अमानत के अहकाम
2336. अगर एक शख़्स कोई माल किसी को दे और कहे यह तुम्हारे पास अमानत रहेगा और वह भी क़बूल करे या कोई लफ़्ज़ कहे बग़ैर माल का मालिक उस शख़्स को समझा दे कि वह उसे माल रखवाली के लिए दे रहा है और वह भी रखवाली के मक़्सद से ले ले तो ज़रूरी है कि अमानतदारी के उन अहकाम के मुताबिक़ अमल करे जो बाद में बयान होंगे।
2337. ज़रूरी है कि अमानतदार और वह शख़्स जो माल बतौरे अमानत दे दोनों बालिग़ और आक़िल हों और किसी ने उन्हें मजबूर न किया हो लिहाज़ा अगर कोई शख़्स किसी माल को दीवाने या बच्चे के पास अमानत के तौर पर रखे या दीवाना या बच्चा कोई माल किसी के पास अमानत के तौर पर रखे तो सहीह नहीं है। हां समझदार बच्चा किसी दूसरे के माल को उसकी इजाज़त से किसी के पास अमानत रखे तो जाइज़ है। इसी तरह ज़रूरी है कि अमानत रखवाने वाला सफ़ीह और दीवालिया न हो लेकिन अगर दीवालिया हो ताहम जो माल उसने अमानत के तौर पर रखवाया हो वह उस माल में से न हो जिसमें उसे तसर्रूफ़ करने से मनअ किया गया है तो उस सूरत में कोई इश्काल नहीं है नीज़ उस सूरत में जबकि माल की हिफ़ाज़त करने के लिए अमानतदार को अपना माल खर्च करना पड़े तो ज़रूरी है कि वह सफ़ीह और दीवालिया न हो।
2338. अगर कोई शख़्स बच्चे से कोई चीज़ उसके मालिक की इजाज़त के बग़ैर बतौर अमानत क़बूल कर ले तो ज़रूरी है कि वह चीज़ उसके मालिक को दे दे और अगर वह चीज़ ख़्वाह बच्चे का माल हो तो लाज़िम है कि वह चीज़ बच्चे के सरपरस्त तक पहुंचा दे, और अगर वह माल उन लोगों के पास पहुंचाने से पहले तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे मगर इस डर से कि ख़ुदानख़्वास्ता तलफ़ हो जाए उस माल को उसके मालिक तक पहुंचाने की नीयत से लिया हो तो उस सूरत में अगर उसने माल की हिफ़ाज़त करने और उसे मालिक तक पहुंचाने में कोताही न की हो तो वह ज़ामिन नहीं है और अगर अमानत के तौर पर माल देने वाला दीवाना हो तब भी यही हुक्म है।
2339. जो शख़्स अमानत की हिफ़ाज़त न कर सकता हो अगर अमानत रखवाने वाला उसकी इस हालत से बाख़बर न हो तो ज़रूरी है कि वह शख़्स अमानत क़बूल न करे।
2340. अगर इंसान साहबे माल को समझाए कि वह उस माल की हिफ़ाज़त के लिए तौयार नहीं और उस माल को अमानत के तौर पर क़बूल न करे और साहबे माल फिर भी माल छोड़ कर चला जाए और वह माल तलफ़ हो जाए तो जिस शख़्स ने अमानत क़बूल न की हो वह ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर मुम्किन हो तो उस माल की हिफ़ाज़त करे।
2341. जो शख़्स किसी के पास कोई चीज़ बतौर अमानत रखवाए वह अमानत को जिस वक़्त चाहे मंसूख कर सकता है और इसी तरह अमीन भी जब चाहे उसे मंसूख कर सकता है।
2342. अगर कोई शख़्स अमानत की निगहदाश्त तर्क कर दे और अमानतदारी मंसूख कर दे तो ज़रूरी है कि जिस क़दर जल्द हो सके माल उसके मालिक या मालिक के वकील या सरपरस्त को पहुंचा दे या उन्हें इत्तिलाअ दे कि वह माल की (मज़ीद) निगहदाश्त के लिए तैयार नहीं है और अगर वह बग़ैर उज़्र के माल उन तक न पहुंचाए या इत्तिलाअ न दे और माल तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे।
2343. जो शख़्स अमानत क़बूल करे अगर उसके पास उसे रखने के लिए मुनासिब जगह न हो तो ज़रूरी है कि उसके लिए मुनासिब जगह हासिल करे और अमानत की इस तरह निगहदाश्त करे कि लोग यह न कहें कि उसने निगहदाश्त में कोताही की है और अगर वह इस काम में कोताही करे और अमानत तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे।
