ग़दीर और वहदते इस्लामी

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ग़दीर और वहदते इस्लामी लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

ग़दीर और वहदते इस्लामी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी

ग़दीर और वहदते इस्लामी

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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जश्ने ग़दीर मुनअक़िद करना

मख़्सूस तारिख़ों और ख़ास हालातों में मुसलमानों के दरमियान अंजाम पाने वाले आमाल में से एक काम मख़्सूस दिनों में जश्न व महफ़िल मुनअक़िद करना है और यह काम इस रोज़ की अहमियत और अज़मत की वजह से होता है , चाहे रसूले अकरम (स) की बेसत का दिन हो या किसी इमाम की विलादत का दिन या कोई मख़्सूस मुनासेबत।

मुसलमान इन मुक़द्दस दिनों में मासूम (अ) से मानवी और रूहानी फ़ैज़ हासिल करने के लिये इस तरह की महाफ़िल मुनअक़िद करते हैं और उनके ज़रिये अज़ीम बरकतें हासिल करते हैं लेकिन अफ़सोस कि हमेशा से बह्हाबी लोग इन बरकतों से महरूम रहने के अलावा दूसरों को भी इस तरह की महफ़िल मुनअक़िद करने से रोकते हैं और इस तरीक़े से दुश्मनाने इस्लाम के मक़ासिद को पूरा करते हैं क्योकि दुश्मन कभी भी यह नही चाहता कि मुसलमान अपने मुक़द्देसात से दोबारा अहद व पैमान करते रहें। लिहाज़ा मौज़ू की अहमियत के पेशे नज़र इस सिलसिले में तहक़ीक़ करते हैं।

वह्हबियों के फ़तवे

इब्ने तैमिया का कहना है: दिनों की दूसरी क़िस्म वह दिन हैं जिनमें बाज़ वाक़ेयात रुनूमा हुए हैं जैसे 18 ज़िल हिज्जा और जैसा कि बाज़ लोग इस दिन ईद मनाते हैं जबकि कोई अस्ल और बुनियाद नही है , क्योकि असहाब और अहले बैत वग़ैरह ने इस दिन इस दिन को ईद क़रार नही दिया है , क्योकि ईज उस शरई हुक्म को कहा जाता है जिसकी पैरवी का हुक्म हुआ हो , न यह कि बिदअत ईजाद की जाये। यह काम ईसाईयों की तरह है जिन्होने हज़रत ईसा (अ) से मुताअल्लिक़ बाज़ वाक़ेयात के दिन ईद मनाना शुरु कर दिया।

शेख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ का कहना है: यह जायज़ नही है कि पैग़म्बर या किसी ग़ैर के लिये कोई महफ़िल मुनअक़िद की जाये और यह काम दीन में पैदा होने वाली बिदअतों में से है , क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) और ख़ुलाफ़ा ए राशेदीन नीज़ असहाब व ताबेईन ने ऐसा कोई काम अंजाम नही दिया है।

3. वहाबियत फ़तवा कमेटी के दायमी मिम्बरों का कहना है: यह जायज़ नही है कि अंबिया व सालेहीन के सोग में या उनके उनके रोज़े पैदाइश पर उनकी याद को ज़िन्दा करने के लिये महफ़िल व मजलिस मुनअक़िद की जाये और इसी तरह अलम उठाना और उनकी क़ब्रों पर शमा जलाना (भी जायज़ नही है) क्योकि यह तमाम चीज़ें दीन में ईजाद की गई बिदअतें और शिक्र है , पैग़म्बरे अकरम (स) गुज़श्ता अंबिया और सालेहीन ने इस तरह का कोई काम अंजाम नही दिया है। इस तरह शुरु की तीन सदियों में जो कि इस्लाम की बेहतरीन सदियाँ कहलाती हैं उनमें किसी सहाबी या मुसलमानों के इमाम ने यह अमल अँजान नही दिया है।

4. इब्ने फ़ौज़ान का कहना है: इस ज़माने में बहुत सी बिदअतें पैदा हो गई हैं जैसे माहे रबीउल अव्वल में पैग़म्बरे अकरम (स) की विलादत की मुनासेबत पर महफ़िल वग़ैरह मुनअक़िद करना।

5. इब्ने उसीमैन का कहना है: अपने बच्चो को रोज़े विलादत पर जश्न मनाना चूँकि दुश्मनाने ख़ुदा से मुशाबेहत रखता है और मुसलमानों के यहाँ यह काम नही होता था बल्कि ग़ैरों से हमारे यहाँ आया है , पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: जो शख़्स किसी (दूसरी) क़ौम के मुशाबेह होगा वह उसी क़ौम में श़ुमार किया जायेगा।

(इक़तेज़ाउल सिरातिल मुस्तक़ीम पेज 293, 295)

(मजमू ए फ़तावा व मक़ालाते मुतनव्व)

(अल लुजनतुल दायमा मिन फ़तवा रक़्म 1774)

(अल बिदअत , इब्ने फ़ौज़ान पेज 25, 27)

(फ़तावा मनारुल इस्लाम जिल्द 1 पेज 43)

जश्ने मुनअक़िद करना मुहब्बत की निशानी है

मुहब्बत व दुश्मनी दो ऐसी चीज़े हैं जो इँसान के अँदर क़रार दी गयीं हैं जिसको इँसान की चाहत और नफ़रत से ताबीर किया जाता है।

वुजूबे मुहब्बत

अक़्ली और मंक़ूला दलीलों से मालूम होता है कि बाज़ हज़रात से मुहब्बत इंसान पर वाजिब है जैसे:

1. ख़ुदा वंदे आलम की मुहब्बत

ख़ुदा वंदे आलम उन हज़रात में सरे फ़ेररिस्त है जिनकी मुहब्बत उसूलन वाजिब है क्योकि ख़ुदा वंदे आलम तमाम सिफ़ात कमाल व जमाल का मज़हर है और तमाम मौजूदात उसी के मोहताज हैं लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाया:

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ كَثِيرًا مِّنَ الْأَحْبَارِ وَالرُّهْبَانِ لَيَأْكُلُونَ أَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ اللَّـهِ ۗ وَالَّذِينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ فَبَشِّرْهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ

(सूर ए तौबा आयत 24)

पैग़म्बर , आप कह दीजिये कि अगर तुम्हारे बाप , दादा , औलाद , बिरादरान , अज़वाज , अशीरा व क़बीला और वह अमवाल जिन्हे तुमने जमा किया और वह तिजारत जिसके ख़सारे की तरफ़ से तुम फ़िक्र मंद रहते हो और वह मकानात जिन्हे पसंद करते हो , तुम्हारी निगाह में अल्लाह , उसके रसूल और राहे ख़ुदा में जिहाद से ज़्यादा महबूब हैं तो वक़्त का इंतेजार करो यहाँ तक कि अम्रे इलाही आ जाये और अल्लाह फ़ासिक़ क़ौम की हिदायत नही करता है।

