी हज़रत अली (अ) आँ हज़रत (स) की ग़ैर मौजूदगी में तसर्रुफ़ात करते थे।

दूसरे , दो विलायतों के जमा होने में कोई मुश्किल नही है , अगर कोई है भी तो दो तसर्रुफ़ के जमा होने में है , नीज़ दो विलायतों का साबित होना तसर्रुफ़ के फ़ेअली होने का लाज़िमा नही है।

तीसरे , दो तसर्रुफ़ के जमा होने में मुश्किल उस वक़्त पेश आती है कि एक तसर्रुफ़ दूसरे के बर ख़िलाफ़ हो जबकि पैग़म्बरे अकरम (स) और हज़रत अली (अ) के तसर्रुफ़ में कोई इख़्तिलाफ़ नही है।

चौथे , सबसे अहम बात यह है कि हज़रत अली (अ) की विलायत रसूले अकरम (स) के बाद नाफ़िज़ है।

आयए बल्लिग़

जिन आयात को इमामत मख़सूसन हज़रत अली (अ) की इमामत के तौर पर पेश किया जा सकता है उनमें से एक आयए बल्लिग़ है जिसमें ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ

(सूरए मायदा आयत 67)

तर्जुमा

, ऐ पैग़म्बर , आप उस हुक्म को पहुचा दें जो आपके परवर दिगार की तरफ़ से नाज़िल किया गया है और अगर यह न किया गया कि गोया उसके पैग़ाम को नही पहुचाया और ख़ुदा आपको लोगों के शर से महफ़ूज़ रखेगा।

शिया मुफ़स्सेरीन और उलामा ए अहले कलाम ने इस आयत से हज़रत अली (अ) की इमामत व विलायत और ख़िलाफ़त पर इस्तिदलाल किया है और इसी नज़रिया पर मुत्तफ़िक़ हैं। अब हम मज़कूरा आयत के बारे में तहक़ीक़ व बहस करेगें।

आयत के बारे में तहक़ीक़

बहस में दाख़िल होने से पहले आयए बल्लिग़ के सिलसिले में चंद नुकात की तरफ़ इशारा करना मुनासिब है।

1. ज़ुहूरे फ़ेल , माज़ी में होता है

जुमल ए (का ज़हूरे माज़ी और गुज़श्ता ज़माने में हक़ीक़ी है न कि मुज़ारेअ और आईन्दा में , जिसके लिये दो दलील बयान की जाती है:

अ. सीग़ ए माज़ी , गुजश्ता ज़माने के लिये वज़ा हुआ है और जब तक मुज़ारेअ पर हम्ल करने के लिये कोई क़रीना न हो तो वह अपने हक़ीक़ी मअना पर हम्ल होता है।

आ. मज़कूरा आयत पैग़म्बरे अकरम (स) की नुबूवत के आख़री महीनों में नाज़िल हुई है , अगर फ़ेल (से मुज़ारेअ और मुस्तक़बिल के मअना मुराद लें तो आयत के मअना यह होगें। जो चीज़ हम बाद में नाज़िल करेगें अगर नबूवत के बाक़ी बचे महीनों में उनको न पहुचाये तो गोया आपने रिसालत का कोई काम अंजाम नही दिया। और यह एक ऐसे मअना होगें कि जिसकी तरफ़ किसी भी रिवायत ने इशारा नही किया है और किसी भी शिया व सुन्नी आलिमें दीन ने यह मअना नही किये हैं।

इस सूरत में आयत इस बात पर दलालत करती है कि ख़ुदा वंदे आलम ने अपने पैग़म्बर पर ऐसे मतालिब नाज़िल किये हैं जिनका पहुचाना आँ हज़रत (स) के लिये सख़्त और दुशवार था। दूसरी तरफ़ पैग़म्बर अकरम (स) पर उसके पहुचाने की ज़िम्मेदारी थी। आँ हज़रत (स) उसको पहुचाने की फ़िक्र में थे उस मौक़े पर गुज़श्ता आयत नाज़िल हुई और आप तक यह पैग़ाम पहुचा कि आप किसी परेशानी का अहसास न करें कि आप के इस पैग़ाम के पहुचाने पर लोगों का क्या रवैय्या होगा।

2. शर्त की अहमियत का बयान

आयत की यह फ़िक़रा आँ हज़रत (स) के लिये एक धमकी के उनवान से बयान हुआ है क्यो कि आयत की यह फ़िक़रा (शर्तिया है , जो दर हक़ीक़त इस हुक्म की अहमियत को बयान करता है यानी अगर यह हुक्म न पहुचाया गया और उसके हक़ की रियायत न की गई तो गोया दीन के किसी भी जुज़ की रिआयत नही हुई , नतीजा यह हुआ कि जुमल ए शर्तिया , शर्त की अहमियत को बयान करने के सिलसिले में जज़ा (यानी नतीजा) के मुरत्तब होने के लिये मुहिम होता है लिहाज़ा इस क़िस्म के जुमल ए शर्तिया को दूसरे शर्तिया जुमलों की तरह क़रार नही दिया जा सकता जो गुफ़्तगू में रायज हैं क्यो कि आम तौर पर शर्तिया जुमले वहाँ इस्तेमाल होते हैं जहाँ इंसान जज़ा के मुहक्क़क़ होने से गाफ़िल हो क्यो कि शर्त के मुहक्क़क़ होने का इल्म नही होता लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) के हक़ में यह ऐहतेमाल सही नही है।

(तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 6 पेज 49)

3. पैग़म्बरे अकरम (स) को क्या ख़ौफ़ था ?

चूँकि पैग़म्बरे अकरम (स) शुजाअ और बहादुर थे और इस्लाम के अहदाफ़ व मक़ासिद को आगे बढ़ान के लिये किसी भी तरह की कुर्बानी से दरेग़ नही करते थे लिहाज़ा मज़कूरा आयत के पेशे नज़र जो खौफ़ पैग़म्बरे अकरम (स) को लाहक़ था वह अपनी ज़ात से मुताअल्लिक़ नही था बल्कि आँ हज़रत (स) को खौफ़ इस्लाम और रिसालत के बारे में था।

4. अन्नास से क्या मुराद है ?

अगरचे फ़खरे राज़ी जैसे अफ़राद ने इस बात की कोशिश की है कि आयत के ज़ैल में क़रीने की वजह से नास (यानी लोगों) से मुराद क़ुफ़्फार हैं जैसा कि इरशाद होता है ( وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ) लेकिन यह मअना लफ़्ज़े नास के ज़ाहिर के बर ख़िलाफ़ है क्योकि नास में काफ़िर व मोमिन दोनो शामिल हैं और कु़फ़्फ़ार से मख़सूस करने की कोई वजह नही है लिहाज़ा आयत में लफ़्ज़े काफ़ेरीने से मुराद कुफ़्र का एक मर्तबा मुराद लिया जाये जिसमें हज़रते रसूले अकरम (स) के ज़माने के मुनाफ़ेक़ीन भी शामिल हो जाये जिनसे रसूले अकरम (स) को डर था।

5. इस्मत के मअना

गुज़श्ता बयानाते के मुताबिक़ इस्मते इलाही जिसका वादा ख़ुदा वंदे आलम ने अपने पैग़म्बर से किया है इससे मुराद इस्मत की वह किस्म है जो रसूले अकरम (स) के ख़ौफ़ से मुनासेबत रखती हो और यह वह इस्मत है जिसके बारे में पैग़म्बरे अकरम (स) की नबूवत पर ऐसी तोहमतें लगाना जो आपकी नुबूवत से मुताबिक़त न रखती हो।

रिवायात की छानबीन

क़ारिये मोहतरम , अब हम यहाँ पर आयते बल्लिग़ की तफ़सीर में हज़रत अली (अ) की शान में फ़रीक़ैन के तरीक़ों से बयान होने वाली रिवायात की तरफ़ इशारा करते हैं:

1. अबू नईम इस्फ़हानी की रिवायत

अबू नईम ने अबू बक्र ख़लाद से उन्होने मुहम्मद बिन उस्मान बिन इब्ने अबी शैबा से , उन्होने इब्राहीम बिन मुहम्मद बिन मैमून से , उन्होने अली बिन आबिस से , उन्होने अबू हज्जाफ़ व आमश से , उन्होने अतिया से , उन्होने अबी सईदे ख़िदरी से नक्ल किया है कि रसूले अकरम (स) पर यह आयते शरीफ़ा (हज़रत अली (अ) की शान में नाज़िल हुई है।

(अल ख़सायस , इब्ने तरीक़ ब नक़्ल अज़ किताब मा नज़ला मिनल कुरआन फ़ी अलीयिन , अबू नईम इसफ़हानी)

सनद की छान बीन

• अबू बक्र बिन ख़लाद , यह वही अहमद बिन युसुफ़े बग़दादी है कि जिनको ख़तीबे बग़दादी ने उनसे सुनने को सही माना है और अबू नईम बिन अबी फ़रास ने उनका तआरूफ़ सिक़ह के नाम से कराया है (और ज़हबी ने उनको शैख सदुक़ (यानी बहुत ज़्यादा सच बोलने वाले उस्ताद) का नाम दिया है।

• मुहम्मद बिन उस्मान बिन अबी शैबा , उनको ज़हबी ने इल्म का ज़र्फ़ क़रार दिया है और सालेह जज़रा ने उनको सिक़ह शुमार किया है नीज़ इब्ने अदी है: मैंने उनसे हदीसे मुन्कर नही सुनी जिसको ज़िक्र करू।(

• इब्राहीम बिन मुहम्मद बिन मैमून , इब्ने हय्यान ने उनका शुमार सिक़ह रावियों में किया है(और किसी ने उनको कुतुबे ज़ईफ़ा में ज़िक्र नही किया है , अगर उनके लिये कोई ऐब शुमार किया जाता है तो उसकी वजह यह है कि उन्होने अहले बैत (अ) मख़सूसन हज़रत अली (अ) के फ़ज़ायल को बयान किया है।

• अली बिन आबिस , यह सही तिरमिज़ी के सही रिजाल में से हैं।(अगर उनके मुतअल्लिक़ कोई ऐब तराशा जाता है तो उनके शागिर्दों का तरह अहले बैत (अ) के फ़ज़ायल नक़्ल करने की वजह से लेकिन इब्ने अदी के क़ौल के मुताबिक़ उनकी अहादिस को लिखना सही है।

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 5 पेज 220 से 221)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 16 पेज 69)

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 3 पे 43)

(अस सेक़ात जिल्द 8 पेज 74)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 2 पेज 39)

(अल कामिल फ़िज ज़ुआफ़ा जिल्द 5 पेज 190 हदीस 1347)

• अबुल हज्जाफ़ , उनका नाम दाउद बिन अबी औफ़ है। मौसूफ़ अबी दाउद , निसाई और इब्ने माजा के रेजाल में शुमार होते हैं कि अहमद बिन हंमल और यहया बिन मुईन ने उनको सिक़ह माना है और अबू हातिम ने भी उनको सालेहुल हदीस क़रार दिया है।(अगरचे इब्ने अदी ने उनको अहले बैत (अ) के फज़ायल व मनाक़िब में अहादिस बयान करने की वजह से ज़ईफ़ शुमार किया है।(

