नमाज़े वह्शत
645. मुनासिब है कि मैयित के दफ़्न के बाद पहली रात को उसके लिये दो रक्अत नमाज़े वह्शत पढ़ी जाए और उसके पढ़ने का तरीक़ा यह है कि पहली रक्अत में सूरा ए अलहम्द के बाद एक दफ़्आ आयतुल कुर्सी और दूसरी रक्अत में सूरा ए अलहम्द के बाद दस दफ़्अ सूरा ए क़द्र पढ़ा जाए और सलामे नमाज़ के बाद कहा जाएः- अल्लाहुम्मा स्वल्ले अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिंव वब्अस सवाबहा इलाक़ब्रे फुलानिन। और लफ़्ज़े फ़ुलां की बजाए मैयित का नाम लिया जाए।
646. नमाज़े वह्शत मैयित के दफ़्न के बाद पहली रात को किसी वक़्त भी पढ़ी जा सकती है लेकिन बेह्तर यह है कि अव्वले शब में नमाज़े इशा के बाद पढ़ी जाए।
647. अगर मैयित को किसी दूर के शहर में ले जाना मक़्सूद हो या किसी और वजह से उसके दफ़्न में ताख़ीर हो जाए तो नमाज़े वह्शत को उस साबिक़ा तरीक़े के मुताबिक़ दफ़्न की पहली रात तक मुल्तवी कर देना चाहिये।
नब्शे क़ब्र
648. किसी मुसलमान का नब्शे क़ब्र यानी उस क़ब्र का खोलना ख़्वाह वह बच्चा या दीवाना ही क्यों न हो हराम है हां अगर उसका बदन मिट्टी के साथ मिलकर मिट्टी हो चुका हो तो फिर कोई हरज नहीं।
649. इमाम ज़ादों, शहीदों, आलिमों और स्वालेह लोगों की क़ब्रों को उजाड़ना ख़्वाह उन्हें फ़ौत हुए सालहा साल ग़ुज़र चुके हों और उनके बदन खाक हो गए हो, अगर उनकी बे हुर्मती होती हो तो हराम है।
वो सूरतें ऐसी हैं जिनमें क़ब्र का खोदना हराम नहीं हैः
650. चन्द सूरतें ऐसी हैं जिनमें क़ब्र का खोदना हराम नहीं हैः
1. जब मैयित को ग़स्बी ज़मीन में दफ़्न किया गया हो और ज़मीन का मालिक उसके वहां रहने पर राज़ी न हो।
2. जब कफ़न या कोई और चीज़ जो मैयित के साथ दफ़्न की गई हो ग़स्बी हो और उसका मालिक इस बात पर रज़ामन्द न हो कि वह क़ब्र में रहे और अगर खुद मैयित के माल में से कोई चीज़ जो उसके वारिसों को मिली हो उसके साथ दफ़्न हो गई हो और उसके वारिस इस बाद पर राज़ी न हों कि वह चीज़ क़ब्र में रहे तो उसकी भी यही सूरत है। अलबत्ता अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि दुआ या क़ुरआने मजीद या अंगूठी उसके साथ दफ़्न की जाए और उसकी वसीयत पर अमल किया गया हो तो उन चीज़ों को निकालने के लिये क़ब्र को नहीं खोला जा सकता। इसी तरह उन बाज़ सूरतों में भी जब ज़मीन या कफ़न में से कोई एक चीज़ ग़स्बी हो या कोई और ग़स्बी चीज़ मैयित के साथ दफ़्न हो गई हो तो क़ब्र को नहीं खोला जा सकता लेकिन यहा उन तमाम सूरतों की तफ़्सील बयान करने की गंजाइश नहीं है।
3. जब क़ब्र का खोलना मैयित की बे हुर्मती का मूजिब न हो और मैयित को बग़ैर ग़ुस्ल दिये या बग़ैर कफ़न पहनाए दफ़्न किया गया हो या पता चले कि मैयित का ग़ुस्ल बातिल था या उसे शरई अहकाम के मुताबिक़ कफ़न नहीं दिया गया था या क़ब्र में क़िब्ले के रूख़ पर नहीं लिटाया गया था।
4. जब कोई ऐसा हक़ साबित करने के लिये जो नब्शे क़ब्र से अहम हो मैयित का बदन देखना ज़रूरी है।
5. जब मैयित को ऐसी जगह पर दफ़्न किया गया हो जहां उसकी बे हुर्मती होती हो मसलन उसे काफ़िरों के क़ब्रिस्तान में या उस जगह दफ़्न किया गया हो जहां ग़लाज़त और कूड़ा कर्कट फेंका जाता हो।
6. जब किसी ऐसे शरई मक़्सद के लिये क़ब्र खोदी जाए जिसकी अहम्मीयत क़ब्र खोलने से ज़्यादा हो मसलन किसी ज़िन्दा बच्चे को ऐसी हामिला औरत के पेट से निकालना मत्लूब हो जिसे दफ़्न कर दिया गया हो।
7. जब यह ख़ौफ़ हो कि दरिन्दा मैयित को चीर फाड़ डालेगा या सैलाब उसे बहा ले जायेगा या दुश्मन उसे निकाल लेगा।
8. मैयित ने वसीयत की हो कि उसे दफ़्न करने से पहले मुक़द्दस मक़ामात की तरफ़ मुन्तक़िल किया जाए और ले जाते वक़्त उसकी बे हुर्मती भी न होती हो लेकिन जान बूझकर या भूले से किसी दूसरी जगह दफ़्ना दिया गया हो तो बे हुर्मती न होने की सूरत में क़ब्र खोलकर उसे मुक़द्दस मक़ामात की तरफ़ ले जा सकते हैं।
मुस्तहब ग़ुस्ल
651. इस्लाम की मुक़द्दस शरीअत में बहुत से ग़ुस्ल मुस्तहब हैं जिनमें से कुछ यह हैः
1. ग़ुस्ले जुमा- इसका वक़्त सुब्ह की अज़ान के बाद से सूरज ग़ुरूब होने तक है और बेहतर यह है कि ज़ोहर के क़रीब बजा लाया जाए (और अगर कोई शख़्स उसे ज़ोहर तक अंजाम न दे तो बेहतर है कि अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर ग़ुरूबे आफ़ताब तक बजा लाए) और अगर जुमा के दिन ग़ुस्ल न करे तो मुस्तहब है कि हफ़्ते के दिन सुब्ह से ग़ुरूबे आफ़ताब तक उसकी क़ज़ा बजा लाए। और जो शख़्स जानता हो कि उसे जुमा के दिन पानी मुयस्सर न होगा तो वह रिजाअन जुमअरात के दिन ग़ुस्ल अंजाम दे सकता है और मुस्तहब है कि इंसान ग़ुस्ले जुमा करते वक़्त यह दुआ पढ़ेः अश्हदों अंल्लाइलाहा इल्लल्लाहो वह्दहू ला शरीका लहू व अन्ना मोहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू अल्ला हुम्मा स्वल्ले अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिंन वज्अलनी मिनत्तव्वाबीना वज्अलनी मिनलमुततह्हरीना।
2 ता 7. माहे रमज़ान की पहली और सत्तरहवीं रात और उन्नीसवीं, इक्कीस्वीं और तेईसवीं रातों के पहले हिस्से का ग़ुस्ल और चौबीसवीं रात का ग़ुस्ल है।
8-9. ईदुल फ़ुत्र और ईदे क़ुर्बान के दिन का ग़ुस्ल – इसका वक़्त सुब्ह की अज़ान से सूरत ग़ुरूब होने तक है और बेहतर यह है कि ईद कि नमाज़ से पहले कर लिया जाए।
10-11. माहे ज़िलहिज्जः के आठवें और नवें दिन का ग़ुस्ल और बेहतर यह है कि नवें दिन का ग़ुस्ल ज़ोहर के नज़दीक किया जाए।
12. उस शख़्स का ग़ुस्ल जिसने अपने बदन का कोई हिस्सा ऐसी मैयित से मस किया हो जिसे ग़ुस्ल दिया गया हो।
13. एहराम का ग़ुस्ल।
14. हरमें मक्का में दाखिल होने का ग़ुस्ल।
15. मक्कए मुकर्मा में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।
16. ख़ानाए काबा की ज़ियारत का ग़ुस्ल।
17. काबा में दाखिल होने का ग़ुस्ल।
18. ज़िब्हा और नहर के लिये ग़ुस्ल।
19. बाल मूंडने के लिये ग़ुस्ल।
20. हरमे मदीना में दाखिल होने का ग़ुस्ल।
21. मदीना ए मुनव्वरा में दाखिल होने का ग़ुस्ल।
22. मस्जिदे नबवी में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।
23. नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्रे मुतह्हर से विदाअ होने का ग़ुस्ल।
24. दुश्मन के साथ मुबाहला करने का ग़ुस्ल।
25. नव ज़ाईदा बच्चे का ग़ुस्ल।
26. इस्तिख़ारा करने का ग़ुस्ल।
27. तलबे बारां का ग़ुस्ल।
652. फ़ुक़हा ने मुस्तहब ग़ुस्लों के बाब में बहुत से ग़ुस्लों का ज़िक्र फ़रमाया है जिनमें से चन्द यह हैः-
1. माहे रमज़ान की तमाम ताक रातों का ग़ुस्ल और उसकी आखिरी दहाई की रातों का ग़ुस्ल और उसकी तीसवीं रात के आख़िरी हिस्से में दूसरा ग़ुस्ल।
2. माहे ज़िलाहिज्जा के चौबीसवें दिन का ग़ुस्ल।
3. ईदे नव रोज़ के दिन और पन्द्रहवीं शाबान और सत्तरहवी रबीउल अव्वल और ज़िल क़ादा के पच्चीसवें दिन का ग़ुस्ल।
4. उस औरत का ग़ुस्ल जिसने अपने शौहर के अलावा किसी और के लिये ख़ुश्बू इस्तेमाल की हो।
5. उस शख़्स का ग़ुस्ल जो मस्ती हालत में सो गया हो।
6. उस शख़्स का ग़ुस्ल जो किसी सूली चढ़े हुए इंसान को देखने गया हो और उसे देखा भी हो लेकिन अगर इत्तिफ़ाक़न मजबूरी की हालत में नज़र गई हो या मिसाल के तौर पर अगर शहादत देने गया हो तो ग़ुस्ल मुस्तहब नहीं है।
7. दूर या नज़दीक से मअसूमीन (अ0) की ज़ियारत के लिये ग़ुस्ल। लेकिन अहवत यह है कि यह तमाम ग़ुस्ल रजाअ की नियत से बजा लाए जायें।
653. उन मुस्तहब ग़ुस्लों के साथ जिनका ज़िक्र मसअला 651 में किया गया है इंसान ऐसे काम मसलन नमाज़ अंजाम दे सकता है जिनके लिये वुज़ू लाज़िम है (यानी वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है) लेकिन जो ग़ुस्ल बतौरे रजाअ किये जायें वह वुज़ू के लिये किफ़ायत नहीं करते (यानी साथ साथ वुज़ू करना भी ज़रूरी है) ।
654. अगर कई मुस्तहब ग़ुस्ल किसी शख़्स के ज़िम्मे हों और वह सबकी नीयत कर के एक ग़ुस्ल कर ले तो काफ़ी है।
तयम्मुम
सात सूरतों में वुज़ू और ग़ुस्ल के बजाय तयम्मुम करना चाहियेः-
तयम्मुम की पहली सूरत
वुज़ू या ग़ुस्ल के लिये ज़रूरी मिक़्दार में पानी करना मुहैया करना मुम्किन न हो।
655. अगर इंसान आबादी हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू और ग़ुस्ल के लिये पानी मुहैया करने के लिये इतनी जुस्तजी करे कि बिल आख़िर उसके मिलने से न उम्मीद हो जाए और अगर बियाबान में हो तो ज़रूरी है कि रास्तों में या अपने ठहरने की जगहों में या उसके आस पास वाली जगहों में पानी तलाश करे और एहतियाते लाज़िम यह है कि वहां की ज़मीन न हमवार हो या दरख़्तों की कसरत की वजह से राह चलना दुश्वार हो तो चारो अतराफ़ में से हर तरफ़ पुराने ज़माने में कमान के चिल्ले पर चढ़ा कर फेंके जाने वाले तीर की पर्वाज़ के फ़ासिले के बराबर पानी की तलाश में जाए। वर्ना हर तरफ़ अन्दाज़न दो बार फेंके जाने वाले तीर के फ़ासिले के बराबर जुस्तजू करे।
656. अगर चार अत्राफ़ में से बाज़ हमवार और बाज़ ना हमवार हों तो जो तरफ़ हमवार हों उसमें दो तीरों की पर्वाज़ 1 (मजलिसीये अव्वल क़ुद्ससिर्रहू ने मन ला यह्ज़ुरूहुल फ़क़ीह की शर्ह में तीर के पर्वाज़ की मिक़्दार दो सौ क़दम मुअय्यन फ़रमाई है।) के बराबर और जो तरफ़ ना हमवार हो उसमें एक तीर की पर्वाज़ के बराबर पानी तलाश करे।
657. जिस तरफ़ पानी के न होने का यक़ीन हो उस तरफ़ तलाश करना ज़रूरी नहीं।
658. अगर किसी शख़्स की नमाज़ का वक़्त तंग न हो और पानी हासिल करने के लिये उसके पास वक़्त हो और उसे यक़ीन या इत्मीनान हो कि जिस फ़ासिले तक उसके लिये पानी तलाश करना ज़रूरी है उस से दूर पानी मौजूद है तो उसे चाहिये कि पानी हासिल करने के लिये वहां जाए लेकिन अगर वहां जाना मशक़्क़त का बाइस हो या पानी बहुत ज़्यादा दूर हो कि लोग यह कहें कि उसके पास पानी नहीं है तो वहां जाना लाज़िम नहीं और अगर पानी मौजूद होने का गुमान हो तो फिर भी वहां जाना ज़रूरी नहीं है।
659. यह ज़रूरी नहीं कि इंसान खुद पानी की तलाश में जाए बल्कि वह किसी और ऐसे शख़्स को भेज सकता है जिसके कहने पर उसे इत्मीनान हो और इस सूरत में अगर एक शख़्स कई अश्ख़ास की तरफ़ से जाए तो काफ़ी है।
660. अगर इस बात का एहतिमाल हो कि किसी शख़्स के लिये अपने सफ़र के सामान में या पड़ाव डालने की जगह पर या काफ़िले में पानी मौजूद है तो ज़रूरी है कि इस क़दर जुस्तजू करे कि उसे पानी के न होने का इत्मीनान हो जाए या उसके हुसूल से ना उम्मीद हो जाए।
661. अगर एक शख़्स नमाज़ के वक़्त से पहले पानी तलाश करे और हासिल न कर पाए और नमाज़ के वक़्त तक उसी जगह रहे तो अगर पानी मिलने का एहतिमाल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा पानी की तलाश में जाए।
662. अगर नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद तलाश करे और पानी हासिल न कर पाए और बाद वाली नमाज़ के वक़्त तक उसी जगह रहे तो अगर पानी मिलने का एहतिमाल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा पानी की तलाश में जाए।
663. अगर किसी शख़्स की नमाज़ का वक़्त तंग हो या उसे चोर, डाकू और दरिन्दे का खौफ़ हो या पानी तलाश इतनी कठिन हो कि वह सऊबत को बर्दाश्त न कर सके तो तलाश ज़रूरी नहीं।
664. अगर कोई शख़्स पानी की तलाश न करे हत्ता की नमाज़ का वक़्त तंग हो जाए और पानी तलाश करने की सूरत में पानी मिल सकता था तो वह गुनाह का मुर्तकिब हुआ लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सहीह है।
665. अगर कोई शख़्स इस यक़ीन की बिना पर पानी की तलाश में न जाए कि उसे पानी नहीं मिल सकता और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो पानी मिल सकता था तो एहतियाते लाज़िम की बिना वुज़ू कर के नमाज़ को दोबारा पढ़े।
666. अगर किसी शख़्स को तलाश करने पर पानी न मिले और मिलने से मायूस होकर तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ ले और नमाज़ के बाद उसे पता चले कि जहां उसने तलाश किया था वहां पानी मौजूद था तो उसकी नमाज़ सहीह है।
667. जिस शख़्स को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त तंग है अगर वह पानी तलाश किये बग़ैर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले और नमाज़ के बाद और वक़्त गुज़रने से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिये उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।
668. अगर नमाज़ का वक़्त दाखिल होने के बाद किसी शख़्स का वुज़ू बाक़ी हो और उसे मालूम हो कि अगर उसने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिये पानी नहीं मिलेगा या वुज़ू नहीं कर पायेगा तो इस सूरत में अगर वह अपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना उसे चाहिये कि उसे बातिल न करे लेकिन अगर ऐसा शख़्स यह जानते हुए भी कि ग़ुस्ल न कर पायेगा अपनी बीवी से जिमाअ कर सकता है।
669. अगर कोई शख़्स नमाज़ से पहले बा वुज़ू हो और उसे मालूम हो कि अगर उसने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिये पानी मुहैया करना उसके लिये मुम्किन न होगा तो इस सूरत में अगर वह अपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे बातिल न करे।
670. जब किसी के पास फ़क़त ग़ुस्ल या वुज़ू के लिये पानी हो और वह जानता हो कि उसे गिरा देने की सूरत में मज़ीद पानी नहीं मिल सकेगा तो अगर नमाज़ का वक़्त दाखिल हो गया हो तो उस पानी का गिराना हराम है और एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ के वक़्त से पहले भी न गिराए।
