तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

नमाज़े आयात पढ़ने का तरीक़ा

1516. नमाज़े आयात की दो रक्अतें हैं और हर रक्अत में पांच रूकू हैं। इस के पढ़ने का तरीक़ा यह है कि नीयत करने के बाद इंसान तक्बीर कहे और एक दफ़्आ अलहम्द और एक पूरा सूरा पढ़े और रूकू में जाए और फिर रूकूउ से सर उठाए और फिर दोबारा एक दफ़्आ अलहम्द और एक सूरा पढ़े और फिर रूकू में जाए। इस अमल को पांच दफ़्आ अंजाम दे और पांचवें रूकू से क़ियाम की हालत में वापस आने के बाद दो सज्दे बजा लाए और फिर उठ खड़ा हो और पहली रक्अत की तरह दूसरी रक्अत बजा लाए और तशह्हुद और सलाम पढ़ कर नमाज़ तमाम करे।

1517. नमाज़े आयात में यह भी मुम्कीन है कि इंसान नीयत करने और तक्बीर और अलहम्द पढ़ने के बाद एक सूरे की आयतों के पांच हिस्से करे और एक आयत या उससे कुछ ज़्यादा पढ़े बल्कि एक आयत से कम भी पढ़ सकता है लेकिन एहतियात की बिन पर ज़रूरी है कि मुकम्मल जुमला हो और उसके बाद रूकू में जाए और फिर खड़ा हो जाए और अलहम्द पढ़े बग़ैर उसी सूरे का दूसरा हिस्सा पढ़े और रूकू में जाए इसी तरह इस अमल को दोहराता रहे हत्ता की पांचवें रूकू से पहले सूरे को ख़त्म कर दे। मसलन सूरा ए फ़लक़ में पहले बिस्मिल्लाहिर्रहमनिर्रहीम क़ुल अऊज़ो बे रब्बिल फ़लक़े पढ़े और रूकू में जाए उसके बाद खड़ा हो और पढ़े, मिन शर्रे मा ख़लक़ा फिर रूकू में जाए और फिर खड़ा हो और पढ़े मिन शर्रे ग़ासेक़िन इज़ा वक़बा और दोबारा रूकू में जाए। उसके बाद खड़ा हो और पढ़े, व मिन शर्रिन नफ़्फ़ासाते फ़िल उक़दे और रूकू में चला जाए और फिर खड़ा हो जाए और पढ़े, व मिन शर्रे हासिदिन इज़ा हसद और सके बाद पांचवें रूकू में जाए और (रूकू से) खड़ा होने के बाद दो सज्दे करे और दूसरी रक्अत भी पहली रक्अत की तरह बजा लाए और उसके बाद दूसरे सज्दे के बाद तशह्हुद और सलाम पढ़े। और यह भी जाइज़ है कि सूरे को पांच से कम हिस्सों में तक़सीम करे लेकिन जिस वक़्त भी सूरा ख़त्म करे लाज़िमी है कि बाद वाले रूकू से पहले अलहम्द पढ़े।

1518. अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात की एक रक्अत में पांच दफ़्आ अलहम्द और सूरा पढ़े और दूसरी रक्अत में एक दफ़्आ अलहम्द पढ़े और सूरे को पांच हिस्सों में तक़सीम कर दे तो कोई हरज नहीं है।

1519. जो चीज़ें यौमिया नमाज़ में वाजिब और मुस्तहब हैं वह नमाज़े आयात में भी वाजिब और मुस्तहब हैं अलबत्ता अगर नमाज़े आयात जमाअत के साथ हो रही हो तो अज़ान और इक़ामत की बजाय तीन दफ़्आ बतौरे रजा, अस्सलाम कहा जाए लेकिन अगर यह नमाज़ जमाअत के साथ न पढ़ी जा रही हो तो कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।

1520. नमाज़े आयात पढ़ने वाले के लिये मुस्तहब है कि रूकू से पहले और उसके बाद तक्बीर कहे और पांचवें और दसवें रूकू के बाद तक्बीर से पहले, समेअल्लाहो लेमन हमेदा भी कहे।

1521. दूसरे, चौथे, छठें, आठवें और दसवें रूकू से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है और अगर क़ुनूत सिर्फ़ दसवें रूकू से पहले पढ़ लिया जाए तब भी काफ़ी है।

