तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हैवानात को शिकार और ज़ब्ह करने के अहकाम

2592. हैवान जंगली हो या पालतू – हराम गोश्त हैवानों के अलावा, जिन का बयान खाने और पीने वाली चीज़ों के अहकाम में आयेगा, उसको इस तरीक़े के मुताबिक़ ज़ब्ह किया जाए, जो बाद में बताया जायेगा, तो उसकी जान निकल जाने के बाद, उसका गोश्त हलाल और बदन पाक है। लेकिन ऊँट, मछली और टिड्डी को ज़ब्ह किये बग़ैर खाना हलाल हो जायेगा जिस तरह कि आइन्दा मसाइल में बयान किया जायेगा।

2593. वह जंगली हैवान जिन का गोश्त हलाल हो मसलन हिरन, चकोर और पहाड़ी बकरी और वह हैवान जिन का गोश्त हलाल हो और जो पहले पालतू रहे हों और बाद में जंगली बन गए हों मसलन पालतू गाय और ऊँट जो भाग गए हों और जंगली बन गए हों अगर उन्हें उस तरीक़े के मुताबिक़ शिकार किया जाए जिस का ज़िक्र बाद में होगा तो वह पाक और हलाल हैं लेकिन हलाल गोश्त वाले पालतू हैवान मसलन भेड़ और घरेलू मुर्ग़ और हलाल गोश्त वाले वह जंगली हैवान जो तरबियत की वजह से पालतू बन जायें शिकार करने से पाक और हलाल नहीं होते।

2594. हलाल गोश्त वाला जंगली हैवान शिकार करने से उस सूरत में हलाल होता है जब वह भाग सकता हो या उड़ सकता हो। लिहाज़ा हिरन का वह बच्चा जो भाग न सके और चकोर का वह बच्चा जो उड़ न सके शिकार करने से पाक और हलाल नहीं होते और अगर कोई शख़्स हिरनी को और उसके ऐसे बच्चे को जो भाग न सकता हो एक ही तीर से शिकार करे तो हिरनी हलाल और बच्चा हराम होगा।

2595. हलाल गोश्त वाला वह हैवान जो उछलने वाला ख़ून न रखता हो मसलन मछली अगर खुद ब खुद मर जाए तो पाक है लेकिन उसका गोश्त खाया नहीं जा सकता।

2596. हराम गोश्त वाला वह हैवान जो उछलने वाला ख़ून न रखता हो मसलन सांप उसका मुर्दा पाक है लेकिन ज़ब्ह करने से वह हलाल नहीं होता।

2597. कुत्ता और सुव्वर ज़ब्ह करने से और शिकार करने से पाक नहीं होते और उनका गोश्त खाना भी हराम है और वह हराम गोश्त वाला हैवान जो भेड़िये और चीते की तरह चीड़फाड़ करने वाला और गोश्त खाने वाला हो अगर उसे उस तरीक़े से ज़ब्ह किया जाए जिस का ज़िक्र बाद में किया जायेगा या तीर या उसी तरह की किसी चीज़ से शिकार किया जाए तो पाक है लेकिन उसका गोश्त हलाल नहीं होता और अगर उसका शिकार शिकारी कुत्ते के ज़रीए किया जाए तो उस का बदन पाक होने में भी इश्काल है।

2598. हाथी, रीछ और बन्दर जो कुछ ज़िक्र हो चुका है उसके मुताबिक़ हैवानों का हुक्म रखते हैं लेकिन हशरात (कीड़े मकूड़े) और वह बहुत छोटे हैवानात जो ज़ेरे ज़मीन रहते हैं जैसे चूहा और गोह (वग़ैरा) अगर उछलने वाला ख़ून रखते हों और उन्हें ज़िब्हा किया जाए या शिकार किया जाए तो उनका गोश्त और खाल पाक नहीं होंगे।

2599. अगर ज़िन्दा हैवान के पेट से मुर्दा बच्चा निकाला जाए तो उस का गोश्त खाना हराम है।

हैवानात को ज़ब्ह करने का तरीक़ा

2600. हैवान को ज़ब्ह करने का तरीक़ा यह है कि उसकी गर्दन की चार बड़ी रगों को मुकम्मल तौर पर काटा जाए, उन में सिर्फ़ चीरा लगाना या मसलन सिर्फ़ गला काटना एहतियात की बिना पर काफ़ी नहीं है और दर हक़ीक़त यह चार रगों को काटना न हुआ। मगर (शरअन ज़बीहा उस वक़्त सहीह होता है) जब उन चार रगों को गले की गिरह से नीचे से काटा जाए और वह चार में सांस की नाली और खाने की नाली और वह मोटी रगें हैं जो सास की नाली के दोनों तरफ़ होती हैं।

2601. अगर कोई शख़्स चार रगों में से बाज़ को काटे और फिर हैवान के मरने तक सब्र करे और बाक़ी रगे बाद में काटे तो उसका कोई फ़ाइदा नहीं लेकिन उस सूरत में जबकि चारों रगें हैवान की जान निकलने से पहले काट दी जायें मगर हसबे मअमूल मुसलसल न काटी जायें तो वह हैवान पाक और हलाल होगा अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि मुसलसल काटी जायें।

2602. अगर भेड़िया किसी भेड़ का गला इस तरह फाड़ दे कि गर्दन की उन चार रगों में से जिन्हें ज़ब्ह करते वक़्त काटना ज़रूरी है कुछ भी बाक़ी न रहे तो वह भेड़ हराम हो जाती है और अगर सिर्फ़ सांस की नाली बिल्कुल बाक़ी न रहे तब भी यही हुक्म है। बल्कि अगर भेड़िया गर्दन का कुछ हिस्सा फाड़ दे और चारों र गें सर से लटकी हुई या बदन से लगी हुई बाक़ी रहें तो एहतियात की बिना पर वह भेड़ हराम है लेकिन अगर बदन का कोई दूसरा हिस्सा फाड़े तो उस सूरत में जब कि भेड़ अभी ज़िन्दा हो और उस तरीक़े के मुताबिक़ ज़ब्ह की जाए जिसका ज़िक्र बाद में होगा तो वह हलाल और पाक होगी।

हैवान को ज़ब्ह करने की शराइत

2603. हैवान को ज़ब्ह करने की चन्द शर्तें हैं –

1. जो शख़्स किसी हैवान को ज़ब्ह करे ख़्वाह मर्द हो या औरत उसके लिए ज़रूरी है कि मुसलमान हो और वह मुसलमान बच्चा भी जो मसझदार हो यअनी बुरे भले की समझ रखता हो हैवान को ज़ब्ह कर सकता है लेकिन ग़ैर किताबी कुफ़्फ़ार और उन फ़िर्क़ों के लोग जो कुफ़्फ़ार के हुक्म में हैं मसलन नवासिब अगर किसी हैवान को ज़ब्ह करें तो वह हलाल नहीं होगा बल्कि किताबी काफ़िर (मसलन यहूदी और ईसाई) भी किसी हैवान को ज़ब्ह करे अगरचे बिस्मिल्लाह भी कहे तो भी एहतियात की बिना पर वह हैवान हलाल नहीं होगा।

2. हैवान को उस चीज़ से ज़ब्ह किया जाए जो लोहे (या स्टील) की बनी हुई हो लेकिन अगर लोहे की चीज़ दस्तयाब न हो तो उसे किसी ऐसी तेज़ चीज़ मसलन शीशे और पत्थर से भी ज़ब्ह किया जा सकता है जो उस की चारों रगों को काट दे अगरचे ज़ब्ह करने की (फ़ौरी) ज़रूरत पेश न आई हो।

3. ज़ब्ह करते वक़्त हैवान क़िब्ले की तरफ़ हो। हैवान का क़िब्ला रुख़ होना ख़्वाह वह बैठा हो या खड़ा हो दोनों हालतों में ऐसा हो जैसे इंसान नमाज़ में क़िब्ला रुख़ होता है। अगर हैवान दाई तरफ़ या बाई तरफ़ लेटा हो तो ज़रूरी है कि हैवान की गर्दन और उसका पेट क़िब्ला रुख़ हो और उसका पांव हाथ और मुंह का क़िब्ला रुख़ होना लाज़िम नहीं है। और जो शख़्स जानता हो कि ज़ब्ह करते वक़्त ज़रूरी है कि हैवान क़िब्ला रुख़ हो अगर वह जान बूझ कर उसका मुंह क़िब्ले की तरफ़ न करे तो हैवान हराम हो जाता है। लेकिन अगर ज़ब्ह करने वाला भूल जाए या मस्अला न जानता हो या क़िब्ले के बारे में उसे इश्तिबाह हो या यह न जानता हो कि क़िब्ला किस तरफ़ है या हैवान का मुंह क़िब्ले की तरफ़ न कर सकता हो तो फिर इश्काल नहीं और एहतियाते मुस्तहब यह है कि हैवान को ज़ब्ह करने वाला भी क़िब्ला रुख़ हो।

4. कोई शख़्स किसी हैवान को ज़ब्ह करते वक़्त या ज़ब्ह से कुछ पहले ज़ब्ह करने की नीयत से खुदा का नाम ले और सिर्फ़ बिस्मिल्लाह कह दे तो काफ़ी है बल्कि अगर सिर्फ़ अल्लाह कह दे तो बईद नहीं कि काफ़ी हो। और अगर ज़ब्ह करने की नीयत के बग़ैर ख़ुदा का नाम ले तो वह हैवान पाक नहीं होता और उसका गोश्त भी हराम है। लेकिन अगर भूल जाने की वजह से ख़ुदा का नाम न ले तो इश्काल नहीं है।

5. ज़ब्ह होने के बाद हैवान हरकत करे अगरचे मिसाल के तौर पर सिर्फ़ आँख या दुम को हरकत दे या अपना पांव ज़मीन पर मारे और यह हुक्म उस सूरत में है जब ज़ब्ह करते वक़्त हैवान का ज़िन्दा होना मशकूक हो और अगर मशकूक न हो तो यह शर्त ज़रूरी नहीं है।