671. अगर कोई शख़्स यह जानते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा, नमाज़ का वक़्त दाखिल होने के बाद अपना वुज़ू बातिल कर दे या जो पानी उसके पास हो उसे गिरा दे तो अगर चे उसने (हुक्मे मस्अला के) बह अक्स काम किया है, तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सहीह होगी लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी करे।
तयम्मुम की दूसरी सूरत
672. अगर कोई शख़्स बुढ़ापे या कमज़ोरी की वजह से चोर, डाकू और जानवर वग़ैरा के ख़ौफ़ से या कुयें से पानी निकालने के वसाइल मुयस्सर न होने की वजह से पानी हासिल न कर सके तो उसे चाहिये की तयम्मुम करे। और अगर पानी मुहैया करने या इस्तेमाल करने में उसे इतनी तक्लीफ़ उठानी पड़े जो नाक़ाबिले बर्दाश्त हो तो उस सूरत में भी यही हुक्म है। लेकिन आखिरी सूरत में अगर तयम्मुम न करे और वुज़ू करे तो उसका वुज़ू सहीह होगा।
673. अगर कुयें से पानी निकालने के लिये डोल और रस्सी वग़ैरा ज़रूरी हो और मुतअल्लिक़ा शख़्स मजबूर हो कि उन्हें खरीदे या किराए पर हासिल करे तो ख़्वाह उनकी क़िमत आम भाव से कई गुना ही ज़्यादा क्यों न हो उसे चाहिये की उन्हें हासिल करे। और अगर पानी अपनी असली क़ीमत से मंहगा बेचा जा रहा हो तो उसके लिये भी यही हुक्म है। लेकिन अगर इन चीज़ों के हुसूल पर इतना खर्च आता हो कि उसकी जेब इजाज़त न देती हो तो फिर इन चीज़ों का मुहैया करना वाजिब नहीं है।
674. अगर कोई शख़्स मजबूर हो कि पानी मुहैया करने के लिये क़र्ज़ ले तो क़र्ज़ लेना ज़रूरी है लेकिन जिस शख़्स को इल्म हो या गुमान हो कि वह अपने क़र्ज़े की अदायगी नहीं कर सकता उसके लिये क़र्ज़ लेना वाजिब नहीं है।
675. अगर कुआं खोदने में कोई मशक़्क़त न हो तो मुतअल्लिक़ा शख़्स को चाहिये कि पानी मुहैया करने के लिये कुआं खोदे।
676. अगर कोई शख़्स बग़ैर एहसान रखे कुछ पानी दे तो उसे क़ुबूल कर लेना चाहियें।
तयम्मुम की तीसरी सूरत
677. अगर किसी शख़्स को पानी इस्तेमाल करने से अपनी जान पर बन जाने या बदन में कोई ऐब या मरज़ पैदा होने या मौजूदा मरज़ के तूलानी या शदीद हो जाने या इलाज मुआलिजा में दुशवारी पैदा होने का ख़ौफ़ हो तो उसे चाहिये कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर पानी के ज़रर को किसी तरीक़े से दूर कर सकता हो मसलन यह कि पानी को गर्म करने से ज़रर दूर हो सकता हो तो पानी गर्म कर के वुज़ू करे और ग़ुस्ल करना ज़रूरी हो तो ग़ुस्ल करे।
678. ज़रूरी नहीं कि किसी शख़्स को यक़ीन हो कि पानी उसके लिये मुज़िर है बल्कि अगर ज़रर का एहतिमाल हो और यह एहतिमाल आम लोगों की नज़रों में मअक़ूल हो और इस एहतिमाल से उसे ख़ौफ़ लाहिक़ हो जाए तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।
679. अगर कोई शख़्स दर्दे चश्म में मुब्तला हो और पानी उसके लिये मुज़िर हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।
680. अगर कोई शख़्स ज़रर के यक़ीन या ख़ौफ़ की वजह से तयम्मुम करे और उसे नमाज़ से पहले इस बात का पता चल जाए कि पानी उसके लिये नुक्सान देह नहीं तो उसका तयम्मुम बातिल है। और अगर इस बात का पता नमाज़ के बाद चले तो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।
681. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि पानी उसके लिये मुज़िर नहीं है और ग़ुस्ल या वुज़ू कर ले बाद में उसे पता चले कि पानी उसके लिये मुज़िर था तो उसका वुज़ू और ग़ुस्ल दोनों बातिल हैं।
तयम्मुम की चौथी सूरत
682. अगर किसी शख़्स को यह ख़ौफ़ हो कि पानी से ग़ुस्ल या वुज़ू कर लेने के बाद वह प्यास की वजह से बेताब हो जायेगा तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और इस वजह से तयम्मुम के जाइज़ हो जाने की तीन सूरतें हैः-
1. अगर पानी वुज़ू या ग़ुस्ल करने में सर्फ़ कर दे तो वह ख़ुद फ़ौरी तौर पर या बाद में ऐसी प्यास में मुब्तला हो जो उसकी हलाकत या अलालत (बीमारी) का मूजिब होगी या जिसका बर्दाश्त करना उसके लिये सख़्त तक्लीफ़ का बाइस होगा।
2. उसे ख़ौफ़ हो कि जिन लोगों की हिफ़ाज़त करना उस पर वाजिब है वह कहीं प्यास से हलाक या बीमार न हो जायें।
3. अपने अलावा किसी दूसरे की ख़ातिर ख़्वाह वह इंसान हो या हैवान, डरता हो और उसकी हलाकत या बीमारी या बेताबी उसे गरां गुज़रती हो ख़्वाह मोहतरम नुफ़ूस में से हो या ग़ैर मोहतरम नुफ़ूस में से हो इन तीन सूरतों के अलावा किसी सूरत में पानी होते हुए तयम्मुम करना जाइज़ नहीं है।
683. अगर किसी शख़्स के पास उस पाक पानी के अलावा जो वुज़ू या ग़ुस्ल के लिये हो इतना नजिस पानी भी हो जितना उसे पीने के लिये दरकार है तो ज़रूरी है कि पाक पानी पीने के लिये रख ले और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े लेकिन अगर पानी उसके साथियों के पीने के लिये दरकार हो तो वह पाक पानी से ग़ुस्ल या वुज़ू कर सकता है ख़्वाह उसके साथी प्यास बुझाने के लिये नजिस पानी पीने पर ही क्यों न मजबूर हों बल्कि अगर वह लोग उस पानी के नजिस होने के बारे में न जानते हों या यह कि किसी नजासत से परहेज़ न करते हों तो लाज़िम है कि पाक पानी को वुज़ू या ग़ुस्ल के लिये सर्फ़ करे और इसी तरह पानी अपने किसी जानवर या नाबालिग़ बच्चे को पिलाना चाहे तब भी ज़रूरी है कि उन्हें वह नजिस पानी पिलाए और पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल करे।
तयुम्मुम की पांचवीं सूरत
684. अगर किसी शख़्स का बदन या लिबास नजिस हो और उसके पास इतनी मिक़्दार में पानी हो कि उससे वुज़ू या ग़ुस्ल कर ले तो बदन या लिबास धोने के लिये पानी न बचता हो तो ज़रूरी है कि बदन या लिबास धोए और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े लेकिन अगर उसके पास ऐसी कोई चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम करे तो ज़रूरी है कि पानी वुज़ू या ग़ुस्ल के लिये इस्तेमाल करे और नजिस बदन या लिबास के साथ नमाज़ पढ़े।
तयम्मुम की छठी सूरत
685. अगर किसी शख़्स के पास सिवाए ऐसे पानी या बर्तन के जिसका इस्तेमाल करना हराम हो कोई और पानी या बर्तन न हो मसलन जो पानी या बर्तन उसके पास हो वह ग़स्बी हो और उसके अलावा उसके पास कोई पानी या बर्तन न हो तो उसे चाहिये कि वुज़ू और ग़ुस्ल के बजाए तयम्मुम करे।
तयम्मुम की सातवीं सूरत
686. जब वक़्त इतना तंग हो कि अगर एक शख़्स वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो सारी नमाज़ या उसका कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ा जा सके तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।
687. अगर कोई शख़्स जान बूझकर नमाज़ पढ़ने में इतनी ताख़ीर करे कि वुज़ू या ग़ुस्ल का वक़्त बाक़ी न रहे तो वह गुनाह का मुर्तकिब होगा लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सहीह है। अगर चे एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी करे।
688. अगर किसी शख़्स को शक हो कि वह वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो नमाज़ का वक़्त बाक़ी रहेगा या नहीं तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।
689. अगर किसी शख़्स ने वक़्त की तंगी की वजह से तयम्मुम किया हो और नमाज़ के बाद वुज़ू कर सकने के बावजूद न किया हो हत्ता की जो पानी उसके पास था वह ज़ाए हो जाए तो इस सूरत में उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद की नमाज़ों के लिये दोबारा तयम्मुम करे। ख़्वाह वह तयम्मुम जो उसने किया था न टूटा हो।
690. अगर किसी शख़्स के पास पानी हो लेकिन वक़्त की तंगी के बाइस तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान जो पानी उसके पास था वह ज़ाए हो जाए और अगर उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद की नमाज़ों के लिये दोबारा तयम्मुम करे।
691. अगर किसी शख़्स के पास इतना वक़्त हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल कर सके और नमाज़ को उसके मुस्तहब अफ़आल मसलन इक़ामत और क़ुनूत के बग़ैर पढ़ ले तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू कर ले और उसके मुस्तहब अफ़आल के बग़ैर नमाज़ पढ़े बल्कि अगर सूरा पढ़ने जितना वक़्त भी न बचता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और बग़ैर सूरा के नमाज़ पढ़े।
वह चीज़ें जिन पर तयम्मुम करना सहीह है
692. मिट्टी, रेत, ढेले और रोढ़ी या पत्थर पर तयम्मुम करना सहीह है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर मिट्टी मुयस्सर हो तो किसी दूसरी चीज़ पर तयम्मुम न किया जाए। और अगर मिट्टी न हो तो रेत या ढेले पर और अगर रेत और ढेला भी न हो तो फिर रोढ़ी या पत्थर पर तयम्मुम किया जाए।
693. जिप्सम और चूने के पत्थर पर तयम्मुम करना सहीह है नीज़ उस गर्दोंग़ुब्बार पर जो क़ालीन, कपड़े और उन जैसी दूसरी चीज़ों पर जमाअ हो जाता है, अगर उर्फ़े आम में उसे नर्म मिट्टी शुमार किया जाता हो तो उस पर तयम्मुम सहीह है। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि इख़्तियार की हालत में उस पर तयम्मुम न करे। इसी तरह एहतियाते मुस्तहब की बिना पर इख़्तियार की हालत में पक्के जिप्सम और चूने पर और पक्की हुई ईट और दूसरे मअदिनी पत्थर मसलन अक़ीक़ वग़ैरा पर तयम्मुम न करे।
694. अगर किसी शख़्स को मिट्टी, रेत, ढेले या पत्थर न मिल सकें तो ज़रूरी है कि तर मिट्टी पर तयम्मुम करे और अगर तर मिट्टी न मिले तो ज़रूरी है कि क़ालीन, दरी या लिबास और उन जैसा दूसरी चीज़ों के अन्दर या ऊपर मौजूद उस मुख़्तसर से गर्दोग़ुब्बार से जो उर्फ़े आम में मिट्टी शुमार न होता हो तयम्मुम करे और अगर इनमें से कोई चीज़ भी दस्तयाब न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम के बग़ैर नमाज़ पढ़े लेकिन वाजिब है कि बाद में उसकी क़ज़ा पढ़े।
695. अगर कोई शख़्स क़ालीन, दरी और उन जैसी चीज़ों को झाड़कर मिट्टी मुहैया कर सकता हो तो उसका गर्द आलूद चीज़ों पर तयम्मुम करना बातिल है और इसी तरह अगर तर मिट्टी को ख़ुश्क कर के उससे सूखी मिट्टी हासिल कर सकता हो तो तर मिट्टी पर तयम्मुम करना बातिल है।
696. जिस शख़्स के पास पानी न हो लेकिन बर्फ़ हो और उसे पिघला सकता हो तो उसे पिघला कर पानी बनाना और उससे वुज़ू या ग़ुस्ल करना ज़रूरी है और अगर ऐसा करना मुम्किन न हो और उसके पास कोई ऐसी चीज़ भी न हो जिस पर तयम्मुम करना सहीह हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि दूसरे वक़्त में नमाज़ को क़ज़ा करे और बेहतर यह है कि बर्फ़ से वुज़ू या ग़ुस्ल के अअज़ा को तर करे और अगर ऐसा करना भी मुम्किन न हो तो बर्फ़ पर तयम्मुम कर ले और वक़्त पर भी नमाज़ पढ़े।
697. अगर मिट्टी और रेत के साथ सूखी घास की तरह कोई चीज़ (मसलन बीज, कलियां) मिली हुई हों जिस पर तयम्मुम करना बातिल हो तो मुतअल्लिक़ा शख़्स उस पर तयम्मुम नहीं कर सकता। लेकिन अगर वह चीज़ इतनी कम हो कि उसे मिट्टी या रेत में न होने के बराबर समझा जा सके तो उस मिट्टी और रेत पर तयम्मुम सहीह है।
698. अगर एस शख़्स के पास कोई ऐसी चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम किया जा सके और उसका ख़रीदना या किसी और तरह हासिल करना मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि उस तरह मुहैया कर ले।
699. मिट्टी की दीवार पर तयम्मुम करना सहीह है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़ुश्क ज़मीन या ख़ुश्क मिट्टी के होते हुए तर ज़मीन या तर मिट्टी पर तयम्मुम न किया जाए।
700. जिस चीज़ पर इंसान तयम्मुम करे उसका पाक होना ज़रूरी है और अगर उसके पास कोई ऐसी पाक चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम करना सहीह हो तो उस पर नमाज़ वाजिब नहीं लेकिन ज़रूरी है कि उसकी क़ज़ा बजा लाए और बेहतर यह है कि वक़्त में भी नमाज़ पढ़े।
701. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि एक चीज़ पर तयम्मुम करना सहीह है और उस पर तयम्मुम कर ले बाद अंजा उसे पता चले कि उस चीज़ पर तयम्मुम करना बातिल था तो ज़रूरी है कि जो नमाज़ें उस तयम्मुम के साथ पढ़ी हैं उन्हें दोबारा पढ़े।
702. जिस चीज़ पर कोई शख़्स तयम्मुम करे ज़रूरी है कि वह ग़स्बी न हो पस अगर वह ग़स्बी मिट्टी पर तयम्मुम करे तो उसका तयम्मुम बातिल है।
703. ग़स्ब की हुई फ़ज़ा में तयम्मुम करना बातिल नहीं है लिहाज़ा अगर कोई शख़्स अपनी ज़मीन पर अपने हाथ मिट्टी पर मारे और फिर बिला इजज़ात दूसरे की ज़मीन में दाखिल हो जाए और हाथों को पेशानी पर फेरे तो उसका तयम्मुम सहीह होगा अगर चे वह गुनाह का मुर्तक़िब हुआ है।
704. अगर कोई शख़्स भूले से या ग़फ़्लत से ग़स्बी चीज़ पर तयम्मुम कर ले तो तयम्मुम सहीह है लेकिन अगर वह खुद कोई चीज़ ग़स्ब करे और फिर भूल जाए कि ग़स्ब की है तो उस चीज़ पर तयम्मुम के सहीह होने में इश्क़ाल है।
705. अगर कोई शख़्स ग़स्बी जगह में मह्बूस हो और उस जगह का पानी और मिट्टी दोनों ग़स्बी हों तो ज़रूरी है कि तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े।
706. जिस चीज़ पर तयम्मुम किया जाए एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि उस पर गर्दों ग़ुबार मौजूद हो जो कि हाथों पर लग जाए और उस पर हाथ मारने के बाद ज़रूरी है कि इतने ज़ोर से हाथों को न झाड़े कि सारी गर्द झड़ जाए।
