तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

रोज़े के अहकाम

(शरीअते इस्लाम में) रोज़ा से मुराद है ख़ुदावन्दे आलम की रिज़ा के लिये इंसान अज़ाने सुब्ह से मग़्रिब तक नौ चीज़ों से जो बाद में बयान की जायेंगी परहेज़ करे।

नीयत

1559. इंसान के लिए रोज़े की नीयत दिल से गुज़ारना या मसलन यह कहना कि, मैं कल रोज़ा रखूंगा ज़रूरी नहीं बल्कि उस का इरादा करना काफ़ी है कि वह अल्लाह तआला की रिज़ा के लिये अज़ाने सुब्ह से मग़्रिब तक कोई भी ऐसा काम नहीं करेगा जिससे रोज़ा बातिल होता हो और यह यक़ीन हासिल करने के लिये इस तमाम वक़्त में वह रोज़े से रहा है ज़रूरी है कि कुछ देर अज़ाने सुब्ह से पहले और कुछ देर मग़्रिब के बाद भी ऐसे काम करने से परहेज़ न करे जिन से रोज़ा बातिल हो जाता है।

1560. इंसान माहे रमज़ानुल मुबारक की हर रात उस से अगले दिन के रोज़े की नीयत कर सकता है और बेहतर यह है कि उस महीने की पहली रात को ही सारे महीने के रोज़ों की नीयत करे।

1561. वह शख़्स जिसका रोज़ा रखना का इरादा हो उसके लिये माहे रमज़ान में रोज़े की नीयत का आखिरी वक़्त अज़ाने सुब्ह से पहले है। यानी अज़ाने सुब्ह से पहले रोज़े की नीयत ज़रूरी है अगरचे नीन्द या ऐसी ही किसी वजह से अपने इरादे की तरफ़ मुतवज्जह न हो।

1562. जिस शख़्स न ऐसा कोई काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करे तो वह जिस वक़्त भी दिन में मुस्तहब रोज़े की नीयत कर ले अगरचे मग़रिब होने में कम वक़्त ही रह गया हो, उस का रोज़ा सहीह है।

1563. जो शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों और उसी तरह वाजिब रोज़ों में जिन के दिन मुअय्यन हैं रोज़े की नीयत किये बग़ैर अज़ाने सुब्ह से पहले सो जाए अगर वह ज़ोहर से पहले बेदार हो जाए और रोज़े की नीयत करे तो उसका रोज़ा सहीह है और अगर वह ज़ोहर के बाद बेदार हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि क़ुर्बते मुतलक़ा की नीयत न करे और उस दिन के रोज़े की क़ज़ा भी बजा लाए।

1564. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों के अलावा कोई दूसरा रोज़ा रखना चाहे तो ज़रूरी है कि उस रोज़े को मुअय्यन करे मसलन नीयत करे कि मैं क़ज़ा या कफ़्फ़ारे का रोज़ा रख रहा हूँ लेकिन माहे रमज़ानुल मुबारक में यह नीयत करना ज़रूरी नहीं कि मैं सारे रमज़ानुल मुबारक का रोज़ा रख रहा हूँ बल्कि अगर किसी को इल्म न हो या भूल जाए कि माहे रमज़ान है और किसी दूसरे रोज़े की नीयत करे तब भी वह रोज़ा माहे रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा।

1565. अगर कोई शख़्स यह जानता हो कि रमज़ान का महीना है और जानबूझ कर माहे रमज़ान के रोज़े के अलावा किसी दूसरे रोज़े की नीयत करे तो वह रोज़ा जिसकी उसने नीयत की है वह रोज़ा शुमार नहीं होगा और इसी तरह वह माहे रमज़ान का रोज़ा भी शुमार नहीं होगा अगर वह नीयत क़स्दे क़ुर्बत के मनाफ़ी हो बल्कि अगर मनाफ़ी न हो तब भी एहतियात की बिना पर वह रोज़ा माहे रमज़ान का रोज़ा शुमार नहीं होगा।

1566. मिसाल के तौर पर अगर कोई माहे रमज़ानुल मुबारक के पहले रोज़े की नीयत करे लेकिन बाद में मालूम हो कि यह दूसरा रोज़ा या तीसरा रोज़ा था तो उसका रोज़ा सहीह है।

1567. अगर कोई शख़्स अज़ाने सुब्ह से पहले रोज़े की नीयत करने के बाद बेहोश हो जाए और फिर उसे दिन में किसी वक़्त होश आ जाए तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस दिन का रोज़ा तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाए।

1568. अगर कोई शख़्स अज़ाने सुब्ह से पहले रोज़े की नीयत करे और फिर बेहोश हो जाए और फिर उसे दिन में किसी वक़्त होश आ जाए तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस दिन का रोज़ा तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाए।

1569. अगर कोई शख़्स अज़ाने सुब्ह से पहले रोज़े की नीयत करे और सो जाए और मग़्रिब के बाद बेदार हो तो उसका रोज़ा सहीह है।

1570. अगर किसी शख़्स को इल्म न हो या भूल जाए कि माहे रमज़ान है और ज़ोहर से पहले इस अम्र की जानिब मुतवज्जह हो और इस दौरान कोई ऐसा काम कर चुका हो जो रोज़े को बातिल करता है तो उसका रोज़ा बातिल होगा लेकिन यह ज़रूरी है कि मग़्रिब तक कोई ऐसा काम न करे जो रोज़े को बातिल करता हो और माहे रमज़ान के बाद रोज़े की क़ज़ा भी करे। और अगर ज़ोहर के बाद मुतवज्जह हो तो कोई ऐसा काम भी न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसका रोज़ा सहीह है।

1571. अगर माहे रमज़ान में बच्चा अज़ाने सुब्ह से पहले बालिग़ हो जाए तो ज़रूरी है कि रोज़ा रखे और अगर अज़ाने सुब्ह के बाद बालिग़ हो तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नहीं है लेकिन अगर मुस्तहब रोज़ा रखने का इरादा कर लिया हो तो इस सूरत में एहतियात की बिना पर उस दिन के रोज़े को पूरा करना ज़रूरी है।

1572. जो शख़्स मैयित के रोज़े रखने के लिये अजीर बना हो या उसके ज़िम्मे कफ़्फ़ारे के रोज़ें हों अगर वह मुस्तहब रोज़े रखे तो कोई हरज नहीं लेकिन अगर क़ज़ा रोज़े किसी के ज़िम्मे हों तो वह मुस्तहब रोज़े नहीं रख सकता और अगर भूल कर मुस्तहब रोज़ा रख ले तो इस सूरत में अगर ज़ोहर से पहले याद आ जाए तो उसका रोज़ा कल्अदम हो जाता है और वह अपनी नीयत वाजिब रोज़े की जानिब मोड़ सकता है। और अगर वह ज़ोहर के बाद मुतवज्जह हो तो एहतियात की बिना पर उसका रोज़ा बातिल है और अगर उसे मग़्रिब के बाद याद आए तो तो उसके रोज़े का सहीह होना इश्काल से ख़ाली नहीं।

1573. अगर माहे रमज़ान के रोज़े के अलावा कोई दूसरा मख़्सूस रोज़ा इंसान पर वाजिब हो मसलन उसने मन्नत मानी हो कि एक मुक़र्रर दिन को रोज़ा रखेगा और जान बूझ कर अज़ाने सुब्ह से पहले नीयत न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और अगर उसे मालूम न हो कि उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब है या भूल जाए और ज़ोहर से पहले उसे याद आए तो अगर उसने कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और रोज़े की नीयत कर ले तो उसका रोज़ा सहीह है और अगर ज़ोहर के बाद उसे याद आए तो माहे रमज़ान के रोज़े में जिस एहतियात का ज़िक्र किया गया है उसका ख़्याल रखे। 1574. अगर कोई शख़्स किसी ग़ैर मुअय्यन वाजिब रोज़े के लिये मसलन रोज़ा ए कफ़्फ़ारा के लिये ज़ोहर के नज़दीक तक अमदन नीयत न करे तो कोई हरज नहीं बल्कि अगर नीयत से पहले मुसम्मम इरादा रखता हो कि रोज़ा नहीं रखेगा या मुज़ब्ज़ब हो कि रोज़ा रखे या न रखे तो अगर उसने कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और ज़ोहर से पहले रोज़े की नीयत कर ले तो उसका रोज़ा सहीह है।

1575. अगर कोई काफ़िर माहे रमज़ान में ज़ोहर से पहले मुसलमान हो जाए और अज़ाने सुब्ह से उस वक़्त तक कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि रोज़े की नीयत करे और रोज़े को तमाम करे और अगर दिन का रोज़ा न रखे तो उसकी क़ज़ा बजा लाए।

1576. अगर कोई बीमार शख़्स माहे रमज़ान के किसी दिन में ज़ोहर से पहले तन्दुरुस्त हो जाए और उसने उस वक़्त तक कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो नीयत कर के उस दिन का रोज़ा रखना ज़रूरी है और अगर ज़ोहर के बाद तन्दुरुस्त हो तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नहीं है।

1577. जिस दिन के बारे में इंसान को शक हो कि शाबान की आख़िरी तारीख़ है या रमज़ान की पहली तारीख़, उस दिन का रोज़ा रखना उस पर वाजिब नहीं है और अगर रोज़ा रखना चाहे तो रमज़ानुल मुबारक के रोज़े की नीयत नहीं कर सकता लेकिन नीयत करे कि अगर रमज़ान है तो रमज़ान का रोज़ा है और अगर रमज़ान नहीं है तो क़ज़ा रोज़ा या उसी जैसा कोई और रोज़ा है बईद नहीं की उसका रोज़ा सहीह हो लेकिन बेहतर यह है कि क़ज़ा रोज़े वग़ैरा की नीयत करे और अगर बाद में पता चले कि माहे रमज़ान था तो रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा लेकिन अगर नीयत सीर्फ़ रोज़े की करे और बाद में मालूम हो कि रमज़ान था तब भी काफ़ी है।

1578. अगर किसी दिन के बारे में इंसान को शक हो कि शाबान की आख़िरी तारीख़ है या रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ तो वह क़ज़ा या मुस्तहब या ऐसे किसी और रोज़े की नीयत कर के रोज़ा रख ले और दिन में किसी वक़्त उसे पता चले कि माहे रमज़ान है तो ज़रूरी है कि माहे रमज़ान के रोज़े की नीयत कर ले।

1579. अगर किसी मुअय्यन वाजिब रोज़े के बारे में मसलन रमज़ानुल मुबारक के रोज़े के बारे में इंसान मुज़ब्ज़ब हो कि अपने रोज़े को बातिल करे या न करे या रोज़े को बातिल करने का क़स्द करे तो ख़्वाह उसने जो क़स्द किया हो उसे तर्क कर दे और कोई ऐसा काम भी न करे जिस में रोज़ा बातिल होता हो उसका रोज़ा एहतियात की बिना पर बातिल हो जाता है।

1580. अगर कोई शख़्स जो मुस्तहब या ऐसा वाजिब रोज़ा मसलन कफ़्फ़ारे का रोज़ा रखे हुए हो जिसका वक़्त मुअय्यन न हो किसी ऐसे काम का क़स्द करे जो रोज़े को बातिल करता हो या मुज़ब्ज़ब हो कि कोई ऐसा काम करे या न करे तो अगर वह कोई ऐसा काम न करे और वाजिब रोज़े में ज़ोहर से पहले और मुस्तहब रोज़े में ग़ुरुब से पहले रोज़े की नीयत कर ले तो उस का रोज़ा सहीह है। वह चीज़ें जो रोज़े को बातिल करती हैं

वो चीज़ें रोज़े को बातिल कर देती है।

1581. चन्द चीज़ें रोज़े को बातिल कर देती हैः-

1. खाना और पीना।

2. जिमाअ करना।

3. इस्तेम्ना- यानी इंसान अपने साथ या किसी दूसरे के साथ जिमाअ के अलावा ऐसा फ़ेल करे जिसके नतीजे में मनी ख़ारिज हो।

4. ख़ुदा ए तआला पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) और आइम्मा ए ताहिरीन (अ0) से कोई झूठी बात मंसूब करना।

5. ग़ुबार हल्क़ तक पहुँचाना।

6. मश्हूर क़ौल की बिना पर पूरा सर पानी में डुबाना।

7. अज़ाने सुब्ह तक जनाबत या हैज़ और निफ़ास की हालत में रहना।

8. किसी सय्याल चीज़ से हुक़्ना (एनिमा) करना।

9. क़ै करना।

इन मुब्तलात के तफ़्सीली अहकाम

1.खाना और पीना

1582. अगर रोज़ादार इस अम्र की जानिब मुतवज्जह होते हुए कि रोज़े से है कोई चीज़ जानबूझ कर खाए या पिये तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है। क़ता ए नज़र इस से कि वह चीज़ ऐसी हो जिसे उमूमन खाया या पिया जाता हो मसलन रोटी और पानी या ऐसी हो जिसे उमूमन खाया या पिया न जता हो मसलन मिट्टी और दरख़्त का शीरा ख़्वाह कम हो या ज़्यादा हत्ता कि अगर रोज़ादार मिसवाक मुँह से निकाले और दोबारा मुँह में ले जाए और उसकी तरी निगल ले तब भी रोज़ा बातिल हो जाता है सिवाए इस सूरत के कि मिसवाक की तरी लुआबे दहन में घुलमिल कर इस तरह ख़त्म हो जाए कि उसे बेरुनी तरी न कहा जा सके।

1583. जब रोज़ादार खाना खा रहा हो अगर उसे मालूम हो जाए कि सुब्ह हो गई है तो ज़रूरी है कि जो लुक़्मा मुँह में हो उसे उगल दे और अगर जान बूझ कर वह लुक़मा निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल है। और उस हुक्म के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र बाद में होगा उस पर कफ़्फ़ारा भी वाजिब है।

1584. अगर रोज़ादार ग़लती से कोई चीज़ खा ले या पी ले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता।

1585. जो इंजेक्शन उज़्व़ को बेहिस कर देते हैं या किसी और मक़सद के लिये इस्तेमाल होते हैं अगर रोज़ादार उन्हें इस्तेमाल करे तो कोई हरज नहीं लेकिन बेहतर यह है कि उन इंजेक्शनों से परहेज़ किया जाए जो दवा और ग़िज़ा के बजाय इस्तेमाल होते हैं।

1586. अगर रोज़ादार दांतों की रेखों में फँसी हुई कोई चीज़ अमदन निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है।

1587. जो शख़्स रोज़ा रखना चाहता हो उसके लिये अज़ाने सुब्ह से पहले दांतों में खिलाल करना ज़रूरी नहीं है। लेकिन अगर उसे इल्म हो कि जो ग़िज़ा दांतों के रेखों में रह गई है वह दिन के वक़्त पेट में चली जायेगी तो खिलाल करना ज़रूरी है।

1588. मुंह का पानी नीगलने से रोज़ा बातिल नहीं होता ख़्वाह तुर्शी वग़ैरा के तसव्वुर से ही मुंह में पानी भर आया हो।

1589. सर और सीने का बलग़म जब तक मुंह के अंदर वाले हिस्से तक न पहुंचे उसे निगलने में कोई हरज नहीं लेकिन अगर मुंह में आ जाए तो एहतियाते वाजिब है कि उसे थूक दे।

1590. अगर रोज़ादार को इतनी प्यास लगे कि उसे प्यास से मर जाने का ख़ौफ़ हो जाए या उसे नुक़्सान का अन्देशा हो या इतनी सख्ती उठाना पड़े जो उस के लिये नाक़ाबिले बर्दाश्त हो तो इतना पानी पी सकता है कि उन उमूर का खौफ़ खत्म हो जाए लेकिन उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा और अगर माहे रमज़ान हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि उससे ज़्यादा पानी न पिये और दिन के बाक़ी हिस्से में वह काम करने से परहेज़ करे जिससे रोज़ा बातिल हो जाता है।

1591. बच्चे या परिन्दे को खिलाने के लिये ग़िज़ा का चबाना या ग़िज़ा का चखना और इसी तरह के काम करना जिस में ग़िज़ा उमूमन हल्क़ तक नहीं पहुंचती ख़्वाह वह इत्तिफ़ाक़न हल्क़ तक पहुंच जाए तो रोज़े को बातिल नहीं करती, लेकिन अगर इंसान शूरू से जानता हो कि यह ग़िज़ा हल्क़ तक पहुंच जायेगी तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है और ज़रूरी है कि उसकी क़ज़ा बजा लाए और कफ़्फ़ारा भी उस पर वाजिब है।

1592. इंसान (मअमूली) नक़ाहत की वजह से रोज़ा नहीं छोड़ सकता, लेकिन अगर नक़ाहत इस हद तक हो कि उमूमन बर्दाश्त न हो सके तो फिर रोज़ा छोड़ने में कोई हरज नहीं है।

2.जिमाअ (सम्भोग)

1593. जिमाअ रोज़े को बातिल कर देता है ख़्वाह उज़्वे तनासुल सुपारी तक ही दाखिल हो और मनी भी खारिज न हो।

1594. अगर आला ए तनासुल सुपारी से कम दाखिल हो और मनी भी खारिज न हो तो रोज़ा बातिल नहीं होता लेकिन जिस शख़्स की सुपारी कटी हुई हो अगर वह सुपारी की मिक़्दार से कमतर मिक़्दार दाखिल करे तो अगर यह कहा जाए कि उसने हमबिस्तरी की है तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।

1595. अगर कोई शख़्स अमदन जिमाअ का इरादा करे और फिर शक करे कि सुपारी के बराबर दुखूल हुआ था या नहीं तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसका रोज़ा बातिल है और ज़रूरी है कि उस रोज़े की क़ज़ा बजा लाए लेकिन कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

1596. अगर कोई शख़्स भूल जाए कि रोज़े से है और जिमाअ करे या उसे जिमाअ पर इस तरह मजबूर किया जाए कि उसका इख़्तियार बाक़ी न रहे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा अलबत्ता अगर जिमाअ की हालत में उसे याद आ जाए कि रोज़े से है या मजबूरी ख़त्म हो जाए तो ज़रूरी है कि फ़ौरन तर्क करे और अगर ऐसा न करे तो उसका रोज़ा बातिल है।

3.इस्तेम्ना (हस्तमैथुन)

1597. अगर रोज़ादार इस्तेम्ना करे (इस्तेमना के मअनी मस्अला 1581 में बताए जा चुके हैं) तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है।

1598. अगर बे इख़्तियारी की हालत में किसी की मनी खारिज हो जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं है।

1599. अगरचे रोज़ादार को इल्म हो कि अगर दिन में सोयेगा तो उसे एहतिलाम हो जायेगा यानी सोते में उसकी मनी ख़ारिज हो जायेगी तब भी उसके लिये सोना जाइज़ है ख़्वाह न सोने की वजह से उसे कोई तक्लीफ़ न भी हो और उसे एहतिलाम हो जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता।

1600. अगर रोज़ादार मनी खारिज होते वक़्त नीन्द से बेदार हो जाए तो उस पर यह वाजिब नहीं कि मनी को निकलने से रोके।

1601. जिस रोज़ादार को एहतिलाम हो गया हो तो वह पेशाब कर सकता है ख़्वाह उसे यह इल्म हो कि पेशाब करने से बाक़ी मांदा मनी नाली से बाहर आ जायेगी।

1602. जब रोज़ादार को एहतिलाम हो जाए उसे मालूम हो कि मनी नाली में रह गई है और वह ग़ुस्ल से पहले पेशाब नहीं करेगा तो ग़ुस्ल के बाद मनी उस के जिस्म से खारिज नहीं होगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ग़ुस्ल से पहले पेशाब करे।

1603. जो शख़्स मनी निकालने के इरादे से छेड़छाड़ और दिललगी करे तो ख़्वाह मनी न भी निकले तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि रोज़े को तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाए।

1604. अगर रोज़ादार मनी निकालने के इरादे के बग़ैर मिसाल के तौर पर अपनी बीवी से छेड़छाड़ और हँसी मज़ाक करे और उसे इत्मीनान हो कि मनी खारिज नहीं होगी तो अगरचे इत्तिफ़ाक़न मनी खारिज हो जाए उसका रोज़ा सहीह है। अलबत्ता अगर उसे इत्मीनान न हो तो उस सूरत में जब मनी ख़ारिज होगी तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।

4. ख़ुदा और रसूल (स0) पर बोह्तान बाँधना

1605. अगर रोज़ादार ज़बान से या लिख कर या इशारे से या किसी और तरीक़े से अल्लाह तआला या रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम या आपके (बर हक़) जा नशीनों में से किसी से जानबूझ कर कोई झूठी बात मंसूब करे तो अगरचे वह फ़ौरन कह दे कि मैंने झूठ कहा है या तौबा कर ले तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसका रोज़ा बातिल है और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलवातुल्लाहे अलैहा और तमाम अंबिया ए मुर्सलीन (अ0 स0) और उन के जा नशीनों से भी कोई झूठी बात मंसूब करने का यही हुक्म है।

1606. अगर (रोज़ादार) कोई ऐसी रिवायत नक़्ल करना चाहे जिसके क़तई होने की दलील न हो और उसके बारे में उसे यह इल्म न हो कि सच है या झूठ तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि जिस शख़्स से वह रिवायत हो या जिस किताब में लिखी देखी हो उसका हवाला दे।

1607. अगर किसी रिवायत के बारे में एतिक़ाद रखता हो कि वह वाक़ई क़ौले ख़ुदा या क़ौले पैग़म्बर स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम है और उसे अल्लाह तआला या पैग़म्बरे अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से मंसूब करे और बाद में मालूम हो कि यह निस्बत सही नहीं थी तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा।

1608. अगर रोज़ादार किसी चीज़ के बारे में यह जानते हुए कि झूठ है उसे अल्लाह तआला और रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से मंसूब करे और बाद में उसे पता चले कि जो कुछ उसने कहा था वह दुरुस्त था तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि रोज़े को तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाए।

1609. अगर रोज़ादार किसी ऐसे झूठ को जो खुद रोज़ादार ने नहीं बल्कि किसी दूसरे ने गढ़ा हो जानबूझ कर अल्लाह तआला या रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम या आपके (बरहक़) जानशीनों से मंसूब कर दे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा लेकिन अगर जिसने झूठ गढ़ा हो उसका क़ौल नक़्ल करे तो कोई हरज नहीं।

1610. अगर रोज़ादार से सवाल किया जाए कि क्या रसूले मोहतशम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ऐसा फ़रमाया है और वह अमदन जहाँ जवाब नहीं देना चाहिये वहाँ इस्बात में दे और जहाँ इस्बात में देना चाहिये वहाँ अमदन नहीं में दे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है।

1611. अगर कोई शख़्स अल्लाह तआला या रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का क़ौले दुरुस्त नक़्ल करे और बाद में कहे कि मैंने झूठ कहा है या रात को झूठी बात उनसे मंसूब करे और दूसरे दिन जबकि रोज़ा रखा हुआ हो कहे कि जो कुछ मैंने गुज़श्ता रात कहा था वह दुरुस्त है तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन अगर वह रिवायत के (सहीह या ग़लत होने के) बारे में बताए (तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता)।

5. ग़ुबार को हल्क़ तक पहुंचाना

1612. एहतियाते वाजिब की बिना पर कसीफ़ ग़ुबार का हल्क़ तक पहुंचाना रोज़े को बातिल कर देता है ख़्वाह ग़ुबार किसी ऐसी चीज़ का हो जिसका खाना हलाल हो मसलन आटा या किसी ऐसी चीज़ का हो जिसका खाना हराम हो मसलन मिट्टी।

1613. अक़्वा यह है कि ग़ैरे कसीफ़ ग़ुबार हल्क़ तक पहुंचने से रोज़ा बातिल हो जाता है।

1614. अगर हवा की वजह से ग़ुबार पैदा हो और इंसान मुतवज्जह होने और एहतियात कर सकने के बावजूद एहतियात न करे और ग़ुबार उसके हल्क़ तक पहुंच जाए तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है।

1615. एहतियाते वाजिब यह है कि रोज़ादार सिग्रेट और तम्बाकू वग़ैरा का धुवां भी हल्क़ तक न पहुंचाए।