6. हैवान के बदन से उतना ख़ून निकले जितना मअमूल के मुताबिक़ निकलता है। पस अगर ख़ून उसकी रगों में रुक जाए और उस से ख़ून न निकले या ख़ून निकला हो लेकिन उस हैवान की नौअ की निस्बत कम हो तो वह हैवान हलाल नहीं होगा। लेकिन अगर ख़ून कम निकलने की वजह यह हो कि उस हैवान का ज़ब्ह करने से पहले ख़ून बह चुका हो तो इश्काल नहीं है।

7. हैवान को गले की तरफ़ से ज़ब्ह किया जाए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि गर्दन को अगली तरफ़ से काटा जाए और छुरी को गर्दन की पुश्त में घोंप कर इस तरह अगली तरफ़ न लाया जाए कि उसकी गर्दन पुश्त की तरफ़ से कट जाए।

2604. एहतियात की बिना पर जाइज़ नहीं है कि हैवान की जान निकलने से पहले उसका सर तन से जुदा किया जाए अगरचे ऐसा करने से हैवान हराम नहीं होता – लेकिन लापर्वाई या छुरी तेज़ होने की वजह से सर जुदा हो जाए तो इश्काल नहीं है और इसी तरह एहतियात की बिना पर हैवान की गर्दन चीरना और उस सफ़ेद रग को जो गर्दन के मोहरों से हैवान की दुम तक जाती है और नख़ाअ कहलाती है हैवान की जान निकलने से पहले काटना जाइज़ नहीं है।

ऊँट को नहर करने का तरीक़ा

2605. अगर ऊंट को नहर करना मक़्सूद हो ताकि जान निकलने के बाद वह पाक और हलाल हो जाए तो ज़रूरी है कि उन शराइत के साथ जो हैवान को ज़ब्ह करने के लिए बताई गई हैं छुरी या कोई और चीज़ जो लोहे (या स्टील) की बनी हुई हो और काटने वाली हो ऊँट की गर्दन और सीने के दरमियान जौफ़ में घोंप दे और बेहतर यह है कि ऊँट उस वक़्त खड़ा हो लेकिन अगर वह घुटने ज़मीन पर टेक दे या किसी पहलू लेट जाए और क़िब्ला रुख़ हो उस वक़्त छुरी उस की गर्दन की गहराई में घोंप दी जाए तो कोई इशकाल नहीं है।

2606. अगर ऊँट की गर्दन की गहराई में छुरी घोंपने के बजाय उसे ज़ब्ह किया जाए (यअनी उसकी गर्दन की चार रगें काटी जायें) या भेड़ और गाय और उन जैसे दूसरे हैवानात की गर्दन की गहराई में ऊंट की तरह छुरी घोंपी जाए तो उनका गोश्त हराम और बदन नजिस है लेकिन अगर ऊंट की चार रगें काटी जायें और अभी वह ज़िन्दा हो तो मज़कूरा तरीक़े के मुताबिक़ उसकी गर्दन की गहराई में छुरी घोंपी जाए तो उसका गोश्त हलाल और बदन पाक है। नीज़ अगर गाय या भेड़ और उन जैसे हैवानात की गर्दन की गहराई में छुरी घोंपी जाए और अभी वह ज़िन्दा हो कि उन्हें ज़ब्ह कर दिया जाए तो वह पाक और हलाल है।

2607. अगर कोई हैवान सर्कश हो जाए और उस तरीक़े के मुताबिक़ जो शर्अ ने मुक़र्रर किया है ज़ब्ह (या नहर) करना मुम्किन न हो मसलन कुयें में गिर जाए और इस बात का एहतिमाल हो कि वहीं मर जाएगा और उसका मज़कूरा तरीक़े के मुताबिक़ ज़ब्ह (या नहर) करना मुम्किन न हो तो उसके बदन पर जहां कहीं भी ज़ख़्म लगाया जाए और उस ज़ख़्म के नतीजे में उसकी जान निकल जाए वह हैवान हलाल है और उसका रू बक़िब्ला होना लाज़िम नहीं लेकिन ज़रूरी है कि दूसरी शराइत जो हैवान को ज़ब्ह करने के बारे में बताई गई है उसमें मौजूद हों।

हैवानात को ज़ब्ह करने के मुस्तहब्बात

2608. फ़ुक़हा रिज़वानुल्लाहे अलैहिम ने हैवानात को ज़ब्ह करने में कुछ चीज़ों को मुस्तहब शुमार किया हैः-

1. भेड़ को ज़ब्ह करते वक़्त उसके दोनों हाथ और एक पांव बांध दिये जायेंगे और दूसरा पांव खुला रखा जाए। और गाय को ज़ब्ह करते वक़्त उसके चारों हाथ पांव बांध दिये जायें और दुम खुली रखी जाए। और ऊँट को नहर करते वक़्त अगर वह बैठा हुआ हो तो उसके दोनों हाथ नीचे से घुटने तक या बग़ल के नीचे एक दूसरे से बांध दिये जायें और उसके पांव खुले रखे जायें और मुस्तहब है कि परिन्दे को ज़ब्ह करने के बाद छोड़ दिया जाए ताकि वह अपने पर और बाल फड़फड़ा सके।

2. हैवान को ज़ब्ह (या नहर) करने से पहले उसके सामने पानी रखा जाए।

3. (ज़ब्ह या नहर करते वक़्त) ऐसा काम किया जाए कि हैवान को कम से कम तक्लीफ़ हो मसलन छुरी ख़ूब तेज़ कर ली जाए और हैवान को जल्दी ज़ब्ह किया जाए।

हैवानात के ज़ब्ह करने के मकरूहात

2609. हैवानात को ज़ब्ह करते वक़्त बाज़ रिवायात में चन्द चीज़ें मकरूह शुमार की गयी हैं –

1. हैवान की जान निकलने से पहले उसकी खाल उतारना।

2. हैवान को ऐसी जगह ज़ब्ह करना जहां उसकी नस्ल का दूसरा हैवान उसे देख रहा हो।

3. शबे जुमअ को या जुमअ के दिन ज़ौहर से पहले हैवान का ज़ब्ह करना। लेकिन अगर ऐसा करना ज़रूरत के तहत हो तो उसमें कोई ऐब नहीं।

4. जिस चौपाए को इंसान ने पाला हो उसे खुद अपने हाथ से ज़ब्ह करना।

हथियारों से शिकार करने के अहकाम

2610. अगर हलाल गोश्त जंगली हैवान का शिकार हथियारों के ज़रीए किया जाए और वह मर जाए तो पांच शर्तों के साथ वह हैवान हलाल और उसका बदन पाक होता हैः-

1. शिकार का हथियार छुरी और तलवार की तरह काटने वाला हो या नेज़े और तीर की तरह तेज़ हो ताकि तेज़ होने की वजह से हैवान के बदन को चाक कर दे और अगर हैवान का शिकार जाल या लकड़ी या पत्थर या उन्हीं जैसी चीज़ों के ज़रीए किया जाए तो वह पाक नहीं होता और उसका खाना भी हराम है। और अगर हैवान का शिकार बन्दूक से किया जाए और उसकी गोली इतनी तेज़ हो कि हैवान के बदन में घुस जाए और उसे चाक कर दे तो वह हैवान पाक और हलाल है। और अगर गोली तेज़ न हो बल्कि दबाव के साथ हैवान के बदन में दाखिल हो और उसे मार दे या अपनी गर्मी की वजह से उसका बदन जला दे और उस जलने के असर से हैवान मर जाए तो उस हैवान के पाक और हलाल होने में इश्काल है।

2. ज़रूरी है कि शिकारी मुसलमान हो या ऐसा मुसलमान बच्चा हो जो बुरे भले को समझता हो और अगर ग़ैर किताबी काफ़िर या वह शख़्स जो काफ़िर के हुक्म में हो जैसे नासिबी किसी हैवान का शिकार करे तो वह शिकार हलाल नहीं है। बल्कि किताबी काफ़िर भी अगर शिकार करे और अल्लाह का नाम भी ले तब भी एहतियात की बिना पर वह हैवान हलाल नहीं होगा।

3. शिकारी हथियार उस हैवान को शिकार करने के लिए इस्तेमाल करे और अगर मसलन कोई शख़्स किसी जगह को निशाना बना रहा हो और इत्तिफ़ाक़न एक हैवान को मार दे तो वह हैवान पाक नहीं है और उसका खाना भी हराम है।

4. हथियार चलाते वक़्त शिकारी अल्लाह का नाम ले और बिना बरे अक़्वा अगर निशाने पर लगने से पहले अल्लाह का नाम ले तो भी काफ़ी है। लेकिन अगर जान बूझ कर अल्लाह तआला का नाम न ले तो शिकार हलाल नहीं होता अलबत्ता भूल जाए तो कोई इश्काल नहीं।

5. अगर शिकारी हैवान के पास उस वक़्त पहुंचे जब वह मर चुका हो या अगर ज़िन्दा हो तो ज़ब्ह करने के लिए वक़्त न हो या ज़ब्ह के लिए वक़्त होते हुए वह उसे ज़ब्ह न करे हत्ता कि वह मर जाए तो हैवान हराम है।

2611. अगर दो अशख़ास (मिलकर) एक हैवान का शिकार करें और उन में से एक मज़कूरा पूरी शराइत के साथ शिकार करे लेकिन दूसरे के शिकार में मज़कूरा शराइत में से कुछ कम हों मसलन उन दोनों में से एक अल्लाह तआला का नाम ले और दूसरा जान बूझ कर अल्लाह तआला का नाम न ले तो हैवान हलाल नहीं है।

2612. अगर तीर लगने के बाद मिसाल के तौर पर हैवान पानी में गिर जाए और इंसान को इल्म हो कि हैवान तीर लगने और पानी में गिरने से मरा है तो वह हैवान हलाल नहीं है बल्कि अगर इंसान को यह इल्म न हो कि वह फ़क़त तीर से मरा है तब भी वह हैवान हलाल नहीं है।

2613. अगर कोई शख़्स ग़स्बी कुत्ते या ग़स्बी हथियार से किसी हैवान का शिकार करे तो शिकार हलाल है और खुद शिकारी का माल हो जाता है लेकिन इस बात का अलावा कि उस ने गुनाह किया है ज़रूरी है कि हथियार या कुत्ते की उजरत उसके मालिक को दे।

