ग़दीर और वहदते इस्लामी

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ग़दीर और वहदते इस्लामी लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

ग़दीर और वहदते इस्लामी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना इक़बाल हैदर हैदरी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी

ग़दीर और वहदते इस्लामी

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

जश्ने ग़दीर मुनअक़िद करना

मख़्सूस तारिख़ों और ख़ास हालातों में मुसलमानों के दरमियान अंजाम पाने वाले आमाल में से एक काम मख़्सूस दिनों में जश्न व महफ़िल मुनअक़िद करना है और यह काम इस रोज़ की अहमियत और अज़मत की वजह से होता है , चाहे रसूले अकरम (स) की बेसत का दिन हो या किसी इमाम की विलादत का दिन या कोई मख़्सूस मुनासेबत।

मुसलमान इन मुक़द्दस दिनों में मासूम (अ) से मानवी और रूहानी फ़ैज़ हासिल करने के लिये इस तरह की महाफ़िल मुनअक़िद करते हैं और उनके ज़रिये अज़ीम बरकतें हासिल करते हैं लेकिन अफ़सोस कि हमेशा से बह्हाबी लोग इन बरकतों से महरूम रहने के अलावा दूसरों को भी इस तरह की महफ़िल मुनअक़िद करने से रोकते हैं और इस तरीक़े से दुश्मनाने इस्लाम के मक़ासिद को पूरा करते हैं क्योकि दुश्मन कभी भी यह नही चाहता कि मुसलमान अपने मुक़द्देसात से दोबारा अहद व पैमान करते रहें। लिहाज़ा मौज़ू की अहमियत के पेशे नज़र इस सिलसिले में तहक़ीक़ करते हैं।

वह्हबियों के फ़तवे

इब्ने तैमिया का कहना है: दिनों की दूसरी क़िस्म वह दिन हैं जिनमें बाज़ वाक़ेयात रुनूमा हुए हैं जैसे 18 ज़िल हिज्जा और जैसा कि बाज़ लोग इस दिन ईद मनाते हैं जबकि कोई अस्ल और बुनियाद नही है , क्योकि असहाब और अहले बैत वग़ैरह ने इस दिन इस दिन को ईद क़रार नही दिया है , क्योकि ईज उस शरई हुक्म को कहा जाता है जिसकी पैरवी का हुक्म हुआ हो , न यह कि बिदअत ईजाद की जाये। यह काम ईसाईयों की तरह है जिन्होने हज़रत ईसा (अ) से मुताअल्लिक़ बाज़ वाक़ेयात के दिन ईद मनाना शुरु कर दिया।

शेख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ का कहना है: यह जायज़ नही है कि पैग़म्बर या किसी ग़ैर के लिये कोई महफ़िल मुनअक़िद की जाये और यह काम दीन में पैदा होने वाली बिदअतों में से है , क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) और ख़ुलाफ़ा ए राशेदीन नीज़ असहाब व ताबेईन ने ऐसा कोई काम अंजाम नही दिया है।

3. वहाबियत फ़तवा कमेटी के दायमी मिम्बरों का कहना है: यह जायज़ नही है कि अंबिया व सालेहीन के सोग में या उनके उनके रोज़े पैदाइश पर उनकी याद को ज़िन्दा करने के लिये महफ़िल व मजलिस मुनअक़िद की जाये और इसी तरह अलम उठाना और उनकी क़ब्रों पर शमा जलाना (भी जायज़ नही है) क्योकि यह तमाम चीज़ें दीन में ईजाद की गई बिदअतें और शिक्र है , पैग़म्बरे अकरम (स) गुज़श्ता अंबिया और सालेहीन ने इस तरह का कोई काम अंजाम नही दिया है। इस तरह शुरु की तीन सदियों में जो कि इस्लाम की बेहतरीन सदियाँ कहलाती हैं उनमें किसी सहाबी या मुसलमानों के इमाम ने यह अमल अँजान नही दिया है।

4. इब्ने फ़ौज़ान का कहना है: इस ज़माने में बहुत सी बिदअतें पैदा हो गई हैं जैसे माहे रबीउल अव्वल में पैग़म्बरे अकरम (स) की विलादत की मुनासेबत पर महफ़िल वग़ैरह मुनअक़िद करना।

