तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इबादात

वुज़ू

242. वुज़ू में वाजिब है कि चेहरा और दोंनो हाथ धोये जायें और सर के अगले हिस्से और दोंनो पांव के सामने वाले हिस्से का मसाह किया जाए।

243. चेहरे को लम्बाई में पेशानी के ऊपर उस जगह से लेकर जहां सर के बाल उगते हैं ठोड़ी के आख़िरी किनारे तक धोना ज़रूरी है और चौढ़ाई में बीच की उंगली और अंगूठे के फ़ैलाव में जितनी जगह आ जाये उसे धोना ज़रूरी है। अगर इस मिक़दार का ज़रा सा हिस्सा भी छूट जाए तो वुज़ू बातिल है। और अगर इन्सान को यह यक़ीन न हो कि ज़रूरी हिस्सा पूरा धुल गया है तो यक़ीन करने के लिये थोड़ा थोड़ा इधर उधर से धोना भी ज़रूरी है।

244. अगर किसी शख़्स के हाथ या चेहरा आम लोगों की बनिस्बत बड़े या छोटे हों तो उसे देखना चाहिये की आम लोग कहां तक अपना चेहरा धोते हैं फिर वह भी उतना ही धो डाले। अलावा अज़ी अगर उसकी पेशानी पर बाल उगे हुएं हों या सर के अगले हिस्से पर बाल न हों तो उसे चाहिये की आम अन्दाज़े के मुताबिक़ पेशानी धो डाले।

245. अगर इस बात का एहतिमाल हो कि भवों, आंख के गोशों और होठों पर मैल या कोई दूसरी चीज़ जो पानी के उन तक पहुंचने में माने है और उसका यह एहतिमाल लोगों की नज़रों में दरूस्त हो तो उसे वुज़ू से पहले तहक़ीक़ कर लेनी चाहिये। और अगर कोई ऐसी चीज़ हो तो उसे दूर करना चाहिये।

246. अगर चेहरे की जिल्द बालों के नीचे से नज़र आती हो तो पानी जिल्द तक पहुंचाना ज़रूरी है और अगर नज़र न आती हो तो बालों का धोना काफ़ी है और उनके नीचे तक पानी पहुंचाना ज़रूरी नहीं।

247. अगर किसी शख़्स को शक हो कि आया उसके चेहरे की जिल्द बालों के नीचे से नज़र आती है या नहीं तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि बालों को धोए और पानी जिल्द तक भी पहुंचाए।

248. नाक के अन्दरूनी हिस्से और होंठों और आंखों के उन हिस्सों का जो बन्द करने पर नज़र नहीं आते धोना वाजिब नहीं है। लेकिन अगर किसी इन्सान को यह यक़ीन न हो कि जिन जगहों का धोना ज़रूरी है उनमें कोई जगह बाक़ी नहीं रही तो वाजिब है कि उन अअज़ा का कुछ इज़ाफ़ी हिस्सा भी धो ले ताकि उसे यक़ीन हो जाए। और जिस शख़्स को इस (मज़कूरा) बात का इल्म न हो अगर उसने जो वुज़ू किया है उसमें ज़रूरी हिस्से धोने या न धोने के बारे में जानता हो तो उस वुज़ू से उसने जो नमाज़ पढ़ी है वह सहीह है और बाद की नमाज़ों के लिये वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है।

249. एहतियाते लाज़िम की बिना की बिना पर ज़रूरी है कि हाथों और उसी तरह चेहरे को ऊपर से नीचे की तरफ़ धोया जाए। अगर नीचे से ऊपर की तरफ़ धोए जायें तो वुज़ू बातिल होगा।

250. अगर हथेली पानी से तर करके चेहरे और हाथों पर फेरी जाए और हाथ में इतनी तरी हो कि उसे फेरने से पूरे चेहरे और हाथों पर पानी पहुंच जाए तो काफ़ी है। उन पर पानी का बहना ज़रूरी नहीं।

251. चेहरा धोने के बाद पहले दायां हाथ और फिर बायां हाथ कोहनी से उंगूलियों के सिरों तक धोना चाहिये।

252. अगर इंसान को यक़ीन न हो कि कोहनी को पूरी तरह धो लिया है तो यक़ीन करने के लिये कोहनी से ऊपर का कुछ हिस्सा भी धोना ज़रूरी है।