2. रसूले अकरम (स) की मुहब्बत

ख़ुदा वंदे आलम की ख़ातिर रसूले अकरम (स) की मुहब्बत भी वाजिब है क्योकि आँ हज़रत (स) वास्ता ए फ़ैज़ हैं लिहाज़ा मज़कूरा आयत में ख़ुदा वंदे आलम के साथ आँ हज़रत (स) का भी ज़िक्र आया है और आपकी मुहब्बत का हुक्म हुआ है।

पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:

(मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 149)

ख़ुदा वंदे आलम से इस वजह से मुहब्बत करों कि वह तुम्हे रोज़ी देती है और मुझ से ख़ुदा की वजह से मुहब्बत करो।

आँ हज़रत (स) के फ़ज़ायल व मनाक़िब और कमालात भी उन असबाब में से हैं जिनकी वजह से इंसान उनकी तरफ़ मायल हो जाता है और आँ हज़रत (स) की मुहब्बत उसके दिल में पैदा हो जाती है।

3. अहले बैते पैग़म्बर (स)

जिन हज़रात की मुहब्बत वाजिब है उनमें से अहले बैते रसूले अकरम (स) भी हैं क्योकि उनके फ़ज़ायल व मनाक़िब और कमालात और वास्ता ए फ़ैज़ होने से कतए नज़र पैग़म्बरे अकरम (स) ने उनसे मुहब्बत का हुक्म दिया है , चुँनाचे गुज़श्ता हदीस (के ज़िम्न) में आँ हज़रत (स) इरशाद फ़रमाते हैं:

(और मेरे अहले बैत से मेरी मुहब्बत की वजह से मुहब्बत रखो।)

किन वुजूहात की बेना पर आले रसूल (स) से मुहब्बत की जाये ?

चूँकि पैग़म्बरे अकरम (स) की मुहब्बत वाजिब है , दर्ज जै़ल वुजूहात की बेना पर आले रसूले (स) से भी मुहब्बत वाजिब व लाज़िम है:

1. इन हज़रात का रिश्ता साहिबे रिसालत हज़रत मुहम्मद (स) से है लिहाज़ा रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: रोज़े क़यामत के दिन हर नसब और सबब ख़त्म हो जायेगा सिवाए मेरे नसब और सबब के।

2. अहले बैत (अ) ख़ुदा और रसूल (स) के महबूब हैं जैसा कि हदीसे इल्म और हदीसे तैर में इस बात की तरफ़ इशारा हो चुका है।

3. अहले बैत (अ) की मुहब्बत , अजरे रिसालत है जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَىٰ

(सूर ए शूरा आयत 23)

आप कह दिजीये कि मैं तुम से इस तबलीग़ का कोई अजर नही चाहता सिवाए इसके कि मेरे क़राबत दारों से मुहब्बत करो

4. रोज़े क़यामत आले रसूले (स) की मुहब्बत के बारे में सवाल किया जायेगा

(وَقِفُوهُمْ ۖ إِنَّهُم مَّسْئُولُونَ )

सिब्ते बिन जौज़ी ने मुजाहिद से यूँ नक़्ल किया है: क़यामत के दिन हज़रत अली (अ) की मुहब्बत के बारे में सवाल किया जायेगा। )

(सूर ए साफ़ात आयत 24)

(तज़किरतुल ख़वास पेज 10)

5. आले रसूल और मासूमीन (अ) , क़ुरआने मजीद के हम पल्ला हैं जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हदीस सक़लैन में इस चीज़ की तरफ़ इशारा किया है....हदीस

6. अहले बैत (अ) की मुहब्बत ईमान की शर्त है क्योकि शिया व सुन्नी किताबों में सही अहादीस बयान हुई हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से ख़िताब करते हु फ़रमाया: या अली , तुम्हे कोई दोस्त नही रखेगा मगर जो मोमिन होगा और तुम्हे कोई दुश्मन नही रखेगा मगर यह कि वह मुनाफ़िक़ होगा।

7. अहले बैत (अ) कश्ती ए निजात हैं जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:

مَثَلُ أهلِ بَيتي مَثَلُ سَفينَةِ نُوحٍ؛ مَن رَكِبَها نَجا و مَن تَخَلّفَ عَنها غَرِقَ

मेरे अहले बैत की मिसाल कश्ती ए नूह जैसी है कि जो उसमे सवार हो गया वह निजात पा गया और जिसने रू गरदानी की वह ग़र्क़ हो गया।

8. अहले बैत (अ) की मुहब्बत , आमाल और इबादात क़बूल होने के लिये ज़रूरी है क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से फ़रमाया: अगर मेरी उम्मत इतने रोज़े रखे कि उनकी कमर झुक जाये और पेट अंदर चले जायें और इतनी नमाज़ पढ़े कि रस्सी के मानिन्द हो जायें लेकिन अगर आप से दुश्मनी रखे तो ख़ुदा वंदे आलम उनको आतिशे जहन्नम में डाल देगा।

(तारिख़े दमिश्क़ जिल्द 12 पेज 143)

9. अहले बैत (अ) अहले ज़मीन के लिये अमान हैं जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: मेरे अहले बैत अहले ज़मीन के लिये अमान हैं।

क़ारेईने केराम , यह नुक्ता क़ाबिले तवज्जो है कि मुहब्बत एक मोटर की तरह है जो इंसान की की ताक़त को तहरीक करता है ताकि वह महबूब की तरफ़ और उसकी इक़्तेदा में परवाज़ करने के लिये तैयार हो जायें।

इन तमाम मतालिब के पेशे नज़र यह नतीजा हासिल होता है कि जश्न व महफ़िल मुनअक़िद करना अपने महबूब की मुहब्बत के जलवे हैं। क्योकि दूसरी तरफ हम जानते हैं कि लोगों में मुहब्बत के लिहाज़ से मुख़्तलिफ़ दर्जे होते हैं , दूसरी तरफ़ मुहब्बत का असर सिर्फ़ नफ़सियाती नही है बल्कि उसके असरात बाहर की दुनिया में भी दिखाई देते हैं। अलबत्ता उसका बेरुनी असर भी सिर्फ़ महबूब की इताअत और पैरवी में मुनहसिर नही है।जैसा कि बाज़ लोग कहते हैं) बल्कि उसके लिये दूसरे आसार और जलवे भी होते हैं कि मुहब्बत की दलीलों का इतलाक़ उन सबको शामिल होता है मगर यह कि दूसरी दलीलों से टकराव हो जाये। जैसे महबूब की मुहब्बत में किसी को क़त्ल करना।