1616. अगर इंसान एहतियात न करे और ग़ुबार या धुवां वग़ैरा हल्क़ में चला जाए तो अगर उसे यक़ीन या इत्मीनान था कि यह चीज़ें हल्क़ में न पहुंचेंगी तो उसका रोज़ा सहीह है लेकिन उसे गुमान था कि यह हल्क़ तक नहीं पहुंचेंगी तो बेहतर यह है कि रोज़ा की क़ज़ा बजा लाए।

1617. अगर कोई शख़्स यह भूल जाए कि रोज़े से है एहतियात न करे या बे इख़्तियार ग़ुबार वग़ैरा उसके हल्क़ तक पहुंच जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता।

6. सर को पानी में डुबोना

1618. अगर रोज़ादार जानबूझ कर सारा सर पानी में डुबो दे ख़्वाह उस का बाक़ी बदन पानी से बाहर रहे मश्हूर क़ौल की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन बईद नहीं कि ऐसा करना रोज़े को बातिल न करे। अगरचे ऐसा करने में शदीद कराहत है और मुम्किन हो तो उससे एहतियात करना बेहतर है।

1619. अगर रोज़ादार अपने निस्फ़ सर को एक दफ़्आ और बाक़ी निस्फ़ सर को दूसरी दफ़्आ पानी में डुबोए तो उसका रोज़ा सहीह होने में कोई इश्क़ाल नहीं है।

1620. अगर सारा सर पानी में डूब जाए तो ख़्वाह कुछ बाल पानी से बाहर भी रह जायें तो उसका हुक्म भी मस्अला 1618 की तरह है।

1621. पानी के अलावा दूसरी सैयाल चीज़ों मसलन दूध में सर डुबोने से रोज़े को कोई ज़रर नहीं पहुंचता और मुज़ाफ़ पानी में भी सर डुबोने का भी यही हुक्म है।

1622. अगर रोज़ादार बेइख़्तियार पानी में गिर जाए और उसका पूरा सर पानी में डूब जाए या भूल जाए कि रोज़े से है और सर पानी में डुबो ले तो उसके रोज़े में कोई इश्काल नहीं है।

1623. अगर कोई रोज़ादार यह ख़्याल करते हुए अपने आप को पानी में गिरा दे कि उसका सर पानी में नहीं डूबेगा लेकिन उसका पूरा सर पानी में डूब जाए तो उसके रोज़े में बिल्कुल इश्काल नहीं है।

1624. अगर कोई शख़्स भूल जाए कि रोज़े से है और सर पानी में डुबो दे तो अगर पानी में डुबे हुए उसे याद आए कि रोज़े से है तो बेहतर यह है कि रोज़ादार फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाले और अगर न निकाले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा।

1625. अगर कोई शख़्स रोज़ादार के सर को ज़बरदस्ती पानी में डुबो दे तो उसके रोज़े में कोई इश्काल नहीं है लेकिन जबकि अभी वह पानी में है दूसरा शख़्स अपना हाथ हटा ले तो बेहतर यह है कि फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाल ले।

1626. अगर रोज़ादार ग़ुस्ल की नीयत से सर पानी में डुबो दे तो उसका रोज़ा और ग़ुस्ल दोनों सहीह हैं।

1627. अगर कोई रोज़ादार किसी को डूबने से बचाने की ख़ातिर सर को पानी में डुबो दे ख़्वाह उस शख़्स को बचाना वाजिब ही क्यों न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि रोज़े की क़ज़ा बजा लाए।

7. अज़ाने सुब्ह तक जनाबत, हैज़ और निफ़ास की हालत में रहना

1628. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक में जानबूझ कर अज़ाने सुब्ह तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और जिस शख़्स का वजीफ़ा तयम्मुम हो और वह जानबूझ कर तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा भी बातिल है और माहे रमज़ान की क़ज़ा का हुक्म भी यही है।

1629. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ान के रोज़ों और उनकी क़ज़ा के अलावा उन वाजिब रोजों में जिनका वक़्त माहे रमजान की रोज़ों की तरह मुअय्यन है जानबूझ कर अज़ाने सुब्ह तक ग़ुस्ल न करे तो अज़हर यह है कि उसका रोज़ा सहीह है।

1630. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक की किसी रात में जुनुब हो जाए तो अगर वह अमदन ग़ुस्ल न करे हत्ता कि वक़्त तंग हो जाए तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और रोज़ा रखे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसकी क़ज़ा भी बजा लाए।

1631. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ान में गुस्ल करना भूल जाए और एक दिन के बाद उसे याद आए तो ज़रूरी है कि उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे और अगर चन्द दिनों के बाद याद आए तो उतने दिनों के रोजों की क़ज़ा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह जुनुब या मसलन अगर उसे यह इल्म न हो कि तीन दिन जुनुब रहा था या चार दिन तो ज़रूरी है कि तीन दिनों के रोजों की क़ज़ा करे।

1632. अगर एक ऐसा शख़्स अपने आप को जुनुब कर ले जिसके पास माहे रमज़ान की रात में ग़ुस्ल और तयम्मुम में से किसी के लिये भी वक़्त न हो तो उसका रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा और कफ़्फ़ार दोनों वाजिब हैं।

1633. अगर रोज़ादार यह जानने के लिये जुस्तजू करे कि उसके पास वक़्त है कि नहीं और गुमान करे कि उसके पास ग़ुस्ल के लिये वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में उसे पता चले कि वक़्त तंग था और तयम्मुम कर के रोज़ा रखे तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।

1634. जो शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात को जुनुब हो और जानता हो कि अगर सोयेगा तो सुब्ह तक बेदार न होगा, उसे बग़ैर ग़ुस्ल किये नहीं सोना चाहिये और अगर वह ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मरज़ी से सो जाए और सुब्ह तक बेदार न हो तो उसका रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों उस पर वाजिब हैं।

1635. जब जुनुब माहे रमज़ान की रात में सो कर जाग उठे तो एहतियते वाजिब यह है कि अगर वह बेदार होने के बारे में मुत्मइन हो तो ग़ुस्ल से पहले न सोए अगरचे इस बात का एहतिमाल हो कि अगर दोबारा सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा।

1636. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और यक़ीन रखता हो कि अगर सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और उसका मुसम्मम इरादा हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो जाए और अज़ान तक सोता रहे तो उसका रोज़ा सहीह है। और अगर कोई शख़्स सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार होने के बारे में मुत्मइन हो तो उस के लिए भी यही हुक्म है।

1637. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इल्म हो या एहतिमाल हो कि अगर सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह इस बात से ग़ाफ़िल हो कि बेदार होने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो उस सूरत में जबकि वह सो जाए और सुब्ह की अज़ान तक सोया रहे एहतियात की बिना पर उस पर क़ज़ा वाजिब हो जाती है। 1638. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे यक़ीन हो या एहतिमाल इस बात का हो कि अगर वह सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह बेदार होने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो तो उस सूरत में जब कि वह सो जाए और बेदार न हो उसका रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ़्फ़ारा उस के लिये लाज़िम हैं। और इसी तरह अगर बेदार होने के बाद उसे तरद्दुद हो कि ग़ुस्ल करे या न करे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है। 1639. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में सो कर जाग उठे और उसे यक़ीन हो या इस बात का एहतिमाल हो कि अगर दोबारा सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह मुसम्मम इरादा भी रखता हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और दोबारा सो जाए और अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि बतौरे सज़ा उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे। और अगर दूसरी नीन्द से बेदार हो जाये और तीसरी दफ़्आ सो जाए और सुब्ह की अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर कफ़्फ़ारा भी दे।

1640. जब इंसान को नीन्द में एहतिलाम हो जाए तो पहली, दूसरी और तीसरी नीन्द से मुराद वह नीन्द है कि इंसान (एहतिलाम से) जागने के बाद सोए लेकिन वह नीन्द जिसमें एहतिलाम हुआ पहली नीन्द शुमार नहीं होती।

1641. अगर किसी रोज़ादार को दिन में एहतिलाम हो जाए तो उस पर फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं।

1642. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान में सुब्ह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है तो अगरचे उसे मालूम हो कि यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है उसका रोज़ा सहीह है।

1643. जो शख़्स रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता हो और वह सुब्ह की अज़ान तक जुनुब रहे तो अगर उसका इस हालत में रहना अमदन हो तो उस दिन का रोज़ा नहीं रख सकता और अमदन न हो तो रोज़ा रख सकता है अगरचे एहतियात यह है कि रोज़ा न रखे।

1644. जो शख़्स रमज़ानुल मुबारक के क़ज़ा रोज़े रखना चाहता हो अगर वह सुब्ह की अज़ान के बाद बेदार हो और देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है और जानता हो कि यह एहतिलाम उसे सुब्ह की अज़ान से पहले हुआ है तो अक़्वा की बिना पर उस दिन माहे रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा की नीयत से रोज़ा रख सकता है।

1645. अगर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़ों के अलावा ऐसे वाजिब रोज़ों में कि जिनका वक़्त मुअय्यन नहीं है मसलन कफ़्फ़ारे के रोज़े में कोई शख़्स अमदन अज़ाने सुब्ह तक जुनुब रहे तो अज़हर यह है कि उसका रोज़ा सहीह है लेकिन बेहतर है कि उस दिन के अलावा किसी दूसरे दिन रोज़ा रखे।

1646. अगर रमज़ान के रोजों में औरत सुब्ह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और अमदन ग़ुस्ल न करे या वक़्त तंग होने की सूरत में – अगरचे उसके इख़्तियार में हो और रमज़ान का रोज़ा हो – तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और एहतियात की बिना पर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का भी यही हुक्म है (यानी उसका रोज़ा बातिल है) और इन दो के अलावा दीगर सूरतों में बातिल नहीं अगरचे अहवत यह है कि ग़ुस्ल करे। माहे रमज़ान में जिस औरत की शरई ज़िम्मेदारी हैज़ या निफ़ास के ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम हो और इसी तरह एहतियात की बिना पर रमज़ान की क़ज़ा में अगर जानबूझ कर अज़ाने सुब्ह से पहले तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा बातिल है।

1647. अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुब्ह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल के लिये वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और सुब्ह की अज़ान तक बेदार रहना ज़रूरी नहीं है। जिस जुनुब शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो उसके लिये भी यही हुक्म है।

1648. अगर कोई औरत माहे रमज़ानुल मुबारक में सुब्ह की अज़ान के नज़्दीक हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल या तयम्मुम किसी के लिये वक़्त बाक़ी न हो तो उसका रोज़ा सहीह है।

1649. अगर कोई औरत सुब्ह की अज़ान के बाद हैज़ या निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाए या दिन में उसे हैज़ या निफ़ास का खून आ जाए तो अगरचे यह खून मग़्रिब के करीब ही क्यों न आए उसका रोज़ा बातिल है।

1650. अगर औरत हैज़ का निफ़ास का ग़ुस्ल करना भूल जाए और उसे एक दिन या कई दिन के बाद याद आए तो जो रोज़े उसने रखे हों सहीह हैं।

1651. अगर औरत माहे रमज़ानुल मुबारक में सुब्ह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुब्ह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो उसका रोज़ा बातिल है लेकिन अगर कोताही न करे मसलन मुंतज़िर हो कि ज़नाना हम्माम मुयस्सर आ जाए ख़्वाह उस मुद्दत में तीन दफ़्आ सोए और सुब्ह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और तयम्मुम करने में भी कोताही न करे तो उसका रोज़ा सहीह है।

1652. जो औरत इस्तिहाज़ा ए कसीरा की हालत में हो अगर वह अपने ग़ुस्लों को उस तफ़्सील के साथ न बजा लाए जिसका ज़िक्र मस्अला 402 में किया गया है तो उसका रोज़ा सहीह है। ऐसे ही इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सिता में अगरचे औरत ग़ुस्ल न भी करे, उसका रोज़ा सहीह है।

1653. जिस शख़्स ने मैयित को मस किया हो यानी अपने बदन का कोई हिस्सा मैयित के बदन से छुआ हो वह गुस्ले मसे मैयित के बग़ैर रोज़ा रख सकता है अगर रोज़े की हालत में भी मैयित को मस करे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता।

8. हुक़्ना लेना

1654. सैयाल चीज़ से हुक़्ना (एनिमा) अगरचे ब अमरे मजबूरी और इलाज की ग़रज़ से लिया जाए रोज़े को बातिल कर देता है।

9. उल्टी करना

1655. अगर रोज़ादार जानबूझ कर क़ै (उल्टी) करे तो अगरचे वह बीमारी वग़ैरा की वजह से ऐसा करने पर मजबूर हो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन अगर सहवन या बे इख़्तियार हो कर क़ै करे तो कोई हरज नहीं।

1656. अगर कोई शख़्स रात को ऐसी चीज़ खा ले जिसके बारे में मालूम हो कि उस के खाने की वजह से दिन में बे इख़्तियार क़ै आयेगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे।

1657. अगर रोज़ादार क़ै रोक सकता हो और ऐसा करना उसके लिये मुज़िर और तक्लीफ़ का बाइस न हो तो बेह्तर यह है कि क़ै को रोके। 1658. अगर रोज़ादार के हल्क़ में मक्खी चली जाए या चुनांचे वह इस हद तक अन्दर चली गई हो कि उसके नीचे ले जाने को निगलना न कहा जाए तो ज़रूरी नहीं कि उसे बाहर निकाला जाए और उसका रोज़ा सहीह है लेकिन अगर मक्खी काफ़ी हद तक अन्दर न गई हो तो ज़रूरी है कि बाहर निकाले अगरचे उसको क़ै कर के ही निकालने पड़े मगर यह कि क़ै करने में रोज़ादार को ज़रर और तक्लीफ़ न हो और अगर वह क़ै न करे और उसे निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।

1659. अगर रोज़ादार सहवन कोई चीज़ निगल ले और उसके पेट में पहुंचने से पहले उसे याद आ जाए कि रोज़े से है तो उस चीज़ का निकालना लाज़िमी नहीं और उसका रोज़ा सहीह है।

1660. अगर किसी रोज़ादार को यक़ीन हो कि डकार लेने की वजह से कोई चीज़ उसके हल्क़ से बाहर आ जायेगी तो एहतियात की बिना पर उसे जानबूझ कर डकार नहीं लेनी चाहिए लेकिन उसे यक़ीन न हो तो कोई हरज नहीं।

1661. अगर रोज़ादार डकार ले और कोई चीज़ उसके हल्क़ या मुंह में आ जाए तो ज़रूरी है कि उसे उगल दे और अगर वह चीज़ बेइख़्तियार पेट में चली जाए तो उसका रोज़ा सहीह है।

उन चीज़ों के अहकाम जो रोज़े को बातिल करती हैं।

1662. अगर इंसान जानबूझ कर और इख़्तियार के साथ कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है और अगर कोई ऐसा काम जानबूझ कर न करे तो फिर इश्काल नहीं लेकिन अगर जुनुब सो जाए और उस तफ़्सील के मुताबिक़ जो मस्अला 1639 में बयान की गई है सुब्ह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा बातिल है। चुनांचे अगर इंसान न जानता हो कि जो बातें बताई गई हैं उनमें से बाज़ रोज़े को बातिल करती हैं यानी जाहिल क़ासिर हो और इंकार भी न करता हो (बअलफ़ाज़े दीगर मुक़स्सिर न हो) या यह कि शरई हुज्जत पर एतिमाद रखता हो और खाने पीने और जिमाअ के अलावा उन अफ़्आल में से किसी फ़ेल को अंजाम दे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा।

1663. अगर रोज़ादार सहवन कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और इस गुमान से कि उसका रोज़ा बातिल हो गया है दोबारा अमदन कोई ऐसा ही काम करे तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।

1664. अगर कोई चीज़ ज़बरदस्ती रोज़ादार के हल्क़ में उंडेल दी जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता लेकिन अगर उसे मज्बूर किया जाए मसलन उसे कहा जाए कि अगर तुम ग़िज़ा नहीं खाओगे तो हम तुम्हे माली या जानी नुक़्सान पहुँचायेंगे और वह नुक़्सान से बचने के लिये अपने आप कुछ खा ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा

1665. रोज़ादार को ऐसी जगह नहीं जाना चाहिये जिसके बारे में वह जानता हो कि लोग कोई चीज़ उसके हल्क़ में डाल देंगे या उसे रोज़ा तोड़ने पर मज्बूर करेंगे और अगर ऐसी जगह जाए या ब अम्रे मज्बूरी वह खुद कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है और अगर कोई चीज़ उसके हल्क़ में उंडेल दें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है।

वह चीज़ें जो रोज़ादार के लिये मकरूह हैं

1666. रोज़ादार के लिये कुछ चीज़ें मकरूह हैं और उनमें से बाज़ यह हैः-

1. आँख में दवा डालना और सुर्मा लगाना जब कि उसका मज़ा या बू हल्क़ में पहुँचे।

2. हर ऐसा काम करना जो कमज़ोरी का बाइस हो मसलन फ़स्द खुलवाना और हम्माम जाना।

3. (नाक से) नास ख़ीचना बशर्ते की यह इल्म न हो कि हल्क़ तक पहुंचेगी और अगर यह इल्म हो कि हल्क़ तक पहुंचेगी तो उसका इस्तेमाल जाइज़ नहीं है।

4. ख़ुश्बूदार घास (और जड़ी बूटियाँ) सूंघना।

5. औरत का पानी में बैठना।

6. शय्याफ़ इस्तेमाल करना यानी किसी ख़ुश्क चीज़ से एनिमा लेना।

7. जो लिबास पहन रखा हो उसे तर करना।

8. दांत निकलवाना और हर वह काम करना जिसकी वजह से मुंह से खून निकले।

9. तर लकड़ी से मिसवाक करना।

10. बिला वजह पानी या कोई और सैयाल चीज़ मुंह में डालना।

और यह भी मकरूह है मनी निकालने के क़स्द के बग़ैर इंसान अपनी बीवी का बोसा ले या शहवत अंगेज़ काम करे और अगर ऐसा करना मनी निकालने के क़स्द से हो और मनी न निकले तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर रोज़ा बातिल हो जाता है।

ऐसे मवाक़े जिनमें रोज़ा की क़ज़ा और कफ़्फ़ारा वाजिब हो जाते हैं।

1667. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान के रोज़े को खाने, पीने या हम बिस्तरी या इस्तिमना या जनाबत पर बाक़ी रहने की वजह से बातिल करे जबकि जब्र और नाचारी की बिना पर नहीं बल्कि अमदन और इख़्तियारन ऐसा किया हो तो उस पर क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा भी वाजिब होगा और जो कोई मुतज़क्किरा उमूर के अलावा किसी और तरीक़े से रोज़ा बातिल करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा भी दे।

1668. जिन उमूर का ज़िक्र किया गया है अगर उन में से किसी फ़ेल को अंजाम दे जबकि उसे पुख्ता यक़ीन हो कि उस अमल से उस का रोज़ा बातिल नहीं होगा तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

रोज़े का कफ़्फ़ारा

1669. माहे रमज़ान का रोज़ा तोड़ने के कफ़्फ़ारे के तौर पर ज़रूरी है कि इंसान एक ग़ुलाम आज़ाद करे या उन अहकाम के मुताबिक़ जो आइन्दा मस्अले में बयान किये जायेंगे दो महीने रोज़े रखे या साठ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाए या हर फ़क़ीर को एक मुद तक़्रीबन 3/4 किलो तआम यानी गंदुम या जौ या रोटी वग़ैरा दे और अगर यह अफ़्आल अंजाम देना उसके लिये मुम्किन न हो तो ब क़द्रे इम्कान सदक़ा देना ज़रूरी है और अगर यह मुम्किन न हो तो तौबा व इस्तिग़फ़ार करे और एहतियाते वाजिब यह है कि जिस वक़्त (कफ़्फ़ारा देने के) क़ाबिल हो जाए कफ़्फ़ारा दे।

1670. जो शख़्स माहे रमज़ान के रोज़े के कफ़्फ़ारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे तो ज़रूरी है कि एक पूरा महीना और उससे अगले महीने के एक दिन तक मुसलसल रोज़े रखे और अगर बाक़ी मांदा रोज़े मुसलसल न भी रखे तो कोई इश्काल नहीं।

1671. जो शख़्स माहे रमज़ान के रोज़े के कफ़्फ़ारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे ज़रूरी है कि वह रोज़े ऐसे वक़्त न रखे जिसके बारे में वह जानता हो कि एक महीने और एक दिन के दरमियान ईदे क़ुर्बान की तरह कोई ऐसा दिन आ जायेगा जिसका रोज़ा रखना हराम है।

1672. जिस शख़्स को मुसलसल रोज़े रखना ज़रूरी है अगर वह उन के बीच में बग़ैर उज़्र के एक दिन रोज़ा न रखे तो ज़रूरी है कि दोबारा अज़ सरे नव रोज़े रखे।

1673. अगर उन दिनों के दरमियान जिन में मुसलसल रोज़े रखने ज़रूरी है रोज़ादार को कोई ग़ैर इख़्तियारी उज़्र पेश आ जाए मसलन हैज़ या निफ़ास या ऐसा सफ़र जिसे इख़्तियार करने पर वह मजबूर हो तो उज़्र के दूर होने के बाद रोज़ों का अज़् सरे नव रखना उसके लिये वाजिब नहीं बल्कि उज़्र दूर होने के बाद बाक़ी मांदा रोज़े रखे।

1674. अगर कोई शख़्स हराम चीज़ से अपना रोज़ा बातिल कर दे ख़्वाह वह चीज़ बज़ाते खुद हराम हो जैसे शराब और ज़िना या किसी वजह से हराम हो जाए जैसे कि हलाल ग़िज़ा जिस का खाना इंसान के लिये बिल उमूम मुज़िर हो या वह अपनी बीबी से हालते हैज़ में मुजामिअत करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि मज्मूअन कफ़्फ़ारा दे। यानी उसे चाहिये कि एक ग़ुलाम आज़ाद करे और दो महीने रोज़े रखे और साठ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाए या उनमें से हर फ़क़ीर को एक मुद गंदुम या जौ या रोटी वग़ैरा दे और अगर यह तीनों चीज़ें उसके लिये मुम्किन न हो तो उनमें से जो कफ़्फ़ारा मुम्किन हो, दे।

1675. अगर रोज़ादार जानबूझ कर अल्लाह तआला या नबीये अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम से कोई झूटी बात मंसूब करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि मज्मूअन कफ़्फ़ारा वाजिब है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि हर दफ़्आ के लिये एक कफ़्फ़ारा दे।

1676. अगर रोज़ादार माहे रमज़ान के एक दिन में कई दफ़्आ जिमाअ या इस्तिम्ना करे तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि हर दफ़्आ के लिये एक एक कफ़्फ़ारा दे।

1677. अगर रोज़ादार माहे रमज़ान के एक दिन में जिमाअ और इसतिम्ना के अलावा कई दफ़्आ कोई दूसरा ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो उन सब के लिये बिला इश्काल सिर्फ़ एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।

1678. अगर रोज़ादार जिमाअ के अलावा कोई दूसरा ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और फिर अपनी ज़ौजा से मुजामिअत भी करे तो दोनों के लिये एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।

1679. अगर रोज़ादार कोई ऐसा काम करे जो हलाल हो और रोज़े को बातिल करता हो मसलन पानी पी ले और उसके बाद कोई दूसरा ऐसा काम करे जो हराम हो और रोज़े को बातिल करता हो मसलन हराम ग़िज़ा खा ले तो एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।

1680. अगर रोज़ादार डकार ले और कोई चीज़ उसके मुंह में आ जाए तो अगर वह उसे जानबूझ कर निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल है और ज़रूरी है कि उसकी क़ज़ा करे और कफ़्फ़ारा भी उस पर वाजिब हो जाता है और अगर उस चीज़ का खाना हराम हो मसलन डकार लेते वक़्त खून या ऐसी ख़ोराक जो ग़िज़ा की तअरीफ़ में न आती हो उसके मुंह में आ जाए और वह उसे जानबूझ कर निगल ले तो ज़रूरी है कि उस रोज़े की क़ज़ा बजा लाए और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर मज्मूअन कफ़्फ़ारा भी दे।