• आमश , मौसूफ़ का शुमार सेहाहे सित्ता के रेजाल में होता है।(

नतीजा यह हुआ कि इस हदीस के सारे रावी ख़ुद अहले सुन्नत के मुताबिक़ मोतबर हैं।

(मीज़ानुल ऐतेदाल जिल्द 2 पेज 18)

(अल कामिल फ़िज़ ज़ुआफ़ा जिल्द 3 पेज 82, 83 हदीस 625)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 1 पेज 331)

2. इब्ने असाकर की रिवायत

इब्ने असाकर ने अबू बक्र वजीह बिन ताहिर से , उन्होने अबी हामिदे अज़हरी से , उन्होने अबू मुहम्मद मुख़ल्लदी हलवानी से , उन्होने हसन बिन हम्माद सज्जादा से , उन्होने अली बिन आबिस से , उन्होने आमश और अबिल हज्जाफ़ से , उन्होने अतिया से उन्होने सईद बिन ख़िदरी से नक़्ल किया है कि रसूले अकरम (स) पर आयते शरीफ़ा:

ا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ

रोज़े ग़दीरे ख़ुम में हज़रत अली (अ) की शान में नाज़िल हुई है।

सनद की छानबीन

• वजीह बिन ताहिर , इब्ने जौज़ी ने उनको शेख़ सालेद सदूक़ (और ज़हबी ने शैख़ आलिम व आदिल के नाम से सराहा है।(

• अबू हामिद अज़हरी , मौसूफ़ वही अहमद बिन हसने नैशापुरी हैं जिनको ज़हबी ने आदिल और सदूक़ के नाम से याद किया है।

• अबू मुहम्मद मुख़ल्लदी , हाकिम ने उनसे हदीस को सुनना सही क़रार दिया है और रिवायत में मुसतहकम शुमार किया है।(और ज़हबी ने भी उनको शेख सदूक़ और आदिल क़रार दिया है।

(तर्जुमा ए इमाम अली बिन अबी तालिब (अ) अज़ तारिख़े दमिश्क़ जिल्द 2 पेज 86)

(अल मुनतज़िम जिल्द 18 पेज 54)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 20 पेज 109)

(सेयरे आलामुन नबली जिल्द 18 पेज 254)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 16 पेज 540)

• अबू बक्र मुहम्मद बिन इब्राहिम हलवानी , ख़तीबे बग़दादी ने उनको सिक़ह शुमार किया है।हाकिमे नैशापुरी ने उनको सिक़ह रावियों में माना है और ज़हबी ने उनको हाफ़िज़े सब्त के उनवान से याद किया है। नीज़ इब्ने जौज़ी ने उनको सिक़ह क़रार दिया है।

• हसन बिन हम्माद सजादा , मौसूफ़ अबी दाउद , निसाई और इब्ने माजा के रेजाल में से हैं जिनके बारे में अहमद बिन हंबल ने कहा है कि उनसे मुझ तक ख़ैर के अलावा कुछ नही पहुचा। ज़हबी ने उनको जैयद उलामा और अपने ज़माने के सिक़ह रावियों में से माना है। नीज़ इब्ने हजर ने उनको सदूक़ के नाम से याद किया है।

और बाक़ी सनद के रेजाल की छानबीन गुज़िश्ता हदीस में हो चुकी है।

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 16 पेज 539)

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 1 पेज 398)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 15 पेज 61)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 15 पेज 60)

(अल मुनतज़िम जिल्द 12 पेज 279)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 11 पेज 393)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 11 पेज 393)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 1 पेज 165 )

3. वाहिदी की रिवायत

वाहिदी ने अबू सईद मुहम्मद बिन अली सफ़्फार से , उन्होने हसन बिन अहमद मुख़ल्लदी से , उन्होने मुहम्मद बिन हमदून से , उन्होने मुहम्मद बिन इब्राहीम ख़ल्वती (हलवानी) से , उन्होने हसन बिन हम्माद सजादा से , उन्होने अली बिन आबिस से , उन्होने आमश और अबी हज्जाफ़ से , उन्होने अतिया से , उन्होने अबू सईदे ख़िदरी से नक्ल किया है कियह आयते शरीफ़ा ( ا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ) रोज़े ग़दीरे ख़ुम में हज़रत अली (अ) की शान में नाज़िल हुई।

सनद की छानबीन

महमूद जअबी ने अपनी किताब अल बय्येनात फ़िर रद्दे अलल मुराजेआत में इस हदीस की सनद पर यह ऐतेराज़ किया है कि इसकी सनद में अतिया शामिल है।

चुनाचे उनका कहना है कि अतिया को इमाम अहमद बिन हंबल ने ज़ईफ़ुल हदीस माना है और अबू हातिम ने भी उसकी तज़ईफ़ की है और इब्ने अदी ने उसको शियाने कूफ़ा में शुमार किया है।

लेकिन यह तज़ईफ़ यक़ीनी तौर पर सही नही है क्योकि:

अव्वल. अतिया औफ़ी ताबेईने में से हैं जिनके बारे में रसूले अकरम (स) ने मदह की है।

दूसरे. अल अदबुल मुफ़रद में बुख़ारी और सही अबी दाऊद , सही तिरमिज़ी , सही इब्ने माजा और मुसनदे अहमद के रेजाल में उनका शुमार होता है और उलामा ए अहले सुन्नत ने बहुत ज़्यादा मदह की है।

लेकिन जौज़जानी जैसे लोगों ने उनको ज़ईफ़ माना है जो ख़ुद नासेबी होने और हज़रत अली (अ) से मुनहरिफ़ होने में मशहूर है और उसकी तज़ईफ़ करना भी इसी वजह से कि मौसूफ़ हज़रत अली (अ) को सभी सहाबा पर तरजीह देते थे और जब हुज्जाज की तरफ़ से हज़रत अली (अ) पर तअन व तअन करने का हुक्म दिया गया तो उन्होने क़बूल नही किया , जिसके नतीजे में उनको चार सौ कोड़े लगाये गये और उनकी दाढ़ी को भी दिया गया।

4. हिबरी की रिवायत

हिबरी ने हसन बिन हुसैन से , उन्होने हबान से , उन्होने कलबी से , उन्होने अबी सालेह से , उन्होने इब्ने अब्बास से आयते शरीफ़ा ( ا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ) की तफ़सीर में नक़्ल किया है कि यह आयते शरीफ़ा हज़रत अली (अ) की शान में नाज़िल हुई है। चुनाचे रसूले ख़ुदा (स) को हुक्म हुआ कि जो कुछ (हज़रत अली (अ) के बारे में) नाज़िल हो चुका है उसको पहुचा दो। उस मौक़े पर आँ हज़रत (स) ने हज़रत अली (अ) का हाथ बुलंद करके फ़रमाया:

हदीस

जिसका मैं मौला हूँ पस उसके यह अली मौला हैं , पालने वाले , जिसने उनकी विलायत को क़बूल किया और उनको दोस्त रखा तू भी उसको अपनी विलायत के ज़ेरे साया क़रार दे और जो शख़्स उनसे दुश्मनी रखे और उनकी विलायत का इंकार करे तू भी उसको दुश्मन रख।(

अहले सुन्नत के नज़दीक इस रिवायत की सनद मोतबर है।

(तफ़सीरे हिबरी पेज 262 )

अहले बैत (अ) की निगाह में आयत का शाने नुज़ूल

शेख़ कुलैनी ने सही सनद के साथ ज़ुरारा से , उन्होने फ़ुज़ैल बिन यसार से , उन्होने बुकैर बिन आयुन से , उन्होने मुहम्मद बिन मुस्लिम से , उन्होने बरीद बिन मुआविया और अबिल जारू से और उन्होने हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) से रिवायत की है कि ख़ुदा वंदे आलम ने अपने रसूल को हज़रत अली की विलायत का हुक्म दिया और यह आयए शरीफ़ा नाज़िल फ़रमाई

إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللَّـهُ وَرَسُولُهُ وَالَّذِينَ آمَنُوا الَّذِينَ يُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَيُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَهُمْ رَاكِعُونَ

(सूरये मायदा आयत 55)

ईमान वालो , बस तुम्हारा वली अल्लाह है और उसका रसूल और वह साहिबाने ईमान जो नमाज़ कायम करते हैं और हालते रुकू में ज़कात देते हैं।

ख़ुदा वंदे आलम ने उलिल अम्र की विलायत को वाजिब क़रार दिया है , वह नही जानते थे कि विलायत क्या है ? पस ख़ुदा वंदे आलम ने हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) को हुक्म दिया कि उनके लिये विलायत की तफ़सीर फ़रमा दें , जैसा कि नमाज़ , रोज़ा , हज और जकात की तफ़सीर की है , जब यह हुक्म नाज़िल हुआ तो आँ हज़रत (स) परेशान हुए कि कहीं लोग अपने दीन से फिर न जायें और मुझे झुटलाने लगें , आँ हज़रत (स) ने अपने परवरदिगार की तरफ़ रुजू किया उस मौक़े पर ख़ुदा वंदे आलम ने यह आयत नाज़िल फरमाई

: يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ

ऐ पैग़म्बर , आप उस हुक्म को पहुचा दें जो आपके परवरदिगार की तरफ़ नाज़िल किया गया है और अगर यह न किया तो गोया उसके पैग़ाम को नही पहुचाया और ख़ुदा आपको लोगों के शर से महफ़ूज़ रखेगा।

पस आँ हज़रत (स) ने ख़ुदा के हुक्म से विलायत को वाज़ेह कर दिया और रोज़े गदीरे ख़ुम में हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त का ऐलान किया... और मुसलमानों को हुक्म दिया कि हाज़ेरीन ग़ायेबीन तक इस वाक़ेया की इत्तेला दें।

(काफ़ी जिल्द 1 पेज 290 हदीस 5)

हदीस की रिवायत करने वाले सहाबा

उलामा ए अहले सुन्नत ने सहाबा से मुतअल्लिक़ रिवायत नक़्ल की है कि यह आयते शरीफ़ा की शान में नाज़िल हुई है जैसे:

1. ज़ैद बिन अरक़म

(अल ग़दीर जिल्द 1 पेज 424)

2. अबू सईद ख़िदरी

(तफ़सीरुल क़ुरआनिल अज़ीम जिल्द 4 पेज 173 हदीस 669, दुर्रे मंसूर जिल्द 3 पेज 117 तर्जुम ए अल इमाम अली (अ) अज़ तारीख़े दमिश्क़ जिल्द 2 पेज 85 हदीस 588 )

3. अब्दुल्लाह बिन असाकर

अल अमाली पेज 162 हदीस 133, मनाक़िबे अली बिन अबी तालिब पेज 240 हदीस 349, अल क़श्फ़ वल बयान जिल्द 4 पेज 92, शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 239 हदीस 240