2344. जो शख़्स अमानत क़बूल करे अगर वह उसकी निगहदाश्त में कोताही न करे और न ही तअद्दी करे और इत्तिफ़ाक़न वह माल तलफ़ हो जाए तो वह शख़्स ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन अगर वह उस माल की हिफ़ाज़त में कोताही केर और माल को ऐसी जगह रखे जहां वह ऐसा ग़ैर महफ़ूज़ हो कि अगर कोई ज़ालिम ख़बर पाए तो ले जाए या वह इस माल में तअद्दी करे यअनी मालिक की इजाज़त के बग़ैर उस माल में तसर्रूफ़ करे मसलन लिबास को इस्तेमाल करे या जानवर पर सवारी करे और वह तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ उसके मालिक को दे।
2345. अगर माल का मालिक अपने माल की निगहदाश्त के लिए कोई जगह मुअय्यन कर दे और जिस शख़्स ने अमानत क़बूल की हो उससे कहे कि, तुम्हें चाहिये कि यहीं माल का ख़्याल रखो और अगर उसके ज़ाए हो जाने का एहतिमाल हो तब भी तुम उसको कहीं और ले जाना, तो अमानत क़बूल करने वाला उसे किसी और जगह नहीं ले जा सकता और अगर वह माल को किसी दूसरी जगह ले जाए और वह तलफ़ हो जाए तो अमीन ज़िम्मेदार है।
2346. अगर माल का मालिक अपने माल की निगहदाश्त के लिए कोई जगह मुअय्यन करे लेकिन ज़ाहिरन वह यह कह रहा हो कि उसकी नज़र में वह जगह कोई ख़ुसूसीयत नहीं रखती बल्कि वह जगह माल के लिए महफ़ूज़ जगहों में से एक है तो वह शख़्स जिसने अमानत क़बूल की है उस माल को किसी ऐसी जगह जो ज़्यादा महफ़ूज़ हो या पहली जगह जितनी महफ़ूज़ हो ले जा सकता है और अगर माल वहां तलफ़ हो जाए तो वह ज़िम्मेदार नहीं है।
2347. अगर माल का मालिक हमेशा के लिए दीवाना या बेहवास हो जाए तो अमानत का मुआमला ख़त्म हो जायेगा और जिस शख़्स ने उससे अमानत क़बूल की हो उसे चाहिये कि फ़ौरन अमानत उसके सरपरस्त को पहुंचा दे या उसके सरपरस्त को ख़बर करे और अगर वह शरई उज़्र के बग़ैर माल दीवाने के सरपरस्त को न पहुंचाए और उसे ख़बर करने में भी कोताही बरते और माल तलफ़ हो जाए तो उसे चाहिए कि उसका एवज़ दे। लेकिन अगर माल के मालिक पर कभी कभार दीवांगी या बेहवासी का दौरा पड़ता हो तो इस सूरत में अमानत का मुआमला बातिल होने में इश्काल है।
2348. अगर माल का मालिक मर जाए तो अमानत का मुआमला बातिल हो जाता है लिहाज़ा अगर उस माल में किसी दूसरे का हक़ न हो तो वह माल उसके वारिस को मिलता है और ज़रूरी है कि अमानतदार उस माल को उसके वारिस तक पहुंचाए या उसे इत्तिलाअ दे। और अगर वह शरई उज़्र के बग़ैर माल को उसके वारिस के हवाले न करे और ख़बर देने में भी कोताही बरते और माल ज़ाए हो तो वह ज़िम्मेदार है लेकिन अगर वह माल इस लिए वारिस को न दे और उसे ख़बर देने में भी कोताही करे कि जानना चाहता हो कि वह शख़्स जो कहता है कि मैयित का वारिस हूं वाक़िअय ठीक कहता है या नहीं या यह जानना चाहता हो कि कोई और शख़्स मैयित का वारिस है या नहीं और अगर (इस तह्क़ीक़ के बीच) माल तलफ़ हो जाए तो वह ज़िम्मेदार नहीं है।
2349. अगर माल का मालिक मर जाए और माल की मिल्कियत का हक़ उसके वरसा को मिल जाए तो जिस शख़्स ने अमानत क़बूल की हो ज़रूरी है कि माल तमाम वरसा को दे या उस शख़्स को दे जिसे माल देने पर सब वरसा रज़ामन्द हों। लिहाज़ा अगर वह दूसरे वरसा की इजाज़त के बग़ैर तमाम माल फ़क़त एक वारिस को दे दे तो वह दूसरों के हिस्सों का ज़िम्मेदार है।