1681. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि एक ख़ास दिन रोज़ा रखेगा तो अगर वह उस दिन जानबूझ कर अपने रोज़े को बातिल कर दे तो ज़रूरी है कि कफ़्फ़ारा दे और उसका कफ़्फ़ारा उसी तरह है जैसे कि मन्नत तोड़ने पर है।

1682. अगर रोज़ादार एक ऐसे शख़्स के कहने पर जो कहे कि मग़्रिब का वक़्त हो गया है और जिसके कहने पर एतिमाद न हो रोज़ा इफ़्तार कर ले और बाद में उसे पता चले कि मग़्रिब का वक़्त नहीं हुआ या शक करे कि मग़्रिब का वक़्त हुआ है या नहीं तो उस पर क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जाते हैं।

1683. जो शख़्स जानबूझ कर अपना रोज़ा बातिल कर ले और अगर वह ज़ोहर के बाद सफ़र करे या कफ़्फ़ारे से बचने के लिये ज़ोहर से पहले सफ़र करे तो उस पर से कफ़्फ़ारा साक़ित नहीं होता बल्कि अगर ज़ोहर से पहले इत्तिफ़ाक़न उसे सफ़र करना पड़े तब भी कफ़्फ़ारा उस पर वाजिब है।

1684. अगर कोई शख़्स जानबूझ कर अपना रोज़ा तोड़ दे और उसके बाद कोई उज़्र पैदा हो जाए मसलन हैज़ या निफ़ास या बीमारी में मुब्तला हो जाए तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा दे।

1685. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि आज माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ है और वह जानबूझ कर रोज़ा तोड़ दे लेकिन बाद में उसे पता चले कि शाबान की आख़िरी तारीख़ है तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

1686. अगर किसी शख़्स को शक हो कि आज रमज़ान की आख़िरी तारीख़ है या शव्वाल की पहली तारीख़ है और वह जानबूझ कर रोज़ा तोड़ दे और बाद में पता चले कि पहली शव्वाल है तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

1687. अगर एक रोज़ादार माहे रमज़ान में अपनी रोज़ादार बीवी से जिमाअ करे तो अगर उसने बीवी को मजबूर किया हो तो अपने रोज़े का कफ़्फ़ारा और एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि अपनी बीवी के रोज़े का भी कफ़्फ़ारा दे और अगर बीवी जिमाअ पर राज़ी हो तो हर एक पर एक एक कफ़्फ़ारा वाजिब हो जाता है।

1688. अगर कोई औरत अपने रोज़ादार शौहर को जिमाअ करने पर मजबूर करे तो उस पर शौहर के रोज़े का कफ़्फ़ारा अदा करना वाजिब नहीं है।

1689. अगर रोज़ादार माहे रमज़ानुल मुबारक में अपनी बीवी को जिमाअ पर मजबूर करे और जिमाअ के दौरान औरत भी जिमाअ पर राज़ी हो जाए तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि मर्द दो कफ़्फ़ारे दे और औरत एक कफ़्फ़ारा दे।

1690. अगर रोज़ादार माहे रमज़ानुल मुबारक में अपनी रोज़ादार बीवी से जो सो रही हो जिमाअ करे तो उस पर एक कफ़्फ़ारा वाजिब हो जाता है औरत का रोज़ा सहीह है और उस पर कफ़्फ़ारा भी वाजिब नहीं है।

1691. अगर शौहर अपनी बीवी को या बीवी अपने शौहर को जिमाअ के अलावा कोई ऐसा काम करने पर मजबूर करे जिससे रोज़ा बातिल हो जाता हो तो उन दोनों में से किसी पर भी कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

1692. जो आदमी सफ़र या बीमारी की वजह से रोज़ा न रखे वह अपनी रोज़ादार बीवी को जिमाअ पर मजबूर नहीं कर सकता लेकिन अगर मजबूर करे तब भी मर्द पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं।

1693. ज़रूरी है कि इंसान कफ़्फ़ारा देने में कोताही न करे लेकिन फ़ौरी तौर पर देना भी ज़रूरी नहीं।

1694. अगर किसी शख़्स पर कफ़्फ़ारा वाजिब हो और वह कई साल तक न दे तो कफ़्फ़ारे में कोई इज़ाफ़ा नहीं होता।

1695. जिस शख़्स को बतौर कफ़्फ़ारा एक दिन साठ फ़क़ीरों को खाना खिलाना ज़रूरी हो अगर साठ फ़क़ीर मौजूद हों तो वह एक फ़क़ीर को एक मुद से ज़्यादा खाना नहीं दे सकता या एक फ़क़ीर को एक से ज़ाइद मर्तबा पेट भर खिलाए और उसे अपने कफ़्फ़ारे में ज़्यादा अफ़राद को खाना खिलाना शुमार करे अलबत्ता वह फ़क़ीर के अहलो अयाल में से हर एक को एक मुद दे सकता है ख़्वाह वह छोटे ही क्यों न हों।

1696. जो शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े की क़ज़ा करे अगर वह ज़ोहर के बाद जानबूझ कर कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि दस फ़क़ीरों को फ़र्दन फ़र्दन एक मुद खाना दे और अगर न दे सकता हो तो तीन रोज़े रखे।

वह सूरतें जिन में फ़क़त रोज़े की क़ज़ा वाजिब है

1697. जो सूरतें बयान हो चुकी हैं उनके अलावा इन चन्द सूरतों में इंसान पर सिर्फ़ रोज़े की क़ज़ा वाजिब है और कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

1. एक शख़्स माहे रमज़ान की रात में जुनुब हो जाए और जैसा कि मस्अला 1639 में तफ़्सील से बताया गया है सुब्ह की अज़ान तक दूसरी नीन्द से बेदार न हो।

2. रोज़े को बातिल करने वाला काम तो न किया हो लेकिन रोज़े की नीयत न करे या रिया करे (यानी लोगों पर ज़ाहिर करे कि रोज़े से हूँ) या रोज़ा न रखने का इरादा करे इसी तरह अगर ऐसे काम का इरादा करे जो रोज़ो को बातिल करता हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस दिन के रोज़े की क़ज़ा रखना ज़रूरी है।

3. माहे रमज़ानुल मुबारक में ग़ुस्ले जनाबत करना भूल जाए और जनाबत की हालत में एक या कई दिन रोज़े रखता रहे।

4. माहे रमज़ानुल मुबारक में यह तहक़ीक़ किये बग़ैर कि सुब्ह हुई या नहीं कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में पता चले कि सुब्ह हो चुकि थी तो इस सूरत में एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि क़ुर्बते मुतलक़ा की नीयत से उस दिन उन चीज़ों से इज्तिनाब करे जो रोज़े को बातिल करती हैं और उस दिन के रोज़े की क़ज़ा भी करे।

5. कोई कहे कि सुब्ह नहीं हुई और इंसान उसके कहने की बिना पर कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में पता चले कि सुब्ह हो गई थी।

6. कोई कहे कि सुब्ह हो गई है और इंसान उसके कहने पर यक़ीन न करे या समझे कि मज़ाक़ कर रहा है और ख़ुद तहक़ीक न करे और कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में मालूम हो कि सुब्ह हो गई थी।

7. नाबीना या उस जैसा कोई शख़्स किसी के कहने पर जिसका क़ौल उसके लिये शरअन हुज्जत हो, रोज़ा इफ़्तार कर ले कि मग़्रिब हो गई है और बाद में मालूम हो कि मग़्रिब का वक़्त नहीं हुआ था।

8. इंसान को यक़ीन या इत्मीनान हो कि मग़्रिब हो गई है और वह रोज़ा इफ़्तार कर ले और बाद में पता चले कि मग़्रिब नहीं हुई थी लेकिन अगर मत्लअ अब्र आलूद हो और इंसान उस गुमान के तहत इफ़्तार कर ले कि मग़्रिब हो गई है और बाद में मालूम हो कि मग़्रिब नहीं हुई थी तो एहतियात की बिना पर उसे सूरत में क़ज़ा वाजिब है।

9. इंसान प्यास की वजह से कुल्ली करे यानी पानी मुंह में घुमाये और बे इख़्तियार पानी पेट में चला जाए। अगर नमाज़े वाजिब के वुज़ू के अलावा किसी वुज़ू में कुल्ली की जाए तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उसके लिये भी यही हुक्म है लेकिन अगर इंसान भूल जाए कि रोज़े से है और पानी गले से उतर जाए या प्यास के अलावा किसी दूसरी सूरत में कि जहां कुल्ली करना मुस्तहब है – जैसे वुज़ू करते वक़्त – कुल्ली करे और पानी बे इख़्तियार पेट में चला जाए तो उसकी क़ज़ा नहीं है।

10. कोई शख़्स मजबूरी, इज़तिरार या तक़ैया की हालत में रोज़ा इफ़्तार करे तो उस पर रोज़ा की क़ज़ा रखना लाज़िम है लेकिन कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं।

1698. अगर रोज़ादार पानी के अलावा कोई चीज़ मुंह में डाले और वह बे इख़्तियार पेट में चली जाए या नाक में पानी डाले और वह बे इख़्तियार (हल्क़ के) नीचे उतर जाए तो उस पर क़ज़ा वाजिब नहीं है।

1699. रोज़ादार के लिये ज़्यादा कुल्लियाँ करना मकरूह है और अगर कुल्ली के बाद लुआबे दहन निगलना चाहे तो बेहतर है कि पहले तीन दफ़्आ लुआबे दहन को थूक दे।

1700. अगर किसी शख़्स को मालूम हो या उसे एहतिमाल हो कि कुल्ली करने से बे इख़्तियार पानी उसके हल्क़ में चला जायेगा तो ज़रूरी है कि कुल्ली न करे, और अगर जानता हो कि भूल जाने की वजह से पानी उसके हल्क़ में चला जायेगा तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है।

1701. अगर किसी शख़्स को माहे रमज़ानुल मुबारक में तहक़ीक़ करने के बाद मालूम न हो कि सुब्ह हो गई है और वह कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में मालूम हो कि सुब्ह हो गई थी तो उसके लिये रोज़े की क़ज़ा करना ज़रूरी नहीं।

1702. अगर किसी शख़्स को शक हो कि मग़्रिब हो गई है या नहीं तो वह रोज़ा इफ़्तार नहीं कर सकता लेकिन अगर उसे शक हो कि सुब्ह हो गई है या नहीं तो वह तहक़ीक करने से पहले ऐसा काम कर सकता है जो रोज़े को बातिल करता हो।

क़ज़ा रोज़े के अहकाम

1703. अगर कोई दीवाना अच्छा हो जाए तो उसके लिए आलमे दीवांगी के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब नहीं।

1704. अगर कोई काफ़िर मुसलमान हो जाए तो उस पर ज़माना ए कुफ़्र के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब नहीं है लेकिन अगर एक मुसलमान काफ़िर हो जाए और फिर दोबारा मुसलमान हो जाए तो ज़रूरी है कि अय्यामे कुफ़्र के रोज़े की क़ज़ा बजा लाये।

1705. जो रोज़े इंसान की बेहवासी की वजह से छूट जायें ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा बजा लाए ख़्वाह जिस चीज़ की वजह से वह बेहवास हुआ हो वह इलाज की ग़रज़ से ही खाई हो।

1706. अगर कोई शख़्स किसी उज़्र की वजह से चन्द दिन रोज़े न रखे और बाद में शक करे कि उसका उज़्र किस वक़्त ज़ाइल हुआ था तो उसके लिये वाजिब नहीं कि जितनी मुद्दत रोज़े न रखने का ज़्यादा एहतिमाल हो उसके मुताबिक़ क़ज़ा बजा लाए मसलन अगर कोई शख़्स रमज़ानुल मुबारक से पहले सफ़र करे और उसे मालूम न हो कि माहे मुबारक की पांचवीं तारीख़ को सफ़र से वापस आया था या छटी को, या मसलन उसने माहे मुबारक के आख़िर में सफ़र शुरू किया हो और माहे मुबारक ख़त्म होने के बाद वापस आया हो। और उसे पता न हो कि पच्चीसवीं रमज़ान को सफ़र किया था या छब्बीसवीं को तो दोनों सूरतों में वह कमतर दिनों याअनी पांच रोज़ों की क़ज़ कर सकता है अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़्यादा दिनों यानी छः दिनों की क़ज़ा करे।

1707. अगर किसी शख़्स पर कई साल के माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब हो तो जिस साल के रोज़ों की क़ज़ा पहले करना चाहे कर सकता है लेकिन अगर आख़िरी रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा का वक़्त तंग हो मसलन आख़िरी रमज़ानुल मुबारक के पांच रोज़ों की क़ज़ा उसके ज़िम्मे हो और आइन्दा रमज़ानुल मुबारक के शूरू होने में भी पांच ही दिन बाक़ी हों तो बेहतर यह है कि पहले आख़िरी रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा बजा लाए।

1708. अगर किसी शख़्स पर कई साल के माहे रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब हो और वह रोज़े की नीयत करते वक़्त मुअय्यन न करे कि कौन से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े की क़ज़ा कर रहा है तो उसका शुमार आख़िरी माहे रमज़ान की क़ज़ा में नहीं होगा।

1709. जिस शख़्स ने रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखा हो वह उस रोज़े को ज़ोहर से पहले तोड़ सकता है लेकिन अगर क़ज़ा का वक़्त तंग हो तो बेहतर है कि रोज़ा न तोड़े।

1710. अगर किसी ने मैयित का क़ज़ा रोज़ा रखा हो तो बेहतर है कि ज़ोहर के बाद रोज़ा न तोड़े।

1711. अगर कोई बीमारी या हैज़ या निफ़ास की वजह से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे और उस मुद्दत के गुज़रने से पहले कि जिसमें वह उन रोज़ों की जो उसने नहीं रखे थे क़ज़ा कर सकता हो मर जाए तो उन रोज़ों की क़ज़ा नहीं है।

1712. अगर कोई शख़्स बीमारी का वजह से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे और उसकी बीमारी आइन्दा रमज़ान तक तूल खींच जाए तो जो रोज़े उसने न रखे हों उनकी क़ज़ा उस पर वाजिब नहीं है और ज़रूरी है कि हर दिन के लिए एक मुद तआम यानी गंदुम या जौ या रोटी वग़ैरा फ़क़ीर को दे लेकिन अगर किसी उज़्र मसलन सफ़र की वजह से रोज़े न रखे और उसक उज़्र आइन्दा रमज़ानुल मुबारक तक बाक़ी रहे तो ज़रूरी है कि जो रोज़े न रखे हों उनकी क़ज़ा करे एहतियाते वाजिब है कि हर एक दिन के लिये एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे। 1713. अगर कोई शख़्स बीमारी का वजह से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे और रमज़ानुल मुबारक के बाद उसकी बीमारी दूर हो जाए लेकिन कोई दूसरा उज़्र लाहिक़ हो जाए जिसकी वजह से वह आइन्दा रमज़ानुल मुबारक तक क़ज़ा रोज़े न रख सके तो ज़रूरी है कि जो रोज़े न रखे हों उनकी क़ज़ा बजा लाए नीज़ अगर रमज़ानुल मुबारक में बीमारी के अलावा कोई और उज़्र रखता हो और रमज़ानुल मुबारक तक बीमारी की वजह से रोज़े न रख सके तो जो रोज़े न रखे हों ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा बजा लाए और एहतियाते वाजिब की बिना पर हर दिन के लिये एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे।

1714. अगर कोई शख़्स किसी उज़्र की वजह से रमज़ानुल मुबारक में रोज़े न रखे और रमज़ानुल मुबारक के बाद उसका उज़्र दूर हो जाए और वह आइन्दा रमज़ानुल मुबारक तक अमदन रोज़े की क़ज़ा न बजा लाए तो ज़रूरी है कि रोज़ों की क़ज़ा करे और हर दिन के लिये एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे।

1715. अगर कोई शख़्स क़ज़ा रोज़े रखने में कोताही करे हत्ता कि वक़्त तंग हो जाए और वक़्त की तंगी में उसे कोई उज़्र पेश आ जाए तो ज़रूरी है कि रोज़ों की क़ज़ा करे और एहतियात की बिना पर हर एक दिन के लिए एक मुद तआम (गिज़ा) फ़क़ीर को दे। और अगर उज़्र दूर होने के बाद मुसम्मम इरादा रखता हो कि रोज़ों की क़ज़ा बजा लायेगा लेकिन क़ज़ा बजा लाने से पहले तंग वक़्त में उसे कोई उज़्र पेश आ जाए तो उस सूरत में भी यही हुक्म है।

1716. अगर इंसान का मरज़ चन्द साल तूल खींच जाए तो ज़रूरी है कि तन्दुरुस्त होने के बाद आख़िरी रमज़ानुल मुबारक के छुटे हुए रोज़ों की क़ज़ा बजा लाए और उससे पिछले सालों के माह हाए मुबारक के हर दिन के लिए एक मुद तआम फ़क़ीर को दे।

1717. जिस शख़्स के लिए हर रोज़े के एवज़ एक मुद तआम फ़क़ीर को देना ज़रूरी हो वह चन्द दिनों का कफ़्फ़ारा एक ही फ़क़ीर को दे सकता है।

1718. अगर कोई शख़्स रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा करने में कई साल की तारव़ीर कर दे तो ज़रूरी है कि क़ज़ा करे और पहले साल में तारव़ीर करने की बिना पर हर रोज़े के लिए एक मुद तआम फ़क़ीर को दे लेकिन बाक़ी कई साल की तारव़ीर के लिए उस पर कुछ भी वाजिब नहीं है।

1719. अगर कोई शख़्स रमज़ानुल मुबारक के रोज़े जानबूझ कर न रखे तो ज़रूरी है कि उन की क़ज़ा बजा लाए और हर दिन के लिए दो महीने रोज़े रखे या साठ फ़क़ीरों को खाना दे या एक ग़ुलाम आज़ाद करे और अगर आइन्दा रमज़ानुल मुबारक तक उन रोज़ों की क़ज़ा न करे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर हर दिन के लिए एक मुद तआम कफ़्फ़ारा भी दे।

1720. अगर कोई शख़्स जान बूझ कर रमज़ानुल मुबारक का रोज़ा न रखे और दिन में कई दफ़्आ जिमाअ या इसतिम्ना करे तो अक़्वा की बिना पर कफ़्फ़ारा मुक़र्रर नहीं होगा (एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है) ऐसे ही अगर कई दफ़्आ कोई और ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो मसलन कई दफ़्आ खाना खाए तब भी एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।

1721. बाप के मरने के बाद बड़े बेटे के लिए एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि बाप के रोज़ों की क़ज़ा उसी तरह बजा लाए जैसे कि नमाज़ के सिलसिले में मस्अला 1399 में तफ़्सील से बताया गया है।

1722. अगर किसी के बाप ने माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों के अलावा कोई दूसरे वाजिब रोज़े मसलन सुन्नती रोज़े न रखे हों तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बड़ा बेटा उन रोज़ों की क़ज़ा बजा लाए लेकिन अगर बाप किसी के रोज़ों के लिए अजीर बना हो और उस ने वह रोज़े न रखे हों तो उन रोज़ों की क़ज़ा बड़े बेटे पर वाजिब नहीं है।

मुसाफ़िर के रोज़ों के अहकाम

1723. जिस मुसाफ़िर के लिए सफ़र में चार रक्अती नमाज़ के बजाय दो रक्अत पढ़ना ज़रूरी हो उसे रोज़ा नहीं रखना चाहिये लेकिन वह मुसाफ़िर जो पूरी नमाज़ पढ़ता हो मसलन वह शख़्स जिसका पेशा ही सफ़र हो या जिसका सफ़र किसी नजाइज़ काम के लिए हो ज़रूरी है कि सफ़र में रोज़ा रखे।

1724. माहे रमज़ानुल मुबारक में सफ़र करने में कोई हरज नहीं लेकिन रोज़े से बचने के लिए सफ़र करना मकरूह है और इसी तरह माहे रमज़ानुल मुबारक की चौबीसवीं तारीख़ से पहले सफ़र करना (भी मकरूह है) बजुज़ उस सफ़र के जो हज, उमरा या किसी ज़रूरी काम के लिए हो।

1725. अगर माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों के अलावा किसी खास दिन का रोज़ा इंसान पर वाजिब हो या एतिकाफ़ के दिनों में से तीसरा दिन हो तो उस दिन सफ़र नहीं कर सकता और अगर सफ़र में हो और उसके लिए ठहरना मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि दस दिन एक जगह क़ियाम करने की नीयत करे और उस दिन रोज़ा रखे लेकिन अगर उस दिन का रोज़ा मन्नत की वजह से वाजिब हुआ हो तो ज़ाहिर यह है कि उस दिन सफ़र करना जाइज़ है और क़ियाम की नीयत करना वाजिब नहीं। अगरचे बेहतर यह है कि जब तक सफ़र करने के लिए मजबूर न हो सफ़र न करे और अगर सफ़र में हो तो क़ियाम करने की नीयत करे।

1726. अगर कोई शख़्स मुस्तहब रोज़े की मन्नत माने लेकिन उसके लिए दिन मुअय्यन न करे तो वह शख़्स सफ़र में ऐसा मन्नती रोज़ा नहीं रख सकता लेकिन अगर मन्नत माने कि सफ़र के दौरान एक मख़्सूस दिन रोज़ा रखेगा तो ज़रूरी है कि वह रोज़ा सफ़र में रखे नीज़ अगर मन्नत माने कि सफ़र में हो या न हो एक मख़्सूस दिन का रोज़ा रखेगा तो ज़रूरी है कि अगरचे सफ़र में हो तब भी उस दिन का रोज़ा रखे।

1727. मुसाफ़िर तलबे हाजत के लिए तीन दिन मदीना ए तैयिबा में मुस्तहब रोज़ा रख सकता है। और अहवत यह है कि वह तीन दिन बुध, जुमअरात और जुमुआ हों।

1728. कोई शख़्स जिसे यह इल्म न हो कि मुसाफ़िर का रोज़ा रखना बातिल है, अगर सफ़र में रोज़ा रख ले और दिन ही दिन में उसे हुक्मे मस्अला मालूम हो जाए तो उसका रोज़ा बातिल है लेकिन अगर मग़्रिब तक हुक्म मालूम न हो तो उसका रोज़ा सहीह है।

1729. अगर कोई शख़्स यह भूल जाए कि वह मुसाफ़िर है या यह भूल जाए कि मुसाफ़िर का रोज़ा बातिल होता है और सफ़र के दौरान रोज़ा रख ले तो उसका रोज़ा बातिल है।

1730. अगर रोज़ादार ज़ोहर के बाद सफ़र करे तो ज़रूरी है कि एहतियात की बिना पर अपने रोज़े को तमाम करे और अगर ज़ोहर से पहले सफ़र करे और रात से ही सफ़र का इरादा रखता हो तो उस दिन का रोज़ा नहीं रख सकता लेकिन हर सूरत में हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुंचने से पहले ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जो रोज़े को बातिल करता हो वर्ना उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब होगा।

1731. अगर मुसाफ़िर रमज़ानुल मुबारक में ख़्वाह वह फ़ज्र से पहले सफ़र में हो या रोज़े से हो और सफ़र करे और ज़ोहर से पहले अपने वतन पहुंच जाए या ऐसी जगह पहुंच जाए जहाँ वह दस दिन क़ियाम करना चाहता हो और उसने कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि उस दिन का रोज़ा रखे और अगर कोई ऐसा काम किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नहीं है।

1732. अगर मुसाफ़िर ज़ोहर के बाद अपने वतन पहुँचे या ऐसी जगह पहुँचे जहाँ दस दिन क़ियाम करना चाहता हो तो वह उस दिन का रोज़ा नहीं रख सकता।

1733. मुसाफ़िर और वह शख़्स जो किसी उज़्र की वजह से रोज़ा न रख सकता हो उसके लिए माहे रमज़ानुल मुबारक में दिन के वक़्त जिमाअ करना और पेट भर कर खाना और पीना मकरूह है।

वह लोग जिन पर रोज़ा रखना वाजिब नहीं

1734. जो शख़्स बुढ़ापे की वजह से रोज़ा न रख सकता हो या रोज़ा रखना उसके लिए शदीद तक्लीफ़ का बाइस हो उस पर रोज़ा वाजिब नहीं है लेकिन रोज़ा न रखने की सूरत में ज़रूरी है कि हर रोज़े के एवज़ एक मुद तआम यानी गंदुम या जौ या रोटी या उन से मिलती जुलती कोई चीज़ फ़क़ीर को दे।

