तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

वह चीज़ें जिन पर सज्दा करना सहीह है।

1085. सज्दा ज़मीन पर और उन चीज़ों पर करना ज़रूरी है जो खाई और पहनी न जाती हों और ज़मीन से उगती हों मसलन लकड़ी और दरख़्तों के पत्तों पर सज्दा करे। खाने और पहनने की चीज़ों मसलन गेहूं, जौ और कपास पर और उन चीज़ों पर जो ज़मीन के अअज़ा शुमार नहीं होती मसलन सोने, चाँदी और इसी तरह की दूसरी चीज़ों पर सज्दा करना सहीह नहीं है लेकिन तारकोल और गंदाबीरोज़ा को मजबूरी की हालत में दूसरी चीज़ों के मुक़ाबिले में, कि जिन पर सज्दा करना सहीह नहीं, सज्दे के लिये अव्वलीयत दे।

1086. अंगूर के पत्तों पर सज्दा करना जबकि वह कच्चे हों और उन्हें मअमूलन खाया जाता हो जाइज़ नहीं। इस सूरत के अलावा उन पर सज्दा करने में ज़ाहिरन कोई हरज नहीं।

1087. जो चीज़ें जमीन से उगती हैं और हैवानात की ख़ोराक हैं मसलन घास और भूसा उन पर सज्दा करना सहीह है।

1088. जिन फूलों को खाया नहीं जाता उन पर सज्दा सहीह है बल्कि उन खानों की दवांओं पर भी सज्दा सहीह है जो ज़मीन से उगती हैं और उन्हें कूट कर या जोश देकर उनका पानी पीते हैं मसलन गुले बनफ़शा और गुले गावज़बान पर भी सज्दा सहीह है।

1089. ऐसी घास जो बाज़ शहरों में खाई जाती हो और बाज़ शहरों में खाई तो न जाती हो लेकिन वहां उसे अश्या ए खुर्दनी में शुमार किया जाता हो उस पर सज्दा सहीह नहीं और कच्चे फलों पर सज्दा करना सहीह नहीं है।

1090. चूने के पत्थर और जिप्सम पर सज्दा करना सहीह है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि इख़्तियार की हालत में पुख़्ता जिप्सम और चूने और ईंट और मिट्टी के पक्के हुए बर्तनों और उनसे मिलती जुलती चीज़ों पर सज्दा न किया जाए।

1091. अगर कागज़ को ऐसी चीज़ से बनाया जाए कि जिस पर सज्दा करना सहीह है, मसलन लकड़ी और भूसे से, तो उस पर सज्दा किया जा सकता है और इसी तरह अगर रुई या कतान से बनाया गया हो तो भी उस पर सज्दा करना सहीह है लेकिन रेशम या अबरेशम और इसी तरह किसी चीज़ से बनाया गया हो तो उस पर सज्दा करना सहीह नहीं है।

1092. सज्दे के लिये खाके शिफ़ा सब चीज़ों से बेहतर है उसके बाद मिट्टी, मिट्टी के बाद पत्थर और पत्थर के बाद घास।

1093. अगर किसी के पास ऐसी चीज़ न हो जिस पर सज्दा करना सहीह है या अगर हो तो सर्दी या ज़्यादा गर्मी वग़ैरा की वजह से उस पर सज्दा न कर सकता हो तो ऐसी सूरत में तारकोल और गन्दाबीरोज़ा को सज्दे के लिये दूसरी चीज़ों पर अव्वलीयत हासिल है लेकिन अगर उन पर सज्दा करना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि अपने लिबास या अपने हाथों की पुश्त या किसी दूसरी चीज़ पर कि हालते इख़्तियार में उस पर सज्दा जाइज़ नहीं सज्दा करे लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि जब तक अपने कपड़ों पर सज्दा मुम्किन हो किसी दूसरी चीज़ पर सज्दा न करे।

1094. कीचड़ पर और ऐसी नर्म मिट्टी पर जिस पर पेशानी सुकून से न टिक सके सज्दा करना बातिल है।

1095. अगर पहले सज्दे में सज्दागाह पेशानी से चिपक जाए तो दूसरे सज्दे के लिये उसे छुड़ा लेना चाहिये।

1096. जिस चीज़ पर सज्दा करना हो अगर नमाज़ पढ़ने के दौरान वह गुम हो जाए और नमाज़ पढ़ने वाले के पास कोई ऐसी चीज़ न हो जिस पर सज्दा करना सहीह हो तो तरतीब मस्अला 1093 में बताई गई है उस पर अमल करे ख़्वाह वक़्त तंग हो या वसी, नमाज़ को तोड़कर उसका इआदा करे।

1097. जब किसी शख़्स को सज्दे की हालत में पता चले कि उसने अपनी पेशानी किसी ऐसी चीज़ पर रखी है जिस पर सज्दा करना बातिल है चुनांचे वाजिब ज़िक्र अदा करने से पहले मुतवज्जह हो तो ज़रूरी है कि अपनी पेशानी को उस चीज़ पर जिस पर सज्दा करना सहीह है, लाए और वाजिब ज़िक्र पढ़े लेकिन अगर पेशानी लाना मुम्किन न हो तो उसी हालत में वाजिब ज़िक्र अदा कर सकता है और उसकी नमाज़ हर दो सूरत में सहीह है।

1098. अगर किसी शख़्स को सज्दे के बाद पता चले कि उसने अपनी पेशानी किसी ऐसी चीज़ पर रखी है जिस पर सज्दा करना बातिल है तो कोई हरज नहीं।

1099. अल्लाह तआला के अलावा किसी दूसरे को सज्दा करना हराम है। अवाम में से बाज़ लोग जो आइम्मा (अ0) के मज़ाराते मुक़द्दसा के सामने पेशानी ज़मीन पर रखते हैं अगर वह अल्लाह तआला का शुक्र अदा करने की नीयत से ऐसा करें तो कोई हरज नहीं। वर्ना ऐसा करना हराम है।

सज्दे के मुस्तहब्बात और मकरूहात

1100. चन्द चीज़ें सज्दे में मुस्तहब हैः-

1. जो शख़्स खड़ा होकर नमाज़ पढ़ रहा हो वह रूकू से सर उठाने के बाद मुकम्मल तौर पर खड़े होकर और बैठ कर नमाज़ पढ़ने वाला रूकू के बाद पूरी तरह बैठ कर सज्दे में जाने के लिये तक्बीर कहे।

2. सज्दे में जाते वक़्त मर्द पहले अपनी हथेलियों और औरत अपने घुटनों को ज़मीन पर रखे।

3. नमाज़ी नाक को सज्दागाह या किसी ऐसी चीज़ पर रखे जिस पर सज्दा करना दुरूस्त हो।

4. नमाज़ी सज्दे की हालत में हाथ की उंगलियों को मिलाकर कानों के पास इस तरह रखे कि उनके सिरे रू बक़िब्ला हों।

5. सज्दे में दुआ करे, अल्लाह तआला से हाजत तलब करे, और यह दुआ पढ़ेः

या ख़ैरलस्ऊलीना व या ख़ैरल मोअतीना अज़ुक़्नी वर्ज़ुक़ अयाली मिन फ़ज़्लिका फ़न्नाका ज़ुलफ़ज़्लिल अज़ीम।

यानी ऐ उन सब में से बेहतरीन जिनसे की मांगा जाता है और ऐ उन सब से बरतर जो अता करते हैं। मुझे और मेरे अहलोअयाल को अपने फ़ज़्लो करम से रिज़्क़ अता फ़रमा क्योंकि तू ही फ़ज़्ले अज़ीम का मालिक है।

6. सज्दे के बाद बांई रान पर बैठ जाए और दायें पांव का ऊपर वाला हिस्सा (यानी पुश्त) बायें पांव के तलवे पर रखे।

7. हर सज्दे के बाद जब बैठ जाए और बदन को सुकून हासिल हो जाए तो तक्बीर कहे।

8. पहले सज्दे के बाद जब बदन को सुकून हासिल हो जाए तो अस्तग़्फ़िरुल्लाहा रब्बी व अतूबो इलैह् कहे।

9. सज्दा ज़्यादा देर तक अंजाम दे और बैठने के वक़्त हाथों को रानों पर रखे।ट

10. दूसरे सज्दे में जाने के लिये बदन के सुकून की हालत में अल्लाहो अकबर कहे।

11. सज्दे में दुरूद पढ़े।

12. सज्दे से क़ियाम के लिये उठते वक़्त पहले घुटनों को और उनके बाद हाथों को ज़मीन से उठाए।