2350 जिस शख़्स ने अमानत क़बूल की हो अगर वह मर जाए या हमेशा के लिए दीवाना या बेहवास हो जाए तो अमानत का मुआमला बातिल हो जायेगा और उसके सरपरस्त या वारिस को चाहिये कि जिस क़दर जल्द हो सके माल के मालिक को इत्तिलाअ दे या अमानत उस तक पहुंचाए। लेकिन अगर कभी कभार (या थोड़ी मुद्दत के लिए) दीवाना या बेहवास होता हो तो उस सूरत में अमानत का मुआमला बातिल होने में इश्काल है।
2351. अगर अमानतदार अपने आप में मौत की निशानियां देखे तो अगर मुम्किन हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि अमानत को उसके मालिक सरपरस्त या वकील तक पहुंचा दे या उसको इत्तिलाअ दे और अगर यह मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि ऐसा बन्दोबस्त करे कि उसे इत्मीनान हो जाए कि उसके मरने के बाद माल उसके मालिक को मिल जायेगा मसलन वसीयत करे और उस वसीयत पर गवाह मुक़र्रर करे और माल के मालिक का नाम और माल की जिन्स और ख़ुसूसीयात और महल्ले वक़ूउ वसी और गवाहों को बता दे।
2352. अगर अमानत दार अपने आप में मौत की निशानियां देखे और जो तरीक़ा इससे पहले मस्अले में बताया गया है उसके मुताबिक़ अमल न करे तो वह उस अमानत का ज़ामिन होगा लिहाज़ा अगर अमानत ज़ाए हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका एवज़ दे। लेकिन अगर वह जाँबर हो जाए या कुछ मुद्दत गुज़रने के बाद पशीमान हो जाए और कुछ (साबिक़ा मस्अले में) बताया गया है उस पर अमल करे तो अज़्हर यह है कि वह ज़िम्मेदार नहीं है।
आरिया के अहकाम
2353. आरिया से मुराद यह है कि इंसान अपना माल दूसरे को दे ताकि वह उस माल से इस्तिफ़ादा करे और उसके एवज़ कोई चीज़ उससे न ले।
2354. आरिया में सीग़ा पढ़ना लाज़िम नहीं और अगर मिसाल के तौर पर कोई शख़्स किसी को लिबास आरिया के क़स्द से दे और वह भी उसी क़स्द से ले तो आरिया सहीह है।
2355. ग़स्बी चीज़ या उस चीज़ को बतौरे आरिया देना जो कि आरिया देने वाले का माल हो लेकिन उसकी आमदनी उसने किसी दसरे शख़्स के सिपुर्द कर दी हो मसलन उसे किराये पर दे रखा हो, उस सूरत में सहीह है जब ग़स्बी चीज़ का मालिक या वह शख़्स जिसने आरिया दी जाने वाली चीज़ को बतौर इजारा ले रखा हो और उसके बतौरे आरिया देने पर राज़ी हो।
2356. जिस चीज़ की मनफ़अत किसी शख़्स के सिपुर्द हो मसलन उस चीज़ को किराए पर ले रखा हो तो उसे बतौर आरिया दे सकता है लेकिन एहतियात की बिना पर मालिक की इजाज़त के बग़ैर उस शख़्स के हवाले नहीं कर सकता जिसने उसे बतौरे आरिया लिया है।
2357. अगर दीवाना, बच्चा, दीवालिया और सफ़ीह अपना माल आरियतन दें तो सहीह नहीं है। लेकिन अगर (उनमें से किसी का) सरपरस्त आरिया देने की मसलहत समझता हो और जिस शख़्स का वह सरपरस्त है उसका माल आरियतन दे दे तो इसमें कोई इश्काल नहीं। इसी तरह जिस शख़्स ने माल आरियतन लिया हो उस तक माल पहुंचाने के लिए बच्चा वसीला बने तो कोई इश्काल नहीं है।
2358. आरियतन ली हुई चीज़ की निगहदाश्त में कोताही न करे और उससे मअमूल से ज़्यादा इस्तिफ़ादा भी न करे और इत्तिफ़ाक़न वह चीज़ तलफ़ हो जाए तो वह शख़्स ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन अगर तरफ़ैन आपस में यह शर्त करें कि अगर वह चीज़ तलफ़ हो जाए तो आरियतन लेने वाला ज़िम्मेदार होगा या जो चीज़ आरियतन ली हो वह सोना या चांदी हो तो उसका एवज़ देना ज़रूरी है।
