नमाज़ पढ़ने की जगह
नमाज़ पढ़ने वाले की जगह की सात शर्तें हैः-
पहली शर्त यह है कि वह मुबाह हो।
875. जो शख़्स ग़स्बी जगह पर अगरचे वह क़ालीन, तख्त और इसी तरह की दूसरी चीज़ें हों, नमाज़ पढ़ रहा हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है लेकिन ग़स्बी छत के नीचे और ग़स्बी ख़ैमे में नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है।
876. ऐसी जगह नमाज़ पढ़ना जिसकी मन्फ़अत किसी और की मिल्कियत हो तो मन्फ़अत के मालिक की इजाज़त के बग़ैर वहां नमाज़ पढ़ना ग़स्बी जगह पर नमाज़ पढ़ने के हुक्म में है मसलन किराये के मकान में मालिक मकान या उस शख़्स की इजाज़त के बग़ैर कि जिसने वह मकान किराये पर लिया है नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है और अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि उसके माल का तीसरा हिस्सा फ़ुलां काम पर ख़र्च किया जाए तो जब तक कि तीसरे हिस्से को जुदा न किया जाए उसकी जायदाद में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती।
877. अगर कोई शख़्स मस्जिद में बैठा हो और दूसरा शख़्स उसे बाहर निकाल कर उसकी जगह पर क़ब्ज़ा करे और उस जगह नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सहीह है अगरचे उसने गुनाह किया है।
878. अगर कोई शख़्स किसी ऐसी जगह नमाज़ पढ़े जिसके ग़स्बी होने का उसे इल्म न हो और नमाज़ के बाद उसे पता चले या ऐसी जगह नमाज़ पढ़े जिसके ग़स्बी होने को वह भूल गया हो और नमाज़ के बाद उसे याद आये तो उसकी नमाज़ सहीह है। लेकिन कोई ऐसा शख़्स जिसने खुद वह जगह ग़स्ब की हो और वह भूल जाए और वहां नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ एहतियात की बिना पर बातिल है।
879. अगर कोई शख़्स जानता हो कि यह ग़स्बी जगह है और इसमें तसर्रूफ़ हराम है लेकिन उसे यह इल्म न हो कि ग़स्बी जगह पर नमाज़ पढ़ने में इश्काल है और वह वहां नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
880. अगर कोई शख़्स वाजिब नमाज़ सवारी की हालत में पढ़ने पर मजबूर हो और सवारी का जानवर या उसकी ज़ीन या नअल ग़स्बी हो तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर वह शख़्स उस जानवर पर सवारी की हालत में मुस्तहब नमाज़ पढ़ना चाहे तो उसकी भी यही हुक्म है।
881. अगर कोई शख़्स किसी जायदाद में दूसरे का शरीक हो और उसका हिस्सा जुदा न हो तो अपने शिर्कतदार की इजाज़त के बग़ैर वह उस जायदाद पर तसर्रूफ़ नहीं कर सकता और उस पर नमाज़ नहीं पढ़ सकता।
882. अगर कोई शख़्स एक ऐसी रक़म से जायदाद खरीदे जिसका ख़ुम्स उसने अदा न किया हो तो उस जायदाद पर उसका तसर्रूफ़ हराम है और उसमें उसकी नमाज़ जाइज़ नहीं है।
883. अगर किसी जगह का मालिक ज़बान से नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दे और इंसान को इल्म हो कि वह दिल से राज़ी नहीं है तो उस जगह पर नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है और अगर इजाज़त न दे लेकिन इंसान को यक़ीन हो कि वह दिल से राज़ी है तो नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
884. जिस मुतवफ़्फ़ी ने ज़कात और उसे जैसे दूसरे वाजिबात अदा न किये हों उसकी जायदाद में तसर्रूफ़ करना, अगर वाजिबात की अदायगी में माने न हो, मसलन उसके घर में वरसा की इजाज़त से नमाज़ पढ़ी जाए तो इश्काल नहीं है। इसी तरह अगर कोई शख़्स वह रक़म जो मुतवफ़्फ़ी के ज़िम्मे हो अदा कर दे या ज़मानत दे कि अदा कर देगा तो उसकी जायदाद में तसर्रूफ़ करने में भी कोई इश्काल नहीं है।
885. अगर मुतवफ़्फ़ी लोगो का मक़रूज़ हो तो उसकी जायदाद में तसर्रूफ़ करना उस मुर्दे की जायदाद में तसर्रूफ़ के हुक्म में है जिसने ज़कात और उसकी मानिन्द दूसरे माली वाजिबात अदा न किये हों।
886. अगर मुतवफ़्फ़ी के ज़िम्मे क़र्ज़ न हो लेकिन उसके बाज़ वरसा कमसिन या मज्नून या ग़ैर हाज़िर हों तो उनके वली की इजाज़त के बग़ैर उसकी जायदाद में तसर्रूफ़ हराम है और उसमें नमाज़ जाइज़ नहीं है।
887. किसी की जायदाद में नमाज़ पढ़ना उस सूरत में जाइज़ है जबकि उसका मालिक सरीहन इजाज़त दे या कोई ऐसी बात कहे जिसमें मालूम हो कि उसने नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दी है। मसलन अगर इससे समझा जा सकता है उसने नमाज़ पढ़ने की इजाज़त भी दे दी है या मालिक के राज़ी होने पर दूसरी वुजूहात की बिना पर इत्मीनान रखता हो।
888. वसी व अरीज़ ज़मीन में नमाज़ पढ़ना जाइज़ है अगरचे उसके मालिक कमसिन या मज्नून हो या वहां नमाज़ पढ़ने पर राज़ी न हो। इसी तरह वह ज़मीने कि जिनके दरवाज़े और दिवार न हों उनमें उनके मालिक की इजाज़त के बग़ैर नमाज़ पढ़ सकते हैं। लेकिन अगर मालिक कमसिन या मज्नून हो या उसके राज़ी न हो ने का गुमान हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वहां नमाज़ न पढ़ी जाए।
दूसरी शर्त
889. ज़रूरी है कि नमाज़ी की जगह वाजिब नमाज़ों में ऐसी न हो कि तेज़ हरकत नमाज़ी के खड़े होने या रूकूउ और सुजूद करने में माने हो बल्कि एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि उसके बदन को साकिन रखने में भी माने न हो और अगर वक़्त की तंगी या किसी और वजह से ऐसी जगह मसलन बस, ट्रक, कश्ती या रेलगाड़ी में नमाज़ पढ़े तो जिस क़द्र मुम्किन हो बदन के ठहराव और क़िब्ले की सिम्त का ख़्याल रखे और अगर ट्रांस्पोर्ट से किसी दूसरी तरफ़ मुड़ जाए तो अपना मुंह क़िब्ले की तरफ़ मोड़ दे।
890. जब गाड़ी, कश्ती या रेलगाड़ी वग़ैरा खड़ी हुई हों तो उनमें नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं और इसी तरह जब चल रहीं हो तो इस हद तक न हिलजुल रही हों कि नमाज़ी के बदन के ठहराव में हाइल हों।
891. गंदुम, जौ और उन जैसी दूसरी अज्नास के ढेर पर जो हिले जुले बग़ैर नहीं रह सकते नमाज़ बातिल है। (बोरियें के ढेर मुराद नहीं हैं।)
(तीसरी शर्त)
ज़रूरी है कि इंसान ऐसी जगह नमाज़ पढ़े जहां नमाज़ पूरी पढ़ लेने का एहतिमाल हो। ऐसी जगह नमाज़ पढ़ना सहीह नहीं है जिसके मुताल्लिक़ उसे यक़ीन हो कि मसलन हवा और बारिश या भीड़ भाड़ की वजह से वहां पूरी नमाज़ न पढ़ सकेगा गो इत्तेफ़ाक़ से पूरी पढ़ ले।
892. अगर कोई शख़्स ऐसी जगह नमाज़ न पढ़े जहां ठहरना हराम हो मसलन किसी ऐसी मख्दूश छत के नीचे जो अंक़रीब गिरने वाली हो तो वह गुनाहा का मुर्तकिब होगा लेकिन उसकी नमाज़ सहीह है।
893. किसी ऐसी चीज़ पर नमाज़ पढ़ना सहीह नहीं है जिस पर खड़ा होना या बैठना हराम हो मसलन क़ालीन के ऐसे हिस्से पर जहां अल्लाह तआला का नाम लिखा हो। चूंकि यह (इस्मे खुदा) क़स्दे क़ुर्बत में माने है इस लिये (नमाज़ पढ़ना) सहीह नहीं है।
(चौथी शर्त)
जिस जगह इंसान नमाज़ पढ़े उसकी छत इतनी नीची न हो कि सीधा खड़ा न हो सके और न ही वह जगह इतनी मुख़्तसर हो कि रूकू और सज्दे की गुंजाइश न हो।
894. अगर कोई शख़्स ऐसी जगह नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो जहां बिल्कुल सीधा खड़ा होना मुम्किन न हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि बैठकर नमाज़ पढ़े और अगर रूकू और सुजूद अदा करने का इम्कान न हो तो उसके लिये सर से इशारा करे।
895. ज़रूरी है कि पैग़म्बरे अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और अइम्मए अहले बैत (अ0) की क़ब्र के आगे अगर उनकी बे हुर्मती होती हो तो नमाज़ न पढ़े। इसके अलावा किसी और सूरत में इश्काल नहीं।
(पांचवी शर्त)
अगर नमाज़ पढ़ने वाले की जगह नजिस हो तो इतनी मर्तूब न हो कि उसकी रुतूबत नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास तक पहुंचे लेकिन अगर सज्दे में पेशानी रखने की जगह नजिस हो तो ख़्वाह वह ख़ुश्क भी हो नमाज़ बातिल है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ पढ़ने की जगह हरगिज़ नजिस न हो।
(छटी शर्त)
एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि औरत मर्द से पीछे खड़ी हो और कम अज़ कम उसके सज्दा करने की जगह सज्दे की हालत में मर्द के दो ज़ानू के बराबर फ़ासिले पर हो।
896. अगर कोई औरत मर्द के बराबर या आगे खड़ी हो और दोनों बयक वक़्त नमाज़ पढ़ने लगें तो ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़ें। और यही हुक्म है अगर एक दूसरे से पहले नमाज़ के लिये खड़ा हो।
897. अगर मर्द और औरत एक दूसरे के बराबर खड़े हों या औरत आगे खड़ी हो और दोनों नमाज़ पढ़ रहे हों लेकिन दोनों के दरमियान दीवार या पर्दा या कोई और ऐसी चीज़ हाइल हो कि एक दूसरे को न देख सकें या उनके दरमियान दस हाथ से ज़्यादा फ़ासिला हो तो दोनों की नमाज़ सहीह है।
(सातवीं शर्त)
नमाज़ पढ़ने वाले की पेशानी रखने की जगह, दो ज़ानू और पांव की उंगलियां रखने की जगह से चार मिली हुई उंगलियों की मिक़्दार से ज़्यादा ऊंची या नीची न हो। इस मस्अले की तफ़्सील सज्दे के अहकाम में आयेगी।
898. ना महरम मर्द और औरत का एक ऐसी जगह होना जहां गुनाह में मुब्तला होने का एहतिमाल हो हराम है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि ऐसी जगह नमाज़ भी न पढ़ें।
899. जिस जगह सितार बजाया जाता हो और उस जैसी चीज़े इस्तेमाल की जाती हों वहां नमाज़ पढ़ना बातिल नहीं है गो उनका सुनना और इस्तेमाल करना गुनाह है।
900. एहतियाते वाजिब यह है कि इख़्तियार की हालत में खाना ए कअबा के अन्दर और उसकी छत के ऊपर वाजिब नमाज़ न पढ़ी जाए। लेकिन मज्बूरी की हालत में कोई इश्काल नहीं है।
901. ख़ाना ए कअबा के अन्दर और उसकी छत के ऊपर नफ़्ली नमाज़ें पढ़ने में कोई हरज नहीं है बल्कि मुस्तहब है कि ख़ाना ए कअबा के अन्दर हर रुक्न के मुक़ाबिल दो रक्अत नमाज़ पढ़ी जाए।