इँसान की ज़िन्दगी में मुहब्बत के जलवे कुछ इस तरह होते हैं:

1. इताअत व पैरवी

2. महबूब की ज़ियारत

3. महबूब की ताज़ीम व तकरीम

4. महबूब की ज़रुरतों को पूरा करना

5. महबूब का दिफ़ाअ

6. महबूब के फ़िराक़ में हुज़्न व मलाल जैसे जनाबे याक़ूब (अ) फ़िरोक़े युसुफ़ में ग़म ज़दा थे।

7. महबूब की निशानियों की हिफ़ाज़त

8. महबूब की नस्ल और औलाद का ऐहतेराम

9. महबूब से मुताअल्लिक़ हर चीज़ को बोसा देना

10. महबूब के रोज़े पैदाईश पर जश्न व महफ़िल का मुनअक़िद करना

याद मनाना क़ुरआन की रौशनी में

क़ुरआने मजीद की आयात में ग़ौर व फिक्र करने से मालूम होता है कि किसी चीज़ की याद मनाना उन कामों में से एक है जिसकी ताईद क़ुरआने मजीद ने की है बल्कि उसकी तरफ़ रग़बत दिलाई है:

हज

1.हज से मुतअल्लिक़ आयात से यह नतीजा हासिल होता है कि उनमें से अकसर व बीशतर गुज़श्ता अंबिया व औलिया ए इलाही की याद मनाना है , जिसके चंद नमूने आपकी ख़िदमत में पेश किये जाते हैं:

अलिफ़. मक़ामे इब्रहीम (अ)

وَإِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَأَمْنًا وَاتَّخِذُوا مِن مَّقَامِ إِبْرَاهِيمَ مُصَلًّى

(सूर ए बक़रा आयत 125)

और मक़ामें इब्राहीम को मुसल्ला बनाओ।

ख़ुदा वंदे आलम हुक्म फ़रमाता है कि जनाबे इब्राहीम (अ) के क़दमों की जगह को मुतबर्रक मानें और उसको मुसल्ला क़रार दें ताकि जनाबे इब्राहीम (अ) और ख़ान ए काबा की तामीर की याद बाक़ी रहे।

बुख़ारी ने अपनी सही में नक़्ल किया है कि जिस वक़्त ख़ान ए काबा की तामीर के लिये जनाबे इस्माईल (अ) पत्थर उठा कर लाते और जनाबे इब्राहीम (अ) तामीर करते जाते थे यहाँ तक कि इमारत ऊची हो गई तो फिर एक (बड़ा) पत्थर लाया गया और जनाबे इब्राहीम (अ) उस पर खड़ो होकर तामीर करने लगे और इसी तरह उन दोनो ने ख़ान ए काबा की इमारत को मुकम्मल कर दिया।

(सही बुख़ारी किताबुल अंबिया जिल्द 2 पेज 158)

ब. सफ़ा व मरवा

ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِن شَعَآئِرِ اللّهِ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ أَوِ اعْتَمَرَ فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَا وَمَن تَطَوَّعَ خَيْراً فَإِنَّ اللّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ

बेशक सफ़ा व मरवा दोनों पहाड़ियाँ अल्लाह की निशानियों में से हैं लिहाज़ा जो शख़्स भी हज या उमरा करे उस के लिये कोई हरज नही है कि उन दोनो पहाड़ियों का तवाफ़ करे।

ख़ुदा वंदे आलम ने सफ़ा व मरवा के दरमियान सई को हज के अरकान में से क़रार दिया है ताकि सफ़ा व मरवा के दरमियान जनाबे हाजरा की कोशिश की याद ज़िन्दा रहे।

बुख़ारी में नक़्ल हुआ है: जब जनाबे इब्राहीम (अ) ने हाजरा और अपने बेटे इस्माईल को मक्के मे छोड़ दिया और (कुछ मुद्दत बाद) पानी ख़त्म हो गया और दोनो पर प्यास का ग़लबा हुआ , इस्माईल प्यास की शिद्दत की वजह से तड़पने लगे , उस वक़्त जनाबे हाजरा सफ़ा पहाड़ी पर गयीं ताकि अपन बेटे के लिये पानी तलाश करें और वहाँ किसी को देखें और उससे पानी तलब करें लेकिन मायूस होककर सफ़ा से नीचे उतरीं और तेज़ी से मरवा की तरफ़ चलीं , पहाड़ी पर चढ़ी ताकि कोई ऐसा मिल जाये जिससे पानी तलब कर सकें लेकिन वहाँ भी को न मिला , यहाँ तक कि इसी तरह सात बार सफ़ा व मरवा के दरमियान कोशिश की। इब्ने अब्बास पैग़म्बरे अकरम (स) से रिवायत नक़्ल करते हैं कि आपने फ़रमाया: इसी वजह से हज करने वाले सात बार सफ़ा व मरवा के दरमियान सई करते हैं।

जीम. क़ुर्बानी

ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है:

فَبَشَّرْنَاهُ بِغُلَامٍ حَلِيمٍ فَلَمَّا بَلَغَ مَعَهُ السَّعْيَ قَالَ يَا بُنَيَّ إِنِّي أَرَى فِي الْمَنَامِ أَنِّي أَذْبَحُكَ فَانظُرْ مَاذَا تَرَى قَالَ يَا أَبَتِ افْعَلْ مَا تُؤْمَرُ سَتَجِدُنِي إِن شَاءَ اللَّـهُ مِنَ الصَّابِرِينَ فَلَمَّا أَسْلَمَا وَتَلَّهُ لِلْجَبِينِ وَنَادَيْنَاهُ أَن يَا إِبْرَاهِيمُ قَدْ صَدَّقْتَ الرُّؤْيَا إِنَّا كَذَلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِينَ إِنَّ هَـذَا لَهُوَ الْبَلَاءُ الْمُبِينُ وَفَدَيْنَاهُ بِذِبْحٍ عَظِيمٍ

(सूर ए साफ़ात आयत 101 से 107)