707. गढ़े वाली ज़मीन, रास्ते की मिट्टी और ऐसी शोर ज़मीन जिस पर नमक की तह न जमी हो तयम्मुम करना मकरूह है और अगर उस पर नमक की तह जम गई हो तो तयम्मुम बातिल है।
वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करने का तरीक़ा
708. वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले किये जाने वाले तयम्मुम में चार चीज़ें वाजिब हैः-
1. नीयत
2. दोनों हथेलियों को एक साथ ऐसी चीज़ पर मारने या रखना जिस पर तयम्मुम करना सहीह हो। और एहतियाते लाज़िम की बिना पर दोनों हाथ एक साथ ज़मीन पर मारने या रखने चाहियें।
3. पूरी पेशानी पर दोनों हथेलीयों को फेरना और इसी तरह एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस मक़ाम से जहां सर के बाल उगते हैं भवों और नाक के ऊपर तक पेशानी के दोनों तरफ़ दोनों हथेलीयों को फेरना। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि हाथ भवों तक भी फेरे जाए।
4. बाई हथेली को दायें हाथ की तमाम पुश्त पर और उसके बाद दाईं हाथेली को बायें हाथ की तमाम पुश्त पर फेरना।
709. एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम ख़्वाह वुज़ू के बदले हो या ग़ुस्ल के बदले उसे तरतीब से किया जाए यानी यह है कि एक दफआ हाथ ज़मीन पर मारे जायें और पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे जायें और फिर एक दफ़आ ज़मीन पर मारे जायें और हाथों की पुश्त का मसह किया जाए।
तयम्मुम के अहकाम
710. अगर एक शख़्स पेशानी या हाथों की पुश्त के ज़रां से हिस्से का भी मसह न करे तो उसका तयम्मुम बातिल है। क़त्ए नज़र इससे कि उसने अमदन मसह न किया हो या मस्अला न जानता हो या मस्अला भूल गया हो लेकिन बाल की खाल निकालने की ज़रूरत भी नहीं अगर यह कहा जा सके कि तमाम पेशानी और हाथों का मसह हो गया है तो इतना ही काफ़ी है।
711. अगर किसी शख़्स को यक़ीन न हो कि हाथ की तमाम पुश्त पर मसह कर लिया है तो यक़ीन हासिल करने के लिये ज़रूरी है कि कलाई से कुछ ऊपर वाले हिस्से का भी मसह करे लेकिन उंगलियों के दरमियान मसह करना ज़रूरी नहीं।
712. तयम्मुम करने वाले को पेशानी और हाथों की पुश्त की मसह एहतियात की बिना पर ऊपर से नीचे की जानिब करना ज़रूरी है और यह अफ़्आल एक दूसरे से मुत्तसिल होने चाहिये और अगर इन अफ़्आल के दरमियान इतना फ़ासला दे कि लोग यह न कहें की तयम्मुम कर रहा है तो तयम्मुम बातिल है।
713. नीयत करते वक़्त लाज़िम नहीं कि इस बात का तअय्युन करे कि उसका तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले लेकिन जहां दो तयम्मुम अंजाम देना ज़रूरी हों तो लाज़िम है कि उन में से हर एक को मुअय्यन करे और अगर उस पर एक तयम्मुम वाजिब हो और नीयत करे कि मैं इस वक़्त अपना वज़ीफ़ा अंजाम दे रहा हूँ तो अगरचे वह मुअय्यन करने में ग़लती करे (कि वह तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले) उसका तयम्मुम सहीह है।
714. एहतियाते मुस्तहब की बिना पर तयम्मुम में पेशानी, हाथों की हथेलीयां और हाथों की पुश्त जहां तक कि मुम्किन हो ज़रूरी है कि पाक हों।
715. इंसान को चाहिये कि हाथ पर मसह करते वक़्त अग़ूठी उतार दे और अगर पेशानी या हाथों की पुश्त या हथेलियों पर कोई रूकावट हो मसलन उन पर कोई चीज़ चीपकी हुई हो तो ज़रूरी है कि उसे हटा दे।
716. अगर किसी शख़्स की पेशानी या हाथों की पुश्त पर ज़ख़्म हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो जिसको खोला न जा सकता हो तो ज़रूरी है कि उस के ऊपर हाथ फेरे। और अगर हथेली ज़ख़्मी हो और उस पर कपड़ा या पट्टी बंधी हो जिसे खोला न जा सकता हो तो ज़रूरी है कि कपड़े या पट्टी वग़ैरा समेत उस चीज़ पर हाथ मारे जिस पर तयम्मुम करना सहीह हो और फिर पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे।
717. अगर किसी शख़्स की पेशानी और हाथों की पुश्त पर बाल हों तो कोई हरज नहीं लेकिन अगर सर के बाल पेशानी पर आ गिरे हों तो ज़रूरी है कि उन्हें पीछें हटा दें।
718. अगर एहतिमाल हो कि पेशानी और हथेलियों या हाथों की पुश्त पर कोई रूकावट है और यह एहतिमाल लोगों की नज़रों में मअक़ूल हों तो ज़रूरी है कि छान बीन करे ताकि उसे यक़ीन या इत्मीनान हो जाए कि रूकावट मौजूद नहीं है।
719. अगर किसी शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह खुद तयम्मुम न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे शख़्स से मदद ले ताकि वह मददगार मुतअल्लिक़ा शख़्स के हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सहही हो और फिर मुतअल्लिक़ा शख़्स के हाथों को उसकी पेशानी और दोनों हाथों की पुश्त पर रख दे ताकि इम्कान की सूरत में वह खुद अपनी दोनों हथेलियों को पेशानी और दोनों हाथों की पुश्त पर फेरे और अगर यह मुम्किन न हो तो नायब के लिये ज़रूरी है कि मुतअल्लिक़ा शख़्स को खुद उसके हाथों से तयम्मुम कराए और अगर ऐसा करना मुम्किन न हो तो नायब के लिये ज़रूरी है कि अपने हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सहीह हो और फिर मुतअल्लिक़ा शख़्स की पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे। इन दोनों सूरतों में एहतियाते लाज़िम की बिना पर दोनों शख़्स तयम्मुम की नियत करें लेकिन पहली सूरत में खुद मुकल्लफ़ की नीयत काफ़ी है।
720. अगर कोई शख़्स तयम्मुम के दौरान शक करे कि वह उसका कोई हिस्सा भूल गया है या नहीं और उस हिस्से का मौक़ा ग़ुज़र गया हो तो वह अपने शक का लिहाज़ न करे और अगर मौक़ा न गुज़रा हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से का तयम्मुम करे।
721. अगर किसी शख़्स को बायें हाथ का मसह करने के बाद शक हो कि आया उसने तयम्मुम दुरूस्त किया है या नहीं तो उसका तयम्मुम सहीह है और अगर उसका शक बायें हाथ के मसह के बारे में हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि उसका मसह करे सिवाय इसके कि लोग यह कहें कि तयम्मुम से फ़ारिग़ हो चुका है मसलन उस शख़्स ने कोई ऐसा काम किया हो जिसके लिये तहारत शर्त है या तसलसुल ख़त्म हो गया हो।
722. जिस शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर वह नमाज़ के पूरे वक़्त में उज़्र ख़त्म होने से मायूस हो जाए तो तयम्मुम कर सकता है और अगर उसने किसी दूसरी वाजिब या मुस्तहब काम के लिये तयम्मुम किया हो और नमाज़ के वक़्त तक उसका उज़्र बाक़ी हो (जिसकी वजह से उसका वज़ीफ़ा तयम्मुम है) तो उसी तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है।
723. जिस शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर उसे इल्म हो कि आख़िर वक़्त तक उसका उज़्र बाक़ी रहेगा या वह उज़्र के ख़त्म होने से मायूस हो तो वक़्त के वसी होते हुए वह तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर वह जानता हो कि आख़िर वक़्त तक उसका उज़्र दूर हो जायेगा तो ज़रूरी है कि इन्तिज़ार करे और वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़े। बल्कि अगर वह आख़िर वक़्त तक उज़्र के ख़त्म होने से मायूस न हो तो मायूम होने से पहले तयम्मुम करके नमाज़ नहीं पढ़ सकता।
724. अगर कोई शख़्स वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो और उसे यक़ीन हो कि उसका उज़्र दूर होने वाला नहीं है या दूर होने से मायूस हो तो वह अपनी क़ज़ा नमाज़े तयम्मुम के साथ पढ़ सकता है लेकिन अगर बाद में उज़्र ख़त्म हो जाए तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह नमाज़े वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा पढ़े और अगर उसे उज़्र दूर होने से मायूसी न हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर क़ज़ा नमाज़ों के लिये तयम्मुम नहीं कर सकता।
725. जो शख़्स वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो उसके लिये जाइज़ है कि मुस्तहब नमाज़ें दिन रात के उन नवाफ़िल की तरह जिनका वक़्त मुअय्यन है तयम्मुम कर के पढ़े, लेकिन अगर मायूस न हो कि आख़िर वक़्त तक उसका उज़्र दूर हो जायेगा तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वह नमाज़ें उनके अव्वले वक़्त में न पढ़े।
726. जिस शख़्स ने एहतियातन ग़ुस्ले जबीरा और तयम्मुम किया हो अगर वह ग़ुस्ल और तयम्मुम के बाद नमाज़ पढ़े और नमाज़ के बाद उससे हदसे असग़र सादिर हो मसलन अगर वह पेशाब करे तो बाद की नमाज़ों के लिये ज़रूरी है कि वुज़ू करे और अगर हदस नमाज़ से पहले सादिर हो तो ज़रूरी है कि उस नमाज़ के लिये भी वुज़ू करे।
727. अगर कोई शख़्स पानी न मिलने की वजह से या किसी और उज़्र की बिना पर तयम्मुम करे तो उज़्र के ख़त्म हो जाने के बाद उसका तयम्मुम बातिल हो जाता है।
728. जो चीज़ें वुज़ू को बातिल करती हैं वह वुज़ू के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल करती हैं। और जो चीज़ें ग़ुस्ल को बातिल करती है वह ग़ुस्ल के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल करती हैं।
729. अगर कोई शख़्स ग़ुस्ल न कर सकता हो और चन्द ग़ुस्ल उस पर वाजिब हों तो उसके लिये ज़रूरी है कि उन ग़ुस्लों के बदले एक तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन ग़ुस्लों में से हर एक के बदले एक तयम्मुम करे।
730. जो शख़्स ग़ुस्ल न कर सकता हो वह कोई ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिसके लिये ग़ुस्ल वाजिब हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और जो शख़्स वुज़ू न कर सकता हो अगर वह कोई ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिसके लिये वुज़ू वाजिब हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू के बदले तयम्मुम करे।
731. अगर कोई ग़ुस्ले जनाबत के बदले तयम्मुम करे तो नमाज़ के लिये वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर दूसरे ग़ुस्लों के बदले तयम्मुम करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू भी करे और अगर वह वुज़ू न कर सके तो वुज़ू के बदले एक और तयम्मुम करे।
732. अगर कोई शख़्स जनाबत के बदले तयम्मुम करे लेकिन बाद में उसे किसी ऐसी सूरत से दो चार होना पड़े जो वुज़ू को बातिल कर देती हो और बाद की नमाज़ों के लिये ग़ुस्ल भी न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम भी करे। और अगर वुज़ू न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि उसके बदले तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस तयम्मुम को माफ़ी ज़िम्मा की नीयत से बजा लाए (यानी जो कुछ मेरे ज़िम्मे है उसे अंजाम दे रहां हूँ।
733. किसी शख़्स को कोई काम अंजाम देने मसलन नमाज़ पढ़ने के लिये वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना ज़रूरी हो तो अगर वह पहले तयम्मुम में वुज़ू के बदले तयम्मुम या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम की नीयत करे और दूसरा तयम्मुम अपने वज़ीफ़े को अंजाम देने की नीयत से करे तो यह काफ़ी है।
734. जिस शख़्स का फ़रीज़ा तयम्मुम हो अगर वह किसी काम के लिये तयम्मुम करे तो जब तक उसका तयम्मुम और उज़्र बाक़ी है वह उन कामों को कर सकता है जो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के करने चाहियें लेकिन अगर उसका उज़्र वक़्त की तंगी हो या उसने पानी होते हुए नमाज़े मैयित या सोने के लिये तयम्मुम किया हो तो वह फ़क़त उन कामों को अंजाम दे सकता है जिनके लिये उसने तयम्मुम किया हो।
735. चन्द सूरतों में बेहतर यह है कि जो नमाज़े इंसान ने तयम्मुम के साथ पढ़ी हों उनकी क़ज़ा करेः-
1. पानी के इस्तेमाल से डरता हो और उसने जान बूझकर अपने आप को जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
2. यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा अमदन अपने आप को जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
3. आख़िर वक़्त तक पानी की तलाश में न जाए और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े और बाद में उसे पते चले कि तलाश करता तो उसे पानी मिल जाता।
4. जान बूझकर नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर की हो और आखिरे वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
5. यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि पानी नहीं मिलेगा जो पानी उसके पास था उसे गिरा दिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
अह्कामे नमाज़