5. इब्ने उसीमैन का कहना है: अपने बच्चो को रोज़े विलादत पर जश्न मनाना चूँकि दुश्मनाने ख़ुदा से मुशाबेहत रखता है और मुसलमानों के यहाँ यह काम नही होता था बल्कि ग़ैरों से हमारे यहाँ आया है , पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: जो शख़्स किसी (दूसरी) क़ौम के मुशाबेह होगा वह उसी क़ौम में श़ुमार किया जायेगा।

(इक़तेज़ाउल सिरातिल मुस्तक़ीम पेज 293, 295)

(मजमू ए फ़तावा व मक़ालाते मुतनव्व)

(अल लुजनतुल दायमा मिन फ़तवा रक़्म 1774)

(अल बिदअत , इब्ने फ़ौज़ान पेज 25, 27)

(फ़तावा मनारुल इस्लाम जिल्द 1 पेज 43)

जश्ने मुनअक़िद करना मुहब्बत की निशानी है

मुहब्बत व दुश्मनी दो ऐसी चीज़े हैं जो इँसान के अँदर क़रार दी गयीं हैं जिसको इँसान की चाहत और नफ़रत से ताबीर किया जाता है।

वुजूबे मुहब्बत

अक़्ली और मंक़ूला दलीलों से मालूम होता है कि बाज़ हज़रात से मुहब्बत इंसान पर वाजिब है जैसे:

1. ख़ुदा वंदे आलम की मुहब्बत

ख़ुदा वंदे आलम उन हज़रात में सरे फ़ेररिस्त है जिनकी मुहब्बत उसूलन वाजिब है क्योकि ख़ुदा वंदे आलम तमाम सिफ़ात कमाल व जमाल का मज़हर है और तमाम मौजूदात उसी के मोहताज हैं लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाया:

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ كَثِيرًا مِّنَ الْأَحْبَارِ وَالرُّهْبَانِ لَيَأْكُلُونَ أَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ اللَّـهِ ۗ وَالَّذِينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ فَبَشِّرْهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ

(सूर ए तौबा आयत 24)

पैग़म्बर , आप कह दीजिये कि अगर तुम्हारे बाप , दादा , औलाद , बिरादरान , अज़वाज , अशीरा व क़बीला और वह अमवाल जिन्हे तुमने जमा किया और वह तिजारत जिसके ख़सारे की तरफ़ से तुम फ़िक्र मंद रहते हो और वह मकानात जिन्हे पसंद करते हो , तुम्हारी निगाह में अल्लाह , उसके रसूल और राहे ख़ुदा में जिहाद से ज़्यादा महबूब हैं तो वक़्त का इंतेजार करो यहाँ तक कि अम्रे इलाही आ जाये और अल्लाह फ़ासिक़ क़ौम की हिदायत नही करता है।

2. रसूले अकरम (स) की मुहब्बत

ख़ुदा वंदे आलम की ख़ातिर रसूले अकरम (स) की मुहब्बत भी वाजिब है क्योकि आँ हज़रत (स) वास्ता ए फ़ैज़ हैं लिहाज़ा मज़कूरा आयत में ख़ुदा वंदे आलम के साथ आँ हज़रत (स) का भी ज़िक्र आया है और आपकी मुहब्बत का हुक्म हुआ है।

पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:

(मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 149)

ख़ुदा वंदे आलम से इस वजह से मुहब्बत करों कि वह तुम्हे रोज़ी देती है और मुझ से ख़ुदा की वजह से मुहब्बत करो।

आँ हज़रत (स) के फ़ज़ायल व मनाक़िब और कमालात भी उन असबाब में से हैं जिनकी वजह से इंसान उनकी तरफ़ मायल हो जाता है और आँ हज़रत (स) की मुहब्बत उसके दिल में पैदा हो जाती है।

3. अहले बैते पैग़म्बर (स)

जिन हज़रात की मुहब्बत वाजिब है उनमें से अहले बैते रसूले अकरम (स) भी हैं क्योकि उनके फ़ज़ायल व मनाक़िब और कमालात और वास्ता ए फ़ैज़ होने से कतए नज़र पैग़म्बरे अकरम (स) ने उनसे मुहब्बत का हुक्म दिया है , चुँनाचे गुज़श्ता हदीस (के ज़िम्न) में आँ हज़रत (स) इरशाद फ़रमाते हैं:

(और मेरे अहले बैत से मेरी मुहब्बत की वजह से मुहब्बत रखो।)

किन वुजूहात की बेना पर आले रसूल (स) से मुहब्बत की जाये ?

