तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मुस्तहक़्क़ीने ज़कात के शराइत

1950. (माल का) मालिक जिस शख़्स को अपनी ज़कात देना चाहता हो ज़रूरी है कि वह शीआ इस्ना अशरी हो। अगर इंसान किसी को शीआ समझते हुए ज़कात दे दे और बाद में पते चले कि वह शीआ न था तो ज़रूरी है कि दोबारा ज़कात दे।

1951. अगर कोई शीआ बच्चा या दीवाना फ़क़ीर हो तो इंसान उस के सर परस्त को इस नीयत से ज़कात दे सकता है कि वह जो कुछ दे रहा है वह बच्चे या दीवाने की मिल्कीयत होगी।

1952. अगर इंसान बच्चे या दीवाने तक न पहुंच सके तो वह खुद या किसी अमानत दार शख़्स के ज़रीए ज़कात का माल उन पर ख़र्च कर सकता है और जब ज़कात उन लोगों पर ख़र्च की जा रही हो तो ज़रूरी है कि ज़कात देने वाला ज़कात की नीयत करे।

1953. जो फ़क़ीर भीक मांगता हो उसे ज़कात दी जा सकती है लेकिन जो शख़्स माले ज़कात गुनाह के काम पर ख़र्च करता हो ज़रूरी है कि उसे ज़कात न दी जाए बल्कि एहतियात यह है कि वह शख़्स जिसे ज़कात देना गुनाह की तरफ़ माइल करने का सबब हो अगरचे वह उसे गुनाह के काम में न भी ख़र्च करे उसे ज़कात न दी जाए।

1954. जो शख़्स शराब पीता हो या नमाज़ न पढ़ता हो और इसी तरह जो शख़्स खुल्लम खुल्ला गुनाहे कबीरा का मुर्तकिब होता हो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे ज़कात न दी जाए।

1955. जो शख़्स मक़रूज़ हो और अपना क़र्ज़ा अदा न कर सकता हो उसका क़र्ज़ा ज़कात से दिया जा सकता है ख़्वाह उस शख़्स के अखराजात ज़कात देने वाले ही पर क्यों न हों।

1956. इंसान उन लोगों के अख़राजात जिनकी कफ़ालत उस पर वाजिब हो मसलन औलाद के अखराजात – ज़कात से अदा नहीं कर सकता लेकिन अगर वह खुद औलाद का ख़र्चा न दे तो दूसरे लोग उन्हें ज़कात दे सकते हैं।

1957. अगर इंसान अपने बेटे को ज़कात इस लिए दे ताकि वह उसे अपनी बीवी और नौकर और नौकरानी पर ख़र्च करे तो उसमें कोई हरज नहीं है।

1958. बाप अपने बेटे को सहमे फ़ी सबीलिल्लाह में से इल्मी और दीनी किताबें जिनकी बेटे को ज़रूरत हो खरीद कर नहीं दे सकता। लेकिन अगर रिफ़ाहे आम्मा के लिए उन किताबों की ज़रूरत हो तो एहतियात की बिना पर हाकिमे शर्अ से इजाज़त ले ले।

1959. जो बाप बेटे की शादी की इस्तिताअत न रखता हो वह बेटे की शादी के लिए ज़कात में से ख़र्च कर सकता है और बेटा भी बाप के लिए ऐसा ही कर सकता है।

1960. किसी ऐसी औरत को ज़कात नहीं दी जा सकती जिस का शौहर उसे ख़र्च देता हो और ऐसी औरत जिसे उस का शौहर ख़र्च न देता हो लेकिन जो हाकिमे शर्अ से रुजूउ कर के शौहर को ख़र्च देने पर मजबूर कर सकती हो उसे ज़कात न दी जाए।

1961. जिस औरत ने मुत्अ किया हो अगर वह फ़क़ीर हो तो उस का शौहर और दूसरे लोग उसे ज़कात दे सकते हैं। हाँ अगर अक़्द के मौक़े पर शौहर ने यह शर्त क़बूल की हो कि उसका ख़र्च देगा या किसी और वजह से उसका ख़र्च देना शौहर पर वाजिब हो और वह उस औरत के अखराजात देता हो तो उस औरत को ज़कात नहीं दी जा सकती।

1962. औरत अपने फ़क़ीर शौहर को ज़कात दे सकती है ख़्वाह शौहर वह ज़कात उस औरत पर ही क्यों न ख़र्च करे।

1963. सैयय्द ग़ैर सैय्यद से ज़कात नहीं ले सकता लेकिन अगर ख़ुम्स और दूसरे ज़राए आमदनी उसके अखराजात के लिए काफ़ी न हों और अगर ग़ैरे सैय्यद से ज़कात लेने पर मजबूर हो तो उस से ज़कात ले सकता है।

1964. जिस शख़्स के बारे में मअलूम न हो कि सैय्यद है या ग़ैर सैय्यद उसे ज़कात दी जा सकती है।

ज़कात की नीयत

1965. ज़रूरी है कि इंसान ब क़स्दे क़ुर्बत यानी अल्लाह तबारका तआला की ख़ुशनूदी की नीयत से ज़कात दे और अपनी नीयत में मुअय्यन करे कि जो कुछ दे रहा है वह माल की ज़कात है या ज़काते फ़ितरा है बल्कि मिसाल के तौर पर अगर गेहूं और जौ की की ज़कात उस पर वाजिब हो और वह कुछ रक़म ज़कात के तौर पर देना चाहे तो उस के लिए यह ज़रूरी है कि वह मुअय्यन करे कि गेहूं की ज़कात दे रहा है या जौ की।

1966. अगर किसी शख़्स पर मुतअद्दिद चीज़ों की ज़कात वाजिब हो और वह ज़कात में कोई चीज़ दे लेकिन किसी भी चीज़ की नीयत न करे तो जो चीज़ उसने ज़कात में दी है अगर उसकी जिन्स वही हो जो उन चीज़ों में से किसी एक की है तो वह उसी जिन्स की शुमार होगी। फ़र्ज़ करें कि किसी शख़्स पर चालीस भेड़ों और 15 मिस्क़ाल सोने की ज़कात वाजिब है, अगर वह मसलन एक भेड़ ज़कात में दे और उन चीज़ों में से (कि जिन पर ज़कात वाजिब है) किसी की भी नीयत न करे तो वह भेड़ों की ज़कात शुमार होगी लेकिन अगर वह चांदी के सिक्के या करेंसी नोट दे या जो उन (चीज़ों) के हम जिन्स नहीं है तो बअज़ (उलमा) के बक़ौल वह (सिक्के या नोट) उन तमाम (चीज़ों) पर हिसाब से बांट दिये जायें लेकिन यह बात इश्काल से खाली नहीं है बल्कि एहतिमाल यह है कि वह उन चीज़ों में से किसी की भी (ज़कात) शुमार न होंगे और (नीयत न करने तक) मालिके माल की मिल्कियत रहेंगे।

1967. अगर कोई शख़्स अपने माल की ज़कात (मुस्तहक़ तक) पहुंचाने के लिए किसी को वकील बनाये तो जब वह माले ज़कात वकील के हवाले करे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि नीयत करे कि जो कुछ उसका वकील बाद में फ़क़ीर को देगा वह ज़कात है और अहवत यह है कि ज़कात फ़क़ीर तक पहुंचने के वक़्त तक वह उस नीयत पर क़ाइम रहे।

1968. अगर कोई शख़्स माले ज़कात क़स्दे क़ुर्बत के बग़ैर ज़कात की नीयत से हाकिमे शर्अ या फ़क़ीर को दे दे तो अक़्वा की बिना पर वह माले ज़कात में शुमार होगा अगरचे उसने क़स्दे क़ुर्बत के बग़ैर अदा कर के गुनाह किया है।

ज़कात के मुतफ़र्रिक़ मसाइल

1969. एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि इंसान गेहूं और जौ को भूसे से अलग करने के मौक़े पर और खजूर और अंगूर के ख़ुश्क होने के वक़्त ज़कात फ़क़ीर को दे दे या अपने माल से अलायहदा कर दे। और ज़रूरी है कि सोने, चांदी, गाय, भेड़ और ऊंट की ज़कात ग्यारा महीने ख़त्म होने के बाद फ़क़ीर को दे या अपने माल से अलायहदा कर दे लेकिन अगर वह शख़्स किसी फ़क़ीर का मुन्तज़िर हो या किसी ऐसे फ़क़ीर को ज़कात देना चाहता हो जो किसी लिहाज़ से (दूसरे पर) बरतरी रखता हो तो वह यह कर सकता है कि ज़कात अलायहदा न करे।

1970. ज़कात अलायहदा करने के बाद एक शख़्स के लिए लाज़िम नहीं कि उसे फ़ौरन मुस्तहक़ शख़्स को दे लेकिन अगर किसी ऐसे शख़्स तक उसकी रसाई हो, जिसे ज़कात दी जा सकती हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़कात देने में ताख़ीर न करे।

1971. जो शख़्स ज़कात मुस्तहक़ शख़्स को पहुंचा सकता हो अगर वह उसे ज़कात न पहुंचाए और उसके कोताही बरतने की वजह से माले ज़कात तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे।

1972. जो शख़्स ज़कात मुस्तहक़ तक पहुंचा सकता हो अगर वह उसे ज़कात न पहुंचाए और माले ज़कात हिफ़ाज़त करने के बावजूद तलफ़ हो जाए और ज़कात अदा करने में ताख़ीर की कोई सहीह वजह न हो तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे। लेकिन अगर ताख़ीर करने की कोई सहीह वजह थी मसलन एक ख़ास फ़क़ीर उसकी नज़र में था या थोड़ा थोड़ा कर के फ़ुक़रा को देना चाहता था तो उसका ज़ामिन होना मअलूम नहीं है।

1973. अगर कोई शख़्स ज़कात (ऐन उसी) माल से अदा करे तो वह बाक़ी मांदा माल में तसर्रुफ़ कर सकता है और अगर वह ज़कात अपने किसी दूसरे माल से अदा कर दे तो उस पूरे माल में तसर्रुफ़ कर सकता है।

1974. इंसान ने जो माले ज़कात अलायहदा किया हो उसे अपने लिये उठा कर उसकी जगह कोई दूसरी चीज़ नहीं रख सकता।

1975. अगर उस माले ज़कात से जो किसी शख़्स से जो किसी शख़्स ने अलायहदा कर दिया हो कोई मनफ़अत हासिल हो मसलन जो भेड़ बतौरे ज़कात अलायहदा की हो वह बच्चा जने तो वह मन्फ़अत फ़क़ीर का माल है।