वह मक़ामात जहां नमाज़ पढ़ना मुस्तहब है
902. इस्लाम की मुक़द्दस शरीअत में बहुत ताकीद की गई है कि नमाज़ मस्जिद में पढ़ी जाए। दुनिया भर की सारी मस्जिदों में सबसे बेहतर मस्जिदुल हराम और उसके बाद मस्जिदे नबवी (स0) है और उसके बाद मस्जिदे कूफ़ा और उसके बाद मस्जिदे बैतुल मुक़द्दस का दरजा है। उसके बाद शहर की जामे मस्जिद और उसके बाद मोहल्ले की मस्जिद और उसके बाद बाज़ार की मस्जिद का नम्बर आता है।
903. औरत के लिये बेहतर है कि नमाज़ ऐसी जगह पढ़े जो ना महरम से महफ़ूज़ होने के लिहाज़ से दूसरी जगहों से बेहतर हो ख़्वाह वह जगह मकान या मस्जिद या कोई और जगह हो।
904. आइम्मा ए अहले बैत (अ0) के हरमों में नमाज़ पढ़ना मुस्तहब है बल्कि मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से बेहतर है और रिवायत है कि हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ0) के हरमे पाक में नमाज़ पढ़ना दो लाख नमाज़ों के बराबर है।
905. मस्जिद में ज़्यादा जाना और उस मस्जिद में जाना जो आबाद न हो (यानी जहां लोग बहुत कम नमाज़ पढ़ने आते हों) मुस्तहब है और अगर कोई शख़्स मस्जिद के पड़ोस में रहता हो और कोई उज़्र भी न रखता हो तो उसके लिये मस्जिद के अलावा किसी और जगह नमाज़ पढ़ना मकरूह है।
906. जो शख़्स मस्जिद में न आता हो, मुस्तहब है कि इंसान उसके साथ मिलकर खाना न खाए, अपने कामों में उससे मश्विरा न करे, उसके पड़ोस में न रहे और न उससे औरत का रिश्ता ले और न उसे रिश्ता दे। (यानी उसका सोशल बाइकाट करे) ।
वह मक़ामात जहां नमाज़ पढ़ना मकरूह है
907. चन्द मक़ामात पर नमाज़ पढ़ना मकरूह है जिनमें से कुछ यह हैं-
1. हम्माम,
2. शोर ज़मीन,
3. किसी इंसान के मुक़ाबिल,
4. उस दरवाज़े के मुक़ाबिल जो खुला हो।
5. सड़क, गली और कूचे में बशर्ते कि ग़ुज़रने वालों के लिये बाइसे ज़हमत न हो और अगर उन्हें ज़हमत हो तो उनके रास्ते में रुकावट डालना हराम है।
6. आग और चिराग़ के मुक़ाबिल।
7. बावरची खाने में हर उस जगह जहां आग की भट्टी हो।
8. कुयें के और ऐसे गढ़े के मुक़ाबिल जिसमें पेशाब किया जाता हो।
9. जानदार के फ़ोटो या मुजस्समे के सामने मगर यह कि उसे ढांप दिया जाए।
10. ऐसे कमरे में जिसमें जुनुब शख़्स मौजूद हो।
11. जिस जगह फ़ोटो हो ख़्वाह वह नमाज़ पढ़ने वाले के सामने न हो।
12. क़ब्र के मुक़ाबिल।
13. क़ब्र के ऊपर।
14. दो क़ब्रों के दरमियान।
15. क़ब्रिस्तान में।
908. अगर कोई शख़्स लोगों की रहगुज़र पर नमाज़ पढ़ रहा हो या कोई और शख़्स उसके सामने खड़ा हो तो नमाज़ी के लिये मुस्तहब है कि अपने सामने कोई चीज़ रख ले और अगर वह चीज़ लकड़ी या रस्सी हो तो भी काफ़ी है।
मस्जिद के अहकाम
909. मस्जिद की ज़मीन अन्दरूनी और बेरूनी छत और अन्दरूनी दीवार को नजिस करना हराम है और जिस शख़्स को पता चले कि इनमें से कोई एक मक़ाम नजिस हो गया है तो ज़रूरी है कि उसकी नजासत को फ़ौरन दूर करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद की दीवार के बेरूनी हिस्से को भी नजिस न किया जाए और अगर वह नजिस हो जाए तो नजासत का हटाना लाज़िम नहीं लेकिन अगर दीवार का बेरूनी हिस्सा नजिस करना मस्जिद की बे हुरमती का सबब हो तो क़त्अन हराम है और इस क़दर नजासत का ज़ाइल करना कि जिससे बे हुर्मती ख़त्म हो जाए ज़रूरी है।
910. अगर कोई शख़्स मस्जिद को पाक करने पर क़ादिर न हो या उसे मदद की ज़रूरत हो जो दस्तयाब न हो तो मस्जिद का पाक करना उस पर वाजिब नहीं लेकिन यह समझता हो कि अगर दूसरे को इत्तिलाअ देगा तो यह काम हो जायेगा तो ज़रूरी है कि उसे इत्तिलाअ दे।
911. अगर मस्जिद की कोई जगह नजिस हो गई हो जिसे खोदे या तोड़े बग़ैर पाक करना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि उस जगह को खोदें या तोड़ें जबकि जुज़्वी तौर पर खोदना या तोड़ना पड़े या बे हुर्मती का ख़त्म होना मुकम्मल तौर पर खोदने या तोड़ने पर मौक़ूफ़ हो वर्ना तोड़ने में इश्काल है। जो जगह खोदी गई हो उसे पुर करना और जो जगह तोड़ी गई हो उसे तअमीर करना वाजिब नहीं है लेकिन मस्जिद की कोई चीज़ मसलन ईंट अगर नजिस हो गई हो तो मुम्किन सूरत में उसे पानी से पाक करके ज़रूरी है कि उसकी असली जगह पर लगा दिया जाए।
912. अगर कोई शख़्स मस्जिद को ग़स्ब करे और उसकी जगह घर या ऐसी ही कोई चीज़ तअमीर करे या मस्जिद इस क़दर टूट फ़ूट जाए कि उसे मस्जिद न कहा जाए तब भी एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उसे नजिस न करे लेकिन उसे पाक करना वाजिब नहीं।
913. अइम्मा ए अहले बैत (अ0) में से किसी इमाम का हरम नजिस करना हराम है। अगर उनके हरमों में से कोई हरम नजिस हो जाए और उसका नजिस रहना उसकी बे हुर्मती का सबब हो तो उसका पाक करना वाजिब है बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़्वाह बे हुर्मती न होती हो तब भी पाक किया जाए।
914. अगर मस्जिद की चटाई नजिस हो जाए तो ज़रूरी है कि उसे धोकर पाक करें और अगर चटाई का नजिस होना मस्जिद की बे हुर्मती शुमार होता हो और वह धोने से ख़राब होती हो और नजिस हिस्से का काट देना बेहतर हो तो ज़रूरी है कि उसे काट दिया जाए।
915. अगर किसी ऐन नजासत या नजिस चीज़ को मस्जिद में ले जाने से मस्जिद की बे हुर्मती हो तो उसका मस्जिदों में ले जाना हराम है बल्कि एहितयाते मुस्तहब यह है कि अगर बे हुर्मती न होती हो तब भी ऐने नजासत को मस्जिद में न ले जाया जाए।
916. अगर मस्जिद में मजलिसे अज़ा के लिये क़िनात तानी जाए और फ़र्श बिछाया जाए और सियाह पर्दे लटकाए जायें और चाय का सामान उसके अन्दर ले जाया जाए तो अगर यह चीज़ें मस्जिद के तक़द्दुस को पामाल न करती हों और नमाज़ पढ़ने में भी माने न होतीं हों तो कोई हरज नहीं।
917. एहतियाते वाजिब यह है कि मस्जिद की सोने से ज़ीनत न करें और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद को इंसान और हैवान की तरह जानवरों की तस्वीरों से भी न सजाया जाए।
918. अगर मस्जिद टूट फूट भी जाए तब भी न तो उसे बेचा जा सकता है और नहीं मिल्कियत और सड़क में शामिल किया जा सकता है।
919. मस्जिद के दरवाज़ों, खिड़कियों और दूसरी चीज़ों को बेचना हराम है और अगर मस्जिद टूट फूट जाए तब भी ज़रूरी है कि इन चीज़ों को उसी मस्जिद की मरम्मत के लिये इस्तेमाल किया जाए और अगर उस मस्जिद के काम की न रही हों तो ज़रूरी है कि किसी दूसरी मस्जिद के काम में लाया जाए और अगर दूसरी मस्जिदों के काम की भी न रहीं हो तो उन्हें बेचा जा सकता है और जो रक़म हासिल हो वह बसूरते इम्कान उसी मस्जिद की मरम्मत पर वर्ना दूसरी मस्जिद की मरम्मत पर खर्च की जाए।
920. मस्जिद का तअमीर करना और ऐसी मस्जिद की मरम्मत करना जो मख्दूश हो मुस्तहब है, और अगर मस्जिद इस क़दर मख्दूश हो कि उसकी मरम्मत मुम्किन न हो तो उसे गिरा कर दोबारा तअमीर किया जा सकता है बल्कि अगर मस्जिद टूटी फूटी न हो तब भी उसे लोगों की ज़रूरत की खातिर गिरा कर वसी किया जा सकता है।
921. मस्जिद को साफ़ सुथरा रखना और उसमें चिराग़ जलाना मुस्तहब है और अगर कोई मस्जिद में जाना चाहे तो मुस्तहब है कि खुशबू लगाए और पाकीज़ा क़ीमती लिबास पहने और अपने जूतों के तलवों के बारे में तहक़ीक करे कि कहीं नजासत तो नहीं लगी हुई। नीज़ यह है कि मस्जिद में दाखिल होते वक़्त पहले दायां पांव और बाहर निकलते वक़्त पहले बायां पांव रखे और इसी तरह मुस्तहब है कि सब लोगों से पहले मस्जिदों में आए और सब से बाद में निकले।
922. जब कोई शख़्स मस्जिद में दाखिल हो तो मुस्तहब है कि दो रक्अत नमाज़े तहीयत व एहतिरामे मस्जिद की नीयत से पढ़े और अगर वाजिब नमाज़ या कोई और मुस्तहब नमाज़ पढ़े तब भी काफ़ी है।
923. अगर इंसान मजबूर न हो तो मस्जिद में सोना, दुनियावी कामों के बारे में गुफ़्तुगू करना और कोई काम काज करना और अश्आर पढ़ना जिनमें नसीहत और काम की बात न हो मकरूह है। नीज़ मस्जिद में थूकना, नाक की आलाइश फेंकना और बलग़म थूकना भी मकरूह है बल्कि बाज़ सूरतों में हराम है। और इसके अलावा गुमशुदा (शख़्स या चीज़) को तलाश करते हुए आवाज़ को बलन्द करना भी मकरूह है। लेकिन अज़ान के लिये आवाज़ को बलन्द करने की मुमानिअत नहीं है।
924. दीवाने को मस्जिद में दाखिल होने देना मकरूह है और इसी तरह उस बच्चे को भी दाखिल होने देना मकरूह है जो नमाज़ी के लिये बाइसे ज़हमत हो या एहतिमाल हो कि वह मस्जिद को नजिस कर देगा। इन दो सूरतों के अलावा बच्चे को मस्जिद में आने देने में कोई हरज नहीं। उस शख़्स का भी मस्जिद में जाना मकरूह है जिसने प्याज़, लहसुन या इनसे मुशाबेह कोई चीज़ खाई हो कि जिसकी बू लोगों को नागवार गुज़रती हो।
अज़ान और इक़ामत
925. हर मर्द और औरत के लिये मुस्तहब है कि रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों से पहले अज़ान और इक़ामत कहे और ऐसा करना दूसरी वाजिब या मुस्तहब नमाज़ों के लिये मशरूउ नहीं लेकिन ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुर्बान से पहले जबकि नमाज़ बा जमाअत पढ़े तो मुस्तहब है कि तीन मर्तबा, अस सलात कहें।
926. मुस्तहब है कि बच्चे की पैदाइश के पहले दिन या नाफ़ उखड़ने से पहले उसके दायें कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत कही जाए।
927. अज़ान अट्ठारा जुम्लों पर मुशतमिल हैः-
अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो,
अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो,
अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाह अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाह,
