तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

नमाज़े एहतियात पढ़ने का तरीक़ा

1224. जिस शख़्स पर नमाज़े एहतियात वाजिब हो ज़रूरी है कि नमाज़ के सलाम के फ़ौरन बाद नमाज़े एहतियात की नीयत करे और तक्बीर कहे फिर अलहम्द पढ़े और रूकू में जाए और दो सज्दे बजा लाए। पस अगर उस पर एक रक्अत नमाज़े एहतियात वाजिब हो तो दो सज्दों के बाद तशह्हुद और सलाम पढ़े। और अगर उस पर दो रक्अत नमाज़े एहतियात वाजिब हो तो दो सज्दों के बाद पहली रक्अत की तरह एक और रक्अत बजा लाए और तशह्हुद के बाद सलाम पढ़े।

1225. नमाज़े एहतियात में सूरा और क़ुनूत नहीं है और एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि यह नमाज़ आहिस्ता पढ़े और नीयत ज़बान पर न लाए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसकी बिस्मिल्लाह भी आहिस्ता पढ़े।

1226. अगर किसी शख़्स को नमाज़े एहतियात पढ़ने से पहले मालूम हो जाए कि जो नमाज़ उसने पढ़ी थी वह सहीह थी तो उसके लिये नमाज़े एहतियात पढ़ना ज़रूरी नहीं और अगर नमाज़े एहतियात के दौरान भी यह इल्म हो जाए तो उस नमाज़ को तमाम करना ज़रूरी नहीं।

1227. अगर नमाज़े एहतियात पढ़ने से पहले किसी शख़्स को मालूम हो जाए कि उसने नमाज़ की रक्अत में कम पढ़ी थी और नमाज़ पढ़ने के बाद उसने कोई ऐसा काम न किया हो जो नमाज़ को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि उसने नमाज़ को जो हिस्सा न पढ़ा हो उसे पढ़े और बे महल सलाम के लिये एहतियाते लाज़िम की बिना पर दो सज्दा ए सहव अदा करे और अगर उससे कोई ऐसा फ़ेल सर्ज़द हुआ है जो नमाज़ को बातिल करता हो मसलन क़िब्ले की जानिब पीठ की हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े।

1228. अगर किसी शख़्स को नमाज़े एहतियात के बाद पता चले कि उसकी नमाज़ में कमी नमाज़े एहतियात के बराबर थी मसलन तीन रक्अतों और चार रक्अतों के दरमियान शक की सूरत में एक रक्अत नमाज़े एहतियात पढ़े और बाद में मालूम हो कि उसने नमाज़ की तीन रक्अतें पढ़ी थीं तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1229. अगर किसी शख़्स को नमाज़े एहतियात पढ़ने के बाद पता चले कि नमाज़ में जो कमी हुई थी वह नमाज़े एहतियात से कम थी मसलन दो रक्अतों और चार रक्अतों के माबैन शक की सूरत में दो रक्अत नमाज़े एहतियात पढ़े और बाद में मालूम हो कि उसने नमाज़ की तीन रक्अतें पढ़ी थीं तो ज़रूरी है कि नमाज़ दोबारा पढ़े।

1230. अगर किसी शख़्स को नमाज़े एहतियात पढ़ने के बाद पता चले कि नमाज़ में जो कमी हुई थी वह नमाज़े एहतियात से ज़्यादा थी मसलन तीन रक्अतों और चार रक्अतों के माबैन शक की सूरत में एक रक्अत नमाज़े एहतियात पढ़े और बाद में मालूम हो कि नमाज़ की दो रक्अतें पढ़ी थीं और नमाज़े एहतियात के बाद कोई ऐसा काम किया हो जो नमाज़ को बातिल करता हो मसलन क़िब्ले की जानिब पीठ की हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ दोबारा पढ़े और अगर कोई ऐसा काम न किया हो जो नमाज़ को बातिल करता हो तो उस सूरत में भी एहतियाते लाज़िम यह है कि नमाज़ दोबारा पढ़े और बाक़ि मांदा एक रक्अत ज़म करने पर इक़्तिफ़ा न करे।

1231. अगर कोई शख़्स तीन और चार रक्अतों में शक करे और जिस वक़्त वह एक रक्अत नमाज़ खड़े होकर पढ़ रहा हो उसे याद आए कि उसने नमाज़ की दो रक्अतें पढ़ी थीं तो उसके लिये बैठ कर दो रक्अत नमाज़े एहतियात पढ़ना ज़रूरी नहीं।

1232. अगर कोई शख़्स तीन और चार रक्अतों में शक करे और जिस वक़्त वह एक रकअत नमाज़े एहतियात खड़े होकर पढ़ रहा हो उसे याद आए की उसने नमाज़ की तीन रक्अतें पढ़ी थीं तो ज़रूरी है कि नमाज़े एहतियात को छोड़ दे चुनांचे रूकू में दाख़िल होने से पहले उसे याद आया हो तो एक रक्अत मिलाकर पढ़े और उसकी नमाज़ सहीह है और एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़ाइद सलाम के लिये दो सज्दा ए सहव बजा लाए और अगर रूकू में दाख़िल होने के बाद याद आए तो ज़रूरी है कि नमाज़ दोबारा पढ़े और एहतियात की बिना पर बाक़ी मांदा रक्अत ज़म करने पर इक़तिफ़ नहीं कर सकता।

1233. अगर कोई शख़्स दो और तीन और चार रक्अतों में शक करे और जिस वक़्त वह दो रक्अत नमाज़े एहतियात खड़े होकर पढ़ रहा हो उसे याद आए कि उसने नमाज़ की तीन रक्अतें पढ़ी थीं तो यहां भी बिल्कुल वही हुक्म जारी हो जिसका ज़िक्र साबिक़ा मस्अले में किया गया है।

1234. अगर किसी को नमाज़े एहतियात के दौरान पता चले कि उसकी नमाज़ में कमी नमाज़े एहतियात से ज़्यादा या कम थी तो यहां भी बिल्कुल वही हुक्म जारी होगा जिसका ज़िक्र मस्अला 1232 में किया गया है। 1235. अगर कोई शख़्स शक करे कि जो नमाज़े एहतियात उस पर वाजिब थी वह उसे बजा लाया है या नहीं तो नमाज़ का वक़्त गुज़र जाने की सूरत में अपने शक की परवाह न करे और अगर वक़्त बाक़ी हो तो उस सूरत में जबकि शक और नमाज़ के दरमियान ज़्यादा वक़्फ़ा भी न गुज़रा हो और उसने कोई ऐसा काम भी न किया हो मसलन क़िब्ले से मुंह मोड़ना जो नमाज़ को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि नमाज़े एहतियात पढ़े और अगर कोई ऐसा काम किया हो जो नमाज़ को बातिल करता हो या नमाज़ और उसके शक के दरमियान ज़्यादा वक़्फ़ा हो गया हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर नमाज़ दोबारा पढ़ना ज़रूरी है।

1236. अगर एक शख़्स नमाज़े एहतियात में एक रक्अत की बजाए दो रक्अत पढ़ ले तो नमाज़े एहतियात बातिल हो जाती है और ज़रूरी है कि दोबारा अस्ल नमाज़ पढ़े। और अगर वह नमाज़ में कोई रुक्न बढ़ा दे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसका भी यही हुक्म है।

1237. अगर किसी शख़्स को नमाज़े एहतियात पढ़ते हुए उस नमाज़ के अफ़्आल में से किसी एक के मुताल्लिक़ शक हो जाए तो अगर उसका मौक़ा न गुज़रा हो तो उसे अंजाम देना ज़रूरी है और अगर उसका मौक़ा गुज़र गया हो तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे मसलन अगर शक करे कि अलहम्द पढ़ी है या नहीं और अभी रूकू में न गया हो तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे।

1238. अगर कोई शख़्स नमाज़े एहतियात की रक्अतों के बारे में शक करे और ज़्यादा रक्अतों की तरफ़ शक करना नमाज़ को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि शक की बुनियाद कम पर रखे और ज़्यादा रक्अतों की तरफ़ शक करना नमाज़ को बातिल न करता हो तो ज़रूरी है कि उसकी बुनियाद ज़्यादा पर रखे मसलन जब वह दो रक्अत नमाज़े एहतियात पढ़ रहा हो अगर शक करे कि दो रक्अतें पढ़ी हैं या तीन तो चूंकि ज़्यादा की तरफ़ शक करना नमाज़ को बातिल करता है इस लिये उसे चाहिये की समझ ले कि उसने दो रक्अतें और अगर शक करे कि उसने एक रक्अत पढ़ी है या दो रक्अतें पढ़ी हैं तो चूंकि ज़्यादती की तरफ़ शक करना नमाज़ को बातिल नहीं करता इस लिये उसे समझना चाहिये के दो रक्अते पढ़ी हैं।