फिर हमने उन्हे एक नेक दिल फ़रजंद की बशारत दी। फिर जब वह फ़रजंद उनके साथ दौड़ धूप करने के क़ाबिल हो गया तो उन्होने कहा: बेटा मैं ख़्वाब में देख रहा हूँ कि मैं तुम्हे ज़िब्ह कर रहा हूँ , अब तुम बताओ कि तुम्हारा क्या ख़्याल है ? फ़रंज़ंद ने जवाब दिया कि बाबा जो आपको हुक्म दिया जा रहा है आप उस पर अमल करें , इंशा अल्लाह आप मुझे सब्र करने वालों में से पायेगें। फिर जब दोनो ने सरे तसलीम ख़म कर दिया और बाप ने बेटे को माथे के बल लिटा दिया और हमने आवाज़ दी कि ऐ इब्राहीम तुमने अपने ख़्वाब सच कर दिखाया , हम इसी तरह अमल करने वालों को जज़ा देते हैं। बेशक यह बड़ा खुला हुआ इम्तेहान है और हमने उसका बदला एक अज़ीम क़ुर्बानी को क़रार दिया है।

ख़ुदा वंदे आलम ने उस फ़िदाकारी और क़ुर्बानी की वजह से हाजियों को हुक्म दिया कि मेना के मैदान में हज़रत इब्राहीम (अ) की पैरवी करें और उस अज़ीम अमल और इम्तेहाने बुज़ुर्ग की याद मनाने के लिये गोसफ़ंद ज़िब्ह करें।

द. रमिये जमरात

अहमद बिन हंबल और तियालसी अपनी मुसनद में रसूले ख़ुदा (स) से यूँ रिवायत करते हैं: जब जिबरईल जनाबे इब्राहीम को जमर ए उक़बा की तरफ़ लेकर चले , उस मौक़े पर शैतान उनके पास ज़ाहिर हुआ तो जनाबे इब्राहीम (अ) ने सात पत्थर फेंके कि शैतान की चीख निकल गई , उसके बाद जनाबे इब्राहीम (अ) जमर ए वुसता के पास आये तो वहाँ भी शैतान ज़ाहिर हुआ , आपने सात पत्थर मारे जिससे शैतान की चीख निकल गई , उसके बाद जनाबे इब्राहीम (अ) जमर ए क़सवा के पास आये एक बार फिर शैतान ज़ाहिर हुआ और जनाबे इब्राहीम (अ) ने सात पत्थर मारे यहाँ तक कि शैतान की चीख़ निकल गई।

(मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 306, मुसनदे अत तियालसी हदीस 2697)

क़ारेईने केराम , आपने मुशाहेदा फ़रमाया कि ख़ुदा वंदे आलम ने किस तरह इस याद को हाजियों के लिये वाजिब क़रार दिया ताकि इस वाक़ेया की याद को ताज़ा रखें।

2. ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

ذَلِكَ وَمَن يُعَظِّمْ شَعَائِرَ اللَّـهِ فَإِنَّهَا مِن تَقْوَى الْقُلُوبِ

(सूर ए हज आयत 32)

और यह हमारा फ़ैसला है और जो भी अल्लाह की निशानियों की ताज़ीम करेगा यह ताज़ीम उसके दिल के तक़वे का नतीजा होगी।

इस आय ए शरीफ़ा के ज़रिये इस्तिदलाल यह है कि शआयर शईर की जमा है जिसके मअना निशानी हैं और शआयरे इलाही यानी ख़ुदा और दीन की निशानियाँ , लिहाज़ा हर वह अमल जो लोगों को ख़ुदा और दीन की तरफ़ रहनुमाई करे वह शआयरे इलाही में शामिल है जिनमें से जश्ने ग़दीर का मुन्क़िद करना है जिसमें मोमिनीन , वली ए ख़ुदा (हज़रत अली (अ) के फ़ज़ायल व कमालात को सुन कर ख़ुदा से नज़दीक होते हैं।

3.ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

وَذَكِّرْهُم بِأَيَّامِ اللَّـهِ

और उन्हे ख़ुदाई दिनों की याद दिलायें।

(सूर इब्राहीम आयत 5)

मतलब यह है कि अय्यामुल्लाह बातिल पर हक़ के ग़लबे और हक़ के ज़ाहिर होने के दिन हैं जिनमें से एक रोज़े ग़दीरे है क्योकि उस रोज़ रसूले अकरम (स) ने अपना जानशीन मुअय्यन किया है ताकि आपके अहदाफ़ व मक़ासिद को आगे बढ़ा सकें।

4.ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद फ़रमाता है:

قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَى

आप कह दिजिये कि मैं तुम से इस तबलीग़े रिसालत का कोई अज्र नही चाहता सिवाए इस के कि मेरे क़राबत दारों से मुहब्बत करो।

(सूर ए शूरा आयत 23)

इस तरह हम जश्ने ग़दीर मुनअक़िद करके अजरे रिसालत का एक हिस्सा अदा करते हैं।

5.ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

क़सम है एक पहर चढ़े दिन की और क़सम है रात की जब वह चीज़ों की पर्दापोशी कर ले।

وَالضُّحَى وَاللَّيْلِ إِذَا سَجَى

(सूर ए ज़ुहा आयत 1,2)

हलबी अपनी किताब सीरये हलबिया में तहरीर करते हैं: ख़ुदा वंदे आलम इस आयत मे पैग़म्बरे अकरम (स) की शबे विलादत की क़सम खाता है। बाज़ लोगों का कहना है कि इससे मुराद शबे असरा है लेकिन दोनो की क़सम मुराद होने में भी कोई हरज नही है।

(सीरये हलबिया जिल्द 1 पेज 58)

रौशन है कि किसी चीज़ की क़सम खाना उसकी अहमियत की निशानी है लिहाज़ा क़सम के ज़रिये उसकी याद ज़हनों में ताज़ा की जा सकती है ताकि मोमिनीन उसका ऐहतेराम करें। इसी तरह जश्ने ग़दीर भी है।

6.ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) की नुसरत व मदद और ताज़ीम करने वालों की ताईद के सिलसिले में फ़रमाता है:

فَالَّذِينَ آمَنُوا بِهِ وَعَزَّرُوهُ وَنَصَرُوهُ وَاتَّبَعُوا النُّورَ الَّذِي أُنزِلَ مَعَهُ أُولَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ

पस जो लोग ईमान लाये उनका ऐहतेराम किया और उनकी इमदाद किया और उनके नूर का इत्तेबा किया जो उनके साथ नाज़िल हुआ है वही दर हक़ीक़त फ़लाह याफ़्ता औक कामयाब हैं।

(सूर ए आराफ़ आयात 157)

इस आयत में ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) की नुसरत व मदद और ताज़ीम करने वालों की तारीफ़ करते है और उनको निजात की बशारत देता है लिहाज़ा पैग़म्बरे अकरम (स) के रोज़े विलादत या रोज़े मबअस नीज़ रोज़े ग़दीरे ख़ुम जो आँ हज़रत (स) के जानशीनी का दिन है यह सब आँ हज़रत (स) की ताज़ीम व तकरीम नही तो और क्या है ?