2359. अगर कोई शख़्स सोना या चांदी आरियतन ले और यह तय किया हो कि अगर तलफ़ हो गया हो तो ज़िम्मेदार नहीं होगा फिर तलफ़ हो जाए तो वह शख़्स ज़िम्मेदार नहीं है।
2360. अगर आरिया पर देने वाला मर जाए तो आरिया पर लेने वाले के लिए ज़रूरी है कि जो तरीक़ा अमानत के मालिक के फ़ौत हो जाने की सूरत में मस्अला 2348 में बताया गया है उसी के मुताबिक़ अमल करे।
2361. अगर आरिया देने वाले की कैफ़ीयत यह हो कि वह शरअन अपने माल में तसर्रूफ़ न कर सकता हो मसलन दीवाना या बेहवास हो जाए तो आरिया लेने वाले के लिए ज़रूरी है कि उसी तरीक़े के मुताबिक़ अमल करे जो मस्अला 2347 में अमानत के बारे में उस जैसी सूरत में बयान किया गया है।
2362. जिस शख़्स ने कोई चीज आरियतन दी हो वह जब भी चाहे उसे मंसूख कर सकता है और जिसने कोई चीज़ आरियतन ली हो वह भी जब चाहे उसे मंसूख कर सकता है।
2363. किसी ऐसी चीज़ का आरियतन देना जिससे हलाल इस्तिफ़ादा न हो सकता हो मसलन लहव व लइब और क़ुमारबाज़ी के आलात और खाने पीने में इस्तेमाल करने के लिए सोने और चांदी के बर्तन आरियतन देना – बल्कि एहतियाते लाज़िम की बिना पर हर क़िस्म के इस्तेमाल के लिए आरियतन देना – बातिल है और तज़्ईन व आराइश के लिए आरियतन देना जाइज़ है अगरचे एहतियात न देने में है।
2364. भेड़ (बकरियों) को उनके दूध और उन से इस्तिफ़ादा करने के लिए नीज़ नर हैवान को मादा हैवानात के साथ मिलाप के लिए आरियतन देना सहीह है।
2365. अगर किसी चीज़ को आरियतन लेने वाला उसे उसके मालिक या मालिक के वकील या सरपरस्त को दे दे और उसके बाद वह चीज़ तलफ़ हो जाए तो उस चीज़ को आरियतन लेने वाला ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन अगर वह माल के मालिक या वकील या सरपरस्त की इजाज़त के बग़ैर माल को ख़्वाह ऐसी जगह ले जाए जहां माल का मालिक उसे उमूमन ले जाता हो मसलन घोड़े को अस्तबल में बांध दे जो उसके मालिक ने उसके लिए तैयार किया हो और बाद में घोड़ा तलफ़ हो जाए या कोई उसे तलफ़ कर दे तो आरियतन लेने वाला ज़िम्मेदार है।
2366. अगर एक शख़्स कोई नजिस चीज आरियतन दे तो उस सूरत में उसे चाहिये कि मस्अला 2065 में गुज़र चुका है – उस चीज़ के नजीस होने के बारे में आरियतन लेने वाले शख़्स को बता दे।
2367. जो चीज़ किसी शख़्स ने आरियतन ली हो उसे उसके मालिक की इजाज़त के बग़ैर किसी दूसरे को किराये पर या आरियतन नहीं दे सकता।
2368. जो चीज़ किसी शख़्स ने आरियतन न ली हो अगर वह उसे मालिक की इजाज़त से किसी और शख़्स को आरियतन दे दे तो अगर जिस शख़्स ने पहले वह चीज़ आरियतन ली हो मर जाए या दीवाना हो जाए तो दूसरा आरिया बातिल नहीं होता।
2369. अगर कोई शख़्स जानता हो कि जो माल उसने आरियतन लिया है वह ग़स्बी है तो ज़रूरी है कि वह माल उसके मालिक को पहुंचा दे और वह उसे आरियतन देने वाले को नहीं दे सकता।
2370. अगर कोई शख़्स ऐसा माल आरियतन ले जिसके मुतअल्लिक़ जानता हो कि वह ग़स्बी है और वह उससे फ़ाइदा उठाए और उसके हाथ से वह माल तलफ़ हो जाए तो मालिक उस माल का एवज़ और जो फ़ाइदा आरियतन लेने वाले ने उठाया है उसका एवज़ उससे या जिसने माल ग़स्ब किया हो उससे तलब कर सकता है और अगर मालिक आरियतन लेने वाले से एवज़ ले ले तो आरियतन लेने वाला जो कुछ मालिक को दे उसका मुतालबा आरियतन देने वाले से नहीं कर सकता।