1239. अगर नमाज़े एहतियात में कोई ऐसी चीज़ जो रुक्न न हो सहवन कम या ज़्यादा हो जाए तो उसके लिये सज्दा ए सहव नहीं है।

1240. अगर कोई शख़्स नमाज़े एहतियात के सलाम के बाद शक करे कि वह उस नमाज़ के अज्ज़ा और शराइत में से कोई एक जुज़्व या शर्त अंजाम दे चुका है या नहीं तो वह अपने शक की परवाह न करे।

1241. अगर कोई शख़्स नमाज़े एहतियात में तशह्हुद पढ़ना या एक सज्दा करना भूल जाए और उस तशह्हुद या सज्दे का अपनी जगह पर तदारुक भी मुम्किन न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि सलामे नमाज़ के बाद सज्दे की क़ज़ा करे।

1242. अगर किसी शख़्स पर नमाज़े एहतियात और एक सज्दे की क़ज़ा या दो सज्दा ए सहव वाजिब हों तो ज़रूरी है कि पहले नमाज़े एहतियात बजा लाए।

1243. नमाज़ की रक्अतों के बारे में गुमान का हुक्म यक़ीन के हुक्म की तरह है मसलन अगर कोई शख़्स यह न जानता हो कि एक रक्अत पढ़ी है या दो रक्अतें पढ़ी हैं और गुमान करे कि दो रक्अतें पढ़ी हैं तो वह समझे कि दो रक्अतें पढ़ी हैं। और अगर चार रक्अती नमाज़ में गुमान करे कि चार रक्अती पढ़ी हैं तो उसे नमाज़े एहतियात पढ़ने की ज़रूरत नहीं लेकिन अफ़्आल के बारे में गुमान करना शक का हुक्म रखता है पस अगर वह गुमान करे के रूकू किया है और अभी सज्दे में न दाख़िल हुआ हो तो ज़रूरी है कि रूकू को अंजाम दे, और अगर वह गुमान करे कि अलहम्द नहीं पढ़ी है और सूरे में दाख़िल हो चुका हो तो गुमान की परवाह न करे और उसकी नमाज़ सहीह है।

1244. रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों और दूसरी वाजिब नमाज़ों के बारे में शक और सहव और गुमान के हुक्म में कोई फ़र्क़ नहीं है। मसलन किसी को अगर नमाज़े आयात के दौरान शक हो कि एक रक्अत पढ़ी है या दो रक्अतें तो चूंकि उसका शक दो रक्अती नमाज़ में है लिहाज़ा उसकी नमाज़ बातिल है। और अगर वह गुमान करे कि यह दूसरी रक्अत है या पहली रक्अत तो अपने गुमान के मुतामिक़ नमाज़ को तमाम करे।

सज्दा ए सहव

1245. ज़रूरी है कि इंसान सलामे नमाज़ के बाद पांच चीज़ों के लिये उस तरीक़े के मुताबिक़ जिसका आइन्दा ज़िक्र होगा दो सज्दा ए सहव बजा लाएः-

1. नमाज़ की हालत में सहवन कलाम करना।

2. जहां सलामे नमाज़ न कहना चाहिये वहां सलाम कहना। मसलन भूल कर पहली रक्अत में सलाम पढ़ना।

3. तशह्हुद भूल जाना।

4. चार रक्अती नमाज़ में दूसरे सज्दे के दौरान शक करना कि चार रक्अतें पढ़ी हैं या पांच, या शक करना कि चार रक्अतें पढ़ी हैं या छः बिलकुल उसी तरह जैसे कि सहीह शुकूक के नम्बर 4 में गुज़र चुका है।

5. नमाज़ के बाद इज्मालन यह जानना कि नमाज़ में ग़लती से कोई चीज़ कम या ज़्यादा हो गई है।

इन पांच सूरतों में अगर नमाज़ के सहीह होने का हुक्म हो तो एहतियात की बिना पर पहली, दूसरी और पांचवी सूरत में और अक़्वा की बिना पर तीसरी और चौथी सूरत में सज्दा ए सहव अदा करना ज़रूरी है। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर एक सज्दा भूल जाए या जहां खड़ा होना ज़रूरी हो मसलन अलहम्द और सूरा पढ़ते वक़्त वहां ग़लती से बैठ जाए या जहां बैठना ज़रूरी हो मसलन तशह्हुद पढ़ते वक़्त वहां ग़लती से खड़ा हो जाए तो दो सज्दा ए सहव अदा करे बल्कि हर उस चीज़ के लिये जो ग़लती से नमाज़ में कम या ज़्यादा हो जाए दो सज्दा ए सहव करे। उन चन्द सूरतों के अहकाम आइन्दा मसाइल में बयान होंगे।

1246. अगर इंसान ग़लती से या इस ख़्याल से कि वह नमाज़ पढ़ चुका है कलाम करे तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि दो सज्दा ए सहव करे।

1247. उस आवाज़ के लिये जो खांसने से पैदा होती है सज्दा ए सहव वाजिब नहीं लेकिन अगर कोई ग़लती से नालओ बुका करे या (सर्द) आह भरे या (लफ़्ज़े) आह कहे तो ज़रूरी है कि एहतियात की बिना पर सज्दा ए सहव करे।

1248. अगर कोई शख़्स एक ऐसी चीज़ को जो उसने ग़लत पढ़ी हो दोबारा सहीह तौर पर पढ़े तो उसके दोबारा पढ़ने पर सज्दा ए सहव वाजिब नहीं है।

1249. अगर कोई शख़्स नमाज़ में ग़लती से कुछ देर बाते करता रहे और उमूमन उसे एक दफ़्आ बात करना समझा जाता हो तो उसके लिये नमाज़ के सलाम के बाद दो सज्दा ए सहव काफ़ी है।

1250. अगर कोई शख़्स ग़लती से तस्बीहाते अर्बआ न पढ़े तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ के बाद दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

1251. जहां नमाज़ का सलाम नहीं कहना चाहिये अगर कोई शख़्स ग़लती से अस्सलामो अलैना व अला इबादिल्लाहिस्स्वालेहीन कह दे या अस्सलामो अलैकुम कहे तो अगरचे उसने व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू न कहा हो तो तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि दो सज्दा ए सहव करे। लेकिन अगर ग़लती से अस्सलामो अलैका अय्युहन्नबीयो व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू कहे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

1252. जहां सलाम नहीं पढ़ना चाहिये अगर कोई शख़्स ग़लती से वहां तीनों सलाम पढ़ ले तो उसके लिये दो सज्दा ए सहव काफ़ी हैं।

1253. अगर कोई शख़्स एक सज्दा या तशह्हुद भूल जाए और बाद की रक्अत के रूकू से पहले उसे याद आए तो ज़रूरी है कि पलटे और (सज्दा या तशह्हुद) बजा लाए और नमाज़ के बाद एहतियाते मुस्तहब की बिना पर बेजा क़ियाम के लिये दो सज्दा ए सहव करे।

1254. अगर किसी शख़्स को रूकू में या उसके बाद याद आए कि वह उससे पहली रक्अत में एक सज्दा या तशह्हुद भूल गया है तो ज़रूरी है कि सलामे नमाज़ के बाद सज्दे की क़ज़ा करे और तशह्हुद के लिये दो सज्दा ए सहव करे।

1255. अगर कोई शख़्स नमाज़ के सलाम के बाद जान बूझ कर सज्दा ए सहव न करे तो उसने गुनाह किया है और एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि जिस क़द्र जल्दी हो सके उसे अदा करे और अगर भूल कर उसने सज्दा ए सहव नहीं किया तो जिस वक़्त भी उसे याद आए ज़रूरी है कि फ़ौरन सज्दा करे और उसके लिये नमाज़ का दोबारा पढ़ना ज़रूरी नहीं।

1256. अगर कोई शख़्स शक करे कि मसलन उस पर दो सज्दा ए सहव वाजिब हुए हैं या नहीं तो उनका बजा लाना उसके लिये ज़रूरी नहीं।

1257. अगर कोई शख़्स शक करे कि मसलन उस पर दो सज्दा ए सहव वाजिब हुए हैं या चार तो उसका दो सज्दे अदा करना काफ़ी है।

1258. अगर किसी शख़्स को इल्म हो कि दो सज्दा ए सहव में से एक सज्दा ए सहव नहीं बजा लाया और तदारुक भी मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि दो सज्दा ए सहव बजा लाए और अगर उसे इल्म हो कि उसने सहवन तीन सज्दे किये हैं तो एहतियाते वाजिब यह है कि दोबारा दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