7.ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) की शान में इरशाद फ़रमाता है:

فَإِذَا فَرَغْتَ فَانصَبْ

लिहाज़ा जब आप फ़ारिग़ हो जायें तो नस्ब कर दें।

(सूर ए इनशेराह आयत 7)

लिहाज़ा जश्ने ग़दीर मनाना लोगों में रसूले अकरम (स) और आपके जानशीन की निसबत लोगों की फ़िक्री सतह में बढ़ावा देना और ख़ुद आँ हज़रत (स) अज़मत को बयान करना है।

लेकिन अगर कोई यह ऐतेराज़ करे कि मज़कूरा आय ए शरीफ़ा के पेशे नज़र आँ हज़रत (स) की नुसरत , ताज़ीम और तकरीम ख़ुदा वंदे आलम से मख़्सूस है तो हम जवाब में अर्ज़ करते है कि ख़ुदा वंदे आलम एक दूसरी जगह पर इरशाद फ़रमाता है:

وَيَنصُرَكَ اللَّـهُ نَصْرًا عَزِيزًا

और ज़बरदस्त तरीक़े से आपकी मदद करे

(सूर ए फ़तह आयत 3)

क्या कोई इस सिलसिले में गुमान करे कि पैग़म्बरे अकरम (स) की नुसरत व मदद अल्लाह से मख़्सूस है और इस सिलसिले में हमारा कोई फ़र्ज़ नही है ?

8.इसी तरह ख़ुदा वंदे आलम एक दूसरी जगह इरशाद फऱमाता है:

وَكُلًّا نَّقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ أَنبَاءِ الرُّسُلِ مَا نُثَبِّتُ بِهِ فُؤَادَكَ وَجَاءَكَ فِي هَـذِهِ الْحَقُّ وَمَوْعِظَةٌ وَذِكْرَى لِلْمُؤْمِنِينَ

और हम गुज़श्ता रसूलों के वाक़ेयात आपसे बयान कर रहे हैं कि उनके ज़रिये आपके दिल को मज़बूत रखें।

(सूर ए हूद आयत 120)

इस आयत से यह बात अच्छी तरह से मालूम हो जाती है कि पैग़म्बरे अकरम (स) के लिये गुज़श्ता अंबिया के वाक़ेयात बयान करने की हिकमते आँ हज़रत (स) के दिल को सुकून पहुचाना है ताकि आप मुश्किलात और परेशानियों में साबित क़दम रहें और इसमें कोई शक नही है कि उस जम़ाने में साबित क़दम रहने की कितनी ज़रुरत थी लिहाज़ा इस बात की ज़रुरत है कि मख़्सूस दिनों जैसे रोज़े विलादते आँ हज़रत (स) या रोज़े मबअस या ईदे ग़दीर के मौक़े पर मोमिनीन को एक मुक़द्दस जगह पर जमा किया जाये और उनको उस रोज़ की फ़ज़ीलत से आशना किया जाये , नीज़ पैग़म्बरे अकरम (स) की सीरत उनके सामने बयान की जाये ताकि मोमिनीन के दिलों में दीने इलाही की निस्बत मुहब्बत में इज़ाफ़ा हो।

जश्न और याद मनाना , हदीस की रौशनी में

मुतअद्दिद रिवायात की रौशनी में इस तरह के जश्न और महफ़िल के जवाज़ को साबित किया जा सकता है:

1. मुस्लिम ने इब्ने क़तादा से नक़्ल किया है कि जब रसूले अकरम (स) से यह सवाल किया गया कि पीर के दिन रोज़ा रखना मुसतहब क्यों हैं ? तो आपने फ़रमाया: उसकी वजह यह है कि मैं उस रोज़ पैदा हुआ हूँ और उसी रोज़ मुझ पर क़ुरआने मजीद नाज़िल हुआ है।

2. मुस्लिम इब्ने अब्बास से रिवायत करते है कि जब रसूले अकरम (स) मदीने में वारिद हुए तो देखा कि यहूदी रोज़े आशूरा को रोज़ा रखते हैं , उनसे इस काम की वजह मालूम की गई तो उन्होने कहा: यह वह रोज़ा है जिसमें ख़ुदा वंदे आलम ने बनी इस्राईल को फ़िरऔन पर कामयाबी दी है लिहाज़ा हम उस दिन का ऐहतेराम करते हैं , उस मौक़े रक पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: हम इस अमल के ज़्यादा मुसतहिक़ है। लिहाज़ा आपने हुक्म दिया कि रोज़े आशूर का रोज़ा रखा करें।

अल्लामा सुयूती की नक़्ल के मुताबिक़ इब्ने हजर असक़लानी इस हदीस के ज़रिये पैग़म्बरे अकरम (स) के रोज़े विलादत पर जश्न मनाने पर इस्तिदलाल करते हैं।

(सही मुस्लिम जिल्द 2 पेज 819)

(सही मुस्लिम हदीस 130, सही बुख़ारी जिल्द 7 पेज 215)

(अलहावी लिल फ़तावा जिल्द 1 पेज 196)

3. हाफ़िज़ बिन नासिरुद्दीन दमिश्क़ी रिवायत करते हैं: सही तरीक़े से बयान हुआ है कि पीर के रोज़ अबू लहब ने अज़ाब मे कमी हो जाती थी क्योकि उसने पैग़म्बरे अकरम (स) को रोज़े विलादत पर ख़ुश हो कर अपनी कनीज़ सौबिया को आज़ाद कर दिया था।

क़ारेई मोहतरम , गुज़श्ता रिवायत के ज़रिये ब तरीक़े औला यह नतीजा हासिल होता है कि आँ हज़रत (स) के रोज़े विलादत पर जश्न मनाना और आँ हज़रत (स) की याद मनाना जायज़ है।

4. बैहक़ी , अनस बिन मालिक से यूँ रिवायत करते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपनी नुबूवत के बाद अपने तरफ़ से एक गोसफ़ंद का अक़ीक़ा किया , जबकि रिवायात में भी वारिद हुआ है कि अबू तालिब ने आपकी विलादत के साँतवें दिन आपके अक़ीक़े में एक गोसफ़ंद ज़िब्ह किया था।