चूँकि पैग़म्बरे अकरम (स) की मुहब्बत वाजिब है , दर्ज जै़ल वुजूहात की बेना पर आले रसूले (स) से भी मुहब्बत वाजिब व लाज़िम है:

1. इन हज़रात का रिश्ता साहिबे रिसालत हज़रत मुहम्मद (स) से है लिहाज़ा रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: रोज़े क़यामत के दिन हर नसब और सबब ख़त्म हो जायेगा सिवाए मेरे नसब और सबब के।

2. अहले बैत (अ) ख़ुदा और रसूल (स) के महबूब हैं जैसा कि हदीसे इल्म और हदीसे तैर में इस बात की तरफ़ इशारा हो चुका है।

3. अहले बैत (अ) की मुहब्बत , अजरे रिसालत है जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَىٰ

(सूर ए शूरा आयत 23)

आप कह दिजीये कि मैं तुम से इस तबलीग़ का कोई अजर नही चाहता सिवाए इसके कि मेरे क़राबत दारों से मुहब्बत करो

4. रोज़े क़यामत आले रसूले (स) की मुहब्बत के बारे में सवाल किया जायेगा

(وَقِفُوهُمْ ۖ إِنَّهُم مَّسْئُولُونَ )

सिब्ते बिन जौज़ी ने मुजाहिद से यूँ नक़्ल किया है: क़यामत के दिन हज़रत अली (अ) की मुहब्बत के बारे में सवाल किया जायेगा। )

(सूर ए साफ़ात आयत 24)

(तज़किरतुल ख़वास पेज 10)

5. आले रसूल और मासूमीन (अ) , क़ुरआने मजीद के हम पल्ला हैं जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हदीस सक़लैन में इस चीज़ की तरफ़ इशारा किया है....हदीस

6. अहले बैत (अ) की मुहब्बत ईमान की शर्त है क्योकि शिया व सुन्नी किताबों में सही अहादीस बयान हुई हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से ख़िताब करते हु फ़रमाया: या अली , तुम्हे कोई दोस्त नही रखेगा मगर जो मोमिन होगा और तुम्हे कोई दुश्मन नही रखेगा मगर यह कि वह मुनाफ़िक़ होगा।

7. अहले बैत (अ) कश्ती ए निजात हैं जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:

مَثَلُ أهلِ بَيتي مَثَلُ سَفينَةِ نُوحٍ؛ مَن رَكِبَها نَجا و مَن تَخَلّفَ عَنها غَرِقَ

मेरे अहले बैत की मिसाल कश्ती ए नूह जैसी है कि जो उसमे सवार हो गया वह निजात पा गया और जिसने रू गरदानी की वह ग़र्क़ हो गया।

8. अहले बैत (अ) की मुहब्बत , आमाल और इबादात क़बूल होने के लिये ज़रूरी है क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से फ़रमाया: अगर मेरी उम्मत इतने रोज़े रखे कि उनकी कमर झुक जाये और पेट अंदर चले जायें और इतनी नमाज़ पढ़े कि रस्सी के मानिन्द हो जायें लेकिन अगर आप से दुश्मनी रखे तो ख़ुदा वंदे आलम उनको आतिशे जहन्नम में डाल देगा।

(तारिख़े दमिश्क़ जिल्द 12 पेज 143)

9. अहले बैत (अ) अहले ज़मीन के लिये अमान हैं जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: मेरे अहले बैत अहले ज़मीन के लिये अमान हैं।

क़ारेईने केराम , यह नुक्ता क़ाबिले तवज्जो है कि मुहब्बत एक मोटर की तरह है जो इंसान की की ताक़त को तहरीक करता है ताकि वह महबूब की तरफ़ और उसकी इक़्तेदा में परवाज़ करने के लिये तैयार हो जायें।

