तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल0%

तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
कैटिगिरी: तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
कैटिगिरी: विज़िट्स: 91354
डाउनलोड: 5924


कमेन्टस:

दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
खोज पुस्तको में
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 30 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 91354 / डाउनलोड: 5924
आकार आकार आकार
तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

सुल्ह के अहकाम

2168. सुल्ह से मुराद है कि इंसान किसी दूसरे शख़्स के साथ इस बात पर इत्तिफ़ाक़ करे कि अपने माल से या अपने माल के मुनाफ़ा से कुछ मिक़्दार दूसरे को दे दे या अपना क़र्ज़ या हक़ छोड़ दे ताकि दूसरा भी उसके एवज़ अपने माल या मुनाफ़ा की कुछ मिक़्दार उसे दे दे या क़र्ज़ या हक़ से दस्तबरदार हो जाए। बल्कि अगर कोई शख़्स एवज़ लिए बग़ैर किसी से इत्तिफ़ाक़ करे और अपना माल या माल के मुनाफ़ा की कुछ मिक़्दार उसको दे दे या अपना क़र्ज़ या हक़ छोड़ दे तब भी सुल्ह सहीह है।

2169. जो शख़्स अपना माल बतौरे सुल्ह दूसरे को दे उसके लिए ज़रूरी है कि वह बालिग़ और आक़िल हो और सुल्ह का क़स्द रखता हो नीज़ यह कि किसी ने उसे सुल्ह पर मजबूर न किया हो और ज़रूरी है कि सफ़ीह या दीवालिया होने की बिना पर उसे अपने माल में तसर्रूफ़ करने से न रोका गया हो।

2170. सुल्ह का सीग़ा अरबी में पढ़ना ज़रूरी नहीं बल्कि जिन अलफ़ाज़ से इस बात का इज़हार हो कि फ़रीक़ैन ने आपस में सुल्ह की है (वह सुल्ह) सहीह है।

2171. अगर कोई शख़्स अपनी भेड़ें चरवाहे को दे ताकि वह मसलन एक साल उनकी निगहदाश्त करे और उनके दूध से खुद इस्तिफ़ादा करे और घी की कुछ मिक़्दार मालिक को दे तो चरवाहे की मेहनत और उस घी के मुक़ाबिले में वह शख़्स भेड़ों के दूध पर सुल्ह कर ले तो मुआमला सहीह है बल्कि अगर भेड़े चरवाहे को एक साल के लिए इस शर्त के साथ इजारे पर दे कि वह उनके दूध से इसतिफ़ादा करे और उसके एवज़ उसे कुछ घी दे मगर यह क़ैद न लगाए कि बिलख़ुसूस उन्हीं भेड़ों के दूध का घी हो तो इजारा सहीह है।

2172. अगर कोई क़र्ज़ख़्वाह उस क़र्ज़ के बदले जो उसे मक़रूज़ से वसूल करना है या अपने हक़ के बदले उस शख़्स से सुल्ह करना चाहे तो यह सुल्ह उस सूरत में सहीह है जब दूसरा उसे क़बूल कर ले लेकिन अगर कोई शख़्स अपने क़र्ज़ या हक़ से दस्तबरदार होना चाहे तो दूसरे का क़बूल करना ज़रूरी नहीं।

2173. अगर मक़रूज़ अपने क़र्ज़ की मिक़्दार जानता हो जबकि क़र्ज़ख़्वाह को इल्म न हो और क़र्ज़ख़्वाह को जो कुछ लेना हो उससे कम पर सुल्ह कर ले मसलन उसको पचास रूपये लेने हों और दस रूपये पर सुल्ह कर ले तो बाक़ीमांदा रक़म मक़रूज़ के लिए हलाल नहीं है। सिवाय उस सूरत के कि वह जितने क़र्ज़ का देनदार है उसके मुतलअल्लिक़ खुद क़र्ज़ख़्वाह को क़र्ज़े की मिक़्दार का इल्म होता तब भी वह उसी मिक़्दार (यअनी दस रूपये) पर सुल्ह कर लेता।

2174. अगर दो आदमियों के पास कोई माल मौजूद हो या एक दूसरे के ज़िम्मे कोई माल बाक़ी हो और उन्हें यह इल्म हो कि उन दोनों अमवाल में से एक माल दूसरे माल से ज़्यादा है तो चूंकि उन दोनों अमवाल को एक दूसरे के एवज़ फ़रोख़्त करना सूद होने की बिना पर हराम है इस लिए उन दोनों में एक दूसरे के एवज़ सुल्ह करना भी हराम है बल्कि अगर उन दोनों अमवाल में से एक दूसरे से ज़्यादा होने का इल्म न भी हो लेकिन ज़्यादा होने का एहतिमाल हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उन दोनों में एक दूसरे के एवज़ सुल्ह नहीं की जा सकती।

2175. अगर दो अश्ख़ास को एक शख़्स से या दो अश्ख़ास को दो अश्ख़ास से क़र्ज़ा वसूल करना हो और वह अपनी अपनी तलब पर एक दूसरे से सुल्ह करना चाहते हों चुनांचे अगर सुल्ह करना सूद का बाइस न हो जैसा कि साबिक़ा मस्अले में कहा गया है तो कोई हरज नहीं है मसलन अगर दोनों के दस मन गेहूं वसूल करना हो और एक का गेहूं अअला और दूसरे का दरमियाने दरजे का हो और दोनों की मुद्दत पूरी हो चुकी है तो उन दोनों का आपस में मुसालहत करना सहीह है।

2176. अगर एक शख़्स को किसी से अपना क़र्ज़ा कुछ मुद्दत के बाद वापस लेना हो और वह मक़रूज़ के साथ मुक़र्ररा मुद्दत से पहले मुअय्यन मिक़्दार से कम पर सुल्ह कर ले और उसका मक़्सद यह हो कि अपने क़र्ज़े का कुछ हिस्सा मुआफ़ कर दे और बाक़ीमांदा नक़्द ले ले तो इसमें कोई हरज नहीं और यह हुक्म उस सूरत में है कि क़र्ज़ा सोने या चांदी की शक्ल में या किसी ऐसी जिन्स की शक्ल में हो जो नाप कर या तोल कर बेची जाती है और अगर जिन्स इस क़िस्म की न हो तो क़र्ज़ख़्वाह के लिए जाइज़ है कि अपने क़र्ज़े की मक़रूज़ से या किसी और शख़्स से कमतर मिक़्दार पर सुल्ह कर ले या बेच दे जैसा कि मस्अला 2297 में बयान होगा।

2177. अगर दो अश्ख़ास किसी चीज़ पर आपस में सुल्ह कर लें तो एक दूसरे की रज़ामन्दी से उस सुल्ह को तोड़ सकते हैं नीज़ अगर सौदे के सिलसिले में दोनों को या किसी एक को सौदा फ़स्ख़ करने का हक़ दिया गया हो तो जिसके पास हक़ है वह सुल्ह को फ़स्ख़ कर सकता है।

2178. जब तक ख़रीदार और बेचने वाला एक दूसरे से जुदा न हो गाए हों वह सौदे को फ़स्ख़ कर सकते हैं। नीज़ अगर खरीदार एक जानवर ख़रीदे तो वह तीन दिन तक सौदा फ़स्ख़ करने का हक़ रखता है। इसी तरह अगर एक ख़रीदार खरीदी हुई जिन्स की क़ीमत तीन दिन तक अदा न करे और जिन्स को अपनी तहवील में न ले तो जैसा कि मस्अला 2132 में बयान हो चुका है बेचने वाला सौदे को फ़स्ख़ कर सकता है। लेकिन जो शख़्स किसी माल पर सुल्ह करे वह उन तीनों सूरतों में सुल्ह फ़स्ख़ करने का हक़ नहीं रखता। लेकिन अगर सुल्ह का दूसरा फ़रीक़ इस शर्ते पर अमल न करे तो उस सूरत में सुल्ह फ़स्ख़ की जा सकती है और इसी तरह बाक़ी सूरतों में भी जिनका ज़िक्र खरीद व फ़रोख़्त के अहकाम में आया है सुल्ह फ़स्ख़ की जा सकती है मगर मुसालहत के दोनों फ़रीक़ों में से एक को नुक़्सान हो तो उस सूरत में मअलूम नहीं कि सौदा फ़स्ख़ किया जा सकता है (या नहीं)।

2179. जो चीज़ बज़रीआ ए सुल्ह मिले अगर वह ऐबदार हो तो सुल्ह फ़स्ख़ की जा सकती है लेकिन अगर मुतअल्लिक़ा शख़्स बे ऐब और ऐबदार के माबेन क़ीमत का फ़र्क़ लेना चाहे तो इसमें इश्काल है।

2180. अगर कोई शख़्स अपने माल के ज़रीए दूसरे से सुल्ह करे और उसके साथ शर्त ठहराए और कहे, जिस चीज़ पर मैनें तुम से सुल्ह की है मेरे मरने के बाद मसलन तुम उसे वक़्फ़ कर दोगे, और दूसरा शख्स भी उस को क़बूल कर ले तो ज़रूरी है कि उस शर्त पर अमल करे।

किराये के अहकाम

2181. कोई चीज़ किराये पर देने वाले और किराये पर लेने वाले के लिए ज़रूरी है कि बालिग़ और आक़िल हों और किराया लोने या किराया देने का काम अपने इख़तियार से करे। और यह भी ज़रूरी है कि अपने माल में तसर्रूफ़ का हक़ रखते हों। लिहाज़ा चूंकि सफ़ीह अपने माल में तसर्रूफ़ करने का हक़ नहीं रखता इस लिए वह कोई चीज़ किराये पर ले सकता है और न दे सकता है। इसी तरह जो शख़्स दिवालिया हो चुका हो वह उन चीज़ों को किराये पर नहीं दे सकता जिनमें वह तसर्रूफ़ का हक़ न रखता हो और न वह उन में से कोई चीज़ किराये पर ले सकता है लेकिन अपनी ख़िदमात को किराये पर पेश कर सकता है।

2182. इंसान दूसरे की तरफ़ से वकील बन कर उसका माल किराये पर दे सकता है या कोई माल उसके लिए किराये पर ले सकता है।

2183. अगर बच्चे का सरपरस्त या उसके माल का मुन्तज़िम बच्चे का माल किराये पर दे या बच्चे को किसी का अजीर मुक़र्रर कर दे तो कोई हरज नहीं और अगर बच्चे के बालिग़ होने के बाद की कुछ मुद्दत को भी इजारे की मुद्दत का हिस्सा क़रार दिया जाए तो बच्चा बालिग़ होने के बाद बाक़ीमांदा इजारा फ़स्ख़ कर सकता है अगरचे सूरत यह हो कि अगर बच्चे के बालिग़ होने की कुछ मुद्दत को इजारा की मुद्दत का हिस्सा न बनाया जाता तो यह बच्चे के लिए मसलहत के अलर्रग़्म होता। हां अगर वह मसलहत कि जिसके बारे में यह इल्म हो कि शारेए मुक़द्दस इस मसलहत को तर्क करने पर राज़ी नहीं है उस सूरत में अगर हाकिमे शर्अ की इजाज़त से इजारा वाक़े हो जाए तो बच्चा बालिग़ होने के बाद इजारा फ़स्ख़ कर सकता है।

2184. जिस नाबालिग़ बच्चे का सरपरस्त न हो उसे मुज्तहिद की इजाज़त के बग़ैर मज़दूरी पर नहीं लगाया जा सकता और जिस शख़्स की रसाई मुज्तहिद तक न हो वह एक मोमिन शख़्स की इजाज़त लेकर जो आदिल हो बच्चे को मज़्दूरी पर लगा सकता है।

2185. इजारा देने वाले और इजारा लेने वाले के लिए ज़रूरी नहीं कि सीग़ा अरबी में पढ़ें बल्कि अगर किसी चीज़ का मालिक दूसरे से कहे कि मैंने अपना माल तुम्हें इजारे पर दिया और दूसरा कहे कि मैंने क़बूल किया तो इजारा सहीह है बल्कि अगर वह मुंह से कुछ भी न कहे और मालिक अपना माल इजारे के क़स्द से मुस्ताजिर को दे और वह भी इजारे के क़स्द से ले तो इजारा सहीह होगा।

2186. अगर कोई शख़्स चाहे कि इजारे का सीग़ा पढ़े बग़ैर कोई काम करने के लिए अजीर बन जाए तो जूं ही वह काम करने में मश्ग़ूल होगा इजारा सहीह हो जायेगा।

2187. जो शख़्स बोल न सकता हो अगर वह इशारे से समझा दे कि उसने कोई चीज़ इजारे पर दी है या इजारे पर ली है तो इजारा सहीह है।

2188. अगर कोई शख़्स मकान या दुकान या कश्ती या कमरा इजारे पर ले और उसका मालिक यह शर्त लगाए कि सिर्फ़ वह इस से इस्तिफ़ादा कर सकता है तो मुस्ताजिर उसे किसी दूसरे को इस्तेमाल के लिए इजारे पर नहीं दे सकता बजुज़ इसके कि वह नया इजारा इस तरह हो कि उसके फ़वाइद भी ख़ुद मुस्ताजिर से मख़्सूस हों। मसलन एक औरत एक मकान या कमरा किराया पर ले और बाद में शादी कर ले और कमरा या मकान अपनी रहाइश के लिए किराये पर दे दे (यअनी शौहर को किराये पर दे क्योंकि बीवी की रहाइश का इन्तिज़ाम भी शौहर की ज़िम्मेदारी है) और अगर मालिक ऐसी कोई शर्त न लगाए तो मुस्ताजिर उसे दूसरो को किराये पर दे सकता है। अलबत्ता माल को मुस्ताजिरे दोम के सिपुर्द करने के लिए एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि मालिक से इजाज़त ले ले लेकिन अगर वह यह चाहे कि जितने किराये पर लिया है उससे ज़्यादा किराये पर दे अगरचे (किराया रक़म न हो) दूसरी जिन्स से हो तो ज़रूरी है कि उसने मरम्मत और सफ़ेदी वग़ैरा कराई हो या उसकी हिफ़ाज़त के लिए कुछ नुक़्सान बर्दाश्त किया हो तो उसे ज़्यादा किराये पर दे सकता है।