13. मर्द कोहनियों और पेट को ज़मीन से न मिलायें नीज़ बाज़ुओं को पहलू से जुदा रखें और औरतें कोहनियां और पेट ज़मीन पर बदन के अअज़ा को एक दूसरे से मिला लें। इनके अलावा दूसरे मुस्तहब्बात भी हैं जिनका ज़िक्र मुफ़स्सल किताबों में मौजूद हैं।

1101. सज्दे में क़ुरआने मजीद पढ़ना मकरूह है। और सज्दे की जगह को गर्दो ग़ुबार झाड़ने के लिये फूंक मारना भी मकरूह है बल्कि अगर फूंक मारने की वजह से दो हर्फ़ भी मुंह से अमदन निकल जायें तो एहतियात की बिना पर नमाज़ बातिल है और इनके अलावा और मकरूहात की ज़िक्र भी और मुफ़स्सल किताबों में आया है।

क़ुरआने मजीद के वाजिब सज्दे

1102. क़ुरआने मजीद की चार सूरतों यानी वन्नज्म, इक़रा, अलिफ़ लाम्मीम तंज़ील और हाम्मीम सज्दा में से हर एक में एक आया ए सज्दा है जिसे अगर इंसान पढ़े या सुने तो आयत ख़त्म होने के बाद फ़ौरन सज्दा करना ज़रूरी है और अगर सज्दा करना भूल जाए तो जब भी उसे याद आए सज्दा करे और ज़ाहिर यह है कि आया ए सज्दा ग़ैर इख़्तियारी हालत में सुने तो सज्दा वाजिब नहीं है अगरचे बेहतर यह है कि सज्दा किया जाए।

1103. अगर इंसान सज्दे की आयत सुनने के वक़्त खुद भी वह आयत पढ़े तो ज़रूरी है कि दो सज्दे करे।

1104. अगर नमाज़ के अलावा सज्दे की हालत में कोई शख़्स आया ए सज्दा पढ़े या सुने तो ज़रूरी है कि सर उठाए और दोबारा सज्दा करे।

1105. अगर इंसान सोए हुए शख़्स या दीवाने या बच्चे से जो क़ुरआन को क़ुरआन समझकर न पढ़ रहा हो सज्दे की आयत सुने या उस पर कान धरे तो सज्दा वाजिब है। लेकिन अगर ग्रामोफ़ोन या टेपरिकार्डर से (रिकार्ड शुदा आया ए सज्दा) सुने तो सज्दा वाजिब नहीं। और सज्दे की आयत रेडियो पर टेप रिकार्ड के ज़रिए नश्र की जाए तब भी यही हुक्म है। लेकिन अगर कोई शख़्स रेडियो स्टेशन से (बराहे रास्त नशरीयात में) सज्दे की आयत पढ़े और इंसान उसे रेडियो पर सुने तो सज्दा वाजिब है।

1106. क़ुरआन का वाजिब सज्दा करने के लिये एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि इंसान की जगह ग़स्बी न हो और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उसकी पेशानी रखने की जगह उसके घुटने और पांव की उंगलियों के सिरों की चार मिली हुई उंगलियों से ज़्यादा ऊंची या नीची न हो लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि उसने वुज़ू या ग़ुस्ल किया हुआ हो या क़िब्ला रूख़ हो या अपनी शर्मगाह को छिपाए या उसका बदन और पेशानी रखने की जगह पाक हो। इसके अलावा जो शराइत नमाज़ पढ़ने वाले के लिये ज़रूरी है वह शराइत क़ुरआने मजीद का वाजिब सज्दा अदा करने वाले के लिबास के लिये नहीं है।

1107. एहतियाते वाजिब यह है कि क़ुरआने मजीद के वाजिब सज्दे में इंसान अपनी पेशानी सज्दागाह या किसी ऐसी चीज़ पर रखे जिस पर सज्दा करना सहीह हो और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर बदन के दूसरे अअज़ा ज़मीन पर इस तरह रखे जिस तरह नमाज़ के सिलसिले में बताया गया है।

1108. जब इंसान क़ुरआने मजीद का वाजिब सज्दा करने के इरादे से पेशानी ज़मीन पर रखे दे तो ख़्वाह कोई ज़िक्र भी पढ़े तब भी काफ़ी है और ज़िक्र का पढ़ना मुस्तहब है। और बेहतर है कि यह पढ़ेः-

ला इलाहा इल्लल्लाहो हक़्क़न हक़्क़ा, ला इलाहा इल्लल्लाहो ईमानौं व तस्दीक़ा, ला इलाहा इल्लल्लाहो उबूदीयतौं व रिक़्क़ा, सजद्तोलका या रब्बे तअब्बुदौं व रिक़्क़ा, मुस्तंकिफ़ौ व ला मुस्तक्बिरा, बल अना अब्दुन ज़लीलुन ज़ईफ़ुन ख़ाइफ़ुन मुस्तजीरुन।

तशह्हुद

1109. सब वाजिब और मुस्तहब नमाज़ों की दूसरी रक्अत में और नमाज़े मग़्रिब की तीसरी रक्अत में और ज़ोहर, अस्र और इशा की चौथी रक्अत में इंसान के लिये ज़रूरी है कि दूसरे सज्दे के बाद बैठ जाए और बदन के सुकून की हालत में तशह्हुद पढ़े यानी कहेः

अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो वह्दहू ला शरीका लहू व अश्हदो अन्ना मोहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू अल्लाहुम्मा स्वल्ले अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मद और अगर कहे अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो व अश्हदो अन्ना मोहम्मदन स्वल्लाहो अलैहे व आलेही अब्दुहू व रसुलुहू तो बिनाबर अक़्वा काफ़ी है। और नमाज़े वित्र में भी तशह्हुद पढ़ना ज़रूरी है।

1110. ज़रूरी है कि तशह्हुद के जुमले सहीह अरबी में और मअमूल के मुताबिक़ मुसलसल कहे जायें।

1111. अगर कोई शख्स तशह्हुद पढ़ना भूल जाए और खड़ा हो जाए, और रूकू से पहले उसे याद आए कि उसने तशह्हुद नहीं पढ़ा तो ज़रूरी है कि बैठ जाए और तशह्हुद पढ़े और फिर दोबारा खड़ा हो और उस रक्अत में जो कुछ पढ़ना ज़रूरी है पढ़े और नमाज़ को ख़त्म करे। और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर नमाज़ के बाद बेजा क़ियाम के लिये दो सज्दा ए सहव बजा लाए और अगर उसे रूकू में या उसके बाद याद आए तो ज़रूरी है कि नमाज़ तमाम करे और नमाज़ के सलाम के बाद एहतियाते मुस्तहब की बिना पर तशह्हुद की क़ज़ा करे। और ज़रूरी है कि भूले हुए तशह्हुद के लिये दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

1112. मुस्तहब है कि तशह्हुद की हालत में इंसान बायें रान पर बैठे और दायें पांव की पुश्त को बायें पांव के तल्वे पर रखे और तशह्हुद से पहले कहे, अलहम्दो लिल्लाह और यह भी मुस्तहब है कि हाथ रानों पर रखे और उंगलियां एक दूसरे के साथ मिलाए और अपने दामन पर निगाह डाले और तशह्हुद में सलावात के बाद कहे, व तक़ब्बल शफ़ाअतहू वर्फ़अ दरजतहू ।

1113. मुस्तहब हो कि औरतें तशहहुद पढ़ते वक़्त अपनी राने मिलाकर रखें।

नमाज़ का सलाम

1114. नमाज़ की आख़िरी रक्अत के तशह्हुद के बाद जब नमाज़ी बैठा हो और उसका बदन सुकून की हालत में तो मुस्तहब है कि वह कहेः

अस्सलामो अलैका अय्युहन्नबीयो व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू और उसके बाद ज़रूरी है कि कहे, अस्सलामो अलैकुम और एहतियाते मुस्तहब यह है कि अस्सलामो अलैकुम के जुमले के साथ व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू के जुमले का इज़ाफ़ा करे या यह कहे अस्सलामो अलैना व अला इबादिल्लाहिस्स्वालेहीन लेकिन अगर इस सलाम को पढ़े तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसके बाद अस्सलामो अलैकुम भी कहे।