सुयूती कहते हैं: दूसरी मर्तबा अक़ीक़ा नही किया जा सकता लिहाज़ा पैग़म्बरे अकरम (स) के इस अमल को इस बात पर हम्ल करें कि आँ हजरत (स) ने इस चीज़ का शुक्रिया अदा करते हुए अक़ीक़ा किया कि मैं ख़ुदा वंदे आलम ने उनको ख़ल्क़ फ़रमाया और दोनो आलम के लिये रहमत बना कर भेजा , जैसा कि आँ हज़रत (स) ने ख़ुद अपने ऊपर दुरुद भेजे थे , इसी वजह से मुसतहब है कि हम भी ख़ुदा की बारगाह में शुक्रे इलाही को बजा लाने के लिये आपके रोज़े विलादत पर इजतेमाअ करें , खाना खिलाये और मिठाई तक़सीम करें जिनकी वजह से ख़ुदा की क़ुरबत हासिल होती है।

5. तिरमिज़ी ने पैग़म्बरे अकरम (स) से नक़्ल किया है कि आँ हज़रत (स) ने जुमे के दिन के रोज़े की फ़ज़ीलत के बारे में फ़रमाया: उस रोज़ जनाबे आदम (अ) ख़ल्क़ हुए हैं।

(मैरिदुस सादी फ़ी मौलिदिन नबी)

(अलहावी जिल्द 1 पेज 196)

(अलहावी जिल्द 1 पेज 196)

(सही तिरमिज़ी हदीस 491)

क़ारेईने मोहतरम , इन अहादीस से यह नतीजा हासिल होता है कि बाज़ दिन फ़ज़ीलत रखते हैं जिनमें ख़ास और मुबारक वाक़ेयात पेश आये हैं। लिहाज़ा उस रोज़ की तो बड़ी अहमियत होनी चाहिये जिसमें पैग़म्बरे अकरम (स) पैदा हुए या जिस रोज़ आपने (ग़दीरे ख़ुम) में अपना जानशीन मुअय्यन किया।

जश्न मनाने के फ़वायद

जश्न व महफ़िल मुनअक़िद करने और औलिया ए इलाही की याद मनाने में बहुत सी बरकतें और फ़वायद हैं जिनमें से चंद चीज़ों की तरफ़ इशारा किया जाता है:

1. इस तरह के जश्न व महफ़िल में मोमिनीन अपने दीन व मज़हब की बुनियाद रखने वालों से दोबारा अहद व पैमान बाँधते हैं कि उनकी राह को आगे बढ़ायेगें और उनके अंदर यह अहसास पैदा होता है कि हमें अपने अज़ीम इमाम और मुक़तदा की राह पर कदम बढ़ाना चाहिये।

2. उनसे मुहब्बत के इज़हार और बातिनी राब्ते के ज़रिये उन हज़रात के मअनवी फ़ैज़ और बरकतों से बहरा मंद होना।

3. शिया उन महफ़िलों के ज़रिये दर हक़ीक़त अपने दुश्मनों को पैग़ाम देते है कि हमारे मौला व रहबर अली (अ) हैं। वह ज़ुल्मे सतीज़ और ज़ुल्म का मुक़ाबला करने वाले थे , वह अहकामे इलाही को नाफ़िज़ करने में किसी की रिआयत नही करते थे वग़ैरह वग़ैरह लिहाज़ा हम भी उसी रास्ते पर चलते हैं और उन्ही की पैरवी करते हैं।

4. हर साल उस रोज़ पैग़म्बरे अकरम (स) और औलिया ए इलाही को याद करके उनकी निस्बत मुहब्बत में इज़ाफ़ा होता है।

5. इन महफ़िलों में उन हज़रात के बाज़ फ़ज़ायल व कमालात की तौज़ीह व तशरीह की जाती है और मोमिनीन उनकी पैरवी करते हुए ख़ुदा वंदे आलम से नज़दीक होते हैं।

6. ख़ुशी व मुसर्रत के इज़हार से पैग़म्बरे अकरम (स) और औलिया ए इलाही के ईमान का इज़हार करके उसको मुसतहकम करते हैं।

7. जश्न व महफ़िल के आख़िर में मिठाई या खाना खिलाने से सवाबे इतआम से बहरा मंद होते हैं और बाज़ ग़रीबों को इस तरह के जश्न से माद्दी फ़ायदा होता है।

8. इस तरह की महफ़िलों में ख़ुदा की याद ज़िन्दा होती है और क़ुरआनी आयात की तिलावत होती है।

9. ऐसे मवाक़े पर मोमिनीन पैग़म्बरे अकरम (स) पर बहुत ज़्यादा दुरुद व सलाम भेजते हैं।

10. ऐसे मवाक़े पर लोगों को ख़ुदा और उसके अहकाम की तरफ़ दावत देने का बेहतरीन मौक़ा होता है।

इस्लाम में ईदे ग़दीर की अहमियत

जिस चीज़ ने वाक़ेया ए ग़दीर के जावेदाना क़रार दिया और उसकी हक़ीक़त को साबित किया है वह उस रोज़ का ईद क़रार पाना है। रोज़े ग़दीर ईद शुमार होती है और उसके शब व रोज़ में इबादत , ख़ुशू व ख़ुज़ू , जश्न और ग़रीबों के साथ नेकी नीज़ ख़ानदान में आमद व रफ़्त होती है और मोमिनीन इस जश्न में अच्छे कपड़े पहनते और ज़ीनत करते हैं।

जब मोमिनीन ऐसे कामों की तरफ़ राग़िब हों तो उनके असबाब की तरफ़ की तरफ़ मुतवज्जेह होकर उसके रावियों की तहक़ीक़ करते हैं और उस वाक़ेया को नक़्ल करते हैं , अशआऱ पढ़ते हैं , जिसकी वजह से हर साल जवान नस्ल की मालूमात में इज़ाफ़ा होता है और हमेशा उस वाक़ेया की सनद और उससे मुताअल्लिक़ अहादीस पढ़ी जाती है , जिसकी बेना पर वह हमेशगी बन जाती हैं। रोज़े ग़दीर से मुतअल्लिक़ दो तरह की बहस की जा सकती है:

1. शियों से मख़्सूस न होना

यह ईद सिर्फ़ शियों से मख़्सूस नही है। अगर चे उसकी निस्बत शिया ख़ास अहमियत रखते हैं , मुसलमानों के दीगर फ़िरके भी ईदे ग़दीर में शियों के साथ शरीक हैं , ग़ैर शिया उलामा ने भी उस रोज़ की फ़ज़ीलत और पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ से हज़रत अली (अ) के मक़ामे विलायत पर फ़ायज़ होने की वजह से ईद क़रार देने के सिलसिले में गुफ़्तुगू की है क्योकि यह दिन हज़रत अली (अ) के चाहने वालों के लिये ख़ुशी व मुसर्रत का दिन है चाहे आपको आँ हज़रत (स) का बिला फ़स्ल ख़लीफ़ा मानते हों या चौथा ख़लीफ़ा।

