तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मुतफ़र्रिक़ मसाइल

1365. मुसाफ़िर मस्जिदुल हराम, मस्जिदे नबवी और मस्जिदे कूफ़ा में बल्कि मक्का ए मुकर्रिमा, मदीना ए मुनव्वरा और कूफ़े के पूरे शहरों में अपनी नमाज़ पूरी पढ़ सकता है नीज़ हज़रते सैयिदुश्शुहदा (अ0) के हरम में भी क़ब्रे मुतह्हर से पच्चीस गज़ के फ़ासिले तक मुसाफ़िर अपनी पूरी नमाज़ पढ़ सकता है।

1366. अगर कोई ऐसा शख़्स जिसे मालूम हो कि वह मुसाफ़िर है और उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है। उन चार जगहों के अलावा जिनका ज़िक्र साबिक़ा मस्अले में किया गया है किसी और जगह जान बूझकर पूरी नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर भूल जाए कि मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी चाहिये और पूरी नमाज़ पढ़ ले तो उसके लिये भी यही हुक्म है लेकिन भूल जाने की सूरत में अगर उसे नमाज़ के वक़्त के बाद यह बात याद आए तो उस नमाज़ का क़ज़ा करना ज़रूरी नहीं।

1367. जो शख़्स जानता हो कि वह मुसाफ़िर है और उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है अगर वह पूरी नमाज़ पढ़े और अभी नमाज का वक्त बाकी हो तो उसे नमाज दुबारा पढ़नी होगी औप अगर नमाज का वक्त खत्म हो चुका है तो अहतियात की बिना पर उसे उस नमाज की कज़ा करनी पढ़ेगी।

1368. जो मुसाफ़िर यह न जानता हो कि उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है अगर वह पूरी नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1369. जो मुसाफ़िर जानता हो कि उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी चाहिये अगर वह क़स्र नमाज़ के वअज़ ख़ुसूसीयात से नावाक़िफ़ हो मसलन यह न जानता हो कि आठ फ़र्सख़ के सफ़र में नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है तो अगर वह पूरी नमाज़ पढ़ ले और नमाज़ के वक़्त में इस मस्अले का पता चल जाए तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़े और अगर दोबारा न पढ़े तो उसकी क़ज़ा करे लेकिन अगर नमाज़ का वक़्त गुज़रने के बाद उसे (हुक्मे मस्अला) मालूम हो तो उस नमाज़ की क़ज़ा नहीं है।

1370. अगर एक मुसाफ़िर जानता हो कि उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी चाहिये और वह इस गुमान में पूरी नमाज़ पढ़ ले कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ से कम है तो जब उसे पता चले कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ का था तो ज़रूरी है कि जो नमाज़ पूरी पढ़ी हो उसे दोबारा क़स्र कर के पढ़े और अगर उसे इस बात का पता नमाज़ का वक़्त गुज़र जाने के बाद चले तो क़ज़ा ज़रूरी नहीं।

1371. अगर कोई शख़्स भूल जाए कि वह मुसाफ़िर है और पूरी नमाज़ पढ़ ले और उसे नमाज़ के वक़्त के अन्दर ही याद आ जाए तो उसे चाहिये कि क़स्र कर के पढ़े और अगर नमाज़ के वक़्त के बाद याद आए तो उस नमाज़ की क़ज़ा उस पर वाजिब नहीं।

1372. जिस शख़्स को पूरी नमाज़ पढ़नी ज़रूरी है अगर वह उसे क़स्र कर के पढ़े तो उसकी नमाज़ हर सूरत में बातिल है अगरचे एहतियात की बिना पर ऐसा मुसाफ़िर हो जो किसी जगह दस दिन रहने का इरादा रखता हो और मस्अले का हुक्म न जानने की वजह से नमाज़ क़स्र कर के पढ़ी हो।

1373. अगर एक शख़्स चार रक्अती नमाज़ पढ़ रहा हो और नमाज़ के दौरान उसे याद आए कि वह तो मुसाफ़िर है या इस अम्र की तरफ़ मुतवज्जह हो कि उसका सफ़र आठ फ़र्सख़ है और वह अभी तीसरी रक्अत के रूकू में न गया हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को दो रक्अतों पर ही तमाम कर दे और अगर तीसरी रक्अत के रूकू में जा चुका हो तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है और अगर उसके पास एक रक्अत पढ़ने के लिये भी वक़्त बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को नए सिरे से क़स्र कर के पढ़े।

1374. अगर किसी मुसाफ़िर को नमाज़े मुसाफ़िर की बाज़ ख़ुसूसीयात का इल्म न हो मसलन वह यह जानता हो कि अगर चार फ़र्सख़ तक जाए और वापसी में चार फ़र्सख़ का फ़ासिला तय करे तो उसे नमाज़ क़स्र कर के पढ़नी ज़रूरी है और चार रक्अत वाली नमाज़ की नीयत से नमाज़ में मशग़ूल हो जाए और तीसरी रक्अत के रूकू से पहले मस्अला उसकी समझ में आ जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ को दो रक्अतों पर ही तमाम कर दे और अगर वह रूकू में इस अम्र की जानिब मुतवज्जह हो तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है और उस सूरत में अगर उसके पास एक रक्अत पढ़ने के लिये भी वक़्त बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को नए सिरे से क़स्र कर के पढ़े।

1375. जिस मुसाफ़िर को पूरी नमाज़ पढ़नी ज़रूरी हो अगर वह मस्अला न जानने की वजह से दो रक्अती नमाज़ की नीयत से पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान मस्अला उसकी समझ में आ जाए तो ज़रूरी है कि चार रक्अतें पढ़ कर नमाज़ को तमाम करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ ख़त्म होने के बाद दोबारा उस नमाज़ को चार रक्अती पढ़े।

1376. जिस मुसाफ़िर ने अभी नमाज़ न पढ़ी हो अगर वह नमाज़ का वक़्त ख़त्म होने से पहले अपने वतन पहुंच जाए या ऐसी जगह पहुंचे जहां दस दिन रहना चाहता हो तो ज़रूरी है कि पूरी नमाज़ पढ़े और जो शख़्स मुसाफ़िर न हो अगर उसने नमाज़ के अव्वले वक़्त में नमाज़ न पढ़ी हो और सफ़र इख़्तियार करे तो ज़रूरी है कि सफ़र में नमाज़ क़स्र करके पढ़े।

1377. जिस मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र कर के पढ़ना ज़रूरी हो अगर उसकी ज़ोहर या अस्र या इशा की नमाज़ क़ज़ा हो जाए तो अगरचे वह उसकी क़ज़ा उस वक़्त बजा लाए जब वह सफ़र में न हो ज़रूरी है कि उसकी दो रक्अती क़ज़ा करे। और अगर इन तीन नमाज़ों में से किसी ऐसे शख़्स की कोई नमाज़ क़ज़ा हो जाए जो मुसाफ़िर न हो तो ज़रूरी है कि चार रक्अती क़ज़ा बजा लाए अगरचे यह क़ज़ा उस वक़्त बजा लाए जब वह सफ़र में हो।

1378. मुस्तहब है कि मुसाफ़िर हर क़स्र नमाज़ के बाद तीस मर्तबा सुब्हानल्लाहे वलहम्दो लिल्लाहे व ला इलाहा इल्लल्लाहो वल्लाहो अकबर कहे और ज़ोहर, अस्र और इशा की तअक़ीबात के मुतअल्लिक़ बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है बल्कि बेहतर है कि मुसाफ़िर इन तीन नमाज़ों की तअक़ीब में यही ज़िक्र साठ मर्तबा पढ़े।

क़ज़ा नमाज़

1379. जिस शख़्स ने अपनी यौमिया नमाज़ें उनके वक़्त में न पढ़ी हों तो ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा बजा लाए अगरचे वह नमाज़ के तमाम वक़्त के दौरान सोया रहा हो या उसने मदहोशी की वजह से नमाज़ न पढ़ी हो और यही हुक्म है उस नमाज़ का जो मन्नत मानने की वजह से मोअय्यन वक़्त में उस पर वाजिब हो चुकी हो। लेकिन नमाज़े ईदे फ़ित्र और नमाज़े ईदे क़ुर्बान की क़ज़ा नहीं है। ऐसे ही जो नमाज़ किसी औरत ने हैज़ या निफ़ास की हालत में न पढ़ी हों उनकी क़ज़ा वाजिब नहीं ख़्वाह वह यौमिया नमाज़ें हो या कोई और हों।

1380. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के वक़्त के बाद पता चले कि जो नमाज़ उसने पढ़ी थी वह बातिल थी तो ज़रूरी है कि उस नमाज़ की क़ज़ा करे।

1381. जिस शख़्स पर किसी नमाज़ की क़ज़ा हो जाए ज़रूरी है कि उसकी क़ज़ा पढ़ने में कोताही न करे अलबत्ता उसका फ़ौरन पढ़ना वाजिब नहीं है।