3. अब्दुल्लाह बिन मसऊद

(मनाकि़ब अली बिन अबी तालिब (अ) पेज 239 हदीस 346, दुर्रे मंसूर जिल्द 3 पेज 117, फ़तहुल क़दीर जिल्द 2 पेज 60, रुहुल मआनी जिल्द 4 पेज 282)

4. जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी

(शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 255 हदीस 249)

5. अबू हुरैरा (

शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 249 हदीस 244, फ़रायदुस समतैन जिल्द 1 पेज 158 हदीस 120

6. अब्दुल्लाह बिन अबी औफ़ी असलमी

(शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 252 हदीस 247)

7. बरा बिन आज़िब अंसारी

(मफ़ातिहुल ग़ैब जिल्द 12 पेज 50, अल कश्फ़ वल बयान जिल्द 4 पेज 92)

हदीस की रिवायत करने वाले ताबेईन

ताबेईन ने भी इस आयत का शाने नुज़ूल रोज़े ग़दीरे ख़ुम में हज़रत अली (अ) को क़रार दिया है जैसे:

1. इमाम बाक़िर (अ)

(अल कश्फ़ वल बयान जिल्द 4 पेज 92, यनाबीउल मवद्दत जिल्द पेज 119 बाब 39, शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 254 हदीस 248, मफ़ातिहुल ग़ैब जिल्द 12 पेज 50, उमदतुल क़ारी जिल्द 18 पेज 206)

2. इमाम जाफ़र सादिक़ (अ)

(तफ़सीरुल हिबरी पेज 285 हदीस 41)

3. अतिया बिन सईद औफ़ी

(अन नूरुल मुशतइल मिन किताबे मा नज़ल मिन क़ुरआन फ़ी अलियिन पेज 86 पेज 16)

4. ज़ैद बिन अली

(मनाक़िबे अली बिन अबी तालिब (अ) पेज 240 हदीस 348)

5. अबू हमज़ा सुमाली

(मनाक़िबे अली बिन अबी तालिब (अ) पेज 240 हदीस 347)

हदीस की रिवायत करने वाले उलामा ए अहले सुन्नत

बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत ने इस हदीस को अपनी अपनी किताबों में ज़िक्र किया है जैसे:

1. अबू जाफ़र तबरी

(अल विलायह फ़ी तरीक़े हदीसिल ग़दीर)

2. अबी हातिमें राज़ी

(दुर्रे मंसूर जिल्द 2 पेज 298, फ़तहुल क़दीर जिल्द 2 पेज 57)

3. हाफ़िज़ अबू अब्दिल्लाह महामिली

(कंज़ुल उम्माल जिल्द 11 पेज 603 हदीस 3291)

4. हाफ़िज़ इब्ने मरदवेह

(दुर्रे मंसूर जिल्द 2 पेज 298)

5. अबू इसहाक़ सालबी

(अल कश्फ़ वल बयान जिल्द 4 पेज 92)

6. अबू नईम इसफ़हानी

(मा नज़ल मिनल क़ुरआन फ़ी अलियिन (अ) पेज 86)

7. वाहिदी नैशापुरी

(असबाबुन नुज़ूल पेज 135)

8. हाकिम हसकानी

(शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 255 हदीस 249)

9. अबू सईद सजिसतानी

(किताबुल विलायह ब नक़्ल अज़ अत तरायफ़ जिल्द 1 पेज 121)

10. अबुल क़ासिम इब्ने असाकर शाफ़ेई

(तारिख़े मदीन ए दमिश्कि़ जिल्द 12 पेज 237)

11. फ़ख़रे राज़ी

(अत तफ़सीरुल कबीर जिल्द 12 पेज 49)

12. अबू सालिम नसीबी शाफ़ेई

(मतालिबुस सुऊल पेज 16)

13. शेख़ुल इस्लाम हमूई

(फ़रायदुस समतैन जिल्द 1 पेज 158 हदीस 120)

14. सैयद अली हमदानी

(मवद्दतुल क़ुरबा मवद्दत पंजुम)

15. इब्ने सबाग़ मलिकी

(अल फ़ुसुलुल मुहिम्मा पेज 42)

16. क़ाज़ी ऐनी

(उमदतुल क़ारी फ़ी शरहे सहीहिल बुख़ारी जिल्द 18 पेज 206)

17. निज़ामुद्दीन नैशापुरी

(ग़रायबुल क़ुरआन व रग़ायबुल फ़ुरक़ान जिल्द 6 पेज 14)

18. कमालुद्दीन मैबदी

(शरहे दीवाने अमीरुल मोमिनीन (अ) पेज 406)

19. जलालुद्दीन सुयूती

(दुर्रे मंसूर जिल्द 3 पेज 116)

20. मीरज़ा मुहम्मद बदख़शानी

(मिफ़ताहुन नजास पेज 34 से 36 बाब 3 फ़स्ल 11)

21. शहाबुद्दीन आलूसी

(रुहुल मआनी जिल्द 5 पेज 192)

22. क़ाज़ी शौकानी

(फ़तहुल क़दीर जिल्द 2 पेज 60)

23. क़ंदूज़ी हनफ़ी

(यनाबिऊल मवद्दत पेज 119 बाब 39)

24. शेख़ मुहम्मद अबदहू

(अल मनार जिल्द 6 पेज 463 )

आय ए बल्लिग़ के बारे में शिया नज़िरया

शिया इस बात पर अक़ीदा रखते हैं कि आय ए बल्लिग़ हज़रत अली (अ) की विलायत से मुतअल्लिक़ है और ( ا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ) का मिसदाक़ हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत है क्योकि:

अव्वल. ख़ुदा वंदे आलम ने इस सिलसिले में इतना ज़्यादा ऐहतेमाम किया कि अगर इस हुक्म को न पहुचाया तो गोया पैग़म्बर ने अपनी रिसालत ही नही पहुचाई और यह अम्र हज़रत अली (अ) की ज़आमत , इमामत और जानशीनी के अलावा कुछ नही था और यह ओहदा नबी ए अकरम (स) की तमाम ज़िम्मेदारियों का हामिल है सिवाए वहयी के।

दूसरे. मज़कूरा आयत से यह नतीजा हासिल होता है कि रसूले ख़ुदा के लिये इस अम्र का पहुचाना दुशवार था क्यो कि इस चीज़ का ख़ौफ़ पाया जाता था कि बाज़ लोग इस हुक्म की मुख़ालेफ़त करेंगें और इख़्तेलाफ़ व तफ़रेक़ा बाज़ी के नतीजे में आँ हज़रत (स) की 23 साल की ज़हमतों पर पानी फिर जायेगा और यह मतलब (तारीख़ का वरक़ गरदानी के बाद मालूम हो जाता है कि) हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत के ऐलान के अलावा और कुछ नही था।

क़ुरआनी आयात की मुख़्तसर तहक़ीक़ के बाद मालूम हो जाता है कि रसूले अकरम (स) नबूवत पर अहद व पैमान रखते थे और ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से सब्र व इस्तेक़ामत पर मामूर थे। इसी वजह से आँ हज़रत (स) ने दीने ख़ुदा की तबलीग़ और पैग़ामे इलाही को पहुचाने में कोताही नही की है और ना माक़ूल दरख़्वास्तों और मुख़्तलिफ़ बहाने बाज़ियों के सामने सरे तसलीम के ख़म नही किया। पैग़म्बरे अकरम (स) ने पैग़ामाते इलाही को पहुचाने में ज़रा भी कोताही नही की। यहाँ तक कि जिन मवारिद में आँ हज़रत (स) के लिये सख्ती और दुशवारियाँ थी जैसे ज़ौज ए ज़ैद जै़नब का वाक़ेया और मोमिनीन से हया का मसला या मज़कूरा आयत को पहुचाने के मसला , उन तमाम मसायल में आँ हज़रत (स) को अपने लिये कोई ख़ौफ़ नही था।

(सूरए अहज़ाब आयत 7)

(सूरए हूद आयत 12)

(सूरए युनुस आयत 15)

(सूरए अहज़ाब आयत 37)

(सूरए अहज़ाब आयत 53)

लिहाज़ा पैग़म्बरे अकरम (स) की परेशानी को दूसरी जगह तलाळ करना चाहिये और वह इस पैग़ाम के मुक़ाबिल मुनाफ़ेक़ीन के झुटलाने के ख़तरनाक नतायज और आँ हज़रत (स) के बाज़ असहाब के अक्सुल अमल के मनफ़ी असरात थे जिनकी वजह से उनके आमाल ज़ब्त हो गये और मुनाफ़ेक़ीन के निफ़ाक़ व क़ुफ्र में इज़ाफ़ा हो जाता और दूसरी तरफ़ उनकी तकज़ीब व क़ुफ्र की वजह से रिसालत को आगे बढ़ना यहाँ तक कि अस्ले रिसालत नाकाम रह जाती और दीन ख़त्म हो जाता।

तीसरे. आय ए इकमाल की शाने नुज़ूल के बारे में शिया और सुन्नी तरीक़ों से सहीहुस सनद रिवायात बयान हुई हैं कि यह आयत हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) के बारे में नाज़िल हुई हैं।

नतीजा यह हुआ कि

(ا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ )

से हज़रत अली (अ) की विलायत मुराद है जिसको पहुचाने का हुक्म आँ हज़रत (स) को दिया गया था।

ऐतेराज़ात की छानबीन

बाज़ उलामा ए अहले सुन्नत ने दूसरी ताविलात करने की कोशिश की है जिससे मसअल ए ग़दीर से आयत का कोई ताअल्लुक़ न हो और यह आयत हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) के फ़ज़ायल में शुमार न हो , अब हम यहाँ पर उन ताविलात की छानबीन करते हैं:

1. आयत का नुज़ूल मदीने में पैग़म्बरे अकरम (स) की हिफ़ाज़त के लिये हुआ था।

अहले सुन्नत बाज़ रिवायात की बिना पर कहते हैं: इस आयत के नाज़िल होने से पहले पैग़म्बरे अकरम (स) की हिफ़ाज़त की जाती थी लेकिन इस आयत के नाज़िल हो जाने के बाद ख़ुदा वंदे आलम ने आँ हज़रत (स) की जान की ज़िम्मेदारी ले ली और मुहाफ़िज़ों के लिये (जंग में न जाने के लिये) कोई बहाना न छोड़ा , चुनाचे आं हज़रत (स) ने फ़रमाया: तुम लोग चले जाओ ख़ुदा वंदे आलम मेरी हिफ़ाज़त ख़ुद फऱमायेगा।

जवाब:

अव्वल. अगर फ़र्ज़ करें कि यह रिवायात सही भी हैं तो मज़कूरा आयत के नुज़ूल को बयान नही करतीं और विलायत अली (अ) के मुख़ालिफ़ नही हैं बल्कि उनमे सिर्फ़ पैग़म्बरे अकरम (स) की निस्बत उस आयत के शाने नुज़ूल के एक हिस्से को बयान किया गया है और चूँकि बाज़ रिवायात में इस बात की वज़ाहत की गई है कि यह रुख्सत मदीने में रसूले इस्लाम स की तरफ़ से दी गई है और इस चीज़ का ऐहतेमाल है कि ग़दीरे ख़ुम से आँ हज़रत स की वफ़ात तक का फ़ासला मुराद हो।

दूसरे. बुनियादी तौर पर अहले सुन्नत मुफ़स्सेरीन ने इस तरह की रिवायात को अजीब व ग़रीब क़रार दिया है और इस बात पर मुत्तफ़िक़ है कि चूँकि मज़कूरा आयत मदनी है और बेसत के आख़िरी दिनों में नाज़िल हुई है लिहाज़ा मक्के में जनाबे अबू तालिब अ की हिफ़ाज़त करने से कोई ताअल्लुक़ नही रखती।

तीसरे. यह कहना कि मज़कूरा आयत दोबार नाज़िल हुई है एक मर्तबा बेसत के शुरु में और दूसरी बार बेसत के आख़िरी में मदीने में नाज़िल हुई इससे भी मुश्किल हल नही होती , क्योकि फ़र्ज़ करें कि आयत बेसत के शुरु में नाज़िल हुई हो जिसमें ख़ुदा वंदे आलम ने आँ हज़रत स की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी ली हो लेकिन फिर मदीने में असहाब के ज़रिये आँ हज़रत स की हिफा़ज़त की कोई ज़रूरत नही है।

तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज 79

2. मक्के में हिफ़ाज़त के सिलसिले में आयत का नुज़ूल

अल्लामा सुयूती इब्ने अब्बास से नक्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) से सवाल किया गया कि आप पर कौन सी आयत सख़्त नाज़िल हुई है ? आं हज़रत (स) ने फ़रमाया: मैं मौसमें हज के दौराम मिना में था और मुशरेकीन अरब और दूसरे लोग मौजूद थे। उस वक़्त हज़रत जिबरईल यह आयत लेकर मुझ पर नाज़िल हुए (.....) मैं खड़ा हुआ और यह ऐलान किया: ऐ लोगो , तुम में कौन है जो परवर दिगार के पैग़ाम को पहुचाने में मेरी मदद करे ताकि उसको जन्नत की ज़मानत दे दूँ , ऐ लोगों , ख़ुदा की वहदानियत और मेरी रिसालत की गवाही दो ताकि कामयाब हो जाओ और निजात पाकर जन्नत में दाख़िल हो जाओ , उस मौक़े पर औरत मर्द , छोटे बड़े सभी लोंगो ने मुझ पर ढेलों और पत्थरों की बारिश कर दी और मेरे मुँह पर लुआबे दहन फ़ेकने लगे और कहने लगे यह झूटा है.. उस मौक़े पर आँ हज़रत (स) के चचा अब्बास आये और उनको लोगों से निजात दी और पीछे हटा दिया।(

(तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज 79)

जवाब:

यह रिवायत बनी अब्बास की तरफ़ से जाली और मन गढ़त है ताकि अलवियों के मुक़ाबले में फ़ज़ीलत पेश कर सकें क्योकि:

अव्वल. मज़कूरा आयत शिया और सुन्नी इत्तेफ़ाक़ की बेना पर मक्के में नाज़िल नही हुई है और आयत के दो बार नाज़िल होने की भी कोई दलील नही है।

दूसरे. यह रिवायत ख़बरे वाहिद है और तमाम अहादीस के मुख़ालिफ़ है लिहाज़ा उसको मोतबर नही माना जा सकता।

3. बनी अनमार से जंग के वक़्त आयत का नुज़ूल

इब्ने अबी हातम , जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी से रिवायत नक़्ल करते हैं:

बनी अनमार से जंग के दौरान आँ हज़रत (स) एक कूँए पर बैठे हुए थे। उस मौक़े पर बनी नज्जार कबीले से वारिस या ग़ौरस नामी शख्स ने आँ हज़रत (स) को क़त्ल करने का मंसूबा बनाया.. चुनाँचे वह आँ हज़रत (स) के नज़दीक आ कर कहता है कि आप मुझे अपनी तलवार दे दें ताकि मैं उसे सूँघू , आपने उसको तलवार दे दी। उस मौक़े पर उसका हाथ लड़खड़ाया और तलवार गिर गई , उस मौक़े पर पैग़म्बरे अकरम (स) ने उससे फ़रमाया: ख़ुदावंदे आलम तेरे और तेरे इरादे में मानेअ हो गया। चुनाचे उसी मौक़े पर यह आयत नाज़िल हुई:

يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ

ऐ पैग़म्बर , आप उस हुक्म को पहुचा दें जो आपके परवर दिगार की तरफ़ से नाज़िल किया गया है।

(तफ़सीरुल क़ुरआनिल करीम जिल्द 4 पेज 1173 हदीस 6614)

जवाब:

अव्वल. इब्ने कसीर हदीस को नक़्ल करने के बाद कहते हैं: जाबिर से इस सूरत में हदीस नक़्ल होना (वाक़ेयन अजीब व) ग़रीब है।(

दूसरे. इस वाक़ेया के नक़्ल में इख़्तिलाफ़ है क्यो कि अबू हुरैरा ने इसको दूसरे तरीक़े से नक़्ल किया है और नक़्ल में अगर इख़्तिलाफ़ हो तो रिवायत ज़ईफ़ शुमार की जाती है।

तीसरे. यह वाक़ेया आयत के अल्फ़ाज़ के मुख़ालिफ़ है क्यो कि (आयत में) पहुचाने पर आँ हज़रत (स) की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी ली गई है।

चौथे. रसूले अकरम (स) के क़त्ल की साजिश कोई नया मसला नही था जिसकी वजह से ख़ुदा वंदे आलम बेसत के आख़िरी ज़माने में मज़क़ूरा आयत के मुताबिक़ आँ हज़रत (स) की जान की ज़मानत लेता।

पाँचवे. यह वाक़ेया फ़रीक़ैन के नज़दीक बयान होने वाली तमाम रिवायात के मुख़ालिफ़ है क्योकि उन रिवायात में पैग़म्बरे अकरम (स) की परेशानी उस हुक्म के पहुचाने में थी जो आप नाज़िल हुआ था।

(तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज 79)

असबाबुन नुज़ूल सुयूती पेज 52, दुर्रे मंसूर जिल्द 3 पेज 119, तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज 79

4. रज्म व क़िसास के बारे में आयत का नुज़ूल

बाज़ अहले सुन्नत मज़ूकरा आयत के शाने नुज़ूल के बारे में कहते हैं: ख़ुदावंदे ने अपने रसूल स को हुक्म दिया कि रज्म व क़िसास के बारे में जो हुक्म आप नाज़िल हुआ है उसको पहुचा दें और दर हक़ीक़त यह ऐलान यहूदियों के नज़रिये के मुक़ाबले में था जो तौरेत में बयान होने के बाद हुक्म यानी शौहर दार औरत से ज़ेना की सज़ा रज्म और क़िसास के हुक्म से बचना चाहते थे। इस वजह से कुछ लोगों को रसूले अकरम (स) के पास भेजा ताकि उनसे इस हुक्म के बारे में सवाल करें , जिबरईल अमीन नाज़िल हुए और रज्म व क़िसास का हुक्म लाये।

(उमदतुल क़ारी जिल्द 18 पेज 206, तफ़सीरुल मआलिमित तंज़ील , बग़बी जिल्द 2 पेज 51, मफ़ातिहुल ग़ैब जिल्द 12 पेज 48)

अहले सुन्नत कहते हैं कि सूरये मायदा आयात नंबर 41, 43 जो मज़कूरा आयत से पहले हैं इसी सिलसिले में नाज़िल हुई हैं।

जवाब:

अव्वल. यह मुद्दआ बिला दलील है और तमाम सहाबा के क़ौल के मुख़ालिफ़ है।

दूसरे. आयात के अल्फ़ाज़ इस क़ौल को रद्द करने के लिये काफ़ी है क्योकि बेसत के आख़िर में इस सूरह के नाज़िल होने के वक़्त यहूदी मुतफ़र्रिक़ और मग़लूब हो गये थे और वह इस हालत में नही थे कि आँ हज़रत (स) को कोई नुक़सान पहुचा सकें ताकि ख़ुदा वंदे आलम आपको महफ़ूज़ रखने का वादा देता।

5. यहूद की मक्कारी के बारे में आयत का नुज़ूल

आय ए बल्लिग़ को यहूदियों की मक्कारी के बारे में तफ़सीर करने वाले पहले शख़्स मक़ातिल बिन सुलेमान हैं। जिसके बाद तबरी , बग़वी , मुहम्मद बिन अबू बक राज़ी ने इस क़ौल और तफ़सीर को इख़्तियार किया है। फ़ख़े राज़ी मज़कूरा आयत के शाने नुज़ूल के सिलसिले में बहुत से ऐहतेमालात बयान करने के बाद उसी क़ौल को इख़्तियार करते हैं और इस क़ौल की तन्हा दलील मज़कूरा आयत से पहले और बाद वाली आयात को क़रार देते हैं जो सबकी सब यहूदियों के बारे में नाज़िल हुई हैं।

तफ़सीरे मक़ातिल बिन सुलेमान जिल्द 1 पेज 491, 492

जामेउल बयान तबरी जिल्द 4 पेज 307, मआलिमुत तंज़ील बग़वी जिल्द 2 पेज 51, तफ़सीरे असअलतुल क़ुरआन व अजवतिहा राज़ी पेज 74

मफ़ातिहुल ग़ैब जिल्द 12 पेज 50

जवाब:

अव्वल. सूरए मायदा वह आख़िरी सूरह है जो पैग़म्बरे अकरम स पर हुज्जतुल विदा में नाज़िल हुआ है , उस मौक़े पर यहूदियों की कोई हैसियत नही थी जिसकी वजह से पैग़म्बरे अकरम स ख़ौफ़ज़दा होते और उनकी वजह से हिफ़ाज़त और निगहबानी की ज़रूरत होती।

दूसरे. क़ुरआने करीम नुज़ूल की तरतीब से नही है जिसकी वजह से पहली आयत को किसी मअना के लिये क़रीना क़रार दिया जा सके।

तीसरे. पहली आयत के पेशे नज़र अगर फ़र्ज़ भी कर लें कि इस मअना में ज़हूर रखता है तो भी यह क़रीना मक़ामी होगा और दूसरी रिवायात के साफ़ साफ़ अल्फ़ाज़ दूसरे क़रायन की वजह से उसका कोई ज़हीर बाक़ी नही बचेगा।

चौथे. फख़रे राज़ी के कहने के मुताबिक़ यहूदियों के बारे में जो हुक्म ख़ुदा वंदे आलम ने नाज़िल किया उन लोगों पर इतना महंगा पड़ा कि रसूले अकरम स की तरफ़ से पहुचाने में ताख़ीर हुई और वह हुक्म यह था:

قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لَسْتُمْ عَلَىٰ شَيْ

कह दीजिए कि ऐ अहले किताब तुम्हारा कोई मज़हब नही है।

सूरह मायदा आयत 68

हालाकि क़ुरआने करीम ने इस आयत से पहले इसी सूरह की आयत में यहूदियों से बहुत सख़्त ख़िताब किया

: وَقَالَتِ الْيَهُودُ يَدُ اللَّـهِ مَغْلُولَةٌ غُلَّتْ أَيْدِيهِمْ وَلُعِنُوا بِمَا قَالُوا

और यहूदी कहते हैं कि ख़ुदा के हाथ बंधे हुए हैं जबकि अस्ल में उन्ही के हाथ बंधे हुए हैं और यह अपने क़ौल के बेना पर मलऊन हैं।

सूरह मायदा आयत 64

पाँचवें. मुम्किन है कि इन आयात के दरमियान इस आयत का वुजूद इस नुक़्ते की तरफ़ इशारा हो कि जिन मुनाफ़ेक़ीन से पैग़म्बरे अकरम स को ख़ौफ़ था वह यहूदियों की तरह या कुफ़ व ज़लालत में उन्ही की क़िस्म हैं।

आय ए इकमाल

हज़रत अली अ की इमामत व विलायत पर दलालत करने वाली आयात में से और हदीसे ग़दीर से इमामत व विलायत के मअना को ताईद करने वाली मशहूर आयत आय ए इकमाल है जिसमें ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता हैं: الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا

आज मैने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेंमत पूरी कर दी और तुम्हारे इस दीन इस्लाम को पसंद किया।

(सूरह मायदा आयत 3)

इस आयत के ज़ैल में फ़रीक़ैन से मुतअद्दिद रिवायात बयान हुई है कि यह आय ए शरीफ़ा हज़रत अमीरुल मोमिनीन अ की शान में नाज़िल हुई है। चुनाचे अब हम उन रिवायात की छानबीन शुरु करते हैं।

अहादीस की छानबीन

अहले सुन्नत की मोतबर किताबों की वरक़ गरदानी से ऐसी सहीहुस सनद रिवायात मिलती है जो आयत के शाने नुज़ूल को हज़रत अली अ से मख़सूस मानती है। अब हम उन रिवायात की तहक़ीक़ करते हैं:

1. अबू नईम इस्फ़हानी की रिवायत

अबू नईम , मुहम्मद बिन अहमद बिन अली मुख़ल्लदी से , वह मुहम्मद बिन उस्मान बिन अबी शैबा से , वह यहया हमानी से , वह क़ैस बिन रबी से , वह अबी हारून बिन अबदी से और वह अबू सईद ख़िदरी से रिवायत करते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने रोज़े ग़दीरे ख़ुम लोगों को हज़त अली (अ) की तरफ़ दावत दी और हुक्म दिया कि इस दरख़्त के नीचे से ख़ाक व ख़ाशाक (यानी झाड़ी वग़ैरह) साफ़ कर दें और यह जुमेरात के दिन का वाक़ेया है , आँ हज़रत (स) ने अली (अ) को बुलाया और उनके दोनो बाज़ू को पकड़ कर बुलंद फ़रमाया , यहाँ तक कि रसूलल्लाह (स) की सफ़ेदी ए बग़ल नमूदार हो गयीं.. अबी लोग मुतफ़र्रिक़ नही हुए थे कि यह आय ए शरीफ़ा नाज़िल हुई:

الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا

उसी मौक़े पर रसूलल्लाह (स) ने फ़रमाया: अल्लाहो अकबर दीन कामिल करने , नेमतें तमाम होने , मेरी रिसालत और मेरे बाद अली (अ) की विलायत पर परवरदिगार के राज़ी होने पर और उस मौक़े पर फ़रमाया: जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं। पालने वाले , जो शख्स उनकी विलायत को क़बूल करे तू भी उसको दोस्त रख और जो उनसे दुश्मनी करे तू भी उस को दुश्मन रख , जो उनकी मदद करे तू भी उसकी मदद कर और जो उनकी ज़लील करना चाहे तू भी उसको ज़लील व ख़्वार फ़रमा...।

(ख़सायसुस वहयिल मुबीन पेज 61,62 नक़्ल अज़ किताब मा नज़ल अली मिनल क़ुरआन , अबी नईम इस्फ़हानी।)

सनद की छानबीन

• मुहम्मद बिन अहमद बिन मुख़ल्लदी मारुफ़ ब इब्ने मुहर्रम , मौसूफ़ इब्ने ज़रीरे तबरी के बड़े शागिर्दों में और उनके हम अक़ीदा है , जिनको दार क़ुतनी और अबू बक्र बऱक़ानी ने मोतबर माना है और ज़हबी ने उनको इमाम का लक़्ब दिया है।(और अगर बाज़ लोगों की तरफ़ से उनकी तज़ईफ़ हुई है तो उसकी वजह अहले बैत (अ) के फज़ायल व मनाक़िब बयान करना है।

• मुहम्मद बिन उस्मान बिन अबी शैबा , ज़हबी ने उनको इल्म का ज़र्फ़ क़रार दिया है और सालेह जज़रा ने उनको सिक़ह शुमार किया है नीज़ इब्ने अदी कहते हैं: मैंने उनसे हदीसे मुन्कर नही सुनी जिसको ज़िक्र करू ।(

(सीयरे आलामुन नबला जिल्द 16 पेज 61, तारीख़े बग़दाद जिल्द 1 पेज 331, शज़रातुज़ ज़हब जिल्द 3 पेज 26()

(तारीख़े बग़दाद जिल्द 3 पेज 43()

• यहया हमानी , मौसूफ़ सही मुस्लिम के रेजाल में से हैं और अबी हातिम व मुतय्यन जैसे बुज़ुर्ग उलामा ए अहले सुन्नत के असातीज़ में से हैं और बाज़ लोगों ने यहया बिन मुईन से नक़्ल किया है कि उन्होने उनको सदूक़ और सिक़ह का लक़्ब माना है नीज़ इल्मे रेजाल के बहुत से उलामा ने उनको मुवस्सक़ क़रार दिया है और अगर किसी ने उनके बारे में नामुनासिब बात कही है तो सिर्फ़ उनसे हसद की वजह से कहा जाता है कि वह उस्मान को दोस्त नही रखते थे और मुआविया के बारे में कहते थे कि वह मिल्लते इस्लाम पर नही था।

• क़ैस बिन रबी , मौसूफ़ अबी दाऊद , तिरमिज़ी और इब्ने माजा के रेजाल में शुमार होते हैं और इब्ने हजर ने उनको सदूक़ कहा है।(

• अबू हारुने अब्दी , मौसूफ़ वही अमार ए जवीन हैं जो ताबेईन की मशहूर व मारुफ़ शख़्सीयत हैं और ख़ल्क़ो अफ़आलिल इबाद में बुख़ारी के और तिरमिज़ी और इब्ने माजा के रेजाल में से हैं और सौरी व हम्मादीन वग़ैरह जैसे बुज़ुर्गाने अहले सुन्नत के उस्ताद हैं। अगरचे बाज़ लोगों ने उनके उन पर शिया होने की वजह से ऐतेराज़ात किये हैं।(लेकिन उनके ज़रिये उनको रद्द नही किया जा सकता क्योकि उनकी अहादीस को बुख़ारी और अहले सुन्नत की दो सही किताबों में बयान किया गया है। इसके अलावा अपने मक़ाम पर यह बात साबित हो चुकी है कि रावी का शिया होना जबकि वह सच बोलता हो , हदीस बयान करने में नुक़सान देह नही है।

(तहज़ीबुत तहज़ीब जिल्द 11 पेज 213 से 218

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 2 पेज 128)

(तहज़ीबुत तहज़ीब जिल्द 7 पेज 361, 362)

(देखिये मुक़द्दम ए फ़तहुल बारी)

2 ख़तीबे बग़दादी की रिवायत

ख़तीबे बग़दादी अब्दुल्लाह बिन अली बिन मुहम्मद बिन बशरान से , वह अली बिन उमर हाफ़िज़ से , वह अबू नस्र हबशून बिन मूसा बिन अय्यूब ख़ल्लाल से , वह अली बिन सईद रमली से वह ज़मीर बिन रबीआ करशी से , वह इब्ने शौज़ब से , वह मतर वर्राक़ से , वह शहर बिन हौशब से और वह अबू हुरैरा से रिवायत करते हैं:

जो शख्स 18 ज़िल हिज्जा को रोज़ा रखे , उसको 60 महीनों के रोज़ों का सवाब मिलेगा और वह रोज़े ग़दीरे ख़ुम है , जिस वक़्त पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) का हाथ बुलंद करके फ़रमाया: क्या मोमिनीन का वली और सर परस्त नही हूँ ? जी हाँ या रसूल्लाह , उस वक़्त रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं , उमर बिन ख़त्ताब ने कहा: मुबारक हो मुबारक , यबना अबी तालिब , तुम मेरे और हर मोमिन व मोमिना के मौला व आक़ा बन गये , उस मौक़े पर ख़ुदा वंदे आलम ने यह आय ए शरीफ़ा नाज़िल फ़रमाई।

الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا ۚ

(तारीख़े बग़दाद जिल्द 8 पेज 290)

सनद की छानबीन

• इब्ने बशरान (मुतवफ़्फ़ा 451) को ख़तीबे बग़दादी ने सदूक़ , सिक़ह और ज़ाबित के नाम से याद किया है और ज़हबी ने उनको आदिल माना है।

• अली बिन हाफ़िज़ , यह वही दार क़ुतनी है (मुतवफ़्फ़ा 388) जिनकी बहुत से उलामा ए रेजाल ने तारीफ़ व तमजीद की है।

• अबू नस्रे हबशून , ज़हबी ने उनको सदूक़ क़रार दिया है और ख़तीबे बग़दादी ने उनकी तौसीक़ की है और उनके बारे में मुख़ालिफ़ क़ौल का ज़िक्र नही किया है।

• अली बिन सईद रमली , ज़हबी उनकी विसाक़त की वज़ाहत करते हुए कहते हैं: मैने अभी तक किसी ऐसे शख़्स को नही देखा जिसने उनकी मज़म्मत की हो।

• ज़मरा बिन रबीआ (मुतवफ़्फ़ा 202) मौसूफ़ किताब अल अदबुल मुफ़रद में बुख़ारी और अहले सुन्नत की दूसरी चार सही किताबों के रेजाल हैं। अब्दुल्लाह बिन अहमद ने अपने बाप से नक़्ल किया है कि वह सालेहुल हदीस और सिक़ह रावियों में शुमार होते थे। उस्मान बिन सईद दारमी ने यहया बिन मुईन और निसाई से उनकी तौसीक़ नक़्ल की है और अबू हातिम ने उनको सालेह और मुहम्मद बिन सअद ने उनको सिक़ह और नेक व अमीन माना है कि जिनसे अफ़ज़ल कोई नही है।