नमाज़ दीनी अअमाल में से बेहतरीन अमल है। अगर यह दरगाहे इलाही में क़बूल हो गई तो दूसरी इबादात भी क़बूल हो जायेंगी और अगर यह क़बूल न हुई तो दूसरे अअमाल भी क़बूल न होगें। जिस तरह इंसान अगर दिन रात में पांच दफ़्आ नहर में नहाए धोए तो उसके बदन पर मैल कुचैल नहीं रहती उसी तरह पांच वक़्ता नमाज़ भी इंसान को गुनाहों से पाक कर देती है और बेहतर है कि इंसान नमाज़े अव्वले वक़्त पढ़े। जो शख़्स नमाज़ को मअमूली और ग़ैर अहम समझे वह उस शख़्स की मानिन्द है जो नमाज़ न पढ़ता हो। रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया है कि, जो शख़्स नमाज़ को अहम्मीयत न दे और उसे मअमूली चीज़ समझे वह अज़ाबे आख़िरत का मुस्तहक़ है। एक दिन रसूले अकरम स्वल्लाल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम मस्जिद में तशरीफ़ फ़रमा थे कि एक शख़्स मस्जिद में दाखिल हुआ और नमाज़ पढ़ने में मश्ग़ूल हो गया लेकिन रूकू और सुजूद मुकम्मल तौर पर बजा न लाया, इस पर हुज़ूर स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया कि अगर यह शख़्स इस हालत में मर जाए जबकि इसके नमाज़ पढ़ने का यह तरीक़ा है तो यह हमारे दीन पर नहीं मरेगा। इस इंसान को ख़्याल रखना चाहिये कि नमाज़ जल्दी जल्दी न पढ़े और नमाज़ की हालत में ख़ुदा की याद में रहे और ख़ुज़ूउ व खुशूउ और संजीदगी से नमाज़ पढ़े और यह ख़्याल रखे कि किस हस्ती से कलाम कर रहा है और अपने आपको ख़ुदा वन्दे आलम की अज़मत और बुज़ुर्गी के मुक़ाबिले में हक़ीर और नाचीज़ समझे। अगर इंसान नमाज़ के दौरान पूरी तरह इन बातों की तरफ़ मुतवज्जह रहे तो वह अपने आप से बेख़बर हो जाता है जैसा कि नमाज़ की हालत में अमीरूल मोमिनीन इमाम अली (अ0) के पांव से तीर खींच लिया गया और आप (अ0) को ख़बर तक न हुई। अलावा अज़ीं नमाज़ पढ़ने वाले को चाहिये कि तौबा व इसतिग़्फ़ार करे और न सिर्फ़ उन गुनाहों को जो नमाज़ क़बूल होने में माने होते हैं मसलन हसद, तकब्बुर, ग़ीबत, हराम खाना, शराब पीना और ख़ुम्स व ज़कात का अदा न करना – तर्क करे बल्कि तमाम गुनाह तर्क कर दे और इसी तरह बेहतर है कि जो काम नमाज़ का सवाब घटाते हैं वह न करे मसलन औघंने की हालत में या पेशाब रोक कर नमाज़ के लिये न खड़ा हो और नमाज़ के मौक़े पर आस्मान की जानिब न देखे और वह काम करे जो नमाज़ का सवाब बढ़ाते हैं मसलन अक़ीक़ की अंगूठी और पाकीज़ा लिबास पहने, कंघी और मिसवाक करे नीज़ ख़ुश्बू लगाए।
वाजिब नमाज़ें
छः नमाज़े वाजिब हैः-
1.रोज़ाना की नमाज़ें,
2.नमाज़े आयात,
3.नमाज़े मैयित,
4.खानए कअबा के वाजिब तवाफ़ की नमाज़,
5.बाप की क़ज़ा नमाज़ें जो बड़े बेटे पर वाजिब हैं,
6.जो नमाज़े इजारा, मन्नत, क़सम और अह्द से वाजिब हो जाती हैं और नमाज़े जुमा रोज़ाना नमाज़ों में से है।
रोज़ाना की वाजिब नमाज़ें
रोज़ाना की वाजिब नमाज़ें पांच हैः-
ज़ोहर और अस्र (हर एक चार रक्अत) मग़रिब (तीन रक्अत) इशा (चार रक्अत) और फ़ज्र (दो रक्अत) ।
736. इंसान सफ़र में हो तो ज़रूरी है कि चार रक्अती नमाज़ें उन शराइत के साथ जो बाद में बयान होंगी दो रक्अत पढ़े।
ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त
737. अगर लकड़ी या किसी ऐसी ही सीधी चीज़ को जिस शाखिस कहते हैं हमवार ज़मीन में गाड़ा जाए तो सुब्ह के वक़्त जब सूरत तुलूहउ होता है उसका साया मग़रिब की तरफ़ पड़ता है और जूं जूं सूरज ऊंचा होता जाता है उसका साया घटता जाता है और हमारे शहरे में ज़ोहरे शरई के वक़्त कमी के आख़िरी दरजे पर पहुंच जाता है और ज़ोहर गुज़रने के बाद उसका साया मशरिक़ की तरफ़ हो जाता है और जूं जूं सूरज मग़रिब की तरफ़ ढलता है साया बढ़ता जाता है । इस बिना पर जब साया कमी के आख़िरी दरजे तक पहुंचे और दोबारा बढ़ने लगे तो पता चलता है कि ज़ोहरे शरई का वक़्त हो गया है। लेकिन बाज़ शहरों मसलन मक्कए मुकर्रमा में जहां बाज़ औक़ात ज़ोहर के वक़्त साया बिल्कुल ख़त्म हो जाता है जब साया दोबारा ज़ाहिर होता है तो मालूम हो जाता है कि ज़ोहर का वक़्त हो गया है।
738. ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त ज़वाले आफ़्ताब से गुरूबे आफ़्ताब तक है लेकिन अगर को शख़्स जान बूझकर अस्र की नमाज़ को ज़ोहर की नमाज़ पहले पढ़े तो उसकी अस्र की नमाज़ बातिल है सिवाए इसके कि आख़िरी वक़्त तक एक नमाज़ से ज़्यादा पढ़ने का वक़्त बाक़ी न हो क्योंकि ऐसी सूरत में अगर उसने ज़ोहर की नमाज़ नहीं पढ़ी तो उसकी ज़ोहर की नमाज़ क़ज़ा होगी और उसे चाहिये कि अस्र की नमाज़ पढ़े और अगर कोई शख़्स उस वक़्त से पहले ग़लत फ़हमी की बिना पर अस्र की पूरी नमाज़ ज़ोहर की नमाज़ से पहले पढ़ ले तो उसकी नमाज़ सहीह है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ को नमाज़े ज़ोहर क़रार दे और माफ़िज़्ज़िम्मा की नीयत से चार रक्अत और पढ़े।
739. अगर कोई शख़्स ज़ोहर की नमाज़ पढ़ने से पहले ग़लती से अस्र की नमाज़ पढ़ने लग जाए और नमाज़ के दौरान उसे पते चले कि उससे ग़लती हुई है तो उसे चाहिये कि नीयत नमाज़े ज़ोहर की जानिब फेर दे। यानी नीयत करे कि जो कुछ मैं पढ़ चुका हूँ और पढ़ रहा हूँ और पढ़ूंगा वह तमाम की तमाम नमाज़े ज़ोहर है और जब नमाज़ ख़त्म करे तो उसके बाद अस्र की नमाज़ पढ़े।
नमाज़े जुमा के अहकामः-
740. जुमा की नमाज़ सुब्ह की नमाज़ की तरह दो रक्अत की है। इसमें और सुब्ह की नमाज़ में फ़र्क़ यह है कि इस नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे भी हैं। जुमा की नमाज़ वाजिबे तख़्ईरी है। इससे मुराद यह है कि जुमा के दिन मुकल्लफ़ को इख़्तियार है कि अगर नमाज़े जुमा के शराइत मौजूद हों तो जुमा की नमाज़ पढ़े या ज़ोहर की नमाज़ पढ़े। लिहाज़ा अगर इंसान जुमा की नमाज़ पढ़े तो वह ज़ोहर की नमाज़ की किफ़ायत करती है (यानी फिर ज़ोहर की नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं) ।
जुमा की नमाज़ वाजिब होने की चन्द शर्तें हैं-
(अव्वल) वक़्त का दाखिल होना जो कि ज़वाले आफ़्ताब है और उसका वक़्ते अव्वल ज़वाले उर्फ़ी है। पस जब भी उसे ताख़ीर हो जाए, उसका वक़्त ख़त्म हो जाता है और फिर ज़ोहर की नमाज़ अदा करनी चाहिये।
(दोम) नमाज़ पढ़ने वालों की तादाद जो कि बमअ इमाम पांच अफ़्राद है और जब तक पांच मुसलमान इकट्ठे न हों जुमा की नमाज़ वाजिब नहीं होती।
(सोम) इमाम का जामेए शराइते इमामत होना – मसलन अदालत वग़ैरा जो कि इमामे जमाअत में मोअतबर हैं और नमाज़े जमाअत की बह्स में बताया जायेगा। अगर यह शर्त पूरी न हो तो जुमा की नमाज़ वाजिब नहीं होती।
जुमा की नमाज़ के सहीह होने की चन्द शर्तें हैं –
(अव्वल) बा जमाअत पढ़ा जाना। पस यह नमाज़ फ़ुरादा अदा करना सहीह नहीं और जब मुक़्तदी नमाज़ की दूसरी रक्अत के रूकू से पहले इमाम के साथ शामिल हो जाए तो उसकी नमाज़ सहीह है और वह उस नमाज़ पर एक रक्अत का इज़ाफ़ा करेगा और अगर वह रूकू में इमाम को पा ले (यानी नमाज़ में शामिल हो जाए) तो उसकी नमाज़ का सहीह होना मुश्किल है और एहतियाते तर्क नहीं होती (यानी उसे ज़ोहर की नमाज़ पढ़नी चाहिये)।
(दोम) नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे पढ़ना। पहले ख़ुत्बे में ख़तीब अल्लाह तअला की हम्द व सना बयान करे नीज़ नमाज़ियों को तक़्वा और परहेज़गारी की तल्क़ीन करे। फिर क़ुरआने मजीद का एक छोटा सूरा पढ़ कर (मिम्बर पर लम्हा दो लम्हा) बैठ जाए और फिर खड़ा हो और दोबारा अल्लाह तअला की हम्द व सना बजा लाए। फिर हज़रत रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और आइम्मा ए ताहिरीन (अ0) पर दुरूद भेजे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मोमिनीन और मोमिनात के लिये इस्तिग़्फ़ार (बख़्शिश की दुआ) करे। ज़रूरी है कि ख़ुत्बे नमाज़ से पहले पढ़े जायें। पस अगर नमाज़ दो ख़ुत्बों से पहले शूरू कर ली जाए तो सहीह नहीं होगी और ज़वाले आफ़्ताब से पहले ख़ुत्बे पढ़ने में इश्काल है और ज़रूरी है कि जो शख़्स ख़ुत्बे पढ़े वह ख़ुत्बे पढ़ने के वक़्त खड़ा हो। लिहाज़ा अगर वह बैठ कर ख़ुत्बे पढ़ेगा तो सहीह नहीं होगा और दो ख़ुत्बों के दरमियान बैठकर फ़ासिला देना लाज़िम और वाजिब है। और ज़रूरी है कि मुख़्तसर लम्हों के लिये बैठे। और यह भी ज़रूरी है कि इमामे जमाअत और ख़तीब यानी जो शख़्स ख़ुत्बे पढ़े – एक ही शख़्स हो, और अक़्वा यह है कि ख़ुत्बे में तहारत शर्त नहीं है अगरचे इश्तिरात (यानी शर्त होना) अहवत है। और एहतियात की बिना पर अल्लाह तअला की हम्द व सना इसी तरह पैग़म्बरे अकरम (स0) और अइम्मतुल मुसलिमीन पर अरबी ज़बान मे दुरूद भेजना मोअत्बर है और उससे ज़्यादा में अरबी मोअत्बर नहीं है। बल्कि अगर हाज़िरीन की अक्सरीयत अरबी न जानती हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि तक़्वा के बारे में वअज़ व नसीहत करते वक़्त जो ज़बान हाज़िरीन जानते हैं उसी तक़्वा की नसीहत करे।
(सोम) यह कि जुमा की दो नमाज़ों के दरमियान एक फ़र्सख़ से कम फ़ासिला न हो। पस जब जुमा की दूसरी नमाज़ एक फ़र्सख से कम फ़ासिले पर क़ाइम हो और दो नमाज़े वयक वक़्त पढ़ी जायें तो दोनों बातिल होंगी और अगर एक नमाज़ को दूसरी नमाज़ पर सबक़त हासिल हो ख़्वाह वह तक्बीरतुल एहराम की हद तक ही क्यों न हो तो वह (नमाज़ जिसे सबक़त हासिल हो) सहीह होगी और दूसरी बातिल होगी, लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले कि एक फ़र्सख़ से कम फ़ासिले पर जुमा की एक और नमाज़ इससे पहले या इसके साथ साथ क़ाइम हुई थी तो ज़ोहर की नमाज़ वाजिब नहीं होगी और इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस बात का इल्म वक़्त में हो या वक़्त के बाद हो। और जुमा की नमाज़ का क़ाइम करना मज़्कूरा फ़ासिले के अन्दर जुमा की दूसरी नमाज़ का क़ाइम करने में उस वक़्त माने होता है जब वह नमाज़ खुद सहीह और जामेउश्शराइत हो वर्ना उसके माने होने में इश्कल है। और ज़्यादा एहतिमाल उसके माने न होने का है।
741. जब जुमा की एक ऐसी नमाज़ क़ाइम हो जो शराइत को पूरी करती हो और नमाज़ क़ाइम करने वाला इमामे वक़्त या उसका नायब हो तो उस सूरत में नमाज़े जुमा में हाज़िर होना वाजिब है। और उस सूरत के अलावा हाज़िर होना वाजिब नहीं है। पहली सूरत में हाज़िरी के वुजूब के लिये चन्द चीज़ें मोअतबर हैः-
(अव्वल) मुकल्लफ़ मर्द हो – और जुमा की नमाज़ में हाज़िर होना औरतों के लिये वाजिब नहीं है।
(दोम) आज़ाद होना – लिहाज़ा ग़ुलामों के लिये जुमा की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(सोम) मुक़ीम होना – लिहाज़ा मुसाफ़िर के लिये जुमा की नमाज़ में शामिल होना वाजिब नहीं है। उस मुसाफ़िर में जिसका फ़रीज़ा क़स्र हो और जिस मुसाफ़िर नें इमामत की क़स्द किया हो और उसका फ़रीज़ा पूरी नमाज़ पढ़ना हो कोई फ़र्क़ नहीं है।
(चहारुम) बीमार और अंधा न होना – लिहाज़ा बिमार और अंधे शख़्स पर जुमा की नमाज़ वाजिब नहीं है।
(पंजुम) बूढ़ा न होना – लिहाज़ा बूढ़ों पर यह नमाज़ वाजिब नहीं है।
(शशुम) यह कि ख़ुद इंसान के और उस जगह के दरमियान जहां जुमुअ की नमाज़ क़ाइम हो दो फ़र्सख़ से ज़्यादा फ़ासिला न हो और जो शख़्स दो फ़र्सख़ के सिरे पर हो उसके लिये हाज़िर होना वाजिब है और इसी तरह वह शख़्स जिसके लिये जुमा की नमाज़ में बारिश या सख़्त सर्दी की वजह से हाज़िर होना मुश्किल या दुश्वार हो तो हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
742. चन्दअहकामजिनकातअल्लुक़जुमाकीनमाज़सेहैयहहैः-
(अव्वल) जिस शख़्स पर जुमा की नमाज़ साक़ित हो गई हो और उसका उस नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब न हो उसके लिये जाइज़ है कि ज़ोहर की नमाज़ अव्वले वक़्त में अदा करने की जल्दी करे।
(दोम) इमाम को ख़ुत्बे के दौरान बातें करना मकरूह है लेकिन अगर बातों की वजह से ख़ुत्बा सुनने में रूकावट हो तो एहतियात की बिना पर बातें करना जाइज़ नहीं है। और जो तादाद नमाज़े जुमा के वाजिब होने के लिये मोअतबर है उसमें और उससे ज़्यादा के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।
(सोम) एहतियात की बिना पर दोनों ख़ुत्बों का तवज्जोह से सुनना वाजिब है लेकिन जो लोग ख़ुत्बों के मअना न समझते हों उनके लिये तवज्जोह से सुना वाजिब नहीं है।
(चहारुम) जुमा के दिन की दूसरी अज़ान बिद्अत है और यह वही अज़ान है जिसे आम तौर पर तीसरी अज़ान कहा जाता है।
(पंजुम) ज़ाहिर यह है कि जब इमामे जुमा ख़ुत्बा पढ़ रहा हो तो हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(शशुम) जब जुमा की नमाज़ के लिये अज़ान दी जा रही हो तो खरीद व फ़रोख़्त उस सूरत में जबकि वह नमाज़ में माने हो हराम है और अगर ऐसा न हो तो फिर हराम नहीं है और अज़्हर यह है कि ख़रीद व फ़रोख़्त हराम होने की सूरत में भी मुआमला बातिल नहीं होता।
(हफ़्तुम) अगर किसी शख़्स पर जुमा की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब हो और वह उस नमाज़ को तर्क करे और ज़ोहर की नमाज़ बजा लाए तो अज़्हर यह है कि उसकी नमाज़ सहीह होगी।
मग़्रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त
743. एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक मश़्रिक़ की जानिब की वह सुर्ख़ी जो सूरज ग़ुरूब होने के बाद ज़ाहिर होती है इंसान के सर पर से न ग़ुज़र जाए वह मग़्रिब की नमाज़ न पढ़े।
744. मग़्रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त मुख़्तार शख़्स के लिये आधी रात तक रहता है लेकिन जिन लोंगो को कोई उज़्र हो मसलन भूल जाने की वजह से या नीन्द या हैज़ या उन जैसे दूसरे उमूर की वजह से आधी रात से पहले नमाज़ पढ़ सकते हों तो उनके लिये मग़्रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त फ़ज्र तुलूउ होने तक बाक़ी रहता है। लेकिन इन दोनों नमाज़ों के दरमियान मुतवज्जह होने की सूरत में तरतीब मोअतबर है यानी इशा की नमाज़ को जान बूझकर मग़्रिब की नमाज़ से पहले पढ़े तो बातिल है। लेकिन अगर इशा की नमाज़ अदा करने की मिक़्दार से ज़्यादा वक़्त बाक़ी न रहा हो तो उस सूरत में लाज़िम है कि इशा की नमाज़ को मग़्रिब की नमाज़ से पहले पढ़े।
745. अगर कोई शख़्स ग़लत फ़हमी की बिना पर इशा की नमाज़ मग़्रिब की नमाज़ से पहले पढ़ ले और नमाज़ के बाद इस अम्र की जानिब मुतवज्जह हो तो उसकी नमाज़ सहीह है और ज़रूरी है कि मग़्रिब की नमाज़ उसके बाद पढ़े।