इन तमाम मतालिब के पेशे नज़र यह नतीजा हासिल होता है कि जश्न व महफ़िल मुनअक़िद करना अपने महबूब की मुहब्बत के जलवे हैं। क्योकि दूसरी तरफ हम जानते हैं कि लोगों में मुहब्बत के लिहाज़ से मुख़्तलिफ़ दर्जे होते हैं , दूसरी तरफ़ मुहब्बत का असर सिर्फ़ नफ़सियाती नही है बल्कि उसके असरात बाहर की दुनिया में भी दिखाई देते हैं। अलबत्ता उसका बेरुनी असर भी सिर्फ़ महबूब की इताअत और पैरवी में मुनहसिर नही है।जैसा कि बाज़ लोग कहते हैं) बल्कि उसके लिये दूसरे आसार और जलवे भी होते हैं कि मुहब्बत की दलीलों का इतलाक़ उन सबको शामिल होता है मगर यह कि दूसरी दलीलों से टकराव हो जाये। जैसे महबूब की मुहब्बत में किसी को क़त्ल करना।

इँसान की ज़िन्दगी में मुहब्बत के जलवे कुछ इस तरह होते हैं:

1. इताअत व पैरवी

2. महबूब की ज़ियारत

3. महबूब की ताज़ीम व तकरीम

4. महबूब की ज़रुरतों को पूरा करना

5. महबूब का दिफ़ाअ

6. महबूब के फ़िराक़ में हुज़्न व मलाल जैसे जनाबे याक़ूब (अ) फ़िरोक़े युसुफ़ में ग़म ज़दा थे।

7. महबूब की निशानियों की हिफ़ाज़त

8. महबूब की नस्ल और औलाद का ऐहतेराम

9. महबूब से मुताअल्लिक़ हर चीज़ को बोसा देना

10. महबूब के रोज़े पैदाईश पर जश्न व महफ़िल का मुनअक़िद करना

याद मनाना क़ुरआन की रौशनी में

क़ुरआने मजीद की आयात में ग़ौर व फिक्र करने से मालूम होता है कि किसी चीज़ की याद मनाना उन कामों में से एक है जिसकी ताईद क़ुरआने मजीद ने की है बल्कि उसकी तरफ़ रग़बत दिलाई है:

हज

1.हज से मुतअल्लिक़ आयात से यह नतीजा हासिल होता है कि उनमें से अकसर व बीशतर गुज़श्ता अंबिया व औलिया ए इलाही की याद मनाना है , जिसके चंद नमूने आपकी ख़िदमत में पेश किये जाते हैं:

अलिफ़. मक़ामे इब्रहीम (अ)

وَإِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَأَمْنًا وَاتَّخِذُوا مِن مَّقَامِ إِبْرَاهِيمَ مُصَلًّى

(सूर ए बक़रा आयत 125)

और मक़ामें इब्राहीम को मुसल्ला बनाओ।

ख़ुदा वंदे आलम हुक्म फ़रमाता है कि जनाबे इब्राहीम (अ) के क़दमों की जगह को मुतबर्रक मानें और उसको मुसल्ला क़रार दें ताकि जनाबे इब्राहीम (अ) और ख़ान ए काबा की तामीर की याद बाक़ी रहे।

बुख़ारी ने अपनी सही में नक़्ल किया है कि जिस वक़्त ख़ान ए काबा की तामीर के लिये जनाबे इस्माईल (अ) पत्थर उठा कर लाते और जनाबे इब्राहीम (अ) तामीर करते जाते थे यहाँ तक कि इमारत ऊची हो गई तो फिर एक (बड़ा) पत्थर लाया गया और जनाबे इब्राहीम (अ) उस पर खड़ो होकर तामीर करने लगे और इसी तरह उन दोनो ने ख़ान ए काबा की इमारत को मुकम्मल कर दिया।

(सही बुख़ारी किताबुल अंबिया जिल्द 2 पेज 158)

ब. सफ़ा व मरवा

ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِن شَعَآئِرِ اللّهِ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ أَوِ اعْتَمَرَ فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَا وَمَن تَطَوَّعَ خَيْراً فَإِنَّ اللّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ

बेशक सफ़ा व मरवा दोनों पहाड़ियाँ अल्लाह की निशानियों में से हैं लिहाज़ा जो शख़्स भी हज या उमरा करे उस के लिये कोई हरज नही है कि उन दोनो पहाड़ियों का तवाफ़ करे।

ख़ुदा वंदे आलम ने सफ़ा व मरवा के दरमियान सई को हज के अरकान में से क़रार दिया है ताकि सफ़ा व मरवा के दरमियान जनाबे हाजरा की कोशिश की याद ज़िन्दा रहे।