1522. अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात में शक करे कि कितनी रक्अतें पढ़ी हैं और किसी नतीजे पर न पहुंच सके तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1523. अगर (कोई शख़्स जो नमाज़े आयात पढ़ रहा हो) शक करे कि वह पहली रक्अत के आख़िरी रूकू में है या दूसरी रक्अत के पहले रूकू में और किसी नतीजे पर न पहुँच सके तो उसकी नमाज़ बातिल है लेकिन अगर मिसाल के तौर पर शक करे कि चार रूकू बजा लाया है या पांच और उस का यह शक सज्दे में जाने से पहले हो तो जिस रूकू के बारे में उसे शक हो कि बजा लाया है या नहीं उसे अदा करना ज़रूरी है लेकिन अगर सज्दे के लिये झुक गया हो तो ज़रूरी है कि अपने शक की परवाह न करे।

1524. नमाज़े आयात का हर रूकू रुक्न है और अगर उन में अमदन या कमी या बेशी हो जाए तो नमाज़ बातिल है। और यही हुक्म है अगर सहवन कमी हो या एहतियात की बिना पर ज़्यादा हो।

ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुर्बान की नमाज़

1525. इमामे अस्र (अ0) के ज़माना ए हुज़ूर में ईदे फ़ित्र व ईदे क़ुर्बान की नमाज़ें वाजिब हैं और उनका जमाअत के साथ पढ़ना ज़रूरी है लेकिन हमारे ज़माने में जब इमामे अस्र (अ0) ग़ैबते कुबरा में हैं यह नमाज़ें मुस्तहब हैं और बा जमाअत व फ़ुरादा दोनों तरह पढ़ी जा सकती हैं।

1526. नमाज़े ईदे फ़ित्र व क़ुर्बान का वक़्त ईद के दिन तुलूए आफ़ताब से ज़ोहर तक है।

1527. ईदे क़ुर्बान की नमाज़ सूरज चढ़ आने के बाद पढ़ना मुस्तहब है और ईदे फ़ित्र में मुस्तहब है कि सूरज चढ़ आने के बाद इफ़्तार किया जाए फ़ितरा दिया जाए और बाद में दोगाना ए ईद अदा किया जाए।

1528. ईदे फ़ित्र व क़ुर्बान की नमाज़ दो रक्अत है जिसकी पहली रक्अत में अलहम्द और सूरा पढ़ने के बाद बेहतर यह है कि पाँच तक्बीर के बाद एक और तक्बीर के दरमियान एक क़ुनूत पढ़े और पाँचवीं तक्बीर के बाद एक और तक्बीर कहे और रूकू में चला जाए और फिर दो सज्दे बजा लाए और उठ खड़ा हो और दूसरी रक्अत में चार तक्बीरें कहे और हर दो तक्बीर के दरमियान क़ुनूत पढ़े और चौथी तक्बीर के बाद एक और तक्बीर कहकर रूकू में चला जाए और रूकू के बाद दो सज्दे करे और तशह्हुद पढ़े और सलाम कहकर नमाज़ को तमाम कर दे।

1529. ईदे फ़ित्र व क़ुर्बान की नमाज़ के क़ुनूत में जो दुआ और ज़िक्र भी पढ़ा जाए काफ़ी है लेकिन बेहतर है कि यह दुआ पढ़ी जाएः-

अल्लाहुम्मा अहलल किबरियाए वल अज़मते व अहलल जूदे वल जबरूते व अहलल अफ़्वे वर्रहमते व अहलत्तक़वा वल मग़्फ़िरते अस्अलुका बेहक़्क़े हाज़ल यौमिल्लज़ी जअल्तहू लिल मुसलेमीना ईदौं वले मोहम्मदिन सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही ज़ुखरौं व शरफ़ौं व करामतौं व मज़ीदा अन तुसल्लिया अला मोहम्मदिंव्व आले मोहम्मदिन व अन तुदखिलनी फ़ी कुल्ले खैरिन अद्ख़ल्ता फ़ीहे मोहम्मदौं व अला मोहम्मद व अन तुख़रिजनी मिन कुल्ले सूइन अख़रजता मिन्हो मोहम्मदौं व आला मोहम्मद सलवातुका अलैहे व अलैहिम अज्मईन अल्लाहुम्मा इन्नी अस्अलुका ख़ैरा मा सअलका बेही इबादुकस्सालेहून व अऊज़ो बेका मिम्मस तआज़ा मिन्हो इबादुसल मुख़्लेसून