हैया अलस्सलाते हैया अलस्सलाते,
हैया अलल फ़लाहे हैया अलल फ़लाहे,
हैया अला ख़ैरिल अमले हैया अला ख़ैरिल अमले,
अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो,
लाइलाहा इल्लल्लाहो लाइलाहा इल्लल्लाहो।
और इक़ामत के सत्रा जुम्ले हैं यानी अज़ान की इब्तिदा से दो मर्तबा अल्लाहो अक्बरो और आख़िर में एक मर्तबा ला इलाहा इल्लल्लाहो कम हो जाता है और हैया अला ख़ैरिल अमले कहने के बाद दो दफ्आ क़द क़ामतिस्सलातो का इज़ाफ़ा कर देना ज़रूरी है।
928. अश्हदो अन्ना अलीयन वलीयुल्लाहे अज़ान और इक़ामत का जुज़्व नहीं है लेकिन अगर अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाहे के बाद क़ुर्बत की नीयत से कहा जाए तो अच्छा है।
अज़ान और इक़ामत का तर्जमा
अल्लाहो अक्बरो यानी खुदाए लआला इससे बुज़ुर्ग तर है कि उसकी तअरीफ़ की जाए। अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाह यानी मैं गवाही देता हूं कि यकता और बेमिस्ल अल्लाह के अलावा कोई और परस्तिश के क़ाबिल नहीं है।
अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाह यानी मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम अल्लाह के पैग़म्बर और उसी की तरफ़ से भेजे हुए हैं।
अश्हदो अन्ना अलीयन अमीरल मोमिनीना वलीयुल्लाह यानी गवाही देता हूं कि हज़रत अली (अ0) मोमिनीन के अमीर और तमाम मख्लूक़ पर अल्लाह के वली हैं।
हैया अलस्सलाते यानी नमाज़ की तरफ़ जल्दी करो।
हैया अलल फ़लाहे यानी रूस्तगारी के लिये जल्दी करो।
हैया अला ख़ैरिल अमले यानी बेहतरीन काम (नमाज़) के लिये जल्दी करो।
कद़् क़ामतिस्सलाते य्अनी बित्तहक़ीक़ नमाज़ क़ाइम हो गई।
ला इलाहा इल्लल्लाहो यानी यकता और बे मिस्ल अल्लाह के अलावा कोई परस्तिश के क़ाबिल नहीं।
929. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत के जुम्लों के दरमियान ज़्यादा फ़ासिला न हो और अगर उनके दरमियान मअमूल से ज़्यादा फ़ासिला रखा जाए तो ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत दोबारा शूरू से कही जायें।
930. अगर अज़ान या इक़ामत में आवाज़ को गले में इस तरह फेरे कि ग़िना हो जाए यानी अज़ान और इक़ामत इस तरह कहे जैसे लहवो लइब और खेलकूद की महफ़िलों में अवाज़ निकालने का दस्तूर है तो वह हराम है और अगर ग़िना न हो तो मकरूह है।
931. तमाम सूरतों में जब कि नमाज़ी दो नमाज़ों को तले ऊपर अदा करे अगर उसने पहली नमाज़ के लिये अज़ान कही तो बाद वाली नमाज़ के लिये अज़ान साक़ित है। ख़्वाह दो नमाज़ों का जमअ करना बेहतर हो या न हो मसलन अरफ़ा के दिन जो नवी ज़िलहिज्जा का दिन है ज़ोहर और अस्र की नमाज़ों का जमअ करना और ईदे क़ुर्बान की रात में मग़्रिब और इशा की नमाज़ों का जमअ करना उस शख़्स के लिये जो मश्अरूल हराम में हो। इन सूरतों में अज़ान का साक़ित होना इससे मशरूत है कि दो नमाज़ों के दरमियान बिल्कुल फ़ासिला न हो या बहुत कम फ़ासिला हो लेकिन नफ़ल और तअक़ीबात पढ़ने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और एहतियाते वाजिब यह है कि इन सूरतों में अज़ान मशरूइयत की नीयत से कही जाए बल्कि आख़िरी दो सूरतों में अज़ान कहना मुनासिब नहीं है अगरचे मशरूइयत की नियत से न हो।
932. अगर नमाज़े जमाअत के लिये अज़ान और इक़ामत कही जा चुकी हो तो जो शख़्स उस जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ रहा हो उसके लिये ज़रूरी नहीं कि अपनी नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत कहे।
933. अगर कोई शख़्स नमाज़ के लिये मस्जिद में जाए और देखे कि नमाज़े जमाअत ख़त्म हो चुकी है तो जब तक सफ़ें टूट न जायें और लोग मुन्तशिर न हो जायें वह नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत न कहे। यानी उन दोनों का कहना मुस्तहबे ताकीदी नहीं बल्कि अगर अज़ान देना चाहता हो तो बेहतर यह है कि बहुत आहिस्ता कहे और अगर दूसरी नमाज़े जमाअत क़ाइम करना चाहता हो तो हरगिज़ अज़ान व इक़ामत न कहे।
934. ऐसी जगह जहां नमाज़े जमाअत अभी अभी ख़त्म हुई हो और सफ़ें न टूटी हों अगर कोई शख़्स वहां तन्हा या दूसरी जमाअत के साथ जो क़ाइम हो रही हो नमाज़ पढ़ना चाहे तो छः शर्तों के साथ अज़ान और इक़ामत उस पर से साक़ित हो जाती हैः-
1. नमाज़े जमाअत मस्जिद में हो – और अगर मस्जिद में न हो तो अज़ान और इक़ामत का साक़ित होना मालूम नहीं।
2. उस नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत कही जा चुकी हो।
3. नमाज़े जमाअत बातिल न हो।
4. उस शख़्स की नमाज़ और नमाज़े जमाअत एक ही जगह पर हो। लिहाज़ा अगर नमाज़े जमाअत मस्जिद के अन्दर पढ़ी जाए और वह शख़्स मस्जिद की छत पर नमाज़ पढ़ना चाहे तो मुस्तहब है कि अज़ान और इक़ामत कहे।
5. नमाज़े जमाअत अदा हो। लेकिन इस बात की शर्त नहीं कि खुद उसकी नमाज़ भी अदा हो।
6. उस शख़्स की नमाज़ और नमाज़े जमाअत का वक़्त मुश्तरक हो मसलन दोनों नमाज़े ज़ोहर या दोनों नमाज़े अस्र पढ़ें या नमाज़े ज़ोहर जमाअत से पढ़ी जा रही है और वह शख़्स नमाज़े अस्र पढ़े और जमाअत की नमाज़, अस्र की नमाज़ हो और अगर जमाअत की नमाज़े अस्र हो और आख़िरी वक़्त में वह चाहे कि मग़्रिब की नमाज़ अदा पढ़े तो अज़ान और इक़ामत उस पर से साक़ित नहीं होगी।
935. जो शर्तें साबिक़ा मस्अले में बयान की गई हैं अगर कोई शख़्स उनमें से तीसरी शर्त के बारे में शक करे यानी उसे शक हो कि जमाअत की नमाज़ सहीह थी या नहीं तो उस पर से अज़ान और इक़ामत साक़ित नहीं है। लेकिन अगर दूसरी पांच शराइत में से किसी एक के बारे में शक करे तो बेहतर है कि रजाए मतलूवियत की नीयत से अज़ान और इक़ामत कहे।
936. अगर कोई शख़्स किसी दूसरे की अज़ान जो एलान या जमाअत की नमाज़ के लिये कही जाए, सुने तो मुस्तहब है कि उसका जो हिस्सा सुने खुद भी उसे आहिस्ता आहिस्ता दोहराए।
937. अगर किसी शख़्स ने किसी दूसरे की अज़ान और इक़ामत सुनी हो ख़्वाह उसने उन जुमलों को दोहराया हो या न दोहराया हो तो अगर अज़ान और इक़ामत और उस नमाज़ के दरमियान जो वह पढ़ना चाहता हो ज़्यादा फ़ासिला न हुआ हो तो वह अपनी नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत कह सकता है।
938. अगर कोई मर्द औरत की अज़ान को लज़्ज़त के क़स्द से सुने तो उसकी अज़ान साक़ित नहीं होगी बल्कि अगर मर्द का इरादा लज़्ज़त हासिल करने का न हो तब भी उसकी अज़ान साक़ित होने में इश्काल है।
939. ज़रूरी है कि नमाज़े ज़माअत की अज़ान और इक़ामत मर्द कहे लेकिन औरतों की नमाज़े जमाअत में अगर औरत अज़ान और इक़ामत कह दे तो काफ़ी है।
940. ज़रूरी है कि इक़ामत अज़ान के बाद कही जाए अलावा अज़ीं इक़ामत में मोअतबर है कि खड़े होकर और हदस से पाक होकर वुज़ू या ग़ुस्ल या तयम्मुम कर के कही जाए।
941. अगर कोई शख़्स अज़ान और इक़ामत के जुमले बग़ैर तरतीब के कहे मसलन हैया अललफ़लाह का जुमला हैया अलस्सलाह से पहले कहे तो ज़रूरी है कि जहां से तरतीब बिगड़ी हो वहां से दोबारा कहे।
942. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत के दरमियान फ़ासिला न हो और अगर उनके दरमियान इतना फ़ासिला हो जाए कि जो अज़ान कही जा चुकी है उसे उस इक़ामत की अज़ान न शुमार किया जा सके तो मुस्तहब है कि दोबारा अज़ान कही जाए। अलावा अज़ीं अगर अज़ान और इक़ामत के और नमाज़ के दरमियान इतना फ़ासिला हो जाए कि अज़ान और इक़ामत उस नमाज़ की अज़ान और इक़ामत शुमार न हो तो मुस्तहब है कि उस नमाज़ के लिये दोबारा अज़ान और इक़ामत कही जाए।
943. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत सहीह अरबी में कही जायें। लिहाज़ा अगर कोई शख़्स उन्हें ग़लत अरबी में कहे या एक हर्फ़ की जगह कोई दूसरा हर्फ़ कहे या मसलन उनका तर्जमा उर्दू ज़बान में कहे तो सहीह नहीं है।
944. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत, नमाज़ का वक़्त दाखिल होने के बाद कही जाएं और अगर कोई शख़्स अमदन या भूल कर वक़्त से पहले कहे तो बातिल है मगर ऐसी सूरत में जबकि वसते नमाज़ में वक़्त दाख़िल हो तो उस नमाज़ पर सहीह हुक्म लगेगा कि जिसका मस्अला 752 में ज़िक्र हो चुका है।
945. अगर कोई शख़्स इक़ामत कहने से पहले शक करे कि अज़ान कही है या नहीं तो ज़रूरी है कि अज़ान कहे और अगर इक़ामत कहने में मशग़ूल हो जाए और शक करे कि अज़ान कही है या नहीं तो अज़ान कहना ज़रूरी नहीं।
946. अगर अज़ान और इक़ामत कहने के दौरान कोई जुमला कहने से पहले एक शख़्स शक करे कि उसने इससे पहले वाला जुमला कहा है या नहीं तो ज़रूरी है कि जिस जुमले की अदायगी के बारे में उसे शक हुआ हो उसे अदा करे लेकिन अगर उसे अज़ान या इक़ामत का कोई जुमला अदा करते हुए शक हो कि उसने उससे पहने वाला जुमला कहा है या नहीं तो उस जुमले को कहना ज़रूरी नहीं।
947. मुस्तहब है कि अज़ान कहते वक़्त इंसान क़िब्ले की तरफ़ मुंह कर के खड़ा हो और वुज़ू या ग़ुस्ल की हालत में हो और हाथों को कानो पर रखे और आवाज़ को बलन्द करे और ख़ींचे और अज़ान के जुमलों के दरमियान क़दरे फ़ासिला दे और जुमलों के दरमियान बातें न करे।
948. मुस्तहब है कि इक़ामत कहते वक़्त इंसान का बदन साक़िन हो और अज़ान के मुक़ाबिले में इक़ामत आहिस्ता कहे और उसके जुमलों को एक दूसरे से मिला न दे। लेकिन इक़ामत के दरमियान उतना फ़ासिला न दे जितना अज़ान के जुमलों के दरमियान देता है।