253. जिस शख़्स ने चेहरा धोने से पहले अपने हाथों को कलाई के जोड़ तक धोया हो उसे चाहिये कि वुज़ू करते वक़्त उंगलियों के सिरों तक धोए। अगर वह सिर्फ़ कलाई के जोड़ तक धोयेगा तो उसका वुज़ू बातिल होगा।

254. वुज़ू में चेहरे और हाथों का एक दफ़्आ धोना वाजिब, दूसरी दफ़्आ धोना मुस्तहब और तीसरी दफ़्आ या इससे ज़्यादा बार धोना हराम है। एक दफ़्आ धोना उस वक़्त मुकम्मल होगा जब वुज़ू की नियत से इतना पानी चेहरे या हाथ पर डाले कि वह पानी पूरे चेहरे या हाथ पर पहुंच जाए और एहतियातन कोई जगह बाक़ी न रहे लिहाज़ा अगर पहली दफ़्आ धोने की नियत से दस बार भी चेहरे पर पानी डाले तो इसमें कोई हरज नहीं है। यानी मसलन जब तक वुज़ू करने या चेहरा धोने की नियत न करे पहली बार शुमार नहीं होगा लिहाज़ा अगर चाहे तो चन्द बार चेहरे को धो ले और आख़िरी बार चेहरा धोते वक़्त वुज़ू की नियत कर सकता है। लेकिन दूसरी दफ़्आ धोने में नियत का मोतबर होना इश्क़ाल से ख़ाली नहीं है और एहतियाते लाज़िम यह है कि अगरचे वुज़ू की नियत से न भी हो तो एक दफ़्आ धोने के बाद एक बार से ज़्यादा चेहरे या हाथों को न धोएं।

255. दोनों हाथ धोने के बाद सर के अगले हिस्से का मसह वुज़ू के पानी की उस तरी से करना चाहिये जो हाधों को लगी रह गई हो और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मसह दायें हाथ से किया जाए जो ऊपर से नीचे की तरफ़ हो।

256. सर के चार हिस्सों में से पेशानी से मिला हुआ एक हिस्सा वह मक़ाम है जहां मसाह करना चाहिये। इस हिस्से में जहां भी और जिस अन्दाज़ में भी मसा करें काफ़ी है। अगर चे एहतियाते मुस्तहब यह है कि तूल में एक उंगली की लम्बाई के और अर्ज़ में तीन मिली हुई उंगलीयो के लगभग मसह किया जाए।

257. यह ज़रूरी नहीं कि सर का मसह जिल्द पर किया जाए बल्कि सर के अगले हिस्से के बालों पर करना भी दुरूस्त है लेकिन अगर किसी के सर के बाल इतने लम्बे हों कि मसलन अगर कंघा करे तो चहरे पर आ गिरें या सर के किसी दूसरे हिस्से तक जा पहुंचें तो ज़रूरी है कि वह बालों की जड़ों या मांग निकाल कर सर की जिल्द पर मसह करे। और अगर वह चेहरे पर आ गिरने वाले या सर के दूसरे हिस्सों तक पहुंचने वाले बालों को आगे की तरफ़ जमअ करके उन पर मसह करेगा या सर के दूसरे हिस्सों के बालों पर जो आगे को बढ़ आए हो मसह करेगा तो ऐसा मसह बातिल है।

258. सर के मसह के बाद वुज़ू के पानी की उस तरी से जो हाथों में बाक़ी हो पांव की किसी एक उंगली से लेकर पांव के जोड़ तक मसह करना ज़रूरी है। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि दांये पैर का दायें हाथ से और बायें पैर का बायें हाथ से मसह किया जाए।

259. पांव पर मसह का अरज़ जितना भी हो काफ़ी है लेकिन बेहतर है कि तीन जुड़ी हुई उंगूलीयों की चौड़ाई के बराबर हो और उससे भी बेहतर यह है कि पांव के पूरे ऊपरी हिस्से का मसह पूरी हथेली से किया जाए।

260. एहतियात यह है कि पांव का मसह करते वक़्त हाथ उंगलियों के सिरो पर रखे और फिर पांव के उभार की जानिब खींचे या हाथ पांव के जोड़ पर रख कर उंगलियों के सिरों की तरफ़ खीचें। यह दुरूस्त नहीं की पूरा हाथ पांव पर रखे और थोड़ा सा खींचे।