1115. अगर कोई शख़्स नमाज़ का सलाम कहना भूल जाए और उसे ऐसे वक़्त याद आए जब अभी नमाज़ की शक्ल ख़त्म न हुई हो और उसने कोई ऐसा काम भी न किया हो जिसे अमदन और सहवन करने से नमाज़ बातिल हो जाती हो, मसलन क़िब्ले की तरफ़ पीठ करना, तो ज़रूरी है कि सलाम कहे और उसकी नमाज़ सहीह है।

1116. अगर कोई शख़्स नमाज़ का सलाम कहना भूल जाए और उसे ऐसे वक़्त याद आए जब नमाज़ की शक्ल ख़त्म हो गई हो तो उसने कोई ऐसा काम किया हो जिसे अमदन या सहवन करने से नमाज़ बातिल हो जाती है, मसलन क़िब्ले की तरफ़ पीठ करना तो उसकी नमाज़ सहीह है।

तरतीब

1117. अगर कोई शख़्स जान बूझकर नमाज़ की तरतीब उलट दे मसलन अलहम्द से पहले सूरा पढ़ ले या रूकू से पहले सज्दे बजा लाए तो उसकी नमाज़ बातिल हो जाती है।

1118. अगर कोई शख़्स नमाज़ का कोई रुक्न भूल जाए और उसके बाद का रुक्न बजा लाए मसलन रूकू करने से पहले दो सज्दे करे तो उसकी नमाज़ एहतियात की बिना पर बातिल है।

1119. अगर कोई शख़्स नमाज़ का कोई रुक्न भूल जाए और ऐसी चीज़ बजा लाए जो उसके बाद हो और रुक्न न हो मसलन इस से पहले की दो सज्दे करे तशह्हुद पढ़ले तो ज़रूरी है कि रुक्न बजा लाए और जो कुछ भी भूलकर उससे पहले पढ़ा हो उसे दोबारा पढ़े।

1120. अगर कोई शख़्स कोई ऐसी चीज़ भूल जाए जो रुक्न न हो और उसके बाद का रुकन बजा लाए मसलन अलहम्द भूल जाए और रूकू में चला जाए तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1121. अगर कोई शख़्स कोई ऐसी चीज़ भूल जाए जो रुक्न न हो और उस चीज़ को बजा लाए जो उसके बाद हो और वह भी रुक्न न हो मसलन अलहम्द भूल जाए और सूरा पढ़ ले तो ज़रूरी है कि जो चीज़ भूल गया हो वह बजा लाए और उसके बाद वह चीज़ जो भूल कर पहले पढ़ ली हो दोबारा पढ़े।

1122. अगर कोई शख़्स पहला सज्दा इस ख़्याल से बजा लाए कि दूसरा सज्दा है या दूसरा सज्दा इस ख़्याल से बजा लाए कि पहला सज्दा है तो उसकी नमाज़ सहीह है और उसका पहला सज्दा, पहला सज्दा और दूसरा सज्दा, दूसरा सज्दा शुमार होगा।

मुवालात

1123. ज़रूरी है कि इंसान नमाज़ मुवालात के साथ पढ़े यानी नमाज़ के अफ़्आल मसलन रूकू, सुजूद और तशह्हुद तवातुर और तसलसुल के साथ बजा लाए। और जो चीज़ें भी नमाज़ में पढ़े मअमूल के मुताबिक़ पै दर पै पढ़े और अगर उनके दरमियान इतना फ़ासिला डाले कि लोग यह न कहें कि नमाज़ पढ़ रहा है तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1124. अगर कोई शख़्स नमाज़ में सहवन हुरुफ़ या जुम्लों के दरमियान फ़ासिला दे और फ़ासिला इतना न हो कि नमाज़ की सूरत बरक़रार न रहे तो अगर वह अभी बाद वाले रुक्न में मश्ग़ूल न हुआ तो ज़रूरी है कि वह हुरूफ़ या जुमले मअमूल के मुताबिक़ पढ़े और अगर बाद की कोई चीज़ पढ़ी जा चुकी हो तो ज़रूरी है कि उसे दुहराए और अगर बाद के रुक्न में मशग़ूल हो गया हो तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1125. रूकू और सुजूद को तूल देना और बड़ी सूरतें पढ़ना मुवालात को नहीं तोड़ता।

क़ुनूत

1126. तमाम वाजिब और मुस्तहब नमाज़ों में दूसरी रक्अत से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है लेकिन नमाज़े शफ़अ में ज़रूरी है कि उसे रजाअन पढ़ें और नमाज़े वित्र में भी बावजूदे के एक रक्अत की होती है रूकू से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है। और नमाज़े जुमुआ की हर रक्अत में एक क़ुनूत, नमाज़े आयात में पांच क़ुनूत, नमाज़े ईदे फ़ित्र व क़ुर्बान की पहली रक्अत में पांच क़ुनूत और दूसरी रक्अत में चार क़ुनूत हैं।

1127. मुस्तहब है कि क़ुनूत पढ़ते वक़्त हाथ चेहरे के सामने और हथेलियां एक दूसरे के साथ मिला कर आस्मान की तरफ़ रखे और अंगूठों के अलावा बाक़ी उंगलियों को आपस में मिलाए और निगाह हथेलियों पर रखे।

1128. क़ुनूत में इंसान जो ज़िक्र भी पढ़े ख़्वाह एक दफ़्आ, सुब्हानल्लाह ही कहे काफ़ी है। और बेहतर यह है कि यह दुआ पढ़ेः-

ला इलाहा इल्लल्लाहुल हलीमुल करीम, लाइलाहा इल्लल्लाहुल अलीयुल अज़ीम सुब्हानल्लाहे रब्बिस्समावातिस सबा ए रब्बिल अरज़ीनस्सबाए व माफ़ीहिन्ना व माबैनाहुन्ना व रब्बिल अर्शिल अज़ीम, वलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन।

1129. मुस्तहब है कि इंसान क़ुनूत बलन्द आवाज़ से पढ़े लेकिन अगर एक शख़्स जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ रहा हो और इमाम उसकी आवाज़ सुन सकता हो तो उसका बलन्द आवाज़ से क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब नहीं है।

1130. अगर कोई शख़्स अमदन क़ुनूत न पढ़े तो उसकी क़ज़ा नहीं और अगर भूल जाए और इस से पहले कि रूकू की हद तक झुके उसे याद आ जाए तो मुस्तहब है कि खड़ा हो जाए और क़ुनूत पढ़े। और अगर रूकू में याद आ जाए तो मुस्तहब है कि रूकू के बाद क़ज़ा करे और अगर सज्दे मे याद आ जाए तो मुस्तहब है कि सलाम के बाद उसकी क़ज़ा करे।

नमाज़ का तर्जुमा

1.सूरा ए अलहम्द का तर्जुमाः-

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, बिस्मिल्लाहे यानी मैं इब्तिदा करता हूं ख़ुदा के नाम से , उस ज़ात के नाम से जिसमें तमाम कमालात यक्जा हैं और जो हर क़िस्म के नक्स से मुनज्जा है। अर्रहमाने उसकी रहमत वसी और बेइन्तिहा है। अर्रहीमे उसकी रहमत ज़ाती और अज़ली व अबदी है। अलहम्दोलिल्लाहे रब्बिल आलमीना यानी सना उस ख़ुदा वन्द की ज़ात से मख़सूस है जो तमाम मौजूदात का पालने वाला है। अर्रहमानिर्रहीम इसके मअनी बताए जा चुके हैं। मालिके यौमिद्दीने यानी वह तवाना ज़ात कि जज़ा के दिन की हुक्मरानी उसके हाथ में है। ईय्याका नअबुदु व ईय्याका नस्तईन यानी हम फ़क़त तेरी ही इबादत करते हैं और फ़क़त तुझी से मदद तलब करते हैं। एहदिनस सिरातल मुस्तक़ीमा यानी हमे राहे रास्त की जानिब हिदायत फ़रमा जो कि दीने इस्लाम है। सिरातल्लज़ीना अन्अम्ता अलैहिम यानी उन लोगों के रास्ते की जानिब जिन्हें तूने अपनी नेमतें अता की हैं जो अंबिया और अंबिया के जानशीन हैं। ग़ैरिल मग़्ज़ूबे अलैहिम वलज़्ज़ाल्लीना यानी न उन लोगों के रास्ते की जानिब जिन पर तेरा ग़ज़ब हुआ और न उनके रास्ते की जानिब जो गुमराह हैं।