1735. जो शख़्स बुढ़ापे की वजह से माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे अगर वह रमज़ानुल मुबारक के बाद रोज़े रखने के क़ाबिल हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि जो रोज़े न रखें हो उनकी क़ज़ा बजा लाए।

1736. अगर किसी शख़्स को कोई ऐसी बीमारी हो जिसकी वजह से उसे बहुत ज़्यादा प्यास लगती हो और वह प्यास बर्दाश्त न कर सकता हो या प्यास की वजह से उसे तक्लीफ़ होती हो तो उस पर रोज़ा वाजिब नहीं है लेकिन रोज़ा न रखने की सूरत में ज़रूरी है कि हर रोज़े के एवज़ एक मुद तआम फ़क़ीर को दे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि जितनी मिक़्दार अशद ज़रूरी हो उस से ज़्यादा पानी न पिये और बाद में जब रोज़ा रखने के क़ाबिल हो जाए तो जो रोज़े न रखे हों एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उन की क़ज़ा बजा लाए।

1737. जिस औरत का वज़्ए हम्ल का वक़्त क़रीब हो, उसका रोज़ा रखना ख़ुद उसके लिए या उसके होने वाले बच्चे के लिए मुज़िर हो उस पर रोज़ा वाजिब नहीं है और ज़रूरी है कि वह हर दिन के एवज़ एक मुद तआम फ़क़ीर को दे और ज़रूरी है कि दोनों सूरतों में जो रोज़े न रखे हों उनकी क़ज़ा बजा लाए।

1738. जो औरत बच्चे को दूध पिलाती हो और उसका दूध कम हो ख़्वाह वह बच्चे की माँ हो या दाया और ख़्वाह बच्चे को मुफ़्त दूध पिला रही हो अगर उसका रोज़ा रखना खुद उसके या दूध पीने वाले बच्चे के लिए मुज़िर हो तो उस औरत पर रोज़ा रखना वाजिब नहीं है और ज़रूरी है कि हर एक दिन के एवज़ एक मुद तआम फ़क़ीर को दे और दोनों सूरतों में जो रोज़े न रखे हों उन की क़ज़ा करना ज़रूरी है। लेकिन एहतियाते वाजिब की बिना पर यह हुक्म सिर्फ़ उस सूरत में है जबकि बच्चे को दूध पिलाने का इनहिसार उसी पर हो। लेकिन अगर बच्चे को दूध पिलाने का कोई और तरीक़ा हो मसलन कुछ औरतें मिल कर बच्चे को दूध पिलायें तो ऐसी सूरत में इस हुक्म के साबित होने में इश्काल है।

महीने की पहली तारीख़ साबित होने का तरीक़ा

1739. महीने की पहली तारीख़ (मुन्दरिजा ज़ैल) चार चीज़ों से साबित होती है।

1. इंसान खुद चांद देखे।

2. एक ऐसा गुरोह जिसके कहने पर यक़ीन या इत्मीनान हो जाए यह कहे कि हमने चाँद देखा है और इस तरह हर वह चीज़ जिसकी बतौलत यक़ीन या इत्मीनान हो जाए।

3. दो आदिल मर्द यह कहें कि हमने रात को चांद देखा है लेकिन अगर वह चांद के अलग अलग औसाफ़ बयान करें तो पहली तारीख़ साबित नहीं होगी। और यही हुक्म है अगर उनकी गवाही से इख़तिलाफ़ हो। या उस के हुक्म में इख़तिलाफ़ हो। मसलन शहर के बहुत से लोग चांद देखने की कोशीश करें लेकिन दो आदिल आदमियों के अलावा कोई दूसरा चांद देखने का दअवा न करे या कुछ लोग चांद देखने की कोशीश करें और उन लोगों में से दो आदिल चांद देखने का दअवा करें और दूसरों को चांद नज़र न आए हालांकि उन लोगों में से दो और आदिल आदमि ऐसे हों जो चांद की जगह पहचानचे, निगाह की तेज़ी और दीगर ख़ुसूसीयात में उन पहले दो आदमियों की मानिन्द हों (और वह चांद देखने का दअवा न करें) तो ऐसी सूरत में दो आदिल आदमियों की गवाही से महीने की पहली तारीख़ साबित नहीं होगी।

4. शाबान की पहली तारीख़ से तीस दिन गुज़र जायें जिन के गुज़रने पर माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख साबित हो जाती है और रमज़ानुल मुबारक से तीस दिन गुज़र जायें जिनके गुज़रने पर शव्वाल की पहली तारीख़ साबित हो जाती है।

1740. हाकिमे शरअ के हुक्म से महीने की पहली तारीख़ साबित नहीं होती और एहतियात की रिआयत करना औला है।

1741. मुनज्जिमों की पेशीनगोई से महीने की पहली तारीख़ साबित नहीं होती लेकिन अगर इंसान को उनके कहने से यक़ीन या इत्मीनान हो जाए तो ज़रूरी है कि उस पर अमल करे।

1742. चांद का आसमान पर बलन्द होना या उसका देर से ग़ुरूब होना इस बात की दलील नहीं कि साबिक़ा रात चांद रात थी और इसी तरह अगर चांद के गिर्द हल्क़ा हो तो यह इस बात की दलील नहीं है कि पहली का चांद गुज़श्ता रात निकला था।

1743. अगर किसी शख़्स पर माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ साबित न हो और वह रोज़ा न रखे लेकिन बाद में साबित हो जाए कि गुज़श्ता रात ही चांद रात थी तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।

1744. अगर किसी शहर में महीने की पहली तारीख़ साबित हो जाए तो दूसरे शहरों में भी कि जिनका उफ़ुक़ उस शहर में मुत्तहिद हो महीने की पहली तारीख़ होती है। यहाँ पर उफ़ुक़ के मुत्तहिद होने से मुराद यह है कि अगर पहले शहर में चांद दिखाई दे तो दूसरे शहर में भी अगर बादल की तरह कोई रुकावट न हो तो चांद दिखाई देता है।

1745. महीने की पहली तारीख़ टेलीग्राम (और फ़ैक्स या टेलेक्स) से साबित नहीं होती सिवाय इस सूरत के कि इंसान को इल्म हो कि यह पैग़ाम दो आदिल मर्दों की शहादत की रू से या किसी दूसरे ऐसे तरीक़े से आया है जो शर्अन मोअतबर है।

1746. जिस दिन के मुतअल्लिक़ इंसान को इल्म न हो कि रमज़ानुल मुबारक का आख़िरी दिन है या शव्वाल का पहला दिन उस दिन ज़रूरी है कि रोज़ा रखे लेकिन अगर दिन ही दिन उसे पता चल जाए कि आज यकुम शव्वाल (रोज़े ईद) है तो ज़रूरी है कि रोज़ा इफ़्तार कर ले।

1747. अगर कोई शख़्स क़ैद में हो और माहे रमज़ान के बारे में यक़ीन न कर सके तो ज़रूरी है कि गुमान पर अमल करे लेकिन अगर क़वी गुमान पर अमल कर सकता हो तो ज़ईफ़ गुमान पर अमल नही कर सकता और अगर गुमान पर अमल मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि जिस महीने के बारे में एहतिमाल हो कि रमज़ान है उस महीने में रोज़े रखे लेकिन ज़रूरी है कि वह उस महीने को याद रखे। चुनांचे बाद में उसे मालूम हो कि वह माहे रमज़ान या उसके बाद का ज़माना था तो उसके ज़िम्मे कुछ नहीं है। लेकिन अगर मालूम हो कि माहे रमज़ान से पहले का ज़माना था तो ज़रूरी है कि रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा करे।

हराम और मकरूह रोज़े

1748. ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुर्बान के दिन रोज़ा रखना हराम है। नीज़ जिस दिन के बारे में इंसान को यह इल्म न हो कि शाबान की आख़िरी तारीख़ है या रमज़ानुल मुबारक की पहली तो अगर वह उस दिन पहली रमज़ानुल मुबारक की नीयत से रोज़ा रखे तो हराम है।

1749. अगर औरत के मुस्तहब (नफ़्ली) रोज़े रखने से शौहर की हक़ तलफ़ी होती हो तो औरत का रोज़ा रखना हराम है और एहतियाते वाजिब यह है कि ख़्वाह शौहर की हक़ तलफ़ी न भी होती हो उसकी इजाज़त के बग़ैर मुस्तहब (नफ़्ली) रोज़ा न रखे।

1750. अगर औलाद का मुस्तहब रोज़ाः- माँ बाप की औलात से शफ़क़त की वजह से - - माँ के लिए अज़ीयत का मूजिब हो तो औलाद के लिए मुस्तहब रोज़े रखना हराम है।

1751. अगर बेटा बाप की इजाज़त के बग़ैर मुस्तहब रोज़ा रख ले और दिन के दौरान बाप उसे (रोज़ा रखने से) मना करे तो अगर बेटे का बाप की बात न मानना फ़ितरी शफ़क़त की वजह से अज़ीत का मूजिब हो तो बेटे को चाहिए कि रोज़ा तोड़ दे।

1752. अगर कोई शख़्स जानता हो कि रोज़ा रखना उसके लिए ऐसा मुज़िर नहीं है कि जिसकी परवाह की जाए तो अगरचे तबीब कहे कि मुज़िर है उसके लिए ज़रूरी है कि रोज़ा रखे और अगर कोई शख़्स यक़ीन या गुमान रखता हो कि रोज़ा उसके लिए मुज़िर है तो अगरचे तबीब कहे कि मुज़िर नहीं है ज़रूरी है कि वह रोज़ा न रखे और अगर वह रोज़ा रखे जबकि रोज़ा रखना वाक़ई मुज़िर हो या क़स्दे क़ुर्बत से न हो तो उसका रोज़ा सहीह नहीं है।

1753. अगर किसी शख़्स को एहतिमाल हो कि रोज़ा रखना उसके लिए ऐसा मुज़िर है कि जिसकी परवाह की जाए और इस एहतिमाल की बिना पर (उस के दिल में) ख़ौफ़ पैदा हो जाए तो अगर उस का एहतिमाल लोगों की नज़र में सहीह हो तो उसे रोज़ा नहीं रखना चाहिये। और अगर वह रोज़ा रख ले तो साबिक़ा मस्अले की तरह उस सूरत में भी उस का रोज़ा सहीह नहीं है।

1754. जिस शख़्स को एतिमाद हो कि रोज़ा रखना उसके लिए मुज़िर नहीं अगर वह रोज़ा रख ले और मग़्रिब के बाद उसे पता चले कि रोज़ा रखना उसके लिये ऐसा मुज़िर था कि जिसकी परवाह की जाती तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उस रोज़े की क़ज़ा करना ज़रूरी है।

1755. मुन्दरिजा बाला रोज़ों के अलावा और भी रोज़े हराम हैं जो मुफ़स्सल किताबों में मज़्कूर हैं।

1756. आशूर के दिन रोज़ा रखना मकरूह है और उस दिन का रोज़ा भी मकरूह है जिसके बारे में शक हो कि अरफ़ा का दिन है या ईदे क़ुर्बान का।

मुस्तहब रोज़े

1757. बजुज़ हराम और मकरूह रोज़ों के जिनका ज़िक्र किया गया है साल के तमाम दिनों में रोज़े मुस्तहब हैं और बाज़ दिनों के रोज़े रखने की बहुत ताकीद की गई है जिनमें से चन्द यह हैं

1. हर महीने की पहली और आख़िरी जुम्अरात और पहला बुध जो महीने की दसवीं तारीख़ के बाद आए। और अगर कोई शख़्स यह रोज़े न रखे तो मुस्तहब है कि उनकी क़ज़ा करे और अगर रोज़ा बिल्कुल न रख सकता हो तो मुस्तहब है कि हर दिन के बदले एक मुद तआम या 12/6 नख़ुद सिक्कादार चांदी फ़क़ीर को दे।

2. हर महीने की तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं तारीख़।

3. रजब और शाबान के पूरे महीने के रोज़े। या उन दो महीनों में जितने रोज़े रख सके ख़्वाह वह एक ही दिन क्यों न हो।

4. ईदे नवरोज़ का दिन।

5. शव्वाल की चौथी से नवीं तारीख़ तक।

6. ज़ी क़अदा की पहली तारीख़ से नवीं तारीख़ (यौमे अरफ़ा) तक।

7. ज़िलहिज्जा की पहली तारीख़ से नवीं तारीख़ (यौमे अरफ़ा) तक लेकन अगर इंसान रोज़े की वजह से पैदा होने वाली कमज़ोरी की बिना पर यौमे अरफ़ा की दुआयें न पढ़ सके तो उस दिन रोज़ा रखना मकरूह है।

8. ईदे सईदे ग़दीर का दिन (18 ज़िल हिज्जा)

9. रोज़े मुबाहिला (24 ज़िलहिज्जा)

10. मोहर्रमुल हराम की पहली, तीसरी और सातवीं तारीख।

11. रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की विलादत का दिन (17 रबीउल अव्वल)

12. जमादिल अव्वल की पन्द्रह तारीख़।

नीज़ा (ईदे बेअसत) यानी रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के एलाने रिसालत के दिन (27 रजब) भी रोज़ा रखना मुस्तहब है। और जो शख़्स मुस्तहब रोज़ा रखे उसके लिए वाजिब नहीं है कि उसे इख़तिताम तक पहुँचाए बल्कि अगर उसका मोमिन भाई उसे खाने की दअवत दे तो मुस्तहब है कि उसकी दावत क़बूल कर ले और दिन में ही रोज़ा खोल ले ख़्वाह ज़ोहर के बाद ही क्यों न हो।

वह सूरतें जिनमें मुब्तलाते रोज़ा से पर्हेज़ मुस्तहब है

1758. (मुन्दरिजा ज़ैल) पांच अश्ख़ास के लिए मुस्तहब है कि अगरचे रोज़े से न हों माहे रमज़ानुल मुबारक में उन अफ़्आल से पर्हेज़ करें जो रोज़े को बातिल करते हैं।

1. वह मुसाफ़िर जिसने सफ़र में कोई ऐसा काम किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और वह ज़ोहर से पहले अपने वतन या ऐसी जगह पहुंच जाए जहाँ वह दस दिन रहना चाहता हो।

2. वह मुसाफ़िर जो ज़ोहर के बाद अपने वतन या ऐसी जगह पहुंच जाए जहां वह दस दिन रहना चाहता हो। और इसी तरह अगर ज़ोहर से पहले उन जगहों पर पहुंच जाए जबकि वह सफ़र में रोज़ा तोड़ चुका हो तब भी यही हुक्म है।

3. वह मरीज़ जो ज़ोहर के बाद तन्दरुस्त हो जाए और यही हुक्म है अगर ज़ोहर से पहले तन्दरुस्त हो जाए अगरचे उसने कोई ऐसा काम (भी) किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और इसी तरह अगर ऐसा काम न किया हो तो उसका हुक्म मस्अला 1576 में गुज़र चुका है।

4. वह औरत जो दिन में हैज़ या निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाए।

1759. रोज़ादार के लिए मुस्तहब है कि रोज़ा इफ़्तार करने से पहले मग़्रिब और इशा की नमाज़ पढ़े लेकिन अगर कोई दूसरा शख़्स उस का इन्तिज़ार कर रहा हो या उसे इतनी भूक लगी हो कि हुज़ूरे क़ल्ब के साथ नमाज़ न पढ़ सकता हो तो बेहतर है कि रोज़ा इफ़्तार करे लेकिन जहाँ तक मुम्किन हो नमाज़ फ़ज़ीलत के वक़्त में ही अदा करे।

ख़ुम्स के अहकाम

1760. ख़ुम्स सात चीज़ों पर वाजिब हैः-

1. कारोबार (या रोज़गार) का मुनाफ़ा।

2. मअदिनी कानें।

3. गड़ा हुआ ख़ज़ाना।

4. हलाल माल जो हराम माल में मख़लूत हो जाए।

5. ग़ोताख़ोरी से हासिल होने वाले समुन्द्री मोती और मूंगे।

6. जंग में मिलने वाला माले ग़नीमत।

7. मश्हूर क़ौल की बिना पर वह ज़मीन जो ज़िम्मी काफ़िर किसी मुसलमान से ख़रीदे।

ज़ैल में इनके अहकाम तफ़्सील से बयान किये जायेंगे।

1.कारोबार का मुनाफ़ा

1761. जब इंसान तिजारत, सन्अत व हिर्फ़त या दूसरे काम धंदों से रुपया पैसा कमाए, मिसाल के तौर पर अगर कोई अजीर बन कर किसी मुतवफ़्फ़ी की नमाज़ें पढ़े और रोज़ा रखे और इस तरह कुछ रुपया कमाए लिहाज़ा अगर वह कमाई ख़ुद उसके और उसके अहलो अयाल के साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि ज़ायद कमाई का ख़ुम्स यानी पांचवां हिस्सा उस तरीक़े के मुताबिक दे जिसकी तफ़्सील बाद में बयान होगी।

1762. अगर किसी को कमाई किये बग़ैर कोई आमदनी हो जाए मसलन कोई शख़्स उसे बतौरे तोहफ़ा कोई चीज़ दे और वह उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उस का ख़ुम्स दे। 1763. औरत को जो महर मिलता है और शौहर, बीवी को तलाक़े ख़ुलअ देने के एवज़ जो माल हासिल करता है उन पर ख़ुम्स नहीं है, और इसी तरह जो मीरास इंसान को मिले उस का भी मीरास के मोअतबर क़वाइद की रू से यही हुक्म है। और अगर उस मुसलमान को जो शीअह है किसी और ज़रीए से मसलन पदरी रिश्तेदार की तरफ़ से मीरास मिले तो उस माल को फ़वायद में शुमार किया जायेगा और ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे। इसी तरह अगर उसे बाप और बेटे के अलावा किसी और तरफ़ से मीरास मिले कि जिस का ख़ुद उसे गुमान तक न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह मीरास अगर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो उसका ख़ुम्स दे।

1764. अगर किसी शख़्स को कोई मीरास मिले और उसे मालूम हो कि जिस शख़्स से उसे यह मीरास मिली है उसने उस का ख़ुम्स नहीं दिया था तो ज़रूरी है कि वारिस उस का ख़ुम्स दे। इसी तरह अगर खुद उस माल पर ख़ुम्स वाजिब न हो और वारिस को इल्म हो कि जिस शख़्स से उसे वह माल विरसे में मिला है उस शख़्स के ज़िम्मे ख़ुम्स वाजिबुल अदा था तो ज़रूरी है कि उस के माल में ख़ुम्स अदा करे। लेकिन दोनों सूरतों में जिस शख़्स से माल विरसे में मिला हो अगर वह ख़ुम्स देने का मोअतक़िद न हो या यह कि वह ख़ुम्स देता ही न हो तो ज़रूरी नहीं कि वारिस वह ख़ुम्स अदा करे जो उस शख़्स पर वाजिब था।

1765. अगर किसी शख़्स ने किफ़ायत शिआरी के सबब साल भर के अख़राजात के बाद कुछ रक़म पस अन्दाज़ की हो तो ज़रूरी है कि उस बचत का ख़ुम्स दे।

1766. जिस शख़्स के तमाम अख़राजात कोई दूसरा शख़्स बर्दाश्त करता हो तो ज़रूरी है कि जितना माल उसके हाथ आए उस का ख़ुम्स दे।

1767. अगर कोई शख़्स अपनी जायदाद कुछ ख़ास अफ़राद मसलन अपनी औलाद के लिए वक़्फ़ कर दे और वह लोग उस जायदाद में खेती बाड़ी और शजरकारी करें और उस से मुनाफ़ा कमायें और वह कमाई उनके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उस कमाई का ख़ुम्स दें। नीज़ यह कि अगर वह किसी और तरीक़े से उस जायदाद से नफ़्अ हासिल करें मसलन उसे किराये या ठीके पर दे दें तो ज़रूरी है कि नफ़्अ की जो मिक़्दार उनके साल भर के अख़राजात में ज़्यादा हो उस का ख़ुम्स दें।

1768. जो माल किसी फ़क़ीर नें वाजिब या मुस्तहब सदक़े के तौर पर हासिल किया हो वह उस के साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो या जो माल उसे दिया गया है उस से उसने नफ़्अ कमाया हो मसलन उसने एक ऐसे दरख़्त से जो उसे दिया गया हो मेवा हासिल किया हो और वह उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे। लेकिन जो माल उसे बतौर ख़ुम्स या ज़कात दिया गया हो और वह उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी नहीं कि उस का ख़ुम्स दे।

1769. अगर कोई शख़्स ऐसी रक़म से कोई चीज़ ख़रीदे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो यानी बेचने वाले से कहे कि, मैं यह चीज़ उस रक़म से ख़रीद रहा हूं, अगर बेचने वाला शीआ इस्ना अशरी हो तो ज़ाहिर यह है कि कुल माल के मुतअल्लिक़ मुआमला दुरुस्त है और ख़ुम्स का तअल्लुक़ उस चीज़ से हो जाता है जो उसने उस रक़म से ख़रीदी है और (इस मुआमले में) हाकिमे शर्अ की इजाज़त और दस्तखत की ज़रूरत नहीं है।

1770. अगर कोई शख़्स कोई चीज़ ख़रीदे और मुआमला तय करने के बाद उसकी क़ीमत उस रक़म से अदा करे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो तो जो मुआमला उसने किया है वह सहीह है और जो रक़म उसने फ़रोशिन्दा को दी है उस के ख़ुम्स के लिए वह ख़ुम्स के मुस्तहक़्क़ीन का मक़रुज़ है।

1771. अगर कोई शीआ इस्ना अशरी मुसलमान कोई ऐसा माल ख़रीदे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो तो उसका ख़ुम्स बेचने वाले की ज़िम्मेदारी है और खरीदार के लिए कुछ नहीं।

1772. अगर कोई शख़्स किसी शीआ इस्ना अशरी मुसलमान को कोई ऐसी चीज़ बतौर अतीया दे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो तो उसके ख़ुम्स की अदायगी की ज़िम्मेदारी अतीया देने वाले पर है और (जिस शख़्स को अतीया दिया गया हो) उसके ज़िम्मे कुछ नहीं।

1773. अगर इंसान को किसी काफ़िर से या ऐसे शख़्स से जो ख़ुम्स देने पर एतिक़ाद न रखता हो कोई मिले तो उस माल का ख़ुम्स देना वाजिब नहीं है।

1774. ताजिर, दुकानदार, कारीगर और इस क़िस्म के दूसरे लोगों के लिए ज़रूरी है कि उस वक़्त से जब उन्होंने कारोबार शुरू किया हो, एक साल गुज़र जाए तो जो कुछ उनके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो उसका ख़ुम्स दें। और जो शख़्स किसी काम धन्दे से कमाई न करता हो अगर उसे इत्तिफ़ाक़न कोई नफ़्अ हासिल हो जाए तो जब उसे यह नफ़्अ मिले उस वक़्त से एक साल गुज़रने के बाद जितनी मिक़्दार उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे।

1775. साल के दौरान जिस वक़्त भी किसी शख़्स को मुनाफ़ा मिले वह उस का ख़ुम्स दे सकता है और उसके लिए यह भी जाइज़ है कि साल के ख़त्म होने तक उसकी अदायगी को मुवख़्ख़र कर दे और अगर वह ख़ुम्स अदा करने के लिए शम्सी साल (रोमन कैलेण्डर) इख़्तियार केर तो कोई हरज नहीं।

1776. अगर कोई ताजिर या दुकानदार ख़ुम्स देने के लिए साल की मुद्दत मुअय्यन करे और उसे मुनाफ़ा हासिल हो लेकिन वह साल के दौरान मर जाए तो ज़रूरी है कि उसकी मौत के अख़राजात उस मुनाफ़ा में मिन्हा कर के बाक़ी मांदा का ख़ुम्स दिया जाए।

1777. अगर किसी शख़्स के बग़रज़े तिजारत खरीदे हुए माल की क़ीमत बढ़ जाए और वह उसे न बेचे और साल के दौरान उसकी क़ीमत गिर जाए तो जितनी मिक़्दार तक क़ीमत बढ़ी हो उस का ख़ुम्स वाजिब नहीं है।