746. अगर कोई शख़्स मग़्रिब की नमाज़ पढ़ने से पहले भूलकर इशा की नमाज़ पढ़ने में मश्ग़ूल हो जाए और नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि उसने ग़लती की है और अभी वह चौथी रक्अत के रूकू तक न पहुंचा हो तो ज़रूरी है कि मग़्रिब की तरफ़ नीयत फेर ले और नमाज़ को तमाम करे और बाद में इशा की नमाज़ पढ़े और अगर चौथी रक्अत के रूकू में जा चुका हो तो उसे इशा की नमाज़ क़रार दे और ख़त्म करे और बाद में मग़्रिब की नमाज़ बजा लाए।
747. इशा की नमाज़ का वक़्त मुख़्तार शख़्स के लिये आधी रात है और रात का हिसाब सूरज ग़ुरूब होने की इब्तिदा से तुलूए फ़ज्र तक है।
748. अगर कोई शख़्स इख़्तियारी हालत में मग़्रिब और इशा की नमाज़ आधी रात तक न पढ़े तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि अज़ाने सुब्ह से पहले क़ज़ा और अदा की नीयत किये बग़ैर इन नमाज़ों को पढ़े।
सुब्ह की नमाज़ का वक़्त
749. सुब्ह की अज़ान के क़रीब मश्रिक़ की तरफ़ से एक सफ़ैदी ऊपर उठती है जिसे फ़ज्रे अव्वल कहा जाता है। जब यह सफ़ैदी फैल जाए तो वह फ़ज्रे दोम और सुब्ह की नमाज़ का अव्वले वक़्त है और सुब्ह की नमाज़ का आख़िरी वक़्त सूरज निकलने तक है।
औक़ाते नमाज़ के अहकाम
750. इंसान नमाज़ में उस वक़्त मश्ग़ूल हो सकता है जब उसे यक़ीन हो जाए कि वक़्त दाख़िल हो गया है या दो आदिल मर्द वक़्त दाख़िल होने की ख़बर दें बल्कि किसी वक़्त शनास शख़्स की जो क़ाबिले इत्मीनान हो अज़ान या वक़्त दाख़िल होने के बारे में गवाही पर भी इक़्तिफ़ा किया जा सकता है।
751. अगर कोई शख़्स किसी ज़ाती उज़्र मसलन बीनाई न होने या क़ैद ख़ाने में होने की वजह से नमाज़ का अव्वल वक़्त दाखिल होने का यक़ीन न कर सके तो ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर करे हत्ता की उसे यक़ीन या इत्मीनान हो जाए कि वक़्त दाखिल हो गया है। इसी तरह अगर वक़्त दाखिल होने का यक़ीन होने में ऐसी चीज़ माने हो जो मसलन बादल, ग़ुबार या इन जैसी दूसरी चीज़ों (मसलन धुंध) की तरह उमूमन पेश आती हो तो एहितयाते लाज़िम की बिना पर उसके लिये भी यही हुक्म है।
752. अगर मज़्कूरा बाला तरीक़े से किसी शख़्स को इत्मीनान हो जाए कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और वह नमाज़ में मश्ग़ूल हो जाए लेकिन नमाज़ के बाद उसे पता चले कि अभी वक़्त दाख़िल नहीं हुआ तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर नमाज़ के बाद पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त से पहले पढ़ी तो उसके लिये भी यही हुक्म है लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि वक़्त दाखिल हो गया है या नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ पढ़ते हुए वक़्त दाखिल हो गया था तो उसकी नमाज़ सहीह है।
753. अगर कोई शख़्स इस अम्र की जानिब मुतवज्जह न हो कि वक़्त के दाखिल होने का यक़ीन कर के नमाज़ में मश्ग़ूल होना चाहिये लेकिन नमाज़ के बाद उसे मालूम हो कि उसने सारी नमाज़ वक़्त में पढ़ी है तो उसकी नमाज़ सहीह है और अगर उसे पता चल जाए कि उसने वक़्त से पहले नमाज़ पढ़ी है या उसे पता चले न चले कि वक़्त में पढ़ी है या वक़्त से पहले पढ़ी है तो उसकी नमाज़ बातिल है। बल्कि अगर नमाज़ के बाद उसे पता चले कि नमाज़ के दौरान वक़्त दाखिल हो गया था तब भी उसे चाहिये की नमाज़ को दोबारा पढ़े।
754. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि वक़्त दाखिल हो गया है और नमाज़ पढ़ने लगे लेकिन नमाज़ के दौरान शक करे कि वक़्त दाखिल हुआ है या नहीं तो उसकी नमाज़ बातिल है लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे यक़ीन हो कि वक़्त दाखिल हो गया है और शक करे की जितनी नमाज़ पढ़ी है वह वक़्त पर पढ़ी है या नहीं तो उसकी नमाज़ सहीह है।
755. अगर नमाज़ का वक़्त इतना तंग हो कि नमाज़ के बाद मुस्तहब अफ़्आल अदा करने से नमाज़ की कुछ मिक़्दार वक़्त के बाद पढ़नी पड़ती हो तो ज़रूरी है कि वह मुस्तहब उमूर को छोड़ दे मसलन अगर क़ुनूत पढ़ने की वजह से नमाज़ का कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ना पड़ता हो तो उसे चाहिये की क़ुनूत न पढ़े।
756. जिस शख़्स के पास नमाज़ की फ़क़त एक रक्आत अदा करने का वक़्त हो उसे चाहिये कि नमाज़ अदा की नीयत से पढ़े अलबत्ता उसे जान बूझकर नमाज़ में इतनी ताखीर नहीं करनी चाहिये।
757. जो शख़्स सफ़र में न हो अगर उसके पास ग़ुरूबे आफ़ताब तक पांच रक्अत नमाज़ पढ़ने के अन्दाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिये कि ज़ोहर और अस्र की दोनों नमाज़े पढ़े लेकिन अगर उसके पास उससे कम वक़्त हो तो उसे चाहिये कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़े और बाद में ज़ोहर की नमाज़ की क़ज़ा करे और इसी तरह अगर आधी रात तक उसके पास पांच रक्अत पढ़ने के अन्दाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिये की मग़्रीब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त इससे कम हो तो उसे चाहिये कि सिर्फ़ इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में अदा और क़ज़ा की नीयत किये बग़ैर नमाज़े मग़्रिब पढ़े।
758. जो शख़्स सफ़र में हो अगर ग़ुरूबे आफ़ताब तक उसके पास तीन रक्अत नमाज़ पढ़ने के अन्दाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिये कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ पढ़े और अगर इस से कम वक़्त हो तो उसे चाहिये कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़े और ज़ोहर की क़ज़ा करे और अगर आधी रात तक उसके पास चाह रक्अत नमाज़ पढ़ने के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिये कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ के तीन रक्अत के बराबर वक़्त हो तो उसे चाहिये कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ बजा लाए ताकि नमाज़ मग़रिब की एक रक्आत वक़्त में अंजाम दी जाए, और अगर नमाज़ की तीन रक्अत से कम वक़्त बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ अदा और क़ज़ा की नीयत किये बग़ैर पढ़े और अगर इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हो जाए कि आधी रात होने में एक रक्आत या उससे ज़्यादा रक्अते पढने के लिये वक़्त बाक़ी है तो उसे चाहिये की मग़रिब की नमाज़ फ़ौरन अदा की नीयत से बजा लाए।
759. इंसान के लिये मुस्तहब है कि नमाज़ अव्वले वक़्त में पढ़े और इसके मुताबिक़ बहुत ज़्यादा ताक़ीद की गई है और जितना अव्वले वक़्त के क़रीब हो बेहतर है मासिव इसके कि उसमें ताख़ीर किसी वजह बेहतर हो मसलन इसलिये इन्तिज़ार करे कि नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े।
760. जब इंसान के पास कोई ऐसा उज़्र हो कि अगर अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ना चाहे तो तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो और उसे इल्म हो कि उसका उज़्र आख़िरे वक़्त तक बाक़ी रहेगा या आख़िरे वक़्त तक उज़्र के दूर होने से मायूस हो तो वह अव्वले वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ सकता है लेकिन अगर मायूस न हो तो ज़रूरी है कि उज़्र दूर होने तक इन्तिज़ार करे और अगर उसका उज़्र दूर न हो तो आख़िरे वक़्त में नमाज़ पढ़े और यह ज़रूरी नहीं कि इस क़दर इन्तिज़ार करे कि नमाज़ के सिर्फ़ वाजिब अफ़्आल अन्जाम दे सके बल्कि उसके पास मुस्तहबाते नमाज़ मसलन अज़ान, इक़ामत और क़ुनूत के लिये भी वक़्त हो तो तयम्मुम के अलावा दूसरी मजबूरियों की सूरत में अगरचे उज़्र दूर होने से मायूस न हुआ हो उसके लिये जाइज़ है कि अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त के दौरान उसका उज़्र दूर हो जाए तो ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।
761. अगर एक शख़्स नमाज़ के मसाइल और शक्कीयात और सहवीयात का इल्म न रखता हो और उसे इस बात का एहतिमाल हो कि उसे नमाज़ के दौरान इन मसाइल में से कोई न कोई मसअला पेश आयेगा और उसके याद न करने की वजह से किसी लाज़िमी हुक्म की मुख़ालिफ़त होती हो तो ज़रूरी है कि उन्हें सीखने के लिये नमाज़ को मुवख़्खर कर दे लेकिन अगर उसे उम्मीद हो कि सहीह तरीक़े से नमाज़ अंजाम दे सकता है और अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ने में मश्ग़ूल हो जाए पस अगर नमाज़ में कोई ऐसा मस्अला न पेश आए जिसका हुक्म न जानता हो तो उसकी नमाज़ सहीह है। और अगर कोई ऐसा मस्अला पेश आ जाए जिसका हुक्म न जानता हो तो उसके लिये जाइज़ है कि जिन दो बातों का एहतिमाल हो उनमें से एक पर अमल करे और नमाज़ ख़त्म करे ताहम ज़रूरी है कि नमाज़ के बाद मस्अला पूछे और अगर उसकी नमाज़ बातिल साबित हो तो दोबारा पढ़े और अगर सहीह हो तो दोबारा पढ़ना लाज़िमी नहीं है।
762. अगर नमाज़ का वक़्त वसी हो और क़र्ज़ ख़्वाह भी अपने क़र्ज़ का मुतालबा करे तो अगर मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि पहले क़र्ज़ा अदा करे और बाद में नमाज़ पढ़े। और अगर कोई दूसरा वाजिब काम पेश आ जाए जिसे फ़ौरन बजा लाना ज़रूरी हो तो उसके लिये भी यही हुक्म है। मसलन अगर देखे कि मस्जिद नजिस हो गई है तो ज़रूरी है कि पहले मस्जिद को पाक करे और बाद में नमाज़ पढ़े और अगर मज़कूरा बाला दोनों सूरतों में पहले नमाज़ पढ़े तो गुनाह का मुर्तकिब होगा लेकिन उसकी नमाज़ सहीह होगी।
वह नमाज़ें जो तरतीब से पढ़नी ज़रूरी हैं
763. ज़रूरी है कि इंसान नमाज़े अस्र नमाज़े ज़ोहर के बाद और नमाज़े इशा नमाज़े मग़रिब के बाद पढ़े और अगर जानबूझ कर नमाज़े अस्र नमाज़े ज़ोहर से पहले पढ़े और नमाज़े इशा नमाज़े मग़रिब से पहले पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है।
764. अगर कोई शख़्स नमाज़े ज़ोहर की नीयत से नमाज़ पढ़नी शुरू करे तो नमाज़ के दौरान उसे याद आए कि नमाज़े ज़ोहर पढ़ चुका है तो वह नीयत को नमाज़े अस्र की जानिब नहीं मोड़ सकता बल्कि ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़ कर नमाज़े अस्र पढ़े और मग़रिब और इशा में भी यही सूरत है।
765. अगर नमाज़े अस्र के दौरान किसी शख़्स को यक़ीन हो कि उसने नमाज़े ज़ोहर नहीं पढ़ी है और वह नीयत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ मोड़ दे तो जूं ही उसे याद आए कि वह नमाज़े ज़ोहर पढ़ चुका है तो नीयत को नमाज़े अस्र की तरफ़ मोड़ दे और नमाज़ मुकम्मल करे। लेकिन अगर उसने नमाज़ के बाज़ अज्ज़ा को ज़ोहर की नीयत से अंजाम न दिया हो या ज़ोहर की नीयत से अंजाम दिया हो तो उस सूरत में उन अज्ज़ा को अस्र की नीयत से दोबारा अंजाम दे। लेकिन अगर वह जुज़ एक रक्अत का रूकू हो या दो सज्दे हों तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर नमाज़ बातिल है।
766. अगर किसी शख़्स को नमाज़े अस्र के दौरान शक हो कि उसने नमाज़े ज़ोहर पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि अस्र की नीयत से नमाज़ तमाम करे और बाद में ज़ोहर की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त इतना कम हो कि नमाज़ पढ़ने के बाद सूरज डूब जाता हो और एक रक्अत नमाज़ के लिये भी वक़्त बाक़ी न बचता हो तो लाज़िम नहीं है कि नमाज़े ज़ोहर की क़ज़ा पढ़े।
767. अगर किसी को नमाज़े इशा के बाद शक हो जाए कि उसने मग़रिब पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि इशा की नीयत से नमाज़ ख़त्म करे और बाद में मग़रिब की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त इतना कम हो कि नमाज़ ख़त्म होने के बाद आधी रात हो जाती हो और एक रक्अत नमाज़ का वक़्त भी न बचता हो तो नमाज़े मग़रिब की क़ज़ा उस पर लाज़िम नहीं है।
768. अगर कोई शख़्स नमाज़े इशा की चौथी रक्अत के रूकू में पहुंचने के बाद शक करे कि उसने नमाज़े मग़रिब पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि नमाज़ मुकम्मल करे। और अगर बाद में मग़रिब की नमाज़ के लिये वक़्त बाक़ी हो तो मग़रिब की नमाज़ भी पढ़ी।
769. अगर कोई शख़्स जो उसने पढ़ ली हो एहतियातन दोबारा पढ़े और नमाज़ के दौरान उसे याद आए कि उस नमाज़ से पहले वाली नमाज़ नहीं पढ़ी तो वह नीयत को उस नमाज़ की तरफ़ नहीं मोड़ सकता मसलन जब वह नमाज़े अस्र एहतियातन पढ़ रहा हो अगर उसे याद आए कि उसने नमाज़े ज़ोहर नहीं पढ़ी तो वह नीयत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ नहीं मोड़ सकता।
770. नमाज़े क़ज़ा की नीयत नमाज़े अदा की तरफ़ और नमाज़े मुस्तहब की नीयत नमाज़े वाजिब की तरफ़ मोड़ना जाइज़ नहीं है।
771. अगर अदा नमाज़ का वक़्त वसी हो तो इंसान नमाज़ के दौरान यह याद आने पर कि उसके ज़िम्मे कोई क़ज़ा नमाज़ है, नीयत को नमाज़े क़ज़ा की तरफ़ मोड़ सकता है बशर्ते कि नमाज़े क़ज़ा की तरफ़ नीयत मोड़ना मुम्किन हो। मसलन अगर वह नमाज़े ज़ोहर में मश्ग़ूल हो तो नीयत को क़ज़ाए सुबह की तरफ़ उसे सूरत में मोड़ सकता है कि तीसरी रक्अत के रूकू में न दाखिल हुआ हो।
मुस्तहब नमाज़ें
772. मुस्तहब नमाज़े बहुत सी हैं जिन्हें नफ़ल कहते हैं और मुस्तहब नमाज़ों से रोज़ाआना के नफ़्लों की बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है। यह नमाज़े रोज़े जुमा के अलावा चौंतीस रक्अत हैं। जिनमें से आठ रक्अत ज़ोहर की, आठ रक्अत अस्र की, चार रक्अत मग़रिब की, दो रक्अत इशा की, ग्यारा रक्अत नमाज़े शब (यानी तहज्जुद) की और दो रक्अत सुब्ह की होती हैं। और चूंकि एहतियाते वाजिब की बिना पर इशा की दो रक्अत नफ़ल बैठकर पढ़नी ज़रूरी है इस लिये वह एक रक्अत शुमार होती है। लेकिन जुमा के दिन ज़ोहर और अस्र की सोला रक्अत नफ़ल पर चार रक्अत का इज़ाफ़ा हो जाता है। और बेहतर है कि यह पूरी की पूरी बीस रक्अतें ज़वाल से पहले पढ़ी जायें।