2.सूरा ए एख़्लास का तर्जुमाः-

बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम, इसके मअना बताए जा चुके हैं। क़ुल हुवल्लाहो अहदुन यानी मोहम्मद स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम आप कह दें ख़ुदावन्दा वही है जो यकता ख़ुदा है। अल्लाहुस्समदो यानी वह ख़ुदा जो तमाम मौजूदात से बेनियाज़ है। लम यलिद व लम यूलद यानी न उसकी कोई औलाद है और न वह किसी की औलाद है। वलम यकुंल्लहू कुफ़ूवन अहदुन और मख़्लूकात में से कोई भी उसके मिस्ल नहीं है।

3.रूकू, सुजूद और उनके बाद के मुस्तहब अज़्कार का तर्जुमाः-

सुब्हाना रब्बियल अज़ीमें व बेहम्देही यानी मेरा परवरदिगार हर ऐब हर नक़्स से पाक और मुनज़्ज़ा है, मैं उसकी सताइश में मश्ग़ूल हूं। सुब्हाना रब्बियल अअला व बेहम्देही यानी मेरा परवरदिगार जो सबसे बालातर है और हर ऐब और हर नक़्स से पाक और मुनज़्ज़ा है, मैं उसकी सताइश में मश्ग़ूल हूं। समेअल्लाहो लेमन हमेदहू यानी जो कोई ख़ुदा की सताइश करता है ख़ुदा उसे सुनता है और क़ुबूल करता है। अस्तग़्फ़िरुल्लाहा रब्बी व अतूबो इलैह यानी मैं मग़्फ़िरत तलब करता हूं उस ख़ुदावन्द से जो मेरा पालने वाला है और उसकी तरफ़ रुजूउ करता हूं। बेहौल्लिलाहे व क़ुव्वतेही अक़ूमो व अक़्उद यानी मैं ख़ुदा तआला की मदद से उठता और बैठता हूं।

4.क़ुनूत का तर्जुमाः-

ला इलाहा इल्लल्लाहुल हलीमुल करीम यानी कोई ख़ुदा परस्तिश के लाइक़ नहीं सिवाय उस यकता और बेमिस्ल ख़ुदा के जो साहबे हिल्म व करम है। ला इलाहा इल्लल्लाहुल अलीयुल अज़ीम यानी कोई ख़ुदा परस्तिश के लाइक़ नहीं सिवाय उस यकता और बेमिस्ल ख़ुदा के जो बलन्द मर्तबा और बुज़ुर्ग है। सुब्हानल्लाहे रब्बिस्समावातिस सबए व रब्बिल अरज़ीनस्सबए यानी पाक और मुनज़्ज़ा है वह ख़ुदा जो सात आसमानों और सात ज़मीनों का परवरदिगार है। वमा फ़ीहिन्ना व माबैनाहुन्ना व रब्बिल अर्शिल अज़ीम यानी वह हर उस चीज़ का परवरदिगार है जो आसमानों और ज़मीनों में और उनके दरमियान है और अर्शे अअज़म का परवरदिगार है। वल्हम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन और हम्द व सना उस ख़ुदा के लिये मख़्सूस है जो तमाम मौजूदात का पालने वाला है।

5.तस्बीहाते अर्बआ का तर्जुमाः-

सुब्हानल्लाहे वल हम्दो लिल्लाहे व ला इलाहा इल्लल्लाहो वल्लाहो अक्बरो यानी ख़ुदा तआला पाक और मुनज़्ज़ा है और सना उसी के लिये मख़्सूस है और उस बेमिस्ल ख़ुदा के अलावा कोई ख़ुदा परस्तिश के लाइक़ नहीं और वह इससे बालातर है कि उसकी (कमा हक़्क़हू) तौसीफ़ की जाए। 6.तशह्हुद और सलाम का तर्जुमाः-

अलहम्दो लिल्लाहे, अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो वह्दहू ला शरीका लहू यानी सताइश परवरदिगार के लिये मख़्सूस है और मैं गवाही देता हूं कि सिवाय उस ख़ुदा के जो यकता है और जिसका कोई शरीक नहीं कोई और ख़ुदा परस्तिश के लाइक़ नहीं है। व अश्हदो अन्ना मोहम्मदन अब्दोहू व रसूलुहू और मै गवाही देता हूं कि मोहम्मद स्वल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ख़ुदा के बन्दे और उसके रसूल हैं। अल्लाहुम्मा स्वल्ले अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मद यानी ऐ ख़ुदा रहमत भेज मोहम्मद और आले मोहम्मद पर। व तक़ब्बल शफ़ाअतहू वर्फ़अ दरजतहू यानी रसूलुल्लाह की शफ़ाअत क़बूल कर और आँहज़रत का दरजा अपने नज़दीक बलन्द कर। अस्सलामो अलैका अय्युहन्नबीयो व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू यानी ऐ अल्लाह के रसूल (स0) आप पर हमारा सलाम हो और आप पर अल्लाह की रहमतें और बरकतें हों। अस्सलामो अलैना व अला इबादिल्लाहिस्स्वालेहीना यानी हम नमाज़ पढ़ने वालों पर और तमाम स्वालेह बन्दों पर अल्लाह की तरफ़ से सलामती हो। अस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू यानी तुम मोमिनीन पर ख़ुदा की तरफ़ से सलामती और रहमत व बरकत हो।

ताक़ीबाते नमाज़

1131. मुस्तहब है कि नमाज़ पढ़ने के बाद इंसान कुछ देर के लिये तअक़ीबात यानी ज़िक्र, दुआ और क़ुरआने मजीद पढ़ने में मश्ग़ूल रहे। और बेहतर यह है कि इससे पहले वह अपनी जगह से हरकत करे कि उसका वुज़ू या तयम्मुम बातिल हो जाए रु बक़िब्ला होकर तअक़ीबात पढ़े और यह ज़रूरी नहीं कि तअक़ीबात अरबी में हो लेकिन बेहतर है कि इंसान वह दुआयें पढ़े जो दुआओं की किताबों में बताई गई हैं और तस्बीहे फ़ातिमा (स0) उन ताक़िबात में से है जिनकी बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है। यह तस्बीह इस तरतीब से पढ़नी चाहियेः-

34 बार अल्लाहो अक्बर। उसके बाद 33 दफ़्आ अलहम्दो लिल्लाह और उसके बाद 33 दफ़्आ सुब्हानल्लाह। और सुब्हानल्लाह अलहम्दोलिल्लाह से पहले भी पढ़ा जा सकता है लेकिन बेहतर है कि अलहम्दो लिल्लाह के बाद पढ़े।

1132. इंसान के लिये मुस्तहब है कि नमाज़ के बाद सज्दा ए शुक्र बजा लाए और इतना काफ़ी है कि शुक्र की नीयत से पेशानी ज़मीन पर रखे लेकिन बेहतर है कि सौ दफ़्आ या तीन दफ़्आ या एक दफ़्आ शुकरन लिल्लाह या अफ़्वन कहे और यह भी मुस्तहब है कि जब इंसान को कोई नेमत मिले या कोई मुसीबत टल जाए तो सज्दा ए शुक्र बजा लाए।

पैग़म्बरे अकरम (स0)पर सलवात (दुरुद)

1133. जब भी इंसान हज़रत रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का इस्मे मुबारक मोसलन मोहम्मद (स0) या अहमद (स0) या आँहज़रत का लक़ब और कुनीयत मसलन मुस्तफ़ा (स0) और अबुल क़ासिल (स0) ज़बान से अदा करे या सुने तो ख़्वाह वह नमाज़ में ही क्यों न हो मुस्तहब है कि सलवात भेजे।

1134. हज़रत रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का इस्मे मुबारक लिखते वक़्त मुस्तहब है कि इंसान सलवात (स0) भी लिखे और बेहतर है कि जब आंहज़रत को याद करे तो सलवात भेजे।

मुब्तिलाते नमाज़

1135. बारह चीज़ें नमाज़ को बातिल करती हैं और उन्हें मुब्तिलात कहा जाता हैः-

1. नमाज़ के दौरान नमाज़ की शर्तों में से कोई शर्त मफ़्क़ूद हो जाए मसलन नमाज़ पढ़ते हुए मुतअल्लिक़ा शख़्स को पता चले कि जिस कपड़े से उसने सत्रपोशी की हुई है वह ग़स्बी है।