2189. अगर अजीर मुस्ताजिर से यह शर्त तय करे कि वह फ़क़त उसी का काम करेगा तो बजुज़ उस सूरत के जिसका ज़िक्र साबिक़ा मस्अले में किया गया है उस अजीर को किसी दूसरे शख़्स को बतौरे इजारा नहीं दिया जा सकता और अगर अजीर कोई ऐसी शर्त न लगाए तो उसे दूसरे को इजारे पर दे सकता है लेकिन जो चीज़ इजारे पर दे रहा है ज़रूरी है कि उसकी क़ीमत उस इजारे से ज़्यादा हो जो अजीर के लिए क़रार दिया है। और इसी तरह अगर कोई शख़्स ख़ुद किसी का अजीर बन जाए और किसी दूसरे शख़्स को वह काम करने के लिए कम उजरत पर रख ले तो उसके लिए भी यही हुक्म है (यानी वह उसे कम उजरत पर नहीं रख सकता) लेकिन अगर उसने काम की कुछ मिक़्दार खुद अंजाम दी हो तो फिर दूसरे को कम उजरत पर भी रख सकता है।

2190. अगर कोई शख़्स मकान, दुकान, कमरे और कश्ती के अलावा कोई और चीज़ मसलन ज़मीन किराये पर ले और ज़मीन का मालिक उससे यह शर्त न करे कि सिर्फ़ वही उससे इस्तिफ़ादा कर सकता है तो अगर जितने किराये पर उसने वह चीज़ ली है उससे ज़्यादा किराये पर दे तो इजारा सहीह होने में इश्काल है।

2191. अगर कोई शख़्स मकान पर दुकान मसलन एक साल के लिए सौ रुपया किराये पर ले और उसका आधा हिस्सा खुद इस्तेमाल करे तो दूसरा हिस्सा सौ रुपया किराये पर चढ़ा सकता है लेकिन अगर वह चाहे कि मकान या दुकान का आधा हिस्सा उससे ज़्यादा किराये पर चढ़ा दे जिस पर उसने खुद वह मकान या दुकान किराये पर ली है मसलन 120 रूपया किराये पर दे दे तो ज़रूरी है कि उसने उसमें मरम्मत वग़ैरा का काम कराया हो।

किराये पर दिये जाने वाले माल की शराइत

2192. जो माल इजारे पर दिया जाए उस के चन्द शराइत हैः-

1. – वह माल मुअय्यन हो। लिहाज़ा अगर कोई शख़्स कहे कि मैंने अपने मकानात में से एक मकान तुम्हें किराये पर दिया तो यह दुरूस्त नहीं है।

2. – मुस्ताजिर यअनी किराये पर लेने वाला उस माल को देख ले या इजारे पर देने वाला शख़्स अपने माल की ख़ुसूसीयात इस तरह बयान करे कि उसके बारे में मुकम्मल मअलूमात हासिल हो जायें।

3. – इजारे पर दिये जाने वाले माल को दूसरे फ़रीक़ को सिपुर्द करना मुम्किन हो लिहाज़ा उस घोड़े को इजारे पर देना जो भाग गया हो अगर मुस्ताजिर उसको न पकड़ सके तो इजारा बातिल है और अगर पकड़ सके तो इजारा सहीह है।

4. – उस माल से इस्तिफ़ादा करना, उसके ख़त्म होने या कलअदम हो जाने पर मौक़ूफ़ न हो लिहाज़ा रोटी, फलों और दूसरी खुर्दनी अश्या को खाने के लिए किराये पर देना सहीह है।

5. – माल से वह फ़ाइदा उठाना मुम्किन हो जिसके लिए उसे किराये पर दिया जाए। लिहाज़ा ऐसी ज़मीन का ज़िराअत के लिए किराये पर देना जिसके लिए बारिश का पानी काफ़ी न हो और वह दरिया के पानी से भी सेराब न होती हो सहीह नहीं है।

6. जो चीज़ किराये पर दी जा रही हो वह किराये पर देने वाले का अपना माल हो और अगर किसी दूसरा का माल किराये पर दिया जाए तो मुआमला उस सूरत में सहीह है जबकि उस माल का मालिक रज़ामन्द हो।

2193. जिस दरख़्त में अभी फल न लगा हो उसका इस मक़्सद से किराये पर देना कि उसके फल से इस्तिफ़ादा किया जायेगा दुरुस्त है और इसी तरह एक जानवर को उसके दूध के लिए किराये पर देने का भी यही हुक्म है।

2194. औरत इस मक़्सद के लिए अजीर बन सकती है कि उसके दूध से इस्तिफ़ादा किया जाए (यअनी किसी दूसरे के बच्चे को उजरत पर दूध पिला सकती है) और ज़रूरी नहीं कि वह उस मक़्सद के लिए शौहर से इजाज़त ले। लेकिन अगर उसके दूध पिलाने में शौहर की हक़ तलफ़ी होती हो तो फिर उसकी इजाज़त के बग़ैर औरत अजीर नहीं बन सकती।

किराये पर दिये जाने वाले माल से इसतिफ़ादा की शराइत

2195. जिस इसतिफ़ादे के लिए माल किराये पर दिया जाता है उसकी चार शर्तें हैः-

1. इसतिफ़ादा करना हलाल हो। लिहाज़ा दुकान को शराब बेचने या शराब ज़खीरा (स्टोर) करने के लिए किराये पर देना और हैवान (जानवर) को शराब की नक़्लों हम्ल के लिए किराये पर देना बातिल है।

2. वह अमल शरीअत में बिला मुआवज़ा अंजाम देना वाजिब न हो। और एहतियात की बिना पर इसी क़िस्म के कामों में से है हलाल और हराम सिखाना और मुर्दों की तजहीज़ व तक्फ़ीन करना। लिहाज़ा इन कामों की उजरत लेना जायज़ नहीं है और एहतियात की बिना पर मोतबर है कि इस इसतिफ़ादे के लिए रक़म देना लोगों की नज़रों में फ़ुज़ूल न हो।

3. जो चीज़ किराये पर दी जाए अगर वह कसीरूल फ़वाइद (और कसीरुल मक़ासिद) हो तो जो फ़ाइदा उठाने की मुस्ताजिर को इजाज़त हो उसे मुअय्यन किया जाए। मसलन एक ऐसा जानवर किराये पर दिया जाए जिस पर सवारी भी की जा सकती हो और माल भी लादा जा सकता हो तो उसे किराये पर देते वक़्त यह मुअय्यन करना ज़रूरी है कि मुस्ताजिर उसे फ़क़त सवारी के मक़्सद के लिए या फ़क़त बारबरदारी के मक़्सद के लिए इस्तेमाल कर सकता है या उससे हर तरह इस्तिफ़ादा कर सकता है।

4. इस्तिफ़ादा करने की मुद्दत का तअय्युन कर लिया जाए और यह इस्तिफ़ादा मुद्दत मुअय्यन कर के हासिल किया जा सकता है मसलन मकान या दुकान किराये पर देकर या काम का तअय्युन कर के हासिल किया जा सकता है मसलन दर्ज़ी के साथ तय कर लिया जाए कि वह एक मुअय्यन लिबास मख़्सूस डिज़ाइन में सियेगा।

2196. अगर इजारे की शुरुआत का तअय्युन न किया जाए तो उसके शुरूउ होने का वक़्त इजारे का सीग़ा पढ़ने के बाद से होगा।

2197. मिसाल के तौर पर अगर मकान एक साल के लिए किराये पर दिया जाए और मुआहदे की इब्तिदा का वक़्त सीग़ा पढ़ने से एक महीना बाद से मुक़र्रर किया जाए तो इजारा सहीह है अगरचे जब सीग़ा पढ़ा जा रहा हो वह मकान किसी दूसरे के पास किराये पर हो।

2198. अगर इजारे की मुद्दत का तअय्युन न किया जाए बल्कि किरायेदार से कहा जाए कि जब तक तुम इस मकान में रहोगे दस रूपये माहबार किराया दोगे तो इजारा सहीह नहीं है।

2199. अगर मालिक मकान, किरायेदार से कहे कि मैंने तुझे यह मकान दस रुपये माहवार किराये पर दिया और उसके बाद भी तुम जितनी मुद्दत उसमें रहोगे उसका किराया दस रुपये महीना होगा तो उस सूरत में इजारे की मुद्दत की इब्तिदा का तअय्युन कर लिया जाए या उसकी इबतिदा का इल्म हो जाए तो पहले महीने का इजारा सहीह है।

2200. जिस मकान में मुसाफ़िर और ज़ायर क़ियाम करते हों और यह इल्म न हो कि वह कितनी मुद्दत तक वहां रहेंगे अगर वह मालिक मकान से तय कर लें कि मसलन एक रात का एक रुपया देंगे और मालिक मकान इस पर राज़ी हो जाए तो उस मकान से इस्तिफ़ादा करने में कोई हरज नहीं लेकिन चूंकि इजारे की मुद्दत तय नहीं की गई लिहाज़ा पहली रात के अलावा इजारा सहीह नहीं है और मालिक मकान रात के बाद जब भी चाहे उन्हें निकाल सकता है।

किराये के मुतफ़र्रिक़ मसाइल

2201. जो माल मुस्ताजिर इजारे के तौर पर दे रहा हो ज़रूरी है कि वह माल मअलूम हो। लिहाज़ा अगर ऐसी चीज़ें हों जिन का लेन देन तोल कर किया जाता हो मसलन गेहूं तो उनका वज़न मालूम होना ज़रूरी है, और अगर ऐसी चीज़ें हों जिनका लेन देन गिन कर किया जाता है मसलन राइजुल वक़्त सिक्के तो ज़रूरी है कि उनकी तअदाद मुअय्यन हो, और अगर वह चीज़ें घोड़े और भेड़ की तरह हों तो ज़रूरी है कि किराया लेने वाला उन्हें देख ले या मुस्ताजिर उनकी ख़ुसूसीयात बता दे।

2202. अगर ज़मीन ज़िराअत (खेती) के लिए किराये पर दी जाए और उसकी उजरत उसी ज़मीन की पैदावार क़रार दी जाए जो उस वक़्त मौजूद न हो या कुल्ली तौर पर कोई चीज़ उसके ज़िम्मे क़रार दे इस शर्त पर कि वह उसी ज़मीन की पैदावार से अदा की जायेगी तो इजारा सहीह नहीं है और अगर उजरत (यअनी उस ज़मीन की पैदावार) इजारा करते वक़्त मौजूद हो तो फिर कोई हरज नहीं है।

2203. जिस शख़्स ने कोई चीज़ किराये पर दी हो वह उस चीज़ को किरायादार की तहवील में देने से पहले किराया मांगने का हक़ नहीं रखता नीज़ अगर कोई शख़्स किसी काम के लिए अजीर बना हो तो जब तक वह काम अंजाम न दे दे उजरत का मुतालबा करने का हक़ नहीं रखता मगर बाअज़ सूरतों में, मसलन हक़ की अदायगी के लिए अजीर जिसे उमूमन अमल अंजाम देने से पहले उजरत दे दी जाती है (उजरत का मुतालबा करने का हक़ रखता है।

2204. अगर कोई शख़्स किराये पर दी गई चीज़ किरायादार की तहवील में दे दे तो अगरचे किरायादार उस चीज़ पर क़ब्ज़ा न करे या क़ब्ज़ा हासिल कर ले लेकिन इजारा ख़त्म होने तक उससे फ़ाइदा न उठाए फिर भी ज़रूरी है कि फिर भी मालिक को उजरत अदा करे।

2205. अगर एक शख़्स कोई काम एक मुअय्यन दिन में अंजाम देने के लिए अजीर बन जाए और उस दिन वह काम करने के लिए तैयार हो जाए तो जिस शख़्स ने उसे अजीर बनाया है ख़्वाह वह उस दिन उससे काम न ले – ज़रूरी है कि उसकी उजरत उसे दे दे। मसलन अगर किसी दर्ज़ी को एक मुअय्यन दिन लिबास सीने के लिए अजीर बनाए और दर्ज़ी उस दिन काम करने पर तैयार हो तो अगचे मालिक उसे सीने के लिए कपड़ा न दे तब भी ज़रूरी है कि उसकी मज़दूरी दे दे। क़ता ए नज़र इससे कि दर्ज़ी बेकार रहा हो या उसने अपना या किसी दूसरे का काम किया हो।

2206. अगर इजारे की मुद्दत ख़त्म हो जाने के बाद मअलूम हो कि इजारा बातिल था तो मुस्ताजिर के लिए ज़रूरी है कि आम तौर पर उस चीज़ का जो किराया होता है माल के मालिक को दे दे मसलन अगर वह एक मकान सौ रुपये किराये पर एक साल के लिए ले ले और बाद में उसे पता चले कि इजारा बातिल था तो तो अगर उस मकान का किराया आम तौर पर पचास रुपये हो तो ज़रूरी है कि पचास रुपये दे और अगर उसका किराया आम तौर पर दो सौ रुपये हो तो अगर मकान किराये पर देने वाला मालिक मकान हो या उसका वकीले मुत्लक़ हो और आम तौर पर घर के किराये की जो शर्ह हो उसे जानता हो तो ज़रूरी नहीं कि मुस्ताजिर सौ रुपये से ज़्यादा दे और अगर उसके बर अक्स सूरत हो तो ज़रूरी है कि मुस्ताजिर दो सौ रुपये दे नीज़ अगर इजारे की कुछ मुद्दत गुज़रने के बाद मअलूम हो कि इजारा बातिल था तो जो मुद्दत गुज़र चुकी हो उस पर भी यही हुक्म जारी होगा।