949. मुस्तहब है कि अज़ान और इक़ामत के दरमियान एक क़दम आगे बढ़े या थोड़ी देर के लिये बैठ जाए या सज्दा करे या अल्लाह का ज़िक्र करे या दुआ पढ़े या थोड़ी देर के लिये साकित हो जाए या कोई बात करे या दो रक्अत नमाज़ पढ़े लेकिन नमाज़े फ़ज्र की अज़ान और इक़ामत के दरमियान कलाम करना और नमाज़े मग़्रिब की अज़ान और इक़ामत के दरमियान नमाज़ पढ़ना (यानी दो रक्अत नमाज़ पढ़ना) मुस्तहब नहीं है।
950. मुस्तहब है कि जिस शख़्स को अज़ान देने पर मुक़र्रर किया जाए वह आदिल और वक़्त शनास हो, नीज़ यह कि बलन्द आहंग हो और ऊंची जगह पर अज़ान दे।
नमाज़ के वाजिबात
1.नीयत, 2.क़ियाम, 3.तक्बीरतुल एहराम, 4.रूकू, 5.सुजूद, 6.क़िरअत, 7.ज़िक्र, 8.तशहहुद, 9.सलाम, 10.तरतीब, 11.मुवालात यानी अज्ज़ा ए नमाज़ का पयदर पय बजा लाना।
951. नमाज़ के वाजिबात में से बाज़ उसके रुक्न हैं यानी अगर इंसान उन्हें बजा न लाए तो ऐसा करना अमदन हो या ग़लती से हो नमाज़ बातिल हो जाती है और बाज़ वाजिबात रुक्न नहीं हैं यानी अगर वह ग़लती से छूट जायें तो नमाज़ बातिल नहीं होती।
नमाज़ के अर्कान पांच हैः-
1. नीयत
2. तक्बीरतुल एहराम (यानी नमाज़ शुरू करते वक़्त अल्लाहो अक्बर कहना)।
3. रूकू से मुत्तसिल क़ियाम यानी रूकू में जाने से पहले खड़ा होना।
4. रूकू।
5. हर रक्अत में दो सज्दे। और जहां तक ज़्यादती का तअल्लुक़ है अगर ज़्यादती अमदन हो तो बग़ैर किसी शर्त के नमाज़ बातिल है। और अगर ग़लती से हुई हो तो रूकू में या एक ही रक्अत के दो सज्दों में ज़्यादती से एहतियाते लाज़िम की बिना पर नमाज़ बातिल है वर्ना बातिल नहीं।
नीयत
952. ज़रूरी है कि इंसान नमाज़ क़ुर्बत की नीयत से यानी ख़ुदावन्दे करीम की ख़ुशनूदी हासिल करने के लिये पढ़े और यह ज़रूरी नहीं कि नीयत को अपने दिल से गुज़ारे या मसलन ज़बान से कहे कि चार रक्अत नमाज़े ज़ोहर पढ़ता हूं क़ुर्बतन इलल्लाह।
953. अगर कोई शख़्स ज़ोहर की नमाज़ में या अस्र की नमाज़ में नीयत करे कि चार रक्अत नमाज़ पढ़ता हूं लेकिन इस अम्र का तअय्युन न करे कि नमाज़े ज़ोहर है या अस्र की तो उसकी नमाज़ बातिल है। नीज़ मिसाल के तौर पर किसी शख़्स पर नमाज़े ज़ोहर की क़ज़ा वाजिब हो और वह उस क़ज़ा नमाज़ या नमाज़े ज़ोहर को ज़ोहर के वक़्त में पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि जो नमाज़ वह पढ़े नीयत में उसका तअय्युन करे।
954. ज़रूरी है कि इंसान शूरू से आख़िर तक अपनी नीयत पर क़ाइम रहे अगर वह नमाज़ में इस तरह ग़ाफ़िल हो जाए कि अगर कोई पूछे कि वह क्या कर रहा है तो उसकी समझ में न आए कि क्या जवाब दे तो तो उसकी नमाज़ बातिल है।
955. ज़रूरी है कि इंसान फ़क़त ख़ुदावन्दे आलम की ख़ुशनूदी हासिल करने के लिये नमाज़ पढ़े पस जो शख़्स रिया करे यानी लोगों को दिखाने के लिये नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है ख़्वाह यह नमाज़ पढ़ना फ़क़त लोगों को या ख़ुदा और लोगों दोनों को दिखाने के लिये हो।
956. अगर कोई शख़्स नमाज़ का कुछ हिस्सा भी अल्लाह तआला जल्ला शानहू के अलावा किसी और के लिये बजा लाए ख़्वाह वह हिस्सा वाजिब हो मसलन सूरा ए अलहम्द, या मुस्तहब हो, मसलन क़ुनूत और अगर ग़ैरे ख़ुदा का यह क़स्द पूरी नमाज़ पर मुहीत हो या उस बड़े हिस्से के तदारुक से बुतलान लाज़िम आता हो तो उसकी नमाज़ बातिल है। और अगर नमाज़ तो ख़ुदा के लिये पढ़े लेकिन लोगों को दिखाने के लिये किसी ख़ास जगह मसलन मस्जिद में पढ़े या किसी ख़ास वक़्त मसलन अव्वले वक़्त में पढ़े या किसी ख़ास क़ायदे से मसलन बा जमाअत पढ़े तो उसकी नमाज़ भी बातिल है।
तक्बीरतुल एहराम
957. हर नमाज़ के शूरू में अल्लाहो अक्बर कहना वाजिब और रुक्न है और ज़रूरी है कि इंसान अल्लाह के हुरूफ़ और अक्बर के हुरूफ़ और दो कलिमे पय दर पय कहे और यह भी ज़रूरी है कि यह दो कलिमे सहीह अरबी में कहे जायें और अगर कोई शख़्स ग़लत अरबी में कहे या मसलन उनका उर्दू तर्जमा करके कहे तो सहीह नहीं है।
958. एहतियाते मुस्तहब यह है कि इंसान नमाज़ की तक्बीरतुल एहराम को उस चीज़ से मसलन इक़ामत या दुआ से जो वह तक्बीर से पहले पढ़ रहा हो न मिलाए।
959. अगर कोई शख़्स चाहे कि अल्लाहो अक्बर को उस जुमले के साथ जो बाद में पढ़ता हो मसलन बिस्मिल्लाहिर्रमार्निरहीम से मिलाए तो बेहतर यह है कि अक्बर की आख़िरी हर्फ़ रा पर पेश दे लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि वाजिब नमाज़ में उसे न मिलाए।
960. तक्बीरतुल एहराम कहते वक़्त ज़रूरी है कि इंसान का बदन साकिन हो और अगर कोई शख़्स जान बूझकर इस हालत में तक्बीरतुल एहराम कहे कि उसका बदन हरकत में हो तो (उसकी तक्बीर) बातिल है।
961. ज़रूरी है कि तक्बीर, अलहम्द, सूरा, जिक्र और दुआ कम से कम इतनी आवाज़ में पढ़े कि खुद सुन सके और अगर ऊंचा सुनने या बहरा होने की वजह से या शोरोग़ुल की वजह से न सुन सके तो इस तरह कहना ज़रूरी है कि अगर कोई माने न हो तो सुन ले।
962. जो शख़्स किसी बीमारी की बिना पर गंगू हो जाए या उसकी ज़बान में कोई नक़्स हो जिसकी वजह से अल्लाहो अक्बर न कह सकता हो तो ज़रूरी है कि जिस तरह भी मुम्किन हो उस तरह कहे और अगर बिल्कुन ही न कह सकता हो तो ज़रूरी है कि दिल में कहे और उसके लिये उंगली से इस तरह इशारा करे कि जो तक्बीर से मुनासिबत रखता हो। और अगर हो सके तो ज़बान और होंट को भी हरकत दे और अगर कोई पैदाइशी गूंगा हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि वह अपनी ज़बान और होंट को इस तरह हरकत दे कि जो किसी शख़्स के तक्बीर कहने से मुशाबेह हो और उसके लिये अपनी उंगली से भी इशारा करे।
963. इंसान के लिये मुस्तहब है कि तक्बीरतुल एहराम के बाद कहेः या मोहसिनो क़द अताकल मुसीओ व क़द असरतुल मोहसिनो अंय्यतजावज़ अनिल मुसीए अन्तल मोहलिनो व अनल मुसीओ बेहक्क़े मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिन स्वल्ले अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिंव व तजावज़ अन क़बीहे मा तअलमो मिन्नी। (यानी) ए अपने बन्दों पर एहसान करने वाले खुदा ! यह गुनाहगार बन्दा तेरी बारगाह में आया है और तूने हुक्म दिया है कि नेक लोग गुनाहगारों से दरगुज़ा करें – तू एहसान करने वाला है और मैं गुनाहगार हूं मोहम्मद (स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) और आले मोहम्मद (अ0) पर अपनी रहमतें नाज़िल फ़रमा और मोहम्मद (स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) और आले मोहम्मद (अ0) के तुफ़ैल मेरी बुराइयों से जिन्हें तू जानता है, दर गुज़र फ़रमा।
964. (इंसान के लिये) मुस्तहब है कि नमाज़ की पहली तक्बीर और नमाज़ की दरमियानी तक्बीरें कहते वक़्त हाथों को कानों के बराबर तक ले जाए।
965. अगर कोई शख़्स शक करे कि तक्बीरतुल एहराम कही है या नहीं और क़िरअत में मशग़ूल हो जाए तो अपने शक की परवाह न करे और अगर कुछ भी न पढ़ा हो तो ज़रूरी है कि तक्बीर कहे।
966. अगर कोई शख़्स तक्बीरतुल एहराम कहने के बाद शक करे कि सहीह तरीक़े से तक्बीर कही है या नहीं तो ख़्वाह उसने आगे कुछ पढ़ा हो या न पढ़ा हो अपने शक की परवाह न करे।
क़ियाम यानी खड़ा होना
967. तक्बीरतुल एहराम कहने के मौक़े पर क़ियाम और रूकू से पहले वाला क़ियाम – क़ियाम मुत्तसिल ब रूकू – रुक्न है। लेकिन अलहम्द और सूरा पढ़ने के मौक़े पर क़ियाम और रूकू के बाद क़ियाम रुक्न नहीं है और अगर कोई शख़्स उसे भूल चूक की वजह से तर्क कर दे तो उसकी नमाज़ सहीह है।
968. तक्बीरतुल एहराम कहने से पहले और उसके बाद थोड़ी देर तक खड़ा होना वाजिब है ताकि यक़ीन हो जाए कि तक्बीर क़ियाम की हालत में कही गई है।
969. अगर कोई शख़्स रूकू करना भूल जाए और अलहम्द और सूरा के बाद बैठ जाए और फिर उसे याद आए कि रूकू नहीं किया तो ज़रूरी है कि खड़ा हो जाए और रूकू में जाए। लेकिन अगर सीधा खड़ा हुए बग़ैर झुके होने की हालत में रूकू करे तो चूंकि वह क़ियाम मुत्तसिल ब रूकू बजा नहीं लाया इस लिये उसका यह रूकू किफ़ायत नहीं करता।
970. जिस वक़्त एक शख़्स तक्बीरतुल एहराम या क़िरअत के लिये खड़ा हो ज़रूरी है कि बदन को हरकत न दे और किसी तरफ़ न झुके और एहतियाते लाज़िम की बिना पर इखतियार की हालत में किसी जगह टेक न लगाए लेकिन अगर ऐसा करना ब अम्रे मजबूरी हो तो कोई इश्काल नहीं।
971. अगर क़ियाम की हालत में कोई शख़्स भूले से बदन को हरकत दे या किसी तरफ़ झुक जाए या किसी जगह टेक लगा ले तो कोई इश्काल नहीं है।
972. एहतियाते वाजिब यह है कि क़ियाम के वक़्त इंसान के दोनों पांव ज़मीन पर हों। लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि बदन का बोझ दोनों पांव पर हो चुनांचे अगर एक पांव पर भी हो तो कोई इश्काल नहीं।
973. जो शख़्स ठीक तौर पर खड़ा हो सकता हो अगर वह अपने पांव एक दूसरे से इतना जुदा रखे कि उस पर खड़ा होना सादिक़ न आता हो तो उसकी नमाज़ बातिल है। और इसी तरह अगर मअमूल के ख़िलाफ़ पैरों को खड़ा होने की हालत में बहुत खुला रखे तो एहतियात की बिना पर यही हुक्म है। 974. जब इंसान नमाज़ में कोई वाजिब ज़िक्र पढ़ने में मश्ग़ूल हो तो ज़रूरी है कि उसका बदन साकिन हो और मुस्तहब ज़िक्र में मश्ग़ूल हो तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है और जिस वक़्त हर क़द्र आगे या पीछे होना चाहे या बदन को दांये या बांये जानिब थोड़ी सी हरकत देना चाहे तो ज़रूरी है कि उस वक़्त कुछ न पढ़ें।
975. अगर मुतहर्रिक बदन की हालत में कोई शख़्स मुस्तहब ज़िक्र पढ़े मसलन रूकू से सज्दे में जाने के वक़्त तक्बीर कहे और उस ज़िक्र के क़स्द से कहे जिसका नमाज़ में हुक्म दिया गया है तो वह ज़िक्र सहीह नहीं लेकिन उसकी नमाज़ सहीह है। और ज़रूरी है कि इंसान बे हौलिल्लाहे व क़ुव्वतेही अक़ूमो व अक़्उद उस वक़्त कहे जब खड़ा हो रहा हो।