2. नमाज़ के दौरान अमदन या सहवन या मजबूरी की वजह से इंसान किसी ऐसी चीज़ से दो चार हो जो वुज़ू या ग़ुस्ल को बातिल कर दे। मसलन उसका पेशान खता हो जाए अगरचे एहतियात की बिना पर इस तरह नमाज़ के आखिरी सज्दे के बाद सहवन या मजबूरी की बिना पर हो ताहम जो शख़्स पेशाब या पाखाना न रोक सकता हो अगर नमाज़ के दौरान उसका पेशाब या पाखाना निकल जाए और वह उस तरीक़े पर अमल करे जो अहकामे वुज़ू के ज़ैल में बताया गया है तो उसकी नमाज़ बातिल नहीं होगी और इसी तरह अगर नमाज़ के दौरान मुस्तहाज़ा को ख़ून आ जाए तो अगर वह इस्तिहाज़ा से मुतअल्लिक़ अहकाम के मुताबिक़ अमल करे तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1136. जिस शख़्स को बे इख़्तियार नीन्द आ जाए अगर उसे यह पता न चले कि वह नमाज़ के दौरान सो गया था या उसके बाद सोया तो ज़रूरी नहीं की नमाज़ दोबारा पढ़े बशर्ते की यह जानता हो कि जो कुछ नमाज़ में पढ़ा है वह इस क़दर था कि उसे उर्फ़े आम में नमाज़ कहें।

1137. अगर किसी शख़्स को इल्म हो कि वह अपनी मर्ज़ी से सोया था लेकिन शक करे कि नमाज़ के बाद सोया था या नमाज़ के दौरान यह भूल गया कि नमाज़ पढ़ रहा है और सो गया तो उस शर्त के साथ जो साबिक़ा मस्अले में बयान की गई है उसकी नमाज़ सहीह है।

1138. अगर कोई शख़्स नींद से सज्दे की हालत में बेदार हो जाए और शक करे कि आया नमाज़ के आख़िरी सज्दे में है या सज्दा ए शुक्र में है तो अगर उसे इल्म हो कि बे इख़्तियार सो गया था तो ज़रूरी है कि नमाज़ दोबारा पढ़े और जानता हो कि अपनी मर्ज़ी से सोया था और इस बात का एहतिमाल हो कि गफ़्लत की वजह से नमाज़ के सज्दे में सो गया था तो उसकी नमाज़ सहीह है।

3. यह चीज़ मुब्तिलाते नमाज़ में से है कि इंसान अपने हाथों को आजिज़ी और अदब की नीयत से बांधे लेकिन इस काम की वजह से नमाज़ का बातिल होना एहतियात की बिना पर है और अगर मशरुइयत की नीयत से अंजाम दे तो उस काम के हराम होने में कोई इश्काल नहीं है।

139. अगर कोई शख़्स भूले से या मजबूरी से या तक़ीय्या की वजह से या किसी और काम मसलन हाथ खुजाने और ऐसे ही किसी काम के लिये हाथ पर हाथ रख ले तो कोई हरज नहीं है।

4. मुब्तिलाते नमाज़ में से एक यह है कि अलहम्द पढ़ने के बाद आमीन कहे। आमीन कहने से नमाज़ का इस तरह बातिल होना ग़ैरे मामूम में एहतियात की बिना पर है। अगरचे आमीन कहने को जाइज़ समझते हुए आमीन कहे तो उसके हराम होने में कोई इश्काल नहीं है। बहर हाल अगर आमीन को ग़लती या तक़ीय्या की वजह से कहे तो उसकी नमाज़ में कोई इश्काल नहीं है।

5. मुब्तिलाते नमाज़ में से है कि बग़ैर किसी उज्र के क़िब्ले से रुख़ फेरे लेकिन अगर किसी उज्र मसलन भूल कर या बेइख़्तियारी की बिना पर मसलन तेज़ हवा के थपेड़े उसे क़िब्ले से फेर दें चुनांचे अगर दायें या बायें सम्त तक न पहुंचे तो उसकी नमाज़ सहीह है। लेकिन ज़रूरी है कि जैसे ही उज्र दूर हो फ़ौरन ही अपना क़िब्ला दुरूस्त करे। और अगर दायें या बायें तरफ़ मुड़ जाए ख़्वाह क़िब्ले की तरफ़ पुश्त हो या न हो अगर उसका उज़्र भूलने की वजह से हो और जिस वक़्त मुतवज्जह हो और नमाज़ को तोड़ दे तो उसे दोबारा क़िब्ला रुख होकर पढ़ सकता हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े। अगरचे उस नमाज़ की एक रक्अत वक़्त में पढ़े वर्ना उसी नमाज़ पर इक्तिफ़ा करे और उस पर क़ज़ा लाज़िम नहीं और यही हुक्म है अगर क़िब्ले से उसका फिरना बे इख़्तियारी की हालत में हो चुनांचे क़िब्ले से फिरे बग़ैर अगर नमाज़ को दोबारा वक़्त में पढ़ सकता हो। अगरचे वक़्त में एक रक्अत ही पढ़ी जा सकती हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को नए सिरे से पढ़े वर्ना ज़रूरी है कि उसी नमाज़ को तमाम करे इआदा और क़ज़ा उस पर लाज़िम नहीं है।

1140. अगर फ़क़त अपने चेहरे को क़िब्ले से घुमाए लेकिन उसका बदन क़िब्ले की तरफ़ हो चुनांचे इस हद तक गर्दन को मोड़े कि अपने सर के पीछे कुछ देख सके तो उसके लिये भी वही हुक्म है जो क़िब्ले से फिर जाने वाले के लिये है जिसका ज़िक्र पहले किया जा चुका है। और अगर अपनी गर्दन को थोड़ा सा मोड़े कि उर्फ़न कहा जाए कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िब्ले की तरफ़ है तो उसकी नमाज़ बातिल नहीं होगी अगरचे यह काम मकरूह है।

6. मुब्तिलाते नमाज़ में से एक यह है कि अमदन बात करे अगरचे ऐसा कलिमा हो कि जिसमें एक हर्फ़ से ज़्यादा न हो अगर वह हर्फ़ बा मअनी हो मसलन (काफ़) कि जिसके अरबी ज़बान में मअना हिफ़ाज़ात करो के हैं या कोई और मअना समझ में आते हों मसलन (बे) उस शख़्स के जवाब में कि जो हुरूफ़े तहज्जी के हर्फ़े दोम के बारे में सवाल करे और अगर उस लफ़्ज़ से कोई मअना भी समझ में न आते हों और दो या दो से ज़्यादा हर्फ़ों से मुरक्कब हो तब भी एहतियात की बिना पर (वह लफ़्ज़) नमाज़ को बातिल कर देता है।

1141. अगर कोई शख़्स सहवन ऐसा कलिमा कहे जिसके हुरूफ़ एक या उससे ज़्यादा हों तो ख़्वाह वह कलिमा मअनी भी रखता हो उस शख़्स की नमाज़ बातिल नहीं होती लेकिन एहतियात की बिना पर उसके लिये ज़रूरी है कि ज़ैसा कि बाद में ज़िक्र आयेगा नमाज़ के बाद वह सज्दा ए सहव बजा लाए।

1142. नमाज़ की हालत में खांसने या डकार लेने में कोई हरज नहीं और एहतियाते लाज़िम की बिना पर नमाज़ में इख़्तियारन आह न भरे और न ही गिर्या करे। और आंख और आह और इन्ही जैसे अल्फ़ाज़ का अमदन कहना नमाज़ को बातिल कर देता है

1143. अगर कोई शख़्स कोई कलिमा ज़िक्र के क़स्द से कहे मसलन ज़िक्र के क़स्द से अल्लाहो अक्बर कहे और उसे कहते वक़्त आवाज़ को बलन्द करे ताकि दूसरे शख़्स को किसी चीज़ की तरफ़ मुतवज्जह करे तो इसमें कोई हरज नहीं। और इसी तरह अगर कोई कलिमा ज़िक्र के क़स्द से कहे अगरचे जानता हो कि इस काम की वजह से कोई किसी मतलब की तरफ़ मुतवज्जह हो जायेगा तो कोई हरज नहीं लेकिन अगर बिलकुल ज़िक्र का क़स्द न करे या ज़िक्र का क़स्द भी हो और किसी बात की तरफ़ मुतवज्जह भी करना चाहता हो तो इसमें इश्काल है।