2614. अगर शिकार करने के हथियार मसलन तलवार से हैवान के बाज़ अअज़ा मसलन हाथ और पांव उस के बदन से जुदा कर दिये जायें तो वह उज़्व हराम है लेकिन अगर मस्अला 2610 में मज़कूरा शराइत के साथ उस हैवान को ज़ब्ह किया जाए तो उसका बाक़ीमांदा बदन हलाल हो जायेगा। लेकिन अगर शिकार के हथियार से मज़कूरा शराइत के साथ हैवान के बदन के दो टुकड़े कर दिये जायें और सर और गर्दन एक हिस्से में रहें और इंसान उस वक़्त शिकार के पास पहुंचे जब उसकी जान निकल चुकी हो तो दोनों हिस्से हलाल हैं। और अगर हैवान ज़िन्दा हो लेकिन उसे ज़ब्ह करने के लिए वक़्त न हो तब भी यही हुक्म है। लेकिन अगर ज़ब्ह करने के लिए वक़्त हो और मुम्किन हो कि हैवान कुछ देर ज़िन्दा रहे तो वह हिस्सा जिसमें सर और गर्दन न हो हराम है और वह हिस्सा जिसमें सर और गर्दन हो उसे शर्अ के मुअय्यन कर्दा तरीक़े के मुताबिक़ ज़ब्ह किया जाए तो हलाल है वर्ना वह भी हराम है।

2615. अगर लकड़ी या पत्थर या किसी दूसरी चीज़ से जिससे शिकार करना सहीह नहीं है किसी हैवान के दो टुकड़े कर दिये जायें तो वह हिस्सा जिसमें सर और गर्दन न हों हराम है और अगर हैवान ज़िन्दा हो और मुम्किन हो कि कुछ देर ज़िन्दा रहे और उसे शर्अ के मुअय्यन कर्दा तरीक़े के मुताबिक़ ज़ब्ह किया जाए तो वह हिस्सा जिसमें सर और गर्दन हों हलाल है वर्ना वह हिस्सा भी हराम है।

2616. जब किसी हैवान का शिकार किया जाए या उसे ज़ब्ह किया जाए और उसके पेट से ज़िन्दा बच्चा निकले तो अगर उस बच्चे को शर्अ के मुअय्यन कर्दा तरीक़े के मुताबिक़ ज़ब्ह किया जाए तो हलाल वर्ना हराम है।

2617. अगर किसी हैवान का शिकार किया जाए या उसे ज़ब्ह किया जाए और उसके पेट से मुर्दा बच्चा निकले तो उस सूरत में कि जब बच्चा उस हैवान को ज़ब्ह करने से पहले न मरा हो और इसी तरह जब वह बच्चा हैवान के पेट से देर से निकलने की वजह से न मरा हो अगर उस बच्चे की बनावट मुकम्मल हो और ऊन या बाल उसके बदन पर उगे हुए हों तो वह बच्चा पाक और हलाल है।

शिकारी कुत्ते से शिकार करना

2618. अगर शिकारी कुत्ता किसी हलाल गोश्त वाले जंगली हैवान का शिकार करे तो उस हैवान के पाक होने और हलाल होने के लिए छः शर्तें हैं –

1. कुत्ता इस तरह सुधाया हुआ हो कि जब भी उसे शिकार पकड़ने के लिए भेजा जाए और जब उसे जाने से रोका जाए तो रुक जाए। लेकिन अगर शिकार से नज़्दीक़ होने और शिकार को देखने के बाद उसे जाने से रोका जाए और न रुके तो कोई हरज नहीं है और लाज़िम है कि उसकी आदत ऐसी हो कि जब तक मालिक न पहुंचे शिकार को न खाए बल्कि अगर उसकी आदत यह हो कि अपने मालिक से पहुंचने से पहले शिकार से कुछ खा ले तो भी हरज नहीं है और इसी तरह अगर उसे शिकार का ख़ून पीने की आदत हो तो इश्काल नहीं।

2. उसका मालिक उसे शिकार के लिए भेजे और अगर वह अपने आप ही शिकार के पीछे जाए और किसी हैवान को शिकार कर ले तो उस हैवान का खाना हराम है। बल्कि अगर कुत्ता शिकार के पीछे लग जाए और बाद में उसका मालिक हांक लगाए ताकि वह जल्दी शिकार तक पहुंचे तो अगरचे वह मालिक की आवाज़ की वजह से तेज़ भागे फिर भी एहतियाते वाजिब की बिना पर उस शिकार को खाने से इज्तिनाब करना ज़रूरी है।

3. जो शख़्स कुत्ते को शिकार के पीछे लगाए ज़रूरी है कि मुसलमान हो उस तफ़्सील के मुताबिक़ जो असलहा से शिकार करने की शराइत में बयान हो चुकी हैं।

4. कुत्ते को शिकार के पीछे भेजते वक़्त शिकारी अल्लाह तआला का नाम ले और अगर जान भूझ कर अल्लाह तआला का नाम न ले तो शिकार हराम है लेकिन अगर भूल जाए तो इश्काल नहीं।

5. शिकार को कुत्ते के काटने से जो ज़ख़्म आए वह उससे मरे। लिहाज़ा अगर कुत्ता शिकार का गला घोंट दे या शिकार दौड़ने या डर जाने की वजह से मर जाए तो हलाल नहीं है।

6. जिस शख़्स ने कुत्ते को शिकार के पीछे भेजा हो अगर वह (शिकार किये गए हैवान के पास) उस वक़्त पहुंचे जब वह मर चुका हो तो अगर ज़िन्दा हो तो उसे ज़ब्ह करने के लिए वक़्त न हो लेकिन शिकार के पास पहुंचना ग़ैर मअमूली ताख़ीर की वजह से न हो। और अगर ऐसे वक़्त पहुंचे जब उसे ज़ब्ह करने के लिये वक़्त हो लेकिन वह हैवान को ज़ब्ह न करे हत्ता कि वह मर जाए तो वह हैवान हलाल नहीं है।

2619. जिस शख़्स ने कुत्ते को शिकार के पीछे भेजा हो अगर वह शिकार के पास उस वक़्त पहुंचे जब वह उसे ज़ब्ह कर सकता हो तो ज़ब्ह करने के लवाज़िमात मसलन अगर छुरी निकालने की वजह से वक़्त गुज़र जाए और हैवान मर जाए तो हलाल है लेकिन अगर उसके पास ऐसी कोई चीज़ हो जिस से हैवान को ज़ब्ह करे और वह मर जाए तो बिनाबरे एहतियात वह हलाल नहीं होता अलबत्ता उस सूरत में अगर वह शख़्स उस हैवान को छोड़ दे ताकि कुत्ता उसे मार डाले तो वह हैवान हलाल हो जाता है।

2620. अगर कई कुत्ते शिकार के पीछे भेजे जायें और वह सब मिलकर किसी हैवान का शिकार करें तो अगर वह सब के सब उन शराइत को पूरा करते हों जो मस्अला 2618 में बयान की गई हैं तो शिकार हलाल है और अगर उन में से एक कुत्ता भी उन शराइत को पूरा न करे तो शिकार हराम है।

2621. अगर कोई शख़्स कुत्ते को किसी हैवान के शिकार के लिए भेजे और वह कुत्ता कोई दूसरा हैवान शिकार कर ले तो वह शिकार हलाल और पाक है और जिस हैवान के पीछे भेजा गया हो उसे भी और एक और हैवान को भी शिकार कर ले तो वह दोनों हलाल और पाक हैं।

2622. अगर चन्द अश्ख़ास मिलकर एक कुत्ते को शिकार के लिए भेजें और उन में से एक शख़्स जान बूझ कर खुदा का नाम न ले तो वह शिकार हराम है नीज़ जो कुत्ते शिकार के पीछे भेजे गयें हो अगर उनमें से एक कुत्ता इस तरह सुधाया हुआ न हो जैसा कि मस्अला 2618 में बताया गया है तो वह हराम है।

2623. अगर बाज़ या शिकारी कुत्ते के अलावा कोई और हैवान किसी जानवर का शिकार करे तो वह शिकार हलाल नहीं है लेकिन अगर कोई शख़्स उस शिकार के पास पहुंच जाए और वह भी ज़िन्दा हो और उस तरीक़े मुताबिक़ जो शर्अ में मुअय्यन है उसे ज़ब्ह कर ले तो फिर वह हलाल है।

मछली और टिड्डी का शिकार

2624. अगर उस मछली को, जो पैदाइश से छिल्के वाली हो, अगरचे किसी आरज़ी वजह से उसका छिल्का उतर गया हो, पानी में से ज़िन्दा पकड़ लिया जाए और वह पानी से बाहर आकर मर जाए तो वह पाक है और उसका खाना हलाल है। और अगर वह पानी में मर जाए तो पाक है लेकिन उसका खाना हराम है। मगर यह कि वह मछेरे के जाल के अन्दर पानी में मर जाए तो उस सूरत में उसका खाना हलाल है। और जिस मछली के छिल्के न हों अगरचे उसे पानी में ज़िन्दा पकड़ लिया जाए और पानी के बाहर आ कर मरे – वह हराम है।

2625. अगर मछली (उछल कर) पानी से बाहर आ गिरे या पानी की लहर उसे बाहर फेंक दे या पानी उतर जाए और मछली ख़ुश्की पर रह जाए तो अगर उसके मरने से पहले कोई शख़्स उसे हाथ से या किसी और ज़रीए से पकड़ ले तो वह मरने के बाद हलाल है।

2626. जो शख़्स मछली का शिकार करे उसके लिए लाज़िम नहीं कि मुसलमान हो या मछली को पकड़ते वक़्त खुदा का नाम ले लेकिन यह ज़रूरी है कि मुसलमान देखे या किसी और ज़रीए से उसे (यअनी मुसलमान को) यह इत्मीनान हो गया हो कि मछली को पानी से ज़िन्दा पकड़ा है या वह मछली उस के जाल में पानी के अन्दर मर गई है।