976. हाथों और उंगलियों को अलहम्द पढ़ते वक़्त हरकत देने में कोई हरज नहीं अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन्हें भी हरकत न दी जाए।
977. अगर कोई शख़्स अलहम्द और सूरा पढ़ते वक़्त या तस्बीहात पढ़ते वक़्त बे इख़तियार इतनी हरकत करे कि बदन साकिन होने की हालत से खारिज हो जाए तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बदन के दोबारा साकिन होने पर जो कुछ उसने हरकत की हालत में पढ़ा था, दोबारा पढ़े।
978. नमाज़ के दौरान अगर कोई शख़्स खड़े होने के क़ाबिल न हो तो ज़रूरी है कि बैठ जाए और अगर बैठ भी न सकता हो तो ज़रूरी है कि लेट जाए लेकिन जब तक उसके बदन को सुकून हासिल न हो ज़रूरी है कि कोई वाजिब ज़िक्र न पढ़े।
979. जब तक इंसान खड़े होकर नमाज़ पढ़ सकता हो ज़रूरी है कि न बैठे मसलन अगर खड़ा होने की हालत में किसी का बदन हरकत करता हो या वह किसी चीज़ पर टेक लगाने पर या बदन को थोड़ा सा टेढ़ा करने पर मजबूर हो तो ज़रूरी है कि जैसे भी हो सके खड़ा होकर नमाज़ पढ़े लेकिन अगर वह किसी तरह भी खड़ा न हो सकता हो तो ज़रूरी है कि सीधा बैठ जाए और बैठ कर नमाज़ पढ़े।
980. जब तक इंसान बैठ सके ज़रूरी है कि वह लेट कर नमाज़ न पढ़े और अगर वह सीधा होकर न बैठ सके तो ज़रूरी है कि जैसे भी मुम्किन हो बैठे और अगर बिल्कुल न बैठ सके तो जैसा कि क़िब्ले के अहकाम में कहा गया है ज़रूरी है कि दायें पहलू लेटे और दायें पहलू पर न लेट सकता हो तो बायें पहलू पर लेटे। और एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि जब तक दायें पहलू पर लेट सकता हो बायें पहलू पर न लेटे और अगर दोनों तरफ़ लेटना मुम्किन न हो तो पुश्त के बल इस तरह लेटे कि उसके तल्वे क़िब्ले की तरफ़ हों।
981. जो शख़्स बैठ कर नमाज़ पढ़ रहा हो अगर वह अलहम्द और सूरा पढ़ने के बाद खड़ा हो सके और रूकू खड़ा होकर बजा ला सके तो ज़रूरी है कि खड़ा हो जाए और क़ियाम की हालत से रूकू में जाए और अगर ऐसा न कर सके तो ज़रूरी है कि रूकू भी बैठ कर बजा लाए।
982. जो शख़्स लेट कर नमाज़ पढ़ रहा हो गर वह नमाज़ के दौरान इस क़ाबिल हो जाए कि बैठ सके तो ज़रूरी है कि नमाज़ की जितनी मिक़्दार मुम्किन हो बैठ कर पढ़े और अगर खड़ा हो सके तो ज़रूरी है कि जितनी मिक़्दार मुम्किन हो खड़ा होकर पढ़े लेकिन जब तक उसके बदन को सुकून हासिल न हो जाए ज़रूरी है कि कोई वाजिब ज़िक्र न पढ़े।
983. जो शख़्स बैठ कर नमाज़ पढ़ रहा हो अगर नमाज़ के दौरान इस क़ाबिल हो जाए कि खड़ा हो सके तो ज़रूरी है कि नमाज़ की जितनी मिक़्दार मुम्किन हो खड़ा होकर पढ़े लेकिन जब तक उसके बदन को सुकून न हासिल हो जाए ज़रूरी है कि कोई वाजिब ज़िक्र न पढ़े।
984. अगर किसी ऐसे शख़्स को, जो खड़ा हो सकता हो, यह ख़ौफ़ हो कि खड़े होने से बीमार हो जायेगा या उसे कोई तक्लीफ़ होगी तो वह बैठ कर नमाज़ पढ़ सकता है और अगर बैठने से भी तक्लीफ़ का डर हो तो लेट कर नमाज़ पढ़ सकता है।
985. अगर किसी शख़्स को इस बात की उम्मीद हो कि आख़िरे वक़्त में खड़ा होकर नमाज़ पढ़ सकेगा और वह अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ ले और और आख़िरे वक़्त में खड़ा होने पर क़ादिर हो जाए तो ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़े लेकिन अगर खड़ा होकर नमाज़ पढ़ने से मायूस हो और अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ ले बाद अज़्आँ वह खड़े होने के क़ाबिल हो जाए तो ज़रूरी नहीं कि दोबारा नमाज़ पढ़े।
986. (इंसान के लिये) मुस्तहब है कि क़ियाम की हालत में जिस्म सीधा रखे और कंधों को नीचे की तरफ़ ढीला छोड़ा दे नीज़ हाथों को रानों पर रखे और उंगलियों को बाहम मिलाकर रखे और निगाह सज्दे की जगह पर मर्क़ूज़ रखे और बदन का बोझ दोनों पांव पर यकसां डाले और ख़ुशूउ और ख़ुज़ूउ के साथ खड़ा हो और पांव आगे पीछे न रखे और अगर मर्द हो तो पांव के दरमियान तीन फैली हुई उंगलियों से लेकर एक बालिश्त तक का फ़ासिला रखे और अगर औरत हो तो दोनों पांव मिलाकर रखे।
क़िराअत
987. ज़रूरी है कि इंसान रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों की पहली और दूसरी रक्अत में पहले अलहम्द और उसके बाद एहतियात की बिना पर एक पूरे सूरे की तिलावत करे और वज़्ज़ुहा और अलम नशरा की सूरतें और इसी तरह सूरा ए फ़ील और क़ुरैश एहतियात की बिना पर नमाज़ में एक सूरत सुमार होती हैं।
988. अगर नमाज़ का वक़्त तंग हो या इंसान किसी मजबूरी की वजह से सूरा न पढ़ सकता हो मसलन उसे ख़ौफ़ हो कि अगर सूरा पढ़ेगा तो चोर या दरिन्दा या कोई और चीज़ उसे नुक्सान पहुंचायेगी या उसे ज़रूरी काम हो तो अगर वह चाहे तो सूरा न पढ़े बल्कि वक़्त तंग होने की सूरत में और ख़ौफ़ की बाज़ हालतों में ज़रूरी है कि वह सूरा न पढ़े।
989. अगर कोई शख़्स जान बूझकर अलहम्द से पहले सूरा पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल होगी लेकिन अगर ग़ल्ती से अलहम्द से पहले सूरा पढ़े और पढ़ने के दौरान याद आए तो ज़रूरी है कि सूरा को छोड़ा दे और अलहम्द पढ़ने के बाद सूरा शूरू से पढ़े।
990. अगर कोई शख़्स अलहम्द और सूरा या उनमें से किसी एक का पढ़ना भूल जाए और रूकू में जाने के बाद उसे याद आए तो उसकी नमाज़ सहीह है।
991. अगर रूकू के लिये झुकने से पहल किसी शख़्स को याद आए कि उसने अलहम्द और सूरा नहीं पढ़ा तो ज़रूरी है कि पढ़े और अगर यह याद आए कि सूरा नहीं पढ़ा तो ज़रूरी है कि फ़क़त सूरा पढ़े लेकिन अगर उसे याद आए कि फ़क़त अलहम्द नहीं पढ़ी तो ज़रूरी है कि पहले अलहम्द और उसके बाद दोबारा सूरा पढ़े और अगर झुक भी जाए लेकिन रूकू की हद तक पहुंचने से पहले याद आए कि अलहम्द और सूरा या फ़क़त सूरा या फ़क़त अलहम्द नहीं पढ़ी तो ज़रूरी है कि खड़ा हो जाए और इसी हुक्म के मुताबिक़ अमल करे।
992. अगर कोई शख़्स जान भूझकर फ़र्ज़ नमाज़ में उन चार सूरों में से कोई एक सूरा पढ़े जिनमें आयाए सज्दा हो और जिनका ज़िक्र मस्अला 361 में किया गया है तो वाजिब है कि आयए सज्दा पढ़ने के बाद सज्दा करे लेकिन अगर सज्दा बजा लाए तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है और ज़रूरी है कि उसे दोबारा पढ़े और अगर सज्दा न करे तो अपनी नमाज़ जारी रख सकता है अगरचे सज्दा न कर के उसने गुनाह किया है।
993. अगर कोई शख़्स भूलकर ऐसा सूरा पढ़ना शूरू कर दे जिसमें सज्दा वाजिब हो लेकिन आयए सज्दा पर पहुंचने से पहले उसे ख़्याल आ जाए तो ज़रूरी है कि उस सूरे को छोड़ दे और कोई दूसरा सूरा पढ़े और आयए सज्दा पढ़ने के बाद ख़्याल आए तो ज़रूरी है कि जिस तरह साबिक़ मस्अले में कहा गया है अमल करे।
994. अगर कोई शख़्स नमाज़ के दौरान किसी दूसरे को आयाए सज्दा पढ़ते हुए सुने तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन एहतियात की बिना पर सज्दे का इशारा करे और नमाज़ ख़त्म करने के बाद उसका सज्दा बजा लाए।
995. मुस्तहब नमाज़ों में सूरा पढ़ना ज़रूरी नहीं है ख़्वाह वह नमाज़ मन्नत मानने की वजह से ही क्यों न वाजिब हो गई हो। लेकिन अगर कोई शख़्स बाज़ ऐसी मुस्तहब नमाज़ें उनके अहकाम के साथ पढ़ना चाहे मसलन नमाज़े वहशत कि जिनमें मख़्सूस सूरतें पढ़नी होती हैं तो ज़रूरी है कि वही सूरतें पढ़े।
996. जुमुआ की नमाज़ में और जुमुआ के दिन ज़ोहर की नमाज़ में पहली रक्अत में अलहम्द के बाद सूरा जुमुआ और दूसरी रक्अत में अलहम्द के बाद सूरा ए मुनाफ़िक़ून पढ़ना मुस्तहब है। और अगर कोई शख़्स इनमें से कोई एक सूरा पढ़ना शूरू कर दे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे छोड़ कर कोई दूसरा सूरा नहीं पढ़ सकता।
997. अगर कोई शख़्स अलहम्द के बाद सूरा ए एख़्लास या सूरा ए काफ़िरून पढ़ने लगे तो वह उसे छोड़कर दूसरा सूरा नहीं पढ़ सकता अलबत्ता अगर नमाज़े जुमुआ या जुमुआ के दिन नमाज़े ज़ोहर में भूल कर सूरा ए जुमुआ और सूरा ए मुनाफ़िक़ून की बजाए उन दो सूरतों में से कोई सूरा पढ़े तो उन्हें छोड़ सकता है और सूरा ए जुमुआ और सूरा ए मुनाफ़िक़ून पढ़ सकता है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर निस्फ़ तक पढ़ चुका हो तो फिर इन सूरों को न छोड़े।
998. अगर कोई शख़्स जुमुआ की नमाज़ में या जुमुआ के दिन ज़ोहर की नमाज़ में जान बूझ कर सूरा ए एख़्लास या सूरा ए काफ़िरून पढ़े तो ख़्वाह वह निस्फ़ तक न पहुंचा हो एहतियाते वाजिब की बिना पर उन्हें छोड़ कर सूरा ए जुमुआ और सूरा ए मुनाफ़िक़ून नहीं पढ़ सकता।
999. अगर कोई शख़्स नमाज़ में सूरा ए एख़्लास या सूरा ए काफ़िरून के अलावा कोई दूसरा सूरा पढ़े तो जब तक निस्फ़ तक न पहुंचा हो उसे छोड़ सकता है और दूसरा सूरा पढ़ सकता है और निस्फ़ तक पहुंचने के बाद बग़ैर किसी वजह के उस सूरे को छोड़ कर दूसरा सूरा पढ़ना एहतियात की बिना पर जाइज़ नहीं।
1000. अगर कोई शख़्स किसी सूरे का कोई हिस्सा भूल जाए या ब अम्रे मजबूरी मसलन वक़्त की तंगी या किसी और वजह से उसे मुकम्मल न कर सके तो वह उस सूरे को छोड़ कर कोई दूसरा सूरा पढ़ सकता है ख़्वाह निस्फ़ तक ही पहुंच चुका हो या वह सूरा ए एख़्लास या सूरा ए काफ़िरून ही हो।
1001. मर्द पर एहतियात की बिना पर वाजिब है कि सुब्ह और मग़्रिब व इशा की नमाज़ों में अलहम्द और सूरा बलन्द आवाज़ से पढ़े और मर्द और औरत दोनों पर एहतियात की बिना पर वाजिब है कि नमाज़े ज़ोहर व अस्र में अलहम्द और सूरा आहिस्ता पढ़ें।
1002. एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि मर्द सुब्ह और मग्रिब व इशा की नमाज़ में ख़्याल रखे कि अलहम्द और सूरा के तमाम कलिमात हत्ता कि उनके आख़िरी हर्फ़ तक बलन्द आवाज़ से पढ़े।