2207. जिस चीज़ को इजारे पर लिया गया हो अगर वह तलफ़ हो जाए और मुस्ताजिर ने उसकी निगहदाश्त में कोताही न बरती हो और उसे ग़लत तौर पर इस्तेमाल न किया हो तो (फिर वह उस चीज़ के तलफ़ होने का) ज़िम्मेदार नहीं है। इस तरह मिसाल के तौर पर अगर दर्ज़ी को दिया गया कपड़ा तलफ़ हो जाए तो अगर दर्ज़ी ने बे एहतियात न की हो और कपड़े की निगहदाश्त में भी कोताही न बरती हो तो ज़रूरी है कि वह उसका एवज़ उससे तलब न करे।

2208. जो चीज़ किसी कारीगर ने ली हो अगर वह उसे ज़ाए कर दे तो (वह उसका) ज़िम्मेदार है।

2209. अगर क़स्साब किसी जानवर का सर काट डाले और उसे हराम कर दे तो ख़्वाह उसने मज़दूरी ली हो या बिला मुआवज़ा ज़िब्हा किया हो ज़रूरी है कि जानवर की क़ीमत उसके मालिक को अदा करे।

2210. अगर कोई शख़्स एक जानवर किराये पर ले और मुअय्यन करे कि कितना बोझ उस पर लादेगा तो अगर वह उस पर मुअय्यन मिक़्दार से ज़्यादा बोझ लादे और इस वजह से जानवर मर जाए या ऐबदार हो जाए तो मुस्ताजिर ज़िम्मेदार है। नीज़ अगर उसने बोझ की मिक़्दार मुअय्यन न की हो और मअलूम से ज़्यादा बोझ जानवर पर लादे और जानवर मर जाए या ऐबदार हो जाए तब भी मुस्ताजिर ज़िम्मेदार है और दोनों सूरतों में मुस्ताजिर के लिए यह भी ज़रूरी है कि मअलूम से ज़्यादा उजरत अदा करे।

2211. अगर कोई शख़्स हैवान को ऐसा (नाज़ुक) सामान लादने के लिए किराये पर दे जो टूटने वाला हो और जानवर फिसल जाए या भाग खड़ा हो और सामान को तोड़ फोड़ दे तो जानवर का मालिक ज़िम्मेदार नहीं है। हां अगर मालिक जानवर को मअलूम से ज़्यादा मारे या ऐसी हरकत करे जिसकी वजह से जानवर गिर जाए और लदा हुआ सामान तोड़ दे तो मालिक ज़िम्मेदार है।

2212. अगर कोई शख़्स बच्चे का ख़तना करे और वह अपने काम में कोताही या ग़लती करे मसलन उसने मअलूम से ज़्यादा (चमड़ा) काटा हो और वह बच्चा मर जाए या उसमें कोई नुक़्स पैदा हो जाए तो वह ज़िम्मेदार है और अगर उसने कोताही या गलती न की हो और बच्चा खतना करने से ही मर जाए या उसमें कोई ऐब पैदा हो जाए चुनांचे इस बात की तश्खीस के लिए कि बच्चे के लिए नुक़्सान देह है या नहीं उसकी तरफ़ रुजूउ न किया गया हो नीज़ वह यह भी न जानता हो कि बच्चे को नुक़्सान होगा तो उस सूरत में वह ज़िम्मेदार नहीं है।

2213. अगर मुआलिज अपने हाथ से किसी मरीज़ को दवा दे या उसके लिए दवा तैयार करने को कहे और दवा खाने की वजह से मरीज़ को नुक़्सान पहुंचे या वह मर जाए तो मुआलिज ज़िम्मेदार है अगरचे उसने इलाज करने में कोताही न की हो।

2214. जब मुआलिज किसी मरीज़ से कह दे कि अगर तुम्हें कोई ज़रर पहुंचा तो मैं ज़िम्मेदार नहीं हूं और पूरी एहतियात से काम ले लेकिन इसके बावजूद मरीज़ को ज़रर पहुंचे या वह मर जाए तो मुआलिज ज़िम्मेदार नहीं है।

2215. किराये पर लेने वाला और जिस शख़्स ने कोई चीज़ किराये पर दी हो, वह एक दूसरे की रज़ामन्दी से मुआमला फ़स्ख़ कर सकते हैं और अगर इजारे में यह शर्त आइद करे कि वह दोनों या उनमें से कोई एक मुआमले को फ़स्ख़ करने का हक़ रखता है तो वह मुआहदे के मुताबिक़ इजारा फ़स्ख़ कर सकते हैं।

2216. अगर माल इजारे पर देने वाले मुस्ताजिर को पता चले कि वह घाटे में रहा है तो अगर इजारा करने के वक़्त वह इस अम्र की जानिब मुतवज्जह न था कि वह घाटे में है तो वह उस तफ़्सील के मुताबिक़ जो मस्अला 2132 में गुज़र चुकी है इजारा फ़स्ख़ कर सकता है लेकिन अगर इजारे के सीग़े में यह शर्त आइद की जाए कि अगर उनमें से कोई घाटे में भी होगा तो उसे इजारा फ़स्ख़ करने का हक़ नहीं होगा तो फिर वह इजारा फ़स्ख़ नहीं कर सकते।

2217. अगर एक शख़्स कोई चीज़ इजारे पर दे और इससे पहले कि उसका क़ब्ज़ा मुस्ताजिर को दे कोई और शख़्स उस चीज़ को ग़स्ब कर ले तो मुस्ताजिर इजारा फ़स्ख़ कर सकता है और जो चीज़ उसने इजारे पर देने वाले को दी हो उसे वापस ले सकता है। या (यह भी कर सकता है कि) इजारा फ़स्ख़ न करे और जितनी मुद्दत वह चीज़ ग़ासिब के पास रही हो उसकी आमतौर पर जितनी उजरत बने वह ग़ासिब से ले ले। लिहाज़ा अगर मुस्ताजिर एक हैवान का एक महीने का इजारा दस रुपये के एवज़ करे और कोई शख़्स उस हैवान को दस दिन के लिए ग़स्ब कर ले और आम तौर पर उसका दस दिन का इजारा पन्द्रह रुपये हो तो मुस्ताजिर पन्द्रह रुपये ग़ासिब से ले सकता है।

2218. अगर कोई दूसरा शख़्स मुस्ताजिर को इजारा कर्दा चीज़ अपनी तहवील में न लेने दे या तहवील में लेने के बाद उस पर नाजाइज़ क़ब्ज़ा कर ले या उससे इस्तिफ़ादा करने में हाइल हो तो मुस्ताजिर इजारा फ़स्ख़ नहीं कर सकता और सिर्फ़ यह हक़ रखता है कि उस चीज़ का आम तौर पर जितना किराया बनता हो वह ग़ासिब से ले ले।

2219. अगर इजारे की मुद्दत ख़त्म होने से पहले मालिक अपना माल मुस्ताजिर के हाथ बेच डाले तो इजारा फ़स्ख़ नहीं होता और मुस्ताजिर को चाहिये कि उस चीज़ का किराया मालिक को दे और अगर (मालिक मुस्ताजिर के अलावा) उस (माल) को किसी और शख़्स के हाथ बेच दे तब भी यही हुक्म है।

2220. अगर इजारे की मुद्दत शुरुउ होने से पहले जो चीज़ इजारे पर ली है वह उस इस्तिफ़ादे के क़ाबिल न रहे जिसका तअय्युन किया गया था तो इजारा बातिल हो जाता है और मुस्ताजिर इजारे की रक़म मालिक से वापस ले सकता है और अगर सूरत यह हो कि उस माल से थोड़ा सा इस्तिफ़ादा किया जा सकता हो तो मुस्ताजिर इजारा फ़स्ख़ कर सकता है।

2221. अगर एक शख्स कोई चीज़ इजारे पर ले और वह कुछ मुद्दत गुज़रने के बाद जो इस्तिफ़ादा मुस्ताजिर के लिए तय किया गया हो उसके क़ाबिल न रहे तो बाक़ी मांदा मुद्दत के लिए इजारा बातिल हो जाता है और मुस्ताजिर गुज़री हुई मुद्दत का इजारा उजरतुल मिस्ल यअनी जितने दिन वह चीज़ इस्तेमाल की हो उतने दिनों की आम उजरत देकर इजारा फ़स्ख़ कर सकता है।

2222. अगर कोई शख़्स ऐसा मकान किराये पर दे जिसके मसलन दो कमरे हों और उनमें से एक कमरा टूट फूट जाए लेकिन इजारे पर देने वाला उस कमरे को (मरम्मत कर के) इस तरह बना दे जिसमें साबिक़ा कमरे के मुक़ाबिले में काफ़ी फ़र्क़ हो तो उसके लिए वही हुक्म है जो उससे पहले वाले वाले मस्अले में बताया गया है और अगर इस तरह न हो बल्कि इजारे पर देने वाला उसे फ़ौरन बना दे और उससे इस्तिफ़ादा करने में भी क़त्अन फ़र्क़ वाक़े न हो तो इजारा बातिल नहीं होता। और किरायेदार भी इजारे को फ़स्ख़ नहीं कर सकता लेकिन अगर कमरे की मरम्मत में क़दरे तारव़ीर हो जाए और किरायेदार उससे इस्तिफ़ादा न कर पाए तो उससे तारव़ीर की मुद्दत तक का इजारा बातिल हो जाता है। और किरायेदार चाहे तो सारी मुद्दत का इजारा भी फ़स्ख़ कर सकता है अलबत्ता जितनी मुद्दत उसने कमरे से इस्तिफ़ादा किया है उसकी उजरतुल मिस्ल दे।

2223. अगर माल किराये पर देने वाला या मुस्ताजिर मर जाए तो इजारा बातिल नहीं होता लेकिन अगर मकान का फ़ाइदा सिर्फ़ उसकी ज़िन्दगी में ही उसका हो मसलन किसी दूसरे शख़्स ने वसीयत की हो कि जब तक वह (इजारे पर देने वाला) ज़िन्दा है मकान की आमदनी उसका माल होगा तो अगर वह मकान किराये पर दे दे और इजारे की मुद्दत ख़त्म होने से पहले मर जाए तो उसके मरने के वक़्त से इजारा बातिल है और अगर मौजूदा मालिक उस इजारे की तस्दीक़ कर दे तो इजारा सहीह है और इजारे पर देने वाले की मौत के बाद इजारे की जो मुद्दत बाक़ी होगी उसकी उजरत उस शख़्स को मिलेगी जो मौजूदा मालिक हो।

2224. अगर कोई शख़्स किसी मेमार को इस मक़्सद से वकील बनाए कि वह उसके लिए कारीगर मुहैया केर तो अगर मेमार ने जो कुछ उस शख़्स से लिया है कारीगरों को उससे कम दे तो ज़ाइद माल उस पर हराम है और उसके लिए ज़रूरी है कि वह रक़म उस शख़्स को वापस कर दे लेकिन अगर मेमार अजीर बन जाए कि इमारत को मुकम्मल कर देगा और वह अपने लिए यह इख़्तियार हासिल कर ले के खुद बनायेगा या दूसरे से बनवायेगा तो उस सूरत में कि कुछ काम खुद करे और बाक़ी मांदा दूसरों से उस उजरत पर करवाए जिस पर वह खुद अजीर बना है तो ज़ाइद रक़म उस के लिए हलाल होगी।

2225. अगर रंगरेज़ वअदा करे कि मसलन कपड़ा नील से रंगेगा तो अगर वह नील के बजाय उसे किसी और चीज़ से रंग दे तो उसे उजरत लेने का कोई हक़ नहीं।

जिआला के अहकाम

2226. जिआल से मुराद यह है कि इंसान वअदा करे कि अगर एक काम उसके लिए अंजाम दिया जायेगा तो वह उसके बदले कुछ माल बतौरे इनआम देगा। मसलन यह कहे कि जो उसकी गुमशुदा चीज़ बर आमद करेगा वह उसे दस रुपये (इनआम) देगा तो जो शख़्स इस काम का वअदा करे उसे जाइल और जो शख़्स वह काम अंजाम दे उसे आमिल कहते हैं और इजारे व जिआले में बअज़ लिहाज़ा से फ़र्क़ है। उन में से एक यह है कि इजारे में सीग़ा पढ़ने के बाद अजीर के लिए ज़रूरी है कि काम अंजाम दे और जिसने उसे अजीर बनाया हो वह उजरत के लिए उसका मक़रूज़ हो जाता है लेकिन जिआला में अगरचे आमिल एक मुअय्यन शख़्स हो ताहम हो सकता है कि वह काम में मश्ग़ूल न हो। पस जब तक वह काम अंजाम न दे, जाइल उस का मक़रूज़ नहीं होता।

2227. जाइल के लिए ज़रूरी है कि बालिग़ और आक़िल हो और इनआम का वअदा अपने इरादे और इख़्तियार से करे और शरअन अपने माल में तसर्रूफ़ कर सकता हो। इस बिना पर सफ़ीह का जिआला सहीह नहीं है और बिल्कुल उसी तरह दीवालिया शख़्स का जिआला उन अमवाल में सहीह नहीं है जिनमें तसर्रूफ़ का हक़ न रखता हो।

2228. जाइल जो काम लोगों से कराना चाहता हो, ज़रूरी है कि वह हराम या बे फ़ाइदा न हो और न ही उन वाजिबात में से हो जिनका बिला मुआवज़ा बजा लाना शरअन लाज़िम हो। लिहाज़ा अगर कोई कहे कि जो शख़्स शराब पियेगा या रात के वक़्त किसी आक़िलाना मक़्सद के बग़ैर एक तारीक जगह पर जायेगा या वाजिब नमाज़ पढ़ेगा मैं उसे दस रुपये दूंगा तो जिआला सहीह नहीं है।