सज्दा ए सहव का तरीक़ा

1259. सज्दा ए सहव की तरीक़ा यह है कि सलामे नमाज़ के बाद इंसान फ़ौरन सज्दा ए सहव की नीयत करे एहतियाते लाज़िम की बिना पर पेशानी किसी ऐसी चीज़ पर रख दे जिस पर सज्दा करना सहीह हो और एहतियात मुस्तहब यह है कि सज्दा ए सहव में ज़िक्र पढ़े और बेहतर है कि कहेः बिस्मिल्लाहे व बिल्लाहे अस्सलामो अलैका अय्युहन्नबीयो व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू इसके बाद उसे चाहिये कि बैठ जाए और दोबारा सज्दे में जाए और मज़कूरा ज़िक्र पढ़े और बैठ जाए और तशह्हुद के बाद कहे अस्सलामो अलैकुम और औला यह है कि व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू का इज़ाफ़ा करे।

भूले हुए सज्दे और तशह्हुद की क़ज़ा

1260. अगर इंसान सज्दा और तशह्हुद भूल जाए और नमाज़ के बाद उनकी क़ज़ा बजा लाए तो ज़रूरी है कि वह नमाज़ की तमाम शराइत मसलन बदन और लिबास का पाक होना और रू बक़िब्ला होना और दीगर शराइत पूरी करता हो।

1261. अगर इंसान कई दफ़्आ सज्दा करना भूल जाए मसलन एक सज्दा पहली रक्अत में और एक सज्दा दूसरी रक्अत में भूल जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ के बाद उन दोनों सज्दों की क़ज़ा बजा लाए और बेहतर यह है कि भूली हुई हर चीज़ के लिये एहतियातन दो सज्दा ए सहव करे।

1262. अगर इंसान एक सज्दा और एक तशह्हुद भूल जाए तो एहतियातन हर एक के लिये दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

1263. अगर इंसान दो रक्अतों में से दो सज्दे भूल जाए तो उसके लिये ज़रूरी नहीं कि क़ज़ा करते वक़्त तरतीब से बजा लाए।

1264. अगर इंसान नमाज़ के सलाम और सज्दे की क़ज़ा के दरमियान कोई ऐसा काम करे जिसके अमदन या सहवन करने से नमाज़ बातिल हो जाती है मसलन पीठ क़िब्ले की तरफ़ करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि सज्दे की क़ज़ा के बाद दोबारा नमाज़ पढ़े।

1265. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के सलाम के बाद याद आए कि आख़िरी रक्अत का एक सज्दा या तशह्हुद भूल गया है तो ज़रूरी है कि लौट जाए और नमाज़ को तमाम करे और एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि पहले सज्दे की क़ज़ा करे और बाद में सज्दा ए सहव करे।

1266. अगर एक शख़्स नमाज़ के सलाम और सज्दे की क़ज़ा के दरमियान कोई ऐसा काम करे जिसके लिये सज्दा ए सहव वाजिब हो जाता हो मसलन भूले से कलाम करे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि पहले सज्दे की क़ज़ा करे और बाद में दो सज्दा ए सहव करे।

1267. अगर किसी शख़्स को यह इल्म न हो कि नमाज़ में सज्दा भूला है या तशह्हुद तो ज़रूरी है कि सज्दे की क़ज़ा करे और दो सज्दा ए सहव अदा करे। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तशह्हुद की भी क़ज़ा करे।

1268. अगर किसी शख़्स को शक हो कि सज्दा या तशह्हुद भूला है या नहीं तो उसके लिये उनकी क़ज़ा करना या सज्दा ए सहव अदा करना वाजिब नहीं है।

1269. अगर किसी शख़्स को इल्म हो कि सज्दा भूल गया है और शक करे कि बाद की रक्अत के रूकू से पहले उसे याद आया था और उसे बजा लाया था या नहीं तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसकी क़ज़ा करे।

1270. जिस शख़्स पर सज्दे की क़ज़ा ज़रूरी हो, अगर किसी दूसरे काम की वजह से उस पर सज्दा ए सहव वाजिब हो जाए तो ज़रूरी है कि एहतियात की बिना पर नमाज़ अदा करने के बाद अव्वलन सज्दे की क़ज़ा करे और उसके बाद सज्दा ए सहव करे।

1271. अगर किसी शख़्स को शक हो कि नमाज़ पढ़ने के बाद भूले हुए सज्दे की क़ज़ा बजा लाया है या नहीं और नमाज़ का वक़्त न गुज़रा हो तो उसे चाहिये की सज्दे की क़ज़ा करे लेकिन अगर नमाज़ का वक़्त भी गुज़र गया हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसकी क़ज़ा करना ज़रूरी है।

नमाज़ के अज्ज़ा और शराइत को कम या ज़्यादा करना

1272. जब नमाज़ के वाजिबात में से कोई चीज़ जान बूझकर कम या ज़्यादा की जाए तो ख़्वाह वह एक हर्फ़ ही क्यों न हो नमाज़ बातिल है।

1273. अगर कोई शख़्स मस्अला न जानने की वजह से नमाज़ के अरकान में से कोई एक कम कर दे तो नमाज़ बातिल है। और वह शख़्स जो (किसी दूर उफ़्तादा मक़ाम पर रहने की वजह से) मसाइल तक रसाई करने से क़ासिर हो या वह शख़्स जिसने किसी हुज्जत (मोअतबर शख़्स या किताब वग़ैरा) पर एतिमाद किया हो अगर वाजिबे ग़ैर रुक्नी को कम करे या किसी रुक्न को ज़्यादा करे तो नमाज़ बातिल नहीं होती। चुनांचे अगर मस्अला न जानने की वजह से अगरचे कोताही की वजह से हो सुब्हा और मग़्रीब और इशा की नमाज़ों में अलहम्द और सूरा आहिस्ता पढ़े या ज़ोहर और अस्र की नमाज़ों में अलहम्द और सूरा आवाज़ से पढ़े या सफ़र करे ज़ोहर, अस्र और इशा की नमाज़ों की चार रक्अतें पढ़े तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1274. अगर नमाज़ के दौरान किसी शख़्स का ध्यान इस तरफ़ जाए कि उसका वुज़ू या ग़ुस्ल बातिल था या वुज़ू या ग़ुस्ल किये बग़ैर नमाज़ पढ़ने लगा है तो ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़ दे और दोबारा वुज़ू या ग़ुस्ल के साथ पढ़े और अगर इस तरफ़ उसका ध्यान नमाज़ के बाद जाए तो ज़रूरी है कि वुज़ू या ग़ुस्ल के साथ दोबारा नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ का वक़्त गुज़र गया हो तो उसकी क़ज़ा करे।

1275. अगर किसी शख़्स को रूकू में पहुंचने के बाद याद आए कि पहले वाली रक्अत के दो सज्दे भूल गया है तो उसकी नमाज़ एहतियात की बिना पर बातिल है और अगर यह बात उसे रूकू में पहुंचने से पहले याद आए तो ज़रूरी है कि वापस मुड़े और दो सज्दे बजा लाए और फिर खड़ा हो जाए और अलहम्द और सूरा या तस्बीहात पढ़े और नमाज़ को तमाम करे और नमाज़ के बाद एहतियाते मुस्तहब की बिना पर बे महल क़ियाम के लिये दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

1276. अगर किसी शख़्स को अस्सलामो अलैना और अस्सलामो अलैकुम कहने से पहले याद आए कि वह आख़िरी रक्अत के दो सज्दे बजा नहीं लाया तो ज़रूरी है कि दो सज्दे बजा लाए और दोबारा सज्दे और तशह्हुद और सलाम पढ़े.

1277. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के सलाम से पहले याद आए कि उसने नमाज़ के आख़िरी हिस्से की एक या एक से ज़्यादा रक्अतें नहीं पढी तो ज़रूरी है कि जितना हिस्सा भूल गया हो उसे बजा लाए।

1278. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के सलाम के बाद याद आए कि उसने नमाज़ के आख़िरी हिस्से की एक या एक से ज़्यादा रक्अतें नहीं पढ़ीं और उससे ऐसा काम भी सरज़द हो चुका हो कि अगर वह नमाज़ में अमदन या सहव किया जाए तो नमाज़ को बातिल कर देता हो मसलन उसने क़िब्ले की तरफ़ पीठ की हो तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर उसने कोई ऐसा काम न किया हो जिसका अमदन या सहवन करना नमाज़ को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि जितना हिस्सा पढ़ना भूल गया हो उसे फ़ौरन बजा लाए और ज़ाइद सलाम के लिये एहतियाते लाज़िम की बिना पर दो सज्दा ए सहव करे।