1530. इमामे अस्र (अ0) के ज़माना ए ग़ैबत में अगर नमाज़े ईदे फ़ित्र व ईदे क़ुर्बान जमाअत से पढ़ी जाए तो एहतियाते लाज़िम यह है कि इसके बाद दो ख़ुतूबे पढ़े जायें और बेहतर यह है कि ईदे फ़ित्र के ख़ुतूबे में फ़ित्रे के अहकाम बयान हों और ईदे क़ुर्बान के ख़ुतूबे में क़ुर्बानी के अहकाम बयान किये जायें।

1531. ईद की नमाज़ के लिये कोई सूरा मख़्सूस नहीं है लेकिन बेहतर यह है कि पहली रक्अत में (अलहम्द के बाद) सूरा ए ग़ाशिया (88 वां सूरा) पढ़ा जाए या पहली रक्अत में सूरा ए अअला (87 वां सूरा) और दूसरी रक्अत में सूरा ए शम्स पढ़ा जाए।

1532. नमाज़े ईद खुले मैदान में पढ़ना मुस्तहब है लेकिन मक्का ए मुकर्रिमा में मुस्तहब है कि मस्जिदुल हराम में पढ़ी जाए।

1533. मुस्तहब है कि नमाज़े ईद के लिये पैदल और पा बरहना और बावक़ार तौर पर जायें और नमाज़ से पहले ग़ुस्ल करें और सफ़ैद अम्मामा सर पर बांधें।

1534. मुस्तहब है कि नमाज़े ईद में ज़मीन पर सज्दा किया जाए और तक्बीरें कहते वक़्त हाथों को बलन्द किया जाए और जो शख़्स नमाज़े ईद पढ़ रहा हो ख़्वाह वह इमामे जमाअत हो या फ़ुरादा नमाज़ पढ़ रहा हो नमाज़ बलन्द आवाज़ से पढ़े।

1535. मुस्तहब है कि ईदे फ़ित्र की रात को मग़्रिब व इशा की नमाज़ के बाद और ईदे फ़ित्र के के दिन नमाज़े सुब्ह के बाद और नमाज़े ईदे फ़ित्र के बाद यह तक्बीरें कही जायेः-

अल्लाहो अक्बर, अल्लाहो अक्बर, ला इलाहा इल्लल्लाहो वल्लाहो अक्बर, अल्लाहो अक्बर व लिल्लाहिल हम्द, अल्लाहो अक्बरो अलामा हदाना।

1536. ईदे क़ुर्बान में दस नमाज़ों के बाद जिनमें से पहली नमाज़ें ईद के दिन की नमाज़े ज़ौहर है और और आख़िरी बारहवीं तारीख़ की नमाज़े सुब्ह है इन तक्बीरात का पढ़ना मुस्तहब है जिनका ज़िक्र साबिक़ा मस्अले में हो चुका है और उसके बाद, अल्लाहो अक्बरो अला मा रज़क़्ना मिमबहीमतिल अन्आमे वलहम्दो लिल्लाहे अला मा अब्ललाना। पढ़ना भी मुस्तहब है लेकिन अगर ईदे क़ुर्बान के मौक़े पर इंसान मिना में हो तो मुस्तहब है कि यह तक्बीरें पन्द्रह नमाज़ों के बाद पढ़े जिन में से पहली नमाज़ ईद के दिन नमाज़े ज़ोहर और आख़री तेरहवीं ज़िलहिज्जा की नमाज़े सुब्ह है।

1537. एहतियाते मुस्तहब यह है कि औरतें नमाज़े ईद पढ़ने के लिये न जायें लेकिन यह एहतियात उम्र रसीदा औरतों के लिये नहीं है।

1538. नमाज़े ईद में भी दूसरी नमाज़ों की तरह मुक्तदी को चाहिये कि अलहम्द और सूरा के अलावा नमाज़ के अज़्कार ख़ुद पढ़े।

1539. अगर मुक्तदी उस वक़्त पहुंचे जब इमाम नमाज़ की कुछ तक्बीरे कह चुका हो तो इमाम के रूकू में जाने के बाद ज़रूरी है कि जितनी तक्बीरें और क़ुनूत उसने इमाम के साथ नहीं पढ़ी उन्हें पढ़े और अगर हर क़ुनूत में एक दफ़्आ सुब्हानल्लाह या एक दफ़्आ अलहम्दो लिल्लाह कह दे तो काफ़ी है।