261. सर और पांव का मसह करते वक़्त हाथ उन पर खींचना ज़रूरी है। और अगर हाथ को साकिन रखे और सर या पांव को उस पर चलाए तो बातिल है लेकिन हाथ खींचने के वक़्त सर और पांव मामूली हरकत करें तो हरज नहीं।

262. जिस जगह का मसह करना हो वह ख़ुश्क होनी चाहिये। अगर वह इस क़दर तर हो कि हथेली की तरी उस पर असर न करे तो मसह बातिल है। लेकिन अगर उस पर नमी हो या तरी इतनी कम हो कि वह हथेली की तरी से ख़त्म हो जाए तो फिर कोई हर्ज नहीं।

263. अगर मसह करने के लिये हथेली पर तरी बाक़ी न रही हो तो उसे दूसरे पानी से तर नहीं किया जा सकता बल्कि ऐसी सूरत में अपनी दाढ़ी की तरी लेकर उससे मसह करना चाहिये। और दाढ़ी के अलावा और किसी जगह से तरी लेकर मसह करना महल्ले इश्काल है।

264. अगर हथेली की तरी सिर्फ़ सर के मसह के लिये काफ़ी हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि सर का मसह उस तरी से किया जाए और पांव के मसह के लिये अपनी दाढ़ी से तरी हासिल करे।

265. मोज़े और जूते पर मसह करना बातिल है। हां अगर सख़्त सर्दी की वजह से या चोर या दरिन्दे वग़ैरह के ख़ौफ़ से जूते या मोज़े न उतारे जा सकें तो एहतियात वाजिब यह है कि मोज़े और जूते पर मसह करें और तयम्मुम भी करें। और तक़ैया की सूरत में मोज़े और जूते पर मसह करना काफ़ी है।

266. अगर पांव का ऊपर वाला हिस्सा नजिस हो और मसह करने के लिये उसे धोया भी न जा सकता हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।

इरतिमासी वुज़ू

267. इरतिमासी वुज़ू यह है कि इन्सान चेहरे और हाथों को वुज़ू की नियत से पानी में डुबो दे। बज़ाहिर इरतिमासी तरीक़े से धुले हुए हाथ की तरी से मसह करने में कोई हरज नहीं है। लेकिन ऐसा करना ख़िलाफ़े एहतियात है।

268. इरतिमासी वुज़ू में भी चेहरा और हाथ ऊपर से नीचे की तरफ़ धोने चाहियें। लिहाज़ा जब कोई शख़्स वुज़ू की नियत से चेहरा और हाथ पानी में डुबोए तो ज़रूरी है कि चेहरा पेशानी की तरफ़ से और हाथ कोहनियों की तरफ़ से डुबोए।

269. अगर कोई शख़्स बाज़ अअज़ा का वुज़ू इरतिमासी तरीक़े से और बाज़ का ग़ैर इरतिमासी (यानी तरतीबी) तरीक़े से करे कोई हरज नहीं।

दुआयें जिनका वुज़ू करते वक़्त पढ़ना ज़रूरी है

270. जो शख़्स वुज़ू करने लगे उसके लिये मुस्तहब है कि जब उसकी नज़र पानी पर पड़े तो यह दुआ पढ़ेः-

बिस्मिल्लाहे व बिल्लाहे वलहम्दो लिल्लाहे जअलल माअ तहूरौं व लम् यज्अल्हो नजसा।

जब वुज़ू से पहले अपने हाथ धोए तो यह दुआ पढ़ेः-

अल्लाहुम्मज अल्नी मिनत्ताव्वबीना वज्अलनी मिनल मुततह्ह- रीना ।

कुल्ली करते वक़्त यह दुआ पढ़ेः-

अल्लाहुम्मा लक्केनी हुज्जती यौमा अल्क़ाका व अत्लिक़ लिसानी बे ज़िकरेका ।

नाक में पानी डालते वक़्त यह दुआ पढ़ेः-

अल्लाहुम्मा ला तुहरिम अलैय्या रीहल जन्नते वज् अल्नी मिम्मैंयशुम्मो रीहहा व रौहहा व तीबहा ।

चेहरा धोते वक़्त यह दुआ पढ़ेः-

अल्लाहुम्मा बैय्यिज़ वज्ही यौमा तसव्वदुल वुजूहो वला तुसव्विद वज्ही यौमा तब्यज्जुल वुजूहो ।