1778. अगर किसी शख़्स के बग़रज़े तिजारत ख़रीदे हुए माल की क़ीमत बढ़ जाए और वह इस उम्मीद पर कि अभी इस की क़ीमत और बढ़ेगी उस माल को साल के ख़ातिमे के बाद तक फ़रोख़्त न करे और फिर उसकी क़ीमत गिर जाए तो जिस मिक़्दार तक क़ीमत बढ़ी हो उस का ख़ुम्स देना वाजिब है। 1779. किसी शख़्स ने माले तिजारत के अलावा कोई माल ख़रीद कर या उसी की तरह किसी तरीक़े से हासिल किया हो जिसका ख़ुम्स वह अदा कर चुका हो तो अगर उस की क़ीमत बढ़ जाए और वह उसे बेच दे तो ज़रूरी है कि जिस क़दर उस चीज़ की क़ीमत बढ़ी है उस का ख़ुम्स दे। इसी तरह मसलन अगर कोई दरख़्त ख़रीदे और उसमें फल लगें या (भेड़ ख़रीदे और वह) भेड़ मोटी हो जाए तो अगर उन चीज़ों की निगाह दाश्त से उसका मक़सद नफ़्अ कमाना था तो ज़रूरी है कि उनकी क़ीमत में जो इज़ाफ़ा हुआ हो उस का खुम्स दे बल्कि अगर उसका मक़्सद नफ़्अ कमाना न भी रहा हो तब भी ज़रूरी है कि उन का ख़ुम्स दे।

1780. अगर कोई शख़्स इस ख़्याल से बाग़ (में पौदे) लगाए कि क़ीमत बढ़ जाने पर उन्हें बेच देगा तो ज़रूरी है कि फ़लों की और दरख़्तों की नशवोनुमा और बाग़ की बढ़ी हुई क़ीमत का ख़ुम्स दे लेकिन अगर उसका इरादा यह रहा हो कि उन दरख़्तों के फल बेच कर उनसे नफ़्अ कमाएगा तो फ़क़त फलों का ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1781. अगर कोई शख़्स बेदमुश्क और चुनार वग़ैरा के दरख़्त लगाए तो ज़रूरी है कि हर साल उनके बढ़ने का ख़ुम्स दे और इसी तरह अगर मसलन उन दरख़्तों की उन शाख़ों से नफ़्अ कमाए जो उमूमन हर साल काटी जाती हैं और तन्हा उन शाख़ों की कीमत या दूसरे फ़ाइदों को मिला कर उसकी आमदनी उसके साल भर के अख़राजात से बढ़ जाए तो ज़रूरी है कि हर साल के ख़ातिमे पर उस ज़ाइद रक़म का ख़ुम्स दे।

1782. अगर किसी शख़्स की आमदनी की मुतअद्दिद ज़राए हों मसलन जायदाद का किराया आता हो और ख़रीदो फ़रोख़्त भी करता हो और उन तमाम ज़राए तिजारत की आमदनी और अख़राजात और तमाम रक़म का हिसाब किताब यकजा हो तो ज़रूरी है कि साल के ख़ातिमे पर जो कुछ उसके अख़राजात से ज़ाइद हो उसका ख़ुम्स अदा करे। और अगर एक ज़रीए से नफ़्अ कमाए और दूसरे ज़रीए से नुक़्सान उठाए तो वह एक ज़रीए के नुक़्सान का दूसरे ज़रीए के नुक़्सान से तदारुक कर सकता है। लेकिन अगर उसके दो मुख़्तिलिफ़ पेशे हों मसलन तिजारत और ज़िराअत करता हो तो उस सूरत में एहतियाते वाजिब की बिना पर वह एक पेशे के नुक़्सान का तदारुक दूसरे पेशे के नफ़्अ से नहीं कर सकता।

1783. इंसान जो अख़राजात फ़ाइदा हासिल करने के लिए मसलन दलाली और बार बरदारी के सिलसिले में ख़र्च करे तो उन्हें मुनाफ़ा में से मिन्हा कर सकता है और उतनी मिक़्दार का खुम्स अदा करना लाज़िम नहीं।

1784. कारोबार के मुनाफ़े से कोई शख़्स साल भर में जो कुछ खोराक, लिबास, घर के साज़ो सामान, मकान की खरीदारी, बेटे की शादी, बेटी के जहेज़ और ज़ियारत वग़ैरा पर खर्च करे उस पर ख़ुम्स नहीं है बशर्ते की ऐसे अख़राजात उसकी हैसियत से ज़्यादा न हों और उसने फ़ुज़ूल ख़र्ची भी न की हो।

1785. जो माल इंसान मन्नत और कफ़्फ़ारे पर ख़र्च करे वह सालाना अख़राजात का हिस्सा है। इसी तरह वह माल भी उसके सालाना अख़राजात का हिस्सा है जो वह किसी को तोहफ़े या इन्आम के तौर पर दे बशर्ते कि उसकी हैसियत से ज़्यादा न हो।

1786. अगर इंसान अपनी लड़की की शादी के वक़्त तमाम जहेज़ इकट्ठा तैयार न कर सकता हो तो वह उसे कई सालों में थोड़ा थोड़ा कर के जमअ कर सकता है चुनांचे अगर जहेज़ तैयार न करना उसकी शान के ख़िलाफ़ हो और वह साल के दौरान उसी साल के मुनाफ़े से कुछ जहेज़ ख़रीदे जो उसकी हैसियत से बढ़ कर न हो तो उस पर ख़ुम्स देना लाज़िम नहीं है और अगर वह जहेज़ उसकी हैसियत से बढ़ कर हो या एक साल के मुनाफ़े से दूसरे साल तैयार किया गया हो तो उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1787. जो माल किसी शख़्स ने ज़ियारते बैतुल्लाह (हज) और दूसरी ज़ियारत के सफ़र पर ख़र्च किया हो उस साल के अख़राजात में शुमार होता है जिस साल में ख़र्च किया जाए तो जो कुछ वह दूसरे साल में ख़र्च करे उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1788. जो शख़्स किसी पेशे या तिजारत वग़ैरा से मुनाफ़ा हासिल करे अगर उसके पास कोई और माल भी हो जिस पर ख़ुम्स वाजिब न हो तो वह अपने साल भर के अख़राजात का हिस्सा फ़क़त अपने मुनाफ़े को मद्दे नज़र रखते हुए कर सकता है।

1789. जो सामान किसी शख़्स ने साल भर इस्तेमाल करने के लिए अपने मुनाफ़े से ख़रीदा हो अगर साल के आख़िर में उस से कुछ बच जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर ख़ुम्स उस की क़ीमत की सूरत में देना चाहे और जब वह सामान ख़रीदा था उसके मुक़ाबिले में उसकी क़ीमत बढ़ गई हो तो ज़रूरी है कि साल के ख़ातिमे पर जो क़ीमत हो उसका हिसाब लगाए।

1790. कोई शख़्स ख़ुम्स देने से पहले अपने मुनाफ़े में से घरेलू इस्तेमाल के लिए सामान ख़रीदे अगर उसकी ज़रूरत मुनाफ़ा हासिल होने वाले साल के बाद ख़त्म हो जाए तो ज़रूरी नहीं की उसका ख़ुम्स दे और अगर दौराने साल उसकी ज़रूरत ख़त्म हो जाए तो भी यही हुक्म है। लेकिन अगर वह सामान उन चीज़ों में से हो जो उमूमन आइन्दा सालों में इस्तेमाल के लिए रखी जाती हो जैसे सर्दी और गर्मी के कपड़े तो उन पर ख़ुम्स नहीं होता। इस सूरत के अलावा जिस वक़्त भी उस सामान की ज़रूरत ख़त्म हो जाए एहतियाते वाजिब यह है कि उसका ख़ुम्स दे और यही सूरत ज़नाना ज़ेवरात की है जबकि औरत का उन्हें बतौरे ज़ीनत इस्तेमाल करने का ज़माना गुज़र जाए।

1791. अगर किसी शख़्स को साल के शूरू में मुनाफ़ा न हो और वह अपने सरमाए से ख़र्च उठाए और साल के ख़त्म होने से पहले उसे मुनाफ़ा हो जाए तो उसने जो कुछ सरमाए में से ख़र्च किया है उसे मुनाफ़ा से मिन्हा कर सकता है।

1792. अगर किसी शख़्स को किसी साल में मुनाफ़ा न हो तो वह उस साल के अख़राजात को आइन्दा साल के मुनाफ़े से मिन्हा नहीं कर सकता।

1793. अगर सरमाए का कुछ हिस्सा तिजारत वग़ैरा में डूब जाए तो जिस क़दर सरमाया डूबा हो इंसान उतनी मिक़्दार उस साल के मुनाफ़े से मिन्हा कर सकता है।

1794. अगर किसी शख़्स के माल में से सरमाए के अलावा कोई और चीज़ ज़ाए हो जाए तो उस चीज़ को मुनाफ़े में से मुहैया नहीं कर सकता लेकिन अगर उसे उसी साल में उस चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए तो वह उस साल के दौरान अपने मुनाफ़े से मुहैया कर सकता है।

1795. अगर किसी शख़्स को सारा साल कोई मुनाफ़ा न हो और वह अपने अख़राजात क़र्ज़ लेकर पूरे करे तो वह आइन्दा सालों के मुनाफ़े से क़र्ज़ की रक़म मिन्हा नहीं कर सकता लेकिन अगर साल के शूरू में अपने अख़राजात पूरे करने के लिए क़र्ज़ ले और साल ख़त्म होने से पहले मुनाफ़ा कमाए तो अपने क़र्ज़े की रक़म उस मुनाफ़े में मिन्हा कर सकता है। और इसी तरह पहली सूरत में वह उस क़र्ज़ को उस साल के मुनाफ़े से अदा कर सकता है और मुनाफ़ा की उस मिक़्दार से ख़ुम्स का कोई तअल्लुक़ नहीं।

1796. अगर कोई शख़्स माल बढ़ाने की ग़रज़ से या ऐसी इमलाक ख़रीदने के लिए जिसकी उसे ज़रूरत न हो क़र्ज़ ले तो वह उस साल के मुनाफ़ा से उस क़र्ज़ को अदा नहीं कर सकता। हां जो माल बतौरे क़र्ज़ लिया हो या जो चीज़ उस क़र्ज़ से ख़रीदी हो अगर वह तलफ़ हो जाए तो उस सूरत में वह अपना क़र्ज़ उस साल के मुनाफ़ा से अदा कर सकता है।

1797. इंसान हर उस चीज़ का जिस पर ख़ुम्स वाजिब हो चुका हो उसी चीज़ की शक्ल में ख़ुम्स दे सकता है और अगर चाहे तो जितना ख़ुम्स उस पर वाजिब हो उसकी क़ीमत के बराबर रक़म भी दे सकता है लेकिन अगर किसी दूसरी जिंस की सूरत में जिस पर ख़ुम्स वाजिब न हो देना चाहे तो महल्ले इश्काल है बजुज़ इस के कि ऐसा करना हाकिमे शर्अ की इजाज़त से हो।

1798. जिस शख़्स के माल पर ख़ुम्स वाजिबुल अदा हो और साल गुज़र गया हो लेकिन उसने ख़ुम्स न दिया हो और ख़ुम्स देने का इरादा भी न रखता हो वह उस माल में तसर्रुफ़ नहीं कर सकता बल्कि एहतियाते वाजिब की बिना पर अगर ख़ुम्स देने का इरादा रखता हो तब भी वह तसर्रुफ़ नहीं कर सकता।

1799. जिस शख़्स को ख़ुम्स अदा करना हो वह यह नहीं कर सकता कि उस ख़ुम्स को अपने ज़िम्मे ले यानी अपने आप को ख़ुम्स के मुस्तहक़्क़ीन का मक़रूज़ तसव्वुर करे और सारा माल इस्तेमाल करता रहे और अगर इस्तेमाल करे और वह माल तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे।

1800. जिस शख़्स को ख़ुम्स अदा करना हो अगर वह हाकिमे शर्अ से मुफ़ाहिमत कर के ख़ुम्स को अपने ज़िम्मे ले ले तो सारा माल इस्तेमाल कर सकता है और मुफ़ाहिमत के बाद उस साल से जो मुनाफ़ा उसे हासिल हो वह उसका अपना माल है।

1801. जो शख़्स कारोबार में किसी दूसरे के साथ शरीक हो अगर वह अपने मुनाफ़े पर ख़ुम्स दे दे और उसका हिस्सेदार ख़ुम्स न दे और आइन्दा साल वह हिस्सेदार उस माल को जिसका ख़ुम्स उस ने नहीं दिया साझे में सरमाए के तौर पर पेश करे तो वह शख़्स (जिसने ख़ुम्स अदा कर दिया हो) अगर शिआ इस्ना अशरी मुसलमान हो तो उस माल को इस्तेमाल में ला सकता है।

1802. अगर नाबालिग़ बच्चे के पास कोई सरमाया हो और उस से मुनाफ़ा हासिल हो तो अक़्वा की बिना पर उसका ख़ुम्स देना होगा और उसके वली पर वाजिब है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर वली ख़ुम्स न दे तो बालिग़ होने के बाद वाजिब है कि वह ख़ुद ख़ुम्स अदा दे।

1803. जिस शख़्स को किसी दूसरे शख़्स से कोई माल मिले और उसे शक हो कि (माल देने वाले) दूसरे शख़्स ने उसका ख़ुम्स दिया है या नहीं तो वह (माल हासिल करने वाला शख़्स) उस माल में तसर्रुफ़ कर सकता है। बल्कि अगर यक़ीन भी हो कि उस दूसरे शख़्स ने ख़ुम्स नहीं दिया तब भी अगर वह शीआ इस्ना अशरी मुसलमान हो तो उस माल में तसर्रुफ़ कर सकता है।

1804. अगर कोई शख़्स कारोबार के मुनाफ़ा से साल के दौरान ऐसी जायदाद ख़रीदे जो उसकी साल भर की ज़रूरीयात और अख़राजात में शुमार हो तो उस पर वाजिब है कि साल के ख़ातिमें पर उसका ख़ुम्स दे और अगर ख़ुम्स न दे और उस जायदाद की क़ीमत बढ़ जाए तो लाज़िम है कि उसकी मौजूदा क़ीमत पर ख़ुम्स दे और जायदाद के अलावा क़ालीन वग़ैरा के लिए भी यही हुक्म है।

1805. जिस शख़्स ने शुरू से (यअनी जब से उस पर ख़ुम्स की अदायगी वाजिब हुई हो) ख़ुम्स न दिया हो मिसाल के तौर पर अगर वह कोई जायदाद ख़रीदे और उसकी क़ीमत बढ़ जाए और अगर उसने यह जायदाद इस इरादे से न ख़रीदी हो कि उसकी क़ीमत बढ़ जायेगी तो बेच देगा। मसलन खेती बाड़ी के लिए ज़मीन ख़रीदी हो और उसकी क़ीमत उस रक़म से अदा की हो जिस पर ख़ुम्स न दिया हो तो ज़रूरी है कि क़ीमते ख़रीद पर ख़ुम्स दे और अगर मसलन बेचने वाले को वह रक़म दी है जिस पर ख़ुम्स न दिया हो और उसे कहा हो कि मैं यह जायदाद उस रक़म से ख़रीदता हूं तो ज़रूरी है कि उस जायदाद की मौजूदा क़ीमत पर ख़ुम्स दे।

1806. जिस शख़्स ने शुरू से (यअनी जब से उस पर ख़ुम्स की अदायगी वाजिब हुई ) ख़ुम्स न दिया हो अगर उसने कारोबार के मुनाफ़ा से कोई ऐसी चीज़ ख़रीदी हो जिसकी उसको ज़रूरत न हो और उसे मुनाफ़ा कमाए एक साल गुज़र गया हो तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर उसने घर का साज़ो सामान और ज़रूरत की चीज़ें अपनी हैसियत के मुताबिक़ ख़रीदी हों और जानता हो कि उसने यह चीज़ें उस साल के दौरान उस मुनाफ़े से ख़रीदी हैं जिस साल में उसे मुनाफ़ा हुआ है तो उन पर ख़ुम्स देना लाज़िमी नहीं लेकिन अगर उसे यह मअलूम हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि हाकिमे शर्अ से मुफ़ाहिमत करे।

2. मअदिनी कानें

1807. सोने, चाँदी, सीसे, तांबे, लोहे (जैसी धातों की कानें, नीज़ पिट्रौलियम, कोयले, फ़ीरोज़े, अक़ीक़, फ़िटकिरी या नमक की कानें और (इसी तरह की) दूसरी कानें अन्फ़ाल के ज़ुमरे में आती हैं यअनी यह इमामे अस्र (अ0) की मिल्कियत है। लेकिन अगर कोई शख़्स उनमें से कोई चीज़ निकाले जब कि शर्अन कोई हरज न हो तो वह उसे अपनी मिल्कियत क़रार दे सकता है और अगर वह चीज़ निसाब के मुताबिक़ हो तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे।

1808. कान से निकली हुई चीज़ का निसाब 15 मिस्क़ाल मुरव्वजा सिक्केदार सोना है। यअनी अगर कान से निकली हुई किसी चीज़ की क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि उस पर जो अख़्राजात आये हों उन्हें मिन्हा कर के जो बाक़ी बचे उसका ख़ुम्स दे।

1809. जिस शख़्स ने कान से मुनाफ़ा कमाया हो और जो चीज़ कान से निकाली हो अगर उसकी क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने तक न पहुँचे तो उस पर ख़ुम्स तब वाजिब होगा जब सिर्फ़ यह मुनाफ़ा या उस के दूसरे मुनाफ़े ही उस मुनाफ़े को मिलाकर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो जायें।

1810. जिप्सम, चूना, चिक्नी मिट्टी और सुर्ख़ मिट्टी पर एहतियाते लाज़िम की बिना पर मअदिनी चीज़ों के हुक्म का इत्लाक़ होता है लिहाज़ा अगर यह चीज़ें हद्दे निसाब तक पहुंच जायें तो साल भर के अख़राजात निकालने से पहले उन का खुम्स देना ज़रूरी है।

1811. जो शख़्स कान से कोई चीज़ निकाले तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे ख़्वाह वह कान ज़मीन के ऊपर हो या ज़ेरे ज़मीन और ख़्वाह ऐसी ज़मीन हो जो किसी की मिल्कियत हो या ऐसी ज़मीन में हो जिसका कोई मालिक न हो।

1812. अगर किसी शख़्स को यह मअलूम हो कि जो चीज़ उस ने कान से निकाली है उसकी क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने के बराबर है या नहीं तो एहतियाते लाज़िम यह है कि अगर मुम्किन हो तो वज़न कर के या किसी और तरीक़े से उस की क़ीमत मअलूम करे।

1813. अगर कई अफ़्राद मिल कर कान से कोई चीज़ निकालें और उसकी क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने तक पहुंच जाए लेकिन उन में से हर एक का हिस्सा उस मिक़्दार से कम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़ुम्स दे।

1814. अगर कोई शख़्स उस मअदिनी चीज़ को जो ज़ेरे ज़मीन दूसरे की मिल्कियत में हो उसकी इजाज़त के बग़ैर उसकी ज़मीन खौद कर निकाले तो मश्हूर क़ौल यह है कि जो चीज़ दूसरे की ज़मीन से निकाली जाए वह उसी मालिक की है लेकिन यह बात इश्काल से ख़ाली नहीं और बेहतर यह है कि बाहम मुआमला तय करे और अगर आपस में समझोता न हो सके तो हाकिमें शर्अ की तरफ़ रुजूउ करे ताकि वह उस तनाज़ों का फ़ैसला करे।

3. गड़ा हुआ दफ़ीना

1815. दफ़ीना वह माल है जो ज़मीन या दरख़्त या पहाड़ या दीवार में गड़ा हुआ हो और कोई उसे वहां से निकाले और उसकी सूरत यह हो कि उसे दफ़ीना कहा जा सके।

1816. अगर इंसान को किसी ऐसी ज़मीन से दफ़ीना मिले जो किसी की मिल्कियत न हो तो वह उसे अपने क़ब्ज़े में ले सकता है यअनी अपनी मिल्कियत में ले सकता है लेकिन उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1817. दफ़ीने का निसाब 105 मिस्क़ाल सिक्कादार चांदी और 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोना है। यअनी जो चीज़ दफ़ीने से मिले अगर उसकी क़ीमत उन दोनों में से किसी एक के भी बराबर हो तो उसका ख़ुम्स देना वाजिब है।

1818. अगर किसी शख़्स को ऐसी ज़मीन से दफ़ीना मिले जो उसने किसी से ख़रीदी हो और उसे मअलूम हो कि यह उन लोगों का माल नहीं है जो इससे पहले इस ज़मीन के मालिक थे और वह यह न जानता हो कि मालिक मुसलमान है या ज़िम्मी है और वह खुद या उसके वारिस ज़िन्दा हैं तो वह उस दफ़ीने को अपने क़ब्ज़े में ले सकता है लेकिन उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है। और अगर उसे एहतिमाल हो कि यह साबिक़ा मालिक का माल है जब कि ज़मीन और इसी तरह दफ़ीना या वह जगह ज़िम्नन ज़मीन में शामिल होने की बिना पर उसका हक़ हो तो ज़रूरी है कि उसे इत्तिलाअ दे और अगर यह मअलूम हो कि उस का माल नहीं तो उस शख़्स को इत्तिलाअ दे जो उस से पहले भी उस ज़मीन का मालिक था और उस पर उन सा हक़ था और इसी तरतीब से उन तमाम लोगों को इत्तिलाअ दे जो ख़ुद उससे पहले उस ज़मीन के मालिक रहे हों और उस पर उन का हक़ हो और अगर पता चले कि वह उनमें से किसी का भी माल नहीं है तो फिर वह उसे अपने क़ब्ज़े में ले सकता है लेकिन उस का ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1819. अगर किसी शख़्स को ऐसे कई बर्तनों से माल मिले जो एक जगह दफ़्न हों और उस माल की मज्मूई क़ीमत 105 मिस्क़ाल चांदी या 15 मिस्क़ाल सोने के बराबर हो तो ज़रूरी है कि उस माल का ख़ुम्स दे लेकिन अगर मुख़्तलिफ़ मक़ामात से दफ़ीने मिलें तो उन में से जिस दफ़ीने की क़ीमत मज़कूरा मिक़्दार तक पहुंच जाए उस पर ख़ुम्स वाजिब है और जिस दफ़ीने की क़ीमत उस मिक़्दार तक न पहुंचे उस पर ख़ुम्स वाजिब नहीं है।

1820. जब दो अश्ख़ास को ऐसा दफ़ीना मिले जिसकी क़ीमत 105 मिस्क़ाल चांदी या 15 मिस्क़ाल सोने तक पहुंचती हो लेकिन उनमें से हर एक का हिस्सा उतना न बनता हो तो उस पर ख़ुम्स अदा करना ज़रूरी नहीं है।

1821. अगर कोई शख़्स जानवर ख़रीदे और उसके पेट से कोई माल मिले तो अगर उसे एहतिमाल हो कि यह माल बेचने वाले या पहले मालिक का है और वह जानवर पर और जो कुछ उसके पेट से बरआमद हुआ है उस पर हक़ रखता है तो ज़रूरी है कि इत्तिलाअ दे और अगर मअलूम हो कि वह माल उनमें से किसी एक का भी नहीं है तो एहतियाते लाज़िम यह है कि उस का ख़ुम्स दे अगरचे वह माल दफ़ीने के निसाब के बराबर न हो और यह हुक्म मछली और उसकी मानिन्द दूसरे ऐसे जानवरों के लिए भी है जिनकी कोई शख़्स किसी मख़्सूस जगह में अफ़ज़ाइश व पर्वरिश करे और उनकी ग़िज़ा का इन्तिज़ाम करे। और अगर समुन्दर या दरिया से उसे पकड़े तो किसी को उसकी इत्तिलाअ देना लाज़िमी नहीं।