1382. जिस शख़्स पर किसी नमाज़ की क़ज़ा (वाजिब) हो वह मुस्तहब नमाज़ पढ़ सकता है।

1383. अगर किसी शख़्स को एहतिमाल हो कि क़ज़ा नमाज़ उसके ज़िम्मे है या जो नमाज़ें पढ़ चुका है वह सहीह नहीं थीं तो मुस्तहब है कि एहतियातन उन नमाज़ों की क़ज़ा करे।

1384. यौमिया नमाज़ों की क़ज़ा में तरतीब लाज़िम नहीं है सिवाय उन नमाज़ों के जिनकी अदा में तरतीब है मसलन एक दिन की ज़ोहर व अस्र या मग़रिब व इशा। अगरचे दूसरी नमाज़ों में भी तरतीब का लिहाज़ रखना बेहतर है।

1385. अगर कोई शख़्स चाहे कि यौमिया नमाज़ों के अलावा चन्द नमाज़ों मसलन नमाज़े आयात की क़ज़ा करे या मिसाल के तौर पर चाहे कि किसी एक यौमिया नमाज़ की और चन्द ग़ैर यौमिया नमाज़ों की क़ज़ा कर तो उनका तरतीब के साथ क़ज़ा करना ज़रूरी नहीं है।

1386. अगर कोई शख़्स उन नमाज़ों की तरतीब भूल जाए जो उसने नहीं पढ़ीं तो बेहतर है कि उन्हें इस तरह पढ़े कि उसे यक़ीन हो जाए कि उसने वह उसी तरह तरतीब से पढ़ी हैं जिस तरतीब से वह क़ज़ा हुई थीं। मसलन अगर ज़ोहर की एक नमाज़ और मग़रिब की एक नमाज़ की क़ज़ा उस पर वाजिब हो और उसे यह मालूम न हो कि कौन सी पहले क़ज़ा हुई थी तो पहले एक नमाज़े मग़रिब और उसके बाद एक नमाज़ ज़ोहर और दोबारा नमाज़े मग़रिब पढ़े या पहले एक नमाज़े ज़ोहर और उसके बाद एक नमाज़े मग़रिब और फ़िर दोबारा एक नमाज़े ज़ोहर पढ़े ताकि उसे यक़ीन हो जाए कि जो नमाज़ भी पहले क़ज़ा हुई थी वह पहले ही पढ़ी गई है।

1387. अगर किसी शख़्स से एक दिन की नमाज़े ज़ोहर और किसी और दिन की नमाज़े अस्र या दो नमाज़े ज़ोहर या दो नमाज़े अस्र क़ज़ा हुई हों और उसे मालूम न हो कि कौन सी पहले क़ज़ा हुई है तो अगर दो नमाज़ें चार रक्अती इस नीयत से पढ़े कि उनमें से पहली नमाज़ पहले दिन की क़ज़ा है और दूसरी दूसरे दिन की क़ज़ा है तो तरतीब हासिल होने के लिये काफ़ी है।

1388. अगर किसी शख़्स की एक नमाज़े ज़ोहर और एक नमाज़े इशा या एक नमाज़े अस्र और एक नमाज़े इशा क़ज़ा हो जाए और उसे यह न मालूम हो कि कौन सी पहले क़ज़ा हुई है तो बेहतर है कि उन्हें इस तरह पढ़े कि उसे यक़ीन हो जाए कि उसने उसे तरतीब से पढ़ा है मसलन अगर उससे एक नमाज़े ज़ोहर और एक नमाज़े इशा क़ज़ा हुई हो और उसे यह इल्म न हो कि पहले कौन सी क़ज़ा हुई थी तो वह पहले एक नमाज़े ज़ोहर और उसके बाद एक नमाज़े इशा और फिर दोबारा एक नमाज़े ज़ोहर या पहले एक नमाज़े इशा उसके बाद एक नमाज़े ज़ोहर पढ़े या पहले एक नमाज़े इशा उसके बाद एक नमाज़े ज़ोहर और फिर दोबारा एक नमाज़े इशा पढ़े।

1389. अगर किसी शख़्स को मालूम हो कि उस ने एक चार रक्अती नमाज़ नहीं पढ़ी लेकिन यह इल्म न हो कि वह ज़ोहर की नमाज़ थी या इशा की तो अगर वह एक चार रक्अती नमाज़ की क़ज़ा की नीयत से पढ़े जो उसने नहीं पढ़ी तो काफ़ी है और उसे इख़्तियार है कि वह नमाज़ बलन्द आवाज़ से पढ़े या आहिस्ता पढ़े।

1390. अगर किसी शख़्स की मुसलसल पांच नमाज़ें क़ज़ा हो जायें और उसे यह मालूम न हो कि उनमें से पहली कौन सी थी तो अगर वह नौ नमाज़ें तरतीब से पढ़े मसलन नमाज़े सुब्हा से शूरू करे और ज़ोहर व अस्र और मग़रिब व इशा पढ़ने के बाद दोबारा नमाज़े सुब्हा और ज़ोहर व अस्र और मग़रिब पढ़े तो उसे तरतीब के बारे में यक़ीन हासिल हो जायेगा।

1391. जिस शख़्स को मालूम हो कि उसकी यौमिया नमाज़ों में से कोई न कोई एक न एक दिन की क़ज़ा हुई है लेकिन उनकी तरतीब न जानता हो तो बेहतर यह है कि पांच दिन रात की नमाज़ें पढ़े और अगर छः दिनों में से उसकी छः नमाज़ें क़ज़ा हुई हों तो छः दिन रात की नमाज़ें पढ़े और इसी तरह हर उस नमाज़ के लिये जिससे उसकी क़ज़ा नमाज़ों में इज़ाफ़ा हो। एक मज़ीद दिन रात की नमाज़े पढ़े ताकि उसे यक़ीन हो जाए कि उसने नमाज़ें तरतीब से पढ़ी हैं जिस तरतीब से क़ज़ा हुई थीं मसलन अगर सात दिन की सात नमाज़ें न पढ़ी हों तो सात दिन रात की नमाजों की क़ज़ा करे।

1392. मिसाल के तौर पर अगर किसी की चन्द सुब्ह की नमाज़ें या चन्द ज़ोहर की नमाज़ें क़ज़ा हो गई हों और उनकी तादाद न जानता हो या भूल गया हो मसलन यह न जानता हो कि वह तीन थीं, चार थीं या पांच तो अगर वह छोटे अदद के हिसाब से पढ़ ले तो काफ़ी है, लेकिन बेहतर यह है कि उतनी नमाज़ें पढ़े कि उसे यक़ीन हो जाए कि सारी क़ज़ा नमाज़ें पढ़ ली हैं मसलन अगर वह भूल गया हो कि उसकी कितनी नमाज़ें क़ज़ा हुई थीं और उसे यक़ीन हो कि दस से ज़्यादा थीं तो एहतियातन सुब्ह की दस नमाज़ें पढ़े।

1393. जिस शख़्स गुज़श्ता दिनों की फ़क़त नमाज़ क़ज़ा हुई हो उसके लिये बेहतर है कि अगर उस दिन की नमाज़ की फ़ज़ीलत का वक़्त ख़त्म न हुआ हो तो पहले क़ज़ा पढ़े और उसके बाद उस दिन की नमाज़ में मश्ग़ूल हो। और अगर उसकी गुज़श्ता दिनों की कोई नमाज़ क़ज़ा न हुई हो लेकिन उसी दिन की एक या एक से ज़्यादा नमाज़ें क़ज़ा हुई हों तो अगर उस दिन की नमाज़ की फ़ज़ीलत का वक़्त ख़त्म न हुआ हो तो बेहतर यह है कि उस दिन की क़ज़ा नमाज़ें अदा नमाज़ से पहले पढ़े।

1394. अगर किसी शख़्स को नमाज़ पढ़ते हुए याद आए कि किसी दिन की एक या ज़्यादा नमाज़ें उस से क़ज़ा हो गई हैं या गुज़श्ता दिनों की सिर्फ़ एक नमाज़ उसके ज़िममे है तो अगर वक़्त वसी हो और नीयत को क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ फेरना मुम्किन हो और उस दिन की नमाज़ की फ़ज़ीलत का वक़्त ख़त्म न हुआ हो तो बेहतर यह है कि क़ज़ा नमाज़ की नीयत करे। मसलन अगर ज़ोहर की नमाज़ में तीसरी रक्अत के रूकू से पहले उसे याद आए कि उस दिन की सुब्ह की नमाज़ क़ज़ा हुई है और अगर ज़ोहर की नमाज़ का वक़्त भी तंग न हो तो नीयत को सुब्ह की नमाज़ की तरफ़ फेर दे और नमाज़ को दो रक्अती तमाम करे और उसके बाद नमाज़े ज़ोहर पढ़े। हाँ अगर वक़्त तंग हो या नीयत को क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ न फेर सकता हो मसलन नमाज़े ज़ोहर की तीसरी रक्अत के रूकू में उसे याद आए कि उसने सुब्हा की नमाज़ नहीं पढ़ी तो चूंकि अगर वह सुब्ह की नमाज़ की नीयत करना चाहे तो एक रूकू जो कि रुक्न है ज़्यादा हो जाता है इस लिये नीयत को सुब्ह की क़ज़ा तरफ़ न फेरे।