1540. अगर कोई शख़्स नमाज़े ईद में उस वक़्त पहुंचे जब इमाम रूकू में हो तो वह नीयत कर के और नमाज़ की पहली तक्बीर कह कर रूकू में जा सकता है।

1541. अगर कोई शख़्स नमाज़े ईद में एक सज्दा भूल जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ के बाद उसे बजा लाए। और इसी तरह कोई ऐसा फ़ेल नमाज़े ईद में सर्ज़द हो जिसके लिये यौमिया नमाज़ में सज्दा ए सहव लाज़िम है तो नमाज़े ईद पढ़ने वाले के लिये ज़रूरी है कि दो सज्दा ए सहव बजा लाए।

नमाज़ के लिये अजीर बनाना

1542. इंसान के मरने के बाद उन नमाज़ों और दूसरी इबादतों के लिये जो वह ज़िन्दगी में न बजा लाया हो किसी दूसरे शख़्स को अजीर बनाया जा सकता है यानी वह नमाज़ें उसे उजरत दे कर पढ़वाई जा सकती हैं और अगर कोई शख़्स बग़ैर उजरत लिये उन नमाज़ों और दूसरी इबादतों को बजा लाए तब भी सहीह है। 1543. इंसान बाज़ मुस्तहब कामों मसलन हज व उमरे और रौज़ा ए रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) या क़ुबूरे अइम्मा (अ0) की ज़ियारत के लिये ज़िन्दा अश्ख़ास की तरफ़ से अजीर बन सकता है और यह भी कर सकता है कि मुस्तहब काम अंजाम दे कर उस का सवाब मुर्दा या ज़िन्दा अश्ख़ास को हदिया कर दे।

1544. जो शख़्स मैयित की क़ज़ा नमाज़ के लिये अजीर बने उसके लिये ज़रूरी है कि या तो मुज्तहिद हो या नमाज़ तक़लीद के मुताबिक़ सहीह तरीक़े पर अदा करे या एहतियात पर अमल करे बशर्ते कि मवारिदे एहतियात को पूरी तरह जानता हो।

1545. ज़रूरी है कि अजीर नीयत करते वक़्त मैयित को मुअय्यन करे और ज़रूरी नहीं कि मैयित का नाम जानता हो बल्कि अगर नीयत करे कि मैं यह नमाज़ उस शख़्स के लिये पढ़ रहा हूँ जिस के लिये मैं अजीर हुआ हूँ तो काफ़ी है।

1546. ज़रूरी है कि अजीर जो अमल बजा लाए उसके लिये नीयत करे कि जो कुछ मैयित के ज़िम्मे है वह बजा ला रहा हूँ और अगर अजीर कोई अमल अंजाम दे और उसका सवाब मैयित को हदिया कर दे तो यह काफ़ी नहीं है।

1547. अजीर ऐसे शख़्स को मुक़र्रर करना ज़रूरीह है जिसके बारे में इत्मीनान हो कि वह अमल को बजा लायेगा।

1548. जिस शख़्स को मैयित की नमाज़ों के लिये अज़ीर बनाया जाए अगर उसके बारे में पता चले कि वह अमल को बजा नहीं लाया या बातिल तौर पर बजा लाया है तो दोबारा (किसी दूसरे शख़्स को) अजीर मुक़र्रर करना ज़रूरी है।

1549. जब कोई शख़्स शक करे कि अजीर ने अमल अंजाम दिया है या नहीं अगरचे वह कहे कि मैंने अंजाम दे दिया है लेकिन उसकी बात पर इत्मीनान न हो तो ज़रूरी है कि दोबारा अजीर मुक़र्रर करे। और अगर शक करे कि उस ने सहीह तौर पर अंजाम दिया है या नहीं तो उसे सहीह समझ सकता है।

1550. जो शख़्स कोई उज़्र रखता हो मसलन तयम्मुम करके या बैठ कर नमाज़ पढ़ता हो उसे एहतियात की बिना पर मैयित की नमाज़ों के लिये अजीर बिल्कुल मुक़र्रर न किया जाए अगरचे मैयित की नमाज़ें भी इसी तरह क़ज़ा हुई हों।