1279. जब कोई शख़्स नमाज़ के सलाम के बाद एक काम अंजाम दे जो अगर नमाज़ के दौरान अमदन या सहवन किया जाए तो नमाज़ को बातिल कर देता हो मसलन पीठ क़िब्ले की तरफ़ करे और बाद में उसे याद आए कि वह दो आख़िरी सज्दे बजा नहीं लाया तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर नमाज़ को बातिल करने वाला कोई काम करने से पहले उसे यह बात याद आए तो ज़रूरी है कि जो दो सज्दे अदा करना भूल गया है उन्हें बजा लाए और दोबारा तशह्हुद और सलाम पढ़े और जो सलाम पहले पढ़ा हो उसके लिये एहतियाते वाजिब की बिना पर दो सज्दा ए सहव करे।

1280. अगर किसी शख़्स को पता चले कि उसने नमाज़ वक़्त से पहले पढ़ ली है तो ज़रूरी है कि दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र गया हो तो क़ज़ा करे। और अगर यह पता चले कि क़िब्ले की तरफ़ पीठ कर के पढ़ी है और अभी वक़्त न गुज़रा हो तो ज़रूरी है कि दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र चुका हो और तरद्दुद का शिकार हो तो क़ज़ा ज़रूरी है वर्ना क़ज़ा ज़रूरी नहीं। और अगर पता चले कि क़िब्ले की शुमाली या जुनूबी सम्त के दरमियान नमाज़ अदा की है और वक़्त गुज़रने के बाद पता चले तो क़ज़ा ज़रूरी नहीं लेकिन अगर वक़्त गुज़रने से पहले मुतवज्जह हो और क़िब्ले की सम्त तब्दील करने से मअज़ूर न हो मसलन क़िब्ले की सम्त तलाश करने में कोताही की हो तो एहतियात की बिना पर दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।

मुसाफ़िर की नमाज़

ज़रूरी है कि मुसाफ़िर ज़ोहर, अस्र और इशा की नमाज़ आठ शर्ते होते हुए क़स्र बजा लाए यानी दो रक्अत पढ़े।

(पहली शर्त)

उसका सफ़र आठ फ़र्सख शरई से कम न हो और फ़र्सखे शरई साढ़े पांच किलोमीटर से क़द्रे कम होता है (मीलों के हिसाब से आठ फ़र्सखे शरई तक़रीबन 28 मील बनते हैं) ।

1281. जिस शख़्स के जाने और वापस आने की मजमूई मसाफ़त मिला कर आठ फ़र्सख़ हो और ख़्वाह उसके जाने की या वापसी की मसाफ़त चार फ़र्सख़ से कम हो या न हो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। इस बिना पर अगर जाने की मसाफ़त तीन फ़र्सख़ और वापसी की पांच फ़र्सख़ या उसके बर अक्स हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। इस बिना पर अगर जाने की मसाफ़त तीन फ़र्सख़ और वापसी की पांच फ़र्सख़ या उसके बर अक्स हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र यानी दो रक्अती पढ़े।

1282. अगर सफ़र पर जाने और वापस आने की मसाफ़त आठ फ़र्सख़ हो तो अगरचे जिस दिन वह गया हो उसी दिन या उसी रात को वापिस पलट कर न आए ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र पढ़े लेकिन इस सूरत में बेहतर है कि एहतियातन पूरी नमाज़ भी पढ़े।

1283. अगर एक मुख़्तसर सफ़र आठ फ़र्सख़ से कम हो या इंसान को इल्म न हो कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ है या नहीं तो उसे नमाज़ क़स्र कर के नहीं पढ़नी चाहिये और अगर शक करे कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ है या नहीं तो उसके लिये तह्क़ीक़ करना ज़रूरी नहीं और ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1284. अगर एक आदिल या क़ाबिले एतिमाद शख़्स किसी को बताए कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ है और वह उसकी बात से मुत्मईन हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1285. ऐसा शख़्स जिसे यक़ीन हो कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ है अगर नमाज़ क़स्र करके पढ़े और बाद में उसे पता चले कि आठ फ़र्सख़ न था तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त गुज़र गया हो तो उसकी क़ज़ा बजा लाए।

1286. जिस शख़्स को यक़ीन हो कि जिस जगह वह जाना चाहता है वहां सफ़र आठ फ़र्सख़ नहीं या शक हो कि आठ फ़र्सख़ है या नहीं और रास्ते में उसे मालूम हो जाए कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ था तो गो थोड़ा सा सफ़र बाक़ी हो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े और अगर पूरी नमाज़ पढ़ चुका हो तो ज़रूरी है कि दोबारा क़स्र पढ़े। लेकिन अगर वक़्त गुज़र गया हो तो क़ज़ा ज़रूरी नहीं है।

1287. अगर दो जगहों का दरमियानी फ़ासिला चार फ़र्सख़ से कम हो और कोई शख़्स कई दफ़्आ उनके दरमियान जाए और आए तो ख़्वाह उन तमाम मसाफ़तों का फ़ासिला मिलाकर आठ फ़र्सख़ भी हो जाए उसे नमाज़ पूरी पढ़नी ज़रूरी है।

1288. अगर किसी जगह जाने के दो रास्ते हों और उनमें से एक रास्ता आठ फ़र्सख़ से कम और दूसरा आठ फ़र्सख़ या उससे ज़्यादा हो तो अगर इंसान वहां उस रास्ते से जाए जो आठ फ़र्सख़ है तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। और अगर उस रास्ते से जाए जो आठ फ़र्सख़ नहीं है तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1289. आठ फ़र्सख़ की इब्तिदा उस जगह से हिसाब करना ज़रूरी है कि जहां से गुज़र जाने के बाद आदमी मुसाफ़िर शुमार होता है और ग़ालिबन वह जगह शहर की इन्तिहा होती है लेकिन बाज़ बहुत बड़े शहरों में मुम्किन है वह शहर का आख़िरी मोहल्ला हो।

(दूसरी शर्त)

मुसाफ़िर अपने सफ़र की इब्तिदा से ही आठ फ़र्सख़ तय करने का इरादा रखता हो यानी यह जानता हो कि आठ फ़र्सख़ तक का फ़ासिला तय करेगा लिहाज़ा अगर वह उस जगह तक का सफ़र करे जो आठ फ़र्सख़ से कम हो और वहां पहुंचने के बाद किसी ऐसी जगह जाने का इरादा करे जिसका फ़ासिला तय कर्दा फ़ासिले से मिलाकर आठ फ़र्सख़ हो जाता हो तो चूंकि वह शूरू से आठ फ़र्सख़ तय करने का इरादा नहीं रखता था इसलिये ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े लेकिन अगर वहां से आठ फ़र्सख़ आगे जाने का इरादा करे या मसलन चार फ़र्सख़ जाना चाहता हो और फिर चार फ़र्सख़ तय कर के अपने वतन या ऐसी जगह वापस जाना चाहता हो जहां उसका इरादा दस दिन ठहरने का हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1290. जिस शख़्स को यह इल्म न हो कि उसका सफ़र कितने फ़र्सख़ का है मसलन किसी गुमशुदा (शख़्स या चीज़) को ढूंढने के लिये सफ़र कर रहा हो और न जानता हो कि उस पा लेने के लिये उसे कहां तक जाना पड़ेगा तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वापसी पर उसके वतन या उस जगह तक का फ़ासिला जहां वह दस दिन क़ियाम करना चाहता हो आठ फ़र्सख़ या उससे ज़्यादा बनता हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े मज़ीद बरआं अगर वह सफ़र पर जाने के दौरान इरादा करे कि वह मसलन चार फ़र्सख़ की मसाफ़त जाते हुए और चार फ़र्सख़ की मसाफ़त वहां आते हुए तय करेगा तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र करके पढ़े।

1291. मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र कर के उसे सूरत में पढ़नी ज़रूरी है जब उसका आठ फ़र्सख़ तय करने का पुख़्ता इरादा हो लिहाज़ा अगर कोई शख़्स शहर से बाहर जा रहा हो और मिसाल के तौर पर उसका इरादा यह हो कि अगर कोई साथी मिल गया तो आठ फ़र्सख़ के सफ़र पर चला जाऊंगा और उसे इत्मीनान हो कि साथी मिल जायेगा तो उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है और अगर उसे इस बारे में इत्मीनान हो तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1292. जो शख़्स आठ फ़र्सख़ सफ़र तय करने का इरादा रखता हो वह अगरचे हर रोज़ थोड़ा फ़ासिला तय करे और जब हद्दे तरख्खुस जिसके मअनी मस्अला 1327 में आयेंगे – तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े लेकिन अगर हर रोज़ बहुत कम फ़ासिला तय करे तो एहतियाते लाज़िम यह है कि अपनी नमाज़ पूरी भी पढ़े और क़स्र भी करे।

1293. जो शख़्स सफ़र में किसी दूसरे के इख़्तियार में हो मसलन नौकर जो अपने आक़ा के साथ सफ़र कर रहा हो अगर उसे इल्म हो कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ का है तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े और अगर उसे इल्म न हो तो पूरी नमाज़ पढ़े और इस बारे में पूछना ज़रूरी नहीं।

