ग़दीर और वहदते इस्लामी

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ग़दीर और वहदते इस्लामी लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

ग़दीर और वहदते इस्लामी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना इक़बाल हैदर हैदरी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी

ग़दीर और वहदते इस्लामी

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

आयत की शाने नुज़ूल के बारे में नज़रियात

आयत की शाने नुज़ूल के बारे में तीन अहम नज़रियात पाये जाते हैं:

1. अज़मते इस्लाम के ज़माने की तरफ़ इशारा

फ़ख़रे राज़ी ऐहतेमाल देते है कि इस आयत में लफ़्ज़े (यानी आज के दिन) अपने हक़ीक़ी मअना में इस्तेमाल नही हुआ है बल्कि उसके लिये एक मजाजी मअना हैं और वह यह है कि यहाँ पर ज़माने और ज़माने के एक हिस्से के मअना में है न सिर्फ़ मुख़्तसर से ज़माने के लिये।

इस नज़रिये के मुताबिक़ मज़कूरा आयत किसी ख़ास वाक़ेया से मख़सूस नही है बल्कि अज़मते इस्लाम के जम़ाने और कुफ़्फ़ार की नाउम्मीदी के ज़माने की ख़बर देती है।

जवाब:

अव्वल. मजाज़ी और गै़र हक़ीक़ी मअना के लिये एक वाज़ेह क़रीने की ज़रूरत होती है कि फ़ख़रे राज़ी ने इस मजाज़ी मअना के लिये कोई क़रीना पेश नही किया।

दूसरे. अगर यह मअना सही हों तो फिर आयत का फ़तहे मक्का के मौक़े पर नाज़िल होना ज़्यादा मुनासिब था।

तीसरे. जो रिवायात 18 ज़िल हिज्जा में आयत के नुज़ूल को बयान करती हैं उनसे यह मअना हम आहंग नही है।

2. रोज़े अरफ़ा आयत का नुज़ूल

फ़ख़रे राज़ी एक दूसरा ऐहतेमाल यह देतें है कि हम यह कहें कि यह आयत अरफ़े के दिन पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुई है और लफ़्ज़े यौम भी इसके हक़ीक़ी मअना में इस्तेमाल हुआ है जो एक मख़्सूस और मुअय्यन दिन है यानी 18 ज़िल हिज्जा की तारीख़ और पैग़म्बरे अकरम (स) के हज का आख़िरी सफ़र हिजरत का दसवाँ साल था।

बुख़ारी अपनी सनद के साथ उमर बिन ख़त्ताब से नक़्ल करते हैं कि एक यहूदी ने उनसे कहा: या अमीरल मोमिनीन , एक आयत तुम्हारी किताब में है जिसको तुम पढ़ते हो , अगर हमारी जमाअत यहूद के बारे में नाज़िल होती तो हम उस रोज़ को ईद क़रार देते , हज़रत उमर ने कहा: वह कौन सी आयत है ? उसने कहा

(يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ ۚ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ) हज़रत उमर ने कहा: हम जानते है कि यह आयत पैग़म्बरे अकरम (स) पर कहाँ और किस रोज़ नाज़िल हुई। यह आयत रोज़े अरफ़ा जुमे के दिन नाज़िल हुई है।)

(सही बुख़ारी जिल्द 1 पेज 16)

जवाब:

अव्वल. इस तरह की तमाम रिवायतों की सनद ज़ईफ़ है , क्योकि (यह रिवायत) पाच सहाबा से नक़्ल हुई है जिनमें से दो नफ़र उमर बिन ख़त्ताब और मुआविया हैं , और चूँकि रोज़े अरफ़ा में इस आयत के नाज़िल होने का क़ौल उनके नफ़े में है , क्योकि दोनो अमीरुल मोमिनीन (अ) की ख़िलाफ़त के ग़ासिब हैं लिहाज़ा उनका क़ौल क़ाबिले क़बूल नही होगा।