• अब्दुल्लाह बिन शौज़ब (मुतवफ़्फ़ा 156) उनका शुमार अबी दाऊद , तिरमिज़ी , निसाई और इब्ने माजा के रेजाल में होता है। ज़हबी कहते हैं: एक जमाअत ने उनकी तौसीक़ की है।और इब्ने हजर ने उनको सदूक़ आबिद क़रार दिया है।और सुफ़यान से नक़्ल किया है कि इब्ने शौज़ब हमारे सिक़ह असातिद में शुमार होते हैं। इब्ने मुईन व इब्ने अम्मार और निसाई ने भी उनको सिक़ह क़रार दिया है। नीज़ इब्ने हब्बान ने उनको सिक़ह रावियों में शुमार किया है।

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 17 पेज 311)

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 12 पेज 34, सेयरे आलामुन नबला जिल्द 16 पेज 449)

(मिज़ानुल ऐतेदाल जिल्द 4 पेज 125)

(तहज़ीबुल कमाल जिल्द 13 पेज 319, 320)

(अल काशिफ़ जिल्द 1 पेज 356)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 1 पेज 423)

(तहज़ीबुत तहज़ीब जिल्द 5 पेज 255 से 261)

• मतर वर्राक़ (मुतवफ़्फ़ा 129) मौसूफ़ बुख़ारी , मुस्लिम और दीगर चार सही किताबों के रेजाल हैं।

• शहर बिन हौशब (मुतवफ़्फ़ा 112) उनका शुमार किताब अल अदबुल मुफ़रद में बुख़ारी , सही मुस्लिम और दीगर सेहाहे सित्ता के रेजाल में होता है और यही चीज़ अहले सुन्नत के नज़दीक सिक़ह होने के लिये काफ़ी है।

(तहज़ीबुल कमाल जिल्द 28 पेज 551, तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 2 पेज 252)

(तहज़ीबुल कमाल जिल्द 12 पेज 578, तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 1 पेज 355)

3. इब्ने असाकर की रिवायत

इब्ने असाकर ने मुख़्तलिफ़ तरीक़ों सेइस मज़मून को एक सनद के साथ ख़तीबे बग़दादी से रिवायत की है जिसका ज़िक्र पहले हो चुका है।

दूसरी सनद में अबू बक्र बिन मज़रफ़ी से , वह हुसैन बिन मोहतदी से , वह उमर बिन अहमद से , वह अहमद बिन अब्दुल्लाह बिन अहमद से , वह अली बिन सईद रक़्क़ी से , वह ज़मरा से , वह इब्ने शौज़ब से , वह मतर बिन वर्राक़ से , वह शहर बिन हौशब से और वह अबू हुरैरा से पहले वाली रिवायत का मज़मून नक़्ल करते हैं।

सनद की छान बीन

• अबू बक्र बिन मज़रफ़ी (मुतवफ़्फ़ा 527) इब्ने जौज़ी कहते हैं: मैंने उनसे हदीस सुनी है , वह नक़्ले हदीस में साबित क़दम , आलिम और अच्छा अक़ीदा रखते हैं।ज़हबी ने भी उनको सिक़ह और मुतक़न क़रार दिया है।

• अबुल हसन बिन मुहतदी (मुतवफ़्फ़ा 465) ख़तीबे बग़दादी ने उनको सिक़ह और समआनी ने भी उनको सिक़ह के नाम से याद किया है और उनकी अहादीस को क़ाबिले ऐहतेजाज माना हैं।

(तर्जुम ए अमीरुल मोमिनीन (अ) अज़ तारिख़े दमिश्क़ रक़्म 575, 578, 585)

(अल मुनतज़िम जिल्द 17 पेज 281)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 18 पेज 241)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 18 पेज 241)

• उमर बिन अहमद , यह वही इब्ने शाहीन हैं (मुतवफ़्फ़ा 385) ख़तीबे बग़दादी और इब्ने माकूला ने उनको सिक़ह , अमीन , दार क़ुतनी , अबुल वलीद वाजी और अज़हरी ने भी उनको सिक़ह क़रार दिया है और ज़हबी ने उनको शेख़ सदूक़ और हाफ़िज़ का नाम दिया है।

• अहमद बिन अब्दुल्लाह बिन अहमद , वही गुज़श्ता इब्नुन नैरी हैं और सनद के बाक़ी रेज़ाल की तहक़ीक़ हो चुकी है।

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 16 पेज 431)

4. इब्ने असाकर की दूसरी रिवायत

इब्ने असाकर ने मज़कूरा रिवायत दूसरे तरीक़े से नक़्ल की है। इब्ने असाकर ने अबुल क़ासिमे समरकंदी से , उन्होने अबुस हसन बिन नक़ूर से , उन्होने मुहम्मद बिन अब्दिल्लाह बिन हुसैन दक़्क़ाक़ से , उन्होने अहमद बिन अब्दुल्लाह बिन अहमद बिन अब्बास बिन सालिम बिन महरान से जो इब्नुन नैरी के नाम से मशहूर हैं , उन्होने सईद ऱक्क़ी से , उन्होने ज़मरा से , उन्होने इब्ने शौज़ब से , उन्होने मतर वर्राक़ से , उन्होने शहर बिन हौशब से उन्होने अबू हुरैरा से इसी मज़मून को नक़्ल किया है।

सनद की छानबीन

• अबुल क़ासिन बिन समरकंदी (मुतवफ़्फ़ा 536) इब्ने असाकर और सलफ़ी ने उनको सिक़ह और ज़हबी ने उनको हदीस का उस्ताद और इमाम क़रार दिया है।

• अबुल हसन बिन नक़ूर (मुतवफ़्फ़ा 470) ख़तीबे बग़दादी ने उनको सादिक़ , इब्ने ख़ैरून ने सिक़ह और ज़हबी ने शेख जलील और सादिक़ जैसे अलक़ाबात से नवाज़ा है।और बाक़ी रेजाल की तहक़ीक़ गुज़श्ता रिवायत में हो चुकी है। (

(तर्जुम ए अमीरुल मोमिनीन (अ) अज़ तारिख़े दमिश्क़ जिल्द 2 हदीस 575, 578, 585)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 2 पेज 28)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 18 पेज 372)

रोज़े ग़दीरे ख़ुम में आयत के नुज़ूल के रावी

बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत ने सर ज़मीने ग़दीरे ख़ुम पर 18 ज़िल हिज्जा को मज़कूरा आयत के नुज़ूल की रिवायत को अपनी अपनी किताबों में नक़्ल किया है जिनकी तरफ़ हम इशारा करते हैं:

1. हाफ़िज़ अबू जाफ़र मुहम्मद बिन जरीर तबरी (मुतवफ़्फ़ा 310)

(किताबुल विलायह)

2. हाफ़िज़ बिन मरदुवह इस्फ़हानी (मुतवफ़्फ़ा 410)

तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज 14, दुर्रे मंसूर जिल्द 3 पेज 19, तारीख़े मदीन ए दमिश्क़ जिल्द 12 पेज 237, अल इतक़ान जिल्द 1 पेज 53

3. हाफ़िज़ अबी नईम इस्फ़हानी

(मा नज़ल मिनल क़ुरआन फ़ी अली (अ) पेज 56)

4. हाफ़िज़ अबू बक्र ख़तीबे बग़दादी (मुतवफ़्फ़ा 463)

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 8 पेज 290)

5. हाफ़िज़ अबू सईद सजिसतानी (मुतवफ़्फ़ा 477)

(किताबुल विलायह)

6. अबुल हसन बिन मग़ाज़ेली शाफ़ेई (मुतवफ़्फ़ा 483)

(मनाक़िबे अली बिन अबी तालिब (अ) पेज 18 हदीस 24)

7. हाफ़िज़ अबुल क़ासिम बिन हसक़ानी

(शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 201 हदीस 211)

8. हाफ़िज़ अबुल क़ासिम बिन असाकर दमिश्क़ी शाफ़ेई (मुतवफ़्फ़ा 571)

(तर्जुमा ए अमीरुल मोमीनीन (अ) अज़ तारिख़े दमिश्क़ हदीस 575, 578, 585)

9. ख़तीबे ख़ारज़मी

(अलमनाक़िब पेज 135 हदीस 152)

10. सिब्ते इब्ने जौज़ी

(तज़किरतुल ख़वास पेज 30)

11. शेख़ुल इस्लाम हमूई

फ़रायदुस समतैन जिल्द 1 पेज 72 हदीस 39

12. इमादुद्दीन इब्ने कसीर दमिश्क़ी शाफ़ेई

(अल बिदाया वन निहाया जिल्द 5 पेज 232)

13. जलालुद्दीन सुयूती शाफ़ेई

(दुर्रे मंसूर जिल्द 3 पेज 19, अल इतक़ान फ़ी उलूमिल क़ुरआन जिल्द 1 पेज 53)

14. मीरज़ा मुहम्मद बदख़शी और दूसरे लोग

(मिफ़ताहुल नजा बाब 3 फ़स्ल 11 पेज 34)

आयत की शाने नुज़ूल के बारे में नज़रियात

आयत की शाने नुज़ूल के बारे में तीन अहम नज़रियात पाये जाते हैं:

1. अज़मते इस्लाम के ज़माने की तरफ़ इशारा

फ़ख़रे राज़ी ऐहतेमाल देते है कि इस आयत में लफ़्ज़े (यानी आज के दिन) अपने हक़ीक़ी मअना में इस्तेमाल नही हुआ है बल्कि उसके लिये एक मजाजी मअना हैं और वह यह है कि यहाँ पर ज़माने और ज़माने के एक हिस्से के मअना में है न सिर्फ़ मुख़्तसर से ज़माने के लिये।

इस नज़रिये के मुताबिक़ मज़कूरा आयत किसी ख़ास वाक़ेया से मख़सूस नही है बल्कि अज़मते इस्लाम के जम़ाने और कुफ़्फ़ार की नाउम्मीदी के ज़माने की ख़बर देती है।

जवाब:

अव्वल. मजाज़ी और गै़र हक़ीक़ी मअना के लिये एक वाज़ेह क़रीने की ज़रूरत होती है कि फ़ख़रे राज़ी ने इस मजाज़ी मअना के लिये कोई क़रीना पेश नही किया।

दूसरे. अगर यह मअना सही हों तो फिर आयत का फ़तहे मक्का के मौक़े पर नाज़िल होना ज़्यादा मुनासिब था।

तीसरे. जो रिवायात 18 ज़िल हिज्जा में आयत के नुज़ूल को बयान करती हैं उनसे यह मअना हम आहंग नही है।