1144. नमाज़ में क़ुरआन पढ़ने (चार आयतों का हुक्म कि जिनमें वाजिब सज्दा है क़िरअत के अहकाम मस्अला न0 992 में बयान हो चुका है) और दुआ करने में कोई हरज नहीं लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि अरबी के अलावा किसी और ज़बान में दुआ न करे।

1145. अगर कोई बग़ैर क़स्द जुज़ईयत अमदन या एहतियातन अलहम्द और सूरे के किसी हिस्से या अज़्कारे नमाज़ की तकरार करे तो कोई हरज नहीं।

1146. इंसान को चाहिये कि नमाज़ की हालत में किसी को सलाम न करे और अगर कोई दूसरा शख़्स उसे सलाम करे तो ज़रूरी है कि जवाब दे लेकिन जवाब सलाम की मानिन्द होना चाहिये यानी ज़रूरी है कि अस्ल सलाम पर इज़ाफ़ा न हो मसलन जवाब में ये नहीं कहना चाहिये सलामुन अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू बल्कि एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि जवाब में अलैकुम या अलैक के लफ़्ज़ को सलाम के लफ़्ज़ पर मुक़द्दम न रखे। अगर वह शख़्स कि जिसने सलाम किया है उसने इस तरह न किया हो बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि जवाब मुकम्मल तौर पर दे जिस तरह कि उसने सलाम किया हो मसलन अगर कहा हो सलामुन अलैकुम तो जवाब में कहे सलामुन अलैकुम और अगर कहा हो अस्सलामो अलैकुम तो कहें अस्सलामो अलैकुम और अगर कहा हो सलामुन अलैक तो कहे सलामुन अलैक लेकिन अलैकुमुस्सलाम के जवाब में जो लफ़्ज़ चाहे कह सकता है।

1147. इंसान को चाहिये कि ख़्वाह वह नमाज़ की हालत में हो या न हो सलाम का जवाब फ़ौरन दे और अगर जान भूझ कर या भूले से सलाम का जवाब देने में इतना तवक़्क़ुफ़ करे कि अगर जवाब दे तो वह उस सलाम का जवाब शुमार न हो तो अगर वह नमाज़ की हालत में हो तो ज़रूरी है कि जवाब न दे और अगर नमाज़ की हालत में न हो तो जवाब देना वाजिब नहीं है।

1148. इंसान को सलाम का जवाब इस तरह देना ज़रूरी है कि सलाम करने वाला सुन ले लेकिन अगर सलाम करने वाला बहरा हो या सलाम कह कर जल्दी से गुज़र जाए चुनांचे मुम्किन हो तो सलाम का जवाब इशारे से या उसी तरह किसी तरीक़े से उसे समझा सके तो जवाब देना ज़रूरी है। इस सूरत के अलावा जवाब देना नमाज़ के अलावा किसी और जगह पर ज़रूरी नहीं और नमाज़ में जाइज़ नहीं है।

1149. वाजिब है कि नमाज़ी सलाम के जवाब को सलाम की नीयत से कहे। और दुआ का क़स्द करने में भी कोई हरज नहीं यानी ख़ुदावन्दे आलम से उस शख़्स के लिये सलामती चाहे जिसने सलाम किया हो।

1150. अगर औरत या ना महरम मर्द या वह बच्चा जो अच्छे बुरे में तमीज़ कर सकता हो नमाज़ पढ़ने वाले को सलाम करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाला उसके सलाम का जवाब दे और अगर औरत सलामुन अलैका कहकर सलाम करे तो जवाब में कह सकता है सलामुन अलैके यानी काफ़ को ज़ेर दे।

1151. अगर नमाज़ पढ़ने वाला सलाम का जवाब न दे तो वह गुनाहगार है लेकिन उसकी नमाज़ सहीह है।

1152. अगर कोई शख़्स नमाज़ पढ़ने वाले को इस तरह ग़लत सलाम करे कि वह सलाम ही शुमार न हो तो उसके सलाम का जवाब देना जाइज़ नहीं है।

1153. किसी ऐसे शख़्स को सलाम का जवाब देना जो मिज़ाह और तमस्ख़ुर के तौर पर सलाम करे और ऐसे ग़ैर मुस्लिम मर्द और औरत के सलाम का जवाब देना जो ज़िम्मी न हो वाजिब नही नहीं है और अगर ज़िम्मी हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उनके जवाब में कलिमा ए अलैका कह देना काफ़ी है।

1154. अगर कोई शख़्स किसी गुरोह को सलाम करे तो उन सब पर सलाम का जवाब देना वाजिब है लेकिन अगर उनमें से एक शख़्स जवाब दे दे तो काफ़ी है।

1155. अगर कोई शख़्स किसी गुरोह को सलाम करे और जवाब एक ऐसा शख़्स दे जिसका सलाम करने वाले को सलाम करने का इरादा न हो तो (उस शख़्स के जवाब देने के बावजूद) सलाम का जवाब उस गुरोह पर वाजिब है।

1156. अगर कोई शख़्स किसी गुरोह को सलाम करे और उस गुरोह में से जो शख़्स नमाज़ में मश्ग़ूल हो वह शक करे कि सलाम करने वाले का इरादा उसे भी सलाम करने का था या नहीं तो ज़रूरी है कि जवाब न दे और अगर नमाज़ पढ़ने वाले को यक़ीन हो कि उस शख़्स का इरादा उसे भी सलाम करने का था लेकिन कोई शख़्स सलाम का जवाब दे दे तो उस सूरत में भी यह हुक्म है। लेकिन अगर नमाज़ पढ़ने वाले को मालूम हो कि सलाम करने वाले का इरादा उसे भी सलाम करने का था और कोई दूसरा जवाब दे तो ज़रूरी है कि सलाम का जवाब दे।

1157. सलाम करना मुस्तहब है और इस अम्र की बुहत ताकीद की गई है कि सवार पैदल को और खड़ा हुआ शख़्स बैठे हुए को और छोटा बड़े को सलाम करे।

1158. अगर दो शख़्स आपस में एक दूसरे को सलाम करें तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि उनमें से हर एक दूसरे को उसके सलाम का जवाब दे।

1159. अगर इंसान नमाज़ पढ़ रहा हो तो मुस्तहब है कि सलाम का जवाब उस सलाम से बेहतर अल्फ़ाज़ में दे मसलन अगर कोई शख़्स सलामुन अलैकुम कहे तो जवाब में कहे सलामुन अलैकुम व रहमतुल्लाहे।

7. नमाज़ के मुब्तिलात में से एक आवाज़ के साथ और जान बूझकर हंसना है। अगरचे बेइख़्तियार हंसे। और जिन बातों की वजह से हंसे वह इख़्तियारी हो बल्कि एहतियात की बिना पर जिन बातों की वजह से हंसी आई हो अगरचे वह इख़्तियारी न भी हों तब भी वह नमाज़ के बातिल होने का मुजिब होगी लेकिन अगर जान बूझकर बग़ैर आवाज़ या सहवन आवाज़ के साथ हंसे तो ज़ाहिर यह है कि उसकी नमाज़ में कोई इश्काल नहीं।

1160. अगर हंसी की आवाज़ रोकने के लिये किसी शख़्स की हालत बदल जाए मसलन उसका रंग सुर्ख़ हो जाए तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह नमाज़ दोबारा पढ़े।

8. एहतियाते वाजिब की बिना पर यह नमाज़ के मुब्तिलात में से है कि इंसान दुनियावी काम के लिये जान बूझकर आवाज़ से या बग़ैर आवाज़ के रोए लेकिन अगर ख़ौफ़े ख़ुदा से या आखिरत के लिये रोए तो ख़्वाह आहिस्ता रोए या बलन्द आवाज़ से रोए कोई हरज नहीं बल्कि यह बेहतरीन अअमाल में से हैं।

9. नमाज़ बातिल करने वाली चीज़ों में से है कि कोई ऐसा काम करे जिससे नमाज़ की शक्ल बाक़ी न रहे मसलन उछलना कूदना और इसी तरह का कोई अमल अंजाम देना। ऐसा करना अमदन हो या भूल चूक की वजह से हो लेकिन जिस काम से नमाज़ की शक्ल तब्दील न होती हो मसलन हाथ से इशारा करना इसमें कोई हरज नहीं है।