और समरा बिन जुन्दब ने इब्ने अब्बास और इमाम अली (अ) से भी नक़्ल किया है , लेकिन चूँकि समरा की रिवायत में उमर बिन मूसा बिन वहबा है जो ज़ईफ़ है लिहाज़ा हैसमी ने उनकी रिवायत को रद्द किया है।और इब्ने अब्बास से मंसूब रिवायत में अम्मार मौला बनी हाशिम है जिसको बुख़ारी ने ज़ईफ़ शुमार करने की कोशिश की है... और हज़रत अली (अ) के मंसूब रिवायत में भी अहमद बिन कामिल है , जिसको दार क़ुतनी ने रिवायत में ला उबाली करने वाला क़रार दिया है।

दूसरे. फ़ख़रे राज़ी कहते हैं: मुवर्रेख़ीन और मुहद्देसीन का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस आयत के नाज़िल होने के बाद 81 या 82 दिन से ज़्यादा ज़िन्दा नही रहे....

(मजमऊज़ ज़वायद जिल्द 7 पेज 13)

(तहज़ीबुत तहज़ीब जिल्द 7 पेज 404)

(लिसानुल मीज़ान जिल्द 1 पेज 249)

(तफ़सीरे फ़ख़रे राज़ी जिल्द 11 पेज 139)

दूसरी तरफ़ अहले सुन्नत इस बात पर अक़ीदा रखते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) की पैदाईश 12 रबीउल अव्वल को हुई और इत्तेफ़ाक़ से 12 रबीउल अव्वल ही को रेहलत हुई और अगर थोड़ा ग़ौर व फ़िक्र करें तो यह मुद्दत सिर्फ़ 18 ज़िल हिज्जा से हम आहंग हैं न कि रोज़े अरफ़ा से।

तीसरे. मुम्किन है कि उन दोनो अक़वाल को अगर सही फ़र्ज़ भी कर लें तो इस तरह दोनो के दरमियान जमा किया जा सकता है कि यह आयत पैग़म्बरे अकरम (स) पर दो बार नाज़िल हुई है।

चौथे. और यह भी मुम्किन है कि उन दोनो अक़वाल को इस तरह से जमा किया कि आयते अरफ़े के दिन पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुई लेकिन आँ हज़रत (स) ने उसकी तिलावत 18 ज़िल हिज्जा को की , क्योकि पैग़म्बर अकरम (स) ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत को हुज्जतुल विदा में पहुचाने पर मामूर थे।

पाँचवे. मुम्किन है कि उस रोज़ दिन के कामिल होने से मुराद हज और हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत को पहुचाने से दिन को कामिल होना मुराद हो। क्योकि बाज़ रिवायात के मुताबिक़ जनाबे जिबरईल पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुए और और ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से आप के लिये हुक्म लेकर नाज़िल हुए कि आपने तमाम चीज़ों को तो बयान कर दिया सिवाए दो चीज़ों के कि उनको अमली जामा पहना दीजिए एर हज और दूसरे विलायत।

(देखिये तफ़सीरे साफ़ी आय ए इकमाल के ज़ैल में)

अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं: यह कहना सही है कि ख़ुदा वंदे आलम ने इस सूरह (मायदा) को जिसमें आय ए इकमाल है , उसके ज़्यादा हिस्से को रोज़े अरफ़ा नाज़िल किया है , लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) ने उसको और विलायत के बयान को रोज़े ग़दीरे ख़ुम 18 ज़िल हिज्जा पर छोड़ दिया , अगर चे उसको रोज़े अरफ़ा भी तिलावत किया हो और जैसा कि बाज़ रिवायात में बयान हुआ है कि आय ए इकमाल रोज़े ग़दीरे ख़ुम में नाज़िल हुई है। यह बात भी अक़्ल से दूर नही दिखाई देती कि उससे मुराद आँ हज़रत (स) की तिलावते विलायत के ऐलान के साथ साथ हो , जो उस दिन अंजाम पाई है , लिहाज़ा इस तावील की बेना पर रिवायात में कोई मुनाफ़ात नही है।

(तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 6 पेज 196 से 197)