1294. जो शख़्स सफ़र में किसी दूसरे के इख़्तियार में हो अगर वह जानता हो या गुमान रखता हो कि चार फ़र्सख़ तक पहुंचने से पहले उससे जुदा हो जायेगा और सफ़र नहीं करेगा तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1295. जो शख़्स सफ़र में किसी दूसरे के इख़्तियार में हो अगर उसे इत्मीनान न हो कि चार फ़र्सख़ तक पहुंचने से पहले उससे जुदा नहीं होगा और सफ़र जारी रखेगा तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े लेकिन अगर उसे इत्मीनान हो अगरचे एहतिमाल बहुत कम हो कि उसके सफ़र में कोई रुकावट पैदा होगी तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

(तीसरी शर्त)

रास्ते में मुसाफ़िर अपने इरादे से फिर न जाए। पस अगर वह चार फ़र्सख़ तक पहुंचने से पहले अपना इरादा बदल दे या उसका इरादा मुतज़ल्ज़ल हो जाए तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1296. अगर कोई शख़्स कुछ फ़ासिला तय करने के बाद जो कि वापसी के सफ़र को मिलाकर आठ फ़र्सख़ हो सफ़र तर्क कर दे और पुख़्ता इरादा कर ले कि उसी जगह रहेगा या दस दिन गुज़रने के बाद वापस जायेगा या वापस जाने और ठहरने के बारे में कोई फ़ैसला न कर पाए तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1297. अगर कोई शख़्स कुछ फ़ासिला तय करने के बाद जो कि वापसी के सफ़र को मिलाकर आठ फ़र्सख़ हो सफ़र तर्क कर दे और वापस जाने का पुख़्ता इरादा कर ले तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े अगरचे वह उस जगह दस दिन से कम मुद्दत के लिये ही रहना चाहता हो।

1298. अगर कोई शख़्स किसी ऐसी जगह जाने के लिये जो आठ फ़र्सख़ दूर हो सफ़र शुरू करे और कुछ रास्ता तय करने के बाद किसी और जगह जाना चाहे और जिस जगह से उसने सफ़र शूरू किया है वहां से उस जगह तक जहां वह अब जाना चाहता है आठ फ़र्सख़ बनते हों तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1299. अगर कोई शख़्स आठ फ़र्सख़ तक फ़ासिला तय करने से पहले मुतरद्दिद हो जाए कि बाक़ी रास्ता तय करे या नहीं और दौराने तरद्दुद सफ़र न करे और बाद में बाक़ी रास्ता तय करने का पुख़्ता इरादा कर ले तो ज़रूरी है कि सफ़र के ख़ातिमे तक नमाज़ क़स्र पढ़े।

1300. अगर कोई शख़्स आठ फ़र्सख़ का फ़ासिला तय करने से पहले तरद्दुद का शिकार हो जाए कि बाक़ी रास्ता तय करे या नहीं और हालते तरद्दुद में कुछ फ़ासिला तय कर ले और बाद में पुख़्ता इरादा कर ले कि आठ फ़र्सख़ मज़ीद सफ़र करेगा या ऐसी जगह जाए कि जहां तक जाना और आना आठ फ़र्सख़ हो ख़्वाह उसी दिन या उसी रात वहां से वापस आए या न आए और वहां दस दिन से कम ठहरने का इरादा हो तो ज़रूरी है कि सफ़र के ख़ातिमे तक नमाज़ क़स्र पढ़े।

1301. अगर कोई शख़्स आठ फ़र्सख़ का फ़ासिला तय करने से पहले मुतरद्दिद हो जाए कि बाक़ी रास्ता तय करे या नहीं और हालते तरद्दुद में कुछ फ़ासिला तय कर ले और बाद में पुख़्ता इरादा कर ले कि बाक़ी रास्ता भी तय करेगा चुनांचे उसका बाक़ी सफ़र आठ फ़र्सख़ से कम हो तो पूरी नमाज पढ़ना ज़रूरी है। लेकिन उस सूरत में जबकि तरद्दुद से पहले की तय कर्दा मसाफ़त और तरद्दुद के बाद की तय कर्दा मसाफ़त मिलाकर आठ फ़र्सख़ हो तो अज़्हर यह है कि नमाज़ क़स्र पढ़े।

(चौथी शर्त)

मुसाफ़िर आठ फ़र्सख़ तक पहुंचने से पहले अपने वतन से गुज़रने और वहां तवक़्क़ुफ़ करने या किसी जगह दस दिन या उससे ज़्यादा दिन रहने का इरादा न रखता हो। पस जो शख़्स यह चाहता हो कि आठ फ़र्सख़ पहुंचने से पहले अपने वतन से गुज़रे और वहां तवक़्क़ुफ़ करे या दस दिन किसी जगह पर रहे तो ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े।

1302. जिस शख़्स को यह इल्म न हो कि आठ फ़र्सख़ तक पहुंचने से पहले अपने वतन से गुज़रेगा या तवक़्क़ुफ़ करेगा या नहीं या किसी जगह दस दिन ठहरने का क़स्द करेगा या नहीं तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1303. वह शख़्स जो आठ फ़र्सख़ तक पहुंचने से पहले अपने वतन से गुज़रना चाहता हो ताकि वहां तवक़्क़ुफ़ करे या किसी जगह दस दिन रहना चाहता हो और वह शख़्स भी जो वतन से गुज़रने या किसी जगह दस दिन रहने के बारे में मुतरद्दिद हो अगर वह दस दिन कहीं रहने या वतन से गुज़रने का इरादा तर्क भी कर दे तब भी ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े लेकिन अगर बाक़ी मांदा और वापसी का रास्ता मिलाकर आठ फ़र्सख़ हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र करके पढ़े।

(पांचवीं शर्त)

मुसाफ़िर हराम काम के लिये सफ़र न करे और अगर हराम काम मसलन चोरी करने के लिये सफ़र करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े। और अगर ख़ुद सफ़र ही हराम हो जिसकी जानिब पेशक़दमी शरअन हराम हो या औरत शौहर की इजाज़त के बग़ैर ऐसे सफ़र पर जाए जो उस पर वाजिब न हो तो उसके लिये भी यही हुक्म है। लेकिन अगर सफ़रे हज के सफ़र की तरह वाजिब हो तो नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है।

1304. जो सफ़र वाजिब न हो अगर मां बाप की औलाद से मौहब्बत की वजह से उनके लिये अज़ीयत का बाइस हो तो हराम है और ज़रूरी है कि इंसान इस सफ़र में पूरी नमाज़ पढ़े और (रमज़ान का महीना हो तो) रोज़ा भी रखे।

1305. जिस शख़्स का सफ़र हराम न हो और वह किसी हराम काम के लिये भी सफ़र न कर रहा हो वह अगरचे सफ़र में गुनाह भी करे मसलन ग़ीबत करे या शराब पिये तब भी ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र करके पढ़े।

1306. अगर कोई शख़्स किसी वाजिब काम को तर्क करने के लिये सफ़र करे तो ख़्वाह सफ़र में उसकी कोई दूसरी ग़रज़ हो या न हो उसे पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिये। पस जो शख़्स मक़रूज़ हो और अपना क़र्ज़ चुका सकता हो और क़र्ज़ ख़्वाह मुतालबा भी करे तो अगर वह सफ़र करते हुए अपना क़र्ज़ अदा न कर सके और क़र्ज़ चुकाने से फ़रार हासिल करने के लिये सफ़र करे तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर उसका सफ़र किसी और काम के लिये हो तो अगरचे वह सफ़र में तर्के वाजिब का मुर्तकिब भी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1307. अगर किसी शख़्स का, सफ़र में सवारी का जानवर का, या सवारी की कोई और चीज़ जिस पर वह सवार हो ग़स्बी हो या अपने मालिक से फ़रार होने के लिये सफ़र कर रहा हो या वह ग़स्बी ज़मीन पर सफ़र कर रहा हो तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1308. जो शख़्स किसी ज़ालिम के साथ सफ़र कर रहा हो अगर वह मजबूर न हो और उसका सफ़र करना ज़ालिम के ज़ुल्म करने मे मदद का मूजिब हो तो उसे पूरी नमाज़ पढ़नी ज़रूरी है और अगर मजबूर हो या मिसाल के तौर पर किसी मज़लूम को छुड़ाने के लिये उस ज़ालिम के साथ सफ़र करे तो उसकी नमाज़ क़स्र होगी।