बुख़ारी में नक़्ल हुआ है: जब जनाबे इब्राहीम (अ) ने हाजरा और अपने बेटे इस्माईल को मक्के मे छोड़ दिया और (कुछ मुद्दत बाद) पानी ख़त्म हो गया और दोनो पर प्यास का ग़लबा हुआ , इस्माईल प्यास की शिद्दत की वजह से तड़पने लगे , उस वक़्त जनाबे हाजरा सफ़ा पहाड़ी पर गयीं ताकि अपन बेटे के लिये पानी तलाश करें और वहाँ किसी को देखें और उससे पानी तलब करें लेकिन मायूस होककर सफ़ा से नीचे उतरीं और तेज़ी से मरवा की तरफ़ चलीं , पहाड़ी पर चढ़ी ताकि कोई ऐसा मिल जाये जिससे पानी तलब कर सकें लेकिन वहाँ भी को न मिला , यहाँ तक कि इसी तरह सात बार सफ़ा व मरवा के दरमियान कोशिश की। इब्ने अब्बास पैग़म्बरे अकरम (स) से रिवायत नक़्ल करते हैं कि आपने फ़रमाया: इसी वजह से हज करने वाले सात बार सफ़ा व मरवा के दरमियान सई करते हैं।

जीम. क़ुर्बानी

ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है:

فَبَشَّرْنَاهُ بِغُلَامٍ حَلِيمٍ فَلَمَّا بَلَغَ مَعَهُ السَّعْيَ قَالَ يَا بُنَيَّ إِنِّي أَرَى فِي الْمَنَامِ أَنِّي أَذْبَحُكَ فَانظُرْ مَاذَا تَرَى قَالَ يَا أَبَتِ افْعَلْ مَا تُؤْمَرُ سَتَجِدُنِي إِن شَاءَ اللَّـهُ مِنَ الصَّابِرِينَ فَلَمَّا أَسْلَمَا وَتَلَّهُ لِلْجَبِينِ وَنَادَيْنَاهُ أَن يَا إِبْرَاهِيمُ قَدْ صَدَّقْتَ الرُّؤْيَا إِنَّا كَذَلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِينَ إِنَّ هَـذَا لَهُوَ الْبَلَاءُ الْمُبِينُ وَفَدَيْنَاهُ بِذِبْحٍ عَظِيمٍ

(सूर ए साफ़ात आयत 101 से 107)

फिर हमने उन्हे एक नेक दिल फ़रजंद की बशारत दी। फिर जब वह फ़रजंद उनके साथ दौड़ धूप करने के क़ाबिल हो गया तो उन्होने कहा: बेटा मैं ख़्वाब में देख रहा हूँ कि मैं तुम्हे ज़िब्ह कर रहा हूँ , अब तुम बताओ कि तुम्हारा क्या ख़्याल है ? फ़रंज़ंद ने जवाब दिया कि बाबा जो आपको हुक्म दिया जा रहा है आप उस पर अमल करें , इंशा अल्लाह आप मुझे सब्र करने वालों में से पायेगें। फिर जब दोनो ने सरे तसलीम ख़म कर दिया और बाप ने बेटे को माथे के बल लिटा दिया और हमने आवाज़ दी कि ऐ इब्राहीम तुमने अपने ख़्वाब सच कर दिखाया , हम इसी तरह अमल करने वालों को जज़ा देते हैं। बेशक यह बड़ा खुला हुआ इम्तेहान है और हमने उसका बदला एक अज़ीम क़ुर्बानी को क़रार दिया है।

ख़ुदा वंदे आलम ने उस फ़िदाकारी और क़ुर्बानी की वजह से हाजियों को हुक्म दिया कि मेना के मैदान में हज़रत इब्राहीम (अ) की पैरवी करें और उस अज़ीम अमल और इम्तेहाने बुज़ुर्ग की याद मनाने के लिये गोसफ़ंद ज़िब्ह करें।