2371. अगर किसी शख़्स को यह मअलूम न हो कि उसने जो माल आरियतन लिया है वह ग़स्बी है और उसके पास होते हुए वह माल तलफ़ हो जाए तो अगर माल का मालिक उसका एवज़ उससे ले ले तो वह भी जो कुछ माल के मालिक को दिया हो उसका मुतालबा आरियतन देने वाले से कर सकता है। लेकिन अगर उसने जो चीज़ आरियतन ली हो वह सोना या चांदी हो या बतौरे आरिया देने वाले ने उससे शर्त की हो कि अगर वह चीज़ तलफ़ हो जाए तो वह उसका एवज़ देगा तो फिर उसने माल का जो एवज़ माल के मालिक को दिया हो उसका मुतालबा आरियतन देने वाले से नहीं कर सकता।
निकाह के अहकाम
अक़्दे इज़्दिवाज के ज़रीए औरत, मर्द पर और मर्द, औरत पर हलाल हो जाते हैं और अक़्द की दो क़िस्में हैं पहली दाइमी और दूसरी ग़ैर दाइमी। मुक़र्ररा वक़्त के लिए अक़्द अक़्दे दाइमी उसे कहते हैं जिसमें इज़्दिवाज की मुद्दत मुअय्यन न हो और वह हमेशा के लिए हो और जिस औरत से इस क़िस्म का अक़्द किया जाए उसे दाइमा कहते हैं। और ग़ैर दाइमी अक़्द वह है जिसमें इज़्दिवाज की मुद्दत मुअय्यन हो मसलन औरत के साथ एक घंटे या एक दिन या एक महीने या एक साल या उससे ज़्यादा मुद्दत के लिए अक़्द किया जाए लेकिन उस अक़्द की मुद्दत औरत और मर्द की तमाम उम्र से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए क्योंकि उस सूरत में अक़्द बातिल हो जायेगा। जब औरत से इस क़िस्म का अक़्द किया जाए तो उसे अक़्दे मुतअ या सीग़ा कहते हैं।
2372. इज़दिवाज ख़्वाह दाइमी हो या ग़ैर दाइमी उसमें सीग़ा (निकाह के बोल) पढ़ना ज़रूरी है। औरत और मर्द का महज़ होना और इसी तरह (निकाहनामा) लिखना काफ़ी नहीं है। निकाह का सीग़ा या तो औरत और मर्द खुद पढ़ते हैं या किसी को वकील मुक़र्रर कर लेते हैं ताकि वह उनकी तरफ़ से पढ़ दे।
2373. वकील का मर्द होना लाज़िम नहीं बल्कि औरत भी निकाह का सीग़ा पढ़ने के लिए किसी दूसरे की जानिब से वकील हो सकती है।
2374. औरत और मर्द को जब तक इत्मीनान न हो जाए कि उनके वकील ने सीग़ा पढ़ दिया है उस वक़्त तक वह एक दूसरे को महरमाना नज़रों से नहीं देख सकते और इस बात का गुमान कि वकील ने सीग़ा पढ़ दिया है काफ़ी नहीं है। बल्कि अगर वकील कह दे कि मैंने सीग़ा पढ़ दिया है लेकिन उसकी बात पर इत्मीनान न हो तो उसकी बात पर भरोसा करना महल्ले इश्काल है।
2375. अगर कोई औरत किसी को वकील मुक़र्रर करे और कहे कि तुम मेरा निकाह दस दिन के लिए फ़लां शख़्स के साथ पढ़ दो और दस दिन की इब्तिदा को मुअय्यन न करे तो वह (निकाहख़्वान) वकील जिन दस दिनों के लिए चाहे उसे उस मर्द के निकाह में दे सकता है लेकिन अगर वकील को मअलूम हो कि औरत का मक़्सद किसी खास दिन या घंटे का है तो फिर उसे चाहिये कि औरत के क़स्द के मुताबिक़ सीग़ा पढ़े।
2376. अक़्दे दाइमी या अक़्दे ग़ैर दाइमी का सीग़ा पढ़ने के लिए एक शख़्स दो अश्ख़ास की तरफ़ से वकील बन सकता है और इंसान यह भी कर सकता है कि औरत की तरफ़ से वकील बन जाए और उससे खुद दाइमी या ग़ैर दाइमी निकाह कर ले लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि निकाह दो अश्ख़ास पढ़ें।
निकाह पढ़ने का तरीक़ा