बैरनी आसारुल बाक़िया में रोज़े ग़दीर को उन दिनों में शुमार करते हैं जिसको मुसलमानों ने ईद क़रार दिया है।

इब्ने तलहा शाफ़ेई कहते हैं: हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) ने अपने अशआर में रोज़े ग़दीरे ख़ुम का ज़िक्र किया है और उस रोज़ को ईद शुमार किया है क्योकि उस रोज़ में रसूले इस्लाम (स) ने आपको अपना जानशीन मंसूब किया और तमाम मख़लूक़ात पर फ़ज़ीलत दी है।

(अल आसारुल बाक़िया फ़िल क़ुरुनिल ख़ालिया पेज 334)

(मतालिबुस सुऊल पेज 53)

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: लफ़्ज़े मौला का जो मअना भी रसूले अकरम (स) के लिये साबित करना मुमकिन हो वही हज़रत अली (अ) के लिये भी मुअय्यन है और यह एक बुलंद मर्तबा , अज़ीम मंज़िलत , बुलंद दर्जा और रफ़ीअ मक़ाम है जो पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से मख़्सूस किया , लिहाज़ा औलिया ए इलाही के नज़दीक यह दिन ईद और मुसर्रत का रोज़ क़रार पाया है।

तारिख़ी कुतुब से यह नतीजा हासिल होता है कि उम्मते इस्लामिया मशरिक़ व मग़रिब में उस दिन के ईद होने पर मुत्तफ़िक़ है , मिस्री , मग़रबी और इराक़ी (ईरानी , हिन्दी) उस रोज़ की अज़मत के क़ायल है और उनके नज़दीक रोज़े ग़दीर नमाज़ , दुआ , खुतबा और मदह सराई का मुअय्यन दिन है और उस रोज़ के ईद होने पर उन लोगों का इत्तेफ़ाक़ है।

इब्ने ख़ल्लक़ान कहत हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) हुज्जतुल विदा में मक्के से वापसी में जब ग़दीरे ख़ुम पहुचे , अपने और अली के दरमियान अक़्दे उख़ूवत पढ़ा और उनको अपने लिये मूसा के नज़दीक हारुन की तरह क़रार दिया और फ़रमाया: ख़ुदाया , जो उनकी विलायत को क़बूल करे उसको दोस्त रख और जो उनकी विलायत के तहत न आये और उनसे दुश्मनी करे उसको दुश्मन रख और उनके नासिरों का मदद गार हो जा और उनको ज़लील करने वालों को रुसवा कर दे और शिया उस रोज़ को ख़ास अहमियत देते हैं।

मसऊदी ने इब्ने ख़ल्लक़ान की गुफ़्तुगू की ताईद की है , चुँनाचे मौसूफ़ कहते हैं: औलादे अली (अ) और उनके शिया उस रोज़ की याद मनाते हैं।

सआलबी , शबे ग़दीर को उम्मते इस्लामिया के नज़दीक मशहूर शबों में शुमार करते हुए कहते हैं: यह वह शब है जिसकी कल में पैग़म्बरे अकरम (स) ने ग़दीरे ख़ुम में ऊटों के कजावों के मिम्बर पर एक ख़ुतबा दिया और फ़रमाया:

और शियों ने उस शब को मोहतरम शुमार किया है और वह इस रात में इबादत और शब बेदारी करते हैं।

(मतालिबुस सुऊल पेज 56)

(वफ़यातुल आयान इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पेज 60 व जिल्द 2 पेज 223)

(वफ़यातुल आयान इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पेज 60 व जिल्द 2 पेज 223 )

(अत तंबीह वल इशराफ़ मसऊदी पेज 221)

(सेमारुल क़ुलूब सआलबी पेज 511)

2. ईदे ग़दीर की इब्तेदा

तारीख़ की वरक़ गरदानी से यह मालूम होता है कि इस अज़ीम ईद की इब्तेदा पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने से हुई है। इसकी शुरुआत उस वक़्त हुईजब पैग़म्बरे अकरम (स) ने ग़दीर के सहरा में ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से हज़रत अली (अ) को इमामत व विलायत के लिये मंसूब किया। जिसकी बेना पर उस रोज़ हर मोमिन शाद व मसरुर हो गया और हज़रत अली (अ) के पास आकर मुबारक बाद पेश की। मुबारक बाद पेश करने वालों में उमर व अबू बक्र भी हैं जिनकी तरफ़ पहले इशारा किया जा चुका है और इस वाक़ेया को अहम क़रार देते हुए और उस मुबारक बाद की वजह से हस्सान बिन साबित और क़ैस बिन साद बिन ओबाद ए अंसारी वग़ैरह ने इस वाक़ेया को अपने अशआर में बयान किया है।

ग़दीर के पैग़ामात

उस ज़माने में बाज़ अफ़राद ग़दीर के पैग़मात को इस्लामी मुआशरे में नाफ़िज़ करना चाहते थे। लिहा़ज़ा मुनासिब है कि इस मौज़ू की अच्छी तरह से तहक़ीक़ की जाये कि ग़दीरे ख़ुम के पैग़ामात क्या क्या हैं ? क्या उसके पैग़ामात रसूले अकरम (स) की हयाते मुबारक के बाद के ज़माने से मख़्सूस हैं या रोज़े तक उन पर अमल किया जा सकता है ? अब हम यहाँ पर ग़दीरे पैग़ाम और नुकात की तरफ़ इशारा करते हैं जिनकी याद दहानी जश्न और महफ़िल के मौक़े पर कराना ज़रुरी है:

1. हर पैग़म्बर के बाद एक ऐसी मासूम शख़्सियत को होना ज़रुरी है जो उसके रास्ते को आगे बढ़ाये और उसके अग़राज़ व मक़ासिद को लोगों तक पहुचाये और कम से कम दीन व शरीयत के अरकान और मजमूए की पासदारी करे जैसा कि रसूले अकरम (स) ने अपने बाद के लिये जानशीन मुअय्यन किया और हमारे ज़माने में ऐसी शख़्सियत हज़रत इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम हैं।

2. अंबिया (अ) का जानशीन ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ मंसूब होना चाहिये जिनका तआरुफ़ पैग़म्बर के ज़रिये होता है जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने बाद के लिये अपना जानशीन मुअय्यन किया , क्योकि मक़ामे इमामत एक इलाही मंसब है और हर इमाम ख़ुदा वंदे की तरफ़ से ख़ास ता आम तरीक़े से मंसूब होता है।