द. रमिये जमरात

अहमद बिन हंबल और तियालसी अपनी मुसनद में रसूले ख़ुदा (स) से यूँ रिवायत करते हैं: जब जिबरईल जनाबे इब्राहीम को जमर ए उक़बा की तरफ़ लेकर चले , उस मौक़े पर शैतान उनके पास ज़ाहिर हुआ तो जनाबे इब्राहीम (अ) ने सात पत्थर फेंके कि शैतान की चीख निकल गई , उसके बाद जनाबे इब्राहीम (अ) जमर ए वुसता के पास आये तो वहाँ भी शैतान ज़ाहिर हुआ , आपने सात पत्थर मारे जिससे शैतान की चीख निकल गई , उसके बाद जनाबे इब्राहीम (अ) जमर ए क़सवा के पास आये एक बार फिर शैतान ज़ाहिर हुआ और जनाबे इब्राहीम (अ) ने सात पत्थर मारे यहाँ तक कि शैतान की चीख़ निकल गई।

(मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 306, मुसनदे अत तियालसी हदीस 2697)

क़ारेईने केराम , आपने मुशाहेदा फ़रमाया कि ख़ुदा वंदे आलम ने किस तरह इस याद को हाजियों के लिये वाजिब क़रार दिया ताकि इस वाक़ेया की याद को ताज़ा रखें।

2. ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

ذَلِكَ وَمَن يُعَظِّمْ شَعَائِرَ اللَّـهِ فَإِنَّهَا مِن تَقْوَى الْقُلُوبِ

(सूर ए हज आयत 32)

और यह हमारा फ़ैसला है और जो भी अल्लाह की निशानियों की ताज़ीम करेगा यह ताज़ीम उसके दिल के तक़वे का नतीजा होगी।

इस आय ए शरीफ़ा के ज़रिये इस्तिदलाल यह है कि शआयर शईर की जमा है जिसके मअना निशानी हैं और शआयरे इलाही यानी ख़ुदा और दीन की निशानियाँ , लिहाज़ा हर वह अमल जो लोगों को ख़ुदा और दीन की तरफ़ रहनुमाई करे वह शआयरे इलाही में शामिल है जिनमें से जश्ने ग़दीर का मुन्क़िद करना है जिसमें मोमिनीन , वली ए ख़ुदा (हज़रत अली (अ) के फ़ज़ायल व कमालात को सुन कर ख़ुदा से नज़दीक होते हैं।

3.ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

وَذَكِّرْهُم بِأَيَّامِ اللَّـهِ

और उन्हे ख़ुदाई दिनों की याद दिलायें।

(सूर इब्राहीम आयत 5)

मतलब यह है कि अय्यामुल्लाह बातिल पर हक़ के ग़लबे और हक़ के ज़ाहिर होने के दिन हैं जिनमें से एक रोज़े ग़दीरे है क्योकि उस रोज़ रसूले अकरम (स) ने अपना जानशीन मुअय्यन किया है ताकि आपके अहदाफ़ व मक़ासिद को आगे बढ़ा सकें।

4.ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद फ़रमाता है:

قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَى

आप कह दिजिये कि मैं तुम से इस तबलीग़े रिसालत का कोई अज्र नही चाहता सिवाए इस के कि मेरे क़राबत दारों से मुहब्बत करो।

(सूर ए शूरा आयत 23)

इस तरह हम जश्ने ग़दीर मुनअक़िद करके अजरे रिसालत का एक हिस्सा अदा करते हैं।

5.ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

क़सम है एक पहर चढ़े दिन की और क़सम है रात की जब वह चीज़ों की पर्दापोशी कर ले।

وَالضُّحَى وَاللَّيْلِ إِذَا سَجَى

(सूर ए ज़ुहा आयत 1,2)

हलबी अपनी किताब सीरये हलबिया में तहरीर करते हैं: ख़ुदा वंदे आलम इस आयत मे पैग़म्बरे अकरम (स) की शबे विलादत की क़सम खाता है। बाज़ लोगों का कहना है कि इससे मुराद शबे असरा है लेकिन दोनो की क़सम मुराद होने में भी कोई हरज नही है।

(सीरये हलबिया जिल्द 1 पेज 58)

रौशन है कि किसी चीज़ की क़सम खाना उसकी अहमियत की निशानी है लिहाज़ा क़सम के ज़रिये उसकी याद ज़हनों में ताज़ा की जा सकती है ताकि मोमिनीन उसका ऐहतेराम करें। इसी तरह जश्ने ग़दीर भी है।