दायां हाथ धोते वक़्त यह दुआ पढ़ेः-

अल्लाहुम्मा अअतिनी किताबी बे यमीनी वल ख़ुल्दा फ़िल जिनाने यसारी व हासिब्नी हिसाबैं य्यसीरा ।

बायां हाथ धोते वक़्त यह दुआ पढ़ेः-

अल्लाहुम्मा ला तोअतिनी किताबी बेशिमाली वला मिंव्वराए ज़हरी व ला तज्अल्हा मग़लूलतुन इला उनुक़ी व अऊज़ोबिका मिंम्मुक़त्ते आतिन नीराने ।

सर का मसह करते वक़्त यह दुआ पढ़ेः-

अल्ला हुम्मा सब्बितनी अलस्सिराते यौमा तज़िल्लो फ़ीहिल अक़दामो वज्अल सअयी फ़ी मा युरज़ीक़ा अन्नी या ज़ल जलाले वल इकराम ।

वुज़ू सहीह होने की शरायत

वुज़ू के सहीह होने के चन्द शरायत हैः-

(पहली शर्त) वुज़ू का पानी पाक हो। एक क़ौल की बिना पर वुज़ू का पानी चीज़ों मसलन हलाल गोश्त के पेशाब, पाक मुर्दार और ज़ख़्स की रीम से आलूदा न हो जिनसे इन्सान को घिन आती हो अगर चे शरई लिहाज़ से (ऐसा पानी) पाक है और यह क़ौल एहतियात की बिना पर है।

(दूसरी शर्त) पानी मुतलक़ हो ।

271. नजिस या मुज़ाफ़ पानी से वुज़ू करना बातिल है ख़्वाह वुज़ू करने वाला शख़्स उसके नजिस या मुज़ाफ़ होने के बारे में इल्म न रखता हो या भूल गया हो कि वह नजिस या मुज़ाफ़ पानी है। लिहाज़ा अगर वह ऐसे पानी से वुज़ू करके नमाज़ पढ़ चुका हो तो सहीह वुज़ू करके दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।

272. अगर एक शख़्स के पास मिट्टी मिले हुए मुज़ाफ़ पानी के अलावा और कोई पानी वुज़ू के लिये न हो और नमाज़ का वक़्त तंग हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम कर ले। लेकिन अगर वक़्त तंग न हो तो ज़रूरी है कि पानी के साफ़ होने का इन्तेज़ार करे या किसी तरीक़े से उस पानी को साफ़ करे और वुज़ू करे।

(तीसरी शर्त) वुज़ू का पानी मुबाह हो ।

273. ऐसे पानी से वुज़ू करना जो ग़स्ब किया गया हो या उसके बारे में यह इल्म न हो कि इसका मालिक इसके इस्तेमाल पर राज़ी है या नहीं हराम और बातिल है। अलावा अगर चेहरे और हाथों से वुज़ू का पानी ग़स्ब की हुई जगह पर गिरता हो या वह जगह जिसमें वुज़ू कर रहा है ग़स्बी है और वुज़ू करने के लिये कोई और जगह भी न हो तो मुतअल्लिक़ा शख़्स का फ़रीज़ा तयम्मुम है। और अगर किसी दूसरी जगह वुज़ू कर सकता हो तो ज़रूरी है कि दूसरी जगह वुज़ू करे। लेकिन अगर दोंनो सूरतों में गुनाह का इरतिक़ाब करते हुए उसी जगह वुज़ू कर ले तो उसका वुज़ू सहीह है।

274. किसी मद्रसे के ऐसे हौज़ से वुज़ू करने में कोई हरज नहीं जिसके बारे में यह इल्म न हो कि आया वह तमाम लोंगो के लिये वक़्फ़ किया गया है या सिर्फ़ मद्रसे के तलबा के लिये वक़्फ़ है और सूरत यह हो कि लोग उमूमन उससे वुज़ू करते हों और कोई मनअ न करता हो।