1309. अगर कोई शख़्स सैर व तफ़रीह (यानी पिकनिक) की ग़रज़ से सफ़र करे तो उसका सफ़र हराम नहीं है और ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1310. अगर कोई शख़्स मौज मेले और सैर व तफ़रीह कि लिये शिकार को जाए तो उसकी नमाज़ जाते वक़्त पूरी है और वापसी पर अगर मसाफ़त की हद पूरी हो तो क़स्र है उस सूरत में कि उसकी हदे मसाफ़त पूरी हो और शिकार पर जाने की मानिन्द न हो लिहाज़ा अगर हुसूले मआश के लिये शिकार को जाए तो उसकी नमाज़ क़स्र है। और अगर कमाई और अफ़्ज़ाइशे दौलत के लिये जाए तो उसकी लिये भी यही हुक्म है अगरचे उस सूरत में एहतियात यह है कि नमाज़ क़स्र करके भी पढ़े और पूरी भी पढ़े।

1311. अगर कोई शख़्स गुनाह का काम करने के लिये सफ़र करे और सफ़र से वापसी के वक़्त फ़क़त उसकी वापसी का सफ़र आठ फ़र्सख़ हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र करके पढ़े और एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर उसने तौबा न कि हो तो नमाज़ क़स्र कर के भी पढ़े और पूरी भी पढ़े।

1312. जिस शख़्स का सफ़र गुनाह का सफ़र हो अगर वह सफ़र के दौरान गुनाह का इरादा तर्क कर दे ख़्वाह बाक़ी मांदा मसाफ़त या किसी जगह जाना और वापस आना आठ फ़र्सख़ हो या न हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र करके पढ़े।

1313. जिस शख़्स ने गुनाह करने की ग़रज़ से गुनाह न किया हो अगर वह रास्ते में तय करे कि बक़ीया रास्ता गुनाह के लिये तय करेगा तो उसे चाहिये की नमाज़ पूरी पढ़े अलबत्ता उसने जो नमाज़े क़स्र कर के पढ़ी हो वह सहीह हैं।

(छठी शर्त)

उन लोगों में से न हो जिनके क़ियाम की कोई (मुस्तक़िल) जगह नहीं होती और उनके घर उनके साथ होते हैं। यानी उन सहरा नशीनों (खानाबदोशों) की मानिन्द जो बियाबानों में घूमते रहते हैं और जहां कहीं अपने लिये और अपने मवेशियों के लिये दाना पानी देखते हैं वहीं डेरा डाल देते हैं और फिर कुछ दिनों के बाद दूसरी जगह चले जाते हैं। पस ज़रूरी है कि ऐसे लोग सफ़र में पूरी नमाज़ पढ़ें।

1314. अगर कोई सहरा नशीन मसलन जाए क़ियाम और अपने हैवानात के लिये चरागाह तलाश करने के लिये सफ़र करे और माल व असबाब उसके हमराह हो तो वह पूरी नमाज़ पढ़े वर्ना अगर उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ हो तो नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1315. अगर कोई सहरा नशीन हज, ज़ियारत, तिजारत या इनसे मिलते जुलते किसी मक़्सद से सफ़र करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

(सातवीं शर्त)

उस शख़्स का पेशा सफ़र न हो। पस जिस शख़्स का पेशा सफ़र हो यानी या तो उसका काम ही फ़क़त सफ़र करना हो इस हद तक कि लोग उसे कसीरुस्सफ़र कहें या उसने जो पेशा अपने लिये इख़्तियार किया हो उसका इनहिसार सफ़र करने पर हो मसलन सारबान, ड्राइवर, गल्लाबान और मल्लाह। इस क़िस्म के अफ़राद अगरचे अपने ज़ाती मक़्सद मसलन घर का सामान ले जाने या अपने घर वालों को मुन्तक़िल करने के लिये सफ़र करें तो ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़ें और जिस शख़्स का पेशा सफ़र हो इस मस्अले में उस शख़्स के लिये भी यही हुक्म है जो किसी दूसरी जगह पर काम करता हो (या उसकी पोस्टिंग दूसरी जगह पर हो) और वह हर रोज़ या दो दिन में एक मर्तबा वहां तक का सफ़र करता हो और लौट आता हो। मसलन वह शख़्स जिसकी रहाइश एक जगह हो और काम मसलन तिजारत, मुअल्लिमी वग़ैरा दूसरी जगह हो।

1316. जिस शख़्स के पेशे का तअल्लुक़ सफ़र से हो अगर वह किसी दूसरे मक़्सद मसलन हज या ज़ियारत के लिये सफ़र करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े लेकिन अगर उर्फ़े आम में कसीरुस्सफ़र कहलाता हो तो क़स्र न करे। लेकिन अगर मिसाल के तौर पर ड्राइवर अपनी गाड़ी ज़ियारत के लिये किराए पर चलाए और ज़िम्नन ख़ुद भी ज़्यारत करे तो हर हाल में ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1317. वह बार बरदार जो हाजियों को मक्का पहुंचाने के लिये सफ़र करता हो अगर उसका पेशा सफ़र करना हो तो जरूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े और अगर उसका पेशा सफ़र करना न हो और सिर्फ़ हज के दिनों में बार बरदारी के लिये सफ़र करता हो तो उसके लिये एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ पूरी भी पढ़े और क़स्र करके भी पढ़े। लेकिन अगर सफ़र की मुद्दत कम हो मसलन दो - तीन हफ़्ते तो बईद नहीं है कि उसके लिये नमाज़ क़स्र करके पढ़ने का हुक्म हो।

1318. जिस शख़्स का पेशा बार बरदारी हो और वह दूर दराज़ मक़ामात से हाजियों को मक्का ले जाता हो अगर वह साल का काफ़ी हिस्सा सफ़र में रहता हो तो उसे पूरी नमाज़ पढ़नी ज़रूरी है।

1319. जिस शख़्स का पेशा साल के कुछ हिस्सें में सफ़र करना हो मसलन एक ड्राइवर जो सिर्फ़ गर्मियों या सर्दियों के दिनों में अपनी गाड़ी किराए पर चलाता हो ज़रूरी है कि उस सफ़र में नमाज़ पूरी पढ़े और एहतियाते मुस्तहब यह है कि क़स्र करके भी पढ़े और पूरी भी पढ़े।

1320. ड्राइवर और फेरी वाला जो शहर के आसपास दो तीन फ़र्सख़ में आता जाता हो अगर वह इत्तिफ़ाक़न आठ फर्सख़ के सफ़र पर चला जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1321. जिसका पेशा मुसाफ़िरत है अगर दस दिन या उससे ज़्यादा अर्सा अपने वतन में रह जाए तो ख़्वाह वह इब्तिदा से दस दिन रहने का इरादा रखता हो या बग़ैर इरादे के इतने दिन रहे तो ज़रूरी है कि दस दिन के बाद जब पहले सफ़र पर जाए तो नमाज़ पूरी पढ़े और अगर अपने वतन के अलावा किसी दूसरी जगह रहने का क़स्द करके या बग़ैर क़स्द के दस दिन वहां मुक़ीम रहे तो उसके लिये भी यही हुक्म है।

1322. चारवादार (वह सौदागर जो चौपाये पर सौदा लाद कर बेचता है) जिसका पेशा सफ़र करना हो अगर वह अपने वतन या वतन के अलावा किसी और जगह क़स्द कर के या बग़ैर क़स्द के दस दिन रहे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दस दिन के बाद जब वह पहला सफ़र करे तो नमाज़े मुकम्मल और क़स्र दोनों पढ़े।

1323. चारवादार और सारबान की तरह जिनका पेशा सफ़र करना है अगर मअमूल से ज़्यादा सफ़र उनकी मशक़्क़त और थकावट का सबब हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र करे।

1324. सैलानी की जो शहर ब शहर सियाहत करता हो और जिसने अपने लिये कोई वतन मुअय्यन न किया हो वह पूरी नमाज़ पढ़े।

1325. जिस शख़्स का पेशा सफ़र करना न हो अगर मसलन किसी शहर या गांव में उसका कोई सामान हो और वह उसे लेने के लिये सफ़र पर सफ़र करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। मगर यह कि उसका सफ़र इस क़दर ज़्यादा हो कि उसे उर्फ़न कसीरुस्सफ़र कहा जाए।

1326. जो शख़्स तर्के वतन कर के दूसरा वतन अपनाना चाहता हो अगर उसका पेशा सफ़र न हो तो सफ़र की हालत में उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है।

(आठवीं शर्त)

मुसाफ़िर हद्दे तरख़्खुस तक पहुंच जाए लेकिन वतन के अलावा हद्दे तरख़्ख़ुस मोअतबर नहीं है और जूं ही कोई शख़्स अपनी इक़ामतगाह से निकले उसकी नमाज़ क़स्र है।

1327. हद्दे तरख़्ख़ुस वह जगह है जहां से अहले शहर मुसाफ़िर को न देख सकें और उसकी अलामत यह है कि वह अहले शहर को न देख सके।