1395. अगर गुज़श्ता दिनों की क़ज़ा नमाज़ें एक शख़्स के ज़िम्मे हों और दिन की (जब नमाज़ पढ़ रहा है) एक या एक से ज़्यादा नमाज़ें भी उससे क़ज़ा हो गई हों और उन सब नमाज़ों को पढ़ने के लिये उसके पास वक़्त न हो या वह उन सब को उसी दिन न पढ़ना चाहता हो तो मुस्तहब है कि उस दिन की क़ज़ा नमाज़ों को अदा नमाज़ से पहले पढ़े और बेहतर यह है कि साबिक़ा नमाज़ पढ़ने के बाद उन क़ज़ा नमाज़ों को जो उस दिन अदा नमाज़ से पहले पढ़ी हों दोबारा पढ़े।

1396. जब तक इंसान ज़िन्दा है ख़्वाह वह अपनी क़ज़ा नमाज़ें पढ़ने से क़ासिर ही क्यों न हो कोई दूसरा शख़्स उसकी क़ज़ा नमाज़ें नहीं पढ़ सकता ।

1397. क़ज़ा नमाज़ बा जमाअत भी पढ़ी जा सकती है ख़्वाह इमामे जमाअत की नमाज़ अदा हो या क़ज़ा हो और यह ज़रूरी नहीं कि दोनों एक ही नमाज़ पढ़ें मसलन अगर कोई शख़्स सुब्ह की क़ज़ा नमाज़ को इमाम की नमाज़े ज़ोहर या नमाज़े अस्र के साथ पढ़े तो कोई हरज नहीं है।

1398. मुस्तहब है कि समझदार बच्चे को (यानी उस बच्चे को जो बुरे भले की समझ रखता हो) नमाज़ पढ़ने और दूसरी इबादत बजा लाने की आदत डाली जाए बल्कि मुस्तहब है कि उसे क़ज़ा नमाज़े पढ़ने पर भी आमद किया जाए।

बाप की क़ज़ा नमाज़ें जो बड़े बेटे पर वाजिब हैं

1399. बाप ने अपनी कुछ नमाज़ें न पढ़ी हों और उनकी क़ज़ा पढ़ने पर क़ादिर हो तो अगर उसने अम्रे ख़ुदावन्दी की ना फ़रमानी करते हुए उनको तर्क न किया हो तो एहतियात की बिना पर उसके बड़े बेटे पर वाजिब है कि बाप के मरने के बाद उसकी क़ज़ा नमाज़ें पढ़े या किसी को उजरत देकर पढ़वाए और माँ की क़ज़ा नमाज़ें उस पर वाजिब नहीं अगरचे बेहतर है (कि माँ की क़ज़ा नमाज़ें भी पढ़े)।

1400. अगर बड़े बेटे को शक हो कि कोई क़ज़ा नमाज़ उसके बाप के ज़िम्मे थी या नहीं तो उस पर कुछ भी वाजिब नहीं।

1401. अगर बड़े बेटे को मालूम हो कि उसके बाप के ज़िम्मे क़ज़ा नमाज़ें थीं और शक हो कि उसने वह पढ़ी थी या नहीं तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा बजा लाए।

1402. अगर यह मालूम न हो कि बड़ा बेटा कौन सा है तो बाप की क़ज़ा किसी बेटे पर भी वाजिब नहीं है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि बेटे बाप की क़ज़ा नमाज़ आपस में तक़्सीम कर लें या उन्हें बजा लाने के लिये क़ुर्आ अन्दाज़ी कर लें।

1403. अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि उसकी क़ज़ा नमाज़ों के लिये किसी को अजीर बनाया जाए (यानी किसी से उजरत पर नमाज़ें पढ़वाई जायें) तो अगर अजीर उसकी नमाज़ें सहीह तौर पर पढ़ दे तो उसके बाद बड़े बेटे पर कुछ वाजिब नहीं है।

1404. अगर बड़ा बेटा अपनी माँ की क़ज़ा नमाज़ें पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि बलन्द आवाज़ से या आहिस्ता नमाज़ पढ़ने के बारे में अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल करे तो ज़रूरी है कि अपनी माँ की सुब्ह मग़रिब और इशा की क़ज़ा नमाज़ें बलन्द आवाज़ से पढ़े।

1405. जिस शख़्स के ज़िम्मे किसी नमाज़ की क़ज़ा हो अगर वह बाप और माँ की नमाज़ें भी क़ज़ा करना चाहे तो उनमें से जो भी पहले बजा लाए सहीह है।

1406. अगर बाप के मरने के वक़्त बड़ा बेटा नाबालिग़ या दिवाना हो तो उस पर वाजिब नहीं कि जब बालिग़ या आक़िल हो जाए तो बाप की क़ज़ा नमाज़ें पढ़े।

1407. अगर बड़ा बेटा बाप की क़ज़ा नमाज़ें पढ़ने से पहले मर जाए तो दूसरे बेटे पर कुछ भी वाजिब नहीं।

नमाज़े जमाअत

1408. वाजिब नमाज़ें ख़ुसूसन यौमिया नमाज़ें जमाअत के साथ पढ़ना मुस्तहब है और मस्जिद के पड़ोस में रहने वाले को और उस शख़्स को जो मस्जिद की अज़ान सुनता हो नमाज़े सुब्ह और मग़रिब व इशा जमाअत के साथ पढ़ने की बिलख़ुसूस बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है।

1409. मोअतबर रिवायत के मुताबिक़ बा जमाअत नमाज़ फ़ुरादा नमाज़ से पच्चीस गुना अफ़्ज़ल है।

1410. बे एतिनाई बरतते हुए नमाज़े जमाअत में न शरीक होना जाइज़ नहीं है और इंसान के लिये यह मुनासिब नहीं है कि बग़ैर उज़्र के नमाज़े जमाअत को तर्क करे।

1411. मुस्तहब है कि इंसान सब्र करे ताकि नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े और वह बा जमाअत नमाज़ जो मुख़्तसर पढ़ी जाए उस फ़ुरादा नमाज़ से बेहतर है जो अव्वले वक़्त में फ़ुरादा यानी तन्हा पढ़ी जाए और वह नमाज़े बा जमाअत जो फ़ज़ीलत के वक़्त में न पढ़ी जाए और फ़ुरादा नमाज़ जो फ़ज़ीलत के वक़्त में पढ़ी जाए उन दोनों नमाज़ों में कौन सी बेहतर है मालूम नहीं।

1412. जब जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ी जाने लगे तो मुस्तहब है कि जिस शख़्स ने तन्हा नमाज़ पढ़ी हो वह दोबारा जमाअत के साथ पढ़े और अगर उसे बाद में पता चले कि उसकी पहली नमाज़ बातिल थी तो दूसरी नमाज़ काफ़ी है।

1413. अगर इमामे जमाअत या मुक्तदी जमाअत के साथ नमाज़ पढने के बाद उसी नमाज़ को दोबारा जमाअत के साथ पढ़ना चाहे तो अगरचे उसका मुस्तहब होना साबित नहीं लेकिन रजाअन दोबारा पढ़ने की मुमानअत नहीं है।

1414. जिस शख़्स को नमाज़ में इस क़द्र वसवसा होता हो कि उस नमाज़ के बातिल होने का मूजिब बन जाता हो और सिर्फ़ जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने से उसे वसवसे से नजात मिलती हो तो ज़रूरी है कि वह नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े।

1415. अगर बाप या माँ अपनी औलाद को हुक्म दें कि नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े तो एहतियाते मुस्तहब है कि नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े अलबत्ता जब भी वालिदैन की तरफ़ से अम्र व नही महब्बत की वजह से हो और उसकी मुख़ालिफ़त से उन्हें अज़ीयत होती हो तो औलाद के लिये उनकी मुख़ालिफ़त करना अगरचे सरकशी की हद तक न हो तब भी हराम है।

1416. मुस्तहब नमाज़ किसी भी जगह एहतियात की बिना पर जमाअत के साथ नहीं पढ़ी जा सकती लेकिन नमाज़े इस्तिसक़ा जो तलबे बारां के लिये पढ़ी जाती है जमाअत के साथ पढ़ सकते हैं और इसी तरह वह नमाज़ जो पहले वाजिब रही हो और फिर किसी वजह से मुस्तहब हो गई हों मसलन नमाज़े ईदे फ़ित्र और नमाज़े ईदे क़ुर्बान जो इमाम मेहदी (अ0) के ज़माने तक वाजिब थी और उनकी ग़ैबत की वजह से मुस्तहब हो गई है।

1417. जिस वक़्त इमामे जमाअत यौमिया नमाज़ों में से कोई नमाज़ पढ़ रहा हो तो उसकी इक़तिदा कोई सी भी यौमिया नमाज़ में की जा सकती है।