1976. जब कोई शख़्स माले ज़कात अलायहदा कर रहा हो अगर उस वक़्त कोई मुस्तहक़ मौजूद हो तो बेहतर है कि ज़कात उसे दे दे बूजुज़ उस सूरत के कि कोई ऐसा शख़्स उसकी नज़र में हो जिसे ज़कात देना किसी वजह से बेहतर हो।

1977. अगर कोई शख़्स हाकिमे शर्अ की इजाज़त के बग़ैर उस माल से कारोबार करे जो उसने ज़कात के लिए अलायहदा कर दिया हो और उसमें खिसारा हो जाए तो उसे ज़कात में कोई कमी नहीं करनी चाहिए लेकिन अगर मुनाफ़ा हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि मुस्तहक़ को दे दे।

1978. अगर कोई शख़्स इससे पहले की ज़कात उस पर वाजिब हो कोई चीज़ बतौरे ज़कात फ़क़ीर को दे दे तो वह ज़कात में शुमार नहीं होगी और अगर उस पर ज़कात वाजिब होने के बाद वह चीज़ जो उसने फ़क़ीर को दी थी तलफ़ न हुई हो और फ़क़ीर अभी तक फ़क़ीरी में मुब्तला हो तो ज़कात देने वाला उस चीज़ को जो उसने फ़क़ीर को दी थी ज़कात में शुमार कर सकता है।

1979. अगर फ़क़ीर यह जानते हुए कि ज़कात एक शख़्स पर वाजिब नहीं हुई उससे कोई चीज़ बतौर ज़कात ले ले और वह चीज़ फ़क़ीर की तहवील में तलफ़ हो जाए तो फ़क़ीर उस का ज़िम्मेदार है और जब ज़कात उस शख़्स पर वाजिब हो जाए और फ़क़ीर उस वक़्त तक तंगदस्त हो तो जो चीज़ उस शख़्स ने फ़क़ीर को दी थी उस का एवज़ ज़कात में शुमार कर सकता है।

1980. अगर कोई फ़क़ीर यह न जानते हुए कि ज़कात एक शख़्स पर वाजिब नहीं हुई है उससे कोई चीज़ बतौरे ज़कात ले ले और वह फ़क़ीर की तहवील में तलफ़ हो जाए तो फ़क़ीर ज़िम्मेदार नहीं है और देने वाला शख़्स उस चीज़ का एवज़ ज़कात में शुमार नहीं कर सकता।

1981. मुस्तहब है कि गाय, भेड़ और ऊंट की ज़कात आबरूमंद (सफ़ैदपोश ग़रीब ग़ुरबा) को दी जाए और ज़कात देने में अपने रिश्तेदारों को दूसरों पर, अहले इल्म को बेइल्म लोगों पर, और जो लोग हाथ न फ़ैलाते हों उन को मंगतों पर तरजीह दी जाए। हां अगर फ़क़ीर को किसी और वजह से ज़कात देना बेहतर हो तो फिर मुस्तहब है कि ज़कात उस को दी जाए।

1982. बेहतर है कि ज़कात अलानिया दी जाए और मुस्तहब सदक़ा पोशीदा तौर पर दिया जाए।

1983. जो शख़्स ज़कात देना चाहता हो अगर उसके शहर में कोई मुस्तहक़ न हो और वह ज़कात उसके लिए मुअय्यन मद में भी सर्फ़ न कर सकता हो तो अगर उसे उम्मीद न हो कि बाद में कोई मुस्तहक़ शख़्स अपने शहर में मिल जायेगा तो ज़रूरी है कि ज़कात दूसरे शहर में ले जाए और ज़कात की मुअय्यन मद में सर्फ़ करे। और उस शहर में ले जाने के अख़राजात हाकिमे शर्अ की इजाज़त से माले ज़कात में से ले सकता है। और अगर माले ज़कात तलफ़ हो जाए तो वह ज़िम्मेदार नहीं है।

1984. अगर ज़कात देने वाले को अपने शहर में कोई मुस्तहक़ मिल जाए तब भी वह माले ज़कात दूसरे शहर ले जा सकता है लेकिन ज़रूरी है कि उस शहर में ले जाने के अख़राजात ख़ुद बर्दाश्त करे और अगर माले ज़कात तलफ़ हो जाए तो वह ख़ुद ज़िम्मेदार है बजुज़ उस सूरत के कि माले ज़कात दूसरे शहर में हाकिमे शर्अ के हुक्म से ले गया हो।

1985. जो शख़्स गेहूं, जौ, किशमिश और खजूर बतौरे ज़कात दे रहा हो इन अज्नास के नाप तोल की उजरत उसकी अपनी ज़िम्मेदारी है।

1986. जिस शख़्स को ज़कात में 2 मिस्क़ाल और 15 नखुद या इस से ज़्यादा चांदी देनी हो वह एहतियाते मुस्तहब की बिना पर 2 मिस्क़ाल और 15 नखुद से कम चांदी किसी फ़क़ीर को न दे नीज़ अगर चांदी के अलावा कोई दूसरी चीज़ मसलन गेहूं और जौ दोनों हों और उनकी क़ीमत 2 मिस्क़ाल और 15 नखुद चांदी तक पहुंच जाए तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर वह एक फ़क़ीर को उस से कम न दे।

1987. इंसान के लिए मकरूह है कि मुस्तहक़ से दर्ख़्वास्त करे कि जो ज़कात उसने उस से ली है उसी के हाथ फ़रोख़्त कर दे लेकिन अगर मुस्तहक़ ने जो चीज़ बतौरे ज़कात ली है उसे बेचना चाहे तो जब उसकी क़ीमत तय हो जाए तो जिस शख़्स ने मुस्तहक़ को ज़कात दी हो उस चीज़ को खरीदने के लिए उसका हक़ दूसरों पर फ़ायक़ है।

1988. अगर किसी शख़्स को शक हो कि जो ज़कात उस पर वाजिब हुई थी वह उसने दी है या नहीं और जिस माल में ज़कात वाजिब हुई थी वह भी मौजूद हो तो ज़रूरी है कि ज़कात दे ख़्वाह उसका शक गुज़श्ता साल की ज़कात के मुतअल्लिक़ ही क्यों न हो। और (जिस माल में ज़कात वाजिब हुई थी) अगर वह ज़ाए हो चुका हो तो अगरचे उसी साल के मुतअल्लिक़ ही शक क्यों न हो उस पर ज़कात नहीं है।

1989. फ़क़ीर यह नहीं कर सकता कि ज़कात लेने से पहले उस की मिक़्दार से कम मिक़्दार पर समझौता कर ले या किसी चीज़ को उसकी क़ीमत से ज़्यादा क़ीमत पर बतौरे ज़कात क़बूल करे। और इसी तरह मालिक भी यह नहीं कर सकता कि मुस्तहक़ को इस शर्त पर ज़कात दे कि वह मुस्तहक़ उसे वापस कर देगा लेकिन अगर मुस्तहक़ ज़कात लेने के बाद राज़ी हो जाए और उस ज़कात को उसे वापस कर दे तो कोई हरज नहीं मसलन किसी शख़्स पर बहुत ज़्यादा ज़कात वाजिब हो और फ़क़ीर हो जाने की वजह से वह ज़कात अदा न कर सकता हो और उसने तौबा कर ली हो तो अगर फ़क़ीर राज़ी हो जाए कि उससे ज़कात ले कर फिर उसे बख़्श दे तो कोई हरज नहीं।

1990. इंसान क़ुरआने मजीद, दीनी किताबें या दुआ की किताबें सहमे फ़ी सबीलिल्लाह से खरीद कर वक़्फ़ नहीं कर सकता लेकिन अगर रिफ़ाहे आम्मा के लिए उन चीज़ों की ज़रूरत हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर हाकिमे शर्अ से इजाज़त ले ले।

1991. इंसान माले ज़कात से जायदाद खरीद कर अपनी औलाद या उन लोगों को वक़्फ़ नहीं कर सकता जिनका खर्च उस पर वाजिब हो ताकि वह उस जायदाद की मनफ़अत अपने मसरफ़ में ले आयें।

1992. हज और ज़ियारत वग़ैरा पर जाने के लिए इंसान फ़ी सबीलिल्लाह के हिस्से से ज़कात ले सकता है अगरचे वह फ़क़ीर न हो या अपने साल भर के अख़राजात के लिए ज़कात ले चुका हो लेकिन यह उस सूरत में है जबकि उसका हज और ज़ियारत वग़ैरा के लिए जाना लोगों के मफ़ाद में हो और एहतियात की बिना पर ऐसे लोगों में ज़कात ख़र्च करने के लिए हाकिमे शर्अ से इजाज़त ले ले।

1993. अगर एक मालिक अपने माल की ज़कात देने के लिए किसी फ़क़ीर को वकील बनाए और फ़क़ीर को यह एहतिमाल हो कि मालिक का इरादा यह था कि वह खुद (यअनी फ़क़ीर) उस माल से कुछ न ले तो उस सूरत में वह कोई चीज़ उसमें से अपने लिए नहीं ले सकता और अगर फ़क़ीर को यह यक़ीन हो कि मालिक का इरादा यह नहीं था तो वह अपने लिए भी ले सकता है।

1994. अगर कोई फ़क़ीर ऊंट, गायें, भेड़ें, सोना और चांदी बतौरे ज़कात हासिल करे और उनमें वह सब शराइत मौजूद हों जो ज़कात वाजिब होने के लिए बयान की गई हैं ज़रूरी है कि फ़क़ीर उन पर ज़कात दे।

1995. अगर दो अश्ख़ास एक ऐसे माल में हिस्सादार हों जिसकी ज़कात वाजिब हो चुकि हो और उनमें से एक अपने हिस्से की ज़कात दे दे और बाद में वह माल तक़सीम कर ले (और जो शख़्स ज़कात दे चुका हो) अगरचे उसे इल्म हो कि उसके साथी ने अपने हिस्से की ज़कात नहीं दी और न ही बाद में देगा तो उस का अपने हिस्से में तसर्रुफ़ करना इश्काल नहीं रखता।

1996. अगर ख़ुम्स और ज़कात किसी शख़्स के ज़िम्मे वाजिब हो और कफ़्फ़ारा और मन्नत वग़ैरा भी उस पर वाजिब हो और वह मक़रूज़ भी हो और उन सब की अदायगी न कर सकता हो तो अगर वह माल जिस पर ख़ुम्स या ज़कात वाजिब हो चुकी हो तलफ़ न हो गया हो तो ज़रूरी है कि ख़ुम्स और ज़कात दे और अगर वह माल तलफ़ हो गया हो तो कफ़्फ़ारे और नज़्र से पहले ज़कात, ख़ुम्स और क़र्ज़ अदा करे।