3. रोज़े ग़दीरे ख़ुम में आयत का नुज़ूल

शिया अस्ना अशरी और बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत यह नज़रिया रखते है कि पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आय ए इकमाल ब रोज़े ग़दीरे ख़ुम नाज़िल हुई है , जिनमें से सहीहुस सनद रिवायात की तरफ़ इशारा किया जाता है।

मरहूम कुलैनी अपनी सनद के साथ इमाम बाक़िर (अ) से नक़्ल फ़रमाते हैं कि आपने फ़रमाया:

हदीस

(उसूले काफ़ी जिल्द 1 पेज 289)

आँ हज़रत (स) पर एक के बाद एक फ़रीज़ा नाज़िल होता था , विलायत को पहुचाना सबसे आख़िरी फ़रीज़ा था , जिसके बाद ख़ुदा वंदे आलम ने यह आयत नाज़िल फ़रमाई

: الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا

आज मैने तुम्हारे दिन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी..।

यह नज़िरया आय ए शरीफ़ा के मज़मून से भी हम आहंग है क्योकि:

अव्वल. इस्लाम के दुश्मन हर मैदान और साज़िशों में नाकाम होने के बाद सिर्फ़ इस बात पर ख़ुश थे कि रसूले अकरम (स) के इंतेक़ाल के बाद अपनी आरज़ू तक पहुच जायेगें और इस्लाम पर आख़िरी हमला कर डालेगें लेकिन जब उन्होने देखा कि आँ हज़रत (स) ने 18 ज़िल हिज्जा हिजरत के दसवें साल एक कसीर मजमें से दरमियान एक बेनज़ीर शख्सियत को अपनी जानशीनी के लिये मुन्तख़ब कर के ऐलान कर दिया तो उन्होने अपनी उस आरज़ू पर पानी फिरता नज़र आने लगा।

दूसरे. इमामत व विलायत के लिये हज़रत अली (अ) के इंतेख़ाब के ज़रिये नबूवत भी अपने कमाल की मंज़िल को तय करने लगी और उसकी वजह से दीन कामिल और तमाम हो गया।

तीसरे. ख़ुदा वंदे आलम की नेमतें , इमामत और रसूल अकरम (स) के बाद जानशीनी के लिये मंसूब करने से कामिल हो गयीं।

चौथे. इसमें कोई शक नही है कि इमामत और आँ हज़रत (स) रे बाद रहबरी के बग़ैर एक आलमी दीन नही हो सकता था।

लफ़्ज़े अल यौम के इस्तेमालात

1. तुलूए फज्र से ग़ुरूबे आफ़ताब तक की मुद्दत को यौम कहा जाता है , लिहाज़ा यौम के मअना दिन के हैं और यह रात के मुक़ाबिल में बोला जाता है जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है: وَاسْأَلْهُمْ عَنِ الْقَرْيَةِ الَّتِي كَانَتْ حَاضِرَةَ الْبَحْرِ إِذْ يَعْدُونَ فِي السَّبْتِ إِذْ تَأْتِيهِمْ حِيتَانُهُمْ يَوْمَ سَبْتِهِمْ شُرَّعًا وَيَوْمَ لَا يَسْبِتُونَ لَا تَأْتِيهِمْ كَذَلِكَ نَبْلُوهُم بِمَا كَانُوا يَفْسُقُونَ

(सूर ए आराफ़ आयत 163)

उनकी मछलियाँ शंबे के दिन सतहे आब तक आ जाती थीं और दूसरे दिन नही आती थीं।

नीज़ इरशाद होता है

: فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ

(सूर ए बक़रह आयत 184)

लेकिन इसके बाद भी कोई शख़्स मरीज़ है या सफ़र में है तो उतने ही दिन दूसरे ज़माने में रोज़ा रख ले।

2. दिन रात के मजमूए को यौम कहा जाता है जैसा कि दिन रात में पढ़ी जाने वाली नमाज़ को नमाज़े यौमिया कहा जाता है।

3. ज़माना , ज़माने के किसी हिस्से को भी यौम कहा जाता है जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद हुआ है:

وَتِلْكَ الْأَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيْنَ النَّاسِ

(सूरए आले इमरान आयत 140)

और हम तो ज़माने को लोगों के दरमियान उलटते पलटते रहते हैं।

हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) फ़रमाते हैं:

(नहजुल बलाग़ा , हिकमत 396)

ज़माने के दो दिन होते हैं एक दिन तुम्हारे नफ़े में तो दूसरा तुम्हारे नुक़सान में।

4. मरहला , जैसा कि ज़मीन व आसमान की ख़िलक़त के बारे में ख़ुदा वंदे आलम का क़ौल है: الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٍ

सूर ए आराफ़ आयत 54, सूर ए हदीद आयत 4

जिसने आसमानों और ज़मीन को छ: दिन में पैदा किया है।

नीज़ इरशाद होता है: قُلْ أَئِنَّكُمْ لَتَكْفُرُونَ بِالَّذِي خَلَقَ الْأَرْضَ فِي يَوْمَيْنِ

सूर ए फ़ुस्सिलत आयत 9

जिसने सारी जमीन को दो दिन में पैदा कर दिया है।

5. क़यामत , क़ुरआने करीम में लफ़्ज़े यौम के ज़्यादा तर इस्तेमालात रोज़ें क़यामत के लिये है , क़यामत को यौम कहने का राज़ यह है कि यह निज़ामे कायनात का एक दूसरा और आख़िरी मरहला है।

अल यौंम , में अलिफ़ लाम अहदे ज़िक्री है और एक मख़्सूस रौज़ की तरफ़ इशारा हुआ है जो कहने वाले और सुनने वाले दोनो को मालूम है। इस बेना पर लफ़्ज़े अल यौम आज के मअना में है जो गुज़रे हुए कल के मुकाबिल में होता है।

क़ारेईने केराम , हक़ व इंसाफ़ यह है कि यह आय ए शरीफ़ा ज़माने के एक हिस्से की तरफ़ इशारा करती है जिस ज़माने का आग़ाज़ आयत के नाज़िल होने का दिन है। इस वजह से नुज़ूल आयते के दिन के बारह या चौबीस घंटों से मख़्सूस नही है।

आयत में दूसरा अल यौम भी उसी अहम रोज़ की अहमियत के लिये है और उसी मअना में है।

कुफ़्फ़ार का लालच

आयत के इस फ़िक़रे (....) में कुफ़्फ़ार से हिजाज़ या मुशरेकीने मक्का मुराद नही है बल्कि इल्लत मुतलक़ और आम है जिसकी वजह से तमाम मुशरेकीन , बुत परस्त और यहूद व नसारा भी शामिल हैं।

कुफ़्फ़ार की यह कोशिश क़ुरआने मजीद की आयात से समझ में आती है कि वह दीन को नीस्त व नाबूद करने के लिये दीन में दाख़िल होना चाहते थे लेकिन ख़ुदा वंदे आलम ने कुफ़्फ़ार के अहदाफ़ व मक़ासिद को दर्ज ज़ैल मवाक़े पर वाज़े कर दिया:

1. उनकी पहली कोशिश यह थी कि दीन के चराग़ को बिलकुल ख़ामोश कर दिया जाये और दीन के उस पौधे को जड़ से उखाड़ कर फ़ेंक दें जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है: يُرِيدُونَ أَن يُطْفِئُوا نُورَ اللَّـهِ بِأَفْوَاهِهِمْ وَيَأْبَى اللَّـهُ إِلَّا أَن يُتِمَّ نُورَهُ وَلَوْ كَرِهَ الْكَافِرُونَ

(सूर ए तौबा आयत 32)

यह लोग चाहते हैं कि नूरे ख़ुदा को अपने मुँह से फ़ूंक मार कर बुझा दें हालाकि ख़ुदा उसके अलावा कुछ मानने के लिये तैयार नही है कि वह अपने नूर को तमाम कर दे , चाहे काफ़िरों को कितना ही बुरा क्यो न लगे।