2229. जिस माल के बारे में मुआहदा किया जा रहा हो ज़रूरी नहीं है कि उसे उसकी पूरी ख़ुसूसीयात का ज़िक्र करके मुअय्यन किया जाए बल्कि अगर सूरते हाल यह हो कि काम करने वाले को मअलूम हो कि इस काम को अंजाम देने के लिए इक़्दाम करना हिमाक़त शुमार न होगा तो काफ़ी है। मसलन अगर जाइल यह कहे कि अगर तुमने इस माक को दस रुपये से ज़्यादा क़ीमत पर बेचा तो इज़ाफ़ी रक़म तुम्हारी होगी तो जिआला सहीह है और इसी तरह अगर जाइल यह कहे कि जो कोई मेरा घोड़ा ढ़ूढ कर लायेगा मैं उसे घोड़े में निस्फ़ शिराकत या दस मन गेहूं दूंगा तो भी जिआला सहीह है।

2230. अगर काम की उजरत मुकम्मल तौर पर मुब्हम हो मसलन जाइल यह कहे कि जो मेरा बच्चा तलाश कर देगा मैं उसे रक़म दूंगा लेकिन रक़म की मिक़्दार का तअय्युन न करे तो अगर कोई शख़्स उस काम को अंजाम दे तो ज़रूरी है कि जाइल उसे उतनी उजरत दे जितनी आम लोगों की नज़रों में उस अमल की उजरत क़रार पा सके।

2231. अगर आमिल ने जाइल के क़ौल व क़रार से पहले ही वह काम कर दिया हो या क़ौल व क़रार के बाद इस नीयत से यह काम अंजाम दे कि उसके बदले रक़म नहीं लेगा तो फिर वह उजरत का हक़दार नहीं।

2232. इससे पहले कि आमिल काम शुरुउ करे जाइल जिआला को मंसूख कर सकता है।

2233. जब आमिल ने काम शुरुउ कर दिया हो अगर उसके बाद जाइल जिआला मंसूख करना चाहे तो इसमें इश्काल है।

2234. आमिल काम को अधूरा छोड़ सकता है लेकिन अगर काम अधूरा छोड़ने पर जाइल को या जिस शख़्स के लिए यह काम अंजाम दिया जा रहा है कोई नुक़्सान पहुंचता हो तो ज़रूरी है कि काम को मुकम्मल करे। मसलन अगर कोई शख़्स कहे कि जो कोई मेरी आंख का इलाज कर दे मैं उसे इस क़दर मुआवज़ा दूंगा और डाक्टर उसकी आंख का आपरेशन कर दे और सूरत यह हो कि अगर वह इलाज मुकम्मल न करे तो आंख में ऐब पैदा हो जाए तो ज़रूरी है कि अपना अमल तक्मील तक पहुंचाए और अगर अधूरा छोड़ दे तो जाइल से उजरत लेने का उसे कोई हक़ नहीं।

2235. अगर आमिल काम अधूरा छोड़ दे और वह काम ऐसा हो जैसे घोड़ा तलाश करना कि जिसके मुकम्मल किये बग़ैर उजरत का कोई फ़ाइदा न हो तो आमिल जाइल से किसी चीज़ का मुतालबा नहीं कर सकता। और अगर जाइल उजरत को काम मुकम्मल करने से मशरूत कर दे तब भी यही हुक्म है। मसलन वह कहे कि जो मेरा लिबास सियेगा मैं उसे दस रुपये दूंगा लेकिन अगर उसकी मुराद यह हो कि जितना काम किया जायेगा उतनी उजरत देगा तो फिर जाइल को चाहिये कि जितना काम हुआ हो उतनी उजरत आमिल को दे दे अगरचे एहतियात यह है कि दोनों मुसालहत के तौर पर एक दूसरे को राज़ी कर लें।

मुज़ारआ के अहकाम

2236. मुज़ारआ की चन्द क़िस्में हैं। उन में से एक यह है कि (ज़मीन का) मालिक काश्तकार (मुज़ारे) से मुआहदा कर के अपनी ज़मीन उसके इख़्तियार में दे ताकि वह उसमें काश्तकारी करे और पैदावार का कुछ हिस्सा मालिक को दे।

2237. मुज़ारआ की चन्द शराइत हैं—

1. ज़मीन का मालिक काश्तकार से कहे कि मैंने ज़मीन तुम्हे खेती बाड़ी के लिए दी है और काश्तकार भी कहे कि मैंने क़बूल की है या बग़ैर इसके कि ज़बानी कुछ कहें मालिक काश्तकार को खेती बाड़ी के इरादे से ज़मीन दे दे और काश्तकार क़बूल कर ले।

2. ज़मीन का मालिक और काश्तकार दोनों बालिग़ और आक़िल हों और बंटाई का मुआहदा अपने इरादे और इख़तियार से करें और सफ़ीह न हों। और इसी तरह ज़रूरी है कि मालिक दीवालिया न हो। लेकिन अगर काश्तकार दीवालिया हो और उसका मुज़ारआ करना उन अमवाल में तसर्रूफ़ न कह लाए जिनमें उसे तसर्रूफ़ करना मनअ था तो ऐसी सूरत में कोई इश्काल नहीं।

3. मालिक और काश्तकार में से हर एक ज़मीन की पैदावार में से कुछ हिस्सा निस्फ़ या एक तिहाई वग़ैरा ले ले। लिहाज़ा अगर कोई भी अपने लिए कोई हिस्सा मुक़र्रर न करे या मसलन मालिक कहे कि इस ज़मीन में खेती बाड़ी करो और जो तुम्हारा जी चाहे मुझे दे देना तो यह दुरुस्त नहीं है और इसी तरह अगर पैदावार की एक मुअय्यन मिक़्दार दस मन काश्तकार या मालिक के लिए मुक़र्रर कर दी जाए तो यह भी सहीह नहीं है।

4. एहतियात की बिना पर हर एक का हिस्सा ज़मीन की पूरी पैदावार में मुश्तरक हो। अगरचे अज़हर यह है कि यह शर्त मोतबर नहीं है। इसी बिना पर अगर मालिक कहे कि इस ज़मीन में खेती बाड़ी करो और ज़मीन की पैदावार का पहला आधा हिस्सा जितना भी हो तुम्हारा होगा और दूसरा आधा हिस्सा मेरा तो मुज़ारआ सहीह है।

5. जितनी मुद्दत के लिए ज़मीन काश्तकार के क़ब्ज़े में रहनी चाहिए उसे मुअय्यन कर दे और ज़रूरी है कि वह मुद्दत इतनी हो कि उस मुद्दत में पैदावार हासिल होना मुम्किन हो और अगर मुद्दत की इब्तिदा एक मखसूस दिन से और मुद्दत का इख़तिताम पैदावार मिलने को मुक़र्रर कर दे तो काफ़ी है।

6. ज़मीन क़ाबिले काश्त हो। और अगर उसमें अभी काश्त करना मुम्किन न हो लेकिन ऐसा काम किया जा सकता हो जिस से काश्त मुम्किन हो जाए तो मुज़ारआ सहीह है।

7. काश्तकार जो चीज़ काश्त करना चाहे, ज़रूरी है कि उसको मुअय्यन कर दिया जाए। मसलन मुअय्यन करे कि चावल है या गेहूं और अगर चावल है तो कौन सी क़िस्म का चावल है। लेकिन अगर किसी मख़सूस क़िस्म की काश्त पेशे नज़र न हो तो उसका मुअय्यन करना ज़रूरी नहीं है इसी तरह अगर कोई मख़सूस चीज़ पेशे नज़र हो और उसका इल्म हो तो लाज़िम नहीं है कि उसकी वज़ाहत भी करे।

8. मालिक ज़मीन को मुअय्यन कर दे। यह शर्त उस सूरत में है जबकि मालिक के पास ज़मीन के चन्द क़तआत हों और उन क़त्आत के लवाज़िमे काश्तकारी में फ़र्क़ हो। लेकिन अगर उन में कोई फ़र्क़ न हो तो ज़मीन को मुअय्यन करना लाज़िम नहीं है। लिहाज़ा अगर मालिक काश्तकार से कहे कि ज़मीन के इन क़त्आत में से किसी एक में खेती बाड़ी करो और उस क़त् ए को मुअय्यन न करे तो मुज़ारआ सहीह है।

9. जो ख़र्च उनमें से हर एक को करना ज़रूरी हो उसे मुअय्यन कर दें लेकिन जो खर्च हर एक को करना ज़रूरी हो अगर उसका इल्म हो तो फिर उसकी वज़ाहत करना लाज़िम नहीं।

2238. अगर मालिक काश्तकार से तय करे कि पैदावार की कुछ मिक़्दार एक की होगी और जो बाक़ी बचेगा उसे वह आपस में तक़्सीम कर लेंगे तो मुज़ारआ बातिल है अगरचे उन्हें इल्म हो कि इस मिक़्दार को अलाहदा करने के बाद कुछ न कुछ बाक़ी बच जायेगा। हां अगर आपस में यह तय कर लें कि बीज की जो मिक़्दार काश्त की गई है या टैक्स की जो मिक़्दार हुकूमत लेती है वह पैदावार से निकाली जायेगी और जो बाक़ी बचेगा उसे दोनों के दरमियान तक़्सीम किया जायेगा तो मुज़ारआ सहीह है।

2239. अगर मुज़ारआ के लिए कोई मुद्दत मुअय्यन की हो कि जिसमें उमूमन पैदावार दस्तयाब हो जाती है लेकिन अगर इत्तिफ़ाक़न मुअय्यन मुद्दत ख़त्म हो जाए और पैदावार दस्तयाब न हुई हो तो अगर मुद्दत मुअय्यन करते वक़्त यह बात भी शामिल थी यअनी दोनों इस बात पर राज़ी थे कि मुद्दत ख़त्म होने के बाद अगरचे पैदावार दस्तयाब न हो मुज़ारआ ख़त्म हो जायेगा तो उस सूरत में अगर मालिक इस बात पर राज़ी हो कि उजरत या बग़ैर उजरत फ़स्ल उसकी ज़मीन में खड़ी रहे और काश्तकार भी राज़ी हो तो कोई हरज नहीं और अगर मालिक राज़ी न हो तो काश्तकार को मजबूर कर सकता है कि फ़स्ल ज़मीन में से काट ले और अगर फ़स्ल काट लेने से काश्तकार को कोई नुक़्सान पहुंचे तो लाज़िम नहीं कि मालिक उसे उसका एवज़ दे लेकिन अगरचे काश्तकार मालिक को कोई चीज़ देने पर राज़ी हो तब भी वह मालिक को मजबूर नहीं कर सकता कि वह फ़स्ल अपनी ज़मीन पर रहने दे।

2240. अगर कोई ऐसी सूरत पेश आ जाए कि ज़मीन में खेती बाड़ी करना मुम्किन न हो मसलन ज़मीन का पानी बन्द हो जाए तो मुज़ारआ खत्म हो जाता है और अगर काश्तकार बिला वजह खेती बाड़ी न करे तो अगर जम़ीन उसके तसर्रूफ़ में रही हो और मालिक का उसमें कोई तसर्रूफ़ न रहा हो तो ज़रूरी है कि आम शर्ह के हिसाब से उस मुद्दत का किराया मालिक को दे।

2241. ज़मीन का मालिक और काश्तकार एक दूसरे की रज़ामन्दी के बग़ैर मुज़ारआ (का मुआहदा मंसूख नहीं कर सकते। लेकिन अगर मुज़ारआ के मुआहदे के सिलसिले में उन्होंने शर्त की हो कि उनमें से दोनों को या किसी एक को मुआमला फ़स्ख़ करने का हक़ हासिल होगा तो जो मुआहदा उन्होंने कर रखा हो उसके मुताबिक़ मुआमला फ़स्ख़ कर सकते हैं। इसी तरह अगर उन दोनों में से एक फ़रीक़ तय शुदा शराइत के ख़िलाफ़ अमल करे तो दूसरा फ़रीक़ मुआमला फ़स्ख़ कर सकता है।

2242. अगर मुज़ारआ के मुआहदे के बाद मालिक या काश्तकार मर जाए तो मुज़ारआ मंसूख नहीं हो जाता बल्कि उनके वारिस उनकी जगह ले लेते हैं। लेकिन अगर काश्तकार मर जाए और उन्होंने मुज़ारआ में यह शर्त रखी थी कि काश्तकार खुद काश्त करेगा तो मुज़रआ मंसूख हो जाता है। लेकिन अगर जो काम उसके ज़िम्मे थे वह मुकम्मल हो गाए हों तो उस सूरत में मुज़ारआ मंसूख नहीं होता और उसका हिस्सा उसके वरसा को देना ज़रूरी है। और जो दूसरे हुक़ूक़ काश्तकार को हासिल हों वह भी उसके वरसा को मीरास में मिल जाते हैं और वरसा मालिक को इस बात पर मजबूर कर सकते हैं कि मुज़ारआ खत्म होने तक फ़स्ल उसकी ज़मीन में खड़ी रहे।