1418. अगर इमामे जमाअत यौमिया नमाज़ में से क़ज़ा शुदा अपनी नमाज़ पढ़ रहा हो या किसी दूसरे शख़्स कि ऐसी नमाज़ की क़ज़ा पढ़ रहा हो जिसका क़ज़ा होना यक़ीनी हो तो उसकी इक़तिदा की जा सकती है लेकिन अगर वह अपनी या किसी दूसरे की नमाज़ एहतियातन पढ़ रहा हो तो उसकी इक़तिदा जाइज़ नहीं मगर यह कि मुक्तदी भी एहतियातन पढ़ रहा हो और इमाम की एहतियात का सबब मुक्तदी की एहतियात का भी सबब हो लेकिन ज़रूरी नहीं कि मुक्तदी की एहतियात का कोई दूसरा सबब न हो।

1419. अगर इंसान को यह इल्म न हो कि जो नमाज़ इमाम पढ़ रहा है वह वाजिब पंजगाना नमाज़ों में से है या मुस्तहब नमाज़ है तो उस नमाज़ में उस इमाम की इकतिदा नहीं की जा सकती ।

1420. जमाअत के सहीह होने के लिये यह शर्त है कि इमाम और मुक्तदी के दरमियान और इसी तरह एक मुक्तदी और दूसरे ऐसे मुक्तदी के दरमियान जो उस मुक्तदी और इमाम के दरमियान वासिता हो कोई चीज़ हाइल न हो और हाइल चीज़ से मुराद वह चीज़ है जो उन्हें एक दूसरे से जुदा करे ख़्वाह देखने में माने हो जैसे पर्दा या दीवार वग़ैरा या देखने में हाइल न हो जैसे शीशा पस अगर नमाज़ की तमाम या बाज़ हालतों में इमाम और मुक्तदी के दरमियान या मुक्तदी और दूसरे ऐसे मुक्तदी के दरमियान जो इस्तिसाल का ज़रीआ हो कोई ऐसी चीज़ हाइल हो जाए तो जमाअत बातिल होगी और जैसा कि बाद में ज़िक्र होगा औरत इस हुक्म से मुस्तसना है।

1421. अगर पहली सफ़ के लम्बा होने की वजह से उसके दोनों तरफ़ खड़े होने वाले लोग इमामे जमाअत को न देख सकें तब भी वह इक्तिदा कर सकते हैं और इसी तरह अगर दूसरी सफ़ों में से किसी सफ़ की लम्बाई की वजह से उस के दोनों तरफ़ खड़े होने वाले लोग अपने से आगे वाली सफ़ को न देख सकें तब भी वह इक्तिदा कर सकते हैं।

1422. अगर जमाअत की सफ़े मस्जिद के दरवाज़े तक पहुंच जायें तो जो शख़्स दरवाज़े के सामने सफ़ के पीछे खड़ा हो उसकी नमाज़ सहीह है नीज़ जो अश्ख़ास उस शख़्स के पीछे खड़े होकर इमामे जमाअत की इक़तिदा कर रहे हों उनकी नमाज़ भी सहीह है बल्कि उन लोगों की नमाज़ भी सहीह है जो दोनों तरफ़ खड़े नमाज़ पढ़ रहे हों और किसी दूसरे मुक्तदी के तवस्सुत से जमाअत से मुत्तसिल हों।

1423. जो शख़्स सुतून के पीछे खड़ा हो अगर वह दाई या बाई तरफ़ से किसी दूसरे मुक्तदी के तवस्सुत से इमामे जमाअत से इत्तिसाल न रखता हो तो वह इक्तिदा नहीं कर सकता।

1424. इमामे जमाअत के खड़े होने की जगह ज़रूरी है कि मुक्तदी की जगह से ज़्यादा ऊँची न हो लेकिन अगर मअमूली ऊँची हो तो कोई हरज नहीं नीज़ अगर ढलवान ज़मीन हो और इमाम उस तरफ़ खड़ा हो जो ज़्यादा बलन्द हो तो अगर ढलवान ज़्यादा न हो और इस तरह हो कि उमूमन उस ज़मीन को मुसत्तह कहा जाए तो कोई हरज नहीं।

1425. (नमाज़े जमाअत में) अगर मुक्तदी की जगह इमाम की जगह से ऊँची हो तो कोई हरज नहीं लेकिन अगर इस क़द्र ऊँची हो कि यह न कहा जा सके कि वह एक जगह जमअ हुए हैं तो जमाअत सहीह नहीं है।

1426. अगर उन लोगों के दरमियान जो एक सफ़ में खड़े हों एक समझदार बच्चा यानी ऐसा बच्चा जो अच्छे बुरे की समझ रखता हो खड़ा हो जाए और लोग न जानते हों कि उसकी नमाज़ बातिल है तो इक़्तिदा कर सकते हैं।

1427. इमाम की तक्बीर के बाद अगर अगली सफ़ के लोग नमाज़ के लिये तैयार हों और तक्बीर कहने ही वाले हों तो जो शख़्स पीछली सफ़ में खड़ा हो वह तक्बीर कह सकता है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह इन्तिज़ार करे ताकि अगली सफ़ वाले तक्बीर कह लें।

1428. अगर कोई शख़्स जानता हो कि अगली सफ़ों में से एक सफ़ की नमाज़ बातिल है तो वह पीछली सफ़ों में इक्तिदा नहीं कर सकता लेकिन अगर उसे यह इल्म न हो कि उस सफ़ की लोगों की नमाज़ सहीह है या नहीं तो इक्तिदा कर सकता है।

1429. जब कोई शख़्स जानता हो कि इमाम की नमाज़ बातिल है मसलन उसे इल्म हो कि इमाम वुज़ू से नहीं है तो ख़्वाह इमाम इस अम्र की जानिब मुतवज्जह न भी हो वह शख़्स उसकी इक़तिदा नहीं कर सकता।

1430. अगर मुक्तदी को नमाज़ के बाद पता चले कि इमाम आदिल न था या काफ़िर था या किसी वजह से मसलन वुज़ू न होने की वजह से उसकी नमाज़ बातिल थी तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1431. अगर कोई शख़्स नमाज़ के दौरान शक करे कि उसने इक़्तिदा की है या नहीं चुनांचे अलामतों की वजह से उसे इत्मीनान हो जाए कि इक़्तिदा की है मसलन ऐसी हालत में हो कि जो मुक्तदी का वज़ीफ़ा है मसलन इमाम को अलहम्द और सूरा पढ़ते हुए सुन रहा हो तो ज़रूरी है कि नमाज़े जमाअत के साथ ही ख़त्म करे बसूरते दीगर ज़रूरी है कि नमाज़ फ़ुरादा की नीयत से ख़त्म करे।

1432. अगर नमाज़ के दौरान मुक्तदी बग़ैर किसी उज़्र के फ़ुरादा की नीयत करे तो उसकी जमाअत के सहीह होने में इश्काल है। लेकिन उसकी नमाज़ सहीह है मगर यह कि उस ने फ़ुरादा की नमाज़ में उसका जो वज़ीफ़ा है, उस पर अमल न किया हो या ऐसा काम जो फ़ुरादा नमाज़ को बातिल करता है अंजाम दिया हो अगरचे सहवन हो मसलन रूकू ज़्यादा किया हो बल्कि बाज़ सूरतों में अगर फ़ुरादा नमाज़ में उसका जो वज़ीफ़ा है उस पर अमल न किया हो तो भी उसकी नमाज़ सहीह है। मसलन अगर नमाज़ की इब्तिदा से फ़ुरादा की नीयत न हो और क़िरअत भी न की हो लेकिन रूकू में उसे ऐसा क़स्द करना पड़े तो ऐसी सूरत में फ़ुरादा की नीयत से तमाम ख़त्म कर सकता है और उसे दोबारा पढ़ना ज़रूरी नहीं है।

1433. अगर मुक्तदी इमाम के अलहम्द और सूरा पढ़ने के बाद किसी उज़्र की वजह से फ़ुरादा की नीयत करे तो अलहम्द और सूरा पढ़ना ज़रूरी नहीं है। लेकिन अगर (इमाम के) अलहम्द और सूरा ख़त्म करने से पहले फ़ुरादा की नीयत करे तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि (अलहम्द और सूरे की) जितनी मिक़्दार इमाम ने पढ़ी हो वह भी पढ़े।

1434. अगर कोई शख़्स नमाज़े जमाअत के दौरान फ़ुरादा की नीयत करे तो फिर वह दोबारा जमाअत की नीयत नहीं कर सकता लेकिन अगर मुज़ब्ज़ब हो कि फ़ुरादा की नीयत करे या न करे और बाद में नमाज़ को जमाअत के साथ तमाम करने का मुसम्मम इरादा करे तो उसकी जमाअत सहीह है।

1435. अगर कोई शख़्स शक करे कि नमाज़ के दौरान उसने फ़ुरादा की नीयत की है या नहीं तो ज़रूरी है कि यह समझ ले कि उसने फ़ुरादा की नीयत नहीं की है।

1436. अगर कोई शख़्स उस वक़्त इक़्तिदा करे जब इमाम रूकू में हो और इमाम के रूकू में शरीक हो जाए अगरचे इमाम ने रूकू का ज़िक्र पढ़ लिया हो उस शख़्स की नमाज़ सहीह है और वह एक रक्अत नमाज़ शुमार होगी लेकिन अगर वह शख़्स बक़द्रे रूकू के झुके ताहम इमाम को रूकू में न पा सके तो वह महज़ अपनी नमाज़ फ़ुरादा की नीयत से ख़त्म कर सकता है।