275. अगर कोई शख़्स एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ना चाहता हो और यह भी न जानता हो कि आया इस मस्जिद का हौज़ तमाम लोगों के लिये वक़्फ़ है या सिर्फ़ उन लोगों के लिये जो इस मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं तो उसके लिये उस हौज़ से वुज़ू करना दुरूस्त नहीं लेकिन उमूमन वह लोग भी उस हौज़ से वुज़ू करते हों जो उस मस्जिद में नमाज़ न पढ़ना चाहते हों और कोई मनअ न करता हो तो वह शख़्स भी उस हौज़ से वुज़ू कर सकता है।

276. सराय, मुसाफ़िर ख़ानों और ऐसे ही दूसरे मक़ामात के हौज़ से उन लोगों का जो उसमें मुक़ीम न हो, वुज़ू करना उसी सूरत में दुरूस्त है जब उमूमन ऐसे लोग भी जो वहां मुक़ीम न हो उस हौज़ से वुज़ू करते हों और कोई मनअ न करता हो।

277. बड़ी नहरों से वुज़ू करने में कोई हरज नहीं अगरचे इन्सान न जानता हो कि उनका मालिक राज़ी है या नहीं। लेकिन उन नहरों का मालिक वुज़ू करने से मनअ करे या मालूम हो कि वह उनसे वुज़ू करने पर राज़ी नहीं या उनका मालिक नाबालिग़ या पागल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन नहरों के पानी से वुज़ू न करें।

278. अगर कोई शख़्स यह भूल जाए कि पानी ग़स्बी है और उससे वुज़ू कर ले तो उसका वुज़ू सहीह है। लेकिन अगर किसी शख़्स ने ख़ुद पानी ग़स्ब किया हो और बाद में भूल जाए कि यह पानी ग़स्बी है और उससे वुज़ू करले तो उसका वुज़ू सहीह होने में इश्क़ाल है।

(चौथी शर्त) वुज़ू का बर्तन मुबाह हो ।

(पांचवी शर्त) वुज़ू का बर्तन एहतियाते वाजिब की बिना पर सोने या चांदी का बना हुआ न हो । इन दो शर्तों की तफ़्सील बाद वाले मस्अले में आ रही है ।

279. अगर वुज़ू का पानी ग़स्बी या सोने चांदी के बर्तन में हो और उस शख़्स के पास उसके अलावा और कोई पानी न हो तो अगर वह उस पानी को शरई तरीक़े से दूसरे बर्तन में उंड़ेल सकता हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि उसे किसी दूसरे बर्तन में उंडेल ले और फिर उससे वुज़ू करे और अगर ऐसा करना आसान न हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है। और अगर उसके पास उसके अलावा दूसरा पानी मौजूद हो तो ज़रूरी है कि उससे वुज़ू करे। और अगर वह इन दोनों सूरतों में वह सहीह तरीक़े से अमल न करते हुए, उस पानी से जो ग़स्बी है या सोने चांदी के बर्तन में है वुज़ू करले तो उसका वुज़ू सहीह है।

280. अगर किसी हौज़ में मिसाल के तौर पर ग़स्ब की हुई एक ईंट या एक पत्थर लगा हो और उर्फ़े आम में उस हौज़ में से पानी निकालना उस ईंट या पत्थर पर तसर्रूफ़ न समझा जाए तो पानी का निकालना हराम है लेकिन उससे वुज़ू करना सहीह है।

181. अगर आइम्मा ए ताहिरीन (अ0) या उनकी औलाद के मक़्बिरे के सहन में जो पहले कब्रिस्तान था कोई हौज़ या नहर खोदी जाए और यह इल्म न हो कि सहन की ज़मीन कब्रिस्तान के लिये वक़्फ़ हो चुकी है तो उस हौज़ या नहर के पानी से वुज़ू करने में कोई हरज नहीं।

(छठी शर्त) वुज़ू के अअज़ा धोते वक़्त और मसह करते वक़्त पाक हों।

282. अगर वुज़ू मुकम्मल होने से पहले वह मुक़ाम नजिस हो जाए जिसे धोया जा चुका है या जिसका मसह किया जा चुका है तो वुज़ू सहीह है।

283. अगर अअज़ाए वुज़ू के सिवा बदन का कोई हिस्सा नजिस हो तो वुज़ू सहीह है लेकिन अगर पख़ाने या पेशाब के मुक़ाम को पाक न किया गया हो तो फिर एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले उन्हें पाक करें और फिर वुज़ू करे।