2. जब उन्होने यह देख लिया कि दीन की जड़ें उखाड़ने और दीन का चराद़ बुझाने में कामयाब न हो पायेगें तो उन्होने कोशिश की कि मुसलमानों को उनके दीन से गुमराह कर दें , चुनाचे ख़ुदा वंदे आलम का फ़रमान हैं: وَلَا يَزَالُونَ يُقَاتِلُونَكُمْ حَتَّى يَرُدُّوكُمْ عَن دِينِكُمْ إِنِ اسْتَطَاعُوا

(सूर ए बक़रह आयत 217)

और यह कुफ़्फ़ार बराबर तुम से जंग करते रहेगें यहाँ तक कि उनके इमकान में हो तो तुम को तुम्हारे दीन से पलटा दें।

और यह सक़ाफ़ती और फ़ौजी कोशिशे सिर्फ़ मुश्रेकीन से मख़्सूस नही है बल्कि अहले किताब भी इस कोशिश में शरीक थे: وَدَّ كَثِيرٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يَرُدُّونَكُم مِّن بَعْدِ إِيمَانِكُمْ كُفَّارًا حَسَدًا مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم مِّن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ

(सूर ए बक़रह आयत 109)

बहुत से अहले किताब यह चाहते हैं कि तुम्हे भी ईमान के बाद काफ़िर बना लें वह तुम से हसद रखते है।

गुज़िश्ता दोनो मंसूबों में नाकामी के बाद उन्होने यह कोशिश की कि मुसलमानों को यहूद व नसारा की तरफ़ मायल करें और एक ऐसा दीन बनायें जो लोगों की दीन पसंदी को क़ानेअ कर सके , इसी वजह से उन्होने लोगों को इस काम की तरफ़ दावत देते हुए कहा

: وَقَالُوا لَن يَدْخُلَ الْجَنَّةَ إِلَّا مَن كَانَ هُودًا أَوْ نَصَارَى

सूर ए बक़रह आयत 111

(यह यहूदी कहते हैं कि) जन्नत में यहूदियों और ईसाईयों के अलावा कोई दाख़िल न होगा।)

या जैसा कि एक दूसरी जगह पर इरशाद होता है: وَقَالُوا كُونُوا هُودًا أَوْ نَصَارَى تَهْتَدُوا

(सूर ए बक़रह आयत 135)

और यह यहूदी व ईसाई कहते हैं कि तुम लोग भी यहूदी और ईसाई हो जाओ।

कुफ़्फ़ार के सर बराह सब्र व इस्तेक़ामत की वसीयत करते हुए कहते थे कि अपने ख़ुदाओं की हिफ़ाज़त और उनकी इबादत के सिलसिले में सब्र व पायदारी करो। أَنِ امْشُوا وَاصْبِرُوا عَلَى آلِهَتِكُمْ

(सूर ए साद आयत 6)

चलो अपने ख़ुदाओं पर क़ायम रहो।

4. जब उन लोगों की तमाम साज़िशें नाकाम हो गयीं तो उन्हे एक और तरकीब सूझी और उनके दिल इस बात से ख़ुश थे कि पैग़म्बरे अकरम (स) के कोई बेटा नही है ताकि वह उनका जानशीन बन कर उनके रास्ते को आगे बढ़ाये और अपनी जानशीनी के लिये अब तक किसी को अलल ऐलान मंसूब नही किया है लिहाज़ा उन्होने रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद के लिये एक नक़्शा बनाया और उसी बात पर अपने दिल को ख़ुश किया लेकिन रोज़े ग़दीरे ख़ुम रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) को अपना जानशीन बना कर लोगों के सामने ऐलान कर दिया और एक कसीर मजमे में आप को ख़िलाफ़त के लिये मंसूब कर दिया। चुनाचे यही वह मक़ाम था जहाँ कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन अपनी साज़िशों से मायूस हो गये , लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम ने उस मौक़े पर इस आयत को नाज़िल फ़रमाया:

الْيَوْمَ يَئِسَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِن دِينِكُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِ الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا فَمَنِ اضْطُرَّ فِي مَخْمَصَةٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّإِثْمٍ فَإِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ

(सूर ए मायदा आयत 3)

और कुफ़्फ़ार तुम्हारे दीन से मायूस हो गये लिहाज़ा तुम उन से न डरो और मुझ से डरो , आज मैने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे इस दीन इस्लाम को पसंद किया।

इकमाले दीन का मतलब क्या है ?