4. वह हलाल माल जो हराम माल में मख़्लूत हो जाए

1822. अगर हलाल माल हराम माल के साथ इस तरह मिल जाए कि इंसान उन्हें एक दूसरे से अलग न कर सके और हराम माल के मालिक और उस माल की मिक़्दार का भी इल्म न हो और यह भी इल्म न हो कि हराम माल की मिक़्दार ख़ुम्स से कम है या ज़्यादा तो तमाम माल का ख़ुम्स क़ुर्बते मुत्लक़ा की नीयत से ऐसे शख़्स को दे जो ख़ुम्स का और माले मज्हूलुल मालिक का मुस्तहक़ है और ख़ुम्स देने के बाद बाक़ी माल उस शख़्स पर हलाल है।

1823. अगर हलाल माल हराम माल से मिल जाए और इंसान हराम की मिक़्दार - - ख़्वाह वह खुम्स से कम हो या ज़्यादा - - जानता हो लेकिन उसके मालिक को न जानता हो तो ज़रूरी है कि उतनी मिक़्दार उस माल के मालिक की तरफ़ से सदक़ा कर दे और एहतियाते वाजिब यह है कि हाकिमे शर्अ से भी इजाज़त ले।

1824. अगर हलाल माल हराम माल से मिल जाए और इंसान को हराम की मिक़्दार का इल्म न हो लेकिन उस माल के मालिक को पहचानता हो और दोनों एक दूसरे को राज़ी न कर सकें तो ज़रूरी है कि जितनी मिक़्दार के बारे में यक़ीन हो कि दूसरे का माल है वह उसे दे दे। बल्कि अगर वह माल उसकी अपनी ग़लती से मख़्लूत हुए हों तो एहतियात की बिना पर जिस माल के बारे में उसे एहतिमाल हो कि यह दूसरे का है उसे इस माल से ज़्यादा देना ज़रूरी है।

1825. अगर कोई शख़्स हराम से मख़्लूत हलाल माल का ख़ुम्स दे दे और बाद में उसे पता चले कि हराम की मिक़्दार ख़ुम्स से ज़्यादा थी तो ज़रूरी है कि जितनी मिक़्दार के बारे में इल्म हो कि ख़ुम्स से ज़्यादा थी उसे उसके मालिक की तरफ़ से सदक़ा कर दे।

1826. अगर कोई शख़्स हराम से मख़्लूत हलाल माल का ख़ुम्स दे या ऐसा माल जिस के मालिक को न पहचानता हो मालिक के मालिक की तरफ़ से सदक़ा कर दे और बाद में उस का मालिक मिल जाए तो अगर वह राज़ी न हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसके माल के बराबर उसे देना ज़रूरी है।

1827. अगर हलाल माल हराम माल से मिल जाए और हराम की मिक़्दार माअलूम हो और इंसान जानता हो कि उसका मालिक चन्द लोगों में से ही कोई है लेकिन यह न जानता हो कि वह कौन है तो उन सब को इत्तिलाअ दे चुनांचे उन में से कोई एक कहे कि यह मेरा माल है और दूसरे कहें कि हमारा माल नहीं या उस माल के बारे में लाइल्मी का इज़हार करें तो उसी पहले शख़्स को वह माल दे दे और अगर दो या दो से ज़्यादा आदमी कहें कि यह हमारा माल है और सुल्ह या इस तरह किसी तरीक़े से वह मुआमला हल न हो तो ज़रूरी है कि तनाज़ो के हल के लिए हाकिमे शर्अ से रुजूउ करें और अगर वह सब लाइल्मी का इज़्हार करें और बाहम सुल्ह भी न करें तो ज़ाहिर यह है कि उस माल के मालिक का तअय्युन क़ुरआ के ज़रीए होगा और एहतियात यह है कि हाकिमे शर्अ या उस का वकील क़ुरआ अन्दाज़ी की निगरानी करे।

5. ग़व्वासी से हासिल किये हुए मोती

1828. अगर ग़व्वसी के ज़रीए यअनी समुन्दर में ग़ोता लगा कर या दूसरे मोती निकालें जायें तो ख़्वाह ऐसी चीज़ों में से हो जो उगती है या मअदिनीयात में से हों अगर उसकी क़ीमत 18 चने सोने के बराबर हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दिया जाए ख़्वाह उन्हें एक दफ़्आ में समुन्दर से निकाला गया हो या एक से ज़्यादा दफ़्आ में बशर्ते की पहली दफ़्आ और दूसरी दफ़्आ ग़ोता लगाने में ज़्यादा फ़ासिला न हो मसलन यह कि दो मौसमों में ग़व्वासी की हो। बसूरते दीगर हर एक दफ़्आ में 18 चने सोने की क़ीमत के बराबर न हो तो उसका ख़ुम्स देना वाजिब नहीं है। और इसी तरह ग़व्वासी में शरीक तमाम ग़ोता ख़ोरों में से हर एक का हिस्सा 18 चने सोने की क़ीमत के बराबर न हो तो उन पर ख़ुम्स देना वाजिब नहीं है।

1829. अगर समुन्दर में ग़ोता लगाए बग़ैर दूसरे ज़राए से मोती निकाले जायें तो एहतियात की बिना पर उन पर ख़ुम्स वाजिब है लेकिन अगर कोई शख़्स समुन्दर के पानी की सत्ह या समुन्दर के किनारे से मोती हासिल करे तो उन का ख़ुम्स उसे उस सूरत में देना ज़रूरी है जब जो मोती उसे दस्तयाब हुए हों वह तन्हा या उसके कारोबार के दूसरे मुनाफ़े से मिलाकर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो।

1830. मछलियों और उन दूसरे (आबी) जानवरों का ख़ुम्स जिन्हे इंसान समुन्दर में ग़ोता लगाए बग़ैर हासिल करता है उस सूरत में वाजिब होता है जब उन चीज़ों से हासिल कर्दा मुनाफ़ा तन्हा या कारोबार के दूसरे मुनाफ़े से मिलाकर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो।

1831. अगर इंसान कोई चीज़ निकालने का इरादा किये बग़ैर समुन्दर में ग़ोता लगाए और इत्तिफ़ाक़ से कोई मोती उसके हाथ लग जाए और वह उसे अपनी मिल्कियत में लेने का इरादा करे तो उस का ख़ुम्स देना ज़रूरी है बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि हर हाल में उसका ख़ुम्स दे।

1832. अगर इंसान समुन्दर में ग़ोता लगाए और कोई जानवर निकाल लाए और उसके पेट में से उसे कोई मोती मिले तो अगर वह जानवर सीपी की मानिन्द हो जिसके पेट में उमूमन मोती होते हैं और वह निसाब तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर वह कोई ऐसा जानवर हो जिसने इत्तिफ़ाक़न मोती निगल लिया हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि अगरचे वह हद्दे निसाब तक न पहुंचे तब भी उसका ख़ुम्स दे।

1833. अगर कोई शख़्स बड़े दरियाओं मसलन दज्ला और फ़ुरात में ग़ोता लगाए और मोती निकाल लाए तो अगर उस दरिया में मोती पैदा होते हों तो ज़रूरी है कि (जो मोती निकाले) उनका ख़ुम्स दे।

1834. अगर कोई शख़्स पानी में ग़ोता लगाए और कुछ अंबर निकाल लाए और उसकी क़ीमत 18 चने सोने या उससे ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उस का ख़ुम्स दे बल्कि अगर पानी की सत्ह या समुन्दर के किनारे से भी हासिल करे तो उसका भी यही हुक्म है।

1835. जिस शख़्स का पेशा ग़ोता ख़ोरी हो या कान कनी हो अगर वह उन का ख़ुम्स अदा कर दे और फिर उसके साल भर के अख़राजात से कुछ बच जाए तो उसके लिए यह लाज़िम नहीं कि दोबारा ख़ुम्स अदा करे।

1836. अगर बच्चा कोई मअदिनी चीज़ निकाले या उसे कोई दफ़ीना मिल जाए या समुन्दर में ग़ोता लगाकर मोती निकाल लाए तो बच्चे का वली उसका ख़ुम्स दे और अगर वली ख़ुम्स अदा न करे तो ज़रूरी है कि बच्चा बालिग़ होने के बाद ख़ुम्स अदा करे और इसी तरह अगर उस के पास हराम माल में हलाल माल मिला हुआ हो तो ज़रूरी है कि उसका वली उस माल को पाक करे।

6. माले ग़नीमत

1837. अगर मुसलमान इमाम (अ0) के हुक्म से कुफ़्फ़ार से जंग करे और जो चीज़ जंग में उनके हाथ लगे उन्हें ग़नीमत कहा जाता है और उस माल की हिफ़ाज़त या उसकी नक़्लो हम्ल वग़ैरा के मसारिफ़ मिन्हा कर ने के बाद और जो रक़म इमाम (अ0) अपनी मसलेहत के मुताबिक़ ख़र्च करें और जो माल ख़ास इमाम (अ0) का हक़ है उसे अलायहदा करने के बाद बाक़ीमांदा पर ख़ुम्स अदा किया जाए। माले ग़नीमत पर ख़ुम्स साबित होने में अन्फ़ाल से हो वह तमाम मुसलमानों की मुशतर्का मिल्कियत है अगरचे जंग इमाम (अ0) की इजाज़त से न हो।

1838. अगर मुसलमान काफ़िरों से इमाम (अ0) की इजाज़त के बग़ैर जंग करे और उन से माले ग़नीमत हासिल हो तो जो ग़नीमत हासिल हो वह इमाम (अ0) की मिल्कियत है और जंग करने वालों का उसमें कोई हक़ नहीं।

1839. जो कुछ काफ़िरों के हाथ में है अगर उसका मालिक मोहतरमुल माल यअनी मुसलमान या काफ़िरे ज़िम्मी हो तो उस पर ग़नीमत के अहकाम जारी नहीं होंगे।

1840. काफ़िरे हर्बी का माल चुराना और उस जैसा कोई काम करना अगर ख़ियानत और नक़्ज़े अम्न में शुमार हो तो हराम है और इस तरह जो चीज़ें उन से हासिल की जायें एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि उन्हें लौटा दी जाए।

1841. मश्हूर यह है कि नासिबी का माल मोमिन अपने लिए ले सकता है अलबत्ता उस का ख़ुम्स दे लेकिन यह हुक्म इश्काल से ख़ाली नहीं है।

7. वह ज़मीन जो ज़िम्मी काफ़िर किसी मुसलमान से ख़रीदे

1842. अगर काफ़िरे ज़िम्मी किसी मुसलमान से ज़मीन ख़रीदे तो मश्हूर क़ौल की बिना पर उस का खुम्स उसी ज़मीन से या अपने किसी दूसरे माल से दे लेकिन ख़ुम्स के आम क़वायद के मुताबिक़ उस सूरत में ख़ुम्स के वाजिब होने में इश्काल है।

ख़ुम्स का मसरफ़

1843. ज़रूरी है कि ख़ुम्स दो हिस्सों में तक़्सीम किया जाए। उसका एक हिस्सा सादात का हक़ है और ज़रूरी है कि किसी फ़क़ीर सैयद या यतीम सैय्यद या ऐसे सैय्यद को दिया जाए जो सफ़र में नाचार हो गया हो। और दूसरा हिस्सा इमाम (अ0) का है जो ज़रूरी है कि मौजूदा ज़माने में जामिइश शराइत मुज्तहिद को दिया जाए या ऐसे कामों पर जिस की वह मुज्तहिद इजाज़त दे ख़र्च किया जाए और एहतियाते लाज़िम यह है कि वह मर्जअ अअलम उमूमी मसलेहतों से आगाह हो।

1844. जिस यतीम सैय्यद को ख़ुम्स दिया जाए ज़रूरी है कि वह फ़क़ीर भी हो लेकिन जो सैय्यद सफ़र में नाचार हो जाए वह ख़्वाह अपने वतन में फ़क़ीर न भी हो उसे ख़ुम्स दिया जा सकता है।

1845. जो सैय्यद सफ़र में नाचार हो गया हो अगर उसका सफ़र गुनाह का सफ़र हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि उसे ख़ुम्स न दिया जाए।

1846. जो सैय्यद आदिल न हो उसे ख़ुस्म दिया जा सकता है लेकिन जो सैय्यद इसना अशरी न हो ज़रूरी है कि उसे ख़ुम्स न दिया जाए।

1847. जो सैय्यद गुनाह का काम करता हो अगर उसे ख़ुम्स देने से गुनाह करने में उसकी मदद होती हो तो उसे ख़ुम्स न दिया जाए और अहव्त यह है कि उस सैय्यद को भी ख़ुम्स न दिया जाए जो शराब पीता हो या नमाज़ न पढ़ता हो या अलानिया गुनाह करता हो गो ख़ुम्स देने से उसे गुनाह करने में मदद न मिलती हो।

1848. जो शख़्स कहे कि मैं सैय्यद हूं उसे उस वक़्त तक ख़ुम्स न दिया जाए जब तक दो आदिल अश्ख़ास उसके सैय्यद होने की तसदीक़ न कर दें या लोगों में उसका सैय्यद होने इतना मशहूर हो कि इंसान को यक़ीन और इत्मीनान हो जाए कि वह सैय्यद है।

1849. कोई शख़्स अपने शहर में सैय्यद मशहूर हो और उसके सैय्यद न होने के बारे में जो बातें की जाती हों इंसान को उन पर यक़ीन या इत्मीनान न हो तो उसे ख़ुम्स दिया जा सकता है।

1850. अगर किसी की बीवी सैयिदानी हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि शौहर उसे इस मक़्सद के लिए ख़ुस्म न दे कि वह उसे अपने ज़ाती इस्तेमाल में ले आए लेकिन अगर दूसरे लोगों की कफ़ालत उस औरत पर वाजिब हो और वह उन अख़राजात की अदायगी से क़ासिर हो तो इंसान के लिए जाइज़ है कि अपनी बीवी को ख़ुस्म दे ताकि ज़ेरे कफ़ालत लोगों पर ख़र्च करे। और उस औरत को इस ग़रज़ से ख़ुस्म देने के बारे में भी यही हुक्म है जबकि वह (यह रक़म) अपने ग़ैर वाजिब अख़राजात पर सर्फ़ करे (यअनी इस मक़्सद के लिए उसे ख़ुस्म नहीं देना चाहिये)।

1851. अगर इंसान पर किसी सैय्यद के या ऐसी सैयिदानी के अख़राजात वाजिब हों जो उसकी बीवी न हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर वह उस सैय्यद या सैयिदानी के खोराक और पोशाक को अखराजात और बाक़ी वाजिब अखराजात अपने ख़ुम्स से अदा नहीं कर सकता। हां अगर वह उस सैय्यद या सैयिदानी को ख़ुम्स की कुछ रक़म इस मक़सद से दे कि वह वाजिब अखराजात के अलावा उसे दूसरी ज़रूरीयात पर खर्च करे तो कोई हरज नहीं।

1852. अगर किसी फ़क़ीर सैय्यद के अखराजात किसी दूसरे शख़्स पर वाजिब हों और वह शख़्स उस सैय्यद के अखराजात बर्दाश्त न कर सकता हो या इसतिताअत रखता हो लेकिन न देता हो तो उस सैय्यद को ख़ुम्स दिया जा सकता है।

1853. एहतियाते वाजिब यह है कि किसी एक फ़क़ीर सैय्यद को उसके एक साल के अख़राजात से ज़्यादा ख़ुम्स न दिया जाए।

1854. अगर किसी शख़्स के शहर में कोई मुस्तहक़ सैय्यद न हो और उसे यक़ीन या इत्मीनान हो कि कोई ऐसा सैय्यद बाद में भी नहीं मिलेगा या जब तक कोई मुस्तहक़ सैय्यद मिले ख़ुम्स की हिफ़ाज़त करना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि ख़ुम्स दूसरे शहर में ले जाए और मुस्तहक़ को पहुंचा दे और ख़ुम्स दूसरे शहर ले जाने के अख़राजात ख़ुम्स में से ले सकता है। और अगर ख़ुम्स तलफ़ हो जाए तो अगर उस शख़्स ने उस की निगहदाश्त में कोताही बरती हो तो ज़रूरी है कि उस का एवज़ दे और अगर कोताही न बरती हो तो उस पर कुछ भी वाजिब नहीं है।

1855. जब किसी शख़्स के अपने शहर में ख़ुम्स का मुस्तहक़ शख़्स मौजूद न हो तो अगरचे उसे यक़ीन या इत्मीनान हो कि बाद में मिल जायेगा और ख़ुम्स के मुस्तहक़ शख़्स के मिलने तक ख़ुम्स की निगहदाश्त भी मुम्किन हो तब भी वह ख़ुम्स दूसरे शहर ले जा सकता है और अगर वह ख़ुम्स की निगहदाश्त में कोताही न बरते और वह तलफ़ हो जाए तो उसके लिए कोई चीज़ देना ज़रूरी नहीं लेकिन वह ख़ुम्स के दूसरी जगह ले जाने के अख़राजात ख़ुम्स में से नहीं ले सकता।

1856. अगर किसी शख़्स के अपने शहर में ख़ुम्स का मुस्तहक़ मिल जाए तब भी वह ख़ुम्स दूसरे शहर ले जाकर मुस्तहक़ को पहुंचा सकता है अलबत्ता ख़ुम्स का एक शहर से दूसरे शहर ले जाना इस क़द्र ताख़ीर का मूजिब न हो कि ख़ुम्स पहुंचाने में सुस्ती शुमार हो लेकिन ज़रूरी है कि उसे ले जाने के अख़राजात ख़ुद अदा करे और इस सूरत में अगर ख़ुम्स ज़ाए हो जाए तो अगरचे उस ने उसकी निगहदाश्त में कोताही न बरती हो वह उसका ज़िम्मेदार है।

1857. अगर कोई शख़्स हाकिमे शर्अ के हुक्म से ख़ुम्स दूसरे शहर ले जाए और वह तलफ़ हो जाए तो उसके लिए दोबारा ख़ुम्स देना लाज़िम नहीं और इसी तरह अगर वह ख़ुम्स हाकिमे शर्अ के वकील को दे दे जो ख़ुम्स की वसूली पर मामूर हो और वह वकील ख़ुम्स को एक शहर से दूसरे शहर ले जाए तो उसके लिए भी यही हुक्म है।

1858. यह जाइज़ नहीं कि किसी चीज़ की क़ीमत उस की अस्ल क़ीमत से ज़्यादा लगा कर उसे बतौरे ख़ुम्स दिया जाए और जैसा कि मस्अला 1797 में बताया गया है कि किसी दूसरी जिन्स की शक्ल में ख़ुम्स अदा करना मासिवा सोने और चाँदी के सिक्कों और उन्हीं जैसी दूसरी चीज़ों के हर सूरत में महल्ले इश्काल है।

1859. जिस शख़्स को मुस्तहक़ शख़्स से कुछ लेना हो और चाहता हो कि अपना क़र्ज़ा ख़ुम्स की रक़म से मिन्हा कर ले तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि या तो हाकिमे शर्अ से इजाज़त ले या ख़ुम्स उस शख़्स को दे दे और बाद में मुस्तहक़ शख़्स उसे वह माल क़र्ज़े की अदायगी के तौर पर लौटा दे और वह यह भी कर सकता है कि ख़ुम्स के मुस्तहक़ शख़्स की इजाज़त से उसका वकील बन कर ख़ुद उसकी तरफ़ से ख़ुम्स ले ले और उससे अपना क़र्ज़ा चुका ले।

1860. मालिक, ख़ुम्स के मुस्तहक़ शख़्स से यह शर्त नहीं कर सकता कि वह ख़ुम्स लेने के बाद उसे वापस लौटा दे। लेकिन अगर मुस्तहक़ शख़्स ख़ुम्स लेने के बाद उसे वापस देने पर राज़ी हो जाए तो इस में कोई हरज नहीं है। मसलन जिस शख़्स के ज़िम्मे ख़ुम्स की ज़्यादा रक़म वाजिबुल अदा हो और वह फ़क़ीर हो गया हो और चाहता हो कि ख़ुम्स के मुस्तहक़ लोगों का मक़रूज़ न रहे तो अगर ख़ुम्स का मुस्तहक़ शख़्स राज़ी हो जाए कि उससे ख़ुम्स ले कर फिर उसको बख़्श दे तो इस में कोई हरज नहीं है।

ज़कात के अहकाम

1861. ज़कात चन्द चीज़ों पर वाजिब हैः

1. गेहूँ, 2. जौ, 3. खजूर, 4. किशमिश, 5. सोना, 6. चांदी, 7. ऊंट, 8. गाय, 9. भेड़, बकरी, 10. एहतियाते लाज़िम की बिना पर माले तिजारत।

अगर कोई शख़्स इन दस चीज़ों में से किसी एक का मालिक हो तो उन शराइत के तहत जिन का ज़िक्र बाद में किया जायेगा ज़रूरी है कि जो मिक़दार मुक़र्रर की गई है उसे उन मसारिफ़ में से किसी एक मद में ख़र्च करे जिन का हुक्म दिया गया है।

1862. सुल्त जो गेहूँ की तरह एक नर्म अनाज है और जिसे बे छिल्के का जौ भी कहते हैं और अलस पर जो गेहूँ की एक क़िस्म है और सनआ (यमन) के लोगों की ग़िज़ा है एहतियाते वाजिब की बिना पर जकात देना ज़रूरी है।

ज़कात वाजिब होने की शराइत

1863. ज़कात मज़कूरा दस चीज़ों पर इस सूरत में वाजिब होती है जब माल उस निसाब की मिक़्दार तक पहुंच जाए जिसका ज़िक्र बाद में किया जायेगा और वह माल इंसान की अपनी मिल्कियत हो और उसका मालिक आज़ाद हो।

1864. अगर इंसान ग्यारा महीने गाय, भेड़ बकरी, ऊंट, सोने या चांदी का मालिक रहे तो अगरचे बारहवें महीने की पहली तारीख़ को ज़कात उस पर वाजिब हो जायेगी लेकिन ज़रूरी है कि अगले साल की इब्तिदा का हिसाब बारहवें महीने के ख़ातिमे के बाद से करे।

1865. सोने, चांदी और माले तिजारत पर ज़कात के वाजिब होने की शर्त यह है कि उन चीज़ों का मालिक बालिग़ और आक़िल हो। लेकिन गेहूं, जौ, खजूर, किशमिश और इसी तरह ऊंट, गाय और भेड़ बकरियों में मालिक का बालिग़ और आक़िल होना शर्त नहीं है।

1866. गेहूं और जौ पर ज़कात उस वक़्त वाजिब होती है जब उन्हें गेहूं और जौ कहा जाए। किशमिश पर जकात उस वक़्त वाजिब होती है जब वह अभी अंगूर की ही सूरत में हो। और खजूर पर ज़कात उस वक़्त वाजिब होती है जब (वह पक जायें और) अरब उसे तमर कहें। लेकिन गेहूं और जौ में ज़कात का निसाब देखने और ज़कात देने का वक़्त वह होता है, जब यह ग़ल्ला खलियान में पहुंचे और उस (की बालियों) से भूसा और दाना अलग किया जाए। जबकि खजूर और किशमिश में यह वक़्त वह होता है जब उन्हें उतार लेते हैं। उस वक़्त को ख़ुश्क होने का वक़्त भी कहते हैं।

1867. गेहूं, जौ, किशमिश और खजूर में ज़कात साबित होने के लिए जैसा कि साबिक़ा मस्अले में बताया गया है अक़्वा की बिना पर मोअतबर नहीं है कि उन का मालिक उनमें तसर्रुफ़ कर सके। पस अगर मालिक ग़ायब हो और माल भी उस के या उसके वकील के हाथ में न हो मसलन किसी ने उन चीज़ों को ग़स्ब कर लिया हो तब भी ज़कात उन चीज़ों में साबित है।

1868. सोने, चांदी और माले तिजारत में ज़कात साबित होने के लिए, जैसा कि बयान हो चुका, ज़रूरी है कि मालिक आक़िल हो अगर मालिक पूरा साल या साल का कुछ हिस्सा दीवाना रहे तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1869. अगर गाय, भेड़, ऊंट, सोने और चांदी, का मालिक साल का कुछ हिस्सा मस्त (बेहवास) या बेहोश रहे तो ज़कात उस पर से साकित नहीं होती और इसी तरह गेहूं, जौ, खजूर और किशमिश का मालिक ज़कात वाजिब होने के मौक़े पर मस्त या बेहोश हो जाए तो भी यही हुक्म है।