1997. जिस शख़्स के ज़िम्मे ख़ुम्स या ज़कात हो और हज भी उस पर वाजिब हो और वह मक़रूज़ भी हो अगर वह मर जाए और उसका माल उन तमाम चीज़ों के लिए काफ़ी न हो और अगर वह माल जिस पर ख़ुम्स या ज़कात वाजिब हो चुकी हो तलफ़ न हो गया हो तो ज़रूरी है कि ख़ुम्स या ज़कात अदा की जाए और उसका बाक़ी मांदा माल जिस पर ख़ुम्स या ज़कात वाजिब हो चुकी हो तलफ़ हो गया हो तो ज़रूरी है कि उसका माल क़र्ज़ की अदायगी पर ख़र्च किया जाए और अगर ज़्यादा बचा हो तो उसे ख़ुम्स और ज़कात पर तक़सीम कर दिया जाए।

1998. जो शख़्स इल्म हासिल करने में मश्ग़ूल हो वह जिस वक़्त इल्म हासिल न करे उस वक़्त अपनी रोज़ी कमाने के लिए काम कर सकता है। अगर उसका इल्म हासिल करना वाजिबे ऐनी हो तो फ़ुक़रा के हिस्से से उसको ज़कात दे सकते हैं और अगर उस इल्म का हासिल करना अवामी बह्बूद के लिए हो तो फ़ी सबीलिल्लाह की मद से एहतियात की बिना पर हाकिमे शर्अ की इजाज़त से उसको ज़कात देना जाइज़ है और इन दो सूरतों के अलावा उसको ज़कात देना जाइज़ नहीं है।

ज़काते फ़ित्रा

1999. ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूबे आफ़्ताब के वक़्त जो शख़्स बालिग़ और आक़िल हो और न फ़क़ीर हो और न दूसरे का ग़ुलाम हो ज़रूरी है कि अपने लिए और उन लोगों के लिए जो उसके हां खाना खाते हों फ़ी कस एक साअ जिसके बारे में कहा जाता है कि तक़रीबन तीन किलो होता उन ग़िज़ाओं में जो उसके शहर (या इलाक़े) में इस्तेमाल होती हों मसलन गेहूं या जौ या खजूर या किशमिश या चावल या जुवार मुस्तहक़ शख़्स को दे और अगर इनकी बजाय उनकी क़ीमत नक़दी की शक्ल में दे तब भी काफ़ी है और एहतियाते लाज़िम यह है कि जो ग़िज़ा उसके शहर में आम तौर पर इस्तेमाल न होती हो चाहे वह गेहूं, जौ, खजूर या किशमिश हो, न दे।

2000. जिस शख़्स के पास अपने और अपने अहलोअयाल के लिए साल भर का खर्च न हो और उस का कोई रोज़गार भी न हो जिसके ज़रीए वह अपने अहलोअयाल का साल भर का खर्च पूरा कर सके वह फ़क़ीर है और उस पर फ़ित्रा देना वाजिब नहीं है।

2001. जो लोग ईदुलफ़ित्र की रात ग़ुरूब के वक़्त किसी शख़्स के हां खाने वाले समझे जायें ज़रूरी है कि वह शख़्स उनका फ़ित्रा दे, क़त्ए नज़र इससे कि वह छोटे हों या बड़े, मुसलमान हों या काफ़िर, उनका ख़र्चा उस पर वाजिब हो या न हो और उसके शहर में हों या किसी दूसरे शहर में।

2002. अगर कोई शख़्स एक ऐसे शख़्स को जो उसके हां खाना खाने वाला गरदाना जाए, उसे दूसरे शहर में नुमाइन्दा मुक़र्रर करे कि उसके (यअनी साहबे ख़ाना के) माल से अपना फ़ित्रा दे दे और उसे इत्मीनान हो कि वह शख़्स फ़ित्रा दे देगा तो खुद साहबे ख़ाना के लिए उसका फ़ित्रा देना ज़रूरी नहीं है।

2003. जो मेहमान ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूब से पहले साहबे ख़ाना की रज़ामन्दी से उसके घर आए और उसके हां खाना खाने वालों में अगरचे वक़्ती तौर पर शुमार हो उसका फ़ित्रा साहबे ख़ाना पर वाजिब है।

2004. जो मेहमान ईदुलफ़ित्र की रात ग़ुरूब से पहले साहबे ख़ाना की रज़ामन्दी के बग़ैर उसके घर आए और कुछ मुद्दत साहबे ख़ाना के हां रहे उस का फ़ित्रा एहतियात की बिना पर वाजिब है और इसी तरह अगर इंसान को किसी का ख़र्चा देने पर मजबूर किया न गया हो तो उसके फ़ित्रे के लिए भी यही हुक्म है।

2005. जो मेहमान ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूब के बाद वारिद हो अगर वह साहबे ख़ाना के हां खाना खाने वाला शुमार हो तो उस का फ़ित्रा साहबे ख़ाना पर एहतियात की बिना पर वाजिब है और अगर खाना खाने वाला शुमार न हो तो वाजिब नहीं है। ख़्वाह साहबे ख़ाना ने ग़ुरूब से पहले उसे दअवत दी हो और वह इफ़्तार भी साहबे ख़ाना के घर पर ही करे।

2006. अगर कोई शख़्स ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूब के वक़्त दीवाना हो और उसकी दीवांगी ईदुल फ़ित्र के दिन ज़ोहर के वक़्त तक बाक़ी रहे तो उस पर फ़ित्रा वाजिब नहीं है वर्ना एहतियाते वाजिब की बिना पर लाज़िम है कि फ़ित्रा दे।

2007. ग़ुरूबे आफ़ताब से पहले अगर कोई बच्चा बालिग़ हो जाए या कोई दीवाना आक़िल हो जाए या कोई फ़क़ीर ग़नी हो जाए तो अगर वह फ़ितरा वाजिब होने की शराइत पूरी करता हो तो ज़रूरी है कि फ़ितरा दे।

2008. जिस शख़्स पर ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूब के वक़्त फ़ित्रा वाजिब न हो अगर ईद के दिन ज़ोहर के वक़्त से पहले तक फ़ित्रा होने की शराइत उसमें मौजूद हो जायें तो एहतियाते वाजिब1 यह है कि फ़ित्रा दे।

2009. अगर कोई काफ़िर ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद मुसलमान हो जाए तो उस पर फ़ित्रा वाजिब है लेकिन अगर एक ऐसा मुसलमान जो शीआ न हो वह ईद का चांद देखने के बाद शीआ हो जाए तो ज़रूरी है कि फ़ित्रा दे।

2010. जिस शख़्स के पास सिर्फ़ अन्दाज़न एक साथ गेहूं ऐसी ही कोई जिन्स हो उसके लिए मुस्तहब है कि फ़ित्रा दे और अगर उसके अहलो अयाल भी हों और वह उनका भी फ़ित्रा देना चाहता हो तो वह ऐसा कर सकता है कि फ़ित्रे की नीयत से एक साथ गेहूं वग़ैरा अपने अहलो अयाल में से किसी एक को दे दे और वह इसी नीयत से दूसरे को दे दे और वह इसी तरह देते रहें हत्ताकि वह जिन्स खानदान के आख़िरी फ़र्द तक पहुंच जाए और बेहतर है कि जो चीज़ आख़िरी फ़र्द को मिले वह किसी ऐसे शख़्स को दे जो ख़ुद उन लोगों में से न हो जिन्होंने फ़ित्रा एक दूसरे को दिया है और अगर उन लोगों में से कोई नाबालिग़ हो तो उसका सरपरस्त उसकी बजाय फ़ितरा ले सकता है और एहतियात यहै है कि जो चीज़ नाबालिग़ के लिए ली जाए वह किसी दूसरे को न दी जाए।

2011. अगर ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूब के बाद किसी के हां बच्चा पैदा हो तो उसका फ़ित्रा देना वाजिब नहीं है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि जो अश्ख़ास ग़ुरूब के बाद से ईद के दिन ज़ौहर से पहले तक साहबे ख़ाना के हां खाना खाने वालों में समझे जायें वह उन सबका फ़ित्रा दे।

2012. अगर कोई शख़्स किसी के हां खाना खाता हो और ग़ुरूब से पहले किसी दूसरे के हां खाना खाने वाला हो जाए तो उसका फ़ित्रा उसी शख़्स पर वाजिब है जिसके हां वह खाना खाने वाला बन जाए मसलन अगर औरत ग़ुरूब से पहले शौहर के घर चली जाए तो ज़रूरी है कि शौहर उसका फ़ित्रा दे।

2013. जिस शख़्स का फ़ित्रा किसी दूसरे शख़्स पर वाजिब हो उस पर अपना फ़ित्रा खुद देना वाजिब नहीं है।

2014. जिस शख़्स का फ़ित्रा किसी दूसरे शख़्स पर वाजिब हो अगर वह न दे तो एहतियात की बिना पर फ़ित्रा खुद उस शख़्स पर देना वाजिब हो जाता है जो शराइत मस्अला 1999 में बयान हुई है। अगर वह मौजूद हों तो अपना फ़ित्रा खुद अदा करे।

2015. जिस शख़्स का फ़ित्रा किसी दूसरे शख़्स पर वाजिब हो अगर वह खुद अपना फ़ित्रा दे दे तो जिस शख़्स पर उसका फ़ित्रा वाजिब हो उस पर से उसकी अदायगी का वुजूब साक़ित नहीं होता।

2016. जिस औरत का शौहर उसका ख़र्च न देता हो अगर वह किसी दूसरे के हां खाना खाती हो तो उसका फ़ित्रा उस शख़्स पर वाजिब है जिसके हां वह खाना खाती है और अगर वह किसी के हां खाना न खाती हो और फ़क़ीर भी न हो तो ज़रूरी है कि अपना फ़ित्रा खुद दे।

2017. ग़ैरे सैय्यद, सैय्यद को फ़ित्रा नहीं दे सकता हालांकि अगर सैय्यद उसके हां खाना खाता हो तब भी उसका फ़ित्रा वह किसी दूसरे सैय्यद को नहीं दे सकता।

2018. जो बच्चा मां या दाया का दूध पीता हो उसका फ़ित्रा उस शख़्स पर वाजिब है जो मां या दाया के अखराजात बर्दाश्त करता हो लेकिन अगर मां या दाया का खर्च खुद बच्चे के माल से पूरा हो तो बच्चे का फ़ित्रा किसी पर वाजिब नहीं है।

2019. इंसान अगरचे अपने अहलो अयाल का खर्च हराम माल से देता हो, ज़रूरी है कि उनका फ़ित्रा हलाल माल से दे।