2. रोज़े अरफ़ा आयत का नुज़ूल

फ़ख़रे राज़ी एक दूसरा ऐहतेमाल यह देतें है कि हम यह कहें कि यह आयत अरफ़े के दिन पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुई है और लफ़्ज़े यौम भी इसके हक़ीक़ी मअना में इस्तेमाल हुआ है जो एक मख़्सूस और मुअय्यन दिन है यानी 18 ज़िल हिज्जा की तारीख़ और पैग़म्बरे अकरम (स) के हज का आख़िरी सफ़र हिजरत का दसवाँ साल था।

बुख़ारी अपनी सनद के साथ उमर बिन ख़त्ताब से नक़्ल करते हैं कि एक यहूदी ने उनसे कहा: या अमीरल मोमिनीन , एक आयत तुम्हारी किताब में है जिसको तुम पढ़ते हो , अगर हमारी जमाअत यहूद के बारे में नाज़िल होती तो हम उस रोज़ को ईद क़रार देते , हज़रत उमर ने कहा: वह कौन सी आयत है ? उसने कहा

(يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ) हज़रत उमर ने कहा: हम जानते है कि यह आयत पैग़म्बरे अकरम (स) पर कहाँ और किस रोज़ नाज़िल हुई। यह आयत रोज़े अरफ़ा जुमे के दिन नाज़िल हुई है।)

(सही बुख़ारी जिल्द 1 पेज 16)

जवाब:

अव्वल. इस तरह की तमाम रिवायतों की सनद ज़ईफ़ है , क्योकि (यह रिवायत) पाच सहाबा से नक़्ल हुई है जिनमें से दो नफ़र उमर बिन ख़त्ताब और मुआविया हैं , और चूँकि रोज़े अरफ़ा में इस आयत के नाज़िल होने का क़ौल उनके नफ़े में है , क्योकि दोनो अमीरुल मोमिनीन (अ) की ख़िलाफ़त के ग़ासिब हैं लिहाज़ा उनका क़ौल क़ाबिले क़बूल नही होगा।

और समरा बिन जुन्दब ने इब्ने अब्बास और इमाम अली (अ) से भी नक़्ल किया है , लेकिन चूँकि समरा की रिवायत में उमर बिन मूसा बिन वहबा है जो ज़ईफ़ है लिहाज़ा हैसमी ने उनकी रिवायत को रद्द किया है।और इब्ने अब्बास से मंसूब रिवायत में अम्मार मौला बनी हाशिम है जिसको बुख़ारी ने ज़ईफ़ शुमार करने की कोशिश की है... और हज़रत अली (अ) के मंसूब रिवायत में भी अहमद बिन कामिल है , जिसको दार क़ुतनी ने रिवायत में ला उबाली करने वाला क़रार दिया है।

दूसरे. फ़ख़रे राज़ी कहते हैं: मुवर्रेख़ीन और मुहद्देसीन का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस आयत के नाज़िल होने के बाद 81 या 82 दिन से ज़्यादा ज़िन्दा नही रहे....

(मजमऊज़ ज़वायद जिल्द 7 पेज 13)

(तहज़ीबुत तहज़ीब जिल्द 7 पेज 404)

(लिसानुल मीज़ान जिल्द 1 पेज 249)

(तफ़सीरे फ़ख़रे राज़ी जिल्द 11 पेज 139)

दूसरी तरफ़ अहले सुन्नत इस बात पर अक़ीदा रखते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) की पैदाईश 12 रबीउल अव्वल को हुई और इत्तेफ़ाक़ से 12 रबीउल अव्वल ही को रेहलत हुई और अगर थोड़ा ग़ौर व फ़िक्र करें तो यह मुद्दत सिर्फ़ 18 ज़िल हिज्जा से हम आहंग हैं न कि रोज़े अरफ़ा से।

तीसरे. मुम्किन है कि उन दोनो अक़वाल को अगर सही फ़र्ज़ भी कर लें तो इस तरह दोनो के दरमियान जमा किया जा सकता है कि यह आयत पैग़म्बरे अकरम (स) पर दो बार नाज़िल हुई है।

चौथे. और यह भी मुम्किन है कि उन दोनो अक़वाल को इस तरह से जमा किया कि आयते अरफ़े के दिन पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुई लेकिन आँ हज़रत (स) ने उसकी तिलावत 18 ज़िल हिज्जा को की , क्योकि पैग़म्बर अकरम (स) ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत को हुज्जतुल विदा में पहुचाने पर मामूर थे।

पाँचवे. मुम्किन है कि उस रोज़ दिन के कामिल होने से मुराद हज और हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत को पहुचाने से दिन को कामिल होना मुराद हो। क्योकि बाज़ रिवायात के मुताबिक़ जनाबे जिबरईल पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुए और और ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से आप के लिये हुक्म लेकर नाज़िल हुए कि आपने तमाम चीज़ों को तो बयान कर दिया सिवाए दो चीज़ों के कि उनको अमली जामा पहना दीजिए एर हज और दूसरे विलायत।

(देखिये तफ़सीरे साफ़ी आय ए इकमाल के ज़ैल में)

अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं: यह कहना सही है कि ख़ुदा वंदे आलम ने इस सूरह (मायदा) को जिसमें आय ए इकमाल है , उसके ज़्यादा हिस्से को रोज़े अरफ़ा नाज़िल किया है , लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) ने उसको और विलायत के बयान को रोज़े ग़दीरे ख़ुम 18 ज़िल हिज्जा पर छोड़ दिया , अगर चे उसको रोज़े अरफ़ा भी तिलावत किया हो और जैसा कि बाज़ रिवायात में बयान हुआ है कि आय ए इकमाल रोज़े ग़दीरे ख़ुम में नाज़िल हुई है। यह बात भी अक़्ल से दूर नही दिखाई देती कि उससे मुराद आँ हज़रत (स) की तिलावते विलायत के ऐलान के साथ साथ हो , जो उस दिन अंजाम पाई है , लिहाज़ा इस तावील की बेना पर रिवायात में कोई मुनाफ़ात नही है।

(तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 6 पेज 196 से 197)

3. रोज़े ग़दीरे ख़ुम में आयत का नुज़ूल

शिया अस्ना अशरी और बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत यह नज़रिया रखते है कि पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आय ए इकमाल ब रोज़े ग़दीरे ख़ुम नाज़िल हुई है , जिनमें से सहीहुस सनद रिवायात की तरफ़ इशारा किया जाता है।

मरहूम कुलैनी अपनी सनद के साथ इमाम बाक़िर (अ) से नक़्ल फ़रमाते हैं कि आपने फ़रमाया:

हदीस

(उसूले काफ़ी जिल्द 1 पेज 289)

आँ हज़रत (स) पर एक के बाद एक फ़रीज़ा नाज़िल होता था , विलायत को पहुचाना सबसे आख़िरी फ़रीज़ा था , जिसके बाद ख़ुदा वंदे आलम ने यह आयत नाज़िल फ़रमाई

: الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا

आज मैने तुम्हारे दिन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी..।

यह नज़िरया आय ए शरीफ़ा के मज़मून से भी हम आहंग है क्योकि:

अव्वल. इस्लाम के दुश्मन हर मैदान और साज़िशों में नाकाम होने के बाद सिर्फ़ इस बात पर ख़ुश थे कि रसूले अकरम (स) के इंतेक़ाल के बाद अपनी आरज़ू तक पहुच जायेगें और इस्लाम पर आख़िरी हमला कर डालेगें लेकिन जब उन्होने देखा कि आँ हज़रत (स) ने 18 ज़िल हिज्जा हिजरत के दसवें साल एक कसीर मजमें से दरमियान एक बेनज़ीर शख्सियत को अपनी जानशीनी के लिये मुन्तख़ब कर के ऐलान कर दिया तो उन्होने अपनी उस आरज़ू पर पानी फिरता नज़र आने लगा।

दूसरे. इमामत व विलायत के लिये हज़रत अली (अ) के इंतेख़ाब के ज़रिये नबूवत भी अपने कमाल की मंज़िल को तय करने लगी और उसकी वजह से दीन कामिल और तमाम हो गया।

तीसरे. ख़ुदा वंदे आलम की नेमतें , इमामत और रसूल अकरम (स) के बाद जानशीनी के लिये मंसूब करने से कामिल हो गयीं।

चौथे. इसमें कोई शक नही है कि इमामत और आँ हज़रत (स) रे बाद रहबरी के बग़ैर एक आलमी दीन नही हो सकता था।

लफ़्ज़े अल यौम के इस्तेमालात

1. तुलूए फज्र से ग़ुरूबे आफ़ताब तक की मुद्दत को यौम कहा जाता है , लिहाज़ा यौम के मअना दिन के हैं और यह रात के मुक़ाबिल में बोला जाता है जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है: وَاسْأَلْهُمْ عَنِ الْقَرْيَةِ الَّتِي كَانَتْ حَاضِرَةَ الْبَحْرِ إِذْ يَعْدُونَ فِي السَّبْتِ إِذْ تَأْتِيهِمْ حِيتَانُهُمْ يَوْمَ سَبْتِهِمْ شُرَّعًا وَيَوْمَ لَا يَسْبِتُونَ لَا تَأْتِيهِمْ كَذَلِكَ نَبْلُوهُم بِمَا كَانُوا يَفْسُقُونَ

(सूर ए आराफ़ आयत 163)

उनकी मछलियाँ शंबे के दिन सतहे आब तक आ जाती थीं और दूसरे दिन नही आती थीं।

नीज़ इरशाद होता है

: فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ

(सूर ए बक़रह आयत 184)

लेकिन इसके बाद भी कोई शख़्स मरीज़ है या सफ़र में है तो उतने ही दिन दूसरे ज़माने में रोज़ा रख ले।

2. दिन रात के मजमूए को यौम कहा जाता है जैसा कि दिन रात में पढ़ी जाने वाली नमाज़ को नमाज़े यौमिया कहा जाता है।

3. ज़माना , ज़माने के किसी हिस्से को भी यौम कहा जाता है जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद हुआ है:

وَتِلْكَ الْأَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيْنَ النَّاسِ

(सूरए आले इमरान आयत 140)

और हम तो ज़माने को लोगों के दरमियान उलटते पलटते रहते हैं।

हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) फ़रमाते हैं:

(नहजुल बलाग़ा , हिकमत 396)

ज़माने के दो दिन होते हैं एक दिन तुम्हारे नफ़े में तो दूसरा तुम्हारे नुक़सान में।

4. मरहला , जैसा कि ज़मीन व आसमान की ख़िलक़त के बारे में ख़ुदा वंदे आलम का क़ौल है: الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٍ

सूर ए आराफ़ आयत 54, सूर ए हदीद आयत 4

जिसने आसमानों और ज़मीन को छ: दिन में पैदा किया है।

नीज़ इरशाद होता है: قُلْ أَئِنَّكُمْ لَتَكْفُرُونَ بِالَّذِي خَلَقَ الْأَرْضَ فِي يَوْمَيْنِ