773. नमाज़े शब की ग्यारा रक्अतों से आठ रक्अतें नाफ़िलाए शब की नीयत से और दो रक्अत नमाज़े शफ़अ की नीयत से और एक रक्अत नमाज़े वत्र की नीयत से पढ़नी ज़रूरी हैं और नाफ़िलए शब का मुकम्मल तरीक़ा दुआ की किताबों में मज़्कूर है।
774. नफ़ल नमाज़ें बैठकर भी पढ़ी जा सकती हैं लेकिन बाज़ फ़ुक़हा कहते हैं कि इस सूरत में बेहतर है कि बैठ कर पढ़ी जाने वाली नफ़ल नमाज़ की दो रक्अतों को एक रक्अत शुमार किया जाए मसलन जो शख़्स ज़ोहर की नफ़लें जिसकी आठ रक्अतें है बैठकर पढ़ना चाहे तो उसके लिये बेहतर है कि सोला रक्अतें पढ़े और अगर चाहे कि नमाज़े वित्र बैठकर पढ़े तो एक एक रक्अत की दो नमाज़ें पढ़े। ताहम इस काम का बेहतर होना मालूम नहीं है लेकिन रजा की नीयत से अंजाम दे तो कोई इश्काल नहीं है।
775. ज़ोहर और अस्र की नफ़्ली नमाज़ें सफ़र में नहीं पढ़नी चाहियें और अगर इशा की नफ़्लें रजा की नीयत से पढ़ी जाए तो कोई हरज नहीं है।
रोज़ाना की नफ़्लों का वक़्त
776. ज़ोहर की नफ़्लें नमाज़ें ज़ोहर से पहले पढ़ी जाती हैं। और जहां तक मुम्किन हो उसे ज़ोहर की नमाज़ से पहले पढ़ा जाए। और उसका वक़्त अव्वले ज़ोहर से लेकर ज़ोहर की नमाज़ अदा करने तक बाक़ी रहता है। लेकिन अगर कोई शख़्स ज़ोहर की नफ़्लों को उस वक़्त तक मुवख्खर कर दे कि शाखिस के साए की वह मिक़्दार जो ज़ोहर के बाद पैदा हो सात में से दो हिस्सों के बराबर हो जाए मसलन शाखिस की लम्बाई सात बालिश्त और साए की मिक़्दार दो बालिश्त हो तो इस सूरत में बेहतर यह है कि इंसान ज़ोहर की नमाज़ पढ़े।
777. अस्र की नफ़्लें अस्र की नमाज़ से पहले पढ़ी जाती हैं। और जब तक मुम्किन हो उसे अस्र की नमाज़ से पहले पढ़ा जाए। और उसका वक़्त अस्र की नमाज़ अदा करने तक बाक़ी रहता है। लेकिन अगर कोई शख़्स अस्र की नफ़्लें उस वक़्त तक मुवख्ख़र कर दे कि शाखिस के साए की वह मिक़्दार जो ज़ोहर के बाद पैदा हो सात में से चार हिस्सों तक पहुंच जाए तो उस सूरत में बेहतर है कि इंसान अस्र की नमाज़ पढ़े और अगर ज़ोहर या अस्र की नफ़्लें उस के मुक़र्ररा वक़्त के बाद पढ़ना चाहे तो ज़ोहर की नफ़्लें नमाज़े ज़ोहर के बाद और अस्र की नफ़्लें नमाज़े अस्र के बाद पढ़ सकता है। लेकिन एहतियात की बिना पर अदा और क़ज़ा की नीयत न करे।
778. मग़रिब की नफ़्लों का वक़्त नमाज़े मग़रिब ख़त्म होने के बाद होता है और जहां तक मुम्किन हो उसे मग़रिब की नमाज़ के फौरन बाद बजा लाए लेकिन अगर कोई शख़्स उस सुर्ख़ी के ख़त्म होने तक जो सूरज के ग़ुरुब होने के बाद आसमानन में दिखाई देती है मग़्ऱिब की नफ़्लों में ताखीर करे तो उस वक़्त बेहतर यह है कि इशा की नमाज़ पढ़े।
779. इशा की नफ़्लों का वक़्त नमाज़े इशा ख़त्म होने के बाद से आधी रात तक है और बेहतर है कि नमाज़े इशा ख़त्म होने के फ़ौरन बाद पढ़ी जाए।
780. सुब्ह की नफ़्लें सुब्ह की नमाज़े से पहले पढ़ी जाती हैं और उसका वक़्त नमाज़े शब का वक़्त ख़त्म होने के बाद से शुरू होता है और सुब्ह की नमाज़ अदा होने तक बाक़ी रहता है और जहां तक मुम्किन हो सुब्ह की नफ़्लें सुब्ह की नमाज़ से पहले पढ़नी चाहिये लेकिन अगर कोई शख़्स सुब्ह की नफ़्लें मश्रिक़ की सुर्ख़ी ज़ाहिर होने के बाद न पढ़े तो उस सूरत में यह है कि सुब्ह की नमाज़ पढ़े।
781. नमाज़े शब का अव्वले वक़्त मश्हूर क़ौल की बिना पर आधी रात है और सुब्ह की अज़ान तक उसका वक़्त बाक़ी रहता है। और बेहतर यह है कि सुब्ह की अज़ान के क़रीब पढ़ी जाए
782. मुसाफ़िर और वह शख़्स जिसके लिये नमाज़े शब का आधी रात के बाद अदा करना मुश्किल हो उसे अव्वले शब में भी अदा कर सकता है।
नमाज़े ग़ुफ़ैला
783. मश्हूर मुस्तहब नमाज़ों में से एक नमाज़े ग़ुफ़ैला है जो मग़्ऱिब और इशा की नमाज़ के दरमियान पढ़ी जाती है। इसकी पहली रक्अत में अलहम्द के बाद किसी दूसरी सूरत के बजाए यह आयत पढ़नी ज़रूरी हैः- व ज़न्नूने इज़् ज़हबा मुग़ाज़िबन फ़ज़न्ना अंल्लन तक़्दिरा अलैहे फ़नादा फ़िज़्ज़ुलुमाते अंल्ला इलाहा अल्ला अन्ता सुब्हानाका इन्नी कुन्तो मिनज़ ज़ालिमीना फ़स्तजब्ना लहू व नज्जैनाहो मिनल ग़म्मे व कज़ालिका नुंजिल मोमिनीन। और दूसरी रक्अत में अलहम्द के बाद बजाए किसी और सूरत के यह आयत पढ़ेः- व इन्दहू मफ़ातिहुल ग़ैबे ला यअलमुहा इल्ला हुवा व यअलमो मा फ़िल बर्रे वल बहरे व मा तस्क़ुतो मिंव वरक़तिन इल्ला यअलमुहा व ला हब्बतिन फ़ी ज़ुलुमातिल अर्ज़े व ला रत्बिंव व ला याबिसिन इल्ला फ़ी किताबिम मुम्बीन। और इसके क़ुनूत में यह पढ़ेः- अल्लाहुम्मा इन्नी अस्अलुका बे मफ़ातिहिल ग़ैबिल्लती ला यअतमुहा इल्ला अन्ता अन तुस्वल्लिया अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिंव व अन तफ़्अलबी कज़ा व कज़ा। और क़ज़ा व कज़ा के बजाए अपनी हाजतें बयान करे और उसके बाद कहेः- अल्लाहुम्मा अन्ता वलीयो नेमती वल क़ादिरो अला तलेबती तअलमु हाजती फ़असअलुका बे हक़्क़े मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिन अलैहे व अलैहिममुस्सलामु लम्मा क़ज़ैतहा ली। क़िब्ले के अहकाम
784. रव़ानए कअबः जो मक्कए मुर्कार्रमा में है वह हमारा क़िब्ला है लिहाज़ा (हर मुसलमान के लिये) ज़रूरी है कि उसके सामने खड़े होकर नमाज़ पढ़े। लेकिन जो शख़्स उससे दूर हो अगर वह इस तरह खड़ा हो कि लोग कहें कि क़िब्ले की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ रहा है तो काफ़ी है। और दूसरे काम जो क़िब्ले की तरफ़ मुंह कर के अंजाम देने ज़रूरी हैं मसलन हैवानात को ज़िब्हा करना उनका भी यही हुक्म है।
785. जो शख़्स खड़ा होकर वाजिब नमाज़ पढ़ रहा हो ज़रूरी है कि उसका सीना और पेट क़िब्ले की तरफ़ हो। बल्कि उसका चेहरा क़िब्ले से बहुत ज़्यादा फिरा हुआ नहीं होना चाहिये और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसके पांव की उंगलिया भी क़िब्ले की तरफ़ हों।
786. जिस शख़्स को बैठकर नमाज़ पढ़नी हो ज़रूरी है कि उसका सीना और पेट नमाज़ के वक़्त क़िब्ले की तरफ़ हो, बल्कि उसका चेहरा भी क़िब्ले से बहुत ज़्यादा फिरा हुआ न हो।
787. जो शख़्स बैठकर नमाज़ न पढ़ सके ज़रूरी है कि दायें पहलू के बल यूं लेटे कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िब्ले की तरफ़ हो और अगर यह मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि बायें पहलू के बल यूं लेटे कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िब्ला की तरफ़ हो। और जब तक दायें पहलू के बल लेट कर नमाज़ पढ़ना मुम्किन हो एहतियाते लाज़िम की बिना पर बायें पहलू के बल लेट कर नमाज़ न पढ़ें। और अगर यह दोनों सूरतें मुम्किन न हों तो ज़रूरी है कि पुश्त के बल यूं लेटे कि उसके पांव के तल्वे क़िब्ले की तरफ़ हों।
788. नमाज़े एहतियात, भूला हुआ सज्दा और भूला हुआ तशहहुद क़िब्ले की तरफ़ मुंह कर के अदा करना ज़रूरी है और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर सज्दाए सहव भी क़िब्ले की तरफ़ मुंह कर के अदा करे।
789. मुस्तहब नमाज़ रास्ता चलते हुए और सवारी की हालत में पढ़ी जा सकती है और अगर इंसान इन दोनों हालतों में मुस्तहब नमाज़ पढ़े तो ज़रूरी नहीं कि उसका मुंह क़िब्ले की तरफ़ हो।
790. जो शख़्स नमाज़ पढ़ना चाहे ज़रूरी है कि क़िब्ले की सम्त का तअय्युन करने के लिये कोशिश करे ताकि क़िब्ले की सम्त के बारे में यक़ीन या ऐसी कैफ़ियत जो यक़ीन के हुक्म में हो, मसलन दो आदिल आदमियों की गवाही हासिल कर ले और अगर ऐसा न कर सके तो ज़रूरी है कि मुसलमानों की मस्जिद के मेहराब से या उनकी क़ब्रों से या दूसरे तरीक़ों से जो गुमान पैदा हो उसके मुताबिक़ अमल करे हत्ता की अगर किसी ऐसे फ़ासिक़ या काफ़िर के कहने पर जो साइंसी क़वायद के ज़रीए क़िब्ले का रूख पहचानता हो क़िब्ले के बारे में गुमान पैदा करे तो वह भी काफ़ी है।
791. जो शख़्स क़िब्ले की सम्त के बारे में गुमान करे अगर वह उस से क़वी तर गुमान पैदा कर सकता हो तो अपने गुमान पर अमल नहीं कर सकता। मसलन अगर मेहमान साहबे ख़ाना के कहने पर क़िब्ले की सम्त के बारे में गुमान पैदा कर ले लेकिन किसी दूसरे तरीक़े से ज़्यादा क़वी गुमान पैदा कर सकता हो तो उसे साहबे ख़ाना के कहने पर अमल नहीं करना चाहिये।
792. अगर किसी के पास क़िब्ले का रूख़ मुतअय्यन करने का कोई ज़रीआ न हो (मसलन कुतुब नुमा) या कोशिश के बावजूद उसका गुमान किसी एक तरफ़ न जाता हो तो उसका किसी भी तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ना काफ़ी है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर नमाज़ का वक़्त वसी हो तो चार नमाज़ें चारों तरफ़ मुंह कर के पढ़े (यानी वही एक नमाज़ चार मर्तबा एक एक सम्त की जानिब मुंह करके पढ़े)।
793. अगर किसी शख़्स को यक़ीन या गुमान हो कि क़िब्ला दो में से एक तरफ़ है तो ज़रूरी है कि दोनों तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़े।
794. जो शख़्स कई तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ना चाहता हो अगर वह ऐसी दो नमाज़े पढ़ना चाहे जो ज़ोहर और अस्र की तरह यके बाद दीगरे पढ़नी ज़रूरी हैं तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहली नमाज़ मुख़्तलिफ़ सम्तों की तरफ़ मुंह करके पढ़े और बाद में दूसरी नमाज़ शुरू करे।
795. जिस शख़्स को क़िब्ले की सम्त का यक़ीन न हो अगर वह नमाज़ के अलावा कोई ऐसा काम करना चाहे जो क़िब्ले की तरफ़ मुंह करके करना ज़रूरी है मसलन अगर वह कोई हैवान ज़िब्हा करना चाहता हो तो उसे चाहिये की गुमान पर अमल करे और अगर गुमान पैदा करना मुम्किन न हो तो जिस तरफ़ मुंह करके वह काम अंजाम दे वह दुरूस्त है।
नमाज़ में बदन का ढांपना
796. ज़रूरी है कि मर्द ख़्वाह उसे कोई भी न देख रहा हो नमाज़ की हालत में अपनी शर्मगाहों को ढांपे और बेहतर यह है कि नाफ़ से घुटनो तक बदन भी ढांपे।
797. ज़रूरी है कि औरत नमाज़ के वक़्त अपना तमाम बदन हत्ता कि सर और बाल भी ढांपे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि पांव के तल्वे भी ढांपे। अलबत्ता चेहरे का जितना हिस्सा वुज़ू में धोया जाता है और कलाइयों तक और टखनों तक पांव का ज़ाहिरी हिस्सा ढांपना ज़रूरी नहीं है। लेकिन यह यक़ीन करने के लिये कि उसने बदन की वाजिब मिक़्दार ढांप ली है ज़रूरी है कि चेहरे के अतराफ़ का कुछ हिस्सा और कलाइयों से नीचे कुछ हिस्सा भी ढांपे।
798. जब इंसान भूले हुए सज्दे या भूले हुए तशहहुद की क़ज़ा बजा ला रहा हो तो ज़रूरी है कि अपने आप को इस तरह ढांपे जिस तरह नमाज़ के वक़्त ढांपा जाता है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि सज्दा ए सहव अदा करने के वक़्त भी अपने आप को ढांपे।
799. अगर इंसान झान बूझकर या मसअला न जानने की वजह से ग़लती करते हुए नमाज़ में अपनी शर्मगाह न ढांपे तो उसकी नमाज़ बातिल है।
800. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के दौरान पता चले कि उसकी शर्मगाह नंगी है तो ज़रूरी है कि अपनी शर्मगाह छिपाए और उस पर लाज़िम नहीं है कि नमाज़ दोबारा पढ़े। लेकिन एहतियात यह है कि जब उसे पता चले कि उसकी शर्मगाह नंगी है तो उसके बाद नमाज़ का कोई जुज़ अंजाम न दे। लेकिन अगर उसे नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ के बाद उसकी शर्मगाह नंगी थी तो उसकी नमाज़ सहीह है।
801. अगर किसी शख़्स का लिबास खड़े होने की हालत में उसकी शर्मगाह को ढांप ले लेकिन मुम्किन हो दूसरी हालत में मसलन रुकुउ और सुजूद की हालत में न ढांपे तो अगर शर्मगाह के नंगा होने के वक़्त उसे किसी ज़रीए से ढांप ले तो उसकी नमाज़ सहीह है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस लिबास के साथ नमाज़ न पढ़े।
802. इंसान नमाज़ में अपने आप को घास फूस के दरख़्तों में (बड़े) पत्तों से ढांप सकता है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन चीज़ों से उस वक़्त ढांपे जब उसके पास कोई और चीज़ न हो।
803. इंसान के पास मजबूरी की हालत में शर्मगाह छिपाने के लिये कोई चीज़ न हो तो अपनी शर्मगाह की खाल नुमायाँ न होने के लिये गारा या उस जैसी किसी दूसरी चीज़ को लीप पोत कर उसे छिपाए।
804. अगर किसी शख़्स के पास कोई ऐसी चीज़ न हो जिससे वह नमाज़ में अपने आप को ढांपे और अभी वह ऐसी चीज़ मिलने से मायूस भी न हुआ हो तो बेहतर यह है कि नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर करे और अगर कोई चीज़ न मिले तो आख़िरे वक़्त में अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े लेकिन अगर अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़े और उसका उज़्र आख़िरे वक़्त तक बाक़ी न रहे तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े।
805. अगर किसी शख़्स के पास जो नमाज़ पढ़ना चाहता हो आपने आप को ढांपने के लिये दरख़्त के पत्ते, घास, गारा या दलदल न हो और आखिरे वक़्त तक किसी ऐसी चीज़ के मिलने से मायूस हो जिससे वह अपने आपको छिपा सके अगर उसे इस बात का इत्मीनान हो कि कोई शख़्स उसे नहीं देखेगा तो वह खड़ा होकर उसी तरह नमाज़ पढ़े जिस तरह इख़्तियारी हालत में रुकुउ और सुजूद के साथ नमाज़ पढ़ते हैं। लेकिन अगर उसे इस बात का एहतिमाल हो कि कोई शख़्स उसे देख लेगा तो ज़रूरी है कि इस तरह नमाज़ पढ़े कि उसकी शर्मगाह नज़र न आए मसलन बैठकर नमाज़ पढ़े या रुकुउ और सुजूद जो इख़्तियारी हालत में अंजाम देते हैं तर्क करे और रुकुउ और सुजूद को इशारे से बजा लाए और एहतियाते लाज़िम यह है कि नंगा शख़्स नमाज़ की हालत में अपनी शर्मगाह को अपने बाज़ अअज़ा के ज़रीए मसलन बैठा हो तो दोनों रानों से और खड़ा हो तो दोनों हाथों से छिपा ले।