2243. अगर काश्त के बाद पता चले कि मुज़ारआ बातिल था तो अगर जो बीज डाला गया हो वह मालिक का माल हो तो जो फ़स्ल हाथ आयेगी वह भी उसी का माल होगी और ज़रूरी है कि काश्तकार की उजरत और जो कुछ उसने ख़र्च किया हो और काश्तकार के ममलूका जिन बैलों और दूसरे जानवरों ने ज़मीन पर काम किया हो और उनका किराया काश्तकार को दे। और अगर बीज काश्तकार का माल हो तो फ़स्ल भी उसी का माल है और ज़रूरी है कि ज़मीन का किराया और जो कुछ मालिक ने ख़र्च किया हो और उन बैलों और दूसरे जानवरों का किराया जो मालिक का माल हो और जिन्होंने उस ज़िराअत पर काम किया हो मालिक को दे। और दोनों सूरतों में आम तौर पर जो हक़ बनता हो अगर उसकी मिक़्दार तयशुदा मिक़्दार से ज़्यादा हो और दूसरे फ़रीक़ को उसका इल्म हो तो ज़्यादा मिक़्दार देना वाजिब नहीं।

2244. अगर बीज काश्तकार का माल हो और काश्त के बाद फ़रीक़ैन को पता चले कि मुज़ारआ बातिल था तो अगर मालिक और काश्तकार रज़ामन्द हों कि उज़रत पर या बिला उजरत फ़स्ल ज़मीन पर खड़ी रहे तो कोई इश्काल नहीं है और अगर मालिक राज़ी न हो तो (उलमा के) एक गुरोह ने कहा है कि फ़स्ल पकने से पहले ही वह काश्तकार को मजबूर कर सकता है कि उसे काट ले और अगरचे काश्तकार इस बात पर तैयार हो कि वह मालिक को कोई चीज़ दे दे तब भी वह उसे फ़स्ल अपनी ज़मीन में रहने देने पर मजबूर नहीं कर सकता लेकिन यह क़ौल इश्काल से खाली नहीं है और किसी भी सूरत में मालिक काश्तकार को मजबूर नहीं कर सकता कि वह किराया दे कर फ़स्ल उसकी ज़मीन में खड़ी रहने दे हत्ता कि उससे ज़मीन का किराया तलब न करे (तब भी फ़स्ल खड़ी रहने पर मजबूर नहीं कर सकता)।

2245. अगर खेत की पैदावार जमा करने और मुज़ारआ की मीआद ख़त्म होने के बाद खेत की जड़ें ज़मीन में रह जायें और दूसरे साल सर सब्ज़ हो जायें और पैदावार दें तो अगर मालिक ने काश्तकार के साथ ज़िराअत की जड़ों में इश्तिराक का मुआहदा न किया हो तो दूसरे साल की पैदावार बीज के मालिक का माल है।

मुसाक़ात और मुग़ारसा के अहकाम

2246. अगर इंसान किसी के साथ इस क़िस्म का मुआहदा करे मसलन फलदार दरख़्तों को जिनका फल खुद उसका माल हो या उस फल पर उसका इख़्तियार हो एक मुक़र्ररा मुद्दत के लिए किसी दूसरे शख़्स के सिपुर्द कर दे ताकि वह उनकी निगाहदाश्त करे और उन्हें पानी दे और जितनी मिक़्दार वह आपस में तय करें उसके मुताबिक़ वह उन दरख़्तों का फल ले लें तो ऐसा मुआमला मुसाक़ात (आबयारी) कहलाता है।

2247. जो दरख़्त फल नहीं देते अगर उनकी कोई दूसरी पैदावार हो मसलन पत्ते और फूल हों कि जो कुछ न कुछ मालियत रखते हों मसलन मेंहदी (और पान) के दरख्त कि उसके पत्ते काम आते हैं, उनके लिए मुसाक़ात का मुआमला सहीह है।

2248. मुसाक़ात के मुआमले में सीग़ा पढ़ना लाज़िम नहीं बल्कि अगर दरख़्त का मालिक मुसाक़ात की नीयत से उसे किसी के सिपुर्द कर दे और जिस शख़्स को काम करना हो वह भी उसी नीयत से काम में मश्ग़ूल हो जाए तो मुआमला सहीह है।

2249. दरख़्तों का मालिक और जो शख़्स दरख़्तों की निगाहदाश्त की ज़िम्मेदारी ले ज़रूरी है कि दोनों बालिग़ और आक़िल हों और किसी ने उन्हें मुआमला करने पर मजबूर न किया हो नीज़ यह भी ज़रूरी है कि सफ़ीह न हों। इसी तरह ज़रूरी है कि मालिक दीवालिया न हो। लेकिन अगर बाग़बान दीवालिया हो और मुसाक़ात का मुआमला करने की सूरत में उन अम्वाल में तसर्रूफ़ करना लाज़िम न आए जिनमें तसर्रूफ़ करने से उसे रोका गया हो तो कोई इश्काल नहीं है।

2250. मुसाक़ात की मुद्दत मुअय्यन होनी चाहिए। और इतनी मुद्दत होना ज़रूरी है कि जिसमें पैदावार का दस्तयाब होना मुम्किन हो। और अगर फ़रीक़ैन उस मुद्दत की इब्तिदा मुअय्यन कर दें और उसका इख़्तिताम उस वक़्त को क़रार दें जब उसकी पैदावार दस्तयाब हो तो मुआमला सहीह है।

2251. ज़रूरी है कि हर फ़रीक़ का हिस्सा पैदावार का आधा या तिहाई या उसी की मानिन्द हो और अगर यह मुआहदा करें कि मसलन सौ मन मेवा मालिक का और बाक़ी काम करने वाले का होगा तो मुआमला बातिल है।

2252. लाज़िम नहीं है कि मुसाक़ात का मुआमला पैदावार ज़ाहिर होने से पहले तय कर लें। बल्कि अगर पैदावार ज़ाहिर होने के बाद मुआमला करें और कुछ काम बाक़ी रह जाए जो कि पैदावार में इज़ाफ़े के लिए या उसकी बेहतरी या उसे नुक़्सान से बचाने के लिए ज़रूरी हो तो मुआमला सहीह है। लेकिन अगर इस तरह के कोई काम बाक़ी न रहे हों कि जो आबयारी की तरह दरख़्त की परवरिश के लिए ज़रूरी हैं या मेवा तोड़ने या उसकी हिफ़ाज़त जैसे कामों में से बाक़ी रह जाते हैं तो फिर मुसाक़ात के मुआमले का सहीह होना महल्ले इश्काल है।

2253. खरबूज़े और खीरे वग़ैरा की बेलों के बारे में मुसाक़ात का मुआमला बिनाबरे अज़्हर सहीह है।

2254. जो दरख़्त बारिश के पानी या ज़मीन की नमी से इस्तिफ़ादा करता हो और जिसे आबपाशी की ज़रूरत न हो अगर उसे मसलन दूसरे ऐसे कामों की ज़रूरत हो जो मस्अला 2252 में बयान हो चुके हैं तो उन कामों के बारे में मुसाक़ात का मुआमला करना सहीह है।

2255. दो अफ़राद जिन्होंने मुसाक़ात की हो बाहमी रज़ामन्दी से मुआमला फ़स्ख़ कर सकते हैं और अगर मुसाक़ात के मुआहदे के सिलसिले में यह शर्त तय करें कि उन दोनों को या उनमें से किसी एक को मुआमला फ़स्ख़ करने का हक़ होगा तो उनके तय कर्दा मुआहदे के मुताबिक़ मुआमला फ़स्ख़ करने में कोई इश्काल नहीं और अगर मुसाक़ात के मुआमले में कोई शर्त तय करें और उस शर्त पर अमल न हो तो जिस शख़्स के फ़ाइदे के लिए वह शर्त तय की गई हो वह मुआमला फ़स्ख़ कर सकता है।

2256. अगर मालिक मर जाए तो मुसाक़ात का मुआमला फ़स्ख़ नहीं होता बल्कि उसके वारिस उसकी जगह पाते हैं।

2257. दरख़्तों की पर्वरिश जिस शख़्स के सिपुर्द की गई हो अगर वह मर जाए और मुआहदे में यह क़ैद और शर्त आइद न की गई हो कि वह खुद दरख़्तों की पर्वरिश करेगा तो उसके परसा उसकी जगह ले लेते हैं और अगर वरसा न खुद दरख़्तों की पर्वरिश का काम अंजाम दें और न ही उस मक़्सद के लिए किसी को अजीर मुक़र्रर करें तो हाकिमे शर्अ मुर्दे के माल से किसी को अजीर मुक़र्रर कर देगा और जो आमदनी होगी उसे मुर्दे के वरसा और दरख़्तों के मालिक के माबैन तक़्सीम कर देगा और अगर फ़रीक़ैन ने मुआमले में यह क़ैद लगाई हो कि वह शख़्स खुद दरख़्तों की पर्वरिश करेगा तो उसके मरने के बाद मुआमला फ़स्ख़ हो जायेगा।

2258. अगर यह शर्त तय की जाए कि तमाम पैदावार मालिक का मालिक होगी तो मुसाक़ात बातिल है लेकिन ऐसी सूरत में पैदावार मालिक का माल होगा और जिस शख़्स ने काम किया हो वह उजरत का मुतालबा नहीं कर सकता लेकिन अगर मुसाक़ात किसी और वजह से बातिल हो तो ज़रूरी है कि मालिक आबयारी और दूसरे काम करने की उजरत दरख़्तों की निगहदाश्त करने वाले को मअमूल के मुताबिक़ दे लेकिन अगर मअमूल के मुताबिक़ उजरत तय शुदा उजरत से ज़्यादा हो और वह उससे मुत्तेलअ हो तो तय शुदा उजरत से ज़्यादा देना लाज़िम नहीं।

2259. मुग़ारसा यह है कि कोई शख़्स ज़मीन दूसरे को सिपूर्द कर दे ताकि वह दरख़्त लगाए और जो कुछ हासिल हो वह दोनों का माल हो तो बिना बरे अज़्हर यह मुआमला सहीह है अगरचे एहतियात यह है कि ऐसे मुआमले को तर्क करे। लेकिन उस मुआमले के नतीजे पर पहुंचने के लिए कोई और मुआमला अंजाम दे तो बग़ैर इश्काल के वह मुआमला सहीह है, मसलन फ़रीक़ैन किसी तरह बाहम सुल्ह और इत्तिफ़ाक़ कर लें या नए दरख़्त लगाने में शरीक हो जायें फिर बाग़बान अपनी ख़िदमात मालिके ज़मीन को बीज बोने, दरख़्तों की निगहदाश्त और आबयारी करने के लिए एक मुअय्यन मुद्दत तक ज़मीन की पैदावार के निस्फ़ फ़ाइदे के एवज़ किराये पर पेश करे।

वह अश्ख़ास जो अपने माल में तसर्रूफ़ नहीं कर सकते

2260. जो बच्चा बालिग़ न हुआ हो वह अपनी ज़िम्मेदारी और अपने माल में शरअन तसर्रूफ़ नहीं कर सकता अगरचे अच्छे और बुरे को समझने में हद्दे कमाल और रूश्त तक पहुंच गया हो और सरपरस्त की इजाज़त इस बारे में कोई फ़ाइदा नहीं रखती। लेकिन चन्द चीज़ों में बच्चे का तसर्रूफ़ करना सहीह है उन में से कम क़ीमत वाली चीज़ों की ख़रीद व फ़रोख़्त करना है जैसे कि मसअला 2090 में गुज़र चुका है। इसी तहर बच्चे का अपने ख़ूनी रिश्तेदारों और क़रीबी रिश्तेदारों के लिए वसीयत करना, जिसका बयान मस्अला 2706 में आयेगा। लड़की में बालिग़ होने की अलामत यह हैं कि वह नौ क़मरी साल पूरे कर ले और लड़के के बालिग़ होने की अलामत तीन चीज़ों में से एक होती है।

1. नाफ़ के नीचे और शर्मगाह से ऊपर सख़्त बालों का उगना।

2. मनी का खारिज होना।

3. बिनाबर मश्हूर उम्र के पन्द्रह क़मरी साल पूरे करना।

2261. चेहरे पर और होंठों के ऊपर सख़्त बालों का उगना बईद नहीं कि बुलूग़त की अलामत हों, लेकिन सीने पर और बग़ल के नीचे बालों का उगना और आवाज़ का भारी हो जाना और ऐसी ही दूसरी अलामत बुलूग़त की निशानियां नहीं है मगर उनकी वजह से इंसान बालिग़ होने का यक़ीन करे।

2262. दीवाना अपने माल में तसर्रूफ़ नहीं कर सकता। इसी तरह दीवालिया यअनी वह शख़्स जिसे उसके क़र्ज़ख़्वाहों के मुतालबे पर हाकिमे शर्अ ने अपने माल में तसर्रूफ़ करने से मनअ कर दिया हो क़र्ज़ख़्वाहों की इजाज़त के बग़ैर उस माल में तसर्रूफ़ नहीं कर सकता और इसी तरह सफ़ीह यअनी वह शख़्स जो अपना माल अहमक़ाना और फ़ुज़ूल कामों में खर्च करता हो, सरपरस्त की इजाज़त के बग़ैर अपने माल में तसर्रूफ़ नहीं कर सकता।

2263. जो शख़्स कभी आक़िल और कभी दीवाना हो जाए उसका दीवांगी की हालत में अपने माल में तसर्रूफ़ करना सहीह नहीं है।

2264. इंसान को इख़्तियार है कि मरज़ुल मौत के आलम में अपने आप पर या अपने अहलोअयान और मेहमानों पर और उन कामों पर जो फ़ुज़ूल खर्ची में शुमार न हों जितना चाहे सर्फ़ करे। और अगर अपने माल को उसकी (अस्ल) क़ीमत पर फ़रोख़्त करे या किराए पर दे तो कोई इश्काल नहीं है। लेकिन अगर मसलन अपना माल किसी को बख़्श दे या राइज क़ीमत से सस्ता फ़रोख़्त करे तो जितनी मिक़्दार उसने बख़्श दी है या जितनी सस्ती फ़रोख़्त की है अगर वह उसके माल की तिहाई के बराबर या उससे कम हो तो उसका तसर्रूफ़ करना सहीह है। और अगर एक तिहाई से ज़्यादा हो तो वरसा की इजाज़त देने की सूरत में उसका तसर्रूफ़ करना सहीह है। और अगर वरसा इजाज़त न दें तो तिहाई से ज़्यादा में उसका तसर्रूफ़ बातिल है।