2377. अगर औरत और मर्द ख़ुद अपने दाइमी निकाह का सीग़ा पढ़ें तो महर मुअय्यन करने के बाद पहले औरत कहे, ज़व्वज्तुका नफ़्सी अलस् सिदाक़िल मअलूम, यअनी मैंने उस महर पर जो मुअय्यन हो चुका है अपने आपको तुम्हारी बीबी बनाया और उसके लम्हे भर बाद मर्द कहे, क़बिल्तुत् तज़्वीजा यअनी मैंने इज़्दिवाज को क़बूल किया, तो निकाह सहीह है। और अगर वह किसी दूसरे को वकील मुक़र्रर करें कि उनकी तरफ़ से सीग़ा ए निकाह पढ़ दे तो अगर मिसाल के तौर पर मर्द का नाम अहमद और औरत का नाम फ़ातिमा हो और औरत का वकील कहे, ज़व्वज्तो मुवक्किलका अहमदा मुवक्किलती फ़ातिमता अलस् सिदाक़िल मअलूम, और उसके लम्हा भर बाद मर्द का वकील कहे, क़बिल्तुत तज़्वीजा ले मुवक्किली अहमदा अलस सिदाक़िल मअलूम तो निकाह सहीह होगा और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मर्द जो लफ़्ज़ कहे वह औरत के कहे जाने वाले लफ़्ज़ के मुताबिक़ हो मसलन अगर औरत, ज़व्वज्तो कहे तो मर्द भी क़विल्तुत तज़्वीजा कहे और क़बिल्तुन् निकाह न कहे।
2378. अगर खुद औरत और मर्द चाहें तो ग़ैर दाइमी निकाह का सीग़ा निकाह की मुद्दत और महर मुअय्यन करने के बाद पढ़ सकते हैं। लिहाज़ा अगर औरत कहे ज़व्वजतुकान नफ़्सी फ़िल्मुद्दतिल मअलूमते अलल महरिल मअलूम और उसके लम्हा भर बाद मर्द कहे क़बिल्तो तो निकाह सहीह है। और अगर वह किसी और शख़्स को वकील बनाये और पहले औरत का वकील मर्द के वकील से कहे, ज़व्वज्तो मुवक्कितली मुवक्किलका फ़िलमुद्दतिल मअलूमते अलल महरिल मअलूम और उसके बाद मर्द का वकील मअमूली तवक़्क़ुफ़ के बाद कहे, क़बिल्तुत तज़वीजा लेमुवक्किली हाकज़ा तो निकाह सहीह होगा।
निकाह की शराइत
2379. निकाह की चन्द शर्तें हैं जो ज़ैल में दर्ज की जाती हैं –
1. एहतियात की बिना पर निकाह का सीग़ा सहीह अरबी में पढ़ा जाए और अगर ख़ुद मर्द और औरत सीग़ा सहीह अरबी न पढ़ सकते हों तो अरबी के अलावा किसी दूसरी ज़बान में पढ़ सकते हैं और किसी शख़्स को वकील बनाना लाज़िम नहीं है। अलबत्ता उन्हें चाहिये कि वह अल्फ़ाज़ कहें जो ज़व्वज्तो और क़बिल्तो का मफ़्हूम अदा कर सकें।
2. मर्द और औरत या उनके वकील जो कि सीग़ा पढ़ रहे हों वह क़स्दे इंशा रखते हों यअनी अगर खुद मर्द और औरत सीग़ा पढ़ रहे हों तो औरत का ज़व्वज्तुका नफ़्सी कहना इस नीयत से हो कि खुद को उसकी बीवी क़रार दे और मर्द का क़बिल्तुत् तज़वीजा कहना इस नीयत से हो कि वह उसका अपनी बीवी बनना क़बूल करे और अगर मर्द और औरत के वकील सीग़ा पढ़ रहे हों तो ज़व्वज्तो व क़बिल्तो कहने से उनकी नीयत यह हो कि वह मर्द और औरत जिन्होंने उन्हें वकील बनाया है एक दूसरे के मियां बीवी बन जायें।
3. जो शख़्स सीग़ा पढ़ रहा हो ज़रूरी है कि वह आक़िल हो और एहतियात की बिना पर उसे बालिग़ भी होना चाहिये। ख़्वाह वह अपने लिये सीग़ा पढ़े या किसी दूसरे की तरफ़ से वकील बनाया गया हो।
4. अगर औरत और मर्द के वकील या उनके सरपरस्त सीग़ा पढ़ रहे हों तो वह निकाह के वक़्त औरत और मर्द को मुअय्यन कर लें मसलन उनके नाम लें या उनकी तरफ़ इशारा करें। लिहाज़ा जिस शख़्स की कई लड़कियां हों अगर वह किसी मर्द से कहे ज़व्वज्तुका एह्दा बनाती यअनी मैंने अपनी बेटियों में से एक को तुम्हारी बीवी बनाया और वह मर्द कहे, क़बिल्तो यअनी मैंने क़बूल किया तो चूंकि निकाह करते वक़्त लड़की को मुअय्यन नहीं किया गया इस लिये निकाह बातिल है।
5. औरत और मर्द इज़दिवाज पर राज़ी हों। हां अगर औरत बज़ाहिर नापसंदीदगी से इजाज़त दे और मअलूम हो कि दिल से राज़ी है तो निकाह सहीह है।
2380. अगर निकाह में एक हर्फ़ भी ग़लत पढ़ा जाए जो उसके मअनी बदल दे तो निकाह बातिल है।