1161. अगर कोई शख़्स नमाज़ के दौरान इस क़दर साकित हो जाए कि लोग यह न कहें कि नमाज़ पढ़ रहा है तो उसकी नमाज़ बातिल हो जाती है।

1162. अगर कोई शख़्स नमाज़ के दौरान कोई काम करे या कुछ देर साकित रहे और शक करे कि उसकी नमाज़ टूट गई है या नहीं तो ज़रूरी है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े और बेहतर यह है कि नमाज़ पूरी करे और फिर दोबारा पढ़े।

10. मुब्तिलाते नमाज़ में से एक खाना और पीना है। पस अगर कोई शख़्स नमाज़ के दौरान इस तरह खाए या पिये कि लोग यह न कहे कि नमाज़ पढ़ रहा है तो ख़्वाह उसका यह फ़ेल अमदन हो या भूल चूक कि वजह से हो उसकी नमाज़ बातिल हो जाती है। अलबत्ता जो शख़्स रोज़ा रखना चाहता हो अगर वह सुब्हा की अज़ान से पहले मुस्तहब नमाज़ पढ़ रहा हो और प्यासा हो और उसे डर हो कि अगर नमाज़ पूरी करेगा तो सुब्ह हो जायेगी तो अगर पानी उसके सामने दो तीन क़दम के फ़ासिले पर हो तो वह नमाज़ के दौरान पानी पी सकता है। लेकिन ज़रूरी है कि कोई ऐसा काम, मसलन क़िब्ले से मुंह फेरना न करे जो नमाज़ को बातिल करता है।

1163. अगर किसी का जान बूझकर खाना या पीना नमाज़ की शक्ल को ख़त्म न भी करे तब भी एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े ख़्वाह नमाज़ का तसलसुल ख़त्म हो यानी यह न कहा जाए कि नमाज़ को मुसलसल पढ़ रहा है या नमाज़ का तसलसुल ख़त्म न हो।

1164. अगर कोई शख़्स नमाज़ के दौरान कोई ऐसी ग़िज़ा निगल ले जो उसके मुंह या दांतों के रेख़ों में रह गई हो तो उसकी नमाज़ बातिल नहीं होती। इसी तरह अगर ज़रा भी क़न्द या शकर या उन्हीं जैसी कोई चीज़ मुंह में रह गई हो और नमाज़ की हालत में आहिस्ता आहिस्ता घुलकर पेट में चली जाए तो कोई हरज नहीं।

11. मुब्तिलाते नमाज़ में से दो रक्अती या तीन रक्अती नमाज़ की रक्अतों में या चार रक्अती नमाज़ों की पहली रक्अतों शक करना है। नमाज़ पढ़ने वाला शक की हालत पर बाक़ी रहे।

12. मुब्तिलाते नमाज़ में से यह भी है कि कोई शख़्स नमाज़ का रुक्न जान बूझकर या भूलकर कम कर दे या एक ऐसी चीज़ को जो रुक्न नहीं है जान बूझकर घटाए या जान बूझकर कोई चीज़ नमाज़ में बढ़ाए। इसी तरह अगर किसी रुक्न मसलन रूकू या दो सज्दों को एक रक्अत में ग़लती से बढ़ा दे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल हो जायेगी, अलबत्ता भूले से तक्बीरतुल एहराम की ज़ियादती नमाज़ को बातिल नहीं करती।

1165. अगर कोई शख़्स नमाज़ के बाद शक करे कि दौराने नमाज़ उसने कोई ऐसा काम किया है या नहीं जो नमाज़ को बातिल करता हो तो उसकी नमाज़ सहीह है।

वह चीज़ें जो नमाज़ में मकरूह हैं

1166. इसी शख़्स का नमाज़ में अपना चेहरा दाईं या बाई जानिब इतना कम मोड़ना कि लोग यह न कहं सकें कि उसने अपना मुंह क़िब्ले से मोड़ लिया है मकरूह है वरना जैसा कि बयान हो चुका है उसकी नमाज़ बातिल है। और यह भी मकरूह है कि कोई शख़्स नमाज़ में अपनी आंखें बन्द करे या दायीं और बायीं तरफ़ घुमाए और अपनी ड़ाढ़ी और हाथों से खेले और उंगलिया एक दूसरे में दाखिल करे और थूके और क़ुरआने मजीद या किसी और किताब या अंगूठी की तहरीर को देखे। और यह भी मकरूह है कि अलहम्द, सूरा और ज़िक्र पढ़ते वक़्त किसी की बात सुनने के लिये ख़ामोश हो जाए बल्कि हर वह काम जो कि ख़ुज़ूउ व ख़ुशूउ को कल्अदम (ख़त्म) कर दे, मकरूह है।

1167. जब इंसान को नींद आ रही हो और उस वक़्त भी जब उसने पेशाब या पखाना रोक रखा हो नमाज़ पढ़ना मकरूह है और इसी तरह नमाज़ की हालत में ऐसा मोज़ा पहनना भी मकरूह है जो पांव को जकड़ ले और इनके अलावा दूसरे मकरूहात भी भी मुफ़स्सल किताबों में बयान किये गये हैं।

वह सूरतें जिनमें वाजिब नमाज़ें तोड़ी जा सकती हैं

1168. इख़्तियारी हालत में वाजिब नमाज़ को तोड़ना एहतियाते वाजिब की बिना पर हराम है लेकिन माल की हिफ़ाज़त और माली या जिस्मानी ज़रर से बचने के लिये नमाज़ तोड़ने में कोई हरज नहीं बल्कि ज़ाहिरन वह तमाम अहम दीनी और दुनियावी काम जो नमाज़ी को पेश आयें उनके लिये नमाज़ तोड़ने में कोई हरज नहीं।

1169. अगर इंसान अपनी जान की हिफ़ाज़त या किसी ऐसे शख़्स की जान की हिफ़ाज़त जिसकी जान की हिफ़ाज़त वाजिब हो या ऐसे माल की हिफ़ाज़त जिसकी निगहदाश्त वाजिब हो और वह नमाज़ तोड़े बग़ैर मुम्किन न हो तो इंसान को चाहिये कि नमाज़ तोड़ दे।

1170. अगर कोई शख़्स वसी वक़्त में नमाज़ पढ़ने लगे और क़र्ज़ ख़्वाह उससे अपने क़र्ज़े का मुतालबा करे और वह उसका क़र्ज़ा नमाज़ के दौरान अदा कर सकता हो तो ज़रूरी है कि उसी हालत में अदा कर दे और अगर बग़ैर नमाज़ तोड़े उसका क़र्ज़ चुकाना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़ दे और उसका क़र्ज़ा अदा करे और बाद में नमाज़ पढ़े।

1171. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के दौरान पता चले कि मस्जिद नजिस है और वक़्त तंग हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ तमाम करे और अगर वक़्त वसी हो और मस्जिद को पाक करने से नमाज़ न टूटती हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ के दौरान उसे पाक करे और बाद में बाक़ी नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ टूट जाती हो और नमाज़ के बाद मस्जिद को पाक करना मुम्किन न हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़ दे और मस्जिद को पाक करे और बाद में नमाज़ पढ़े।

1172. जिस शख़्स के लिये नमाज़ को तोड़ना ज़रूरी हो अगर वह नमाज़ ख़त्म करे (पूरी करे) तो वह गुनाहगार होगा लेकिन उसकी नमाज़ सहीह है अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।

1173. अगर किसी शख़्स को क़िरअत या रूकू की हद तक झुकने से पहले याद आ जाए कि वह अज़ान और इक़ामत या फ़क़त इक़ामत कहना भूल गया है और नमाज़ का वक़्त वसी हो तो मुस्तहब है कि उन्हें कहने के लिये नमाज़ तोड़ दे बल्कि अगर नमाज़ ख़त्म होने से पहले उसे याद आए कि उन्हें भूल गया था तब भी मुस्तहब है कि उन्हें कहने के लिये नमाज़ तोड़ दे।

शक्कीयाते नमाज़

नमाज़ के शक्कीयात की 22 क़िस्में हैं। उनमें से सात इस क़िस्म के शक हैं जो नमाज़ को बातिल करते हैं और छः इस क़िस्म के हैं जिनकी परवाह नहीं करनी चाहिये और बाक़ी नौ इस क़िस्म के शक हैं जो सहीह हैं।