1328. जो मुसाफ़िर अपने वतन वापस आ रहा हो जब तक वह अपने वतन वापस न पहुंचे क़स्र नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है और ऐसे ही जो मुसाफ़िर वतन के अलावा किसी और जगह दस दिन ठहरना चाहते हों वह जब तक उस जगह न पहुंचे उसकी नमाज़ क़स्र है।

1329. अगर शहर इतनी बलन्दी पर वाक़े हो कि वहां के बाशिन्दे दूर से दिखाई दें या इस क़दर नशेब में वाक़े हो कि अगर इंसान थोड़ा सा दूर भी जाए तो वहां के बाशिन्दों को न देख सके तो उसके शहर के रहने वालों में से जो शख़्स सफ़र में हो जब वह इतना दूर चला जाए कि अगर वह शहर हमवार ज़मीन पर होता तो वहां के बाशिन्दे उस जगह से देखे न जा सकते तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े और इसी तरह अगर रास्ते की बलन्दी या पस्ती मअमूल से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि मअमूल का लिहाज़ रखे।

1330. अगर कोई शख़्स ऐसी जगह से सफ़र करे जहां कोई रहता न हो तो जब वह ऐसी जगह पहुंचे कि अगर कोई उस मक़ाम (यानी सफ़र शूरू करने के मक़ाम) पर रहता हो तो वहां से नज़र न आता तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1331. कोई शख़्स कश्ती या रेल में बैठे और हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुंचने से पहले पूरी नमाज़ की नीयत से नमाज़ पढ़ने लगे तो अगर तीसरी रक्अत के रूकू से पहले हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुंच जाए तो क़स्र नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।

1332. जो सूरत पीछले मसअले में गुज़र चुकी है उसके मुताबिक़ अगर तीसरी रक्अत के रूकू के बाद हद्दे तरख़्खुस तक पहुंचे चो उस नमाज़ को तोड़ सकता है और ज़रूरी है कि उसे क़स्र कर के पढ़े।

1333. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो जाए कि वह हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुंच चुका है और नमाज़ क़स्र कर के पढ़े और उसके बाद मालूम हो कि नमाज़ के वक़्त हद्दे तरख़्ख़ुस तक नहीं पहुंचा था तो नमाज़ दोबारा पढ़ना ज़रूरी है। चुनांचे जब तक हद्दे तरख़्ख़ुस तक न पहुंचा हो तो नमाज़ पूरी पढ़ना ज़रूरी है। और उस सूरत में जबकि हद्दे तरख़्ख़ुस से गुज़र चुका हो नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। और अगर वक़्त निकल चुका हो तो नमाज़ को उसके फ़ौत होते वक़्त जो हुक्म था उसके मुताबिक़ अदा करे।

1334. अगर मुसाफ़िर की क़ुव्वते बासिरा ग़ैर मअमूली हो तो उसे उस मक़ाम पर पहुंच कर नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है जहां से मुतवस्सित क़ुव्वत की आंख अहले शहर को न देख सके।

1335. अगर मुसाफ़िर को सफ़र के दौरान किसी मक़ाम पर शक हो कि हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुंचा है या नहीं तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े।

1336. जो मुसाफ़िर सफ़र के दौरान अपने वतन से गुज़र रहा हो अगर वहां तवक़्क़ुफ़ करे तो ज़रूरी है कि वहां क़स्र और पूरी नमाज़ दोनों पढ़े।

1337. जो मुसाफ़िर अपनी मुसाफ़िरत के दौरान अपने वतन पहुंच जाए और वहां कुछ देर ठहरे तो ज़रूरी है कि जब तक वहां रहे पूरी नमाज़ पढ़े लेकिन अगर वह चाहे कि वहां से आठ फ़र्सख़ के फ़ासिले पर चला जाए या मसलन चार फ़र्सख़ जाए और फ़िर चार फ़र्सख़ तय कर के लौटे तो जिस वक़्त वह हद्दे तरख़्ख़ुस पर पहुंचे ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1338. जिस जगह को इंसान ने अपनी मुस्तक़िल सुकूनत और बूदोबाश के लिये मुन्तख़ब किया हो वह उसका वतन है ख़्वाह वह वहां पैदा हुआ हो और वह उसका आबाई वतन हो या उसने ख़ुद उस जगह को ज़िन्दगी बसर करने के लिये इख़्तियार किया हो।

1339. अगर कोई शख़्स इरादा रखता हो कि थोड़ी सी मुद्दत एक ऐसी जगह रहे जो उसका वतन नहीं है और बाद में किसी और जगह चला जाए तो वह उसका वतन तसव्वुर नहीं होता।

1340. अगर किसी जगह को ज़िन्दगी गुज़ारने के लिये इख़्तियार करे अगरचे वह हमेशा रहने का क़स्द न रखता हो ताहम ऐसा हो कि उर्फ़े आम में उसे वहां मुसाफ़िर न कहे और अगरचे वक़्ती तौर पर दस दिन या दस दिन से ज़्यादा दूसरी जगह रहे इसके बावजूद पहली जगह ही को उसकी ज़िन्दगी ग़ुजारने की जगह कहेंगे और वही जगह उसके वतन का हुक्म रखती है।

1341. जो शख़्स दो मक़ामात पर ज़िन्दगी गुज़ारता हो मसलन छः महीने एक शहर में और छः महीने दूसरे शहर में रहता हो तो दोनों मक़ामात उसका वतन हैं। नीज़ अगर उसने दो मक़ामात से ज़्यादा मक़ामात को ज़िन्दगी बसर करने के लिये इख़्तियार कर रखा हो तो वह सब उसका वतन शुमार होते हैं।

1342. बाज़ फ़ुक़्हा ने कहा है कि जो शख़्स किसी एक जगह सुकूनती मकान का मालिक हो अगर वह मुसलसल छः महीने वहां रहे तो जिस वक़्त तक मकान उसकी मिल्कियत में है यह जगह उसके वतन का हुक्म रकती है। पस जब भी वह सफ़र के दौरान वहां पहुंचे ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े अगरचे यह हुक्म साबित नहीं है।

1343. अगर एक शख़्स किसी ऐसे मक़ाम पर पहुंचे जो किसी ज़माने में उसका वतन रहा हो और बाद में उसने उसे तर्क कर दिया हो तो ख़्वाह उसने कोई नया वतन अपने लिये मुन्तख़ब न भी किया हो ज़रूरी है कि वहां पूरी नमाज़ पढ़े।

1344. अगर किसी मुसाफ़िर का किसी जगह पर मुसलसल दस दिन रहने का इरादा हो या वह जानता हो कि ब अमरे मजबूरी दस दिन तक एक जगह रहना पड़ेगा तो वहां उसे पूरी नमाज़ पढ़नी ज़रूरी है।

1345. अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन रहना चाहता हो तो ज़रूरी नहीं कि उसका इरादा पहली रात या ग्यारहवीं रात वहां रहने का हो जूंही वह इरादा करे कि पहले दिन के तुलूए आफ़ताब से दसवें दिन के ग़ुरूबे आफ़ताब तक वहां रहेगा, ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े और मिसाल के तौर पर उसका इरादा पहले दिन ज़ोहर से ग्यारहवें दिन की ज़ोहर तक वहां रहने का हो तो उसके लिये भी यही हुक्म है।

1346. जो मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन रहना चाहता हो उसे उस सूरत में पूरी नमाज़ पढ़नी ज़रूरी है जब वह सारे के सारे दिन एक जगह रहना चाहता हो। पस अगर वह मिसाल के तौर पर चाहे के दस दिन नजफ़ और कूफ़ा या तेहरान और शमेरान (या कराची और घारू) में रहे तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1347. जो मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन रहना चाहता हो अगर वह शूरू से ही क़स्द रखता हो कि उन दस दिनों के दरमियान उस जगह के आसपास ऐसे मक़ामात पर जायेगा जो हद्दे तरख़्ख़ुस तक या उससे ज़्यादा दूर हों तो अगर उसके जाने और आने की मुद्दत उर्फ़ में दस दिन क़ियाम के मनाफ़ी न हो तो पूरी नमाज़ पढ़े और अगर मनाफ़ी हो तो नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। मसलन अगर इब्तिदा ही से इरादा हो कि एक दिन या एक रात के लिये वहां से निकलेगा तो यह ठहरने के क़स्द के मनाफ़ी है और ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े। लेकिन अगर उसका क़स्द यह हो कि मसलन आधे दिन बाद निकलेगा और फिर लौटेगा अगरचे उसकी वापसी रात होने के बाद हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े। मगर उस सूरत में कि उसके बार बार निकलने की वजह से उर्फ़न यह कहा जाए कि दो या उससे ज़्यादा जगह क़ियाम पज़ीन है (तो नमाज़ क़स्र पढ़े)।