1003. सुब्ह की नमाज़ और मग़्रिब व इशा की नमाज़ में औरत अलहम्द और सूरा बलन्द आवाज़ से या आहिस्ता जैसा चाहे पढ़ सकती है। लेकिन अगर ना महरम उसकी आवाज़ सुन रहा हो और उसका सुनना हराम हो तो अहतियात की बिना पर आहिस्ता पढ़े।
1004. अगर कोई शख़्स जिस नमाज़ को बलन्द आवाज़ से पढ़ना ज़रूरी है उसे अमदन आहिस्ता पढ़े या जो नमाज़ आहिस्ता पढ़नी ज़रूरी है उसे अमदन बलन्द आवाज़ से पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर भूल जाने की वजह से या मसअला न जानने की वजह से ऐसा करे तो (उसकी नमाज़) सहीह है। नीज़ अलहम्द और सूरा पढ़ने के दौरान भी अगर वह मुतवज्जह हो जाए कि उससे ग़लती हुई है तो ज़रूरी नहीं कि नमाज़ को जो हिस्सा पढ़ चुका हो उससे दोबारा पढ़े।
1005. अगर कोई शख़्स अलहम्द और सूरा पढ़ने के दौरान अपनी आवाज़ मअमूल से ज़्यादा बलन्द करे मसलन उन सूरतों को ऐसे पढ़े ज़ैसे कि फ़र्याद कर रहा हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1006. इंसान के लिये ज़रूरी है कि नमाज़ की क़िरअत को सीख ले ताकि ग़लत न पढ़े और जो शख़्स किसी तरह भी पूरे सूरा ए अलहम्द को न सीख सकता हो जिस क़दर भी सीख सकता हो सीखे और पढ़े लेकिन अगर वह मिक़्दार बहुत कम हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर क़ुरआन के दूसरे सूरों में से जिस क़दर सीख सकता हो उसके साथ मिलाकर पढ़े और अगर न कर सकता हो तो तस्बीह को उसके साथ मिलाकर पढ़े और अगर पूरे सूरे को न सीख सकता हो तो ज़रूरी नहीं कि उसके बदले कुछ पढ़े। और हर हाल में एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ को जमाअत के साथ बजा ला लाए।
1007. अगर किसी को अलहम्द अच्छी तरह याद न हो और वह सीख सकता हो और नमाज़ का वक़्त वसी हो तो ज़रूरी है कि सीख ले और अगर वक़्त तंग हो और वह इस तरह पढ़े जैसा कि गुज़िश्ता मस्अलों में कहा गया है तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन अगर मुम्किन हो तो अज़ाब से बचने के लिये जमाअत के साथ नमाज़ पढ़े।
1008. वाजिबाते नमाज़ सीखाने की उजरत लेना एहतियात की बिना पर हराम है लेकिन मुस्तहब्बाते नमाज़ सीखाने की उजरत लेना जाइज़ है।
1009. अगर कोई शख़्स अलहम्द और सूरा का कोई कलिमा न जानता हो या जान बूझकर उसे न पढ़े या एक हर्फ़ के बजाए दूसरे हर्फ़ कहे मसलन ज़ाद के बजाए ज़ो कहे या जहां ज़ैर और ज़बर के बग़ैर पढ़ना ज़रूरी हो वहा ज़ैर और ज़बर लगाए या तश्दीद हज़फ़ कर दे तो उसकी नमाज बातिल है।
1010. अगर इंसान ने कोई कलिमा जिस तरह याद किया हो उसे सहीह समझता हो और नमाज़ में उसी तरह पढ़े और बाद में उसे पता चले कि उसने ग़लत पढ़ा है तो उसके लिये नमाज़ का दोबारा पढ़ना ज़रूरी नहीं।
1011. अगर कोई शख़्स किसी लफ़्ज़ के ज़बर ज़ेर से वाक़िफ़ न हो या यह न जानता हो कि वह लफ़्ज़ (छोटी) हे से अदा करना चाहिये या हाए हुत्ती से तो ज़रूरी है कि सीख ले और लफ़्ज़ को दो (या दो से ज़ाइद) तरीक़ो से अदा करे। और अगर उसे लफ़्ज़ ग़लत पढ़ना क़ुरआन या ज़िक्रे ख़ुदा शुमार न हो तो उसकी नमाज़ बातिल है। और अगर दोनों तरीक़ों से पढ़ना सहीह हो मसलन एहदिनस सिरातल मुस्तक़ीमा को दो दफ़्आ (सीन) से और एक दफ़्आ (साद) से पढ़े तो इन दोनों तरीक़ों से पढ़ने में कोई मुज़ाइक़ा नहीं।
1012. उलमा ए तज़्वीद का कहना है कि अगर किसी लफ़्ज़ में वाव हो और उसे लफ़्ज़ से पहले वाले हर्फ़ पर पेश हो और उस लफ़्ज़ में वाव के बाद हर्फ़ हम्ज़ा हो मसलन सूइन हो पढ़ने वाले को चाहिये कि उस वाव को मद के साथ खींच कर पढ़े। इसी तरह अगर किसी लफ़्ज़ में अलिफ़ हो और उस लफ़्ज़ में अलीफ़ से पहले वाले हर्फ़ पर ज़बर हो और उस लफ़्ज़ में अलीफ़ के बाद वाला हर्फ़ हमज़ा है मसलन जाअ तो ज़रूरी है कि उस लफ़्ज़ के अलिफ़ को खींच कर पढ़ें। और अगर किसी लफ़्ज़ में ये हो और उस लफ़्ज़ में ये से पहले वाले हर्फ़ पर ज़ेर हो और उस लफ़्ज़ में ये से बाद वाला हर्फ़ हमज़ा हो मसलन जीअ तो ज़रूरी है कि ये को मद के साथ पढ़ें और अगर इन हुरूफ़ वा अलिफ़ और या के बाद हमज़ा के बजाए कोई साकिन हर्फ़ हो यानी उस पर ज़बर, ज़ेर या पेश में से कोई हरकत न हो तब भी इन तीनों हुरूफ़ को मद के साथ पढ़ना ज़रूरी है। लेकिन ज़ाहिरन ऐसे मुआमले में क़िरअत का सहीह होना मद पर मौक़ूफ़ नहीं। लिहाज़ा जो तरीक़ा बताया गया है अगर कोई उस पर अमल न करे तब भी उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन वलज़्ज़ल्लीन जैसे अल्फ़ाज़ में तश्दीद और अलिफ़ का पूरे तौर पर अदा होना मद पर थोड़ा सा तवक़्क़ुफ़ करने से है लिहाज़ा ज़रूरी है कि अलिफ़ को थोड़ा सा ख़ींचकर पढ़े। 1013. एहतियाते मुस्तहब यह है कि इंसान नमाज़ में वक़्फ़ ब हरकत और वस्ल ब सुकून न करे और वक़्फ़ ब हरकत के मअनी यह हैं कि किसी लफ़्ज़ के आख़िर में ज़ेर, ज़बर, पेश पढ़े और उस लफ़्ज़ और उसके बाद के लफ़्ज़ के दरमियान फ़ासिला दे मसलन कहे अर्रहमानिर्रहीमे और अर्रहीमे के मीम को ज़ेर दे और उसके बाद क़दरे फ़ासिला दे और कहे, मालिके यौमिद्दीने और वस्ल बसुकून के मअना यह है कि किसी लफ़्ज़ के ज़ेर, जबर या पेश न पढ़े और उस लफ़्ज़ को बाद के लफ़्ज़ से जोड़ दे। मसलन यह कहे अर्रहमानिर्रहीम और अर्रहीम की मीम को ज़ेर न दे और फ़ौरन मालिके यौमिद्दीन कहे।
1014. नमाज़ की तीसरी और चौथी रक्अत में फ़क़त एक दफ़्आ अलहम्द या एक दफ़्आ तस्बीहाते अर्बआ पढ़ी जा सकती है यानी नमाज़ पढ़ने वाला एक दफ़्आ कहे सुब्हानल्लाहे वलहम्दो लिल्लाहे वला इलाहा इल्लल्लाहो वल्लाहो अकबर और बेहतर यह है कि तीन दफ़्आ कहे। और एक रक्अत में अलहम्द और दूसरी रक्अत में तस्बीहात भी पढ़ सकता है। और बेहतर यह है कि दोनों रक्अतो में तस्बीहात पढ़े।
1015. अगर वक़्त तंग हो तो तस्बीहाते अर्बआ एक दफ़्आ पढ़ना चाहिये और अगर इस क़दर वक़्त भी न हो तो बईद नहीं कि एक दफ़्आ सुब्हानल्लाह कहना लाज़िम हो।
1016. एहतियात की बिना पर मर्द और औरत दोनों पर वाजिब है कि नमाज़ की तीसरी और चौथी रक्अत में अलहम्द या तस्बीहाते अर्बआ आहिस्ता पढ़ें।
1017. अगर कोई शख़्स तीसरी और चौथी रक्अत में अलहम्द पढ़े तो वाजिब नहीं कि उसकी बिस्मिल्लाह भी आहिस्ता पढ़े लेकिन मुक्तदी के लिये एहतियाते वाजिब यह है कि बिस्मिल्लाह भी आहिस्ता भी।
1018. जो शख़्स तस्बीहात याद न कर सकता हो या उन्हें ठीक ठीक पढ़ न सकता हो ज़रूरी है कि वह तीसरी और चौथी रक्अत में अलहम्द पढ़े।
1019. अगर कोई शख़्स नमाज़ की पहली दो रक्अतों में यह ख़्याल करते हुए कि यह आख़िरी दो रक्अतें हैं तस्बीहात पढ़े लेकिन रूकू से पहले उसे सहीह सूरत का पता चल जाए तो ज़रूरी है कि अलहम्द और सूरा पढ़े और अगर उसे रूकू के बाद पता चले तो उसकी नमाज़ सहीह है।
1020. अगर कोई शख़्स नमाज़ की आख़िरी दो रक्अतों में यह ख़्याल करते हुए कि यह पहली दो रक्अतें हैं अलहम्द पढ़े या नमाज़ की पहली दो रक्अतों में यह ख़्याल करते हुए कि यह आख़िरी दो रक्अतें हैं अलहम्द पढ़े तो सहीह सूरत का ख़्वाह रूकू से पहले पता चले या बाद में उसकी नमाज़ सहीह है।
1021. अगर कोई शख़्स तीसरी या चौथी रक्अत में अलहम्द पढ़ना चाहता हो लेकिन तस्बीहात उसकी ज़बान पर आ जायें या तस्बीहात पढ़ना चाहता हो लेकिन अलहम्द उसकी ज़बान पर आ जाए और अगर उसके पढ़ने का बिल्कुल इरादा न था तो ज़रूरी है कि उसे छोड़ कर दोबारा अलहम्द या तस्बीहात पढ़े लेकिन अगर बतौरे कुल्ली बिला इरादा न हो जैसे कि उसकी आदत वही कुछ पढ़ने की हो जो उसकी ज़बान पर आया है तो वह उसी को तमाम कर सकता है और उसकी नमाज़ सहीह है।
1022. जीस शख़्स की आदत तीसरी और चौथी रक्अत में तस्बीहात पढ़ने की हो अगर वह अपनी आदत से ग़फ़्लत बरते और अपने वज़ीफ़े की अदायगी की नीयत से अलहम्द पढ़ने लगे तो वही काफ़ी है और उसके लिये अलहम्द या तस्बीहात दोबारा पढ़ना ज़रूरी नहीं।
1023. तीसरी और चौथी रक्अत में तस्बीहात के बाद इस्तिग़्फ़ार करना मुस्तहब है मसलन अस्तग़्फ़िरुल्लाहा रब्बी व अतूबो इलैहे या कहे अल्लाहुम्मग़्फ़िर ली और अगर नमाज़ पढ़ने वाला रूकू के लिये झुकने से पहले इसतिग़्फ़ार पढ़ रहा हो या उससे फ़ारिग़ हो चुका हो और उसे शक हो जाए कि उसने अलहम्द या तस्बीहात पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि अलहम्द या तस्बीहात पढ़े।
1024. अगर तीसरी या चौथी रक्अत में या रूकू में जाते हुए शक करे कि अलहम्द या तस्बीहात पढ़ी है या नहीं तो अपने शक की परवाह न करे।
1025. अगर नमाज़ पढ़ने वाला शक करे कि आया उसने कोई आयत या जुमला दुरुस्त पढ़ा है या नहीं मसलन शक करे कि क़ुल हुवल्लाहो अहद दुरुस्त पढ़ा है या नहीं तो वह अपने शक की परवाह न करे लेकिन अगर एहतियातन वही आयत या जुमला दोबारा सहीह तरीक़े से पढ़ दे तो कोई हरज नहीं और अगर कई बार भी शक करे तो कई बार पढ़ सकता है। हां अगर वस्वसे की हद तक पहुंच जाए और अगर फिर भी दोबारा पढ़े तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर नमाज़ दोबारा पढ़े।
1026. मुस्तहब है कि पहली रक्अत में अलहम्द पढ़ने से पहले अऊज़ोबिल्लाहे मिनश शैतानिर्रजीम कहे और ज़ोहर अस्र की पहली और दूसरी रक्अतों में बिस्मिल्लाह बलन्द आवाज़ से कहे और अलहम्द और सूरा को मुमैयज़ करके पढ़े और हर आयत के आख़िर पर वक़्फ़ करे यानी उसे बाद वाली आयत के साथ न मिलाए और अलहम्द और सूरा पढ़ते वक़्त आयात के मअनों की तरफ़ तवज्जह रखे। और अगर जमाअत से नमाज़ पढ़ रहा हो तो इमामे जमाअत के सूरा ए अलहम्द ख़त्म करने के बाद और अगर फ़रूदा नमाज़ पढ़ रहा हो तो सूरा ए अलहम्द पढ़ने के बाद कहे अलहम्दोलिल्लाहे रब्बिल आलमीन और सूरा ए क़ुल हुवल्लाहो अहद पढ़ने के बाद एक या दो तीन दफ़्आ कज़ालिकल्लाहो रब्बी या तीन दफ़्आ कज़ालिकल्लाहो रब्बना कहे और सूरा पढ़ने के बाद और थोड़ी देर रुके और उसके बाद रूकू से पहले की तक्बीर कहे या क़ुनूत पढ़े।