1437. अगर कोई शख़्स उस वक़्त इक़्तिदा करे जब इमाम रूकू में हो और बक़द्रे रूकू के झुके और शक करे कि इमाम के रूकू में शरीक हुआ है या नहीं तो अगर उसका मौक़ा निकल गया हो मसलन रूकू के बाद शक करे तो ज़ाहिर यह है कि उसकी जमाअत सहीह है। इसके अलावा दूसरी सूरत में नमाज़ फ़ुरादा की नीयत से पूरी कर सकता है।

1438. अगर कोई शख़्स उस वक़्त इक़्तिदा करे जब इमाम रूकू में हो और इससे पहले की वह बक़द्रे रूकू झुके इमाम रूकू से सर उठा ले तो उसे इख़्तियार है कि फ़ुरादा की नीयत कर के नमाज़ पूरी करे या क़ुर्बते मुत्लक़ा की नीयत से इमाम के साथ सज्दे में जाए और सज्दे के बाद क़ियाम की हालत में तक्बीरतुल एहराम और किसी ज़िक्र का क़स्द किये बग़ैर दोबारा तक्बीर कहे और नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े।

1439. अगर कोई शख़्स नमाज़ की इब्तिदा में अलहम्द और सूरा के दौरान इक़्तिदा करे और इत्तिफ़ाक़न इससे पहले कि वह रूकू में जाए इमाम अपना सर रूकू से उठा ले तो उस शख़्स की नमाज़ सहीह है।

1440. अगर कोई शख़्स नमाज़ के लिये ऐसे वक़्त पहुँचे जब इमाम नमाज़ का आख़िरी तशह्हुद पढ़ रहा हो और वह शख़्स चाहता हो कि नमाज़े जमाअत का सवाब हासिल करे तो ज़रूरी है कि नीयत बांधने और तक्बीरतुल एहराम कहने के बाद बैठ जाए और महज़ क़ुर्बत की नीयत से तशह्हुद इमाम के साथ पढ़े लेकिन सलाम न कहे और इन्तिज़ार करे ताकि इमाम नमाज़ का सलाम पढ़ ले उसके बाद वह शख़्स खड़ा हो जाए और दोबारा नीयत किये बग़ैर और तक्बीर कहे बग़ैर अलहम्द और सूरा पढ़े और उसे अपनी नमाज़ की पहली रक्अत शुमार करे।

1441. मुक्तदी को इमाम से आगे नहीं खड़ा होना चाहिये बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि अगर मुक्तदी ज़्यादा हों तो इमाम के बराबर न खड़े हों। लेकिन अगर मुक्तदी एक आदमी हो तो इमाम के बराबर में खड़े होने में कोई हर्ज नहीं।

1442. अगर इमाम और मुक्तदी औरत हो तो अगर उस औरत और इमाम के दरमियान या औरत और दूसरे मर्द मुक्तदी के दरमियान जो औरत और इमाम के दरमियान इत्तिसाल का ज़रीआ हो पर्दा वग़ैरा लगा हो तो कोई हर्ज नहीं।

1443. अगर नमाज़ शूरू होने के बाद इमाम और मुक्तदी के दरमियान या मुक्तदी और उस शख़्स के दरमियान जिसके तवस्सुत से मुक्तदी इमाम से मुत्तसिल हो पर्दा या कोई दूसरी चीज़ हाइल हो जाए तो नमाज़ बातिल हो जाती है और लाज़िम है कि मुक्तदी फ़ुरादा नमाज़ के वज़ीफ़े पर अमल करे।

1444. एहतियाते वाजिब है कि मुक्तदी के सज्दे की जगह और इमाम के खड़े होने की जगह के बीच एक डग से ज़्यादा फ़ासिला न हो और अगर इंसान एक ऐसे मक्तदी के तवस्सुत से जो उसके आगे खड़ा हो इमाम से मुत्तसिल हो तब भी यही हुक्म है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मुक्तदी के खड़े होने की जगह और उससे आगे वाले शख़्स के खड़े होने की जगह के दरमियान इससे ज़्यादा फ़ासिला न हो जो इंसान की हालते सज्दा में होती है।

1445. अगर मुक्तदी किसी ऐसे शख़्स के तवस्सुत से इमाम से मुत्तसिल हो, जिसने उसकी दाई तरफ़ या बाई तरफ़ इक़्तिदा की हो और सामने से इमाम से मुत्तसिल न हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि उस शख़्स से जिसने उसकी दाई तरफ़ या बाईं तरफ़ इक़्तिदा की हो एक डग से ज़्यादा फ़ासिले पर न हो।

1446. अगर नमाज़ के दौरान मुक्तदी और इमाम या मुक्तदी और उस शख़्स के दरमियान जिसके तवस्सुत से मुक्तदी इमाम से मुत्तसिल हो एक डग से ज़्यादा फ़ासिला हो जाए तो वह तन्हा हो जाता है और अपनी नमाज़ फ़ुरादा की नीयत से जारी रख सकता है।

1447. जो लोग अगली सफ़ में हों अगर उन सब की नमाज़ ख़त्म हो जाए और वह फ़ौरन दूसरी नमाज़ के लिये इमाम की इक़्तिदा न करें तो पीछली सफ़ वालों की नमाज़े जमाअत बातिल हो जाती हैं बल्कि अगर फ़ौरन ही इक़्तिदा कर लें फिर भी पिछली सफ़ की जमाअत सहीह होने में इश्काल है।

1448. अगर कोई शख़्स दूसरी रक्अत में इक़्तिदा करे तो उसके लिये अलहम्द और सूरा पढ़ना ज़रूरी नहीं अलबत्ता क़ुनूत और तशह्हुद इमाम के साथ पढ़े और एहतियात यह है कि तशह्हुद पढ़ते वक़्त हाथों की उँगिलयाँ और पांव के तलवों का अगला हिस्सा ज़मीन पर रखे और घुटने उठा ले और तशह्हुद के बाद ज़रूरी है कि इमाम के साथ खड़ा हो जाए और अलहम्द को तमाम करे और अपने रूकू में इमाम से मिल जाए और अगर पूरी अलहम्द पढ़ने के लिये वक़्त न हो तो अलहम्द को छोड़ सकता है और इमाम के साथ रूकू में जाए। लेकिन इस सूरत में एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ को फ़ुरादा की नीयत से पढ़े।

1449. अगर कोई शख़्स उस वक़्त इक़्तिदा करे जब इमाम चार रक्अती नमाज़ की दूसरी रक्अत पढ़ रहा हो तो ज़रूरी है कि अपनी नमाज़ की दूसरी रक्अत में जो इमाम की तीसरी रक्अत होगी दो सज्दों के बाद बैठ जाए और वाजिब मिक़्दार में तशह्हुद पढ़े और फिर उठ खड़ा हो और अगर तीन दफ़्आ तस्बीहात पढ़ने का वक़्त न रखता हो तो ज़रूरी है कि एक दफ़्आ पढ़े और रूकू में अपने आप को इमाम के साथ शरीक करे।

1450. अगर इमाम तीसरी या चौथी रक्अत में हो और मुक्तदी जानता हो कि अगर इक़तिदा करेगा और अलहम्द पढ़ेगा तो इमाम के साथ रूकू में शामिल न हो सकेगा तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि इमाम के रूकू में जाने तक इन्तिज़ा करे और उसके बाद इक़्तिदा करे।

1451. अगर कोई शख़्स इमाम के तीसरी या चौथी रक्अत में क़ियाम की हालत में होने के वक़्त इक़्तिदा करे तो ज़रूरी है कि अलहम्द और सूरा पढ़े और अगर सूरा पढ़ने के लिये वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि अलहम्द तमाम करे और रूकू में इमाम के साथ शरीक हो जाए और अगर पूरी अलहम्द पढ़ने के लिये वक़्त न हो तो अलहम्द को छोड़कर इमाम के साथ रूकू में जाए लेकिन इस सूरत में एहतियाते मुस्तहब यह है कि फ़ुरादा की नीयत से नमाज़ पूरी करे।

1452. अगर एक शख़्स जानता हो कि अगर वह सूरा और क़ुनूत पढ़े तो रूकू में इमाम के साथ शरीक नहीं हो सकता और वह अमदन सूरा या क़ुनूत पढ़े और रूकू में इमाम के साथ शरीक न हो तो उसकी जमाअत बातिल हो जाती है और ज़रूरी है कि वह फ़ुरादा तौर पर नमाज़ पढ़े।

1453. जिस शख़्स को इत्मीनान हो कि अगर सूरा शूरू करे या उसे तमाम करे तो बशर्ते कि सूरा ज़्यादा लम्बा न हो वह रूकू में इमाम के साथ शरीक हो जायेगा तो उसके लिये बेहतर यह है कि सूरा शूरू करे लेकिन अगर सूरा इतना ज़्यादा तवील हो कि उसे इमाम का मुक्तदी न कहा जा सके तो ज़रूरी है कि उसे शूरू न करे और अगर शूरू कर चुका हो तो उसे पूरा न करे।