वकालत के अहकाम

वकालत से मुराद यह है कि वह काम जिसे इंसान खुद करने का हक़ रखता हो, जैसे कोई मुआमला करना, उसे दूसरे के सिपुर्द कर दे ताकि वह उसकी तरफ़ से वह काम अंजाम दे मसलन किसी को अपना वकील बनाए ताकि वह उसका मकान बेच दे या किसी औरत से उसका अक़्द कर दे। लिहाज़ा सफ़ीह चूंकि अपने माल में तसर्रूफ़ करने का हक़ नहीं रखता इस लिए वह मकान बेचने के लिए किसी को वकील नहीं बना सकता।

2265. वकालत में सीग़ा पढ़ना लाज़िम नहीं बल्कि अगर इंसान दूसरे शख़्स को समझा दे कि उसने उसे वकील मुक़र्रर किया है और वह भी समझा दे कि उसने वकील बनना क़बूल कर लिया है मसलन एक शख़्स अपना माल दूसरे को दे ताकि वह उसे उसकी तरफ़ से बेच दे और दूसरा शख़्स वह माल ले ले तो वकालत सहीह है।

2266. अगर इंसान एक ऐसे शख़्स को वकील मुक़र्रर करे जिसकी रहाइश दूसरे शहर में हो और उसको वकालतनामा भेज दे और वह वकालतनामा क़बूल कर ले तो अगरचे वकालत नामा उसे कुछ अर्से बाद ही मिले फिर भी वकालत सहीह है।

2267. मुवक्किल यअनी वह शख़्स जो दूसरे को वकील बनाए और वह शख़्स जो वकील बने ज़रूरी है कि दोनों आक़िल हों और (वकील बनाने और वकील बनने का) इक़्दाम क़स्द और इख़्तियार से करें और मुवक्किल के मुआमले में बुलूग़ भी मोतबर है। मगर उन कामों में जिनको मुमैयज़ बच्चे का अंजाम देना सहीह है (उनमें बुलूग़ शर्त नहीं है)।

2268. जो काम इंसान अंजाम न दे सकता हो या शरअन अंजाम देना ज़रूरी न हो उसे अंजाम देने के लिए वह दूसरे का वकील नहीं बन सकता। मसलन जो शख़्स हज का अहराम बांध चुका हो चूंकि उसे निकाह का सीग़ा नहीं पढ़ना चाहिए इस लिए वह सीग़ा ए निकाह पढ़ने के लिए दूसरे का वकील नहीं बन सकता।

2269. अगर कोई शख़्स अपने तमाम काम का तअय्युन न करे तो वकालत सहीह नहीं है। हां अगर वकील को चन्द कामों में से एक काम जिसका वह खुद इंतिखाब करे अंजाम देने के लिए वकील बनाए मसलन उसको वकील बनाए कि या उसका घर फ़रोख़्त करे या किराये पर दे तो वकालत सहीह है।

2270. अगर (मुवक्किल) वकील को मअज़ूल कर दे यअनी जो काम उसके ज़िम्मे लगाया हो उससे बरतरफ़ कर दे तो वकील अपनी मअज़ूली की ख़बर मिल जाने के बाद उस काम को (मुवक्किल की जानिब से) अंजाम नहीं दे सकता लेकिन मअज़ूली की ख़बर मिलने से पहले उसने वह काम कर दिया हो तो सहीह है।

2271. मुवक्किल ख़्वाह मौजूद न हो वकील खुद को वकालत से कनारा कश कर सकता है।

2272. जो काम वकील के सिपुर्द किया गया हो, उस काम के लिए वह किसी दूसरे शख़्स को वकील मुक़र्रर नहीं कर सकता लेकिन अगर मुवक्किल ने उसे इजाज़त न दी हो कि किसी को वकील मुक़र्रर करे तो जिस तरह उसने हुक्म दिया है उसी तरह वह अमल कर सकता है लिहाज़ा अगर उसने कहा हो कि मेरे लिए एक वकील मुक़र्रर करो तो ज़रूरी है कि उसकी तरफ़ से वकील मुक़र्रर करे लेकिन अज़ खुद किसी को वकील मुक़र्रर नहीं कर सकता।

2273. अगर वकील मुवक्किल की इजाज़त से किसी को उसकी तरफ़ से वकील मुक़र्रर करे तो पहला वकील दूसरे वकील को मअज़ूल नहीं कर सकता और अगर पहला वकील मर जाए या मुवक्किल उसे मअज़ूल कर दे तब भी दूसरे वकील की वकालत बातिल नहीं होती।

2274. अगर वकील मुवक्किल की इजाज़त से किसी को खुद अपनी तरफ़ से वकील मुक़र्रर करे तो मुवक्किल और पहला वकील उस वकील को मअज़ूल कर सकते हैं और अगर पहला वकील मर जाए या मअज़ूल हो जाए तो दूसरी वकालत बातिल हो जाती है।

2275. अगर (मुवक्किल) किसी काम के लिए चन्द अश्ख़ास को वकील मुक़र्रर करे और उन से कहे कि उनमें से हर एक ज़ाती तौर पर उस काम को करे तो उन में से हर एक उस काम को अंजाम दे सकता है और अगर उनमें से एक मर जाए तो दूसरों की वकालत बातिल नहीं होती, लेकिन अगर यह कहा हो कि सब मिल कर अंजाम दें तो उनमें से कोई तन्हा उस काम को अंजाम नहीं दे सकता और अगर उनमें से एक मर जाए तो बाक़ी अश्ख़ास की वकालत बातिल हो जाती है।

2276. अगर वकील या मुवक्किल मर जाए तो वकालत बातिल हो जाती है। नीज़ जिस चीज़ में तसर्रूफ़ के लिए किसी शख़्स को वकील मुक़र्रर किया जाए अगर वह चीज़ तलफ़ हो जाए मसलन जिस भेड़ को बेचने के लिए किसी को वकील मुक़र्रर किया गया हो अगर वह भेड़ मर जाए तो वकालत बातिल हो जायेगी। लेकिन अगर कभी कभी दीवांगी और बेहवासी का दौरा पड़ता हो तो वकालत का बातिल होना दीवांगी और बेहवासी की मुद्दत में हत्ताकि दीवांगी और बेहवासी खत्म होने के बाद भी मुत्लक़न महल्ले इश्काल है।

2277. अगर इंसान किसी को अपने काम के लिए वकील मुक़र्रर करे और उसे कोई चीज़ देना तय करे तो काम की तक्मील के बाद ज़रूरी है कि जिस चीज़ का देना तय किया हो वह उसे दे दे।

2278. जो माल वकील के इख़्तियार में हो अगर वह उसकी निगहदाश्त में कोताही बरते या जिस तसर्रूफ़ की उसे इजाज़त दी गई हो उसके अलावा कोई तसर्रूफ़ उसमें न करे और इत्तिफ़ाक़न वह माल तलफ़ हो जाए तो उसके लिए उसका एवज़ देना ज़रूरी नहीं।

2279. जो माल वकील के इख़्तियार में हो अगर वह उसकी निगहदाश्त में कोताही बरते या जिस तसर्रूफ़ की उसे इजाज़त दी गई हो उससे तजावुज़ करे और वह माल तलफ़ हो जाए तो वह (वकील) ज़िम्मेदार है। लिहाज़ा जिस लिबास के लिए उसे कहा जाए कि उसे बेच दो अगर वह उसे पहन ले और वह लिबास तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे।

2280. अगर वकील को माल में जिस तसर्रूफ़ की इजाज़त दी गई हो उसके अलावा कोई तसर्रूफ़ करे मसलन उसे जिस लिबास के बेचने के लिए कहा जाए वह उसे पहन ले और बाद में वह तसर्रूफ़ करे जिसकी उसे इजाज़त दी गई हो तो तसर्रूफ़ सहीह है।

क़र्ज़ के अहकाम

मोमिनीन को ख़ुसूसन ज़रूरत मन्द मोमिनीन को क़र्ज़ देना उन मुस्तहब कामों में से है जिनके मुतअल्लिक़ अहादीस में काफ़ी ताकीद की गई है। रसूले अकरम स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम से रिवायत है, जो शख़्स अपने मुसलमान भाई को क़र्ज़ दे उसके माल में बरकत होती है और मलाइका उस पर (खुदा की) रहमत बरसाते हैं और अगर वह मक़रूज़ से नर्मी बरते तो बग़ैर हिसाब के और तेज़ी से पुले सिरात पर से गुज़र जायेगा और किसी शख़्स से उसका मुसलमान भाई क़र्ज़ मांगे और वह न दे तो बिहिश्त उस पर हराम हो जाती है।

2281. क़र्ज़ में सीग़ा पढ़ना लाज़िम नहीं बल्कि अगर एक शख़्स दूसरे को कोई चीज़ क़र्ज़ की नीयत से दे और दूसरा भी उसी नीयत से ले तो क़र्ज़ सहीह है।

2282. जब भी मक़रूज़ अपना क़र्ज़ा अदा करे तो क़र्ज़ ख़्वाह को चाहिए कि उसे क़बूल कर ले। लेकिन अगर क़र्ज़ अदा करने के लिए क़र्ज़ ख़्वाह के कहने से या दोनों के कहने से एक मुद्दत मुक़र्रर की हो तो उस सूरत में क़र्ज़ख़्वाह उस मुद्दत के ख़त्म होने से पहले अपना क़र्ज़ वापस लेने से इंकार कर सकता है।

2283. अगर क़र्ज़ के सीग़े में क़र्ज़ की वापसी की मुद्दत मुअय्यन कर दी जाए और मुद्दत का तअय्युन मक़रूज़ की दर्ख़्वास्त पर हो या जानिबैन की दर्ख़्वास्त पर क़र्ज़ख़्वाह उस मुअय्यन मुद्दत के ख़त्म होने से पहले क़र्ज़ की अदायगी का मुतालबा नहीं कर सकता। लेकिन अगर मुद्दत का तअय्युन क़र्ज़ख़्वाह की दर्ख़्वास्त पर हुआ हो या क़र्ज़े की वापसी के लिए कोई मुद्दत मुअय्यन न की गई हो तो क़र्ज़ख़्वाह जब भी चाहे अपने क़र्ज़ क अदायगी का मुतालबा कर सकता है।

2284. अगर क़र्ज़ख़्वाह अपने क़र्ज़ की अदायगी का मुतालबा करे और मक़रूज़ क़र्ज़ अदा कर सकता हो तो उसे चाहिए कि फ़ौरन अदा करे और अगर अदायगी में ताख़ीर करे तो गुनाहगार है।

2285. अगर मक़रूज़ के पास एक घर कि जिसमें वह रहता हो और घर के अस्बाब और उन लवाज़िमात कि जिनकी उसे ज़रूरत हो और उनके बग़ैर उसे परीशानी हो और कोई चीज़ न हो तो क़र्ज़ख़्वाह उससे क़र्ज़ की अदायगी का मुतालबा नहीं कर सकता। बल्कि उसे चाहिए कि सब्र करे हत्ताकि मक़रूज़ क़र्ज़ अदा करने के क़ाबिल हो जाए।

2286. जो शख़्स मक़रूज़ हो और अपना क़र्ज़ा अदा न कर सकता हो तो अगर वह कोई ऐसा काम काज कर सकता हो जो उसकी शायाने शान हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि काम काज करे और अपना क़र्ज़ अदा करे। बिलख़ुसूस ऐसे शख़्स के लिए जिसके लिए काम करना आसान हो या उसका पेशा ही काम काज करना हो बल्कि उस सूरत में काम का वाजिब होना क़ुव्वत से खाली नहीं।

2287. जिस शख़्स को अपना क़र्ज़ख़्वाह न मिल सके और मुस्तक़बिल मे उसके या उसके वारिस के मिलने की उम्मीद भी न हो तो ज़रूरी है कि वह क़र्ज़े का माल क़र्ज़ख़्वाह की तरफ़ से फ़क़ीर को दे दे और एहतियात की बिना पर ऐसा करने की इजाज़त हाकिमे शर्अ से ले ले और अगर उसका क़र्ज़ख़्वाह सैयिद न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि क़र्ज़े का माल सैयिद फ़क़ीर को न दे। लेकिन अगर मक़रूज़ को क़र्ज़ख़्वाह या उसके वारिस के मिलने की उम्मीद हो तो ज़रूरी है कि इंकार करे और उसको तलाश करे और अगर वह न मिले तो वसीयत करे कि अगर वह मर जाए और क़र्ज़ख़्वाह या उसका वारिस मिल जाए तो उसका क़र्ज़ उसके माल से अदा किया जाए।

2288. अगर किसी मैयित का माल उसके कफ़न या दफ़्न के वाजिब अखराजात और क़र्ज़ से ज़्यादा न हो तो उसका माल उन्हीं उमूर पर ख़र्च करना ज़रूरी है और उसके वारिस को कुछ नहीं मिलेगा।

2289. अगर कोई शख़्स सोने या चांदी के सिक्के वग़ैरा क़र्ज़ ले और बाद में उन की क़ीमत कम हो जाए तो अगर वह वही मिक़्दार जो उसने ली थी वापस करे तो काफ़ी है और अगर उनकी क़ीमत बढ़ जाए तो लाज़िम है कि उतनी ही मिक़्दार वापस कर जो ली थी लेकिन दोनों सूरतों में अगर मक़रूज़ और क़र्ज़ख़्वाह किसी और बात पर रज़ामन्द हो जायें तो इसमें कोई इश्काल नहीं।