1870. गेहूं, जौ, खजूर और किशमिश के अलावा दूसरी चीज़ों में ज़कात साबित होने के लिए यह शर्त है कि मालिक उस माल में तसर्रुफ़ करने की क़ुदरत रखता हो पस अगर किसी ने उस माल को ग़स्ब कर लिया हो और मालिक उस माल में तसर्रुफ़ न कर सकता हो तो उसमें ज़कात नहीं है।

1871. अगर किसी ने सोना और चांदी या कोई और चीज़ जिस पर ज़कात देना वाजिब हो किसी से क़र्ज़ ली हो और वह चीज़ एक साल तक उस के पास रहे तो ज़रूरी है कि उसकी ज़कात दे और जिसने क़र्ज़ दिया हो उस पर कुछ वाजिब नहीं है।

गेहूं, जौ, खजूर और किशमिश की ज़कात

1872. गेहूं, जौ, खजूर और किशमिश पर ज़कात उस वक़्त वाजिब होती है जब वह निसाब की हद तक पहुंच जायें और उन का निसाब तीन सौ साअ है जो एक गुरोहे (उलमा) के बक़ौल तक़्रीबन 847 किलो होता है।

1873. जिस अंगूर, खजूर, जौ और गेंहू पर ज़कात वाजिब हो चुकी हो अगर कोई शख़्स खुद या उसके अहलो अयाल उसे खा लें या मसलन वह यह अज्नास किसी फ़कीर को ज़कात की नीयत के बग़ैर दे दे तो ज़रूरी है कि जितनी मिक़्दार इस्तेमाल की हो उस पर ज़कात दे।

1874. अगर गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर पर ज़कात वाजिब होने के बाद उन चीज़ों का मालिक मर जाए तो जितनी ज़कात बनती हो वह उसके माल से देनी ज़रूरी है लेकिन अगर वह शख़्स ज़कात वाजिब होने से पहले मर जाए तो वह वारिस जिसका हिस्सा निसाब तक पहुंच जाए – ज़रूरी है कि अपने हिस्से की ज़कात ख़ुद अदा करे।

1875. जो शख़्स हाकिमे शर्अ की तरफ़ से ज़कात जमा करने पर मामूर हो वह गेहूं और जौ के खलियान में भूसा (और दाना) अलग करने के वक़्त और खजूर और अंगूर के ख़ुश्क होने के वक़्त ज़कात का मुतालबा कर सकता है और अगर मालिक न दे और जिस चीज़ पर ज़कात वाजिब हो गई हो वह तलाफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे।

1876. अगर किसी शख़्स के खजूर के दरख़्तों, अंगूर की बेलों या गेहूं और जौ के खेतों (की पैदावार) का मालिक बनने के बाद उन चीजों पर ज़कात वाजिब हो जाए तो ज़रूरी है कि उन पर ज़कात दे।

1877. अगर गेहूं, जौ और अंगूर पर ज़कात वाजिब होने के बाद कोई शख़्स खेतों और दरख़्तों को बेच दे तो बेचने वाले पर उन अज्नास की ज़कात वाजिब है और जब वह ज़कात अदा कर दे तो ख़रीदने वाले पर कुछ वाजिब नहीं है।

1878. अगर कोई शख़्स गेहूं, जौ, खजूर या अंगूर खरीदे और उसे इल्म हो कि बेचने वाले ने उनकी ज़कात दे दी है या शक करे कि उस ने ज़कात दी है या नहीं तो उस पर कुछ वाजिब नहीं है और अगर उसे मअमूल हो कि बेचने वाले ने उन पर ज़कात नहीं दी तो ज़रूरी है कि वह खुद उस पर ज़कात दे दे लेकिन अगर बेचने वाले ने दग्ल किया हो तो वह ज़कात देने के बाद उससे रुजूउ कर सकता है और ज़कात की मिक़्दार का उस से मुतालबा कर सकता है।

1879. अगर गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर का वजन तर होने के वक़्त निसाब की हद तक पहुंच जाए और ख़ुश्क होने के वक़्त उस हद से कम हो जाए तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1880. अगर कोई शख़्स गेहूं, जौ और खजूर को ख़ुश्क होने के वक़्त से पहले ख़र्च करे तो अगर वह ख़ुश्क हो कर निसाब पर पूरी उतरें तो ज़रूरी है कि उनकी ज़कात दे।

1881. खजूर की तीन क़िस्में हैं –

1. वह जिसे ख़ुश्क किया जाता है (यअनी छुआरे) उसकी ज़कात का हुक्म बयान हो चुका है।

2. रुतब – वह जो रुतब (पकी हुई रसदार) होने की हालत में खाई जाती है।

3. वह जो कच्ची ही खाई जाती है।

दूसरी क़िस्म की मिक़्दार अगर ख़ुश्क होने तक निसाब की हद तक पहुंच जाए तो एहतियाते मुस्तहब है कि उसकी ज़कात दी जाए। जहां तक तीसरी क़िस्म का तअल्लुक़ है ज़ाहिर यह है कि उस पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1882. जिस गेहूं, जौ, खजूर और किशमिश की ज़कात किसी शख़्स ने दे दी हो अगर वह चन्द साल उसके पास पड़ी भी रहे तो उन पर दोबारा ज़कात वाजिब नहीं होगी।

1883. अगर गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर (की काश्त) बारानी या नहरी ज़मीन पर की जाए या मिस्त्री ज़िराअत की तरह उन्हें ज़मीन की नमी से फ़ाइदा पहुंचे तो उन पर ज़कात दसवां हिस्सा है और अगर उनकी सिंचाई (झील या कुयें वग़ैरा) के पानी से बज़रीअए डोल की जाए तो उन पर ज़कात बीसवां हिस्सा है।

1884. अगर गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर (की काश्त) बारिश के पानी से भी सेराब हो औऱ उसे डोल वग़ैरा के पानी से भी फ़ाइदा पहुंचे तो अगर यह सिचांई ऐसी हो कि आम तौर पर कहा जा सके कि उनकी सिचाई डोल वग़ैरा से की गई है तो उस पर ज़कात बीसवां हिस्सा है। और अगर यह कहा जाए कि यह नहर और बारिश के पानी से सेराब हुए हैं तो उन पर ज़कात का दसवां हिस्सा है और अगर सिंचाई की सूरत यह हो कि आम तौर पर कहा जाए कि दोनों ज़राए से सेराब हुए हैं तो उस पर ज़कात साढ़े सात फ़ीसद है।

1885. अगर कोई शक करे कि आम तौर पर कौन सी बात सहीह समझी जायेगी और उसे इल्म न हो कि सिंचाई की सूरत ऐसी है कि लोग आम तौर पर कहें कि दोनों ज़राए से सिंचाई हुई या यह कहें कि मसलन बारिश के पानी से हुई है तो अगर वह साढ़े सात फ़ीसदी ज़कात दे तो काफ़ी है।

1886. अगर कोई शक करे और उसे इल्म न हो कि उमूमन लोग कहते हैं कि दोनों ज़रा ए से सिंचाई हुई है या यह कहते हैं कि डोल वग़ैरा से हुई है तो उस सूरत में बीसवां हिस्सा देना काफ़ी है और अगर इस बात का एहतिमाल भी हो कि उमूमन लोग कहें कि बारिश के पानी से सेराब हुई है तब भी यही हुक्म है।

1887. अगर गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर बारिश और नहर के पानी से सेराब हों और उन्हें डोल वग़ैरा के पानी की हाजत न हो लेकिन उनकी सिंचाई डोल के पानी से भी हुई हो और डोल के पानी से आमदनी में इज़ाफ़े में कोई मदद न मिली हो तो उन पर ज़कात दसवां हिस्सा है और अगर डोल वग़ैरा के पानी से सिंचाई हुई हो और नहर और बारिश के पानी की हाजत न हो लेकिन नहर और बारिश के पानी से भी सेराब हों और उससे आमदनी में इज़ाफ़े में कोई मदद न मिली हो तो उन पर ज़कात बीसवां हिस्सा है।

1888. अगर किसी खेत की सिंचाई डोल वग़ैरा से की जाए और उससे मुलाहिक़ा (मिली हुई) ज़मीन में खेती बाड़ी की जाए और वह मुलाहिक़ा ज़मीन उस ज़मीन से फ़ाइदा उठाए और उसे सिंचाई की ज़रूरत न रहे तो जिस ज़मीन की सिंचाई डोल वग़ैरा से की गई है उस की ज़कात बीसवां हिस्सा और उस से मुलाहिक़ा खेत की ज़कात एहतियात की बिना पर दसवां हिस्सा है।

1889. जो अख़राजात किसी शख़्स ने गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर पर किये हों उन्हें वह फ़स्ल की आमदनी से मिन्हा कर के निसाब का हिसाब नहीं लगा सकता लिहाज़ा अगर उनमें से किसी एक का वज़न अख़राजात का हिसाब लगाने से पहले निसाब की मिक़्दार तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि उस पर ज़कात दे।

1890. जिस शख़्स ने ज़िराअत में बीज इस्तेमाल किया हो ख़्वाह वह उस के पास मौजूद हो या उस ने खरीदा हो, वह निसाब का हिसाब उस बीज को फ़स्ल की आमदनी से मिन्हा कर के नहीं रख सकता बल्कि ज़रूरी है कि निसाब का हिसाब पूरी फ़स्ल को मद्देनज़र रखते हुए लगाए।

1891. जो कुछ हुकूमत असली माल से (जिस पर ज़कात वाजिब हो) बतौर मह्सूल ले ले उस पर ज़कात वाजिब नहीं है। मसलन अगर खेत की पैदावार 2000 किलो हो और हुकूमत उसमें से 100 किलो बतौर लगान के ले ले तो ज़कात फ़क़त 1900 किलो पर वाजिब है।

1892. एहतियाते वाजिब की बिना पर इंसान यह नहीं कर सकता कि जो अखराजात उसने ज़कात वाजिब होने से पहले किये हों उन्हें वह पैदावार से मिन्हा करे और सिर्फ़ बाक़ी मांदा पर ज़कात दे।

1893. ज़कात वाजिब होने के बाद जो अख़राजात किये जायें और जो कुछ ज़कात की मिक़्दार की निस्बत ख़र्च किया जाए वह पैदावार से मिन्हा नहीं किया जा सकता अगरचे एहतियात की बिना पर हाकिमे शर्अ या उसके वकील से उसको खर्च करने की इजाज़त भी ले ली हो।

1894. किसी शख़्स के लिए यह वाजिब नहीं कि वह इन्तिज़ार करे ताकि जौ और गेहूं खलियान तक पहुंच जायें और अंगूर और खजूर के ख़ुश्क होने का वक़्त हो जाए फिर ज़कात दे बल्कि जूं ही ज़कात वाजिब हो जाइज़ है कि ज़कात की मिक़्दार का अन्दाज़ा लगाकर वह क़ीमत बतौर ज़कात दे।

1895. ज़कात वाजिब होने के बाद मुतअल्लिक़ा शख़्स यह कर सकता है कि खड़ी फ़स्ल काटने या खजूर और अंगूर को चुनने से पहले ज़कात मुस्तहक़ शख़्स या हाकिमे शर्अ या उसके वकील को मुशतर्का तौर पर पेश कर दे और उसके बाद वह अख़राजात में शरीक होंगे।

1896. जब कोई शख़्स फ़स्ल या खजूर और अंगूर की ज़कात ऐन माल की शक्ल में हाकिमे शर्अ या मुस्तहक़ शख़्स या उन के वकील को दे दे तो उसके लिए ज़रूरी नहीं कि बिला मुआवज़ा मुशतर्का तौर पर उन चीज़ों की हिफ़ाज़त करे बल्कि वह फ़स्ल की कटाई या खजूर और अंगूर के ख़ुश्क होने तक माले ज़कात अपनी ज़मीन में रहने के बदले उज्रत का मुतालबा कर सकता है।

1897. अगर इंसान कई शहरो में गेहूं, जौ, खजूर या अंगूर का मालिक हो और उन शहरों में फ़स्ल पकने का वक़्त एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हो और उन पर सब शहरों से फ़स्ल और मेवे एक ही वक़्त में दस्तयाब न होते हों और यह सब एक साल की पैदावार शुमार होतें हों तो अगर उनमें से जो चीज़ पहले पक जाए वह निसाब के मुताबिक़ हो तो ज़रूरी है कि उस पर उसके पकने के वक़्त ज़कात दे और बाक़ी मांदा अज्नास पर उस वक़्त ज़कात दे जब वह दस्तयाब हों और अगर पहले पकने वाली चीज़ निसाब के बराबर न हो तो इन्तिज़ार करे ताकि बाक़ी अज्नास पक जायें। फिर अगर सब मिला कर निसाब के बराबर हो जायें तो उन पर ज़कात वाजिब है और अगर निसाब के बराबर न हों तो उन पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1898. अगर खजूर और अंगूर के दरख़्त साल में दो दफ़्आ फल दें और दोनों मर्तबा की पैदावार जम्अ करने पर निसाब के बराबर हो जाए तो एहतियात की बिना पर उस पैदावार पर ज़कात वाजिब है।

1899. अगर किसी शख़्स के पास ग़ैर ख़ुश्कशुदा खजूरें हों या अंगूर हों जो ख़ुश्क होने की सूरत में निसाब के मुताबिक हों तो अगर उनके ताज़ा होने की हालत में वह ज़कात की नीयत से उतनी मिक़्दार ज़कात के मसरफ़ में ले आए जितनी उनके ख़ुश्क होने पर ज़कात की उस मिक़्दार के बराबर हो जो उस पर वाजिब है तो उसमें कोई हरज नहीं है।

1900. अगर किसी शख़्स पर ख़ुश्क खजूर या किशमिश की ज़कात वाजिब हो तो वह उन की ज़कात ताज़ा खजूर या अंगूर की शक्ल में नहीं दे सकता बल्कि अगर वह ख़ुश्क खजूर या किशमिश की ज़कात की क़ीमत लगाए और अंगूर या ताज़ा खजूरें या किशमिश या कोई और ख़ुश्क खजूरें इस क़ीमत के तौर पर दे तो उसमें भी इश्काल है नीज़ अगर किसी पर ताज़ा खजूर या अंगूर की ज़कात वाजिब हो तो वह ख़ुश्क खजूर या किशमिश देकर वह ज़कात अदा नहीं कर सकता बल्कि अगर वह क़ीमत लगाकर कोई खजूर या अंगूर दे तो अगरचे वह ताज़ा ही हो उसमें इश्काल है।

1901. अगर कोई ऐसा शख़्स मर जाए जो मकरूज़ हो और उसके पास ऐसा माल भी हो जिस पर ज़कात वाजिब हो चुकी हो तो ज़रूरी है कि जिस माल पर ज़कात वाजिब हो चुकी हो पहले उसमें से तमाम ज़कात दी जाए और उसके बाद उस का क़र्ज़ा अदा किया जाए।

1902. अगर कोई ऐसा शख़्स मर जाए जो मकरूज़ हो और उसके पास गेहूं, जौ, खजूर या अंगूर भी हो और इससे पहले कि उन अज्नास पर ज़कात वाजिब हो उसके वर्सा उस का क़र्ज़ा किसी दूसरे माल से अदा कर दें तो जिस वारिस का हिस्सा निसाब की मिक़्दार तक पहुंचता हो ज़रूरी है कि ज़कात दे और अगर इससे पहले कि ज़कात उन अज्नास पर वाजिब हो मुतावफ़्फ़ी का क़र्ज़ा अदा न करें और अगर उसका माल फ़क़त उस क़र्ज़े से ज़्यादा हो जबकि मुतवफ़्फ़ी पर उतना क़र्ज़ हो कि अगर उसे अदा करने चाहे तो अदा कर सकें ज़रूरी है कि गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर में से कुछ मिक़्दार भी क़र्ज़ख़्वाह को दें। लिहाज़ा जो कुछ क़र्ज़ख़्वाह को दें उस पर ज़कात नहीं है और बाक़ी मांदा माल पर वारिसों में से जिस का भी हिस्सा ज़कात के निसाब के बराबर हो उसकी ज़कात देना ज़रूरी है।

1903. जिस शख़्स के पास अच्छी और घटिया दोनों क़िस्म के गेहूं, जौ, खजूर और अंगूर हों जिन पर ज़कात वाजिब हो गई हो उसके लिए एहतियाते वाजिब यह है कि अच्छे और घटिया दोनों अक़्साम में से अलग अलग ज़कात निकाले।

सोने का निसाब

1904. सोने के निसाब दो हैं –

उसका पहला निसाब बीस मिस्क़ाले शरई है जबकि हर मिस्क़ाले शरई 18 नखुद का होता है। पस जिस वक़्त सोने की मिक़्दार बीस मिस्क़ाले शरई तक, जो आजकल के पन्द्रह मिस्क़ाल के बराबर होते हैं, पहुंच जाए और वह दूसरी शराइत भी पूरी होती हों जो बयान की जा चुकी हैं तो ज़रूरी है कि इंसान उस का चालीसवां हिस्सा जो 1 (9) नखुद के बराबर होता है ज़कात के तौर पर दे और अगर सोना उस मिक़्दार तक न पहुंचे तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है। और उसका दूसरा निसाब चार मिस्क़ाले शरई है जो आजकल के तीन मिस्क़ाल के बराबर होता है यअनी अगर पन्द्रह मिस्क़ाल पर तीन मिस्क़ाल का इज़ाफ़ा हो जाए तो ज़रूरी है कि सिर्फ़ 15 मिस्क़ाल पर ज़कात दे इस सूरत में इज़ाफ़े यअनी अगर तीन मिस्क़ाल इज़ाफ़ा हो तो ज़रूरी है कि तमाम तक मिक़्दार पर ज़कात दे और अगर इज़ाफ़ा तीन मिस्क़ाल से कम हो तो जो मिक़्दार बढ़ी हो उस पर कोई ज़कात नहीं है।

चांदी का निसाब

1905. चांदी के निसाब दो हैं -

इस का पहला निसाब 105. मुरव्वजा मिस्क़ाल है लिहाज़ा जब चांदी की मिक़्दार 105 मिस्क़ाल तक पहुंच आए और दूसरी शराइत भी पूरी करती हो जो बयान की जा चुकी हैं तो ज़रूरी है कि इंसान उसका ढ़ाई फ़ीसदी जो दो मिस्क़ाल और 15 नखुद बनता है बतौर ज़कात दे और अगर वह उस मिक़्दार तक न पहुंचे तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है और उसका दूसरा निसाब 21 मिस्क़ाल है यअनी अगर 105 मिस्क़ाल 21 मिस्क़ाल का इज़ाफ़ा हो जाए तो ज़रूरी है कि 105 मिस्क़ाल पर ज़कात दे और जो इज़ाफ़ा हुआ है उस पर ज़कात नहीं है और जितना भी इज़ाफ़ा होता जाए यही हुक्म है यअनी अगर 21 मिस्क़ाल का इज़ाफ़ा हो तो वह मिक़्दार जिसका इज़ाफ़ा हुआ है और जो 21 मिस्क़ाल से कम है और उस पर ज़कात नहीं है। इस बिना पर इंसान के पास जितना सोना या चांदी हो अगर वह उसका चालीसवां हिस्सा बतौर ज़कात दे तो वह ऐसी ज़कात अदा करेगा जो उस पर वाजिब थी और अगर वह किसी वक़्त मिक़्दार से कुछ ज़्यादा दे मसलन अगर किसी के पास 110 मिस्क़ाल चांदी हो और वह उसका चालीसवां हिस्सा दे तो 105 मिस्क़ाल की ज़कात तो वह होगी जो उस पर वाजिब थी और 5 मिस्क़ाल पर वह ऐसी ज़कात देगा जो उस पर वाजिब न थी।

1906. जिस शख़्स के पास निसाब के मुताबिक़ सोना या चांदी हो अगरचे वह उस पर ज़कात दे दे लेकिन जब तक उसके पास सोना या चांदी पहले निसाब से कम न हो जाए ज़रूरी है कि हर साल उन पर ज़कात दे।

1907. सोने और चांदी पर ज़कात उस सूरत में वाजिब होती है जब वह ज़रूरी है कि ढले हुए सिक्कों की सूरत में हों और उनके ज़रीए लेन देन का रिवाज हो और अगर उनकी मुहर मिट भी चुकी हो तब भी ज़रूरी है कि उन पर ज़कात दी जाए।

1908. वह सिक्कादार सोना या चांदी जिन्हें औरतें बतौर ज़ेवर पहनती हों जब तक वह राइज हों यअनी सोने और चांदी के सिक्कों के तौर पर उनके ज़रीए लेन देन होता हो एहतियात की बिना पर उनकी ज़कात देना वाजिब है लेकिन अगर उनके ज़रीए लेन देन का रिवाज बाक़ी न हो तो उन पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1909. जिस शख़्स के पास सोना और चांदी दोनों हों अगर उनमें से कोई भी पहले निसाब के बराबर न हो मसलन उसके पास 104 मिस्काल चांदी और 15 मिस्क़ाल सोना हो तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1910. जैसा कि पहले बताया गया है कि सोने और चांदी पर ज़कात उस सूरत में वाजिब होती है जब वह ग्यारा महीने निसाब की मिक़्दार के मुताबिक़ किसी शख़्स की मिल्कियत में रहे और अगर ग्यारा महीनों में किसी वक़्त सोना और चांदी निसाब से कम हो जायें तो उस शख़्स पर ज़कात वाजिब नहीं है।

1911. अगर किसी शख़्स के पास सोना और चांदी हो और वह ग्यारा महीने के दौरान उन्हें किसी दूसरी चीज़ से बदल ले या उन्हें पिघला ले तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है लेकिन अगर वह ज़कात से बचने के लिए उनको सोने या चांदी से बदल ले यअनी सोने को सोने और चांदी को चांदी या सोने से बदल ले तो एहतियाते वाजिब है कि ज़कात दे।

1912. अगर कोई शख़्स बारहवें महीने में सोना या चांदी पिघ्लाए तो ज़रूरी है कि उन पर ज़कात दे और अगर पिघलाने की वजह से उन का वज़न या क़ीमत कम हो जाए तो ज़रूरी है कि उन चीज़ों को पिघलाने से पहले जो ज़कात उस पर वाजिब थी वह दे।

1913. अगर किसी शख़्स के पास जो सोना और चांदी हो उसमें से कुछ बढ़िया और कुछ घटिया क़िस्म का हो तो वह बढ़िया की ज़कात बढ़िया में से और घटिया की ज़कात घटिया में से दे सकता है। लेकिन एहतियात की बिना पर वह घटिया हिस्से में से तमाम ज़कात नहीं दे सकता बल्कि बेहतर यह है कि सारी ज़कात बढ़िया सोने और चांदी में से दे।

1914. सोने और चांदी के सिक्के जिनमें मअमूल से ज़्यादा दूसरी धातु की आमोज़िश हो अगर उन्हें चांदी और सोने के सिक्के कहा जाता हो तो उस सूरत में जब वह निसाब की हद तक पहुंच जायें उन पर ज़कात वाजिब है गो उनका खालिस हिस्सा निसाब की हद तक न पहुंचे लेकिन अगर उन्हें सोने और चांदी के सिक्के न कहा जाता हो ख़्वाह उन का खालिस हिस्सा निसाब की हद तक पहुंच भी जाए उन पर ज़कात का वाजिब होना महल्ले इश्काल है।

1915. जिस शख़्स के पास सोने और चांदी के सिक्के हों अगर उनमें दूसरी धातु की आमोज़िश मअमूल के मुताबिक हो तो अगर वह शख़्स उनकी ज़कात सोने और चांदी के ऐसे सिक्कों में दे जिनमें दूसरी धात की आमोज़िश मअमूल से ज़्यादा हो या ऐसे सिक्कों में दे जो सोने और चांदी के बने हुए न हों लेकिन यह सिक्के इतनी मिक़्दार में हों कि उनकी क़ीमत उस ज़कात की क़ीमत के बराबर हो जो उस पर वाजिब हो गई है तो उसमें कोई हरज नहीं है।