सूर ए फ़ुस्सिलत आयत 9

जिसने सारी जमीन को दो दिन में पैदा कर दिया है।

5. क़यामत , क़ुरआने करीम में लफ़्ज़े यौम के ज़्यादा तर इस्तेमालात रोज़ें क़यामत के लिये है , क़यामत को यौम कहने का राज़ यह है कि यह निज़ामे कायनात का एक दूसरा और आख़िरी मरहला है।

अल यौंम , में अलिफ़ लाम अहदे ज़िक्री है और एक मख़्सूस रौज़ की तरफ़ इशारा हुआ है जो कहने वाले और सुनने वाले दोनो को मालूम है। इस बेना पर लफ़्ज़े अल यौम आज के मअना में है जो गुज़रे हुए कल के मुकाबिल में होता है।

क़ारेईने केराम , हक़ व इंसाफ़ यह है कि यह आय ए शरीफ़ा ज़माने के एक हिस्से की तरफ़ इशारा करती है जिस ज़माने का आग़ाज़ आयत के नाज़िल होने का दिन है। इस वजह से नुज़ूल आयते के दिन के बारह या चौबीस घंटों से मख़्सूस नही है।

आयत में दूसरा अल यौम भी उसी अहम रोज़ की अहमियत के लिये है और उसी मअना में है।

कुफ़्फ़ार का लालच

आयत के इस फ़िक़रे (....) में कुफ़्फ़ार से हिजाज़ या मुशरेकीने मक्का मुराद नही है बल्कि इल्लत मुतलक़ और आम है जिसकी वजह से तमाम मुशरेकीन , बुत परस्त और यहूद व नसारा भी शामिल हैं।

कुफ़्फ़ार की यह कोशिश क़ुरआने मजीद की आयात से समझ में आती है कि वह दीन को नीस्त व नाबूद करने के लिये दीन में दाख़िल होना चाहते थे लेकिन ख़ुदा वंदे आलम ने कुफ़्फ़ार के अहदाफ़ व मक़ासिद को दर्ज ज़ैल मवाक़े पर वाज़े कर दिया:

1. उनकी पहली कोशिश यह थी कि दीन के चराग़ को बिलकुल ख़ामोश कर दिया जाये और दीन के उस पौधे को जड़ से उखाड़ कर फ़ेंक दें जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है: يُرِيدُونَ أَن يُطْفِئُوا نُورَ اللَّـهِ بِأَفْوَاهِهِمْ وَيَأْبَى اللَّـهُ إِلَّا أَن يُتِمَّ نُورَهُ وَلَوْ كَرِهَ الْكَافِرُونَ

(सूर ए तौबा आयत 32)

यह लोग चाहते हैं कि नूरे ख़ुदा को अपने मुँह से फ़ूंक मार कर बुझा दें हालाकि ख़ुदा उसके अलावा कुछ मानने के लिये तैयार नही है कि वह अपने नूर को तमाम कर दे , चाहे काफ़िरों को कितना ही बुरा क्यो न लगे।

2. जब उन्होने यह देख लिया कि दीन की जड़ें उखाड़ने और दीन का चराद़ बुझाने में कामयाब न हो पायेगें तो उन्होने कोशिश की कि मुसलमानों को उनके दीन से गुमराह कर दें , चुनाचे ख़ुदा वंदे आलम का फ़रमान हैं: وَلَا يَزَالُونَ يُقَاتِلُونَكُمْ حَتَّى يَرُدُّوكُمْ عَن دِينِكُمْ إِنِ اسْتَطَاعُوا

(सूर ए बक़रह आयत 217)

और यह कुफ़्फ़ार बराबर तुम से जंग करते रहेगें यहाँ तक कि उनके इमकान में हो तो तुम को तुम्हारे दीन से पलटा दें।

और यह सक़ाफ़ती और फ़ौजी कोशिशे सिर्फ़ मुश्रेकीन से मख़्सूस नही है बल्कि अहले किताब भी इस कोशिश में शरीक थे: وَدَّ كَثِيرٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يَرُدُّونَكُم مِّن بَعْدِ إِيمَانِكُمْ كُفَّارًا حَسَدًا مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم مِّن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ

(सूर ए बक़रह आयत 109)

बहुत से अहले किताब यह चाहते हैं कि तुम्हे भी ईमान के बाद काफ़िर बना लें वह तुम से हसद रखते है।

गुज़िश्ता दोनो मंसूबों में नाकामी के बाद उन्होने यह कोशिश की कि मुसलमानों को यहूद व नसारा की तरफ़ मायल करें और एक ऐसा दीन बनायें जो लोगों की दीन पसंदी को क़ानेअ कर सके , इसी वजह से उन्होने लोगों को इस काम की तरफ़ दावत देते हुए कहा

: وَقَالُوا لَن يَدْخُلَ الْجَنَّةَ إِلَّا مَن كَانَ هُودًا أَوْ نَصَارَى

सूर ए बक़रह आयत 111

(यह यहूदी कहते हैं कि) जन्नत में यहूदियों और ईसाईयों के अलावा कोई दाख़िल न होगा।)

या जैसा कि एक दूसरी जगह पर इरशाद होता है: وَقَالُوا كُونُوا هُودًا أَوْ نَصَارَى تَهْتَدُوا

(सूर ए बक़रह आयत 135)

और यह यहूदी व ईसाई कहते हैं कि तुम लोग भी यहूदी और ईसाई हो जाओ।

कुफ़्फ़ार के सर बराह सब्र व इस्तेक़ामत की वसीयत करते हुए कहते थे कि अपने ख़ुदाओं की हिफ़ाज़त और उनकी इबादत के सिलसिले में सब्र व पायदारी करो। أَنِ امْشُوا وَاصْبِرُوا عَلَى آلِهَتِكُمْ

(सूर ए साद आयत 6)

चलो अपने ख़ुदाओं पर क़ायम रहो।

4. जब उन लोगों की तमाम साज़िशें नाकाम हो गयीं तो उन्हे एक और तरकीब सूझी और उनके दिल इस बात से ख़ुश थे कि पैग़म्बरे अकरम (स) के कोई बेटा नही है ताकि वह उनका जानशीन बन कर उनके रास्ते को आगे बढ़ाये और अपनी जानशीनी के लिये अब तक किसी को अलल ऐलान मंसूब नही किया है लिहाज़ा उन्होने रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद के लिये एक नक़्शा बनाया और उसी बात पर अपने दिल को ख़ुश किया लेकिन रोज़े ग़दीरे ख़ुम रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) को अपना जानशीन बना कर लोगों के सामने ऐलान कर दिया और एक कसीर मजमे में आप को ख़िलाफ़त के लिये मंसूब कर दिया। चुनाचे यही वह मक़ाम था जहाँ कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन अपनी साज़िशों से मायूस हो गये , लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम ने उस मौक़े पर इस आयत को नाज़िल फ़रमाया:

الْيَوْمَ يَئِسَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِن دِينِكُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِ الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا فَمَنِ اضْطُرَّ فِي مَخْمَصَةٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّإِثْمٍ فَإِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ

(सूर ए मायदा आयत 3)

और कुफ़्फ़ार तुम्हारे दीन से मायूस हो गये लिहाज़ा तुम उन से न डरो और मुझ से डरो , आज मैने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे इस दीन इस्लाम को पसंद किया।

इकमाले दीन का मतलब क्या है ?

मज़कूरा आयत में इकमाले दीन से क्या मुराद है ? इस सिलसिले में तीन नज़रिये पाये जाते हैं:

1. दीन से मुराद शरीयत के अहकाम व क़वानीन हैं यानी उस दीन इस्लाम के क़वानीन मुकम्मल हो गये और उसके बाद से इस्लाम में क़ानूनी लिहाज़ से कोई मुश्किल नही है।

जवाब:

अगर इकमाले दीन से मुराद शरीयत का कामिल होना था तो फिर रसूले अकरम (स) पर कोई हुक्म नाज़िल नही होना चाहिये था , जबकि बहुत सी रिवायात के मुताबिक़ उसके बाद भी पैग़म्बरे अकरम (स) पर कलाला (मादरी या पेदरी भाई बहन) के बारे में आयत , सूद के हराम होने की आयत और दूसरे अहकाम भी नाज़िल हुए हैं।

तबरी , बरा बिन आज़िब से नक़्ल करते हैं किपैग़म्बरे अकरम (स) पर सबसे आख़िर में नाज़िल होने वाली आयत यह है:

يَسْتَفْتُونَكَ قُلِ اللَّـهُ يُفْتِيكُمْ فِي الْكَلَالَةِ إِنِ امْرُؤٌ هَلَكَ لَيْسَ لَهُ وَلَدٌ وَلَهُ أُخْتٌ فَلَهَا نِصْفُ مَا تَرَكَ وَهُوَ يَرِثُهَا إِن لَّمْ يَكُن لَّهَا وَلَدٌ فَإِن كَانَتَا اثْنَتَيْنِ فَلَهُمَا الثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَ وَإِن كَانُوا إِخْوَةً رِّجَالًا وَنِسَاءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْأُنثَيَيْنِ يُبَيِّنُ اللَّـهُ لَكُمْ أَن تَضِلُّوا وَاللَّـهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ

(सूर ए निसा आयत 176)

पैग़म्बर यह लोग आप से फ़तवा दरयाफ़्त करते हैं तो आर कह दीजिये कि कलाला (भाई , बहन) के बारे में ख़ुदा यह हुक्म बयान करता है।

अबू हय्याने उनदुलुसी कहते हैं: इस आयत (आय ए इकमाल) के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे अकरम (स) पर बहुत सी आयात जैसे आयाते रेबा , आयाते कलाला और दीगर आयात नाज़िल हुई हैं।

2. बाज़ लोगों का मानना है कि आय ए इकमाल में दीन से मुराद हज है यानी इस ख़ालिस और बा शिकोह रोज़ ख़ुदा वंदे आलम ने तुम्हारे हज को कामिल कर दिया।

जवाब:

अव्वल. हज , शरीयते इस्लामी का जुज़ है , न कि दीन का , और दीन को शरीयत पर हम्ल करना कि जिसका एक जुज़ हज है , लफ़्ज़ के बर ख़िलाफ़ है।

दूसरे. यह तावील लफ़्ज़े अल यौम के ज़ाहिर से हम आहंग नही है क्योकि अल यौम से मुराद वही ज़माना है जिसमें आयत नाज़िल हुई है लिहाज़ा हमें यह देखना होगा कि उस रोज़ कौन सा वाक़ेया पेश आया जिसके सबब दीन कामिल हो गया जबकि हम जानते हैं कि उस रोज़ हज़रत अली (अ) की विलायत के ऐलान के अलावा कोई दूसरा वाक़ेया पेश नही आया।

3. इकमाले दीन से मुराद अमीरुल मोमिनीन (अ) की इमामत व विलायत के ज़रिये दीन का कामिल होना है क्योकि इमामत के ज़रिये नबूवत का जारी व सारी रहना दीन को कमाल की बुलंदी पर पहुचाना है।


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