2290. किसी शख़्स ने जो माल क़र्ज़ लिया हो अगर वह तलफ़ न हुआ हो और माल का मालिक उसका मुतालबा करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि मक़रूज़ वही माल मालिक को दे दे।

2291. अगर क़र्ज़ देने वाला शर्त आइद करे कि वह जितनी मिक़्दार में माल दे रहा है उससे ज़्यादा वापस लेगा मसलन एक मन गेहूं दे और शर्त आइद करे कि एक मन पांच किलों वापस लूंगा या दस अण्डे दे और कहे कि ग्यारा अण्डे वापस लूंगा तो यह सूद और हराम है बल्कि अगर तय करे कि मक़रूज़ उसके लिए कोई काम करेगा या जो चीज़ ली हो वह किसी दूसरी जिन्स की मिक़्दार के साथ वापस करेगा मसलन तय करे कि (मक़रूज़ ने) जो एक रूपया लिया है वापस करते वक़्त उसके साथ माचिस की एक डिबिया भी दे तो यह सूद होगा और हराम है। नीज़ अगर मक़रूज़ के साथ शर्त करे कि जो चीज़ वह क़र्ज़ ले रहा है उसे एक मख़सूस तरीक़े से वापस करेगा मसलन अनगढ़े सोने की कुछ मिक़्दार उसे दे और शर्त करे कि गढ़ा हुआ वापस करेगा तब भी यह सूद और हराम होगा अलबत्ता अगर क़र्ज़ख़्वाह कोई शर्त न लगाए बल्कि मक़रूज़ खुद क़र्ज़े की मिक़्दार से कुछ ज़्यादा वापस दे तो कोई इश्काल नहीं बल्कि (ऐसा करना) मुस्तहब है।

2292. सूद देना सूद लेने की तरह हराम है लेकिन जो शख़्स सूद पर क़र्ज़ ले ज़ाहिर यह है कि वह उसका मालिक हो जाता है अगरचे औला यह है कि उसमें तसर्रूफ़ न करे और अगर सूरत यह हो कि तरफ़ैन ने सूद का मुआहदा न भी किया होता और रक़म का मालिक इस बात पर राज़ी होता कि क़र्ज़ लेने वाला उस रक़म में तसर्रूफ़ कर ले तो मक़रूज़ बग़ैर किसी इश्काल के उस रक़म में तसर्रूफ़ कर सकता है।

2293. अगर कोई शख़्स गेहूं या उसी जैसी कोई चीज़ सूदी क़र्ज़े के तौर पर ले और उसके ज़रीए काश्त करे तो ज़ाहिर यह है कि वह पैदावार का मालिक हो जाता है अगरचे औला यह है कि उससे जो पैदावार हासिल हो उसमें तसर्रूफ़ न करे।

2294. अगर एक शख़्स कोई लिबास खरीदे और बाद में उसकी क़ीमत कपड़े के मालिक को सूदी रक़म से या ऐसी हलाल रक़म से जो सूदी क़र्ज़े पर ली गई रक़म के साथ मख्लूत हो गई हो अदा करे तो उस लिबास के पहनने या उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई इश्काल नहीं लेकिन अगर बेचने वाले से कहे कि मैं यह लिबास उस रक़म से खरीद रहा हूं तो उस लिबास को पहनना हराम है और उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने का हुक्म नमाज़ गुज़ार के लिबास के अहकाम में गुज़र चुका है।

2295. अगर कोई शख़्स किसी ताजिर को कुछ रक़म दे और दूसरे शहरों में उस ताजिर से कम रक़म ले तो इसमें कोई इश्काल नहीं और उसे सर्फ़ेबराअत कहते हैं।

2296. अगर कोई शख़्स किसी को कुछ रक़म इस शर्त पर दे कि चन्द दिन बाद दूसरे शहर में उससे ज़्यादा लेगा मसलन 999 रुपये दे और दस दिन बाद दूसरे शहर में उसके बदले एक हज़रा रुपये ले तो अगर यह रक़म (यअनी 990 और हज़ार रुपये) मिसाल के तौर पर सोने या चांदी की बनी हों तो यह सूद और हराम है लेकिन जो शख़्स ज़्यादा ले रहा हो अगर वह इज़ाफ़े के मुक़ाबिले में कोई जिन्स दे या कोई काम कर दे तो फिर इश्काल नहीं ताहम वह आम राइज नोट जिन्हें गिनकर शुमार किया जाता हो अगर उन्हें ज़्यादा लिया जाए तो कोई इश्काल नहीं मासिवा उस सूरत के कि क़र्ज़ दिया हो और ज़्यादा की अदायगी की शर्त लगाई हो तो उस सूरत में हराम है या उधार पर बेचे और जिन्स और उसका एवज़ एक ही जिन्स से हों तो उस सूरत में मुआमले का सहीह होना इश्काल से खाली नहीं है।

2297. अगर किसी शख़्स को किसी से कुछ क़र्ज़ लेना हो और वह चीज़ सोना या चांदी या नापी या तोली जाने वाली जिन्स न हो तो वह शख़्स उस चीज़ को मक़रूज़ या किसी और के पास कम क़ीमत पर बेच कर उसकी क़ीमत नक़्द वसूल कर सकता है। इसी बिना पर मौजूदा दौर में जो चेक और हुंडियां क़र्ज़ख़्वाह मक़रूज़ से लेता है उन्हें वह बैंक के पास या किसी दूसरे शख़्स के पास उससे कम क़ीमत पर जिसे आम तौर पर भाव गिरना कहते हैं बेच सकता है और बाक़ी रक़म नक़्द ले सकता है क्योंकि राइजुलवक़्त नोटों का लेन देन नाप तोल से नहीं होता।

हवाला देने के अहकाम

2298. अगर कोई शख़्स अपने क़र्ज़ख़्वाह को हवाला दे कि वह अपना क़र्ज़ एक और शख़्स से ले ले और क़र्ज़ख़्वाह इस बात को क़बूल कर ले तो जब हवाला उन शराइत के साथ जिनका ज़िक्र बाद में आयेगा मुकम्मल हो जाए तो जिस शख़्स के नाम हवाला दिया गया है वह मक़रूज़ हो जायेगा और उसके बाद क़र्ज़ख़्वाह पहले मक़रूज़ से अपने क़र्ज़ का मुतालबा नहीं कर सकता।

2299. मक़रूज़ और क़र्ज़ख्वाह और जिस शख़्स का हवाला दिया जा सकता हो ज़रूरी है कि सब बालिग़ और आक़िल हों और किसी ने उन्हें मजबूर न किया हो नीज़ ज़रूरी है कि सफ़ीह न हों यअनी अपना माल अहमक़ाना और फ़ुज़ूल कामों में खर्च न करते हों और यह भी मोतबर है कि मक़रूज़ और क़र्ज़ख़्वाह दीवालिया न हों। हां अगर हवाला ऐसे शख़्स के नाम हो जो पहले से हवाला देने वाले का मक़रूज़ न हो तो अगरचे हवाला देने वाला दीवालिया भी हो कोई इश्काल नहीं है।

2300. ऐसे शख़्स के नाम हवाला देना जो मक़रूज़ न हो उस सूरत में सहीह नहीं है जब वह हवाला क़बूल न केर। नीज़ अगर कोई शख़्स चाहे कि जो शख़्स एक जिन्स के लिए उसका मक़रूज़ है उसके नाम दूसरी जिन्स का हवाला लिखे। मसलन जो शख़्स जौ का मक़रूज़ हो उसके नाम गेहूं हवाला लिखे तो जब तक वह शख़्स क़बूल न करे हवाला सहीह नहीं है। बल्कि हवाला देने की तमाम सूरतों में ज़रूरी है कि जिस शख़्स के नाम हवाला किया जा रहा है वह हवाला क़बूल करे और अगर क़बूल न करे तो बिनाबरे अज़्हर (हवाला) सहीह नहीं है।

2301. इंसान जब हवाला दे तो ज़रूरी है कि वह उस वक़्त मक़रूज़ हो लिहाज़ा अगर वह किसी से क़र्ज़ लेना चाहता हो तो जब तक उससे क़र्ज़ न ले ले उसे किसी नाम का हवाला नहीं दे सकता ताकि जो क़र्ज़ उसे बाद में देना हो वह पहले ही उस शख़्स से वसूल कर ले।

2302. हवाला की जिन्स और मिक़्दार फ़िल वाक़े मुअय्यन होना ज़रूरी है पस अगर हवाला देने वाला किसी शख़्स का दस मन गेहूं और दस रुपये का मक़रूज़ हो और क़र्ज़ख़्वाह को हवाला दे कि उन दोनों क़र्ज़ों में से कोई एक फ़लां शख़्स से ले और उस क़र्ज़ को मुअय्यन न करे तो हवाला दुरुस्त नहीं है।

2303. अगर क़र्ज़ वाक़ई मुअय्यन हो लेकिन हवाला देने के वक़्त मक़रूज़ और क़र्ज़ख़्वाह को उसकी मिक़्दार या जिन्स का इल्म न हो तो हवाला सहीह है मसलन अगर किसी शख़्स ने दूसरे का क़र्ज़ा रजिस्टर में लिखा हो और रजिस्टर देखने से पहले हवाला दे दे और बाद में रजिस्टर देखे और क़र्ज़ख़्वाह को क़र्ज़े की मिक़्दार बता दे तो हवाला सहीह होगा।

2304. क़र्ज़ख्वाह को इख़्तियार है कि हवाला क़बूल न करे अगरचे जिसके नाम का हवाला दिया जाए वह दौलतमन्द हो और हवाले के अदा करने में कोताही भी न करे।

2305. जो शख़्स हवाला देने वाले का मक़रूज़ न हो अगर हवाला क़बूल करे तो अज़्हर यह है कि हवाला अदा करने से पहले हवाला देने वाले से हवाले की मिक़्दार का मुतालबा कर सकता है। मगर यह कि जो क़र्ज़ जिसके नाम हवाला दिया गया है उसकी मुद्दत मुअय्यन हो और अभी वह मुद्दत ख़त्म न हुई हो तो उस सूरत में वह मुद्दत ख़त्म होने से पहले हवाले देने से हवाले की मिक़्दार का मुतालबा नहीं कर सकता अगरचे उसने अदायगी कर दी हो और उसी तरह अगर क़र्ज़ख़्वाह अपने क़र्ज़ से थोड़ी मिक़्दार पर सुल्ह करे तो वह हवाला देने वाले से फ़क़त उतनी (थोड़ी) मिक़्दार का ही मुतालबा कर सकता है।

2306. हवाला की शराइत पूरी होने के बाद हवाला देने वाला और जिसके नाम हवाला दिया जाए हवाला मंसूख नहीं कर सकते और वह शख़्स जिसके नाम का हवाला दिया गया है हवाला के वक़्त फ़क़ीर न हो तो अगरचे वह बाद में फ़क़ीर हो जाए तो ख़र्ज़ख़्वाह भी हवाले को मंसूख नहीं कर सकता। यही हुक्म उस वक़्त है जब (वह शख़्स जिसके नाम का हवाला दिया गया हो) हवाला देने के वक़्त वह शख़्स मालदार न हुआ हो क़र्ज़ख़्वाह हवाला मंसूख कर के अपना क़र्ज़ हवाला देने वाले से ले सकता है। लेकिन अगर वह मालदार हो गया हो तो मअलूम नहीं कि मुआमले को फ़िस्ख़ कर सकता है (या नहीं)।

2307. अगर मक़रूज़ और क़र्ज़ख़्वाह और जिसके नाम का हवाला दिया गया हो या उनमें से किसी एक ने अपने हक़ में हवाला मंसूख करने का मुआहदा किया हो तो जो मुआहदा उन्होंने किया हो उसके मुताबिक़ वह हवाला मंसूख कर सकते हैं।

2308. अगर हवाला देने वाला खुद क़र्ज़ख़्वाह का क़र्ज़ा अदा कर दे यह काम उस शख़्स की ख़्वाहिश पर हुआ हो जिसके नाम का हवाला दिया गया हो जबकि वह हवाला देने वाले का मक़रूज़ भी हो तो वह जो कुछ दिया हो उससे ले सकता है और अगर उसकी ख़्वाहिश के बग़ैर अदा किया हो या वह हवाला दिहिन्दा का मक़रूज़ न हो तो फिर उसने जो कुछ दिया है उसका मुतालबा उस से नहीं कर सकता।

रहन के अहकाम

2309. रेहन यह है कि इंसान क़र्ज़ के बदले अपना माल या जिस माल के लिए ज़ामिन बना हो वह माल किसी के पास गिरवी रखवाए कि अगर रेहन रखवाने वाला क़र्ज़ा न लौटा सके या रेहन न छुड़ा सके तो रेहन लेने वाला शख़्स उसका एवज़ उसके माल से ले सके।

2310. रेहन में सीग़ा पढ़ना लाज़िम नहीं है बल्कि इतना काफ़ी है कि गिरवी देने वाल अपना माल गिरवी रखने की नीयत से गिरवी लेने वाले को दे दे और वह उसी नीयत से ले ले तो रेहन सहीह है।

2311. ज़रूरी है कि गिरवी रखवाने वाला और गिरवी रखने वाला बालिग़ और आक़िल हों और किसी ने उन्हें इस मुआमले के लिए मजबूर न किया हो और यह भी ज़रूरी है कि माल गिरवी रखवाने वाला दीवालिया और सफ़ीह न हो – दीवालिया और सफ़ीह के मअनी मस्अला 2262 में बताए जा चुके हैं – और अगर दीवालिया हो लेकिन जो माल वह गिरवी रखवा रहा है उसका अपना माल न हो या उन अमवाल में से न हो जिसके तसर्रूफ़ करने से मनअ किया गया हो तो कोई इश्काल नहीं है।