2627. जिस मरी हुई मछली के मुतअल्लिक़ मअलूम न हो कि उसे पानी से ज़िन्दा पकड़ा गया है या मुर्दा हालत में पकड़ा गया है अगर वह मुसलमान के हाथ में हो तो हलाल है। लेकिन अगर काफ़िर के हाथ में हो तो ख़्वाह वह कहे कि उसने उसे ज़िन्दा पकड़ा है है, हराम है मगर यह कि इत्मीनान हो कि उस काफ़िर ने मछली को पानी से ज़िन्दा पकड़ा है या वह मछली उसके जाल में पानी के अन्दर मर गई है (तो हलाल है)।

2628. ज़िन्दा मछली का खाना जाइज़ है लेकिन बेहतर यह है कि उसे ज़िन्दा खाने से परहेज़ किया जाए।

2629. अगर ज़िन्दा मछली को भून लिया जाए या उसे पानी के बाहर मरने से पहले ज़ब्ह कर दिया जाये तो उसका खाना जाइज़ है एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसे खाने से परहेज़ किया जाए।

2630. अगर पानी से बाहर मछली के दो टुकड़े कर लिये जायें और उनमें से एक टुकड़ा ज़िन्दा होने की हालत में गिर जाए तो जो टुकड़ा पानी से बाहर रह जाए उसे खाना जाइज़ है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसे खाने से परहेज़ किया जाए।

2631. अगर टिड्डी को हाथ से या किसी और ज़रीए से ज़िन्दा पकड़ लिया जाए तो वह मर जाने के बाद हलाल है और यह लाज़िम नहीं कि उसका पकड़ने वाला मुसलमान हो और उसे पकड़ते वक़्त अल्लाह तआला का नाम ले। लेकिन अगर मुर्दा टिड्डी काफ़िर के हाथ में हो और यह मअलूम न हो कि उसने उसे ज़िन्दा पकड़ा था या नहीं तो अगरचे वह कहे कि उस ने ज़िन्दा पकड़ा था वह हराम है।

2632. जिस टिड्डी के पर अभी तक न उगे हों और उड़ न सकती हो उसका खाना हराम है।

खाने पीने की चीज़ों के अहकाम

2633. हर वह परिन्दा जो शाहीन, उक़ाब और बाज़ की तरह चीरने, फाड़ने और पंजे वाला हो हराम है और ज़ाहिर यह है कि हर वह परिन्दा जो उड़ते वक़्त परों को मारता कम, बे हरकत ज़्यादा रखता है और पंजेदार है, हराम होता है। और हर वह परिन्दा जो उड़ते वक़्त परों को मारता ज़्यादा और बे हरकत कम रखता है, वह हलाल है। इसी फ़र्क़ की बिना पर हराम गोश्त परिन्दों को हलाल गोश्त परिन्दों में से उनकी पर्वाज़ की कैफ़ियत देख कर पहचाना जा सकता है। लेकिन अगर किसी परिन्दे की पर्वाज़ की कैफ़ीयत मअलूम न हो तो अगर वह परिन्दा मोटा, संगदाना और पांव की पुश्त पर कांटा रखता हो तो वह हलाल है और अगर इन में से एक भी अलामत न रखता हो तो वह हराम है। और एहतियाते लाज़िम यह है कि कव्वे की तमाम अक़्साम हत्ता कि ज़ाग़ (पहाड़ी कव्वे) से भी इज्तिनाब किया जाए और जिन परिन्दों का ज़िक्र हो चुका है उन के अलावा दूसरे तमाम परिन्दे मसलन मुर्ग़, कबूतर और चिड़िया यहां तक कि शुतुरमुर्ग़ और मोर भी हलाल हैं। लेकिन बाज़ परिन्दों जैसे हुदहुद और अबाबील को ज़ब्ह करना मकरूह है। और जो हैवानात उड़ते हैं मगर पर नहीं रखते मसलन चमगादड़ हराम हैं। और एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़ंबूर (भिड़, शहद की मक्खी, ततैया) मच्छर और उड़ने वाले दूसरे कीड़े मकूड़े का भी यही हुक्म है।

2634. अगर उस हिस्से को जिस में रूह हो ज़िन्दा हैवान से जुदा कर लिया जाए मसलन ज़िन्दा भेड़ की चकती या गोश्त की कुछ मिक़्दार काट ली जाए तो वह नजिस और हराम है।

2635. हलाल गोश्त हैवानात के कुछ अज्ज़ा हराम हैं और उनकी तअदाद चौदा हैः-

1. खून। 2. फ़ुज़्ला। 3. उज़्वे तनासुल। 4. शर्मगाह। 5. बच्चादानी। 6. ग़ुदूद। 7. कपूरे। 8. वह चीज़ जो भेजे में होती है और चने के दाने की शक्ल की होती है। 9. हराम मग़्ज़ जो रीढ़ की हड्डी के दोनों तरफ़ होता है। 10. बिनाबरे एहतियाते लाज़िम वह रगें जो रीढ़ की हड्डी के दोनों तरफ़ होती हैं। 11. पित्ता। 12. तिल्ली। 13. मसाना। 14. आँख का ढेला।

यह सब चीज़ें परिन्दों के अलावा हलाल गोश्त हैवानात में हराम हैं। और परिन्दों का ख़ून और उन का फ़ुज़्ला बिला इश्काल हराम है। लेकिन इन दो चीज़ों (ख़ून और फ़ुज़्ले) के अलावा परिन्दों में वह चीज़ें हों जो ऊपर बयान की गई तो उनका हराम होना एहतियात की बिना पर है।

2636. हराम गोश्त हैवानात का पेशाब पीना हराम है और उसी तरह हलाल गोश्त हैवान – हत्ता कि एहतियातते लाज़िम की बिना पर ऊंट के पेशाब का भी यही हुक्म है। लेकिन इलाम के लिए ऊंट, गाय और भेड़ का पेशाब पीने में इश्काल नहीं है।

2637. चिकनी मिट्टी खाना हराम है नीज़ मिट्टी और बजरी खाना एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म रखता है अलबत्ता (मुल्तानी मिट्टी के मुमासिल) दाग़िस्तानी और आरमीनियाई मिट्टी वग़ैरा इलाज के लिए बहालते मजबूरी खाने में इश्काल नहीं है। और हुसूले शिफ़ा की ग़रज़ से (सैयिदुश्शहदा इमाम हुसैन अलैहिस्साल के मज़ारे मुबारक की मिट्टी यअनी) खाके शिफ़ा की थोड़ी सी मिक़्दार खाना जाइज़ है। और बेहतर यह है कि ख़ाके शिफ़ा की कुछ मिक़्दार पानी में हल कर ली जाए ताकि वह (हल हो कर) ख़त्म हो जाए और बाद में उस पानी को पी लिया जाए।

2638. नाक का पानी और सीने का बलग़म जो मुंह में आ जाए उसका निगलना हराम नहीं है नीज़ उस ग़िज़ा के निगलने में जो ख़िलाल करते वक़्त दांतों की रेख़ों से निकले कोई इश्काल नहीं है।

2639. किसी ऐसी चीज़ का खाना हराम है जो मौत का सबब बने या इंसान के लिए सख़्त नुक़्सानदेह हो।

2640. घोड़े, खच्चर और गधे खाना मकरूह है और कोई शख़्स उन से बदफ़ेली करे तो वह हैवान हराम हो जाता है और जो नस्ल बदफ़ेली के बाद पैदा हो एहतियात की बिना पर वह भी हराम हो जाती है और उनका पेशाब और लीद नजिस हो जाती है ज़रूरी है कि उन्हें शहर से बाहर ले जा कर दूसरी जगह बेच दिया जाए और अगर बदफ़ेली करने वाला उस हैवान का मालिक न हो तो उस पर लाज़िम है कि उस हैवान की क़ीमत उस के मालिक को दे। और अगर कोई शख़्स हलाल गोश्त हैवान मसलन गाय या भेड़ से बदफ़ेली करे तो उनका पेशाब और गोबर नजिस हो जाता है और उन का गोश्त खाना हराम है और एहतियात की बिना पर उन का दूध पीने का और उनकी जो नस्ल बदफ़ेली के बाद पैदा हो उस का भी यही हुक्म है। और ज़रूरी है कि ऐसे हैवान को फ़ौरन ज़ब्ह कर के जला दिया जाये और जिस ने उस हैवान के साथ बदफ़ेली की हो अगर वह उस का मालिक न हो तो उसकी क़ीमत उस के मालिक को अदा करे।

2641. अगर बकरी का बच्चा सुव्वरनी का दूध इतनी मिक़्दार में पी ले कि उसका गोश्त और हड्डियां उससे क़ुव्वत हासिल करें तो खुद वह और उसकी नस्ल हराम हो जाती हैं और अगर वह उससे कम मिक़्दार में दूध पिये तो एहतियात की बिना पर लाज़िम है कि उसका इस्तिबरा किया जाए और उसके बाद वह हलाल हो जाता है और उसका इस्तिबरा यह है कि सात दिन पाक दूध पिये और अगर उसे दूध की हाजत न हो तो सात दिन घास खाए। और भेड़ का शीरख़्वार बच्चा गाय का बच्चा और दूसरे हलाल गोश्त हैवानों के बच्चे – एहतियाते लाज़िम की बिना पर – बकरी के बच्चे के हुक्म में हैं। और नजासत खाने वाले हैवान का गोश्त खाना भी हराम है और अगर उसका इस्तिबरा किया जाए तो हलाल हो जाता है और उसके इस्तिबरा की तरकीब मस्अला 226 में बयान हुई है।

2642. शराब पीना हराम है और अहादीस में उसे गुनाहे कबीरा बताया गया है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्साल से रिवायत है कि आप ने फ़रमाया, शराब बुराइयों की जड़ और गुनाहों का मंबअ है। जो शख़्स शराब पिये वह अपनी अक़्ल खो बैठता है और उस वक़्त ख़ुदा ए तआला को नहीं पहचानता, कोई भी गुनाह करने से नहीं चुकता। किसी शख़्स का एहतिराम नहीं करता, अपने क़रीबी रिश्तेदारों के हुक़ूक़ का पास नहीं करता, खुल्लम खुल्ला बुराई करने से नहीं शर्माता। पस ईमान और खुदा शनासी को रूह उसके बदन से निकल जाती है और नाक़िस ख़बीस रूह जो ख़ुदा की रहमत से दूर होती है उसके बदन में रह जाती है। ख़ुदा और उसके फ़रिश्ते नीज़ अंबिया व मुरसलीन और मोमिनीन उस पर लअनत भेजते हैं, चालीस दिन तक उसकी नमाज़ नहीं क़बूल होती, क़ियामत के दिन उसका चेहरा सियाह होगा और उसकी ज़बान (कुत्ते की तरह) मुंह से बाहर निकली हुई होगी, उसकी राल सीने पर टपकती होगी और वह प्यास की शिद्दत से वावैला करेगा।