2020. अगर इंसान किसी शख़्स को उजरत पर रखे जैसे मिस्त्री, बढ़ई या खिदमतगार और उसका खर्च इस तरह दे कि वह उसका खाना खाने वालों में शुमार हो तो ज़रूरी है कि उसका फ़ित्रा भी दे लेकिन अगर उसे सिर्फ़ काम की मज़दूरी दे तो उस (अजीर) का फ़ित्रा अदा करना उस पर वाजिब नहीं है।

2021. अगर कोई शख़्स ईदुल फ़ित्र की रात ग़ुरूब से पहले फ़ौत हो जाए तो उसका और उसके अहलो अयाल का फ़ित्रा उसके माल से देना वाजिब नहीं है। लेकिन अगर ग़ुरूब के बाद फ़ौत हो तो मश्हूर क़ौल की बिना पर ज़रूरी है कि उसका और उसके अहलो अयाल का फ़ित्रा उसके माल से दिया जाए लेकिन यह हुक्म इश्काल से खाली नहीं है और इस मसअले में एहतियात के पहलू को तर्क नहीं करना चाहिए।

ज़काते फ़ित्रा का मसरफ़

2022. फ़ित्रा एहतियाते वाजिब की बिना पर उन शीआ इसना अशरी फ़ुक़रा को देना ज़रूरी है, जो उन शराइत पर पूरे उतरते हों जिनका ज़िक्र ज़कात के मुस्तहक़्क़ीन में हो चुका है और अगर शहर में शीआ इसना अशरी फ़ुक़रा न मिलें तो दूसरे मुसलमान फ़ुक़रा को फ़ित्रा दे सकता है लेकिन ज़रूरी है कि किसी भी सूरत में नासिबी को न दिया जाए।

2023. अगर कोई शीआ बच्चा फ़क़ीर हो तो इंसान यह कर सकता है कि फ़ित्रा उस पर खर्च करे या उसके सरपरस्त को देकर उसे बच्चे की मिल्कियत क़रार दे।

2024. जिस फ़क़ीर को फ़ित्रा दिया जाए ज़रूरी नहीं कि वह आदिल हो लेकिन एहतियाते वाजिब यह है कि शराबी और बेनमाज़ी को और उस शख़्स को जो खुल्लम खुल्ला गुनाह करता हो फ़ित्रा न दिया जाए।

2025. जो शख़्स फ़ित्रा नाजाइज़ कामों में खर्च करता हो ज़रूरी है कि उसे फ़ित्रा न दिया जाए।

2026. एहतियाते मुस्तहब यह है कि एक फ़क़ीर को एक साअ से कम फ़ित्रा न दिया जाए। अलबत्ता अगर एक साअ से ज़्यादा दिया जाए तो कोई इश्काल नहीं है।

2027. जब किसी जिन्स की क़ीमत उसी जिन्स की मअमूली क़िस्म से दुगनी हो, मसलन किसी गेहूं की क़ीमत मअमूली क़िस्म के गेहूं की क़ीमत से दुगनी हो तो अगर कोई शख़्स उस (बढ़िया जिन्स) का आधा साअ बतौरे फ़ित्रा दे तो यह काफ़ी नहीं है बल्कि अगर वह आधा साअ फ़ित्रा की क़ीमत की नीयत से भी दे तो भी काफ़ी नहीं है।

2028. इंसान आधा साअ एक जिन्स का मसलन गेहूं का और आधा साअ किसी दूसरी जिन्स मसलन जौ का बतौरे फ़ित्रा नहीं दे सकता बल्कि अगर यह आधा आधा साअ फ़ित्रे की क़ीमत की नीयत से भी दे तो काफ़ी नहीं है।

2029. इंसान के लिए मुस्तहब है कि ज़कात देने में अपने फ़क़ीर रिश्तेदारों और हमसायों को दूसरे लोगों पर तरजीह दे और बेहतर यह है कि अहले इल्मों फ़ज़्ल और दींदार लोगों को दूसरे लोगों पर तरजीह दें।

2030. अगर इंसान यह ख़्याल करते हुए कि एक शख़्स फ़क़ीर है उसे फ़ित्रा दे और बाद में मअलूम हो कि वह फ़क़ीर न था तो अगर उसने जो माल फ़क़ीर को दिया था वह ख़त्म न हो गया हो तो ज़रूरी है कि वापस ले ले और मुस्तहक़ को दे दे और अगर वापस न ले सकता हो तो ज़रूरी है कि खुद अपने माल से फ़ित्रे का एवज़ दे और अगर वह माल ख़त्म हो गया हो लेकिन लेने वाले को इल्म हो कि जो कुछ उसने लिया है वह फ़ित्रा है तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे और अगर उसे यह इल्म न हो तो एवज़ देना उस पर वाजिब नहीं है और ज़रूरी है कि इंसान फ़ित्रे का एवज़ दे।

2031. अगर कोई शख़्स कहे कि मैं फ़क़ीर हूं तो उसे फ़ित्रा नहीं दिया जा सकता बजुज़ उस सूरत के कि इंसान को उसके कहने से इत्मीनान हो जाए या इंसान को इल्म हो कि वह पहले फ़क़ीर था।

ज़काते फ़ित्रा के मुतफ़र्रिक मसाइल

2032. ज़रूरी है कि इंसान फ़ित्रा क़ुर्बत के क़स्द से यअनी अल्लाह तबारका तआला की ख़ुशनूदी के लिए दे और उसे देते वक़्त फ़ित्रे की नीयत करे।

2033. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक से पहले फ़ित्रा दे दे तो यह सहीह नहीं है और बेहतर यह है कि माहे रमज़ानुल मुबारक में भी फ़ित्रा न दे अलबत्ता अगर माहे रमज़ानुल मुबारक से पहले किसी फ़क़ीर को क़र्ज़ा दे और जब फ़ित्रा उस पर वाजिब हो जाए, क़र्ज़े को फ़ित्रे में शुमार कर ले तो कोई हरज नहीं है।

2034. गेहूं या कोई दूसरी चीज़ जो फ़ित्रे के तौर पर दी जाए ज़रूरी है कि उसमें कोई और जिन्स या मिट्टी न मिली हुई हो। और अगर उसमें कोई ऐसी चीज़ मिली हुई हो और खालिस माल एक साअ तक पहुंच जाए और मिली हुई चीज़ जुदा किये बग़ैर इस्तेमाल के क़ाबिल हो या जुदा करने में हद से ज़्यादा ज़हमत न हो या जो चीज़ मिली हुई हो वह इतनी कम हो कि क़ाबिले तवज्जुह न हो तो कोई हरज नहीं है।

2035. अगर कोई शख़्स ऐबदार चीज़ फ़ित्रे के तौर पर दे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर काफ़ी नहीं है।

2036. जिस शख़्स को कई अश्ख़ास का फ़ित्रा देना हो उसके लिए ज़रूरी नहीं कि सारा फ़ित्रा एक ही जिन्स से दे मसलन अगर बअज़ अफ़राद का फ़ित्रा गेहूं से और बअज़ दूसरों का जौ से दे तो काफ़ी है।

2037. ईद की नमाज़ पढ़ने वाले शख़्स को एहतियाते वाजिब की बिना पर ईद की नमाज़ से पहले फ़ित्रा देना ज़रूरी है लेकिन अगर कोई शख़्स नमाज़े ईद न पढ़े तो फ़ित्रे की अदायगी में ज़ौहर के वक़्त तक ताख़ीर कर सकता है।

2038. अगर कोई शख़्स फ़ित्रे की नीयत से अपने माल की कुछ मिक़्दार अलायहदा कर दे और ईद के दिन ज़ौहर के वक़्त तक मुस्तहक़ को न दे तो जब भी वह माल मुस्तहक़ को दे फ़ित्रे की नीयत करे।

2039. अगर कोई शख़्स फ़ित्रे वाजिब होने के वक़्त फ़ित्रा न दे और अलग भी न करे तो उसके बाद अदा और क़ज़ा की नीयत किये बग़ैर फ़ित्रा दे।

2040. अगर कोई शख़्स फ़ित्रा अलग कर दे तो वह उसे अपने मसरफ़ में ला कर दूसरा माल उसकी जगह बतौर फ़ित्रा नहीं रख सकता।

2041. अगर किसी शख़्स के पास ऐसा माल हो जिसकी क़ीमत फ़ित्रा से ज़्यादा हो तो अगर वह शख़्स फ़ित्रा न दे और नीयत करे कि उस माल की कुछ मिक़्दार फ़ित्रे के लिए होगी तो ऐसा करने में इश्काल है।

2042. किसी शख़्स ने जो माल फ़ित्रे के लिए अलग किया हो अगर वह तलफ़ हो जाए तो अगर वह शख़्स फ़क़ीर तक पहुंच सकता था और उसने फ़ित्रा देने में ताख़ीर की हो या उसकी हिफ़ाज़त करने में कोताही की हो तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे और अगर फ़क़ीर तक नहीं पहुंच सकता था और उसकी हिफ़ाज़त में कोताही न की हो तो फिर ज़िम्मेदार नहीं है।

2043. अगर फ़ित्रा देने वाले के अपने इलाक़े में मुस्तहक़ मिल जाए तो एहतियाते वाजिब यह है कि फ़ित्रा दूसरी जगह न ले जाए और अगर दूसरी जगह ले जाए और वह तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे।

हज के अहकाम

2044. बैतुल्लाह की ज़ियारत करने और उन अअमाल को बजा लाने का नाम हज है जिनके वहां बजा लाने का हुक्म दिया गया है और उसकी अदायगी हर उस शख़्स के लिए जो मुन्दारिजा ज़ैल शराइत पूरी करता हो तमाम उम्र में एक दफ़्आ वाजिब हैः-

अव्वल – इंसान बालिग़ हो।

दोम – आक़िल और आज़ाद हो।

सोम – हज पर जाने की वजह से कोई ऐसा नाजाइज़ काम करने पर मजबूर न हो जिसका तर्क करना हज करने से ज़्यादा अहम हो या कोई ऐसा वाजिब तर्क न होता हो जो हज से ज़्यादा अहम हो।

चाहरूम – इस्तिताअत रखता हो और साहबे इस्तिताअत होना चन्द चीज़ों पर मुन्हसिर हैः-

1. इंसान रास्ते का ख़र्च और इसी तरह अगर ज़रूरत हो तो सवारी रखता हो या इतना माल रखता हो जिससे उन चीज़ों को मुहैया कर सके।

2. इतनी सेहत और ताक़त हो कि ज़्यादा मशक़्क़त के बग़ैर मक्का ए मुकर्रिमा जा कर हज कर सकता हो।