नमाज़ी के लिबास की शर्तें
806. नमाज़ पढ़ने वाले के लिबास की छः शर्तें हैः-
(1). पाक हो।
(2). मुबाह हो।
(3). मुर्दार के अज्ज़ा से न बना हो।
(4). हराम गोश्त हैवान के अज्ज़ा से न बना हो।
(5 और 6) अगर नमाज़ पढ़ने वाला मर्द हो तो उसका लिबास खालिस रेशम और ज़रदोज़ी का बना हुआ न हो। इन शर्तों की तफ़्सील आइन्दा मसाइल में बताई दायेगी।
पहली शर्तः-
807. नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास पाक होना ज़रूरी है। अगर कोई शख़्स हालते इख़्तियार में नजिस बदन या नजिस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े तो उस की नमाज़ बातिल है।
808. अगर कोई शख़्स अपनी कोताही की वजह से यह न जानता हो कि नजिस बदन और लिबास के साथ नमाज़ बातिल है और नजिस बदन या लिबास के साथ लिबास पढ़े तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
809. अगर कोई शख़्स मस्अला न जानने की वजह से कोताही की बिना पर किसी नजिस चीज़ के बारे में यह न जानता हो कि नजिस है मसलन यह न जानता हो कि काफ़िर का पसीना नजिस है और उस (पसीने) के साथ नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ एहतियाते लाज़िम की बिना पर बातिल है।
810. अगर किसी शख़्स को यह यक़ीन हो कि उस का बदन या लिबास नजिस नहीं है और उसके नजिस होने के बारे में उसे नमाज़ के बाद पता चले तो उसकी नमाज़ सहीह है।
811. अगर कोई शख़्स यह भूल जाए कि उसका बदन या लिबास नजिस है और उसे नमाज़ के दौरान या उसके बाद याद आए चुनांचे अगर उसने लापरवाही और अहमीयत न देने की वजह से भुला दिया हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि वह नमाज़ को दोबारा पढ़े और अगर वह वक़्त गुज़र गया हो तो उसकी क़ज़ा करे। और इस सूरत के अलावा ज़रूरी नहीं है कि वह नमाज़ को दोबारा पढ़े। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे याद आए तो ज़रूरी है कि उस हुक्म पर अमल करे जो बाद वाले मसअले में बयान किया जायेगा।
812. जो शख़्स वसी वक़्त में नमाज़ में मशग़ूल हो अगर नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि उस का बदन या लिबास नजिस है और उसे यह एहतिमाल हो कि नमाज़ शूरू करने के बाद नजिस हुआ है तो उस सूरत में बदन या लिबास पाक करने या लिबास तब्दील करने या लिबास उतार देने से नमाज़ न टूटे तो नमाज़ के दौरान बदन या लिबास पाक करे या लिबास तब्दील करे या अगर किसी और चीज़ ने उसकी शर्मगाह को ढांप रखा हो तो लिबास उतार दे लेकिन जब यह सूरत हो कि अगर बदन या लिबास पाक करे या अगर लिबास बदले या उतारे तो नमाज़ टूटती हो या अगर लिबास उतारे तो नंगा हो जाता हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि दोबारा पाक लिबास के साथ नमाज़ पढ़े।
813. जो शख़्स तंग वक़्त में नमाज़ में मशग़ूल हो अगर नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि उसका लिबास नजिस है और उसे यह एहतिमाल हो कि नमाज़ शुरू करने के बाद नजिस हुआ है तो अगर यह सूरत हो कि लिबास पाक करने या बदलने या उतारने से नमाज़ टूटती हो और वह लिबास उतार सकता हो तो ज़रूरी है कि लिबास को पाक करे या बदले या अगर किसी और चीज़ ने उसकी शर्मगाह को ढांप रखा हो तो लिबास उतार दे और नमाज़ ख़त्म करे लेकिन अगर किसी और चीज़ ने उसकी शर्मगाह को ढांप रखा हो और वह लिबास पाक न कर सकता हो और उसे बदल भी न सकता हो तो ज़रूरी है कि उसी नजिस लिबास के साथ नमाज़ को ख़त्म करे।।
814. कोई शख़्स जो तंग वक़्त में मशग़ूल हो और नमाज़ के दौरान पता चले कि उसका बदल नजिस है और उसे यह एहतिमाल हो कि नमाज़ शुरू करने के बाद नजिस हुआ हो तो अगर सूरत यह हो कि बदन पाक करने से नमाज़ न टूटती हो तो बदन को पाक करे और अगर नमाज़ टूटती हो तो ज़रूरी है कि उसी हालत में नमाज़ ख़त्म करे और उसकी नमाज़ सहीह है।
815. ऐसा शख़्स जो अपने बदन या लिबास के पाक होने के बारे में शक करे और जुस्तजू के बाद कोई चीज़ न पाकर और नमाज़ पढ़े और नमाज़ के बाद उसे पता चले कि उसका बदन या लिबास नजिस था तो उसकी नमाज़ सहीह है और अगर उसने जुस्तजू न की हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र गया हो तो उसकी क़ज़ा करे।
816. अगर कोई शख़्स अपना लिबास धोए और उसे यक़ीन हो जाए कि लिबास पाक हो गया है, उसके साथ नमाज़ पढ़े और नमाज़ के बाद उसे पता चले कि पाक नहीं हुआ था तो उसकी नमाज़ सहीह है।
817. अगर कोई शख़्स अपने बदन या लिबास में खून देखे और उसे यक़ीन हो कि यह नजिस खून में से नहीं है मसलन उसे यक़ीन हो कि मच्छर का खून है लेकिन नमाज़ पढ़ने के बाद उसे पता चले कि यह उस खून में से है जिसके साथ नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती तो उसकी नमाज़ सहीह है।
818. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि उसके बदन या लिबास में जो खून है वह ऐसा नजिस खून है जिसके साथ नमाज़ सहीह है मसलन उसे यक़ीन हो कि ज़ख़्म और फ़ोड़े का खून है लेकिन नमाज़ के बाद उसे पता चले कि यह ऐसा खून है जिसके साथ नमाज़ बातिल है तो उसकी नमाज़ सहीह है।
819. अगर कोई शख़्स यह भूल जाए कि एक चीज़ नजिस है या गीला बदन या गीला लिबास उस चीज़ से छू जाए और उसी भूल के आलम में वह नमाज़ पढ़ ले और नमाज़ के बाद उसे याद आए तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन अगर उसका गीला बदन उस चीज़ को छू जाए जिसका नजिस होना वह भूल गया है और अपने आप को पाक किये बग़ैर वह ग़ुस्ल करे और नमाज़ पढ़े तो उसका ग़ुस्ल और नमाज़ बातिल है मासिवा इसके कि ग़ुस्ल करने से बदन भी पाक हो जाए। और अगर वुज़ू के गीले अअज़ा का कोई हिस्सा उस चीज़ से छू जाए जिसके नजिस होने के बारे में वह भूल गया है और इससे पहले कि वह उस हिस्से को पाक करे वह वुज़ू करे और नमाज़ पढ़े तो उसका वुज़ू और नमाज़ दोनों बातिल हैं मासिवा इसके कि वुज़ू करने से वुज़ू के अअज़ा भी पाक हो जायें।
820. जिस शख़्स के पास सिर्फ़ एक लिबास हो अगर उसका बदन और लिबास नजिस हो जाए और उसके पास उनमें से एक को पाक करने के लिये पानी हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि बदन को पाक करे और नजिस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े। और लिबास को पाक कर के नजिस बदन के साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है। लेकिन अगर लिबास की नजासत बदन की नजासत से बहुत ज़्यादा हो या लिबास की नजासत बदन की नजासत के लिहाज़ से ज़्यादा शदीद हो तो उसे इख़्तियार है कि लिबास और बदन में से जिसे चाहे पाक करे।
821. जिस शख़्स के पास नजिस लिबास के अलावा कोई लिबास न हो ज़रूरी है कि नजिस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े और उसकी नमाज़ सहीह है।
822. जिस शख़्स के पास दो लिबास हों अगर वह यह जानता हो कि इनमें से एक नजिस है लेकिन यह न जानता हो कि कौन सा नजिस है और उसके पास वक़्त हो तो ज़रूरी है कि दोनों के साथ नमाज़ पढ़े (यानी एक दफ़्आ एक लिबास पहन कर और एक दफ़्आ दूसरा लिबास पहन कर दो दफ़्आ वही नमाज़ पढ़े) मसलन अगर वह ज़ोहर और अस्र की नमाज़ पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि हर एक लिबास से एक नमाज़ ज़ोहर की और एक नमाज़ अस्र की पढ़े लेकिन अगर वक़्त तंग हो तो जिस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ ले काफ़ी है।
दूसरी शर्त
823. नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास मुबाह होना ज़रूरी है। पस अगर एक शख़्स जो जानता हो कि ग़स्बी लिबास पहनना हराम है या कोताही की वजह से मसअला का हुक्म न जानता हो और जान बूझकर उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर लिबास में वह चीज़ें जिनसे अगरचे शर्मगाह को ढांपा जा सकता हो लेकिन नमाज़ पढ़ने वाले ने उन्हें हालते नमाज़ में न पहन रखा हो मसलन बड़ा रूमाल या लंगोटी जो जेब में रखी हो और इसी तरह वह चीज़ें जिन्हें नमाज़ी ने पहन रखा हो अगरचे उसके पास एक मुबाह सत्रपोश भी हो ऐसी तमाम सूरतों में इन (इज़ाफ़ी) चीज़ों के ग़स्बी होने से नमाज़ में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अगरचे एहतियात उनके तर्क कर देने में है।
824. जो शख़्स यह जानता हो कि ग़स्बी लिबास पहनना हराम है लेकिन उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने का हुक्म न जानता हो अगर वह जान बूझकर ग़स्बी लिबास के साथ नमाज़ पढ़े तो ज़ैसा कि साबिक़ा मसअले में तफ़्सील से बताया गया है एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
825. अगर कोई शख़्स न जानता हो या भूल जाए कि उसका लिबास ग़स्बी है और उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सहीह है। लेकिन अगर वह शख़्स ख़ुद उस लिबास को ग़स्ब करे और फिर भूल जाए कि उसने ग़स्ब किया है और उसी लिबास में नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
826. अगर किसी शख़्स को इल्म न हो या भूल जाए कि उसका लिबास ग़स्बी है लेकिन नमाज़ के दौरान उसे पता चल जाए और उसकी शर्मगाह किसी दूसरी चीज़ से ढकी हुई हो और वह फ़ौरन या नमाज़ का तसलसुल तोड़े बग़ैर ग़स्बी लिबास उतार सकता हो तो ज़रूरी है कि फ़ौरन उस लिबास को उतार दे और अगर उसकी शर्मगाह किसी दूसरी चीज़ से ढकी हुई न हो या वह ग़स्बी लिबास को फ़ौरन न उतार सकता हो या अगर लिबास का उतारना नमाज़ के तसलसुल को तोड़ देता हो और सूरत यह हो कि उसके पास एक रक्अत पढ़ने जितना वक़्त भी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को तोड़ दे और उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े जो ग़स्बी न हो और अगर इतना वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ की हालत में लिबास उतार दे और बरहना लोगों की नमाज़ के मुताबिक़ नमाज़ ख़त्म करे।
827. अगर कोई शख़्स अपनी जान की हिफ़ाज़त के लिये ग़स्बी लिबास के साथ नमाज़ पढ़े या मिसाल के तौर पर ग़स्बी लिबास के साथ इस लिये नमाज़ पढ़े ताकि चोरी न हो जाए तो उसकी नमाज़ सहीह है।
828. अगर कोई शख़्स उस रक़म से लिबास खरीदे जिसका ख़ुम्स उसने अदा न किया हो तो उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने के लिये वही हुक्म है जो ग़स्बी लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने का है।
तीसरी शर्त
829. ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास और हर वह चीज़ जो शर्मगाह छिपाने के लिये नाकाफ़ी है एहतियाते लाज़िम की बिना पर जिहिन्दा खून वाले मुर्दा हैवान के अअज़ा से न बनी हो बल्कि अगर लिबास उस मुर्दा हैवान मसलन मछली और सांप से तैयार किया जाए जिसका खून जिहिन्दा नहीं होता तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसके साथ नमाज़ न पढ़ी जाए।
830. अगर नजिस मुर्दार की ऐसी चीज़ मसलन गोश्त और खाल जिसमें रूह होती है नमाज़ पढ़ने वाले के हमराह हो तो कुछ बईद नहीं है कि उसकी नमाज़ सहीह हो।
831. अगर हलाल गोश्त मुर्दार की कोई ऐसी चीज़ जिसमें रुह न होती हो मसलन बाल और ऊन नमाज़ पढ़ने वाले के हमराह हो या उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े जो इन चीज़ों से तैयार किया गया हो तो उसकी नमाज़ सहीह है।
चौथी शर्त
832. ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास – उन चीज़ों के अलावा जो सिर्फ़ शर्मगाह छिपाने के लिये नाकाफ़ी है मसलन जुर्राब – जानवरों के अअज़ा से तैयार किया हुआ न हो बल्कि एहतियाते लाज़िम की बिना पर हर उस जानवर के अअज़ा से बना हुआ न हो जिसका गोश्त खाना हराम है। इसी तरह ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास और बदन हराम गोश्त जानवर के पेशाब, पाखाने, पसीने, दूध और बाल से आलूदा न हो लेकिन अगर हराम गोश्त जानवर का एक बाल उसके लिबास पर लगा हो तो कोई हरज नहीं है। इसी तरह नमाज़ गुज़ार के हमराह इन में से कोई चीज़ अगर डिबिया (या बोतल वग़ैरा) में बन्द रखी हो तब भी कोई हरज नहीं है।
833. हराम गोश्त जानवर मसलन बिल्ली के मुंह या नाक का पानी या कोई दूसरी रुतूबत नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर लगी हो और अगर वह तर हो तो नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर ख़ुश्क हो और उसका ऐन जुज़्व ज़ाइल हो गया हो तो नमाज़ सहीह है।
834. अगर किसी का बाल या पसीना या लुआब नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर लगा हो तो कोई हरज नहीं। इसी तरह मर्वारीद, मोम और शहद उसके हमराह हो तब भी नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
835. अगर किसी को शक हो कि लिबास हलाल गोश्त जानवर से तैयार किया गया है या हराम गोश्त जानवर से तो ख़्वाह वह मक़ामी तौर पर तैयार किया गया हो या दर आमद किया गया हो उसके साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
836. यह मालूम नहीं है कि सीपी हराम गोश्त हैवान के अअज़ा में से है लिहाज़ा सीप (के बटन वग़ैरा) के साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