वह शक जो नमाज़ को बातिल करते हैं

1174. जो शक नमाज़ को बातिल करते हैं वह यह हैः-

1. दो रक्अती वाजिब नमाज़ मसलन नमाज़े सुब्ह और नमाज़े मुसाफ़िर की रक्अतों की तादाद के बारे में शक अलबत्ता नमाज़े मुस्तहब और नमाज़े एहतियात की रक्अतों की तादाद के बारे में शक नमाज़ को बातिल नहीं करता।

2. तीन रक्अती नमाज़ की तादाद के बारे में शक।

3. चार रक्अती नमाज़ में कोई शक करे कि उसने एक रक्अत पढ़ी है या ज़्यादा पढ़ी है।

4. चार रक्अती नमाज़ में दूसरे सज्दे में दाख़िल होने से पहले नमाज़ी शक करे कि उसने दो रक्अतें पढ़ी हैं या ज़्यादा पढ़ी हैं।

5. दो और छः रक्अतों में या दो और पांच रक्अतों में शक करे।

6. तीन और छः रक्अतों में या तीन और छः से ज़्यादा रक्अतों में शक करे।

7. चार और छः रक्अतों के दरमियान शक या चार और छः से ज़्यादा रक्अतों के दरमियान शक जिसकी तफ़्सील आगे आयेगी।

1175. अगर इंसान को नमाज़ बातिल करने वाले शुकूक में से कोई शक पेश आए तो बेहतर यह है कि जैसे ही उसे शक हो नमाज़ न तोड़े बल्कि इस क़दर ग़ौरो फ़िक्र करे कि नमाज़ की शक्ल बरक़रार न रहे या यक़ीन या गुमान हासिल होने से ना उम्मीद हो जाए।

वह शक जिनकी परवाह नहीं करनी चाहिये

1176. वह शुकूक जिनकी परवाह नहीं करनी चाहिये मुन्दरिजा ज़ैल हैः-

1. उस फ़ेल में शक जिसके बजा लाने का मौक़ा ग़ुज़र गया हो। मसलन इंसान रूकू में शक करे कि उसने अलहम्द पढ़ी हैं या नहीं।

2. सलामे नमाज़ के बाद शक।

3. नमाज़ का वक़्त गुज़र जाने के बाद शक।

4. कसीरुश्शक का शक – यानी उस शख़्स का शक जो बहुत ज़्यादा शक करता हो।

5. रक्अतों की तादाद के बारे में इमाम का शक जब कि मामूम उनकी तादाद जानतो हो। और इसी तरह मामूम का शक जब कि इमाम नमाज़ की रक्अतों की तादाद जानता हो।

6. मुस्तहब नमाज़ों और नमाज़े एहतियात के बारे में शक।

1. जिस फ़ेल का मौक़ा गुज़र गया हो उसमें शक करना

1177. अगर नमाज़ी नमाज़ के दौरान शक करे कि उसने नमाज़ का एक वाजिब फ़ेल अंजाम दिया है या नहीं मसलन उसे शक हो कि अलहम्द पढ़ी या नहीं जबकि उस साबिक़ काम को अमदन तर्क कर के जिस काम में मशग़ूल हो उस काम में शरअन मशग़ूल नहीं होना चाहिये या मसलन सूरा पढ़ते वक़्त शक करे कि अलहम्द पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे। इस सूरत के अलावा ज़रूरी है कि जिस चीज़ की अंजाम देही के बारे में शक हो बजा लाए।

1178. अगर नमाज़ी कोई आयत पढ़ते हुए शक करे कि इससे पहले की आयत पढ़ी है या नहीं या जिस वक़्त आयत का आख़िरी हिस्सा पढ़ रहा हो शक करे कि इसका पहला हिस्सा पढ़ा है या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे।

1179. अगर नमाज़ रूकू या सुजूद के बाद शक करे कि उनके वाजिब अफ़्आल मसलन ज़िक्र और बदन का सुकून की हालत में होना – उसने अंजाम दिये हैं या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे।

1180. अगर नमाज़ी सज्दे में जाते वक़्त शक करे कि रूकू बजा लाया है या नहीं या शक करे कि रूकू के बाद खड़ा हुआ था या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे।

1181. अगर नमाज़ी खड़ा होते वक़्त शक करे कि सज्दा या तशह्हुद बजा लाया है या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे।

1182. जो शख़्स बैठ कर या लेट कर नमाज़ पढ़ रहा हो अगर अलहम्द या तस्बीहात पढ़ने के वक़्त शक करे कि सज्दा या तशह्हुद बाजा लाया है या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे और अगर अलहम्द या तस्बीहात में मशग़ूल होने से पहले शक करे कि सज्दा या तशह्हुद बाजा लाया है या नहीं तो ज़रूरी है कि बजा लाए।

1183. अगर नमाज़ी शक करे कि नमाज़ का कोई रुक्न बजा लाया है या नहीं और उसके बाद आने वाले फ़ेल में मशग़ूल न हुआ हो तो ज़रूरी है कि उसे बजा लाए मसलन अगर तशह्हुद पढ़ने से पहले शक करे कि दो सज्दे बजा लाया है या नहीं तो ज़रूरी है कि बजा लाए और अगर बाद में उसे याद आए कि वह उस रुक्न को बजा लाया था तो एक रूक्न बढ़ जाने की वजह से एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।

1184. अगर नमाज़ी शक करे कि एक ऐसा अमल जो नमाज़ का रुक्न नहीं है बजा लाया है या नहीं और उसके बाद आने वाले फ़ेल में मशग़ूल न हुआ हो तो ज़रूरी है कि उसे बजा लाए मसलन अगर सूरा पढ़ने से पहले शक करे कि अलहम्द पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि अलहम्द पढ़े और अगर उसे अंजाम देने के बाद उसे याद आए कि उसे पहले ही बजा ला चुका था तो चूंकि रुक्न ज़्यादा नहीं हुआ इस लिये उसकी नमाज़ सहीह है।

1185. अगर नमाज़ी शक करे कि एक रुक्न बजा लाया है या नहीं मसलन जब तशह्हुद पढ़ रहा हो शक करे कि दो सज्दे बजा लाया है या नहीं और अपने शक की परवाह न करे और बाद में उसे याद आए कि उस रुक्न को बजा नहीं लाया तो अगर वह बाद वाले रुक्न में मशग़ूल न हुआ हो तो ज़रूरी है कि उस रुक्न को बजा लाए और अगर बाद वाले रुक्न में मशग़ूल हो गया हो तो उसकी नमाज़ एहतियाते लाज़िम की बिना पर बातिल है। मसलन अगर बाद वाली रक्अत के रूकू से पहले उसे याद आए कि दो सज्दे नहीं बजा लाया तो ज़रूरी है कि बजा लाए और अगर रूकू में या उसके बाद उसे याद आए (कि दो सज्दे नहीं बजा लाया) तो उसकी नमाज़ी जैसा कि बजा लाया गया, बातिल है।

1186. अगर नमाज़ी शक करे कि वह एक ग़ैर रुक्नी अमल बजा लाया है या नहीं और उसके बाद वाले अमल में मशग़ूल हो चुका हो तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे। मसलन जिस वक़्त सूरा पढ़ रहा हो शक करे कि अलहम्द पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे अलबत्ता अगर उसे कुछ देर में याद आ जाए कि इस अमल को बजा नहीं लाया और अभी बाद वाले रुक्न में मशग़ूल न हुआ हो तो ज़रूरी है कि उस अमल को बजा लाए और अगर बाद वाले रुक्न में मशग़ूल हो गया हो तो उसकी नमाज़ सहीह है। इस बिना पर मसलन अगर क़ुनूत में उसे याद आ जाए कि उसने अलहम्द नहीं पढ़ी थी तो ज़रूरी है कि पढ़े और अगर यह बात उसे रूकू में याद आए तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1187. अगर नमाज़ी शक करे कि उसने नमाज़ का सलाम पढ़ा है या नहीं और तअक़ीबात या दूसरी नमाज़ में मशग़ूल हो जाए या कोई ऐसा काम करे जो नमाज़ को बरक़रार नहीं रखता और वह हालते नमाज़ से ख़ारिज हो गया हो तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे और अगर इन सूरतों से पहले शक करे तो ज़रूरी है कि सलाम पढ़े अगर शक करे कि सलाम पढ़ा है या नहीं तो जहां भी हो अपने शक की परवाह न करे।