1454. जो शख़्स यक़ीन रखता हो कि सूरा पढ़कर इमाम के साथ रूकू में शरीक हो जायेगा और इमाम की इक़्तिदा ख़त्म नहीं होगी लिहाज़ा अगर वह सूरा पढ़ कर इमाम के साथ रूकू में शरीक न हो सके तो उसकी जमाअत सहीह है।

1455. अगर इमाम क़ियाम की हालत में हो और मुक्तदी को इल्म न हो कि वह कौन सी रक्अत में है तो वह इक़्तिदा कर सकता है लेकिन ज़रूरी है कि अलहम्द और सूरा क़ुर्बत की नीयत से पढ़े अगरचे बाद में उसे पता चल जाए कि इमाम की पहली या दूसरी रक्अत थी।

1456. अगर कोई शख़्स इस ख़्याल से कि इमाम पहली या दूसरी रक्अत में है अलहम्द और सूरा न पढ़े और रूकू के बाद उसे पता चल जाए कि इमाम तीसरी या चौथी रक्अत में था तो मुक्तदी की नमाज़ सहीह है लेकिन अगर उसे रूकू से पहले इस बात का पता चल जाए तो ज़रूरी है कि अलहम्द और सूरा पढ़े और अगर वक़्त तंग हो तो मसअला 1451 के मुताबिक़ अमल करे।

1457. अगर कोई शख़्स मुस्तहब नमाज़ पढ़ रहा हो और जमाअत क़ाइम हो जाए और उसे यह इत्मीनान न हो कि अगर मुस्तहब नमाज़ को तमाम करेगा तो जमाअत के साथ शरीक हो सकेगा तो मुस्तहब यह है कि जो नमाज़ पढ़ रहा हो उसे छोड़ दे और नमाज़े जमाअत में शामिल हो जाए बल्कि अगर उसे यह इत्मीनान न हो कि पहली रक्अत में शरीक हो सकेगा तब भी मुस्तहब है कि उसी हुक्म के मुताबिक़ अमल करे।

1459. अगर कोई शख़्स तीन रक्अती या चार रक्अती नमाज़ पढ़ रहा हो और जमाअत क़ाइम हो जाए और अभी तीसरी रक्अत के रूकू में न गया हो और उसे यह इत्मीनान न हो कि अगर नमाज़ को पूरा करेगा तो जमाअत में शरीक हो सकेगा तो मुस्तहब है कि मुस्तहब नमाज़ की नीयत के साथ उस नमाज़ को दो रक्अत पर ख़त्म कर दे और जमाअत के साथ शरीक हो जाए।

1460. अगर इमाम की नमाज़ ख़त्म हो जाए और मुक्तदी तशह्हुद या पहला सलाम पढ़ने में मशग़ूल हो तो उसके लिये फ़ुरादा यानी तन्हा नमाज़ की नीयत करना लाज़िमी नहीं।

1461. जो शख़्स इमाम से एक रक्अत पीछे हो उसके लिये बेहतर यह है कि जब इमाम आख़िरी रक्अत का तशह्हुद पढ़ रहा हो तो हाथों कि उँगलियाँ और पाँव के तलवों का अगला हिस्सा ज़मीन पर रखे और घुटनों को बलन्द करे और इमाम के सलाम करने का इन्तिज़ार करे और फिर खड़ा हो जाए और अगर उसी वक़्त फ़ुरादा का क़स्द करना चाहे तो कोई हरज नहीं। इमामे जमाअत के शराइत

1462. इमामे जमाअत के लिये ज़रूरी है कि बालिग़, आक़िल, शीआ, इसना अशरी, आदिल और हलालज़ादा हो और नमाज़ सहीह पढ़ सकता हो नीज़ अगर मुक्तदी मर्द हो तो उसका इमाम भी मर्द होना ज़रूरी है और दस साला बच्चे की इक़्तिदा सहीह होना अगरचे वजह से ख़ाली नहीं, लेकिन इश्काल से भी ख़ाली नहीं है।

1463. जो शख़्स पहले एक इमाम को आदिल समझता था अगर शक करे कि वह अब भी अपनी अदालत पर क़ाइम है या नहीं तब भी उसकी इक़्तिदा कर सकता है।

1464. जो शख़्स खड़ा होकर नमाज़ पढ़ता हो वह किसी ऐसे शख़्स की इक़्तिदा नहीं कर सकता जो बैठ कर या लेट कर नमाज़ पढ़ता हो और जो शख़्स बैठ कर नमाज़ पढ़ता हो वो किसी ऐसे शख़्स की इक़्तिदा नहीं कर सकता जो लेट कर नमाज़ पढ़ता हो।

1465. जो शख़्स बैठ कर नमाज़ पढ़ता हो वह उस शख़्स की इक़्तिदा कर सकता है जो बैठ कर नमाज़ पढ़ता हो लेकिन जो शख़्स लेट कर नमाज़ पढ़ता हो उसका किसी ऐसे शख़्स की इक़्तिदा करना जो लेट कर या बैठ कर नमाज़ पढ़ता हो महल्ले इश्काल है।

1466. अगर इमामे जमाअत किसी उज़्र की वजह से नजिस लिबास या तयम्मुम या जबीरेह के वुज़ू से नमाज़ पढ़े तो उसकी इक़्तिदा की जा सकती है।

1467. अगर इमाम किसी ऐसी बीमारी में मुब्तला हो जिसकी वजह से वह पेशाब और पाखाना न रोक सकता हो तो उसकी इक़्तिदा की जा सकती है नीज़ जो औरत मुस्तहज़ा न हो वह मुस्तहाज़ा औरत की इक़्तिदा कर सकती है।

1468. बेहतर यह है कि जो शख़्स जुज़ाम या बर्स का मरीज़ हो वह इमामे जमाअत न बने और एहतियाते वाजिब यह है कि उस (सज़ा याफ़्ता) शख़्स की जिस पर शरई हद जारी हो चुकी हो इक़्तिदा न की जाए।

नमाज़े जमाअत के अहकाम

1469. नमाज़ की नीयत करते वक़्त ज़रूरी है कि मुक्तदी इमाम को मुअय्यन करे लेकिन इमाम का नाम जानना ज़रूरी नहीं और अगर नीयत करे कि मैं मौजूदा इमामे जमाअत की इक़्तिदा करता हूँ तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1470. ज़रूरी है कि मुक्तदी अलहम्द और सूरा के अलावा नमाज़ की सब चीज़ें ख़ुद पढ़े लेकिन अगर उसकी पहली और दूसरी रक्अत इमाम की तीसरी और चौथी रक्अत हो तो ज़रूरी है कि अलहम्द और सूरा भी पढ़े। 1471. अगर मुक्तदी नमाज़े सुब्ह व मग़रिब व इशा की पहली और दूसरी रक्अत में इमाम की अलहम्द और सूरा पढ़ने की आवाज़ सुन रहा हो तो ख़्वाह वह कलिमात को ठीक तरह न समझ सके उसे अलहम्द और सूरा नहीं पढ़ना चाहिये और अगर इमाम की आवाज़ न सुन पाए तो मुस्तहब है कि अलहम्द और सूरा पढ़े लेकिन ज़रूरी है कि आहिस्ता पढ़े और अगर सहवन बलन्द आवाज़ में पढ़े तो कोई हरज नहीं।

1472. अगर मुक्तदी इमाम की अलहम्द और सूरे की क़िरअत के बाज़ कलिमात सुन ले तो जिस क़द्र न सुन सके वह पढ़ सकता है।

1473. अगर मुक्तदी सहवन अलहम्द और सूरा पढ़े या यह ख़्याल करते हुए कि जो आवाज़ सुन रहा है वह इमाम की नहीं है अलहम्द और सूरा पढ़े और बाद में उसे पता चले कि इमाम की आवाज़ थी तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1474. अगर मुक्तदी शक करे कि इमाम की आवाज़ सुन रहा है या नहीं या कोई आवाज़ सुने और यह न जानता हो कि इमाम की आवाज़ है या किसी और की तो वह अलहम्द और सूरा पढ़ सकता है।

1475. मुक्तदी को नमाज़े ज़ोहर व अस्र की पहली और दूसरी रक्अत में एहतियात की बिना पर अलहम्द और सूरा नहीं पढ़ना चाहिये और मुस्तहब है कि उनके बजाए कोई ज़िक्र पढ़े।

1476. मुक्तदी को तक्बीरतुल एहराम इमाम से पहले नहीं कहनी चाहिये बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक इमाम तक्बीर न कह चुके मुक्तदी तक्बीर न कहे।

1477. अगर मुक्तदी सहवन इमाम से पहले सलाम कह दे तो उसकी नमाज़ सहीह है और ज़रूरी नहीं कि वह दोबारा इमाम के साथ सलाम कहे बल्कि ज़ाहिर यह है कि अगर जान बूझ कर भी इमाम से पहले सलाम कह दे तो कोई हरज नहीं है।