837. समूर का लिबास (Mink Fur) और इसी तरह गिलहरी की पोस्तीन पहन कर नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि गिलहरी की पोस्तीन के साथ नमाज़ न पढ़ी जाए।
838. अगर कोई शख़्स ऐसे लिबास के साथ नमाज़ पढ़े जिसके मुतअल्लिक़ वह न जानता हो या भूल गया हो कि हराम गोश्त जानवर से तैयार हुआ है तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उस नमाज़ को दोबारा पढ़े।
पांचवीं शर्त
839. ज़रदोज़ी का लिबास पहनना मर्दों के लिये हराम है और उसके साथ नमाज़ पढ़ना बातिल है लेकिन औरतों के लिये नमाज़ में या नमाज़ के अलावा उसके पहनने में कोई हरज नहीं है।
840. सोना पहनना मसलन सोने की ज़ंजीर गले में पहनना, सोने की अंगूठी हाथ में पहनना, सोने की घड़ी कलाई में बांधना और सोने की ऐनक लगाना मर्दों के लिये हराम है और इन चीज़ों के साथ नमाज़ पढ़ना बातिल है। लेकिन औरतों के लिये नमाज़ में और नमाज़ के अलावा इन चीज़ों के इस्तेमाल में कोई हरज नहीं ।
841. अगर कोई शख़्स न जानता हो या भूल गया हो कि उसकी अंगूठी या लिबास सोने का है या शक रखता हो और उसके साथ नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सहीह है।
छटी शर्त
842. नमाज़ पढ़ने वाले मर्द का लिबास ह्त्ता कि एहतियाते मुस्तहब की बिना पर टोपी और इज़ारबन्द भी खालिस रेशम का नहीं होना चाहिए और नमाज़ के अलावा भी ख़ालिस रेशम पहनना मर्दों के लिये हराम है।
843. अगर लिबास का तमाम अस्तर या उसका कुछ हिस्सा खालिस रेशम का हो तो मर्द के लिये उसका पहनना हराम और उसके साथ नमाज़ पढ़ना बातिल है।
844. जब किसी लिबास के बारे में यह इल्म न हो कि खालिस रेशम का है या किसी और चीज़ का बना हुआ है तो उसका पहनना जाइज़ है और उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है।
845. रेशमी रुमाल या उसी जैसी कोई चीज़ मर्द की जेब में हो तो कोई हरज नहीं है और वह नमाज़ को बातिल नहीं करती।
846. औरत के लिये नमाज़ में या उसके अलावा रेशमी लिबास पहनने में कोई हरज नहीं है।
847. मजबूरी की हालत में ग़स्बी और खालिस रेशमी और ज़रदोज़ी का लिबास पहनने में कोई हरज नहीं । इसके अलावा जो शख़्स यह लिबास पहनने पर मजबूर हो और उसके पास कोई और लिबास न हो तो वह इन लिबासों के साथ नमाज़ पढ़ सकता है।
848. अगर किसी शख़्स के पास ग़स्बी लिबास के अलावा कोई लिबास न हो और वह यह लिबास पहनने पर मजबूर न हो तो उसे चाहिये कि उन एहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरहना लोगों के लिये बताए गये हैं।
849. अगर किसी के पास दरिन्दे के अज्ज़ा से बने हुए लिबास के अलावा और कोई लिबास न हो और वह यह लिबास पहनने पर मजबूर हो तो उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ सकता है और अगर लिबास पहनने पर मजबूर न हो तो उसे चाहिये कि उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरहना लोगों के लिए बताए गए हैं। और अगर उसके पास ग़ैर शिकारी हराम जानवरों के अज्ज़ा से तैयार शुदा लिबास के सिवा दूसरा लिबास न हो और वह उस लिबास को पहनने पर मजबूर न हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि दो दफ़्आ नमाज़ पढ़े। एक बार उसी लिबास के साथ और एक बार उस तरीक़े के मुताबिक़ जिस का ज़िक्र बरहना लोगों की नमाज़ में बयान हो चुका है।
850. अगर किसी मर्द के पास खालिस रेशमी या ज़रबफ़्ती लिबास के सिवा कोई लिबास न हो और वह लिबास पहनने पर मजबूर न हो तो ज़रूरी है कि उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरहना लोगों के लिये बताए गये हैं।
851. अगर किसी के पास ऐसी कोई चीज़ न हो जिससे वह अपनी शर्मगाहों को नमाज़ में ढांप सके तो वाजिब है कि ऐसी चीज़ किराए पर ले या ख़रीदे लेकिन अगर उस पर उसकी हैसियत से ज़्यादा ख़र्च उठता हो या सूरत यह हो कि इस काम के लिये ख़र्च बर्दाश्त करे तो उसकी हालत तबाह हो जाए तो उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरहना लोगों के लिये बताए गए हैं।
852. जिस शख़्स के पास लिबास न हो अगर कोई दूसरा शख़्स उसे लिबास बख़्श दे या उधार दे दे तो अगर लिबास का क़बूल करना उस पर गरां न गुरज़ता हो तो ज़रूरी है कि उसे क़बूल कर ले बल्कि अगर उधार लेना या बख़शिश के तौर पर तलब करना उसके लिये तक्लीफ़ का बाइस न हो तो ज़रूरी है कि जिस के पास लिबास हो उससे उधार मांग ले या बख़शिश के तौर पर तलब करे।
853. अगर कोई शख़्स ऐसा लिबास पहनना चाहे जिसका कपड़ा, रंग या सिलाई रिवाज के मुताबिक़ न हो तो अगर उसका पहनना उसकी शान के खिलाफ़ और तौहीन का बाइस हो तो उसका पहनना हराम है। लेकिन अगर वह उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े और उसके पास शर्मगाह छिपाने के लिये फ़क़त वही लिबास हो तो उसकी नमाज़ सहीह है।
854. अगर मर्द ज़नाना लिबास पहने और औरत मर्दाना लिबास पहने और उसे अपनी ज़ीनत क़रार दे तो एहतियात की बिना पर उसका पहनना हराम है। लेकिन उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ना हर सूरत में सहीह है।
855. जिस शख़्स को लेटकर नमाज़ पढ़नी चाहिये अगर उसका लिहाफ़ दरिन्दे के अज्ज़ा से बल्कि एहतियात की बिना पर हराम गोश्त जानवर के अज्ज़ा से बना हो या नजिस या रेशमी हो और उसे पहनावा कहा जा सके तो उससे भी नमाज़ जाइज़ नहीं है। लेकिन अगर उसे महज़ अपने ऊपर डाल लिया जाए तो कोई हरज नहीं और उससे नमाज़ बातिल नहीं होती अलबत्ता गदीले के इस्तेमाल में किसी हालत में भी कोई क़बाहत नहीं सिवा इसके कि उसका कुछ हिस्सा इंसान अपने ऊपर लपेट ले और उसे उर्फ़े आम में पहनना कहा जाए तो इस सूरत में उस का भी वही हुक्म है जो लिहाफ़ का है।
जिन सूरतों में नमाज़ी का बदन और लिबास पाक होना ज़रूरी नहीं
856. तीन सूरतों में जिनकी तफ़्सील नीचे बयान की जा रही है अगर नमाज़ पढ़ने वाले का बदन या लिबास नजिस भी हो तो उसकी नमाज़ सहीह हैः-
(1). उसके बदन के ज़ख़्म, जराहत या फोड़े की वजह से उसके लिबास या बदन पर खून लग जाए।
(2). उसके बदन या लिबास पर दिरहम – जिसकी मिक़्दार तक़्रीबन अंगूठे के ऊपर वाली गिरह के बराबर है – की मिक़्दार से कम खून लग जाए।
(3). वह नजिस बदन या लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो।
इनके अलावा एक और सूरत में अगर नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास नजिस भी हो तो उसकी नमाज़ सहीह है और वह सूरत यह है कि उसका छोटा लिबास मसलन मोज़ा और टोपी नजिस हो।
इन चारों सूरतों के मुफ़स्सल अहकाम आइन्दा मस्अलों में बयान किये जायेंगे।
857. अगर नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर ज़ख़्म या जराहत या फ़ोड़े का खून हो तो वह उस खून के साथ उस वक़्त तक नमाज़ पढ़ सकता है जब तक ज़ख़्म या जराहत या फ़ोड़े ठीक न हो जाए और उसके बदन या लिबास पर ऐसी पीप हो जो खून के साथ निकली हो या ऐसी दवाई हो जो ज़ख़्म पर लगाई गई हो और नजिस हो गई हो और नजिस हो गई हो तो उसके भी यही हुक्म है।
858. अगर नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर ऐसी खराश या ज़ख़्म का खून लगा हो जो जल्दी ठीक हो जाता हो और जिसका धोना आसान हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।
859. अगर बदन या लिबास की ऐसी जगह जो ज़ख़्म से फ़ासिले पर हो ज़ख़्म की रुतूबत से नजिस हो जाए तो उसके साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है लेकिन अगर लिबास या बदन की वह जगह जो उमूमन ज़ख़्म की रुतूबत से आलूदा हो जाती है उस ज़ख़्म की रुतूबत से नजिस हो जाए तो उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है।
860. अगर किसी शख़्स के बदन या लिबास को उस बवासीर से जिस के मस्से बाहर न हों या उस ज़ख़्म से जो मुंह और नाक वग़ैरा के अन्दर हों खून लग जाए तो ज़ाहिर यह है कि वह उसके साथ नमाज़ पढ़ सकता है अलबत्ता उस बवासीर के खून के साथ नमाज़ पढ़ना बिला इश्काल जाइज़ है जिसके मस्से मक़्अद के बाहर हों।
861. अगर कोई ऐसा शख़्स जिसके बदन पर ज़ख़्म हों अपने बदन या लिबास पर ऐसा खून देखे जो दिरहम से ज़्यादा हो और यह न जानता हो कि यह खून ज़ख़्म का है या कोई और खून है तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस खून के साथ नमाज़ न पढ़े।
862. अगर किसी शख़्स के बदन पर चन्द ज़ख़्म हों और वह एक दूसरे के इस क़द्र नज़्दीक हों कि एक ज़ख़्म शुमार होते हों तो जब तक वह ज़ख़्म ठीक न हो जायें उनके खून के साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है लेकिन अगर वह एक दूसरे से इतने दूर हों कि उनमें से हर ज़ख़्म एक अलायहदा ज़ख़्म शुमार हो तो जो ज़ख़्म ठीक हो जाए ज़रूरी है कि नमाज़ के लिये बदन और लिबास को धो कर उस खून से पाक करे।
863. अगर नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर सुई की नोक के बराबर भी हैज़ का खून लगा हो तो उसकी नमाज़ बातिल है। और एहतियात की बिना पर नजिस हैवानात मसलन सुव्वर, मुर्दार और हराम गोश्त जानवर नीज़ निफ़ास और इस्तिहाज़ा की भी यही सूरत है। लेकिन दूसरा खून मसलन इंसान या हलाल गोश्त हैवान के खून की छींट बदन के कई हिस्सों पर लगी हो लेकिन मज्मूई मिक़्दार एक दिरहम से कम हो तो उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है।
864. जो खून बग़ैर अस्तर के कपड़े पर गिरे और दूसरी तरफ़ पहुंच जाए वह एक खून शुमार होता है लेकिन अगर कपड़े के दूसरी तरफ़ अलग से खून आलूदा हो जाए तो ज़रूरी है कि उनमें से हर एक को अलायहदा खून शुमार किया जाए पस अगर वह खून जो कपड़े के सामने के रुख और पिछली तरफ़ है मज्मूई तौर पर एक दिरहम से कम हो तो उसके साथ नमाज़ सहीह है और अगर उससे ज़्यादा हो तो उसके साथ नमाज़ बातिल है।
865. अगर अस्तर वाले कपड़े पर गिरे और उसके अस्तर तक पहुंच जाए या अस्तर पर गिरे और कपड़े तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि हर खून को अलग अलग शुमार किया जाए। लेकिन अगर कपड़े का खून और अस्तर का खून इस तरह मिल जाए कि लोगों के नज़्दीक़ एक खून शुमार हो तो अगर कपड़े का खून और अस्तर का खून मिलाकर एक दिरहम से कम हो तो उसके साथ नमाज़ सहीह है और अगर ज़्यादा हो तो नमाज़ बातिल है।
866. अगर बदन या लिबास पर एक दिरहम से कम खून हो और कोई रुतूबत उस खून से मिल जाए और उसके अत्राफ़ को आलूदा कर दे तो उसके साथ नमाज़ बातिल है ख़्वाह खून और रुतूबत उससे मिली है एक दिरहम के बराबर न हो लेकिन अगर रुतूबत सिर्फ़ खून से मिले और उसके एतराफ़ को आलूदा न करे तो ज़ाहिर यह है कि उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है।
867. अगर बदन या लिबास पर खून न हो लेकिन रुतूबत लगने की वजह से खून से नजिस हो जायें तो अगरचे जो मिक़्दार नजिस हुई है वह एक दिरहम से कम हो तो उसके साथ भी नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती।
868. बदन या लिबास पर जो खून हो अगर वह एक दिरहम से कम हो और कोई दूसरी नजासत उससे आ लगे मसलन पेशाब का एक क़तरा उस पर गिर जाए और वह बदन या लिबास से लग जाए तो उसके साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं बल्कि अगर बदन और लिबास तक न भी पहुंचे तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसमें नमाज़ पढ़ना सहीह नहीं है।
869. अगर नमाज़ पढ़ने वाले का छोटा लिबास मसलन टोपी और मोज़ा, जिससे शर्मगाह को न ढांपा जा सकता हो, नजिस हो जाए और वह एहतियाते लाज़िम की बिना पर नजिस मुर्दार या नजिसुल ऐन हैवान मसलन कुत्ते (के अअज़ा) से न बना हो तो उसके साथ नमाज़ सहीह है और इसी तरह अगर नजिस अंगूठी के साथ नमाज़ पढ़ी जाए तो कोई हरज नहीं।
870. नजिस चीज़ मसलन नजिस रूमाल, चाबी और चाक़ू का नमाज़ पढने वाले के पास होना जाइज़ है और बईद नहीं है कि मुत्लक़ नजिस लिबास (जो पहना हुआ न हो) उसके पास हो तब भी नमाज़ को कोई ज़रर न पहुंचाए (यानी उसके पास होते हुए नमाज़ सहीह हो।
871. अगर कोई जानतो हो कि जो खून उसके लिबास या बदन पर है वह एक दिरहम से कम है लेकिन इस अम्र का एहतिमाल हो कि यह उस खून में से है जो मुआफ़ नहीं है तो उसके लिये जाइज़ है कि उस खून के साथ नमाज़ पढ़े और उसका धोना ज़रूरी नहीं है।
872. अगर वह खून जो एक शख़्स के लिबास या बदन पर हो एक दिरहम से कम हो और उसे यह इल्म न हो कि यह उस खून में से है जो मुआफ़ नहीं है नमाज़ पढ़ ले और फिर उसे पता चले कि यह उस खून में से था जो मुआफ़ नहीं है तो उसके लिये दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं है और उस वक़्त भी यही हुक्म है जब वह यह समझता हो कि खून एक दिरहम से कम है और नमाज़ पढ़ ले और बाद में पता चले कि उसकी मिक़्दार एक दिरहम या उससे ज़्यादा थी, उस सूरत में भी दोबारा नमाज़ पढ़ने की ज़रूरी नहीं है।
वह चीज़ें जो नमाज़ी के लिबास में मुस्तहब हैं
873. चन्द चीज़ें नमाज़ी के लिबास में मुस्तहब हैं कि जिनमें से तह्तुलहनक के साथ अमामा, अबा, सफ़ैद लिबास, साफ़ सुथरा लिबास, ख़ुशबू लगाना और अक़ीक़ की अंगूठी पहनना।
वह चीज़ें जो नमाज़ी के लिबास में मकरूह हैं
874. चन्द चीज़ें नमाज़ी के लिबास में मकरूह हैं जिनमें से सियाह, मैला और तंग लिबास और शराबी का लिबास पहनना या उस शख़्स का लिबास पहनना जो नजासत से परहेज़ न करता हो और ऐसा लिबास पहनना जिस पर चेहरे की तस्वीर बनी हो। इसके अलावा लिबास के बटन खुले होना और ऐसी अंगूठी पहनना जिस पर चेहरे की तस्वीर बनी हो मकरूह है।