2381. वह शख़्स जो निकाह का सीग़ा पढ़ रहा हो अगर ख़्वाह वह इज्माली तौर पर निकाह के मअनी जानता हो और उसके मअनी को हक़ीक़ी शक्ल देना चाहता हो तो निकाह सहीह है। और यह लाज़िम नहीं कि वह तफ़्सील के साथ सीग़े के मअनी जानता हो मसलन या जानना (ज़रूरी नहीं है) कि अरबी ज़बान के लिहाज़ से फ़ेल या फ़ायल कौन सा है।
2382. अगर किसी औरत का निकाह उसकी इजाज़त के बग़ैर किसी मर्द से कर दिया जाए और बाद में औरत और मर्द उस निकाह की इजाज़त दे दें तो निकाह सहीह है।
2383. अगर औरत और मर्द दोनों को या उनमें से किसी एक को इज़्दिवाज पर मजबूर किया जाए और निकाह पढ़े जाने के बाद वह इजाज़त दे दें तो निकाह सहीह है और बेहतर यह है कि दोबारा निकाह पढ़ा जाए।
2384. बाप और दादा अपने नाबालिग़ लड़के या लड़की (पोते या पोती) या दीवाने फ़र्ज़न्द का जो दीवांगी की हालत में बालिग़ हुआ हो निकाह कर सकते हैं और जब वह बच्चा बालिग़ हो जाए या दीवाना आक़िल हो जाए तो उन्होंने उसका जो निकाह किया हो अगर उसमें कोई ख़राबी हो तो उन्हें उस निकाह को बरक़रार रखने या ख़त्म करने का इख़्तियार है और अगर कोई ख़राबी न हो और बालिग़ लड़के और लड़की में से कोई एक अपने उस निकाह को मंसूख करे तो तलाक़ या दोबारा निकाह पढ़ने की एहतियात तर्क नहीं होती।
2385. जो लड़की सिने बुलूग़ को पहुंच चुकि हो और रशीदा हो यअनी अपना भला बुरा समझ सकती हो अगर वह शादी करना चाहे और कुंवारी हो तो – एहतियात की बिना पर – उसे चाहिये कि अपने बाप या दादा से इजाज़त ले अगरचे वह खुदमुख़्तारी से अपनी ज़िन्दगी के कामों को अंजाम देती हो अलबत्ता मां और भाई से इजाज़त लेना लाज़िम नहीं।
2386. अगर लड़की कुंवारी न हो या कुंवारी हो लेकिन बाप या दादा उस मर्द के साथ उसे शादी करने की इजाज़त न देते हों जो उर्फ़न व शरअन उसका हम पल्ला हो या बाप और दादा बेटी की शादी के मुआमले में किसी तरह शरीक होने के लिए राज़ी न हों या दीवांगी या उस जैसी किसी दूसरी वजह से इजाज़त देने की अहलियत न रखते हों तो इन तमाम सूरतों में उनसे इजाज़त लेना लाज़िम नहीं है। इसी तरह उन के मौजूद न होने या किसी दूसरी वजह से इजाज़त लेना मुम्किन न हो और लड़की का शादी करना बेहद ज़रूरी हो तो बाप और दादा से इजाज़त लेना लाज़िम नहीं है।
2387. अगर बाप या दादा अपने ना बालिग़ लड़के (या पोते) की शादी कर दें तो लड़के (या पोते) को चाहिये कि बालिग़ होने के बाद उस औरत का ख़र्च दे बल्कि बालिग़ होने से पहले भी जब उसकी उम्र इतनी हो जाए कि वह उस लड़की से लज़्ज़त उठाने की क़ाबिलीयत रखता हो और लड़की भी इस क़दर छोटी न हो कि शौहर उस से लज़्ज़त न उठा सके तो बीवी के ख़र्च का ज़िम्मेदार लड़का है और इस सूरत के अलावा भी एहतिमाल है कि बीवी खर्च की मुस्तहक़ हो। पस एहतियात यह है कि मुसालहत वग़ैरा के ज़रीए मस्अले को हल करे।
2388. अगर बाप या दादा अपने ना बालिग़ लड़के (या पोते) की शादी कर दें तो अगर लड़के के पास निकाह के वक़्त कोई माल न हो तो बाप या दादा को चाहिये कि उस औरत का महर दे और यही हुक्म है अगर लड़के (या पोते) के पास कोई माल हो लेकिन बाप या दादा ने महर अदा करने की ज़मानत दी हो। और इन दो सूरतों के अलावा अगर उसका महर महरुल मिस्ल से ज़्यादा न हो या किसी मसलहत की बिना पर उस लड़की का महर महरुल मिस्ल से ज़्यादा हो तो बाप या दादा बेटे (या पोते) के माल से महर अदा कर सकते हैं वरना बेटे (या पोते) के माल से महरुल मिस्ल से ज़्यादा महर नहीं दे सकते मगर यह कि बच्चा बालिग़ होने के बाद उनके इस काम को क़ब़ूल करे।