1348. अगर किसी मुसाफ़िर का किसी जगह दस दिन रहने का मुसम्मम इरादा न हो मसलन उसका इरादा यह हो कि अगर उसका साथी आ गया या रहने को अच्छा मकान मिल गया तो दस दिन वहां रहेगा तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1349. जब कोई शख़्स किसी जगह दस दिन रहने का मुसम्मम इरादा रखता हो अगर उसे इस बात का एहतिमाल हो कि उसके वहां रहने में कोई रुकावट पैदा होगी और उसका यह एहतिमाल उक़ला के नज़दीक मअक़ूल हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1350. अगर मुसाफ़िर को इल्म हो कि महीना ख़त्म होने में मसलन दस या दस दिन से ज़्यादा दिन बाक़ी है और किसी जगह महीने के आख़िर तक रहने का इरादा करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े लेकिन अगर उसे इल्म न हो कि महीना ख़त्म होने में कितने दिन बाक़ी हैं और महीने के आख़िर तक वहां रहने का इरादा करे तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े अगरचे जिस वक़्त उसने इरादा किया था उस वक़्त से महीने के आख़िरी दिन तक दस या उस से ज़्यादा दिन बनते हों।

1351. अगर मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन रहने का इरादा करे और एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ने से पहले वहां रहने का इरादा तर्क कर दे या मुज़बज़ब हो कि वहां रहे या कहीं और चला जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ क़स्र कर के पढ़े लेकिन अगर चार रक्अती नमाज़ पढ़ने के बाद वहां रहने का इरादा तर्क कर दे या मुज़बज़ब हो जाए तो ज़रूरी है कि जिस वक़्त तक वहां रहे नमाज़ पूरी पढ़े।

1352. अगर कोई मुसाफ़िर जिसने एक जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो रोज़ा रख ले और ज़ोहर के बाद वहां रहने का इरादा तर्क कर दे जबकि उसने एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ ली हो तो जब तक वहां रहे उसके रोज़े दुरुस्त हैं और ज़रूरी है कि अपनी नमाज़ें पूरी पढ़े और अगर उसने चार रक्अती नमाज़ न पढ़ी हो तो एहतियातन उस दिन का रोज़ा पूरा करना नीज़ उसकी क़ज़ा रखना ज़रूरी है। और ज़रूरी है कि अपनी नमाज़ें क़स्र कर के पढ़े और बाद के दिनों में वह रोज़ा भी नहीं रख सकता।

1353. अगर कोई मुसाफ़िर जिसने एक जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो वहां रहने का इरादा तर्क कर दे और शक करे कि वहां रहने का इरादा तर्क करने से पहले एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ी थी या नहीं तो ज़रूरी है कि अपनी नमाज़ें क़स्र कर के पढ़े।

1354. अगर कोई मुसाफ़िर नमाज़ को क़स्र करके पढ़ने की नीयत से नमाज़ में मश्ग़ूल हो जाए और नमाज़ के दौरान मुसम्मम इरादा कर ले कि दस या उससे ज़्यादा दिन वहां रहेगा तो ज़रूरी है कि नमाज़ को चार रक्अती पढ़ कर ख़त्म करे।

1355. अगर कोई मुसाफ़िर जिसने एक जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो पहली चार रक्अती नमाज़ के दौरान अपने इरादे से बाज़ आ जाए और अभी तीसरी रक्अत में मशग़ूल न हुआ हो तो ज़रूरी है कि दो रक्अती पढ़ कर ख़त्म करे और अपनी बाक़ी नमाज़ें, क़स्र करके पढ़े और इसी तरह अगर तीसरी रक्अत में मशग़ूल हो गया हो और रूकू में न गया हो तो ज़रूरी है कि बैठ जाए और नमाज़ को बसूरते क़स्र ख़त्म करे और अगर रूकू में चला गया हो तो अपनी नमाज़ तोड़ सकता है और ज़रूरी है कि उस नमाज़ को दोबारा क़स्र कर के पढ़े और जब तक वहां रहे नमाज़ क़स्र कर के पढ़े।

1356. जिस मुसाफ़िर ने दस दिन किसी जगह रहने का इरादा किया हो अगर वहां दस दिन से ज़्यादा रहे तो जब तक वहां से सफ़र न करे ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े और यह ज़रूरी नहीं कि दोबारा दस दिन रहने का इरादा करे।

1357. जिस मुसाफ़िर ने किसी जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो ज़रूरी है कि वाजिब रोज़े रखे और मुस्तहब रोज़ा भी रख सकता है और ज़ोहर, अस्र और इशा की नफ़्लें भी पढ़ सकता है। 1358. अगर एक मुसाफ़िर जिसने किसी जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ने के बाद या वहां दस दिन रहने के बाद अगरचे उसने एक भी पूरी नमाज़ न पढ़ी हो यह चाहे कि एक ऐसी जगह जाए जो चार फ़र्सख़ से कम फ़ासिले पर हो और फिर लौट आए और अपनी पहली जगह पर दस दिन या उससे कम मुद्दत के लिये जाए तो ज़रूरी है कि जाने के वक़्त से वापसी तक और वापसी के बाद अपनी नमाज़े पूरी पढ़े। लेकिन अगर उसका अपनी इक़ामत के मक़ाम पर वापस आना फ़क़त इस वजह से हो कि वह उसके सफ़र के रास्ते में वाक़े हो और उसका सफ़र शरई मसाफ़त (यानी आठ फ़र्सख़) का हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि जाने और आने के दौरान और ठहरने की जगह में नमाज़ क़स्र करके पढ़े। 1359. अगर कोई मुसाफ़िर जिसने किसी जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ने के बाद चाहे कि किसी और जगह चला जाए जिसका फ़ासिला आठ फ़र्सख़ से कम हो और दस दिन वहां रहे तो ज़रूरी है कि रवानगी के वक़्त और उस जगह जहां पर वह दस दिन रहने का इरादा रखता हो अपनी नमाज़ें पूरी पढ़े लेकिन अगर वह जगह जहां पर वह जाना चाहता हो आठ फ़र्सख़ या उससे ज़्यादा दूर हो तो ज़रूरी है कि रवानगी के वक़्त अपनी नमाज़े क़स्र कर के पढ़े और अगर वहां दस दिन न रहना चाहता हो तो ज़रूरी है कि जितने दिन वहां रहे उन दिनों की नमाज़े भी क़स्र कर के पढ़े।

1360. अगर कोई मुसाफ़िर जिसने किसी जगह दस दिन रहने का इरादा किया हो एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ने के बाद किसी ऐसी जगह जाना चाहे जिसका फ़ासिला चार फ़र्सख़ से कम हो और मुज़ब्ज़ब् हो कि अपनी पहली जगह पर वापस आए या नहीं या उस जगह वापस आने से बिल्कुल ग़ाफ़िल हो या यह चाहे कि वापस हो जाए लेकिन मुज़ब्ज़ब् हो कि दस दिन उस जगह ठहरे या नहीं या वहां दस दिन रहने या वहां से सफ़र करने से ग़ाफ़िल हो जाए तो ज़रूरी है कि जाने के वक़्त से वापसी तक और वापसी के बाद अपनी नमाज़ें पूरी पढ़े।

1361. अगर कोई मुसाफ़िर इस ख़्याल से कि उसके साथी किसी जगह दस दिन रहना चाहते हैं उस जगह दस दिन रहने का इरादा करे और एक चार रक्अती नमाज़ पढ़ने के बाद उसे पता चले कि उसके साथियों ने ऐसा कोई इरादा नहीं किया था तो अगरचे वह ख़ुद भी वहां रहने का ख़्याल तर्क कर दे ज़रूरी है कि जब तक वहां रहे नमाज़ पूरी पढ़े।

1362. अगर कोई मुसाफ़िर इत्तिफ़ाक़न किसी जगह तीस दिन रह जाए मसलन तीस के तीस दिनों में वहां से चले जाने या वहां रहने के बारे में मुज़बज़ब रहा हो तो तीस दिन गुज़रने के बाद अगरचे वह थोड़ी मुद्दत ही वहां रहे ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े।

1363. जो मुसाफ़िर नौ दिन या उससे कम मुद्दत के लिये एक जगह रहना चाहता हो अगर वह उस जगह नौ दिन या उससे कम मुद्दत गुज़ारने के बाद नौ दिन या उससे कम मुद्दत के लिये दोबारा वहां रहने का इरादा करे और इसी तरह तीस दिन गुज़र जायें तो ज़रूरी है कि एक्तीसवें दिन पूरी नमाज़ पढ़े।

1364. तीस दिन गुज़रने के बाद मुसाफ़िर को उस सूरत में नमाज़ पूरी पढ़नी ज़रूरी है जब वह तीस दिन एक ही जगह रहा हो पस अगर उसने उस मुद्दत का कुछ हिस्सा एक जगह और कुछ हिस्सा दूसरी जगह गुज़ारा हो तीस दिन के बाद भी उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है।