2643. जिस दस्तरख़्वान पर शराब पी जा रही हो उस पर चुनी हुई कोई चीज़ खाना हराम है और इसी तरह उस दस्तरख़्वान पर बैठना जिस पर शराब पी जा रही हो, अगर उस पर बैठने से इंसान शराब पीने वालों में शुमार होता हो तो एहतियात की बिना पर, हराम है।

2644. हर मुसलमान पर वाजिब है कि उसके अड़ोस पड़ोस में जब कोई दूसरा मुसलमान भूक या प्यास से जां बलब हो तो उसे रोटी और पानी देकर मरने से बचाए।

खाना खाने के आदाब

2645. खाना खाने के आदाब में चन्द चीज़ें मुस्तहब शुमार की गयी हैं –

1. खाना खाने से पहले खाने वाला दोनों हाथ धोए।

2. खाना खा लेने के बाद अपने हाध धोए और रूमाल (तौलिये वग़ैरा) से ख़ुश्क करे।

3. मेज़बान सब से पहले खाना खाना शुरू करे और सब के बाद खाने से हाथ खींचे और खाना शुरू करने से क़ब्ल मेज़बान सबसे पहले अपने हाथ धोए उस के बाद जो शख़्स उसकी दाई तरफ़ बैठा हो वह धोए इसी तरह सिलसिलेवार हाथ धोते रहें हत्ता कि नौबत उस शख़्स तक आ जाए जो उसके बाई तरफ़ बैठा हो और खाना खा लेने के बाद जो शख़्स मेज़बान की बाई तरफ़ बैठा हो सब से पहले वह हाथ धोए और इसी तरह धोते चले जायें हत्ता कि नौबत मेज़बान तक पहुंच जाए।

4. खाना खाने से पहले बिस्मिल्लाह पढ़े लेकिन अगर एक दस्तरख़्वान पर अनवाओ अक़्साम के खाने हों तो उन में से हर खाने से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना मुस्तहब है।

5. खाना दायें हाथ से खाए।

6. तीन या ज़्यादा उंगलियों से खाना खाए और दो उंगलियों से न खाए।

7. अगर चन्द अश्ख़ास दस्तरख़्वान पर बैठें तो हर एक अपने सामने से खाना खाए।

8. छोटे छोटे लुक़्में बना कर खाए।

9. दस्तरख़्वान पर देर तक बैठे और खाने को तूल दे।

10. खाना खूब अच्छी तरह चबा कर खाए।

11. खाना खा लेने के बाद अल्लाह तआला का शुक्र बजा लाए।

12. उंगलियों को चाटे।

13. खाना खाने के बाद दांतों में ख़िलाल करे अलबत्ता रैहान के तिंके या खजूर के दरख़्त के पत्ते से खिलाल न करे।

14. जो ग़िज़ा दस्तरख़्वान से बाहर गिर जाए उसे जमअ करे और खा ले लेकिन अगर जंगल में खाना खाए तो मुस्तहब है कि जो कुछ गिरे उसे दरिन्दों और जानवरों के लिए छोड़ दे।

15. दिन और रात की इब्तिदा में खाना खाए और दिन के दरमियान में और रात के दरमियान में न खाए।

16. खाना खाने के बाद पीठ के बल लेटे और दायां पांव बायें पांव पर रखे।

17. खाना शुरू करते वक़्त और खा लेने के बाद नमक चखे।

18. फल खाने से पहले उन्हें पानी से धो ले।

वह बातें जो खाना खाते वक़्त मकरूह हैं

2646. खाना खाते वक़्त चन्द चीज़ें मज़्मूम शुमार की गई हैं –

1. भरे पेट पर खाना खाना।

2. गर्म खाना खाना।

3. जो चीज़ खाई या पी जा रही हो उसे फूंक मारना।

4. दस्तरख़्वान पर खाना लग जाने के बाद किसी और चीज़ का मुंतज़िर होना।

5. रोटी को छुरी से काटना।

6. बहुत ज़्यादा खाना – रिवायत में है कि ख़ुदावन्दे आलम के नज़्दीक बहुत ज़्यादा खाना सबसे बुरी चीज़ है।

7. खाना खाते वक़्त दूसरों के मुंह की तरफ़ देखना।

8. रोटी को बर्तन के नीचे रखना।

9. हड्डी से चिप्के हुए गोश्त को यूं खाना कि हड्डी पर बिल्कुल गोश्त बाक़ी न रहे।

10. उस फल का छिल्का उतारना जो छिल्के के साथ खाया जाता है।

11. फल पूरा खाने से पहले फेंक देना।

पानी पीने के आदाब

2647. पानी पीने के आदाब में चन्द चीज़ें शुमार की गई हैं –

1. पानी चूसने के तर्ज़ पर पिये।

2. पानी दिन में खड़े होकर पिये।

3. पानी पीने से पहले बिस्मिल्लाह और पीने के बाद अलहम्दुलिल्लाह कहे।

4. पानी (गटागट न पिये बल्कि) तीन सांस में पिये।

5. पानी ख़्वाहिश के मुताबिक़ पिये।

6. पानी पीने के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्साल और उनके अहले हरम को याद करे और उनके क़ातिलों पर लअनत भेजे।

वह बातें जो पानी पीते वक़्त मकरूह हैं –

2648. ज़्यादा पानी पीना, मुरग्ग़न खाने के बाद पानी पीना और रात को खड़े हो कर पानी पीना मज़्मूम शुमार किया जाता है। अलावा अज़ीं पानी बायें हाथ से पीना और इसी तरह कूज़े (वग़ैरा) की टूटी हुई जगह से और उस जगह से पीना जहां कूज़े का दस्ता हो मज़्मूम शुमार किया गया है।

मन्नत और अहद के अहकाम

2649. मन्नत यह है कि इंसान अपने आप पर वाजिब कर ले कि अल्लाह तआला की रिज़ा के लिए कोई अच्छा काम करेगा या कोई ऐसा काम जिसका न करना बेहतर हो तर्क कर देगा।

2650. मन्नत में सीग़ा पढ़ना ज़रूरी है। और यह लाज़िम नहीं कि सीग़ा अरबी में ही पढ़ा जाए लिहाज़ा अगर कोई शख़्स कहे कि, मेरा मरीज़ सेहतयाब हो गया तो अल्लाह तआला की ख़ातिर मुझ पर लाज़िम है कि मैं दस रुपये फ़क़ीर को दूं, तो उसकी मन्नत सहीह है।

2651. ज़रूरी है कि मन्नत मानने वाला बालिग़ और आक़िल हो नीज़ अपने इरादे और इख़तियार के साथ मन्नत माने। लिहाज़ा किसी ऐसे शख़्स का मन्नत मानना जिसे मजबूर किया जाए या जो जज़्बात में आकर बग़ैर इरादे के बे इख़्तियार मन्नत माने तो सहीह नहीं है।

2652. कोई सफ़ीह अगर मन्नत माने मसलन यह कि कोई चीज़ फ़क़ीर को देगा तो उसकी मन्नत सहीह नहीं है। और इसी तरह अगर कोई दीवालिया शख़्स मन्नत माने कि मसलन अपने अस्ल माल में से जिस में तसर्रुफ़ करने से उसे रोक दिया गया हो कोई चीज़ फ़क़ीर को देगा तो उसकी मन्नत सहीह नहीं है।

2653. शौहर की इजाज़त के बग़ैर औरत का उन कामों में मन्नत मानना जो शौहर के हुक़ूक़ के मनाफ़ी हो सहीह नहीं है। और इसी तरह औरत का अपने माल में शौहर की इजाज़त के बग़ैर मन्नत मानना महल्ले इश्काल है। लेकिन (अपने माल में से शौहर की इजाज़त के बग़ैर) हज करना, ज़कात और सदक़ा देना और मां बाप से हुस्ने सुलूक और रिश्तेदारों से सिला ए रहिमी करना (सहीह है)।

2654. अगर औरत शौहर की इजाज़त के बग़ैर या उसकी इजाज़त से मन्नत माने तो शौहर उसकी मन्नत ख़त्म नहीं कर सकता और न ही उसे मन्नत पर अमल करने से रोक सकता है।

2655. अगर बेटा बाप की इजाज़त के बग़ैर या उसकी इजाज़त से मन्नत माने तो ज़रूरी है कि उस पर अमल करे लेकिन अगर बाप या मां उसे इस काम से जिसकी उसने मन्नत मानी हो इस तरह मन्अ करें कि उनके मनअ करने के बाद उस पर अमल करना उसके लिए बेहतर न हो तो उसकी मन्नत कलअदम हो जायेगी।

2656. इंसान किसी ऐसे काम की मन्नत मान सकता है जिसे अंजाम देना उसके लिए मुम्किन हो लिहाज़ा जो शख़्स मसलन पैदल चलकर कर्बला न जा सकता हो अगर वह मन्नत माने कि वहां तक पैदल आयेगा तो उसकी मन्नत सहीह नहीं है।

2657. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि कोई हराम या मकरूह काम अंजाम देगा या कोई वाजिब या मुस्तहब काम तर्क कर देगा तो उसकी मन्नत सहीह नहीं है।

2658. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि किसी मुबाह काम करने को अंजाम देगा या तर्क करेगा लिहाज़ा अगर उस काम का बजा लाना और तर्क करना हर लिहाज़ से मसावी हो तो उसकी मन्नत सहीह नहीं है और अगर उस काम का अंजाम देना किसी लिहाज़ से बेहतर हो और इंसान मन्नत भी उसी लिहाज़ से माने मसलन मन्नत माने कि कोई (ख़ास) ग़िज़ा खायेगा ताकि अल्लाह की इबादत के लिए उसे तवानाई हासिल हो तो उसकी मन्नत सहीह है। और अगर उस काम का तर्क करना किसी लिहाज़ से बेहतर हो और इंसान मन्नत भी उसी लिहाज़ से माने कि उस काम को तर्क कर देगा मसलन चूंकि तंबाकू मुज़िरे (सेहत) है इस लिए मन्नत माने कि उसे इस्तेमाल नहीं करेगा तो उसकी मन्नत सहीह है। लेकिन अगर बादद में तम्बाकू का इस्तेमाल तर्क करना उसके लिए नुक़्सानदेह हो तो उसकी मन्नत कलअदम हो जायेगी।