1478. अगर मुक्तदी तक्बीरतुल एहराम के अलावा नमाज़ की दूसरी चीज़ें इमाम से पहले पढ़ ले तो कोई हर्ज नहीं लेकिन अगर उन्हें सुन ले या यह जान ले कि इमाम उन्हें किस वक़्त पढ़ता है तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि इमाम से पहले न पढ़े।

1479. ज़रूरी है कि मुक्तदी जो कुछ नमाज़ में पढ़ा जाता है उसके अलावा नमाज़ के दूसरे अफ़्आल मसलन रूकू और सुजूद इमाम के साथ या उससे थोड़ी देर बाद बजा लाए और अगर वह उन अफ़्आल को अमदन इमाम से पहले या उससे काफ़ी देर बाद अंजाम दे तो उस की जमाअत बातिल होगी। लेकिन अगर फ़ुरादा शख़्स के वज़ीफ़े पर अमल करे तो उसकी नमाज़ सहीह है।

1480. अगर मुक्तदी भूल कर इमाम से पहले रूकू से सर उठा ले और इमाम रूकू में ही हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि दोबारा रूकू में चला जाए और इमाम के साथ ही सर उठाए। इस सूरत में रूकू की ज़्यादती जो कि रुक्न है नमाज़ को बातिल नहीं करती लेकिन अगर वह दोबारा रूकू में जाए और इससे पेशतर कि वह इमाम के साथ रूकू में शरीक हो इमाम सर उठा ले तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।

1481. अगर मुक्तदी सहवन सर सज्दे से उठा ले और देखे कि इमाम अभी भी सज्दे में है तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि दोबारा सज्दे में चला जाए और अगर दोनों सज्दों में यही इत्तेफ़ाक हो जाए तो दो सज्दों के ज़्यादा हो जाने की वजह से जो कि रुक्न है नमाज़ बातिल नहीं होती।

1482. जो शख़्स सहवन इमाम से पहले सज्दे से सर उठा ले अगर उसे दोबारा सज्दे में जाने पर मालूम हो कि इमाम पहले ही सज्दे से सर उठा चुका है तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन अगर दोनों ही सज्दों में ऐसा इत्तिफ़ाक़ हो जाए तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।

1483. अगर मुक्तदी ग़लती से सर रूकू या सज्दे से उठा ले और सहवन या इस ख़्याल से कि दोबारा रूकू या सज्दे में लौट जाने से इमाम के साथ न शरीक हो सकेगा रूकू या सज्दे में न जाए तो उसकी जमाअत और नमाज़ सहीह है।

1484. अगर मुक्तदी सज्दे से सर उठा ले और देखे कि इमाम सज्दे में है और इस ख़्याल से कि यह इमाम का पहला सज्दा है और इस नीयत से कि इमाम के साथ सज्दा करे, सज्दे में चला जाए और बाद में उसे मालूम हो कि यह इमाम का दूसरा सज्दा था तो यह मुक्तदी का दूसरा सज्दा शुमार होगा और इस ख़्याल से सज्दे में जाए कि यह इमाम का दूसरा सज्दा है और बाद में मालूम हो कि यह इमाम का पहला सज्दा था तो ज़रूरी है कि इस नीयत से सज्दा तमाम करे कि इमाम के साथ सज्दा कर रहा हूँ और फिर दोबारा इमाम के साथ सज्दे में जाए और दोनों सूरतों में बेहतर यह है कि नमाज़ को जमाअत के साथ तमाम करे और फिर दोबारा भी पढ़े।

1485. अगर कोई मुक्तदी सहवन इमाम से पहले रूकू में चला जाए और सूरत यह हो कि अगर दोबारा क़ियाम की हालत में आ जाए तो इमाम की क़िरअत का कुछ हिस्सा सुन सके तो अगर वह सर उठा ले और दोबारा इमाम के साथ रूकू में जाए तो उसकी नमाज़ सहीह है और अगर वह जान बूझ कर दोबारा क़ियाम की हालत में न आए तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1486. अगर मुक्तदी सहवन इमाम से पहले सज्दे में चला जाए और सूरत यह हो कि अगर दोबारा क़ियाम की हालत में आए तो इमाम की क़िरअत का कोई हिस्सा न सुन सके तो अगर वह इस नीयत से कि इमाम के साथ नमाज़ पढ़े, अपना सर उठा ले और इमाम के साथ रूकू में जाए तो उसकी जमाअत और नमाज़ सहीह है और अगर वह अमदन दोबारा क़ियाम की हालत में न आए तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन फ़ुरादा शुमार होगी।

1487. अगर मुक्तदी ग़लती से इमाम से पहले सज्दे में चला जाए तो अगर वह इस क़स्द से कि इमाम के साथ नमाज़ पढ़े अपना सर उठा ले और इमाम के साथ सज्दे में जाए तो उसकी नमाज़ सहीह है और अगर अमदन सज्दे से सर न उठाए तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन वह फ़ुरादा शुमार होगी।

1488. अगर इमाम ग़लती से एक ऐसी रक्अत में क़ुनूत पढ़ दे, जिसमें क़ुनूत न हो या एक ऐसी रक्अत में जिसमें तशह्हुद न हो ग़लती से तशह्हुद पढ़ने लगे तो मुक्तदी को क़ुनूत और तशह्हुद नहीं पढ़ना चाहिये लेकिन इमाम से पहले न रूकू में जा सकता है और न इमाम के खड़े होने से पहले खड़ा हो सकता है बल्कि ज़रूरी है कि इमाम के तशह्हुद और क़ुनूत ख़त्म करने तक इन्तिज़ार करे और बाक़ी मांदा नमाज़ उसके साथ पढ़े।

जमाअत में इमाम और मुक्तदी के फ़राइज़

1489. अगर मुक्तदी सिर्फ़ एक मर्द हो तो मुस्तहब है कि इमाम के दाई तरफ़ खड़ा हो और अगर एक औरत हो तब भी मुस्तहब है कि इमाम के दाई तरफ़ खड़ी हो लेकिन ज़रूरी है कि उसके सज्दा करने की जगह इमाम से उसके सज्दे की हालत में दो ज़ानू के फ़ासिले पर हो और अगर एक मर्द और एक औरत या एक मर्द और चन्द औरतें हो तो मुस्तहब है कि मर्द इमाम के दाई जानिब और औरत या औरतें इमाम के पीछे खड़ी हों और अगर चन्द मर्द और एक या चन्द औरतें हों तो मर्दों का इमाम के पीछे और औरतों का मर्दों के पीछे खड़ा होना मुस्तहब है।

1490. अगर इमाम और मुक्तदी दोनों औरतें हों तो एहतियाते वाजिब यह है कि सब एक दूसरी के बराबर बराबर खड़ी हों और इमाम मुक्तदीयों से आगे न खड़ी हो।

1491. मुस्तहब है कि इमाम सफ़ के दरमियान में आगे खड़ा हो और साहबाने इल्म व फ़ज़्ल और तक़्वा व वरअ पहली सफ़ में खड़े हों।

1492. मुस्तहब है कि जमाअत की सफ़ें मुनज़्ज़म हों और जो अश्ख़ास एक सफ़ में खड़े हों उनके दरमियान फ़ासिला न हो और उनके कंधे एक दूसरे के कंधों से मिले हुए हों।

1493. मुस्तहब है कि क़दक़ामतिस्सलात कहने के बाद मुक्तदी खड़े हो जायें।

1494. मुस्तहब है कि इमामे जमाअत उस मुक्तदी की हालत का लिहाज़ करे जो दूसरों से कमज़ोर हो और क़ुनूत और रूकू और सुजूद को तूल न दे बजुज़ उस सूरत के कि उसे इल्म हो कि तमाम वह अशख़ास जिन्होंने उस की इक़्दिता की है तूल देने की जानिब माइल हैं।

1495. मुस्तहब है कि इमामे जमाअत अलहम्द और सूरा नीज़ बलन्द आवाज़ से पढ़े जाने वाले अज़्कार पढ़ते हुए अपनी आवाज़ को इतना बलन्द करे कि दूसरे सुन सकें लेकिन ज़रूरी है कि आवाज़ मुनासिब हद से ज़्यादा बलन्द न करे।

1496. अगर इमाम को हालते रूकू में मालूम हो जाए कि कोई शख़्स अभी अभी आया है और इक़्तिदा करना चाहता है तो मुस्तहब है कि रुकउ को मअमूल से दुगना तूल दे और फिर खड़ा हो जाए ख़्वाह उसे मालूम हो जाए कि कोई दूसरा शख़्स भी इक़्तिदा के लिये आया है।

नमाज़े जमाअत के मकरूहात

1497. अगर जमाअत की सफ़ों में जगह हो तो इंसान के लिये तन्हा खड़ा होना मकरूह है।

1498. मुक्तदी का नमाज़ के अज़कार को इस तरह पढ़ना कि इमाम सुन ले मकरूह है।

1499. जो मुसाफ़िर ज़ोहर, अस्र और इशा की नमाज़ें क़स्र कर के पढ़ता हो उस के लिये इन नमाज़ों में किसी ऐसे शख़्स की इक़्तिदा करना मकरूह है जो मुसाफ़िर न हो और जो शख़्स मुसाफ़िर न हो उसके लिये मकरूह है कि इन नमाज़ों में मुसाफ़िर की इक़्तिदा करे।