3. ग़दीर के पैग़ामात में से एक मसअला रहबरी और उसके सिफ़ात व ख़ुसूसियात का मसअला है , हर कस न नाकस इस्लामी मुआशरे में पैग़म्बरे अकरम (स) का जानशीन नही हो सकता , रहबर हज़रत अली (अ) की तरह हो जो पैग़म्बरे अकरम (स) का रास्ते पर हो और आपके अहकाम व फ़रमान को नाफ़िज़ करे , लेकिन अगर कोई ऐसा न हो तो उसकी बैअत नही करना चाहिये , लिहाज़ा ग़दीर का मसअला इस्लाम के सियासी मसायल के साथ मुत्तहिद है।

चुँनाचे हम यमन में मुलाहिज़ा करते हैं कि चौथी सदी के वसत से जश्ने ग़दीर का मसअला पेश आया और हर साल अज़ीमुश शान तरीक़े पर यह जश्न मुनअक़िद होता रहा और मोमिनीन हर साल उस वाक़ेया की याद ताज़ा करते रहे और नबवी मुआशरे में रहबरी के शरायत से आशना होते रहे , अगरचे चंद साल से हुकूमते वक़्त उस जश्न के अहम फ़वायद और पैग़ामात की बेना पर उसमें आड़े आने लगी , यहाँ तक कि हर साल इस जश्न को मुनअक़िद करने की वजह से चंद लोग क़त्ल हो जाते हैं , लेकिन फिर भी मोमिनीन इस्लामी मुआशरे में इस जश्न की बरकतों और फ़वायद की वजह से इसको मुनअक़िद करने पर मुसम्मम हैं।

4. ग़दीर का एक हमेशगी पैग़ाम यह है कि पैग़म्बरे अकरम (स) के बाद इस्लामी मुआशरे का रहबर और नमूना हज़रत अली (अ) या उन जैसे आईम्मा ए मासूमीन में से हो। यह हज़रात हम पर विलायत व हाकिमियत रखते हैं , लिहाज़ा हमें चाहिये कि उन हज़रात की विलायत को क़बूल करते हुए उनकी बरकात से फ़ैज़याब हों।

5. ग़दीर और जश्ने ग़दीर , शिईयत की निशानी है और दर हक़ीक़त ग़दीर का वाक़ेया इस पैग़ाम का ऐलान करता है कि हक़ (हज़रत अली (अ) और आपकी औलाद की महवरियत में है) के साथ अहद व पैमान करें ता कि कामयाबी हासिल हो जाये।

6. वाक़ेय ए ग़दीर से एक पैग़ाम यह भी मिलता है कि इंसान को हक़ व हकी़क़त के पहचानने के लिये हमेशा कोशिश करना चाहिये और हक़ बयान करने में कोताही से काम नही लेना चाहिये , क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) अगरचे जानते थे कि उनकी वफ़ात के बाद उनकी वसीयत पर अमल नही किया जायेगा , लेकिन लोगों पर हुज्जत तमाम कर दी और किसी भी मौक़े पर मख़ूससन हज्जतुल विदा में हक़ बयान करने में कोताही नही की।

7. रोज़े क़यामत तक बाक़ी रहने वाला ग़दीर का एक पैग़ाम अहले बैत (अ) की दीनी मरजईयत है , इसी वजह से पैग़म्बरे अकरम (स) ने उन्ही दिनों में हदीस सक़लैन को बयान किया और मुसलमानों को अपने मासूम अहले बैत से शरीयत व दीनी अहकाम हासिल करने की रहनुमाई फ़रमाई।

8. ग़दीर का एक पैग़ाम यह है कि बाज़ मवाक़े पर मसलहत की ख़ातिर और अहम मसलहत की वजह से मुहिम मसलहत को मनज़र अंदाज़ किया जा सकता है और उसको अहम मसलहत पर क़ुर्बान किया जा सकता है। हज़रत अली (अ) हालाकि ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से और रसूले अकरम (स) के ज़रिये इस्लामी मुआशरे की रहबरी और मक़ामे ख़िलाफ़त पर मंसूब हो चुके थे , लेकिन जब आपने देखा कि अगर मैं अपना हक़ लेने के लिये उठता हूँ तो क़त्ल व ग़ारत और जंग का बाज़ार गर्म हो जायेगा और यह इस्लाम और मुसलमानों की मसलहत में नही है तो आपने सिर्फ़ वअज़ व नसीहत , इतमामे हुज्जत और अपनी मज़लूमीयत के इज़हार को काफ़ा समझा ताकि इस्लाम महफ़ूज रहे , क्योकि हज़रत अली (अ) अगर उशके अलावा करते जो आपने किया तो फिर इस्लाम और मुसलमानों के लिये एक दर्दनाक हादेसा पेश आता जिसकी तलाफ़ी मुमकिन नही थी , लिहाज़ा यह रोज़ क़यामत तक उम्मते इस्लामिया के लिये एक अज़ीम सबक़ है कि कभी कभी अहम मसलहत के लिये मुहिम मसलहत को छोड़ा जा सकता है।

9. इकमाले दीन , इतमामे नेमत और हक़ व हक़ीक़त के बयान औप लोगों पर इतमामे हुज्जत करने से ख़ुदा वंदे आलम की रिज़ायत हासिल होती है जैसा कि आय ए शरीफ़ ए इकमाल में इशारा हो चुका है।

10. तबलीग़ और हक़ के बयान के लिये आम ऐलान किया जाये और छुप कर काम न किया जाये जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हुज्जतुल विदा में विलायत का ऐलान किया और लोगों के मुतफ़र्रिक़ होने से पहले मला ए आम में विलायत को पहुचा दिया।

11. ख़िलाफ़त , जानशीनी और उम्मते इस्लामिया की सही रहबरी का मसअला तमाम मासयल में सरे फैररिस्त है और कभी भी इसको तर्क नही करना चाहिये जैसा कि रसूले अकरम (स) हालाकि मदीने में ख़तरनाक बीमारी फैल गई थी और बहुत से लोगों को ज़मीन गीर कर दिया था लेकिन आपने विलायत के पहुचाने की ख़ातिर इस मुश्किल पर तवज्जो नही की और आपने सफ़र का आग़ाज़ किया और इस सफ़र में अपने बाद के लिये जानशीनी और विलायत के मसअले को लोगों के सामने बयान किया।

12. इस्लामी मुआशरे में सही रहबरी का मसअला रुहे इस्लामी और शरीयत की जान की तरह है कि अगर इस मसअले को बयान न किया जाये तो तो फिर इस्लामी मुआशरे के सुतून दरहम बरहम हो जायेगें , लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम ने अपने रसूल (स) से ख़िताब करते हुए फ़रमाया:

وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ

और अगर आप ने यह न किया तो गोया उसके पैग़ाम को नही पहुचाया।

(सूर ए मायदा आयत 67)


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