2659. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि वाजिब नमाज़ ऐसी जगह पढ़ेगा जहां बजाए खुद नमाज़ पढ़ने का सवाब ज़्यादा नहीं मसलन मन्नत माने कि नमाज़ कमरे में पढ़ेगा तो अगर वहां नमाज़ पढ़ना किसी से बेहतर हो मसलन चूंकि वहां खलबत है इस लिए इंसान हुज़ूरे क़ब्ल पैदा कर सकता है अगर उसके मन्नत मानने का मक़्सद यही है तो मन्नत सहीह है।

2660. अगर एक शख़्स कोई अमल बजा लाने की मन्नत तो ज़रूरी है कि वह अमल उसी तरह बजा लाए जिस तरह मन्नत मानी हो लिहाज़ा अगर मन्नत माने कि महीने की पहली तारीख़ को सदक़ा देगा या रोज़ा रखेगा या (महीने की पहली तारीख़ को) अव्वले माह की नमाज़ पढ़ेगा तो अगर उस दिन से पहले या बाद में उस अमल को बजा लाए तो काफ़ी नहीं है। इसी तरह अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि जब उसका मरीज़ सेहतयाब हो जायेगा तो वह सदक़ा देगा तो अगर उस मरीज़ के सेहतयाब होने से पहले सदक़ा दे दे तो काफ़ी नहीं है।

2661. अगर कोई शख़्स रोज़ा रखने की मन्नत माने लेकिन रोज़ो का वक़्त और तअदाद मुअय्यन न करे तो अगर रोज़ा रखे तो काफ़ी है। अगर नमाज़ पढ़ने की मन्नत माने और नमाज़ों की मिक़्दार और ख़ुसूसीयात मुअय्यन न करे तो अगर एक दो रक्अती नमाज़ पढ़ ले तो काफ़ी है। और अगर मन्नत माने की सदक़ा देगा और सदक़े की जिन्स और मिक़्दार मुअय्यन न करे तो अगर ऐसी चीज़ दे कि लोग कहें कि उस ने सदक़ा दिया है तो फिर उसने अपनी मन्नत के मुताबिक़ अमल कर दिया है और अगर मन्नत माने कि कोई काम अल्लाह तआला की ख़ुशनूदी के लिए बजा लायेगा तो अगर एक (दो रक्अती) नमाज़ पढ़ ले या एक रोज़ा रख ले या कोई चीज़ सदक़ा दे दे तो उसने अपनी मन्नत निभा ली है।

2662. अगर कोई शख़्स मन्न्त माने कि एक ख़ास दिन रोज़ा रखेगा तो ज़रूरी है कि उसी दिन रोज़ा रखे और अगर जानबूझ कर रोज़ा न रखे तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा भी दे और अज़हर यह है कि उसका कफ़्फ़ारा क़सम का कफ़्फ़ारा है जैसा कि बाद में बयान किया जायेगा लेकिन उस दिन वह इख़तियारन यह कर सकता है कि सफ़र करे और रोज़ा न रखे और अगर सफ़र में हो तो लाज़िम नहीं कि ठहरने की नीयत कर के रोज़ा रखे और उस सूरत में जब कि सफ़र की वजह से या किसी दूसरे उज़्र मसलन बीमारी या हैज़ की वजह से रोज़ा न रखे तो लाज़िम है कि रोज़े की क़ज़ा केर लेकिन कफ़्फ़ारा नहीं है।

2663. अगर इंसान हालते इख़्तियार में अपनी मन्नत पर अमल न करे तो कफ़्फ़ारा देना ज़रूरी है।

2664. अगर कोई शख़्स एक मुअय्यन वक़्त तक कोई अमल तर्क करने की मन्नत माने तो उस वक़्त के गुज़रने के बाद उस अमल को बजा ला सकता है और अगर उस वक़्त के गुज़रने से पहले भूल कर या ब अम्रे मजबूरी उस अमल को अंजाम दे तो उस पर कुछ वाजिब नहीं है लेकिन फिर भी लाज़िम है कि वह वक़्त आने तक उस अमल को अंजाम न दे और अगर उस वक़्त के आने से पहले बग़ैर उज़्र के उस अमल को दोबारा अंजाम दे तो ज़रूरी है कि कफ़्फ़ारा दे।

2665. जिस शख़्स ने कोई अमल तर्क करने की मन्नत मानी हो और उसके लिए कोई वक़्त मुअय्यन न किया हो अगर वह भूल कर या बअम्रे मजबूरी या ग़फ़लत की वजह से उस अमल को अंजाम दे तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है लेकिन उस के बाद जब भी बहालते इख़्तियार उस माल को बजा लाए ज़रूरी है कि कफ़्फ़ारा दे।

2666. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि हर हफ़्ते एक मुअय्यन दिन का मसलन जुमुए का रोज़ा रखेगा तो अगर एक जुमुए के दिन ईदे फ़ित्र या ईदे क़ुर्बान पड़ जाए या जुमा के दिन उसे कोई और उज़्र मसलन सफ़र दरपेश हो या हैज़ आ जाए तो ज़रूरी है कि उस दिन रोज़ा न रखे और उसकी क़ज़ा बजा लाए।

2667. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि एक मुअय्यन मिक़्दार में सदक़ा देगा तो अगर वह सदक़ा देने से पहले मर जाए तो उसके माल में से उतनी मिक़्दार में सदक़ा देना लाज़िम नहीं है और बेहतर यह है कि उसके बालिग़ वरसा मीरास में से अपने हिस्से से उतनी मिक़्दार मैयित की तरफ़ से सदक़ा दे दें।

2668. अगर कोई शख़्स मन्नत माने कि एक मुअय्यन फ़क़ीर को सदक़ा देगा तो वह किसी दूसरे फ़क़ीर को नहीं दे सकता और अगर वह मुअय्यन कर्दा फ़क़ीर मर जाए तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि सदक़ा उसके पस्मांदागान को दे।

2669. अगर कोई मन्नत माने कि आइम्मा (अ0) में से किसी एक मसलन हज़रत इमाम हुसैन (अ0) की ज़ियारत से मुशर्रफ़ होगा तो अगर किसी उज़्र की वजह से उन इमाम (अ0) की ज़ियारत न कर सके तो उस पर कुछ भी वाजिब नहीं है।

2670. जिस शख़्स ने ज़ियारत करने की मन्नत मानी हो लेकिन ग़ुस्ले ज़ियारत और उसकी नमाज़ की मन्नत न मानी हो तो उसके लिए उन्हें बजा लाना लाज़िम नहीं है।

2671. अगर कोई शख़्स किसी इमाम या इमामज़ादे के हरम के लिए माल ख़र्च करने की मन्नत माने और कोई ख़ास मसरफ़ मुअय्यन न करे तो ज़रूरी है कि उस माल को उस हरम की तामीर (व मरम्मत) रौशनियों और क़ालीन वग़ैरा पर सर्फ़ करे।

2672. अगर कोई शख़्स किसी इमाम के लिये कोई चीज़ नज़्र करे तो अगर किसी मुअय्यन मसरफ़ की नीयत की हो तो ज़रूरी है कि उस चीज़ को उसी मसरफ़ में लाए और अगर किसी मुअय्यन मसरफ़ की नीयत न की हो तो ज़रूरी है कि उसे ऐसे मसरफ़ में ले आए जो इमाम से निस्बत रखता हो मसलन उस इमाम (अ0 स0 ) के नादार ज़ाइरीन पर ख़र्च करे या उस इमाम के हरम के मसारिफ़ पर ख़र्च करे या ऐसे कामों में ख़र्च करे जो इमाम का तज़्किरा आम करने का सबब हों। और अगर कोई चीज़ किसी इमाम ज़ादे की नज़्र करे तब भी यही हुक्म है।

2673. जिस भेड़ को सदक़े के लिए या किसी इमाम के लिए नज़्र किया जाए अगर वह नज़्र के मसरफ़ में लाए जाने से पहले दूध दे या बच्चा जने तो वह (दूध या बच्चा) उस का माल है जिस ने उस भेड़ को नज़्र किया हो मगर यह कि उसकी नीयत आम हो (यअनी नज़्र करने वाले ने उस भेड़, उसके बच्चे और दूध वग़ैरा सब चीज़ों की मन्नत मानी हो तो वह सब नज़्र है) अलबत्ता भेड़ की ऊन और जिस मिक़्दार में वह फ़रबेह हो जाए नज़्र का जुज़्व है।

2674. जब कोई मन्नत माने कि अगर उसका मरीज़ तन्दुरूस्त हो जाए या उसका मुसाफ़िर वापस आ जाए तो वह फ़लां काम करेगा तो अगर पता चले कि मन्नत मानने से पहले मरीज़ तन्दुरूस्त हो गया था या मुसाफ़िर वापस आ गया था तो फिर मन्नत पर अमल करना लाज़िम नहीं।

2675. अगर बाप या मां मन्नत मानें कि अपनी बेटी की शादी सैयिदज़ादे से करेंगे तो बालिग़ होने के बाद लड़की इस बारे में खुद मुख़्तार है और वालिदैन की मन्नत की कोई अहम्मीयत नहीं।

2676. जब कोई शख़्स अल्लाह तआला से अहद करे कि जब उसकी कोई मुअय्यन शरई हाजत पूरी हो जायेगी तो फ़लां काम करेगा। पस जब उसकी हाजत पूरी हो जाए तो ज़रूरी है कि वह काम अंजाम दे। नीज़ अगर कोई हाजत न होते हुए अहद करे कि फ़ंला काम अंजाम देगा तो वह काम करना उस पर वाजिब हो जाता है।