नमाज़े आयात

1500. नमाज़े आयात जिसके पढ़ने का तरीक़ा बाद में बयान होगा तीन चीज़ों की वजह से वाजिब होती हैः-

1. सूरज ग्रहन,

2. चांद ग्रहन, अगरचे उसको कुछ हिस्से को ही ग्रहन लगे और ख़्वाह इंसान पर उसकी वजह से ख़ौफ़ भी तारी न हुआ हो।

3. ज़लज़ला, एहतियाते वाजिब की बिना पर, अगरचे उससे कोई भी ख़ौफ़ज़दा न हुआ हो।

अलबत्ता बादलों की गरज, बिजली की कड़क, सुर्ख़ व सियाह आंधी और इन्हीं जैसी दूसरी आसमानी निशानियाँ जिनसे अकसर लोग ख़ौफ़ज़दा हो जायें और इसी तरह ज़मीन के हादिसात मसलन (दरिया और) समुन्दर के पानी का सूख जाना और पहाड़ों का गिरना जिनसे अकसर लोग ख़ौफ़ज़दा हो जाते हैं इन सूरतों में भी एहतियाते मुस्तहब की बिना पर नमाज़े आयात तर्क नहीं करना चाहिये।

1501. जिन चीज़ों के लिये नमाज़े आयात पढ़ना वाजिब है अगर वह एक से ज़्यादा वुक़ू पज़ीर हो जायें तो ज़रूरी है कि इंसान उनमें से हर एक के लिये एक नमाज़े आयात पढ़े मसलन अगर सूरज को भी ग्रहन लग जाए और ज़लज़ला भी आ जाए तो दोनों के लिये दो अलग अलग नमाज़ें पढ़नी ज़रूरी हैं।

1502. अगर किसी शख़्स पर कई नमाज़े आयात वाजिब हों ख़्वाह वह सब उस पर एक ही चीज़ की वजह से वाजिब हुई हों मसलन सूरज को तीन दफ़्आ ग्रहन लगा हो और उसने उसकी नमाज़ें न पढ़ी हों या मुख़्तलिफ़ चीज़ों की वजह से मसलन सूरज ग्रहन और चांद ग्रहन और ज़लज़ले की वजह से उस पर वाजिब हुई हों तो उनकी क़ज़ा करते वक़्त ज़रूरी नहीं कि वह सब इस बात का तअय्युन करे कि कौन सी क़ज़ा कौन सी चीज़ के लिये कर रहा है।

1503. जिन चीज़ों के लिये नमाज़े आयात पढ़ना वाजिब है वह जिस शहर में वुक़ू पज़ीर हो फ़क़त उसी शहर के लोगों के लिये ज़रूरी है कि नमाज़े आयात पढ़े और दूसरे मक़ामात के लोगों के लिये उसका पढ़ना वाजिब नहीं है.

1504. जब सूरज या चांद को ग्रहन लगने लगे तो नमाज़े आयात का वक़्त शूरू हो जाता है और उस वक़्त तक रहता है जब तक वह अपनी साबिक़ा हालत पर लौट न आयें। अगरचे बेहतर यह है कि इतनी ताख़ीर न करे के ग्रहन ख़त्म होने लगे। लेकिन नमाज़े आयात की तकमील सूरज या चांद ग्रहन ख़त्म होने के बाद भी कर सकते हैं।

1505. अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात पढ़ने में इतनी ताख़ीर कर दे या चांद या सूरज ग्रहन से निकलना शूरू हो जाए तो अदा की नीयत में कोई हरज नहीं है लेकिन उसके मुकम्मल तौर पर ग्रहन से निकल जाने के बाद नमाज़ पढ़े तो फिर ज़रूरी है कि क़ज़ा की नीयत करे।

1506. अगर चांद या सूरज को ग्रहन लगने की मुद्दत एक रक्अत नमाज़ के बराबर या उससे भी कम हो तो जो नमाज़ वह पढ़ रहा है अदा है और यही हुक्म है अगर उनके ग्रहन की मुद्दत उससे ज़्यादा हो लेकिन इंसान नमाज़ न पढ़े यहाँ तक कि ग्रहन ख़त्म होने में एक रक्अत पढ़ने के बराबर या उससे कम वक़्त बाक़ी हो।

1507. जब कभी ज़लज़ला, बादलों की गरज, बिजली की कड़क, और उसी जैसी चीज़ें वुक़ू पज़ीर हों तो अगर उनका वक़्त वसी हो तो नमाज़े आयात को फ़ौरन पढ़ना ज़रूरी नहीं है बसूरते दीगर ज़रूरी है कि फ़ौरन नमाज़े आयात पढ़े यानी इतनी जल्दी पढ़े कि लोगों की नज़रों में ताखीर करना शुमार न हो अगर ताख़ीर करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद में अदा और क़ज़ा की नीयत किये बग़ैर पढ़े।

1508. अगर किसी शख़्स को चाँद या सूरज को ग्रहन लगने का पता न चले और उनके ग्रहन से बाहर आने के बाद पता चले कि पूरे सूरज या पूरे चांद को ग्रहन लगा था तो ज़रूरी है कि नमाज़े आयात की क़ज़ा करे लेकिन अगर उसे यह पता चले कि कुछ हिस्से को ग्रहन लगा था तो नमाज़े आयात की क़ज़ा उस पर वाजिब नहीं है।

1509. अगर कुछ लोग यह कहें कि चाँद को या यह कहें कि सूरज को ग्रहन लगा है और इंसान को ज़ाती तौर पर उनके कहने से यक़ीन या इत्मीनान हासिल न हो इसलिये वह नमाज़े आयात न पढ़े और बाद में पता चले कि उन्होंने ठीक कहा था तो उस सूरत में जबकि पूरे चाँद को या पूरे सूरज को ग्रहन लगा हो नमाज़े आयात पढ़े लेकिन अगर कुछ हिस्से को ग्रहन लगा हो तो नमाज़े आयात का पढ़ना उस पर वाजिब नहीं है। और यही हुक्म उस सूरत में है जबकि दो आदमी जिनके आदिल होने के बारे में इल्म न हो यह कहें कि चाँद को या सूरज को ग्रहन लगा है और बाद में मालूम हो कि वह आदिल थे।

1510. अगर इंसान को माहिरीने फ़लकीयात के कहने पर जो इल्मी क़ायदे की रू से सूरज को और चाँद को ग्रहन लगने का वक़्त जानते हों इत्मीनान हो जाए कि सूरज को या चाँद को गहन लगा है तो ज़रूरी है कि नमाज़े आयात पढ़े और इसी तरह अगर वह कहें कि सूरज या चाँद को फ़लां वक़्त ग्रहन लगेगा और इतनी देर तक रहेगा और इंसान को उनके कहने से इत्मीनान हासिल हो जाए तो उनके कहने पर अमल करना ज़रूरी है।

1511. अगर किसी शख़्स को इल्म हो जाए कि जो नमाज़े आयात उसने पढ़ी है वह बातिल थी तो ज़रूरी है कि दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र गया हो तो उसकी क़ज़ा बजा लाए।

1512. अगर यौमिया नमाज़ के वक़्त नमाज़े आयात भी इंसान पर वाजिब हो जाए और उसके पास दोनों के लिये वक़्त हो तो जो भी पहले पढ़ ले कोई हरज नहीं है और अगर दोनों में से किसी एक का वक़्त तंग हो तो पहले वह नमाज़ पढ़े जिसका वक़्त हो और अगर दोनों का वक़्त तंग हो तो ज़रूरी है कि यौमिया नमाज़ पढ़े।

1513. अगर किसी शख़्स को यौमिया नमाज़ पढ़ते हुए इल्म हो जाए कि नमाज़े आयात का वक़्त तंग है और यौमिया नमाज़ का वक़्त भी तंग हो तो ज़रूरी है कि पहले यौमिया नमाज़ को तमाम करे और बाद में नमाज़े आयात पढ़े और अगर यौमिया नमाज़ का वक़्त तंग न हो तो उसे तोड़ दे और पहले नमाज़े आयात और उसके बाद यौमिया नमाज़ बजा लाए।

1514. अगर किसी शख़्स को नमाज़े आयात पढ़ते हुए इल्म हो जाए कि यौमिया नमाज़ का वक़्त तंग है तो ज़रूरी है कि नमाज़े आयात को छोड़ दे और यौमिया नमाज़ को पढ़ने में मशग़ूल हो जाए और यौमिया नमाज़ को तमाम करने के बाद इससे पहले की कोई ऐसा काम करे जो नमाज़ को बातिल करता हो तो बाक़ी मांदा नमाज़े आयात वहीं से पढ़े जहां से छोड़ी थी।

1515. जब औरत हैज़ या निफ़ास की हालत में हो और सूरज या चांद को ग्रहन लग जाए या ज़लज़ला आ जाए तो उस पर नमाज़े आयात वाजिब नहीं है और न ही उसकी क़ज़ा है।