1027. मुस्तहब है कि तमाम नमाज़ों की पहली रक्अत में सूरा ए क़द्र और दूसरी रक्अत में सूरा ए एख़्लास पढ़े।
1028. पंचगाना नमाज़ों में से किसी एक नमाज़ में भी इंसान का सूरा ए एख़्लास का न पढ़ना मकरूह है।
1029. एक ही सांस में सूरा ए क़ुल हुवल्लाहो अहद का पढ़ना मकरूह है।
1030. जो सूरा इंसान पहली रक्अत में पढ़े उसका दूसरी रक्अत में पढ़ना मकरूह है। लेकिन अगर सूरा ए एख़्लास दोनों रक्अतों में पढ़े तो मकरूह नहीं है।
रुकू
1031. ज़रूरी है कि हर रक्अत में क़िरअत के बाद इस क़दर झुके कि अपनी उंगलियों के सिरे घुटने पर रख सके और इस अमल को रूकू कहते हैं।
1032. अगर रूकू जितना झुक जाए लेकिन अपनी उंगलियों के सिरे घुटनों पर न रखे तो कोई हरज नहीं।
1033. अगर कोई शख़्स रूकू आम तरीक़े के मुताबिक़ न बजा लाए मसलन बायें या दायें जानिब झुक जाए तो ख़्वाह उसके हाथ घुटनों तक पहुंच भी जायें उसका रूकू सहीह नहीं है।
1034. ज़रूरी है कि झुकना रूकू की नीयत से हो लिहाज़ा अगर किसी और काम के लिये मसलन किसी और जानवर को मारने के लिये झुके तो उसे रूकू नहीं कहा जा सकता बल्कि ज़रूरी है कि खड़ा हो जाए और दोबारा रूकू के लिये झुके और इस अमल की वजह से रुक्न में इज़ाफ़ा नहीं होता और नमाज़ बातिल नहीं होती।
1035. जिस शख़्स के हाथ या घुटने दूसरे लोगों के हाथों या घुटनों से मुख़्तलिफ़ हों मसलन उसके हाथ इतने लम्बे हों कि अगर मअमूली सा भी झुके तो घुटनों तक पहुंच जायें या उसके घुटने दूसरे लोगों के घुटनों के मुक़ाबिले में नीचे हों और उसे हाथ घुटनों तक पहुंचाने के लिये बहुत ज़्यादा झुकना पड़ता हो तो ज़रूरी है कि इतना झुके कि जितना उमूमन लोग झुकते हैं।
1036. जो शख़्स बैठकर रूकू कर रहा हो उसे इस क़दर झुकना ज़रूरी है कि उसका चेहरा उसके घुटनों के बिल मुक़ाबिल जा पहुंचे और बेहतर है कि इतना झुके कि उसका चेहरा सज्दे की जगह के क़रीब जा पहुंचे।
1037. बेहतर यह है कि इख़्तियार की हालत में रूकू में तीन दफ़्आ सुब्हानल्लाह या एक दफ़्आ सुब्हाना रब्बियल अज़ीमे व बेहम्देही कहे और ज़ाहिर यह है कि जो ज़िक्र भी इतना मिक़्दार में कहा जाए काफ़ी है। लेकिन वक़्त की तंगी और मजबूरी की हालत में एक दफ़्आ सुब्हानल्लाह कहना ही काफ़ी है।
1038. ज़िक्रे रूकू मुसलसल और सहीह अरबी में पढ़ना चाहिये और मुस्तहब है कि उसे तीन या पांच या सात दफ़्आ बल्कि इससे भी ज़्यादा पढ़ा जाए।
1039. रूकू की हालत में ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का बदन साकिन हो नीज़ ज़रूरी है कि वह अपने इख़्तियार से बदन को इस तरह हरकत न दे कि उस पर साकिन होना सादिक़ न आए हत्ता कि एहतियात की बिना पर अगर वह वाजिब ज़िक्र में मश्ग़ूल न हो तब भी यही हुक्म है।
1040. अगर नमाज़ पढ़ने वाला उस वक़्त जबकि रूकू का वाजिब ज़िक्र अदा कर रहा हो बे इख़्तियार इतनी हरकत करे कि बदन के सुकून की हालत में होने से खारिज हो जाए तो बेहतर यह है कि बदन के सुकून हासिल करने के बाद दोबारा ज़िक्र को बजा लाए लेकिन अगर इतनी कम मुद्दत के लिये हरकत करे कि बदन के सुकून होने की हालत से खारिज न हो या उंगलियों को हरकत दे तो कोई हरज नहीं।
1041. अगर नमाज़ पढ़ने वाला इससे पेशतर कि रूकू जितना झुके और उसका बदन सुकून हासिल करे जान बूझकर ज़िक्रे रूकू पढ़ना शूरू कर दे तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1042. अगर एक शख़्स वाजिब ज़िक्र कर के ख़त्म होने से पहले जान बूझकर सर रूकू से उठा ले तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर सहवन सर उठा ले और इससे पेशतर की रूकू की हालत से खारिज हो जाए उसे याद आए कि उसने ज़िक्रे रूकू ख़त्म नहीं किया तो ज़रूरी है कि रुकू जाए और ज़िक्र पढ़े। और अगर उसे रूकू की हालत में खारिज होने के बाद याद आए तो उसकी नमाज़ सहीह है।
1043. अगर एक शख़्स ज़िक्र की मिक़्दार के मुताबिक़ रूकू की हालत में न रह सकता हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसका बक़िय्या हिस्सा रूकू से उठते हुए पढ़े।
1044. अगर कोई शख़्स मरज़ वग़ैरा की वजह से रूकू में अपना बदन साकिन न रख सके तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन ज़रूरी है कि रूकू की हालत से खारिज होने से पहले वाजिब ज़िक्र उस तरीक़े से अदा करे जैसे ऊपर बयान किया गया है।
1045. जब कोई शख़्स रूकू के लिये न झुक सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी चीज़ का सहारा लेकर रूकू बजा लाए और अगर सहारे के ज़रिये भी मअमूल के मुताबिक़ रूकू न कर सके तो ज़रूरी है कि इस क़दर झुके कि उर्फ़न उसे रूकू कहा जा सके और अगर इस क़दर न झुक सके तो ज़रूरी है कि रूकू के लिये सर से इशारा करे।
1046. जिस शख़्स को रूकू के लिये सर से इशारा करना ज़रूरी हो अगर वह इशारा करने पर क़ादिर न हो तो ज़रूरी है कि रूकू की नीयत के साथ आंखों को बन्द करे और ज़िक्रे रूकू पढ़े और रूकू से उठने की नीयत से आंखों को खोल दे और अगर इस क़ाबिल न हो तो एहतियात की बिना पर दिल में रूकू की नियत करे और अपने हाथ से रूकू के लिये इशारा करे और ज़िक्रे रूकू पढ़े।
1047. जो शख़्स खड़े होकर रूकू न कर सके लेकिन जब बैठा हुआ हो तो रूकू के लिये झुक सकता हो तो ज़रूरी है कि खड़े होकर नमाज़ पढ़े और रूकू के लिये सर से इशारा करे। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि एक दफ़्आ फिर नमाज़ पढ़े और उसके रूकू के वक़्त बैठ जाए और रूकू के लिये झुक जाए।
1048. अगर कोई शख़्स रूकू की हद तक पहुंचने के बाद सर को उठा ले और दोबारा रूकू करने की हद तक झुके तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1049. ज़रूरी है कि ज़िक्रे रूकू ख़त्म होने के बाद सीधा खड़ा हो जाए और जब उसका बदन सुकून हासिल कर ले उसके बाद सज्दे में जाए और अगर जान बूझकर खड़ा होने से पहले या बदन के सुकून हासिल करने से पहले सज्दे में चला जाए तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1050. अगर कोई शख़्स रूकू अदा करना भूल जाए और इससे पेशतर की सज्दे की हालत में पहुंचे उसे याद आ जाए तो ज़रूरी है कि खड़ा हो जाए और फिर रूकू में जाए। और झुके हुए होने की हालत में अगर रूकू की जानिब लौट जाए तो काफ़ी नहीं।
1051. अगर किसी शख़्स को पेशानी ज़मीन पर रखने के बाद याद आए कि उसने रूकू नहीं किया तो उसके लिये ज़रूरी है कि लौट जाए और खड़ा होने के बाद रूकू बजा लाए। और अगर उसे दूसरे सज्दे में याद आए तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
1052. मुस्तहब है कि इंसान रूकू में जाने से पहले सीधा खड़ा होकर तक्बीर कहे और रूकू में घुटनों को पीछे की तरफ़ धकेले। पीठ को हमवार रखे। गर्दन को खींच कर पीठ के बराबर रखे। दोनों पांव के दरमियान देखे। ज़िक्र से पहले या बाद में दुरुद पढ़े और जब रूकू के बाद उठे और सीधा खड़ा हो तो बदन के सुकून की हालत में होते हुए समेअल्लाहो लेमन हमेदा कहे।
1053. औरतों के लिये मुस्तहब है कि रूकू में हाथों को घुटनों से ऊपर रखें और घुटनों को पीछे की तरफ़ न धकेलें।
सुजूद
1054. नमाज़ पढ़ने वाले के लिये ज़रूरी है कि वाजिब और मुस्तहब नमाज़ों की हर रक्अत में रूकू के बाद दो सज्दे करे। सज्दा यह है कि ख़ास शक्ल में पेशानी को ख़ुज़ूउ की नीयत से ज़मीन पर रखे और नमाज़ के सज्दे की हालत में वाजिब है कि दोनों हथेलियां, दोनों घुटने और दोनों पांव के अंगूठे ज़मीन पर रखे जायें।
1055. दो सज्दे मिलकर एक रुक्न हैं और अगर कोई शख़्स वाजिब नमाज़ में अमदन या भूले से एक रक्अत में दोनों सज्दे तर्क कर दे तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1056. अगर कोई शख़्स जान बूझकर एक सज्दा कम या ज़्यादा कर दे तो उसका हुक्म बाद में बयान किया जाऐगा।
1057. जो शख़्स पेशानी ज़मीन पर रख सकता हो अगर जान बूझकर या सहवन पेशानी ज़मीन पर न रखे तो ख़्वाह बदन के दूसरे हिस्से ज़मीन से लग भी गए हों तो उसने सज्दा नहीं किया लेकिन अगर वह पेशानी ज़मीन पर रख दे और सहवन बदन के दूसरे हिस्से ज़मीन पर न रखे या सहवन ज़िक्र न पढ़े तो उसका सज्दा सहीह है।
1058. बेहतर यह है कि इख़्तियार की हालत में सज्दे में तीन दफ़्आ सुब्हानल्लाह या एक दफ़्आ सुब्हाना रब्बियल अअला व बेहम्देही पढ़े और ज़रूरी है कि यह जुमले मुसलसल और सहीह अरबी में कहे जायें और ज़ाहिर यह है कि ज़िक्र का पढ़ना काफ़ी है लेकिन एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि उतनी ही मिक़्दार में हो और मुस्तहब है कि, सुब्हाना रब्बियल अअला व बेहम्देही तीन या पांच या सात दफ़्आ या इससे भी ज़्यादा मर्तबा पढ़े।
1059. सज्दे की हालत में ज़रूरी है कि नमाज़ी का बदन साकिन हो और हालते इख़्तियार में उसे अपने बदन को इस तरह हरकत नहीं देना चाहिये कि सुकून की हालत से निकल जाए और जब वाजिब ज़िक्र में मश्ग़ूल न हो तो एहतियात की बिना पर यही हुक्म है।
1060. इससे पेशतर की पेशानी ज़मीन से लगे और बदन सुकून हासिल कर ले कोई शख़्स जान बूझकर ज़िक्रे सज्दा पढ़े या ज़िक्र ख़त्म होने से पहले जान बूझकर सर सज्दे से उठा ले तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1061. अगर इससे पेशतर कि पेशानी ज़मीन पर लगे कोई शख़्स सहवन ज़िक्रे सज्दा पढ़े और इससे पेशतर की सर सज्दे से उठाए उसे पता चल जाए कि उसने ग़लती की है तो ज़रूरी है कि साकिन हो जाए और दोबारा ज़िक्र पढ़े।