मज़कूरा आयत में इकमाले दीन से क्या मुराद है ? इस सिलसिले में तीन नज़रिये पाये जाते हैं:

1. दीन से मुराद शरीयत के अहकाम व क़वानीन हैं यानी उस दीन इस्लाम के क़वानीन मुकम्मल हो गये और उसके बाद से इस्लाम में क़ानूनी लिहाज़ से कोई मुश्किल नही है।

जवाब:

अगर इकमाले दीन से मुराद शरीयत का कामिल होना था तो फिर रसूले अकरम (स) पर कोई हुक्म नाज़िल नही होना चाहिये था , जबकि बहुत सी रिवायात के मुताबिक़ उसके बाद भी पैग़म्बरे अकरम (स) पर कलाला (मादरी या पेदरी भाई बहन) के बारे में आयत , सूद के हराम होने की आयत और दूसरे अहकाम भी नाज़िल हुए हैं।

तबरी , बरा बिन आज़िब से नक़्ल करते हैं किपैग़म्बरे अकरम (स) पर सबसे आख़िर में नाज़िल होने वाली आयत यह है:

يَسْتَفْتُونَكَ قُلِ اللَّـهُ يُفْتِيكُمْ فِي الْكَلَالَةِ إِنِ امْرُؤٌ هَلَكَ لَيْسَ لَهُ وَلَدٌ وَلَهُ أُخْتٌ فَلَهَا نِصْفُ مَا تَرَكَ وَهُوَ يَرِثُهَا إِن لَّمْ يَكُن لَّهَا وَلَدٌ فَإِن كَانَتَا اثْنَتَيْنِ فَلَهُمَا الثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَ وَإِن كَانُوا إِخْوَةً رِّجَالًا وَنِسَاءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْأُنثَيَيْنِ يُبَيِّنُ اللَّـهُ لَكُمْ أَن تَضِلُّوا وَاللَّـهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ

(सूर ए निसा आयत 176)

पैग़म्बर यह लोग आप से फ़तवा दरयाफ़्त करते हैं तो आर कह दीजिये कि कलाला (भाई , बहन) के बारे में ख़ुदा यह हुक्म बयान करता है।

अबू हय्याने उनदुलुसी कहते हैं: इस आयत (आय ए इकमाल) के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे अकरम (स) पर बहुत सी आयात जैसे आयाते रेबा , आयाते कलाला और दीगर आयात नाज़िल हुई हैं।

2. बाज़ लोगों का मानना है कि आय ए इकमाल में दीन से मुराद हज है यानी इस ख़ालिस और बा शिकोह रोज़ ख़ुदा वंदे आलम ने तुम्हारे हज को कामिल कर दिया।

जवाब:

अव्वल. हज , शरीयते इस्लामी का जुज़ है , न कि दीन का , और दीन को शरीयत पर हम्ल करना कि जिसका एक जुज़ हज है , लफ़्ज़ के बर ख़िलाफ़ है।

दूसरे. यह तावील लफ़्ज़े अल यौम के ज़ाहिर से हम आहंग नही है क्योकि अल यौम से मुराद वही ज़माना है जिसमें आयत नाज़िल हुई है लिहाज़ा हमें यह देखना होगा कि उस रोज़ कौन सा वाक़ेया पेश आया जिसके सबब दीन कामिल हो गया जबकि हम जानते हैं कि उस रोज़ हज़रत अली (अ) की विलायत के ऐलान के अलावा कोई दूसरा वाक़ेया पेश नही आया।

3. इकमाले दीन से मुराद अमीरुल मोमिनीन (अ) की इमामत व विलायत के ज़रिये दीन का कामिल होना है क्योकि इमामत के ज़रिये नबूवत का जारी व सारी रहना दीन को कमाल की बुलंदी पर पहुचाना है।