1551. मर्द औरत की तरफ़ से अजीर बन सकता है और औरत मर्द की तरफ़ से अजीर बन सकती है और जहाँ तक नमाज़ बलन्द आवाज़ से पढ़ने का सवाल है ज़रूरी है कि अजीर अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल करे।

1552. मैयित की क़ज़ा नमाज़ों में तरतीब वाजिब नहीं है सिवाय उन नमाज़ों के जिनकी अदा में तरतीब है मसलन एक दिन की नमाज़े ज़ोहर व अस्र या मग़रिब व इशा जैसा कि पहले ज़िक्र हो चुका है।

1553. अगर अजीर के साथ तय किया जाए कि अमल को एक मख़्सूस तरीक़े से अंजाम देगा तो ज़रूरी है कि उस अमल को उसी तरीक़े से अंजाम दे और अगर कुछ तय न हुआ हो तो ज़रूरी है कि वह अमल अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ अंजाम दे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि अपने वज़ीफ़े और मैयित के वज़ीफ़े में से जो भी एहतियात के ज़्यादा क़रीब हो उस पर अमल करे मसलन अगर मैयित का वज़ीफ़ा तस्बीहाते अरबआ तीन दफ़्आ पढ़ना था और उसकी अपनी तक्लीफ़ एक दफ़्आ पढ़ना हो तो तीन दफ़्आ पढ़े।

1554. अगर अजीर के साथ यह तय न किया जाए कि नमाज़ के मुस्तहब्बात किस मिक़्दार में पढ़ेगा तो ज़रूरी है कि उमूमन जितने मुस्तहब्बात पढ़े जाते हैं उन्हें बजा लाए।

1555. अगर इंसान मैयित की क़ज़ा नमाज़ों के लिये कई अश्ख़ास को अजीर मुक़र्रर करे तो जो कुछ मस्अला न0 1552 में बताया गया है उसकी बिना पर ज़रूरी नहीं कि वह हर अजीर के लिये वक़्त मुअय्यन करे।

1556. अगर कोई शख़्स अजीर बने कि मिसाल के तौर पर एक साल में मैयित की नमाज़ें पढ़ देगा और साल ख़त्म होने से पहले मर जाए तो उन नमाज़ों के लिये जिन के बारे में इल्म हो कि वह बजा नहीं लाया किसी और शख़्स को अजीर मुक़र्रर किया जाए और जिन नमाज़ों के बारे में एहतिमाल हो कि वह उन्हें नहीं बजा लाया एहतियाते वाजिब की बिना पर उनके लिये भी अजीर मुक़र्रर किया जाए।

1557. जिस शख़्स को मैयित की क़ज़ा नमाज़ों के लिये अजीर मुक़र्रर किया हो और उसने उन सब नमाज़ों की उजरत भी वसूल कर ली हो अगर वह सारी नमाज़ें पढ़ने से पहले मर जाए तो अगर यह तय किया गया हो कि सारी नमाज़ें वह खुद ही पढ़ेगा तो उजरत देने वाले बाक़ी नमाज़ों की तय शुदा उजरत वापस ले सकतें हैं या इजारा को फ़स्ख़ कर सकते हैं और उसकी उजरतुल मिस्ल दे सकते हैं। और अगर यह तय न किया गया हो कि सारी नमाज़े अजीर खुद पढ़ेगा तो ज़रूरी है कि अजीर के वरसा उस के माल में से बाक़ी मांदा नमाज़ों के लिये किसी को अजीर बनायें लेकिन अगर उसने कोई माल न छोड़ा हो तो उस के वरसा पर कुछ भी वाजिब नहीं है।

1558. अगर अजीर मैयित की सब क़ज़ा नमाज़ें पढ़ने से पहले मर जाए और उसके अपने ज़िम्में भी क़ज़ा नमाज़ें हों तो मस्अला ए साबिक़ा में जो तरीक़ा बताया गया है उस पर अमल करने के बाद अगर फ़ौतशुदा अजीर के माल से कुछ बचे और इस सूरत में जबकि उसने वसीयत की हो और उसके वरसा भी इजाज़त दें तो उसकी सब नमाज़ों के लिये अजीर मुक़र्रर किया जा सकता है और अगर वरसा इजाज़त न दें तो माल का तीसरा हिस्सा उसकी नमाज़ों पर सर्फ़ किया जा सकता है।