1062. अगर किसी शख़्स को सर सज्दे से उठा लेने के बाद पता चले कि उसने ज़िक्रे सज्दा ख़त्म होने से पहले सर उठा लिया है तो उसकी नमाज़ सहीह है।
1063. जिस वक़्त कोई शख़्स ज़िक्रे सज्दा पढ़ रहा हो अगर वह जान बूझकर सात अअज़ाए सज्दा में से किसी एक को ज़मीन पर से उठाए तो उसकी नमाज़ बातिल हो जायेगी लेकिन जिस वक़्त ज़िक्र पढ़ने में मश्ग़ूल न हो अगर पेशानी के अलावा कोई उज़्वो ज़मीन पर से उठा ले और दोबारा रख दे तो कोई हरज नहीं है। लेकिन अगर ऐसा करना उसके बदन के साकिन होने के मनाफ़ी हो तो उस सूरत में एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
1064. अगर ज़िक्रे सज्दा ख़त्म होने से पहले कोई शख़्स सहवन पेशानी ज़मीन पर से उठा ले तो उसे दोबारा ज़मीन पर नहीं रख सकता और ज़रूरी है कि उसे एक सज्दा शुमार करे लेकिन अगर दूसरे अअज़ा सहवन ज़मीन पर से उठा ले तो ज़रूरी है कि उन्हें दोबारा ज़मीन पर रखे और ज़िक्र पढ़े।
1065. पहले सज्दे का ज़िक्र ख़त्म होने के बाद जरूरी है कि बैठ जाए हत्ता कि उसका बदन सुकून हासिल कर ले और फिर दोबारा सज्दे में जाए।
1066. नमाज़ पढ़ने वाले की पेशानी रखने की जगह घुटनों और पांव की उंगलियों के सिरों की जगह से चार मिली हुई उंगलियों से ज़्यादा बलन्द या पस्त नहीं होनी चाहिये। बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि उसकी पेशानी की जगह उसके खड़े होने की जगह से चार मिली हुई उंगलियों से ज़्यादा नीची या ऊंची भी न हो।
1067. अगर किसी ऐसी ढलवान जगह में अगरचे उसका झुकाव सहीह तौर पर मालूम न हो नमाज़ पढ़ने वाले की पेशानी की जगह उसके घुटनों और पांव की उंगलियों के सिरों की जगह से चार मिली हुई उंगलियों से ज़्यादा बलन्द या पस्त हो तो उसकी नमाज़ में इश्काल है।
1068. अगर नमाज़ पढ़ने वाला अपनी पेशानी को ग़लती से एक ऐसी चीज़ पर रख दे जो घुटनों और पांव की उंगलियों के सिरों की जगह से चार मिली हुई उंगलियों से ज़्यादा बलन्द हों और उनकी बलन्दी इस क़दर हो कि यह न कह सकें कि सज्दे की हालत में है तो ज़रूरी है कि सर को उठाए और ऐसी चीज़ पर जिसकी बलन्दी चार मिली हुई उंगलियों से ज़्यादा न हो रखे और अगर उसकी बलन्दी इस क़दर हो कि कह सकें कि सज्दे की हालत में है तो फिर वाजिब ज़िक्र पढ़ने के बाद मुतवज्जह हो तो सर सज्दे से उठाकर नमाज़ को तमाम कर सकता है। और अगर वाजिब ज़िक्र पढ़ने से पहले मुतवज्जह हो तो ज़रूरी है कि पेशानी को हटा कर उस चीज़ पर रखे कि जिसकी बलन्दी चार मिली उंगलियों के बराबर या उससे कम हो और वाजिब ज़िक्र पढ़े और अगर पेशानी को हटाना मुम्किन न हो तो वाजिब ज़िक्र को उसी हालत में पढ़े और नमाज़ को तमाम करे और ज़रूरी नहीं कि नमाज़ को दोबारा पढ़े।
1069. ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले की पेशानी और उस चीज़ के दरमियान जिस पर सज्दा करना सहीह है कोई दूसरी चीज़ न हो पस अगर सज्दागाह इतनी मैली हो कि पेशानी सज्दागाह को न छुए तो उसका सज्दा बातिल है। लेकिन अगर सज्दागाह का रंग तब्दील हो गया हो तो कोई हरज नहीं।
1070. ज़रूरी है कि सज्दे में दोनों हथेलियां ज़मीन पर रखे लेकिन मजबूरी की हालत में हाथों की पुश्त भी ज़मीन पर रखे तो कोई हरज नहीं और अगर हाथों की पुश्त भी ज़मीन पर रखना मुम्किन न हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि हाथों की कलाइयां ज़मीन पर रखे और अगर उन्हें भी न रख सके तो फिर कुहनी तक जो हिस्सा भी मुम्किन हो ज़मीन पर रखे और अगर यह भी मुम्किन न हो तो फिर बाज़ू का रखना भी काफ़ी है।
1071. (नमाज़ पढ़ने वाले के लिये) ज़रूरी है कि सज्दे में पांव के दोनों अंगूठे ज़मीन पर रखे लेकिन ज़रूरी नहीं कि दोनों अंगूठों के सिरे ज़मीन पर रखे बल्कि उन्का ज़ाहिरी और बातिनी हिस्सा भी रखे तो काफ़ी है। और अगर पांव की दूसरी उंगलियां या पांव का ऊपर वाला हिस्सा ज़मीन पर रखे या नाखुन लम्बे होने की बिना पर अंगूठों के सिरे ज़मीन पर न लगें तो नमाज़ बातिल है और जिस शख़्स ने कोताही और मस्अला न जानने की वजह से अपनी नमाज़ें इस तरह पढ़ी हों ज़रूरी है कि उन्हें दोबारा पढ़े।
1072. जिस शख़्स के पांव के अंगूठों के सिरों से कुछ हिस्सा कटा हुआ हो ज़रूरी है कि जितना बाक़ी हो वह ज़मीन पर रखे और अगर अंगूठों का कुछ हिस्सा भी न बचा हो और अगर बचा भी हो तो बहुत छोटा हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि बाक़ी उंगलियों को ज़मीन पर रखे और अगर उसकी कोई भी उंगलि न हो तो पांव का जितना हिस्सा भी बाक़ी बचा हो उसे ज़मीन पर रखे।
1073. अगर कोई शख़्स मअमूल के ख़िलाफ़ सज्दा करे मसलन सीने और पेट को ज़मीन पर टिकाए या पांव को कुछ फैलाए चुनांचे अगर कहा जाए कि उसने सज्दा किया है तो उसकी नमाज़ सहीह है। लेकिन अगर कहा जाए कि उसने पांव फैलाए हैं और उस पर सज्दा करना सादिक़ न आता हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1074. सज्दागाह या दूसरी चीज़ जीस पर नमाज़ पढ़ने वाला सज्दा करे ज़रूरी है कि पाक हो लेकिन अगर मिसाल के तौर पर सज्दागाह को नजिस फ़र्श पर रख दे या सज्दागाह की एक तरफ़ नजिस हो और वह पेशानी पाक तरफ़ रखे तो कोई हरज नहीं है।
1075. अगर नमाज़ पढ़ने वाले की पेशानी पर फोड़ा या ज़ख़्म या इस तरह की कोई चीज़ हो जिसकी बिना पर वह पेशानी ज़मीन पर न रख सकता हो मसलन अगर वह फोड़ा पूरी पेशानी को न घेरे हुए हो ज़रूरी है कि पेशानी के सेहतमन्द हिस्से से सज्दा करे और अगर पेशानी की सेहतमन्द जगह पर सज्दा करना इस बात पर मौक़ूफ़ हो कि ज़मीन को खोदे और फोड़े को गढ़े में और सेहतमन्द जगह की उतनी मिक़्दार ज़मीन पर रखे कि सज्दे के लिये काफ़ी हो तो ज़रूरी है कि उस काम को अंजाम दे।
1076. अगर फोड़ा या ज़ख़्म तमाम पेशानी पर फैला हुआ हो तो नमाज़ पढ़ने वाले के लिये ज़रूरी है कि अपने चेहरे के कुछ हिस्से से सज्दा करे और एहतियाते लाज़िम यह है कि अगर ठोड़ी से सज्दा कर सकता हो तो ठोड़ी से सज्दा करे और अगर न कर सकता हो तो पेशानी के दोनों अत्राफ़ में से एक तरफ़ से सज्दा करे और अगर चेहरे से सज्दा करना किसी तरह भी मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि सज्दे के लिये इशारा करे।
1077. जो शख़्स बैठ सकता हो लेकिन पेशानी ज़मीन पर न रख सकता हो ज़रूरी है कि जिस क़दर भी झुक सकता हो झुके और सज्दागाह या किसी दूसरी चीज़ को जिस पर सज्दा सहीह हो किसी बलन्द चीज़ पर रखे और अपनी पेशानी उस पर इस तरह रखे कि लोग कहें कि इसने सज्दा किया है। लेकिन ज़रूरी है कि हथेलियों और घुटनों और पांव के अंगूठों को को मअमूल के मुताबिक़ ज़मीन पर रखे।
1078. अगर कोई ऐसी बलन्द चीज़ न हो जिस पर नमाज़ पढ़ने वाला सज्दागाह या कोई दूसरी चीज़ जिस पर सज्दा करना सहीह हो रख सके और कोई शख़्स भी न हो जो मसलन सज्दागाह को उठाए और पकड़े ताकि वह शख़्स उस पर सज्दा करे तो एहतियात यह है कि सज्दागाह या दूसरी चीज़ को जिस पर सज्गा कर रहा हो हाथ से उठाए और उस पर सज्दा करे।
1079. अगर कोई शख़्स बिल्कुल ही सज्दा न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि सज्दे के लिये सर से इशारा करे और अगर ऐसा न कर सके तो ज़रूरी है कि आंखों से इशारा करे और अगर आंखों से भी इशारा न कर सकता हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि हाथ वग़ैरा से सज्दे के लिये इशारा करे और दिल में भी सज्दे की नीयत करे और वाजिब ज़िक्र अदा करे।
1080. अगर किसी शख़्स की पेशानी बे इख़्तियार सज्दे की जगह से उठ जाए तो ज़रूरी है कि हत्तलइम्कान उसे दोबारा सज्दे की जगह पर न जाने दे क़त्ए नज़र इसके कि उसने सज्दे का ज़िक्र पढ़ा हो या न पढ़ा हो यह एक सज्दा शुमार होगा। और अगर सर को न रोक सके और वह बे इख़्तियार दोबारा सज्दे की जगह पहुंच जाए तो वही एक सज्दा शुमार होगा। लेकिन अगर वाजिब ज़िक्र न अदा किया हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसे क़ुर्बते मुत्लक़ा की नीयत से अदा करे।
1081. जहां इंसान के लिये तक़ैया करना ज़रूरी है वहां वह क़ालीन या इस तरह की चीज़ पर सज्दा करे और यह ज़रूरी नहीं कि नमाज़ के लिये किसी दूसरी जगह जाए या नमाज़ को मुवख्खर करे ताकि उसी जगह पर उस सबब के ख़त्म होने के बाद नमाज़ अदा करे। लेकिन अगर चटाई या किसी दूसरी चीज़ पर सज्दा करना सहीह हो अगर वह इस तरह सज्दा करे कि तक़ैये की मुख़ालिफ़त न होती हो तो ज़रूरी है कि फिर वह क़ालीन या उससे मिलती जुलती चीज़ पर सज्दा न करे।
1082. अगर कोई शख़्स (परिन्दों के) परों से भरे गद्दे या इसी क़िस्म की किसी दूसरी चीज़ पर सज्दा करे जिस पर जिस्म सुकून की हालत में न रहे तो उसकी नमाज़ बातिल है।
1083. अगर इंसान कीचड़ वाली ज़मीन पर नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो और बदन और लिबास का आलूदा हो जाना उसके लिये मशक्क़त का मूजिब हो तो ज़रूरी है कि सज्दा और तशह्हुद मअमूल के मुताबिक़ बजा लाए और अगर ऐसा करना मशक्क़त का मूजिब हो तो क़ियाम की हालत में सज्दे के लिये सर से इशारा करे और तशह्हुद खड़े होकर पढ़े तो उसकी नमाज़ सहीह होगी।
1084. पहली रक्अत में और मसलन नमाज़े ज़ोहर, नमाज़े अस्र और नमाज़े इशा की तीसरी रक्अत में जिसमें तशह्हुद नहीं है एहतियाते वाजिब यह है कि इंसान दूसरे सज्दे के बाद थोड़ी देर के लिये सुकून से बैठे और फिर खड़ा हो।