ऊंट, गाय और भेड़ बकरी की ज़कात

1916. ऊंट, गाय और भेड़, बकरी की ज़कात के लिए उन शराइत के अलावा जिनका ज़िक्र आ चुका है एक शर्त और भी है वह यह है कि हैवान सारा साल सिर्फ़ (खुदरौ) जंगली घास चरता हो लिहाज़ा अगर सारा साल या उस का कुछ हिस्सा काटी हुई घास खाए या ऐसी चारागाह में चरे जो खुद उस शख़्स की (यअनी हैवान के मालिक की) या किसी दूसरे शख्स की मिल्कियत हो तो उस हैवान पर ज़कात नहीं है लेकिन अगर वह हैवान साल भर में एक या दो दिन मालिक की मम्लूका घास (या चारा) खाए तो उसकी ज़कात वाजिब है। लेकिन ऊंट, गाय और भेड़ की ज़कात वाजिब होने में एहतियात की बिना पर यह शर्त नहीं है कि सारा साल हैवान बेकार रहे बल्कि अगर आबयारी या हल चलाने या उन जैसे उमूर में उन हैवानों से इस्तिफ़ादा किया जाए तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि उनकी ज़कात दे।

1917. अगर कोई शख़्स अपने ऊंट, गाय और भेड़ के लिए एक ऐसी चारागाह खरीदे जिसमें किसी ने काश्त न की हो या उसे किराए (या ठीके) पर हासिल करे तो उस सूरत में ज़कात का वाजिब होना मुश्किल है अगरचे ज़कात का देना अह्वात है लेकिन अगर वहां जानवर चराने का महसूल अदा करे तो ज़रूरी है कि ज़कात दे।

ऊंट के निसाब

1918. ऊंट के निसाब बारह हैं -

1. पांच ऊंट – और उनकी ज़कात एक भेड़ है और जब तक ऊंटों की तादाद इस हद तक न पहुंचे, ज़कात (वाजिब) नहीं है।

2. दस ऊंट – और उनकी ज़कात दो भेड़ें है।

3. पन्द्रह ऊंट – और उनकी ज़कात तीन भेड़ें हैं।

4. बीस ऊंट – और उनकी ज़कात चार भेड़ें हैं।

5. पच्चीस ऊंट -- और उनकी ज़कात पांच भेड़ें हैं।

6. छब्बीस ऊंट -- और उनकी ज़कात एक ऐसा ऊंट है जो दूसरे साल में दाख़िल हो चुका हो।

7. छत्तीस ऊंट -- और उनकी ज़कात एक ऐसा ऊंट है जो तीसरे साल में दाखिल हो चुका हो।

8. छियालीस ऊंट -- और उनकी ज़कात एक ऐसा ऊंट है जो चौथे साल में दाखिल हो चुका हो।

9. एक्सठ ऊंट -- और उनकी ज़कात एक ऐसा ऊंट है जो पांचवें साल में दाखिल हो चुका हो।

10. छिहत्तर ऊंट -- और उनकी ज़कात दो ऐसे ऊंट हैं जो तीसरे साल में दाखिल हो चुके हों।

11. एक्यानवे ऊंट -- और उनकी ज़कात दो ऐसे ऊंट हैं जो चौथे साल में दाखिल हों।

12. एक सौ एक्कीस ऊंट और इससे ऊपर जितने होते जायेंगे ज़रूरी है कि ज़कात देने वाला या तो उन का चालीस से चालीस तक हिसाब करे और हर चालीस ऊंटों के लिए एक ऐसा ऊंट दे जो तीसरे साल में दाखिल हो चुका हो या पचास से पचास तक हिसाब करे और हर पचास ऊंटों के लिए एक ऊंट दे जो चौथे साल में दाखिल हो चुका हो या चालीस और पचास दोनों में हिसाब करे लेकिन हर सूरत में इस तरह हिसाब करना ज़रूरी है कि कुछ बाक़ी न बचे या अगर बचे भी तो नौ से ज़्यादा न हो मसलन उसके पास 140 ऊंट हों तो ज़रूरी है कि एक सौ के लिए दो ऐसे ऊंट दे जो चौथे साल में दाखिल हो चुकें हों और चालीस के लिए एक ऐसा ऊंट दे जो तीसरे साल में दाखिल हो चुका हो और जो ऊंट ज़कात में दिया जाए उसका मादा होना ज़रूरी है।

1919. दो निसाबों के दरमियान ज़कात वाजिब नहीं है लिहाज़ा अगर एक शख़्स जो ऊंट रखता हो उनकी तादाद पहले निसाब जो पांच है, बढ़ जाए तो जब तक वह दूसरे निसाब तक जो दस है न पहुंचे ज़रूरी है कि फ़क़त पांच पर ज़कात दे और बाक़ी निसाबों की सूरत भी ऐसी ही है।

गाय का निसाब –

1920. गाय के दो निसाब हैं –

इस का पहला निसाब तीस है। जब किसी शख़्स की गायों की तादाद तीस तक पहुंच जाए और वह शराइत भी पूरी होती हों जिनका ज़िक्र किया जा चुका है तो ज़रूरी है कि गाय का ऐसा बच्चा जो दूसरे साल में दाखिल हो चुका हो ज़कात के तौर पर दे और एहतियाते वाजिब यह है कि वह बछड़ा हो। और उसका दूसार निसाब चालीस है और उसकी ज़कात एक बछिया है जो तीसरे साल में दाखिल हो चुकी हो और तीस और चालीस के दरमियान ज़कात वाजिब नहीं है। मसलन जिस शख़्स के पास उन्तालीस गायें हों ज़रूरी है कि सिर्फ़ तीस की ज़कात दे और अगर उसके पास चालीस से ज़्यादा गायें हों तो जब तक उनकी तादाद साठ तक न पहुंच जाए ज़रूरी है कि सिर्फ़ चालीस पर ज़कात दे। और जब उनकी तादाद साठ तक पहुंच जाए तो चूंकि यह तादाद पहले निसाब से दुगनी है इसलिए ज़रूरी है कि दो ऐसे बछड़े बतौर ज़कात दे जो दूसरे साल में दाखिल हो चुके हों और इसी तरह जूं जूं गायों की तादाद बढ़ती जाए ज़रूरी है कि या तो तीस से तीस तक हिसाब करे या चालीस से चालीस तक या तीस और चालीस दोनों का हिसाब करे और उन पर उस तरीक़े के मुताबिक़ ज़कात दे जो बताया गया है। लेकिन ज़रूरी है कि इस तरह हिसाब करे कि कुछ बाक़ी न बचे और अगर कुछ बचे तो नौ से ज़्यादा न हो मसलन अगर उसके पास सत्तर गायें हों तो ज़रूरी है कि तीस और चालीस के मुताबिक़ हिसाब करे और तीस के लिए तीस की और चालीस के लिए चालीस की ज़कात दे क्योंकि अगर वह तीस के लिहाज़ से हिसाब करेगा तो दस गायें बग़ैर ज़कात दिये रह जायेंगी।

भेड़ का निसाब

1921. भेड़ के पांच निसाब हैं –

पहला निसाब चालीस है – और उसकी ज़कात एक भेड़ है और जब तक भेड़ों की तादाद चालीस तक न पहुंचे उन पर ज़कात नहीं है।

दूसरा निसाब 121 है – और उसकी ज़कात दो भेड़ें हैं।

तीसरा निसाब 201 है – और उसकी ज़कात तीन भेड़ें हैं।

चौथा निसाब 301 है – और उसकी ज़कात चार भेड़ें हैं।

पांचवा निसाब 400 और उससे ऊपर ह और उनका हिसाब सौ से सौ तक करना ज़रूरी है और हर सौ भेड़ों पर एक भेड़ दी जाए और यह ज़रूरी नहीं कि ज़कात उन्हीं भेड़ों में से दी जाए बल्कि अगर कोई और भेड़ें दी जायें या भड़ों की क़ीमत के बराबर नक़दी दे दी जाए तो काफ़ी है।

1922. दो निसाबों के दरमियान ज़कात वाजिब नहीं है लिहाज़ा अगर किसी की भेड़ों की तादाद पहले निसाब से जो कि चालीस है ज़्यादा हो लेकिन दूसरे निसाब तक जो 121 है न पहुंची हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ चालीस पर ज़कात दे और जो तादाद उससे ज़्यादा हो उस पर ज़कात नहीं है और उसके बाद के निसाबों के लिए भी यही हुक्म है।

1923. ऊंट, गायें और भेड़ें जब निसाब की हद तक पहुंच जायें तो ख़्वाह वह सब नर हों या मादा या कुछ नर हों और कुछ मादा उन पर ज़कात वाजिब है।

1924. ज़कात के ज़िम्न में गाय और भैंस एक जिन्स शुमार होती है और अरबी और ग़ैर अरबी ऊंट एक जिन्स हैं। इसी तरह भेड़, बकरे और दुंबे में कोई फ़र्क़ नहीं है।

1925. अगर कोई शख़्स ज़कात के तौर पर भेड़ दे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि वह कम अज़ कम दूसरे साल में दाखिल हो चुकि हो और अगर बकरी दे तो एहतियातन ज़रूरी है कि वह तीसरे साल में दाखिल हो चुकि हो।

1926. जो भेड़ कोई शख़्स ज़कात के तौर पर दे अगर उसकी क़ीमत उसकी भेड़ों से मअमूली सी कम भी हो तो कोई हरज नहीं लेकिन बेहतर है कि ऐसी भेड़ दे जिसकी क़ीमत उसकी हर भेड़ से ज़्यादा हो। नीज़ गाय और ऊंट के बारे में भी यही हुक्म है।

1927. अगर कई अफ़राद बाहम हिस्सेदार हों तो जिस जिस का हिस्सा पहले निसाब तक पहुंच जाए ज़रूरी है कि ज़कात दे और जिसका हिस्सा पहले निसाब से कम हो उस पर ज़कात वाजिब नहीं।

1928. अगर एक शख़्स की गायें या ऊंट या भेड़े मुख़्तलिफ़ जगहों पर हों और वह सब मिलाकर निसाब के बराबर हों तो ज़रूरी है कि उन की ज़कात दे।

1929. अगर किसी शख़्स की गायें, भेड़ें, या ऊंट बीमार और ऐबदार हों तब भी ज़रूरी है कि उन की ज़कात दे।

1930. अगर किसी शख़्स की सारी गायें, भेड़ें या ऊंट बीमार या ऐबदार या बूढ़े हों तो वह खुद उन्हीं में से ज़कात दे सकता है लेकिन अगर वह सब तन्दरुस्त, बे ऐब और जवान हों तो वह उनकी ज़कात में बीमार या ऐबदार या बूढ़े जानवर नहीं दे सकता बल्कि अगर उन में से बअज़ तन्दरुस्त और बअज़ बीमार कुछ ऐबदार और कुछ बे ऐब और कुछ बूढ़े और कुछ जवान हों तो एहतियाते वाजिब यह है कि उनकी ज़कात में तन्दरुस्त बे ऐब और जवान जानवर दे।

1931. अगर कोई शख़्स ग्यारा महीने ख़त्म होने से पहले अपनी गायें, भेड़ें और ऊंट किसी दूसरी चीज़ से बदल ले या जो निसाब बनता हो उसे उसी जिन्स के उतने ही निसाब से बदल ले मसलन चालीस भेड़ें देकर चालीस और भेड़ें ले ले तो अगर ऐसा करना ज़कात से बचने की नीयत से न हो तो उस पर ज़कात वाजिब नहीं है। लेकिन अगर ज़कात से बचने की नीयत से हो तो उस सूरत में जबकि दोनों चीज़ें एक ही नौईयत का फ़ाइदा रखती हों मसलन दोनों भेड़ें दूध देती हों तो एहतियाते लाज़िम यह है कि उसकी ज़कात दे।

1932. जिस शख़्स को गाय, भेड़ और ऊंट की ज़कात देनी ज़रूरी हो अगर वह उनकी ज़कात अपने किसी दूसरे माल से दे तो जब तक उन जानवरों की तादाद निसाब से कम न हो ज़रूरी है कि हर साल ज़कात दे और अगर वह ज़कात उन्हीं जानवरों में से दे और वह पहले निसाब से कम हो जायें तो ज़कात उस पर वाजिब नहीं है मसलन जो शख़्स चालीस भेड़ें रखता हो अगर वह उनकी ज़कात अपने दूसरे माल से दे दे तो जब तक उसकी भेड़ें चालीस से कम न हों ज़रूरी है कि हर साल एक भेड़ दे और अगर वह खुद उन भेड़ों में से ज़कात दे तो जब तक उनकी तादाद चालीस तक न पहुंच जाए उस पर ज़कात वाजिब नहीं है।

माले तिजारत की ज़कात

जिस माल का इंसान मुआवज़ा दे कर मालिक हुआ हो और उस ने वह माले तिजारत और फ़ाइदा हासिल करने के लिए मह्फ़ूज़ रखा हो तो एहतियात की बिना ज़रूरी है कि (मुन्दरिजा ज़ैल) चन्द शराइत के साथ उसकी ज़कात दे जो चालीसवां हिस्सा है।

1. मालिक बालिग़ और आक़िल हो।

2. माल निसाब की मिक़्दार तक पहुंच गया हो और वह निसाब सोने और चांदी के निसाब के बराबर है।

3. जिस वक़्त से उस माल से फ़ाइदा उठाने की नीयत की हो, उस पर एक साल गुज़र जाए।

4. फ़ाइदा उठाने की नीयत पूरे साल बाक़ी रहे। पस अगर साल के दौरान उस की नीयत बदल जाए मसलन उसको अख़राजात की मद में सर्फ़ करने की नीयत करे तो ज़रूरी नहीं कि उस पर ज़कात दे।

5. मालिक उस माल में पूरा साल तसर्रुफ़ कर सकता हो।

6. तमाम साल उसके सरमाये की मिक़्दार या उससे ज़्यादा पर खरीदार मौजूद हो। पस अगर साल के कुछ हिस्से में सरमाये के कमतर माल का खरीदार हो तो उस पर ज़कात देना वाजिब नहीं है।

ज़कात का मसरफ़

1933. ज़कात का माल आठ मसरफ़ में ख़र्च हो सकता हैः-

1. फ़क़ीरः- वह (ग़रीब मोहताज) शख़्स जिसके पास अपने और अपने अहलो अयाल के लिए साल भर के अख़राजात न हों – फ़क़ीर है। लेकिन जिस शख़्स के पास कोई हुनर या जायदाद या सरमाया हो जिससे वह अपने साल भर के अखराजात पूरे कर सकता हो वह फ़क़ीर नहीं है।

2. मिस्कीनः- वह शख़्स जो फ़क़ीर से ज़्यादा तंगदस्त हो, मिस्कीन है।

3. वह शख़्स जो इमामे अस्र (अ0) या नायबे इमाम की जानिब से इस काम पर मामूर हो कि ज़कात जम्अ करे, उसकी निगहदाश्त करे, हिसाब की जांच पड़ताल करे और जम्अ किया हुआ माल इमाम (अ0) या नायबे इमाम या फ़ुक़रा (व मसाकीन) को पहुंचाए।

4. वह कुफ़्फ़ार जिन्हें ज़कात दी जाए तो वह दीने इस्लाम की जानिब माइल हों या जंग में या जंग के अलावा मुसलमानों की मदद करें इसी तरह वह मुसलमान जिनका ईमान उन चीज़ों पर जो पैग़म्बरे इस्लाम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम लाए हैं कमज़ोर हो लेकिन अगर उन को ज़कात दी जाए तो उनके ईमान की तक़वीयत का सबब बन जाए या जो मुसलमान (शहनशाहे विलायत) इमाम अली (अ0) की विलायत पर ईमान नहीं रखते लेकिन अगर उनको ज़कात दी जाए तो वह अमीरुल मोमिनीन (अ0) की विलायते (कुबरा) की तरफ़ माइल हों और उस पर ईमान ले आयें।

5. ग़ुलामों को खरीद कर उन्हें आज़ाद करना – जिस की तफ़्सील उसके बाद में बयान हुई है।

6. वह मक़रुज़ जो अपना क़र्ज़ अदा न कर सकता हो।

7. फ़ी सबीलिल्लाह – यअनी वह काम जिनका फ़ाइदा तमाम मुसलमानों को पहुंचता हो मसलन मस्जिद बनाना, ऐसा मदरज़ा तअमीर करना जहां दीनी तअलीम दी जाती हो, शहर की सफ़ाई करना नीज़ सड़कों को पुख़्ता बनाना और उन्हें चौड़ा करना और उन ही जैसे दूसरे काम करना।

8. इब्नुस्सबील – यअनी वह मुसाफ़िर जो सफ़र में नाचार हो गया हो।

यह वह मंदे हैं जहाँ ज़कात ख़र्च होती है लेकिन अक़्वा की बिना पर मालिक ज़कात को इमाम या नायबे इमाम की इजाज़त के बग़ैर मद न0 3 और मद न0 4 में ख़र्च नहीं कर सकता और इसी तरह एहतियाते लाज़िम की बिना पर मद न0 7 का हुक्म भी यही है और मज़्कूरा मदों के अहकाम आइन्दा मसाइल में बयान किये जायेंगे।

1934. एहतियाते वाजिब यह है कि फ़क़ीर और मिस्कीन अपने और अपने अहलो अयाल के साल भर के अखराजात से ज़्यादा ज़कात न ले और अगर उस के पास कुछ रक़म या जिन्स हो तो फ़क़त उतनी ही ज़कात ले जितनी रक़म या जिन्स उस के साल भर के अखराजात के लिए कम पड़ती हो।

1935. जिस शख़्स के पास अपने पूरे साल का ख़र्च हो अगर वह उस का कुछ हिस्सा इस्तेमाल कर ले और बाद में शक करे कि जो कुछ बाक़ी बचा है वह उस के साल भर के अखराजात के लिए काफ़ी है या नहीं तो वह ज़कात नहीं ले सकता।

1936. जिस हुनरमन्द या साहबे जायदाद या ताजिर की आमदनी उसके साल भर के अखराजात से कम हो वह अपने अख़राजात की कमी पूरी करने के लिए ज़कात ले सकता है और लाज़िम नहीं है कि वह अपने काम के औज़ार या जायदाद या सरमाया अपने अख़राजात के मसरफ़ में ले आए।

1937. जिस फ़क़ीर के पास अपने और अपने अहलो अयाल के लिए साल भर का ख़र्च न हो लेकिन एक घर का मालिक हो जिस में वह रहता हो या सवारी की चीज़ रखता हो और उन के बग़ैर गुज़र बसर न कर सकता हो ख़्वाह यह सूरत अपनी इज़्ज़त रखने के लिए ही हो वह ज़कात ले सकता है और घर के सामान, बर्तनों और गर्मी व सर्दी के कपड़ों और जिन चीज़ों की उसे ज़रूरत हो उनके लिए भी यही हुक्म है और जो फ़क़ीर यह चीज़ें न रखता हो अगर उसे उनकी ज़रूरत हो तो ज़कात में से खरीद सकता है।

1938. जिस फ़क़ीर के लिए हुनर सीखना मुश्किल न हो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़कात पर ज़िन्दगी बसर न करे लेकिन जब तक हुनर सीखने में मश्ग़ूल हो ज़कात ले सकता है।

1939. जो शख़्स पहले फ़क़ीर रहा हो और वह कहता हो कि मैं फ़क़ीर हूं तो अगरचे उसके कहने पर इंसान को इत्मीनान न हो फिर भी उसे ज़कात दे सकता है। लेकिन जिस शख़्स के बारे में मअलूम न हो कि वह पहले फ़क़ीर रहा है या नहीं तो एहतियात की बिना पर जब तक उसके फ़क़ीर होने का इत्मीनान न कर ले उसको ज़कात नहीं दे सकता।

1940. जो शख़्स कहे कि मैं फ़क़ीर हूं और पहले फ़क़ीर न रहा हो अगर उसके कहने पर इत्मीनान न होता हो तो एहतियाते वाजिब है कि उसको ज़कात न दी जाए।

1941. जिस शख़्स पर ज़कात वाजिब हो अगर कोई फ़क़ीर उसका मक़रुज़ (क़र्ज़दार) हो तो वह ज़कात देते हुए अपना क़र्ज़ उसमें से वसूल कर सकता है।

1942. अगर फ़क़ीर मर जाए और उसका माल इतना न हो कि जितना उसको क़र्ज़ा देना हो तो क़र्ज़ख़्वाह क़र्ज़े को ज़कात में शुमार कर सकता है बल्कि अगर मुतवफ़्फ़ी का माल उस पर वाजिबुल अदा क़र्ज़े के बराबर हो और उसके वर्सा उसका क़र्ज़ा अदा न करें या किसी और वजह से क़र्ज़ख़्वाह अपना क़र्ज़ा वापस न ले सकता हो तब भी वह अपना क़र्ज़ा ज़कात में शुमार कर सकता है।

1943. यह ज़रूरी नहीं कि कोई शख़्स जो चीज़ फ़क़ीर को बतौरे ज़कात दे उस के बारे में उसे बताए कि यह ज़कात है बल्कि अगर फ़क़ीर ज़कात लेने में ख़िफ़्फ़त मह्सूस करता हो तो मुस्तहब है कि उसे माल तो ज़कात की नीयत से दिया जाए लेकिन उसका ज़कात होना उस पर ज़ाहिर न किया जाए।

1944. अगर कोई शख़्स यह ख़याल करते हुए किसी को ज़कात दे कि वह फ़क़ीर है और बाद में उसे पता चले कि वह फ़क़ीर न था या मस्अले में नावाक़िफ़ होने की बिना पर किसी ऐसे शख़्स को ज़कात दे दे जिस के मुतअल्लिक़ उसे इल्म हो कि वह फ़क़ीर नहीं है तो यह काफ़ी नहीं है लिहाज़ा उसने जो चीज़ उस शख़्स को बतौरे ज़कात दी थी अगर वह बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि उस शख़्स से वापिस लेकर मुस्तहक़ को दे सकता है और अगर लेने वाले को यह इल्म न था कि वह माले ज़कात है तो उससे कुछ नहीं ले सकता और इंसान को अपने माल से ज़कात का एवज़ मुस्तहक़ को देना ज़रूरी है।

1945. जो शख़्स मक़रूज़ हो और क़र्ज़ा अदा न कर सकता हो अगर उसके पास अपना साल भर का ख़र्च भी हो तब भी अपना क़र्ज़ा अदा करने के लिए ज़कात ले सकता है लेकिन ज़रूरी है कि उसने जो माल बतौरे क़र्ज़ लिया हो उसे किसी गुनाह के काम में ख़र्च न किया हो।

1946. अगर इंसान एक ऐसे शख़्स को ज़कात दे जो मक़रूज़ हो और अपना क़र्ज़ा अदा न कर सकता हो और बाद में उसे पता चले कि उस शख़्स ने जो क़र्ज़ा लिया था गुनाह के काम पर ख़र्च किया था तो अगर मक़रूज़ फ़क़ीर हो तो इंसान ने जो कुछ उसे दिया हो उसे सहमे फ़ुक़रा में शुमार कर सकता है।

1947. जो शख़्स मक़रूज़ हो और अपना क़र्ज़ा अदा न कर सकता हो अगरचे वह फ़क़ीर न हो तब भी क़र्ज़ख़्वाह क़र्ज़े को जो उसे मक़रूज़ से वसूल करना है ज़कात में शुमार कर सकता है।

1948. जिस मुसाफ़िर का ज़ादे राह ख़त्म हो जाए या उसकी सवारी क़ाबिले इस्तेमाल न रहे अगर उसका सफ़र गुनाह की ग़रज़ से न हो और वह क़र्ज़ लेकर या अपनी कोई चीज़ बेच कर मंज़िले मक़्सूद तक न पहुंच सकता हो तो अगरचे वह अपने वतन में फ़क़ीर न भी हो तो ज़कात लेकर या अपनी कोई चीज़ बेच कर सफ़र के अखराजात हासिल कर सकता हो तो वह फ़क़त उतनी मिक़्दार में ज़कात ले सकता है जिसके ज़रीए वह अपनी मंज़िल तक पहुंच जाए।

1949. जो मुसाफ़िर सफ़र में नाचार हो जाए और ज़कात ले अगर उसके वतन पहुंच जाने के बाद ज़कात में से कुछ बच जाए उसे ज़कात देने वाले को वापस न पहुंचा सकता हो तो ज़रूरी है कि वह ज़ाइद माल हाकिमे शर्अ को पहुंचा दे और उसे बता दे कि वह माले ज़कात है।