3. मक्का ए मुकर्रिमा जाने के लिए रास्ते में कोई रुकावट न हो और अगर रास्ता बन्द हो या इंसान को डर हो कि रास्ते में उसकी जान या आबरू चली जायेगी या उसका माल छीन लिया जायेगा तो उस पर हज वाजिब नहीं है लेकिन अगर वह दूसरे रास्ते से जा सकता हो तो अगरचे वह रास्ता ज़्यादा तवील हो ज़रूरी है कि उस रास्ते से जाए बजुज़ इसके कि वह रास्ता इस क़दर दूर और ग़ैर मअरूफ़ हो कि लोग कहें कि हज का रास्ता बन्द है।

4. उसके पास इतना वक़्त हो कि मक्का ए मुकर्रमा पहुंच कर हज के अअमाल बजा ला सके।

5. जिन लोगों के अखराजात उस पर वाजिब हों मसलन बीवी, बच्चे और जिन लोगों के अखराजात बर्दाश्त करना लोग उसके लिए ज़रूरी समझते हों उनके अखराजात उसके पास मौजूद हों।

6. हज से वापसी के बाद वह मआश के लिए कोई हुनर या खेती या जायदाद रखता हो या फिर कोई दूसरा ज़रीआ ए आमदनी रखता हो यअनी इस तरह न हो कि हज के अखराजात की वजह से वापसी पर मजबूर हो जाए और तंगी तुर्शी में ज़िन्दगी गुज़ारे।

2045. जिस शख़्स की ज़रूरत अपने ज़ाती मकान के बग़ैर पूरी न हो सके उस पर हज उस वक़्त वाजिब है जब उसके पास मकान के लिए भी रक़म हो।

2046. जो औरत मक्का ए मुकर्रमा जा सकती हो अगर वापसी के बाद उसके पास उसका अपना कोई माल न हो और मिसाल के तौर पर उसका शौहर भी फ़क़ीर हो और उसे ख़र्च न देता हो और वह औरत उसरत में ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर हो जाए तो उस पर हज वाजिब नहीं।

2047. अगर किसी शख़्स के पास हज के लिए ज़ादे राह और सवारी न हो और दूसरा उसे कहे कि तुम हज पर जाओ मैं तुम्हारा सफ़र खर्च दूंगा और तुम्हारे सफ़रे हज के दौरान तुम्हारे अहलो अयाल को भी खर्च देता रहूंगा तो अगर उसे इत्मीनान हो जाए कि वह शख़्स उसे ख़र्च देगा तो उस पर हज वाजिब हो जाता है।

2048. अगर किसी शख़्स को मक्का ए मुकर्रमा जाने और वापस आने का खर्च दे दिया जाए कि वह हज कर ले तो अगरचे वह मक़रूज़ भी हो और वापसी पर ग़ुज़र बसर करने के लिए माल भी न रखता हो उस पर हज वाजिब हो जाता है लेकिन अगर इस तरह हो कि हज के सफ़र का ज़माना उसके कारोबार और काम का ज़माना हो कि अगर हज पर चला जाए तो अपना क़र्ज़ मुक़र्रर वक़्त पर अदा न कर सकता हो या अपनी गुज़र बसर के अखराजात साल के बाक़ी दिनों में मुहैया न कर सकता हो तो उस पर हज वाजिब नहीं है।

2049. अगर किसी को मक्का ए मुकर्रमा तक जाने और जाने के अखराजात नीज़ जितनी मुद्दत वहां जाने और आने में लगे उस मुद्दत के लिए उसके अहलो अयाल के अखराजात दे दिये जायें और उससे कहा जाए कि हज पर जाओ लेकिन यह सब मसारिफ़ उसकी मिल्कियत में न दिये जायें तो उस सूरत में जबकि उसे इत्मीनान हो कि दिए हुए अख़राजात का उससे फिर मुतालबा नहीं किया जायेगा उस पर हज वाजिब हो जाता है।

2050. अगर किसी शख़्स को इतना माल दे दिया जाए जो हज के लिए काफ़ी हो और यह शर्त लगाई जाए कि जिस शख़्स ने माल दिया है माल लेने वाला मक्का ए मुकर्रमा के रास्ते में उसकी खिदमत करेगा तो जिसे माल दिया जाये उस पर हज वाजिब नहीं होता।

2051. अगर किसी शख़्स को इतना माल दिया जाए कि उस पर हज वाजिब हो जाए और वह हज करे तो अगरचे बाद में वह खुद भी (कहीं से) माल हासिल कर ले दूसरा हज उस पर वाजिब नहीं है।

2052. अगर कोई शख़्स बग़रज़े तिजारत मिसाल के तौर पर जद्दा जाए और इतना माल कमाए कि अगर वहां से मक्का जाना चाहे तो इस्तिताअत रखने की वजह से ज़रूरी है कि हज करे और अगर वह हज कर ले तो ख्वाह वह बाद में इतनी दौलत कमा ले कि खुद अपने वतन से भी मक्का ए मुकर्रमा जा सकता हो तब भी उस पर दूसरा हज वाजिब नहीं है।

2053. अगर कोई इस शर्त पर अजीर बने कि वह खुद एक दूसरे शख़्स की तरफ़ से हज करेगा तो अगर वह खुद हज को न जा सके और चाहे कि किसी दूसरे को अपनी जगह भेज दे तो ज़रूरी है कि जिसने उसे अजीर बनाया है उसे इजाज़त ले।

2054. अगर कोई साहबे इस्तिताअत हो कर हज को न जाए और फिर फ़क़ीर हो जाए तो ज़रूरी है कि ख़्वाह उसे ज़हमत ही क्यों न उठानी पड़े बाद में हज करे और अगर वह किसी भी तरह हज को न जा सकता हो और कोई उसे हज करने के लिए अजीर बनाए तो ज़रूरी है कि मक्का ए मुकर्रमा में रहे और फिर अपना हज बजा लाए लेकिन अगर अजीर बने और उजरत नक़्द ले ले और जिस शख़्स ने उसे अजीर बनाया हो वह इस बात पर राज़ी हो कि उस की तरफ़ से हज दूसरे साल बजा लाया जाए जबकि वह इत्मीनान न रखता हो तो ज़रूरी है कि अजीर पहले साल खुद अपना हज करे और उस शख़्स का हज जिसने उसको अजीर बनाया था दूसरे साल के लिए उठा रखे।

2055. जिस साल कोई शख़्स साहबे इस्तिताअत हुआ हो अगर उसी साल मक्का ए मुकर्रमा चला जाए और मुक़र्ररा वक़्त पर अरफ़ात और मश्अरूल हराम में न पहुंच सके और बाद में सालों में साहबे इस्तिताअत न हो तो उस पर हज वाजिब नहीं है सिवाय इसके कि चंद साल पहले से साहबे इस्तिताअत रहा हो और हज पर न गया हो तो उस सूरत में ख़्वाह ज़हमत ही क्यों न उठानी पड़े उसे हज करना ज़रूरी है।

2056. अगर कोई शख़्स साहबे इस्तिताअत होते हुए हज न करे और बाद में बुढ़ापे, बीमारी या कमज़ोरी की वजह से हज न कर सके और इस बात से ना उम्मीद हो जाए कि बाद में खुद हज कर सकेगा तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे को अपनी तरफ़ से हज के लिए भेज दे बल्कि अगर ना उम्मीद न भी हुआ हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि एक अजीर मुक़र्रर करे और अगर बाद में इस क़ाबिल हो जाए तो खुद भी हज करे और अगर उसके पास किसी साल पहली दफ़्आ इतना माल हो जाए जो हज के लिए काफ़ी हो और बुढ़ापे या बीमारी या कमज़ोरी की वजह से हज न कर सके और ताक़त (व सेहत) हासिल करने से ना उम्मीद हो तब भी यही हुक्म है और इन तमाम सूरतों में एहतियाते मुस्तहब यह है कि जिसकी तरफ़ से हज के लिए जा रहा हो अगर वह मर्द हो तो ऐसे शख़्स को नायाब बनाए जिसका हज पर जाने का पहला मौक़ा हो (यअनी इससे पहले हज करने न गया हो)

2057. जो शख़्स हज करने के लिए किसी दूसरे की तरफ़ से अजीर हो ज़रूरी है कि उसकी तरफ़ से तवाफ़ुन्निसा भी करे और अगर न करे तो अजीर पर उसकी बीवी हराम हो जायेगी।

2058. अगर कोई शख़्स तवाफ़ुन्निसा सहीह तौर पर न बजा लाए या उसको बजा लाना भूल जाए और चन्द रोज़ बाद उसे याद आए और रास्ते से वापस होकर बजा लाए तो सहीह है लेकिन अगर वापस होना उसके लिए बाइसे मशक़्क़त हो तो तवाफ़ुन्निसा की बजा आवरी के लिए किसी को नायब बना सकता है।

मुआमलात

ख़रीद व फ़रोख़्त के अहकाम

2059. एक ब्योपारी के लिए मुनासिब है कि ख़रीद व फ़रोख़्त के सिलसिले में जिन मसाइल का (उमूमन) सामना करना पड़ता है उनके अहकाम सीख ले बल्कि अगर मसाइल न सीखने की वजह से किसी वाजिब हुक्म की मुखालिफ़त करने का अन्देशा हो तो मसाइल सीखना लाज़िम व लाबुद है। हज़रत इमाम जअफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलातो वस्सलाम से रिवायत है कि जो शख़्स ख़रीद व फ़रोख़्त करना चाहता हो उसके लिए ज़रूरी है कि उनके अहकाम सीखे और अगर उन अहकाम को सीखने से पहले खरीद व फ़रोख़्त करेगा तो बातिल या मुशतबह मुआमला करने की वजह से हलाकत में पड़ेगा।

2060. अगर कोई मस्अले से नावाक़िफ़ीयत की बिना पर यह न जानता हो कि उसने जो मुआमला किया है वह सहीह है या बातिल तो जो माल उसने हासिल किया हो उसे इस्तेमाल नहीं कर सकता मगर यह कि उसे इल्म हो जाए कि दूसरा फ़रीक़ उस माल को इस्तेमाल करने पर राज़ी है तो उस सूरत में वह इस्तेमाल कर सकता है अगरचे मुआमला बातिल हो।

2061. जिस शख़्स के पास माल न हो और कुछ अख़राजात उस पर वाजिब हों, मसलन बीवी बच्चों का खर्च तो ज़रूरीह कि कारोबार करे। और मुस्तहब कामों के लिए मसलन अहलो अयाल की ख़ुशहाली और फ़क़ीरों की मदद करने के लिए कारोबार करना मुस्तहब है।

ख़रीद व फ़रोख़्त के मुस्तहब्बात

ख़रीद व फ़रोख़्त में चन्द चीज़ें मुस्तहब शुमार की गई हैं –

1.- फ़क़्र और उस जैसी कैफ़ीयत के सिवा जिन्स की क़ीमत में ख़रीदारों के दरमियान फ़र्क़ न करे।