2312. इंसान वह माल गिरवी रख सकता है जिसमें वह शरअन तसर्रूफ़ कर सकता हो और अगर किसी दूसरे का माल उसकी इजाज़त से गिरवी रख दे तो भी सहीह है।

2313. जिस चीज़ को गिरवी रखा जा रहा हो ज़रूरी है कि उसकी खरीद व फ़रोख़्त सहीह हो। लिहाज़ा अगर शराब या उस जैसी चीज़ गिरवी रखी जाए तो दुरुस्त नहीं है।

2314. जिस चीज़ को गिरवी रखा जा रहा है उससे जो फ़ाइदा होगा वह उस चीज़ के मालिक की मिल्कियत होगा ख़्वाह वह गिरवी रखवाने वाला हो या कोई दूसरा शख़्स हो।

2315. गिरवी रखवाने वाले ने जो माल बतौर गिरवी लिया हो उस माल को उसके मालिक की इजाज़त के बग़ैर ख़्वाह गिरवी रखवाने वाला हो या कोई दूसरा शख़्स किसी दूसरे की मिल्कियत में नहीं दे सकता। मसलन वह किसी दूसरे को वह माल न बख़्श सकता है न बेच सकता है। लेकिन अगर वह उस माल को किसी को बख़्श दे या फ़रोख़्त कर दे और मालिक बाद में इजाज़त दे तो कोई इश्काल नहीं है।

2316. अगर गिरवी रखने वाला उस माल को जो उसने बतौर गिरवी लिया हो उसके मालिक की इजाज़त से बेच दे तो माल की तरह उसकी क़ीमत गिरवी नहीं होगी। और यही हुक्म है अगर मालिक की इजाज़त के बग़ैर बेच दे और मालिक बाद में इजाज़त दे (यअनी उस माल की क़ीमत वसूल की जाए वह उस माल की तरह गिरवी नहीं होगी) लेकिन अगर गिरवी रखवाने वाला उस चीज़ को गिरवी रखने वाले की इजाज़त से बेच दे ताकि उसकी क़ीमत को गिरवी क़रार दे तो ज़रूरी है कि मालिक की इजाज़त से बेच दे और उसकी मुख़ालिफ़त करने की सूरत में मुआमला बातिल है। मगर यह कि गिरवी रखने वाले ने उसकी इजाज़त ही हो (तो फिर मुआमला सहीह है)।

2317. जिस वक़्त मक़रूज़ को क़र्ज़ अदा कर देना चाहिए मगर क़र्ज़ख़्वाह उस वक़्त मुतालबा करे और मक़रूज़ अदायगी न करे तो उस सूरत में जबकि क़र्ज़ख़्वाह माल को फ़रोख़्त कर के अपना क़र्ज़ा उसके माल से वसूल करने का इख़्तियार रखता हो वह गिरवी किये हुए माल को फ़रोख्त कर के अपना क़र्ज़ा वसूल कर सकता है। और अगर इख़्तियार न रखता हो तो ज़रूरी है कि हाकिमे शर्अ से उस माल को बेच कर उसकी क़ीमत से अपना क़र्ज़ा वसूल करने की इजाज़त ले और दोनों सूरतों में अगर क़र्ज़े से ज़्यादा क़ीमत वसूल हो तो ज़रूरी है कि ज़्यादा माल मक़रूज़ को दे दे।

2318. अगर मक़रूज़ के पास उस मकान के अलावा जिसमें वह रहता हो और उस सामान के अलावा जिसकी उसे ज़रूरत हो और कोई चीज़ न हो तो क़र्ज़ख़्वाह उससे अपने क़र्ज़े का मुतालबा नहीं कर सकता लेकिन मक़रूज़ ने जो माल बतौर गिरवी दिया हो अगरचे वह मकान और सामान ही क्यों न हो क़र्ज़ख़्वाह उसे बेच कर अपना क़र्ज़ वसूल कर सकता है।

ज़ामिन होने के अहकाम

2319. अगर कोई शख़्स किसी दूसरे का क़र्ज़ा अदा करने के लिए ज़ामिन बनना चाहे तो उसका ज़ामिन बनना उस वक़्त सहीह होगा जब वह किसी लफ़्ज़ से अगरचे वह अरबी ज़बान में न हो या किसी अमल से क़र्ज़ख़्वाह को समझा दे कि मैं तुम्हारे क़र्ज़ की अदायगी के लिए ज़ामिन बान गया हूं और क़र्ज़ख़्वाह भी अपनी रज़ामन्दी का इज़हार कर दे और (इस सिलसिले में) मक़रूज़ का रज़ामन्द होना शर्त नहीं।

2320. ज़ामिन और क़र्ज़ख़्वाह दोनों के लिए जरूरी है कि बालिग़ और आक़िल हों और किसी ने उन्हें इस मुआमले पर मजबूर न किया हो नीज़ ज़रूरी है कि वह सफ़ीह भी न हों और इसी तरह ज़रूरी है कि ख़र्ज़ख़्वाह दीवालिया न हो लेकिन यह शराइत मक़रूज़ के लिए नहीं है मसलन अगर कोई शख़्स बच्चे या दीवाने या सफ़ीह का क़र्ज़ अदा करने के लिए ज़ामिन बने तो ज़मानत सहीह है।

2321. जब कोई शख़्स ज़ामिन बनने के लिए कोई शर्त रखे मसलन यह कहे कि अगर मक़रूज़ तुम्हारा क़र्ज़ अदा न करे तो मैं तुम्हारा क़र्ज़ अदा कर दूगां, तो उसके ज़ामिन होने में इश्काल है।

2322. इंसान जिस शख़्स के क़र्ज़ की ज़मानत दे रहा है ज़रूरी है कि वह मक़रूज़ हो लिहाज़ा अगर कोई शख़्स किसी दूसरे शख़्स से क़र्ज़ लेना चाहता हो तो जब तक वह क़र्ज़ न ले ले उस वक़्त तक कोई शख़्स उसका ज़ामिन नहीं बन सकता।

2323. इंसान उसी सूरत में ज़ामिन बन सकता है जब क़र्ज़, क़र्ज़ख़्वाह और मक़रूज़ (यह तीनों) फ़िल वाक़े मुअय्यन हों लिहाज़ा अगर दो अश्ख़ास किसी एक शख्स के क़र्ज़ख्वाह हों और इंसान कहे कि मैं तुम में से एक का क़र्ज़ अदा कर दूंगा तो चूंकि उसने इस बात को मुअय्यन नहीं किया कि वह उनमें से किस का क़र्ज़ अदा करेगा इस लिए उसका ज़ामिन बातिल है। नीज़ अगर किसी को दो अश्ख़ास से क़र्ज़ वसूल करना हो और कोई शख़्स कहे कि मैं ज़ामिन हूं कि उन दो में से एक का क़र्ज़ तुम्हें अदा कर दूंगा तो चूंकि उसने इस बात को मुअय्यन नहीं किया कि दोनों में से किसका क़र्ज़ अदा करेगा इस लिए उसका ज़ामिन बनना बातिल है। और इसी तरह अगर किसी ने एक दूसरे शख़्स से मिसाल के तौर पर दस मन गेहूं और दस रुपये लेने हों और कोई शख़्स कहे कि मैं तुम्हारे दोनों क़र्ज़ों में से एक की अदायगी का ज़ामिन हूं और उस चीज़ को मुअय्यन न करे कि वह गेहूं के लिए ज़ामिन है या रुपयों के लिए तो यह ज़मानत सहीह नहीं है।

2324. अगर क़र्ज़ख़्वाह अपना क़र्ज़ ज़ामिन को बख़्श दे तो ज़ामिन मक़रूज़ से कोई चीज़ नहीं ले सकता और अगर वह क़र्ज़े की कुछ मिक्दार उसे बख़्श दे तो वह (मक़रूज़ से) उस मिक़्दार का मुतालबा नहीं कर सकता।

2325. अगर कोई शख़्स किसी का क़र्ज़ा अदा करने के लिए ज़ामिन बन जाए तो फिर वह ज़ामिन होने से मुकर नहीं सकता।

2326. एहतियात की बिना पर ज़ामिन और क़र्ज़ख़्वाह यह शर्त नहीं कर सकते कि जिस वक़्त चाहें ज़ामिन की ज़मानत मंसूख कर दें।

2327. अगर इंसान ज़ामिन बनने के वक़्त क़र्ज़ख़्वाह का क़र्ज़ा अदा करने के क़ाबिल हों तो ख़्वाह वह (ज़ामिन) बाद में दीवालिया हो जाए क़र्ज़ख्वाह उसकी ज़मानत मंसूख करके पहले मक़रूज़ से क़र्ज़ की अदायगी का मुतालबा नहीं कर सकता। और इसी तरह अगर ज़मानत देते वक़्त ज़ामिन क़र्ज़ अदा करने पर क़ादिर न हो लेकिन क़र्ज़ख़्वाह यह बात मानते हुए उसके ज़ामिन बनने पर राज़ी हो जाए तब भी यही हुक्म है।

2328. अगर इंसान ज़ामिन बनने के वक़्त क़र्ज़ख़्वाह का क़र्ज़ा अदा करने पर क़ादिर न हो और क़र्ज़ख्वाह सूरते हाल से लाइल्म होने की बिना पर उसकी ज़मानत मंसूख करना चाहे तो इस में इश्काल है ख़ुसूसन उस सूरत में जबकि क़र्ज़ख़्वाह के इस अम्र की जानिब मुतवज्जह होने से पहले ज़ामिन क़र्ज़े की अदायगी पर क़ादिर न हो जाए।

2329. अगर कोई शख़्स मक़रूज़ की इजाज़त के बग़ैर उसका क़र्ज़ा अदा करने के लिए ज़ामिन बन जाए तो वह क़र्ज़ा अदा करने पर मक़रूज़ से कुछ नहीं ले सकता।

2330. अगर कोई शख़्स मक़रूज़ की इजाज़त से उसके क़र्ज़े की अदायगी का ज़ामिन बन जाए तो जिस मिक़्दार के लिए ज़ामिन बना हो – अगरचे से अदा करने से पहले – मक़रूज़ से उसका मुतालबा कर सकता है लेकिन जिस जिन्स के लिए वह मक़रूज़ था उसकी बजाय कोई और जिन्स क़र्ज़ख्वाह को दे तो जो चीज़ दी हो उसका मुतालबा मक़रूज़ नहीं कर सकता मसलन अगर मक़रूज़ को दस मन गेहूं देनी हो और ज़ामिन दस मन चावल दे दे तो ज़ामिन मक़रूज़ से दस मन चावल का मुतालबा नहीं कर सकता लेकिन अगर मक़रूज़ खुद चावल देने पर रज़ामन्द हो जाए तो फिर कोई इश्काल नहीं।

कफ़ालत के अहकाम

2331. कफ़ालत से मुराद यह है कि कोई शख़्स ज़िम्मा ले कि जिस वक़्त क़र्ज़ख़्वाह चाहेगा वह मक़रूज़ को उसके सिपुर्द कर देगा। और जो शख़्स इस क़िस्म की ज़िम्मेदारी क़बूल करे उसे कफ़ील कहते हैं।

2332. कफ़ालत उस वक़्त सहीह है जब कफ़ील कोई से भी अल्फ़ाज़ में ख़्वाह वह अरबी के न भी हों, या किसी अमल से क़र्ज़ख़्वाह को यह बात समझा दे कि मैं ज़िम्मा लेता हूं कि जिस वक़्त तुम चाहोगे मैं मक़रूज़ को तुम्हारे हवाले कर दूंगा और क़र्ज़ख़्वाह भी इस बात को क़बूल कर ले और एहतियात की बिना पर कफ़ालत के सहीह होने के लिए मक़रूज़ की रज़ामन्दी भी मोतबर है। बल्कि एहतियात यह है कि कफ़ालत के मुआमले में उसी तरह मक़रूज़ को भी एक फ़रीक़ होना चाहिए यअनी मक़रूज़ और क़र्ज़ख़्वाह दोनों कफ़ालत को क़बूल करें।

2333. कफ़ील के लिए ज़रूरी है कि बालिग़ और आक़िल हो और उसे कफ़ील बनने पर मजबूर न किया गया हो और वह इस बात पर क़ादिर हो कि जिसका कफ़ील बने उसे हाज़िर कर सके और इसी तरह उस सूरत में जब मक़रूज़ को हाज़िर करने के लिए कफ़ील को अपना माल ख़र्च करना पड़े तो ज़रूरी है कि वह सफ़ीह और दीवालिया न हो।

2334. इन पांच चीज़ों में से कोई एक कफ़ालत को कलअदम (ख़त्म) कर देती हैः-

1. कफ़ील मक़रूज़ को क़र्ज़ख़्वाह के हवाले कर दे या वह खुद अपने आपको क़र्ज़ख़्वाह के हवाले कर दे।

2. क़र्ज़ख़्वाह का क़र्ज़ा अदा कर दिया जाए

3. क़र्ज़ख्वाह अपने क़र्ज़े से दस्तबरदार हो जाए या उसे किसी दूसरे के हवाले कर दे।

4. मक़रूज़ या कफ़ील में से एक मर जाए।

5. क़र्ज़ख़्वाह कफ़ील को कफ़ालत से बरी उज़्ज़िम्मा क़रार दे दे।

2335. अगर कोई शख़्स मक़रूज़ को क़र्ज़ख्वाह से ज़बरदस्ती आज़ाद करा दे और क़र्ज़ख़्वाह की पहुंच मक़रूज़ तक न हो सके तो जिस शख़्स ने मक़रूज़ को आज़ाद कराया हो ज़रूरी है कि वह मक़रूज़ को क़र्ज़ख़्वाह के हवाले कर दे या उसका क़र्ज़ अदा करे।