2677. अह्द में भी मन्नत की तरह सीग़ा पढ़ना ज़रूरी है। और (उलमा के बीच) मशहूर यह है कि कोई शख़्स जिस काम के अंजाम देने का अह्द करे ज़रूरी है कि या तो वाजिब और मुस्तहब नमाज़ों की तरह इबादत हो या ऐसा काम हो जिस का अंजाम देना शरअन उस के तर्क करने से बेहतर हो लेकिन ज़ाहिर यह है कि यह बात मोतबर नहीं है। बल्कि अगर उस तरह हो जैसे मस्अला 2680 में क़सम के अहकाम में आयेगा, तब भी अह्द सहीह है और उस काम को अंजाम देना सहीह है।

2678. अगर कोई शख़्स अपने अह्द पर अमल न करे तो ज़रूरी है कि कफ़्फ़ारा दे और साठ फ़क़ीरों को पेट भर खाना खिलाए या दो महीने मुसलसल रोज़े रखे या एक ग़ुलाम आज़ाद करे।

क़सम खाने के अहकाम

2679. जब कोई शख़्स क़सम खाए कि फ़लां काम अंजाम देगा या तर्क करेगा मसलन क़सम खाए कि रोज़ा रखेगा या तम्बाक़ू इस्तेमाल नहीं करेगा तो अगर बाद में जानबूझ कर इस क़सम के ख़िलाफ़ अमल करे तो ज़रूरी है कि कफ़्फ़ारा दे यअनी एक ग़ुलाम आज़ाद करे या दस फ़क़ीरों को पेट भर खाना खिलाए या उन्हें पोशाक पहनाए और अगर इन आमाल को बजा न ला सकता हो तो ज़रूरी है कि तीन दिन रोज़ा रखे और यह भी ज़रूरी है कि रोज़े मुसलसल रखे।

2680. क़सम की चन्द शर्तें हैं –

1. जो शख़्स क़सम खाए ज़रूरी है कि वह बालिग़ और आक़िल हो नीज़ अपने इरादे और इख़्तियार से क़सम खाए। लिहाज़ा बच्चे या दीवाने या बेहवास या उस शख़्स का क़सम खाना जिसे मजबूर किया गया हो दुरूस्त नहीं है। अगर कोई शख़्स जज़्बात में आकर बिला इरादा या बेइख़्तियार क़सम खाए तो उसके लिए भी यही हुक्म है।

2. (क़सम खाने वाला) जिस काम के अंजाम देने की क़सम खाए ज़रूरी है कि वह हराम या मकरूह न हो और जिस काम के तर्क करने की क़सम खाए ज़रूरी है कि वह वाजिब या मुस्तहब न हो। और अगर कोई मुबाह काम करने की क़सम खाए तो अगर उक़ला की नज़र में उस काम को अंजाम देना उसको तर्क करने से बेहतर हो तो उसकी क़सम सहीह है। बल्कि दोनों सूरतों में अगर उसका अंजाम देना या तर्क करना उक़ला की नज़र में बेहतर न हो लेकिन खुद उस शख़्स के लिए बेहतर हो तब भी उसकी क़सम सहीह है।

3. (क़सम खाने वाला) अल्लाह तआला के नामों में से किसी ऐसे नाम की क़सम खाए जो उस ज़ात के सिवा किसी और के लिए इस्तेमाल न होता हो मसलन खुदा और अल्लाह – और अगर ऐसे नाम की क़सम खाए जो उस ज़ात के सिवा किसी और के लिये भी इस्तेमाल होता हो लेकिन अल्लाह तआला के लिये इतनी कसरत से इस्तेमाल होता हो कि जब भी कोई वह नाम ले तो ख़ुदा ए बुज़ुर्ग व बरतर की ज़ात ही ज़िहन में आती हो मसलन अगर कोई ख़ालिक और राज़िक़ की क़सम खाए तो क़सम सहीह है। बल्कि अगर किसी ऐसे नाम की क़सम खाए कि जब उस नाम को तन्हा बोला जाए तो उस से सिर्फ़ ज़ाते बारी तआला ही ज़िहन में न आती हो लेकिन उस नाम को क़सम खाने के मक़ाम में इस्तेमाल किया जाए तो ज़ाते हक़ ही ज़िहन में आती हो मसलन समीइ और बसीर (की क़सम खाए) तब भी उसकी क़सम सहीह है।

4. (क़सम खाने वाला) क़सम के अल्फ़ाज़ ज़बान पर लाए – लेकिन अगर गूंगा शख़्स इशारे से क़सम खाए तो सहीह है और इसी तरह वह शख़्स जो बात करने पर क़ादिर न हो अगर क़सम को लिखे और दिल में नीयत कर ले तो काफ़ी है बल्कि इसके अलावा सूरतों में भी (काफ़ी है – नीज़) एहतियात तर्क नहीं होगी।

5. (क़सम खाने वाले के लिये) क़सम पर अमल करना मुम्किन हो। और अगर क़सम खाने के वक़्त उसके लिए उस पर अमल करना मुम्किन हो लेकिन बाद में आजिज़ हो जाए और उसने अपने आप को जानबूझ कर आजिज़ न किया हो तो जिस वक़्त से आजिज़ होगा उस वक़्त से उसकी क़सम या अह्द पर अमल करने से इतनी मशक़्क़त उठानी पड़े जो उसकी बर्दाश्त से बाहर हो तो उस सूरत में भी यही हुक्म है।

2681. अगर बाप बेटे को या शौहर, बीवी को क़सम खाने से रोके तो उनकी क़सम सहीह नहीं है।

2682. अगर बेटा, बाप की इजाज़त के बग़ैर और बीवी, शौहर की इजाज़त के बग़ैर क़सम खाए तो बाप और शौहर उनकी क़सम फ़स्ख़ कर सकते हैं।

2683. अगर इंसान भूल कर या मजबूरी की वजह से या ग़फ़लत की बिना पर क़सम पर अमल न करे तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है। और अगर उसे मजबूर किया जाए कि क़सम पर अमल न करे तब भी यही हुक्म है। और वह भी क़सम खाए मसलन यह कहे कि वल्लाह मैं अभी नमाज़ में मशग़ूल होता हूं और वहम की वजह से मशग़ूल न हो तो अगर उस का वहम ऐसा हो कि उसकी वजह से मजबूर होकर क़सम पर अमल न करे तो उस पर कफ़्फ़ारा नहीं है।

2684. अगर कोई शख़्स क़सम खाए कि मैं जो कुछ कह रहा हूं सच कह रहा हूं तो अगर वह सच कह रहा है तो उस का क़सम खाना मकरूह है और अगर झूट बोल रहा है तो हराम है बल्कि मुक़द्दमात के फ़ैसले के वक़्त झूटी क़सम खाना गुनाहे कबीरा में से है लेकिन अगर वह अपने आप को या किसी दूसरे मुसलमान को किसी ज़ालिम के शर से नजात दिलाने के लिये झूटी क़सम खाए तो इसमें इश्काल नहीं बल्कि बाज़ औक़ात ऐसी क़सम खाना वाजिब हो जाता है ताहम अगर तौरिया करना मुम्किन हो – यअनी क़सम खाते वक़्त क़सम के अल्फ़ाज़ के ज़ाहिरी मफ़हूम को छोड़कर दूसरे मतलब की नीयत करे और जो मतलब उसने लिया है उस को ज़ाहिर न करे – तो एहतियाते लाज़िम यह है कि तौरिया करे। मसलन अगर कोई ज़ालिम किसी को अज़ीयत देना चाहे और किसी दूसरे शख़्स से पूछे कि क्या तुम ने फ़लां शख़्स को देखा है ? और उस ने उस शख़्स को एक मिनट क़ब्ल देखा हो तो वह कहे कि मैंने उसे नहीं देखा और क़स्द यह करे कि इस वक़्त से पांच मिनट पहले मैंने उसे नहीं देखा।

वक़्फ़ के अहकाम

2685. अगर एक शख़्स कोई चीज़ वक़्फ़ करे तो वह उसकी मिल्कियत से निकल जाती है और वह खुद या दूसरे लोग न ही वह चीज़ किसी को बख़्श सकते हैं और न ही उसे बेच सकते हैं लेकिन बाज़ सूरतों में जिन का ज़िक्र मस्अला 2102 और मस्अला 2103 में किया गया है उसे बेचने में इश्काल नहीं।

2686. यह लाज़िम है कि वक़्फ़ का सीग़ा अरबी में पढ़ा जाए बल्कि मिसाल के तौर पर अगर कोई शख़्स कहे कि मैंने यह किताब तालिब ए इल्मों के लिये वक़्फ़ कर दी है तो वक़्फ़ सहीह है। बल्कि अमल से भी साबित हो जाता है। मसलन अगर कोई शख़्स वक़्फ़ की नीयत से चटाई मस्जिद में डाल दे या किसी इमारत को मस्जिद की नीयत से इस तरह बनाए जैसे मस्जिद बनाई जाती है तो वक़्फ़ साबित हो जायेगा। और उमूमी औक़ाफ़ मसलन मस्जिद, मदरसा या ऐसी चीज़ें जो आम लोगों के लिये वक़्फ़ की जायें या मसलन फ़ुक़रा और सादात के लिये वक़्फ़ की जायें उन के वक़्फ़ से सहीह होने में किसी का क़बूल करना लाज़िम नहीं है बल्कि बिनाबरे अज़हर ख़ुसूसी औक़ाफ़ मसलन जो चीज़ें औलाद के लिए वक़्फ़ की जायें उन में भी क़बूल करना मोतबर नहीं है।

2687. अगर कोई शख़्स अपनी किसी चीज़ को वक़्फ़ करने के लिये मुअय्यन करने के वक़्त से उस माल को हमेशा के लिये वक़्फ़ कर दे और मिसाल के तौर पर अगर वह कहे कि यह माल मेरे मरने के बाद वक़्फ़ होगा तो चूंकि वह माल सीग़ा पढ़ने के वक़्त से उसके मरने के वक़्त तक वक़्फ़ नहीं रहा इस लिये वक़्फ़ सहीह नहीं है। नीज़ अगर कहे कि यह माल दस साल तक वक़्फ़ रहेगा और फिर वक़्फ़ नहीं होगा या यह कहे कि यह माल दस साल के लिये वक़्फ़ होगा फिर पांच साल के लिये वक़्फ़ नहीं होगा और फिर दोबारा वक़्फ़ हो जायेगा तो वह वक़्फ़ सहीह नहीं है।