2.- अगर वह नुक़्सान में न हो तो चीज़ें ज़्यादा मंहगी न बेचे।

3.- जो चीज़ बेच रहा हो वह कुछ ज़्यादा दे और जो चीज़ खरीद रहा हो वह कम ले।

4.- अगर कोई शख़्स सौदा करने के बाद पशीमान होकर उस चीज़ को वापस करना चाहे तो वापस ले ले।

मकरूह मुआमलात

2062. ख़ास खास मुआमलात जिन्हें मकरूह शुमार किया गया है यह हैं –

1. जायदाद का बेचना बजुज़ इसके कि उससे दूसरी जायदाद खरीदी जाए।

2. गोश्त फ़रोशी का पेशा इख़तियार करना।

3. कफ़न फ़रोशी का पेशा इखतियार करना।

4. ऐसे (ओछे) लोगों से मुआमला करना जिनकी सहीह तरबियत न हुई हो।

5. सुब्ह की अज़ान से सूरज निकलने के वक़्त तक मुआमला करना।

6. गेहूं, जौ और उन जैसी दूसरी अजनास की खरीद व फ़रोख़्त को अपना पेशा क़रार देना।

7. अगर मुसलमान कोई जिन्स खरीद रहा हो तो उसके सौदे में दख्लअन्दाज़ी करके खरीदार बनने का इज़्हार करना।

हराम मुआमलात

2063. बहुत से मुआमलात हराम हैं जिनमें से कुछ यह हैं –

1. नश्शा आवर मशरूबात, ग़ैर शिकारी कुत्ते और सुव्वर की खरीद फ़रोख़्त हराम है और एहतियात की बिना पर नजिस मुर्दार के मुतअल्लिक़ भी यही हुक्म है। इनके अलावा दूसरी नजासत की खरीद व फ़रोख़्त उस सूरत में जाइज़ है जबकि ऐने नजिस से हलाल फ़ाइदा हासिल करना मक़्सूद हो मसलन गोबर और पाखाने से खाद बनायें अगरचे एहतियात इसमें है कि उनकी खरीद व फ़रोख़्त से भी परहेज़ किया जाए।

2. जिन्सी माल की ख़रीद व फ़रोख़्त।

3. उन चीज़ों की खरीद व फ़रोख़्त भी एहतियात की बिना पर हराम है जिन्हें बिल उमूम माले तिजारत न समझा जाता हो मसलन दरिन्दों की खरीद व फ़रोख़्त उस सूरत में जबकि उनसे मुनासिब हद तक हलाल फ़ाइदा न हो।

4. उन चीज़ों की ख़रीद व फ़रोख़्त जिन्हें आम तौर पर फ़क़त हराम काम में इस्तेमाल करते हों मसलन जुए का सामान।

5. जिस लेन देने में रिबा (सूद) हो।

6. वह लेन देने जिसमें मिलावट हो यअनी ऐसी चीज़ का बेचना जिसमें दूसरी चीज़ इस तरह मिलाई गई हो कि मिलावट का पता न चल सके और बेचने वाला भी खरीदार को न बताए मसलन ऐसा घी बेचना जिसमें चर्बी मिलाई गई हो। हज़रत रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम का इर्शाद है, जो शख़्स मिलावट कर के कोई चीज़ किसी मुसलमान के हाथ बेचता है या मुसलमानों को नुक़्सान पहुंचाता है या उनके साथ मक्र व फ़रेब से काम लेता है वह मेरी उम्मत में से नहीं है और जो मुसलमान अपने मुसलमान भाई को मिलावट वाली चीज़ बेचता है तो अल्लाह तआला उसकी रोज़ी से बरकत उठा लेता है और उसकी रोज़ी के रास्तों को तंग कर देता है और उसे उसके हाल पर छोड़ देता है।

2064. जो पाक चीज़ नजिस हो गई हो और उसे पानी से धोकर पाक करना मुम्किन हो तो उसे फ़रोख़्त करने में कोई हरज नहीं है और अगर धोना मुम्किन न हो तब भी यही हुक्म है लेकिन अगर उसका हलाल फ़ाइदा उर्फ़े आम में उसके पाक होने पर मुन्हसिर न हो मसलन बअज़ अक़्साम के तेल बल्कि अगर उसका हलाल फ़ाइदा पाक होने पर मौक़ूफ़ हो और उसका मुनासिब हद तक हलाल फ़ाइदा हो तब भी उसका बेचना जाइज़ है।

2065. अगर कोई शख़्स नजिस चीज़ बेचना चाहे तो ज़रूरी है कि वह उसकी नजासत के बारे में खरीदार को बता दे और अगर उसे न बताए तो वह एक हुक्मे वाजिब की मुख़ालिफ़त का मुर्तकिब होगा मसलन नजिस पानी को वुज़ू या ग़ुस्ल में इस्तेमाल करेगा और उसके साथ अपनी वाजिब नमाज़ पढ़ेगा या उस नजिस चीज़ को खाने या पीने में इस्तेमाल करेगा अलबत्ता अगर यह जानता हो कि उसे बताने से कोई फ़ाइदा नहीं क्योंकि वह लापर्वा शख़्स है और नजिस पाक का ख़्याल नहीं रखता तो उसे बताना ज़रूरी नहीं।

2066. अगरचे खाने वाली और न खाने वाली नजिस दवाओं की खरीद व फ़रोख़्त जाइज़ है लेकिन उनकी नजासत के मुतअल्लिक़ खरीदार को उस सूरत में बता देना ज़रूरी है जिसका ज़िक्र साबिक़ा मस्अले में किया गया है।

2067. जो तेल ग़ैर इस्लामी मुमालिक से दरआमद किये जाते हैं अगर उन के नजिस होने के बारे में इल्म न हो तो उनकी खरीर व फ़रोख़्त में कोई हरज नहीं और जो चर्बी किसी हैवान के मर जाने के बाद हासिल की जाती है अगर उसे काफ़िर से लें या ग़ैर इसलामी मुमालिक से मंगायें तो उस सूरत में जबकि उस के बारे में एहतिमाल हो कि ऐसे हैवान की है जिस शरई तरीक़े से ज़िब्हा किया गया है तो वह पाक है और उसकी ख़रीद व फ़रोख़्त जाइज़ है लेकिन उसका खाना हराम है और बेचने वाले के लिए ज़रूरी है कि वह इस कैफ़ियत से ख़रीदार को आगाह करे क्योंकि खरीदार को आगाह न करने की सूरत में वह किसी वाजिब हुक्म की मुख़ालिफ़त का मुर्तकिब होगा जैसे कि मस्अला 2065 में ग़ुज़र चुका है।

2068. अगर लोमड़ी या उस जैसे जानवर को शरई तरीक़े से ज़िब्हा न किया जाए या वह खुद मर जायें तो उनकी खाल की ख़रीद व फ़रोख़्त एहतियात की बिना पर जाइज़ नहीं है।

2069. जो चमड़ा ग़ैर इसलामी मुमालिक से दर आमद किया जाए या काफ़िर से लिया जाए अगर उसके बारे में एहतिमाल हो कि एक ऐसे जानवर का है जिसे शरई तरीक़े से ज़िब्हा किया गया है तो उसकी ख़रीद व फ़रोख़्त जाइज़ है और इसी तरह उसमें नमाज़ भी अक़्वा की बिना पर सहीह होगी।

2070. जो तेल और चर्बी हैवान के मरने के बाद हासिल की जाए या वह चमड़ा जो मुसलमान से लिया जाए और इंसान को इल्म हो कि उस मुसलमान ने यह चीज़ काफ़िर से ली है लेकिन यह तहक़ीक़ नहीं की कि यह ऐसे हैवान की है जिसे शरई तरीक़े से ज़िब्हा किया गया है या नहीं अगरचे उस पर तहारत का हुक्म लगता है और उसकी ख़रीद और फ़रोख़्त जाइज़ है लेकिन उस तेल या चर्बी का खाना जाइज़ नहीं है।

2071. नशा आवर मशरूबात का लेन देन हराम और बातिल है।

2072. ग़स्बी माल का बेचना बातिल है और बेचने वाले ने जो रक़म खरीदार से ली हो उसे वापस करना ज़रूरी है।

2073. अगर खरीदार संजीदगी से सौदा करने का इरादा रखता हो लेकिन उसकी नीयत यह हो कि जो चीज़ खरीद रहा है उसकी क़ीमत नहीं देगा तो उसका यह सोचना सौदे के सहीह होने में माने नहीं और ज़रूरी है कि ख़रीदार उस सौदे की क़ीमत बेचने वाले को दे।

2074. अगर ख़रीदार चाहे कि जो माल उसने उधार ख़रीदा है उसकी क़ीमत बाद में हराम माल से देगा तब भी मुआमला सहीह है अलबत्ता ज़रूरी है कि जितनी क़ीमत उसके ज़िम्मे हो हलाल माल से दे ताकि उसका उधार चुकता हो जाए।

2075. मूसीक़ी (संगीत) के आलात मसलन सितार और तंबूरा की खरीद व फ़रोख़्त जाइज़ नहीं है और एहतियात की बिना पर छोटे छोटे साज़ जो बच्चों के खिलोने होते हैं उनके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन (हलाल और हराम में इस्तेमाल होने वाले) मुशर्तका आलात मसलन रेडियो और टेपरिकार्ड की ख़रीद व फ़रोख़्त में कोई हरज नहीं बशर्ते कि उन्हें हराम कामों में इस्तेमाल करने का इरादा न हो।

2076. अगर कोई चीज़ कि जिससे जाइज़ फ़ाइदा उठाया जा सकता हो इस नीयत से बेची जाए कि उसे हराम मसरफ़ में लाया जाए मसलन अंगूर इस नीयत से बेचा जाए कि उससे शराब तैयार की जाए तो उसका सौदा हराम बल्कि एहतियात की बिना पर बातिल है। लेकिन अगर कोई शख़्स अंगूर इस मक़्सद से न बेचे और फ़क़त यह जानता हो कि खरीदार अंगूर से शराब तैयार करेगा तो ज़ाहिर यह है कि सौदे में कोई हरज नहीं।

2077. जानदार का मुजस्समा बनाना एहतियात की बिना पर मुत्लक़न हराम है (मुत्लक़न से मुराद यह है कि मुजस्समा कामिल बनाया जाए या नाक़िस) लेकिन उन की खरीद व फ़रोख़्त मम्नून नहीं है अगरचे अहवत यह है कि उसे भी तर्क किया जाए लेकिन जानदार की नक्काशी अक़्वा की बिना पर जाइज़ है।