वह सूरतें जिनमें मर्द या औरत निकाह फ़स्ख़ कर सकते हैं
2389. अगर निकाह के बाद मर्द को पता चले कि औरत में निकाह के वक़्त मुन्दरिजा ज़ैल छः उयूब में से कोई ऐब मौजूद था तो उसकी वजह से निकाह को फ़स्ख़ कर सकता हैः-
1. दीवानगी – अगरचे कभी कभार होती हो।
2. जुज़ाम।
3. बर्स। (सफेद दाग़)
4. अंधापन।
5. अपाहिज होना। अगरचे ज़मीन पर न घसिटती हो।
6. बच्चादानी में गोश्त या हड्डी हो। ख़्वाह जिमाअ और हम्ल के लिए माने हो या न हो। और अगर मर्द को निकाह के बाद पता चले कि औरत निकाह के वक़्त इफ़्ज़ा हो चुकी थी यअनी उसका पेशाब और हैज़ का मखरज या हैज़ और पाखाने का मखरज एक हो चुका था तो इस सूरत में निकाह को फ़स्ख़ करने में इश्काल है और एहतियाते लाज़िम यह है कि अक़्द को फ़स्ख़ करना चाहे तो तलाक़ भी दे।
2390. अगर औरत को निकाह के बाद पता चले कि उसके शौहर का आला ए तनासुल नहीं है, या निकाह के बाद जिमाअ करने से पहले, या जिमाअ करने के बाद, उसका आला ए तनासुल कट जाए, या ऐसी बीमारी में मुब्तला हो जाए कि सोहबत और जिमाअ न कर सकता हो ख़्वाह वह बीमारी निकाह के बाद और जिमाअ करने से पहले, या जिमाअ करने के बाद ही क्यों न लाहिक़ हुई हो। उन तमाम सूरतों में औरत तलाक़ के बग़ैर निकाह को ख़त्म कर सकती है। और अगर औरत को निकाह के बाद पता चले कि उसका शौहर निकाह के पहले दीवाना था या निकाह के बाद – ख़्वाह जिमाअ से पहले, या जिमाअ के बाद – दीवाना हो जाए, या उसे (निकाह के बाद) पता चले कि निकाह के वक़्त उसके फ़ोते निकाले गये थे या मसल दिये गये थे, या उसे पता चले कि निकाह के वक़्त जुज़ाम या बर्स में मुब्तला था तो इन तमाम सूरतों में अगर औरत इज़्दिवाजी ज़िन्दगी बरक़रार न रखना और निकाह करने को ख़त्म करना चाहे तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसका शौहर या उसका सरपरस्त औरत को तलाक़ दे। लेकिन उस सूरत में कि उसका शौहर जिमाअ न कर सकता हो और औरत निकाह को ख़त्म करना चाहे तो उस पर लाज़िम है कि पहले हाकिमे शर्अ उसे एक साल की मोहलत देगा लिहाज़ा अगर इस दौरान वह उस औरत या किसी दूसरी औरत से जिमाअ न कर सके तो उसके बाद औरत निकाह को ख़त्म कर सकती है।
2391. अगर औरत इस बिना पर निकाह ख़त्म कर दे कि उसका शौहर नामर्द है तो ज़रूरी है कि शौहर उसे आधा महर दे लेकिन अगर उन दूसरे नक़ाइस में जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है किसी एक की बिना पर मर्द या औरत निकाह ख़त्म कर दें तो अगर मर्द ने औरत के साथ जिमाअ न किया हो तो वह किसी चीज़ का ज़िम्मेदार नहीं है और अगर जिमाअ किया हो तो ज़रूरी है कि पूरा महर दे। लेकिन अगर मर्द औरत के उन उयूब की वजह से निकाह ख़त्म करे जिन का बयान मस्अला 2389 में हो चुका है और उसने औरत के साथ जिमाअ न किया हो तो ज़रूरी है कि औरत को पूरा महर दे।
2392. अगर मर्द या औरत जो कुछ वह है उससे ज़्यादा बढ़ा चढ़ा कर उनकी तअरीफ़ की जाए ताकि वह शादी करने में दिलचस्पी लें ख़्वाह यह तअरीफ़ निकाह के ज़िम्न में हो या उससे पहले – उस सूरत में कि उस तअरीफ़ की बुनियाद पर निकाह हुआ हो – लिहाज़ा अगर निकाह के बाद दूसरे फ़रीक़ को इस बात का ग़लत होना मअलूम हो जाए तो वह निकाह को ख़त्म कर सकता है और इस मस्अले के तफ़्सीली अहकाम मसाइले मुन्तख़िब जैसी दूसरी किताबों में बयान किये गए हैं।