2688. अगर कोई शख़्स अपनी किसी चीज़ को वक़्फ़ करने के लिये मुअय्यन करे और वक़्फ़ करने से भी पच्छताए या मर जाए तो वक़्फ़ वुक़ूउ पज़ीर नहीं होता।

2689. ख़ुसूसी वक़्फ़ उस सूरत में सहीह है जब वक़्फ़ करने वाला वक़्फ़ का माल पहली पुश्त यअनी जिन लोगों के लिये वक़्फ़ किया गया है उनके या उनके वकील या सरपरस्त के तसर्रूफ़ में दे दे। लेकिन अगर कोई शख़्स कोई चीज़ अपने नाबालिग़ बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दे और इस नीयत से कि वक़्फ़ कर्दा चीज़ उन की मिल्कियत हो जाए उस चीज़ की निगहदारी करे तो वक़्फ़ सहीह है।

2690. ज़ाहिर यह है कि आम औक़ाफ़ मसलन मदरसों और मसाजिद वग़ैरा में क़ब्ज़ा मोतबर नहीं है बल्कि सिर्फ़ वक़्फ़ करने से उनका वक़्फ़ होना साबित हो जाता है।

2691. ज़रूरी है कि वक़्फ़ करने वाला बालिग़ और आक़िल हो नीज़ क़स्द और इख़्तियार रखता हो और शर्अन अपने माल में तसर्रूफ़ कर सकता हो लिहाज़ा अगर सफ़ीह – यअनी वह शख़्स जो अपना माल अहमक़ाना मालों में ख़र्च करता हो – कोई चीज़ वक़्फ़ करे तो चूंकि वह अपने माल में तसर्रूफ़ करने का हक़ नहीं रखता इस लिए (उसका किया हुआ वक़्फ़) सहीह नहीं।

2692. अगर कोई शख़्स किसी माल को ऐसे बच्चे के लिये वक़्फ़ करे जो मां के पेट में हो और अभी पैदा न हुआ हो तो उस वक़्फ़ का सहीह होना महल्ले इश्काल है। और लाज़िम है कि एहतियात मलहूज़ रखी जाए लेकिन अगर कोई माल ऐसे लोगों के लिये वक़्फ़ किया जाए जो अभी मौजूद हों और उनके बाद उन लोगों के लिये वक़्फ़ किया जाए जो बाद में पैदा हों तो अगरचे वक़्फ़ करते वक़्त वह मां के पेट में भी न हों वह वक़्फ़ सहीह है मसलन एक शख़्स कोई चीज़ अपनी औलाद के लिये वक़्फ़ करे कि उनके बाद उसके पोतों के लिये वक़्फ़ होगी और (औलाद के) हर गुरोह के बाद आने वाले गुरोह उस वक़्फ़ से इस्तिफ़ादा करेगा तो वक़्फ़ सहीह है।

2693. अगर कोई शख़्स किसी चीज़ को अपने आप पर वक़्फ़ करे मसलन कोई दुकान वक़्फ़ कर दे ताकि उसकी आमदनी उसके मरने के बाद उसके मक़्बिरे पर ख़र्च की जाए तो वह वक़्फ़ सहीह नहीं है। लेकिन मिसाल के तौर पर वह कोई माल फ़ुक़रा के लिए वक़्फ़ कर दे और खुद भी फ़क़ीर हो जाए तो वक़्फ़ के मुनाफ़े से इस्तिफ़ादा कर सकता है।

2694. जो चीज़ किसी शख़्स ने वक़्फ़ की हो अगर उसने उसका मुतवल्ली भी मुअय्यन किया हो तो ज़रूरी है कि हिदायात के मुताबिक़ अमल हो और अगर वाक़िफ़ ने मुतवल्ली मुअय्यन न किया हो और माल मख़्सूस अफ़राद पर मसलन अपनी औलाद के लिये वक़्फ़ किया हो तो वह उससे इस्तिफ़ादा करने में खुद मुख़्तार है और अगर बालिग़ न हों तो फिर उन का सरपरस्त मुख़्तार है और वक़्फ़ से इस्तिफ़ादा करने के लिये हाकिमें शर्अ की इजाज़त लाज़िम नहीं है लेकिन ऐसे काम जिसमें वक़्फ़ की बेहतरी या आइन्दा नस्लों की भलाई हो मसलन वक़्फ़ की तअमीर करना या वक़्फ़ को किराए पर देना कि जिस में बाद वाले तबक़े के लिए फ़ाइदा है तो उसका मुख़्तार हाकिमे शर्अ है।

2695. अगर मिसाल के तौर पर कोई शख़्स किसी माल को फ़ुक़रा या सादात के लिए वक़्फ़ करे या इस मक़्सद से वक़्फ़ करे कि उस माल का मुनाफ़ा बतौरे खैरात दिया जाए तो उस सूरत में कि उसने वक़्फ़ के लिए मुतवल्ली मुअय्यन न किया हो इस का इख़्तियार हाकिमे शर्अ को है।

2696. अगर कोई शख़्स किसी इमलाक को मख़्सूस अफ़राद मसलन अपनी औलाद के लिए वक़्फ़ करे ताकि एक पुश्त के बाद दूसरी पुश्त उस से इस्तिफ़ादा करे तो अगर वक़्फ़ का मुतवल्ली उस माल को किराए पर दे दे और उस के बाद मर जाए तो इजारा बातिल नहीं होता। लेकिन अगर उस इमलाक का मुतवल्ली न हो और जिन लोगों के लिये वह इमलाक वक़्फ़ हुई है उन में से एक पुश्त उसे किराए पर दे दे और इजारे की मुद्दत के दौरान वह पुश्त मर जाए और जो पुश्त उसके बाद हो वह उस इजारे की तस्दीक़ न करे तो इजारा बातिल हो जाता जायेगा और उस सूरत में अगर किरायादार ने पूरी मुद्दत का किराया अदा कर रखा हो तो मरने वाले की मौत के वक़्त से इजारे की मुद्दत के ख़ातिमे तक का किराया उस (मरने वाले) के माल से ले सकता है।

2697. अगर वक़्फ़ कर्दा इमलाक बर्बाद हो जाए तो उस के वक़्फ़ की हैसियत नहीं बदलती बुजुज़ उस सूरत के कि वक़्फ़ की हुई चीज़ किसी ख़ास मक़्सद के लिए वक़्फ़ हो और वह मक़्सद फ़ौत हो जाए। मसलन किसी शख़्स ने कोई बाग़ बतौरे बाग़ वक़्फ़ किया हो तो अगर वह बाग़ ख़राब हो जाए तो वक़्फ़ बातिल हो जायेगा और वक़्फ़ कर्दा माल वाक़िफ़ की मिल्कियत में दोबारा दाखिल हो जायेगा।

2698. अगर किसी इमलाक की कुछ मिक़्दार वक़्फ़ हो और कुछ मिक़्दार वक़्फ़ न हो और वह इमलाक तक़्सीम न की गई हो तो वह शख़्स जिसे तसर्रूफ़ करने का इख़्तियार है जैसे हाकिमे शर्अ वाक़िफ़ का मुतवल्ली और वह लोग जिन के लिए वक़्फ़ किया गया है बाख़बर लोगों की राय के मुताबिक़ वक़्फ़ शुदा हिस्सा जुदा कर सकते हैं।

2699. अगर वक़्फ़ का मुतवल्ली ख़ियानत करे मसलन उसका मुनाफ़ा मुअय्यन मदों में इस्तेमाल न करे तो हाकिमे शर्अ उसके साथ किसी अमीन शख़्स को लगा दे ताकि वह मुतवल्ली को ख़ियानत से रोके और अगर वह मुम्किन न हो तो हाकिमे शर्अ उसकी जगह कोई दियानतदार मुतवल्ली मुक़र्रर कर सकता है।

2700. जो क़ालीन (वग़ैरा) इमाम बारगाह के लिए वक़्फ़ किया गया हो उसे नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में नहीं ले जाया जा सकता ख़्वाह वह मस्जिद इमाम बाहगाह से मुलहिक़ ही क्यों न हो।

2701. अगर कोई इमलाक किसी मस्जिद की मरम्मत के लिए वक़्फ़ की जाए तो अगर उस मस्जिद को मरम्मत की ज़रूरत न हो और इस बात की तवक़्क़ो भी न हो कि आइन्दा या कुछ अर्से बाद उसे मरम्मत की ज़रूरत होगी नीज़ उस इमलाक की आमदनी को जमअ कर के हिफ़ाज़त करना भी मुम्किन न हो कि बाद में उस मस्जिद की मरम्मत में लगा दी जाए तो उस सूरत में एहतियाते लाज़िम यह है कि इमलाक की आमदनी को उस काम में सर्फ़ करे जो वक़्फ़ करने वाले के मक़्सूद से नज़्दीकतर हो मसलन उस मस्जिद की कोई दूसरी ज़रूरत पूरी कर दी जाए या किसी दूसरी मस्जिद की तामीर में लगा दी जाए।

2702. अगर कोई शख़्स कोई इमलाक वक़्फ़ करे ताकि उसकी आमदनी मस्जिद की मरम्मत पर ख़र्च की जाए और इमामे जमाअत को और मस्जिद के मुवज़्ज़िन को दी जाए तो उस सूरत में कि उस शख़्स ने हर एक के लिए कुछ मिक़्दार मुअय्यन की हो तो ज़रूरी है कि आमदनी उसी के मुताबिक़ ख़र्च की जाए और अगर मुअय्यन न की हो तो ज़रूरी है कि पहले मस्जिद की मरम्मत कराई जाए और फिर अगर कुछ बचे तो मुतवल्ली उसे इमामे जमाअत और मुवज़्ज़िन के दरमियान जिस तरह मुनासिब समझे तक़्सीम कर दे लेकिन बेहतर है कि यह दोनों अश्ख़ास तक़्सीम के मुतअल्लीक़ एक दूसरे से मुसालहत कर लें।