2078. किसी ऐसी चीज़ का खरीदना हराम है जो जुए या चोरी या बातिल सौदे से हासिल की गई हो और अगर कोई ऐसी चीज़ खरीद ले तो ज़रूरी है कि उसके असली मालिक को लौटा दे।

2079. अगर कोई शख़्स ऐसा घी बेचे जिसमें चर्बी की मिलावट हो और उसे मुअय्यन कर दे मसलन कहे कि मैं, यह एक मन घी बेच रहा हूं तो उस सूरत में जब उसमें चर्बी की मिक़्दार इतनी ज़्यादा हो कि उसे घी न कहा जाए तो मुआमला बातिल है और अगर चर्बी की मिक़्दार इतनी कम हो कि उसे चर्बी मिला हुआ कहा जाए तो मुआमला सहीह है लेकिन खरीदने वाले को माल ऐबदार होने की बिना पर हक़ हासिल है कि वह मुआमला खत्म कर सकता है और अपना पैसा वापस ले सकता है और अगर चर्बी घी से जुदा है तो चर्बी की जितनी मिक़्दार की मिलावट है उसका मुआमला बातिल है और चर्बी की जो क़ीमत बेचने वाले ने ली है वह खरीदार की है और चर्बी बेचने वाले का माल है और गाहक उसमें जो खालिस घी है उसका मुआमला भी खत्म कर सकता है लेकिन अगर मुअय्यन न करे बल्कि सिर्फ़ एक मन घी बता कर बेचे लेकिन देते वक़्त चर्बी मिला हुआ घी दे तो गाहक वह घी वापस कर के खालिस घी का मुतालबा कर सकता है।

2080. जिस जिन्स को नाप तोल कर बेचा जाता है अगर कोई बेचने वाला उसी जिन्स के बदले में बढ़ा कर बेचे मसलन एक मन गेहूं की क़ीमत डेढ़ मन गेहूं वसूल करे तो यह सूद और हराम है बल्कि अगर दो जिन्सों में से एक बे ऐब और दूसरी ऐबदार हो या एक जिन्स बढ़िया और दूसरी घटिया हो या उनकी क़ीमतों में फ़र्क़ हो तो अगर बेचने वाला जो मिक़्दार दे रहा हो उस से ज़्यादा ले तब भी सूद है और हराम है लिहाज़ा अगर वह साबित तांबा देकर उससे ज़्यादा मिक़्दार में टूटा हुआ तांबा ले या साबित क़िस्म का पीतल देकर उससे ज़्यादा मिक़्दार टूटा हुआ पीतल ले या गढ़ा हुआ सोना देकर उससे ज़्यादा मिक़्दार में बग़ैर गढ़ा हुआ सोना ले तो यह भी सूद और हराम है।

2081. बेचने वाला जो चीज़ ज़ाइद ले अगर वह जिन्स से मुख़्तलिफ़ हो जो वह बेच रहा है मसलन एक मन गेहूं को एक मन गेहूं और कुछ नक़्द रक़म के एवज़ बेचे तब भी यह सूद और हराम है बल्कि अगर वह कोई चीज़ ज़ाइद न ले लेकिन यह शर्त लगाए कि खरीदार उसके लिए कोई काम करे तो यह भी सूद और हराम है।

2082. जो शख़्स कोई चीज़ कम मिक़्दार में दे रहा हो तो अगर वह उसके साथ कोई और चीज़ शामिल कर दे मसलन एक मन गेहूं और एक रूमाल को डेढ़ मन गेहूं के एवज़ में बेचे तो इसमें कोई हरज नहीं उस सूरत में जबकि उसकी नीयत यह हो कि वह रूमाल उस ज़्यादा गेहूं के मुक़ाबिले में है और मुआमला भी नक़्द हो और इसी तरह अगर दोनों तरफ़ से कोई चीज़ बढ़ा दी जाए मसलन एक शख़्स एक मन गेहूं और एक रूमाल को डेढ़ मन गेहूं और एक रूमाल के एवज़ बेचे तो उस के लिए भी यही हुक्म है लिहाज़ा अगर उनकी नीयत यह हो कि एक का रूमाल और आधा मन गेहूं दूसरे के रूमाल के मुक़ाबिले में है तो इसमें कोई इश्काल नहीं है।

2083. अगर कोई शख़्स कोई ऐसी चीज़ बेचे जो मीटर और गज़ के हिसाब से बेची जाती है मसलन कपड़ा या ऐसी चीज़ बेचे जो गिन कर बेची जाती है मसलन अखरोट और अण्डे और ज़्यादा ले मसलन दस अण्डे दे और ग्यारा ले तो इसमें कोई हरज नहीं। लेकिन अगर ऐसा हो कि मुआमले में दोनों चीज़ें एक ही जिन्स से हों और मुद्दत मुअय्यन हो तो इस सूरत में मुआमले के सहीह होने में इश्काल है। मसलन दस अखरोट नक़्द दे और बारह अखरोट एक महीने के बाद ले। और करंसी नोटों का फ़रोख़्त करना भी इसी जुमरे में आता है मसलन तूमान को नोटों की किसी दूसरी जिन्स के बदले में मसलन दीनार या डॉलर के बदले में नक़्द या मुअय्यन मुद्दत के लिए बेचे तो इसमें कोई हरज नहीं लेकिन अगर अपनी ही जिन्स के बदले बेचना चाहे और बहुत ज़्यादा ले तो मुआमला मुअय्यन मुद्दत के लिए नहीं होना चाहिए मसलन सौ तूमान नक़्द दे और एक सौ दस तूमान छः महीने के बाद ले तो इस मुआमले के सहीह होने में इश्काल है।

2084. अगर किसी जिन्स को अकसर शहरों में नाप तोल कर बेचा जाता हो और बअज़ शहरों में उसका लेन देन गिन कर होता हो तो अक़्वा की बिना पर उस जिन्स को उस शहर की निस्बत जहां गिन कर लेन देन होता है दूसरे शहर में ज़्यादा क़िमत पर बेचना जाइज़ है और इसी तरह उस सूरत में जब शहर मुख़्तलिफ़ हों और ऐसा ग़लबा दरमियान में न हो (यअनी यह न कहा जा सके कि अकसर शहरों में यह जिन्स नाप तोल कर बिकती है या गिन कर बिकती है) तो हर शहर में वहां के रिवाज के मुताबिक़ हुक्म लगाया जायेगा।

2085. उन चीज़ों में जो तोल कर या नाप कर बेची जाती हैं अगर बेची जाने वाली चीज़ और उसके बदले में दी जाने वाली चीज़ एक जिन्स से न हों और लेन देन भी नक़्द हो तो ज़्यादा लेने में कोई हरज नहीं है लेकिन अगर लेन देन मुअय्यन मुद्दत के लिए हो तो उसमें इशकाल है। लिहाज़ा अगर कोई शख़्स एक मन चावल को दो मन गेहूं के बदले में एक महीने की मुद्दत तक बेचे तो उस लेन देन का सहीह होना इश्काल से ख़ाली नहीं।

2086. अगर एक शख़्स पक्के मेवों का सौदा कच्चे मेवों से करे तो ज़्यादा नहीं ले सकता और मश्हूर (उलमा) ने कहा है कि एक शख़्स जो चीज़ बेच रहा हो और उसके बदले में जो कुछ ले रहा हो अगर वह दोनों एक ही चीज़ से बनी हों तो ज़रूरी है कि मुआमले में इज़ाफ़ा न ले मसलन अगर वह एक गाय का दही बेचे और उसके बदले में डेढ़ मन गाय का पनीर हासिल करे तो यह सूद है और हराम है लेकिन इस हुक्म के कुल्ली होने में इश्काल है।

2087. सूद के एतिबार से गेहूं और जौ एक शुमार होते हैं लिहाज़ा मिसाल के तौर पर अगर कोई शख़्स एक मन गेहूं दे और उसके बदले में एक मन पांच सेर जौ ले तो यह सूद है और हराम है। और मिसाल के तौर पर अगर दस मन जौ इस शर्त पे खरीदे कि गेहूं की फ़सल उठाने के वक़्त दस मन गेहूं बदले में देगा तो चूंकि जौ उसने नक़्द लिये हैं और गेहूं कुछ मुद्दत के बाद दे रहा है लिहाज़ा यह उसी तरह है जैसे इज़ाफ़ा लिया हो इस लिए हराम है।

2088. बाप, बेटा और मियां बीवी एक दूसरे से सूद ले सकते हैं और इसी तरह मुसलमान एक ऐसे काफ़िर से जो इस्लाम की पनाह में न हो सूद ले सकता है लेकिन एक ऐसे काफ़िर से जो इस्लाम की पनाह में है सूद का लेन देन हराम है अलबत्ता मुआमला तय कर लेने के बाद अगर सूद देना उसकी शरीअत में जाइज़ हो तो उससे सूद ले सकता है।

बेचने वाले और ख़रीदार की शराइत

2089. बेचने वाले और खरीदार के लिए छः चीज़ें शर्त हैं –

1. – बालिग़ हों।

2. – आक़िल हों।

3. – सफ़ीह न हों यअनी अपना माल अहमक़ाना कामों में ख़र्च न करते हों।

4. – ख़रीद व फ़रोख़्त का इरादा रखते हों। पस अगर कोई मज़ाक में कहे कि मैंने अपना माल बेचा तो मुआमला बातिल होगा।

5. – किसी ने उन्हें ख़रीद फ़रोख़्त पर मजबूर न किया हो।

6. – जो जिन्स और उसके बदले में जो चीज़ एक दूसरे को दे रहे हों उसके मालिक हों। और उनके बारे में अहकाम आइन्दा मसाइल में बयान किये जायेंगे।

2090. किसी ना बालिग़ बच्चे के साथ सौदा करना जो आज़ादाना तौर पर सौदा कर रहा हो बातिल है लेकिन उन कम क़ीमत चीज़ों में जिनकी खरीद व फ़रोख्त का रिवाज है अगर ना बालिग़ मगर समझदार बच्चे के साथ लेन देन हो जाए (तो सहीह है)। और अगर सौदा उसके सरपरस्त के साथ हो और ना बालिग़ मगर समझदार बच्चा लेन देन का सीग़ा जारी करे तो सौदा हर सूरत में सहीह है बल्कि अगर जिन्स या रक़म किसी दूसरे आदमी का माल हो और बच्चा ब हैसियत वकील उस माल के मालिक की तरफ़ से वह माल बेचे या उस रक़म से कोई चीज़ खरीदे तो ज़ाहिर यह है कि सौदा सहीह है अगरचे वह समझदार बच्चा आज़ादाना तौर पर उस माल या रक़म में (हक़्के) तर्सरुफ़ रखता हो और इसी तरह अगर बच्चा इस काम में वसीला हो कि रक़म बेचने वाले को दे और जिस खरीदार तक पहुंचाए या जिस खरीदार को दे और रक़म बेचने वाले को पहुंचाए तो अगरचे बच्चा समझदार न हो, सौदा सहीह है क्योंकि दरअस्ल दो बालिग़ अफ़राद ने आपस में सौदा किया है।