6.ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) की नुसरत व मदद और ताज़ीम करने वालों की ताईद के सिलसिले में फ़रमाता है:

فَالَّذِينَ آمَنُوا بِهِ وَعَزَّرُوهُ وَنَصَرُوهُ وَاتَّبَعُوا النُّورَ الَّذِي أُنزِلَ مَعَهُ أُولَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ

पस जो लोग ईमान लाये उनका ऐहतेराम किया और उनकी इमदाद किया और उनके नूर का इत्तेबा किया जो उनके साथ नाज़िल हुआ है वही दर हक़ीक़त फ़लाह याफ़्ता औक कामयाब हैं।

(सूर ए आराफ़ आयात 157)

इस आयत में ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) की नुसरत व मदद और ताज़ीम करने वालों की तारीफ़ करते है और उनको निजात की बशारत देता है लिहाज़ा पैग़म्बरे अकरम (स) के रोज़े विलादत या रोज़े मबअस नीज़ रोज़े ग़दीरे ख़ुम जो आँ हज़रत (स) के जानशीनी का दिन है यह सब आँ हज़रत (स) की ताज़ीम व तकरीम नही तो और क्या है ?

7.ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) की शान में इरशाद फ़रमाता है:

فَإِذَا فَرَغْتَ فَانصَبْ

लिहाज़ा जब आप फ़ारिग़ हो जायें तो नस्ब कर दें।

(सूर ए इनशेराह आयत 7)

लिहाज़ा जश्ने ग़दीर मनाना लोगों में रसूले अकरम (स) और आपके जानशीन की निसबत लोगों की फ़िक्री सतह में बढ़ावा देना और ख़ुद आँ हज़रत (स) अज़मत को बयान करना है।

लेकिन अगर कोई यह ऐतेराज़ करे कि मज़कूरा आय ए शरीफ़ा के पेशे नज़र आँ हज़रत (स) की नुसरत , ताज़ीम और तकरीम ख़ुदा वंदे आलम से मख़्सूस है तो हम जवाब में अर्ज़ करते है कि ख़ुदा वंदे आलम एक दूसरी जगह पर इरशाद फ़रमाता है:

وَيَنصُرَكَ اللَّـهُ نَصْرًا عَزِيزًا

और ज़बरदस्त तरीक़े से आपकी मदद करे

(सूर ए फ़तह आयत 3)

क्या कोई इस सिलसिले में गुमान करे कि पैग़म्बरे अकरम (स) की नुसरत व मदद अल्लाह से मख़्सूस है और इस सिलसिले में हमारा कोई फ़र्ज़ नही है ?

8.इसी तरह ख़ुदा वंदे आलम एक दूसरी जगह इरशाद फऱमाता है:

وَكُلًّا نَّقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ أَنبَاءِ الرُّسُلِ مَا نُثَبِّتُ بِهِ فُؤَادَكَ وَجَاءَكَ فِي هَـذِهِ الْحَقُّ وَمَوْعِظَةٌ وَذِكْرَى لِلْمُؤْمِنِينَ

और हम गुज़श्ता रसूलों के वाक़ेयात आपसे बयान कर रहे हैं कि उनके ज़रिये आपके दिल को मज़बूत रखें।

(सूर ए हूद आयत 120)

इस आयत से यह बात अच्छी तरह से मालूम हो जाती है कि पैग़म्बरे अकरम (स) के लिये गुज़श्ता अंबिया के वाक़ेयात बयान करने की हिकमते आँ हज़रत (स) के दिल को सुकून पहुचाना है ताकि आप मुश्किलात और परेशानियों में साबित क़दम रहें और इसमें कोई शक नही है कि उस जम़ाने में साबित क़दम रहने की कितनी ज़रुरत थी लिहाज़ा इस बात की ज़रुरत है कि मख़्सूस दिनों जैसे रोज़े विलादते आँ हज़रत (स) या रोज़े मबअस या ईदे ग़दीर के मौक़े पर मोमिनीन को एक मुक़द्दस जगह पर जमा किया जाये और उनको उस रोज़ की फ़ज़ीलत से आशना किया जाये , नीज़ पैग़म्बरे अकरम (स) की सीरत उनके सामने बयान की जाये ताकि मोमिनीन के दिलों में दीने इलाही की निस्बत मुहब्बत में इज़ाफ़ा हो।