2091. अगर कोई शख़्स इस सूरत में कि एक बालिग़ बच्चे से सौदा करना सहीह न हो उससे कोई चीज़ खरीदे या उसके हाथ कोई चीज़ बेचे तो ज़रूरी है कि जो जिन्स या रक़म उस बच्चे से ले अगर वह खुद बच्चे का माल हो तो उसके सरपरस्त को और अगर किसी और का माल हो तो उस के मालिक को दे दे या उसके मालिक की रिज़ामन्दी हासिल करे और अगर सौदा करने वाला शख़्स उस जिन्स या रक़म के मालिक को न जानता हो और उस का पता लगाने का कोई ज़रिआ भी न हो तो उस शख़्स के लिए ज़रूरी है कि जो चीज़ उसने बच्चे से ली हो वह उस चीज़ के मालिक की तरफ़ से ब उनवाने मज़ालिम (ज़ुल्मन और ना हक़ ली हुई चीज़) किसी फ़क़ीर को दे दे और एहतियाते लाज़िम यह है कि इस काम में हाकिमे शर्अ से इजाज़त ले।

2092. अगर कोई शख़्स एक समझदार बच्चे से इस सूरत में सौदा करे जबकि उसके साथ सौदा करना सहीह न हो और उस ने जो जिन्स या रक़म बच्चे को दी हो वह तलफ़ हो जाए तो ज़ाहिर यह है कि वह शख़्स बच्चे से उसके बालिग़ होने के बाद या उसके सरपरस्त से मुतालबा कर सकता है और अगर बच्चा समझदार न हो तो फिर वह शख़्स मुतालबे का हक़ नहीं रखता।

2093. अगर खरीदार या बेचने वाले को सौदा करने पर मजबूर किया जाए और सौदा हो जाने के बाद वह राज़ी हो जाए और मिसाल के तौर पर कहे कि मैं राज़ी हूं तो सौदा सहीह है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि मुआमले का सीग़ा दोबारा पढ़ा जाए।

2094. अगर इंसान किसी का माल उसकी इजाज़त के बग़ैर बेच दे और माल का मालिक उस के बेचने पर राज़ी न हो और इजाज़त न दे तो सौदा बातिल है।

2095. बच्चे का बाप और दादा नीज़ बाप का वसी और दादा का वसी बच्चे का माल फ़रोख़्त कर सकते हैं और अगर सूरते हाल का तक़ाज़ा हो तो मुजतहिदे आदिल भी दीवाने शख़्स या यतीम का माल या ऐसे शख़्स का माल जो ग़ायब हो फ़रोख़्त कर सकता है।

2096. अगर कोई शख़्स किसी का माल ग़स्ब कर के बेच डाले और माल के बिक जाने के बाद उसका मालिक सौदे की इजाज़त दे दे तो सौदा सहीह है और जो चीज़ ग़स्ब करने वाले ने खरीदार को दी हो और उस चीज़ जो मुनाफ़ा सौदे के वक़्त से हासिल हो वह खरीदार की मिल्कियत है और जो चीज़ खरीदार ने दी हो और उस चीज़ से जो मुनाफ़ा सौदे के वक़्त से हासिल हो वह उस शख़्स की मिल्कियत है जिसका माल ग़स्ब किया गया हो।

2097. अगर कोई शख़्स किसी का माल ग़स्ब कर के बेच दे और उसका इरादा यह हो कि उस माल की क़ीमत खुद उसकी मिल्कियत होगी और अगर माल का मालिक सौदे की इजाज़त दे दे तो सौदा सहीह है लेकिन माल की क़ीमत मालिक की मिल्कियत होगी न कि ग़ासिब की।

जिन्स और उसके एवज़ की शराइत

2098. जो चीज़ बेची जाए और जो चीज़ उसके बदले में ली जाए उसकी पांच शर्तें हैं –

1. – नाप, तोल या गिनती वग़ैरा की शक्ल में उसकी मिक़्दार मअलूम हो।

2. – बेचने वाला उन चीज़ों को तहवील में देने का अहल हो। अगर अहल न हो तो सौदा सहीह नहीं है लेकिन अगर वह उसको किसी दूसरी चीज़ के साथ मिला कर बेचे जिसे वह तहवील में दे सकता हो तो इस सूरत में लेन देन सहीह है अलबत्ता ज़ाहिर यह है कि अगर खरीदार उस चीज़ को जो खरीदी हो अपने क़ब्ज़े में ले सकता हो अगरचे बेचने वाला उसे उसकी तहवील में देने का अहल न हो तो भी लेन देन सहीह है मसलन जो घोड़ा भाग गया हो अगर उसे बेचे और खरीदने वाला उस घोड़े को ढूंढ सकता हो तो उस सौदे में कोई हरज नहीं और वह सहीह होगा और उस सूरत में किसी बात के इज़ाफ़े की ज़रूरत नहीं है।

3. – वह ख़ुसूसीयात जो जिन्स और एवज़ में मौजूद हों और जिनकी वजह से सौदे में लोगों की दिलचस्पी में फ़र्क़ पड़ता हो मुअय्यन कर दी जायें।

4. – किसी दूसरे का हक़ उस माल से इस तरह वाबस्ता न हो कि माल की मिल्कियत से खारिज होने से दूसरे का हक़ ज़ाए हो जाए।

5. – बेचने वाला खुद उस जिन्स को बेचे न कि उसकी मनफ़अत को। पस मिसाल के तौर पर अगर मकान की एक साल की मनफ़अत बेची जाए तो सहीह नहीं है लेकिन अगर खरीदार नक़्द की बजाए अपनी मिल्कियत का मुनाफ़ा दे मसलन किसी से क़ालीन या दरी वग़ैरा खरीदे और उसके एवज़ अपने मकान का एक साल का मुनाफ़ा उसे दे दे तो इसमें कोई हरज नहीं। इन सब के अहकाम आइन्दा मसाइल में बयान किये जायेंगे।

2099. जिस जिन्स का सौदा किसी शहर में तोल कर या नाप कर किया जाता हो उस शहर में ज़रूरी है कि उस जिन्स को तोल कर या नाप कर ही खरीदे लेकिन जिस शहर में उस जिन्स का सौदा उसे देख कर किया जाता हो उस शहर में वह उसे देख कर खरीद सकता है।

2100. जिस चीज़ की खरीद व फ़रोख़्त तोल कर की जाती हो उसका सौदा नाप कर भी किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर अगर एक शख़्स दस मन गेहूं बेचना चाहे तो वह एक ऐसा पैमाना जिसमें एक मन गेहूं समाता हो दस मर्तबा भर कर ले सकता है।

2101. अगर मुआमला चौथी शर्त के अलावा जो शराइत बयान की गई हैं उन में से कोई एक शर्त न होने की बिना पर बातिल हो लेकिन बेचने वाला और खरीदार एक दूसरे के माल पर तर्सरुफ़ करने पर राज़ी हों तो उनके तर्सरुफ़ करने में कोई हरज नहीं।

2102. जो चीज़ वक़्फ़ की जा चुकी हो उस का सौदा बातिल है लेकिन अगर वह चीज़ इतनी खराब हो जाए कि जिस फ़ाइदे के लिए वक़्फ़ की गई है वह हासिल न किया जा सके या वह चीज़ खराब होने वाली हो मसलन मस्जिद की चटाई इस तरह फ़ट जाए कि उस पर नमाज़ न पढ़ी जा सके तो जो शख़्स मुतवल्ली है या जिस मुतवल्ली जैसे इख़्तियारात हासिल हों वह उसे बेच दे तो कोई हरज नहीं और एहतियात की बिना पर जहां तक मुम्किन हो उसकी क़ीमत उसी मस्जिद के किसी ऐसे काम पर खर्च की जाए जो वक़्फ़ करने वाले के मक़्सद से क़रीबतर है।

2103. जब उन लोगों के माबैन जिनके लिए माल वक़्फ़ किया गया हो ऐसा इख़्तिलाफ़ पैदा हो जाए कि अन्देशा हो कि अगर वक़्फ़ शुदा माल फ़रोख़्त न किया गया तो माल या किसी की जान तलफ़ हो जायेगी तो बअज़ (फ़ुक़हा) ने कहा है कि वह ऐसा कर सकते हैं कि माल बेच कर रक़म ऐसे काम पर खर्च करें जो वक़्फ़ करने वाले के मक़्सद से क़रीब हो लेकिन यह हुक्म महल्ले इश्काल है। हां अगर वक़्फ़ करने वाला यह शर्त लगाए कि वक़्फ़ के बेच देने में कोई मसलहत हो तो बेच दिया जाए तो इस सूरत में उसे बेचने में कोई हरज नहीं है।

2104. जो जायदाद किसी दूसरे को किराये पर दी गई हो उसकी ख़रीद व फ़रोख़्त में कोई हरज नहीं है लेकिन जितनी मुद्दत पर उसे किराये पर दी गई हो उतनी मुद्दत की आमदनी साहबे जायदाद का माल है और अगर ख़रीदार को यह इल्म न हो कि वह जायदाद किराये पर दी जा चुकी है या इस गुमान के तहत कि किराये की मुद्दत थोड़ी है उस जायदाद को खरीद ले तो जब उसे हक़ीक़ते हाल का इल्म हो वह सौदा फ़स्ख़ कर सकता है।

ख़रीद व फ़रोख़्त का सीग़ा

2105. ज़रूरी नहीं कि ख़रीद व फ़रोख़्त का सीग़ा अरबी ज़बान में जारी किया जाए मसलन अगर बेचने वाला फ़ारसी (या उर्दू) में कहे कि मैंने यह माल इतनी रक़म पर बेचा और खरीदार कहे कि मैंने क़बूल किया तो सौदा सहीह है लेकिन यह ज़रूरी है कि खरीदार और बेचने वाला (मुआमले का) दिली इरादा रखते हों यअनी दो जुमले कहने से उनकी मुराद खरीद व फ़रोख़्त हो।

2106. अगर सौदा करते वक़्त सीग़ा न पढ़ा जाए लेकिन बेचने वाला उस माल के मुक़ाबिले में जो वह खरीदार से ले अपना माल उसकी मिल्कियत में दे दे तो सौदा सहीह है और दोनों अश्ख़ास मुतअल्लिक़ा चीज़ों के मालिक हो जाते हैं।