284. अगर वुज़ू के अअज़ा में से कोई उज़्व नजिस हो और वुज़ू करने के बाद मुतअल्लिक़ा शख़्स को शक गुज़रे कि आया वुज़ू करने से पहले उस उज़्व को धोया था या नहीं तो वुज़ू सहीह है लेकिन उस नजिस मक़ाम को धोना ज़रूरी है।

285. अगर किसी के चेहरे पर या हाथों पर कोई ऐसी ख़राश या ज़ख़्म हो जिससे ख़ून न रूकता हो और पानी उसके लिये मुज़िर न हो तो ज़रूरी है कि उस उज़्व के सहीह सालिम अअज़ा को तरतीबवार धोने के बाद ज़ख़्म या ख़राश वाले हिस्से को कुर बराबर पानी या जारी पानी में डुबो दे और उसे इस क़द्र दबाए की ख़ून बन्द हो जाए और पानी के अन्दर ही अपनी उंगली ज़ख़्म या ख़राश पर रख कर ऊपर से नीचे की तरफ़ खींचे ताकि उस (ख़राश या ज़ख़्म) पर पानी जारी हो जाए, इस तरह उसका वुज़ू सहीह हो जायेगा।

(सातवीं शर्त) वुज़ू करने और नमाज़ पढ़ने के लिये वक़्त काफ़ी हो ।

286. अगर वक़्त इतना तंग हो कि मुतअल्लिक़ा शख़्स वुज़ू करे तो सारी की सारी नमाज़ या उसका कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ना पड़े तो ज़रूरी है कि तयम्मुम कर ले लेकिन अगर तयम्मुम और वुज़ू के लिये तक़रीबन यक़्सा वक़्त दरकार हो तो फिर वुज़ू करे ।

287. जिस शख़्स के लिये नमाज़ का वक़्त तंग होने के बाइस तयम्मुम करना ज़रूरी हो अगर वह क़स्दे क़ुर्बत की नियत से या किसी मुस्तहब काम मसलन क़ुरआने मजीद पढ़ने के लिये वुज़ू करे तो उसका वुज़ू सहीह है। और अगर उसी नमाज़ को पढ़ने के लिये वुज़ू करे तो भी यही हुक्म है लेकिन उसे क़स्दे क़ुर्बत हासिल नहीं होगा।

(आठवीं शर्त) वुज़ू क़स्दे क़ुर्बत यानी अल्लाह तआला की रिज़ा के लिये किया जाए। अगर अपने आपको ठंडक पहुंचाने या किसी और नियत से किया जाए तो वुज़ू बातिल है।

288. वुज़ू की नियत ज़बान से या दिल से करना ज़रूरी नहीं बल्कि अगर एक शख़्स वुज़ू के तमाम अफ़्आल अल्लाह तआला के हुक्म पर अमल करने की नीयत से बजा लाए तो काफ़ी है।

(नवीं शर्त) वुज़ू इस तरतीब से किया जाए जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है यानी पहले चेहरा उसके बाद दायां और फिर बायां हाथ धोया जाए उसके बाद सर का और पांव का मसह किया जाए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोनों पांव का एक साथ मसह न किया जाए बल्कि बांये पांव का मसह दांये पांव के बाद किया जाए।

(दसवीं शर्त) वुज़ू के अफ़्आल सर अंजाम देने में फ़ासिला न हो।

289. अगर वुज़ू के अफ़्आल के दरमियान इतना फ़ासला हो जाए कि उर्फ़े आम में मुतावातिर धोना न कहलाए तो वुज़ू बातिल है लेकिन अगर किसी शख़्स को कोई उज्र पेश आ जाए मसलन यह कि भूल जाए या पानी ख़त्म हो जाए तो उस सूरत में बिला फ़ासिला धोने की शर्त मोअतबर नहीं है। बल्कि वुज़ू करने वाला शख़्स जिस वक़्त चाहे किसी उज़्व को धो ले या उसका मसह कर ले तो इस आशना में अगर उन मक़ामात की तरी ख़ुश्क हो जाए जिन्हें वह पहले धो चुका हो या जिनका मसह कर चुका हो तो वुज़ू बातिल होगा, लेकिन अगर जिस उज़्व को धोना है या मसह करना है सिर्फ़ उससे पहले धोए हुए या मसह किये हुए उज़्व की तरी ख़ुश्क हो गई हो मसलन जब बायां हाथ धोते वक़्त दांयें हाथ की तरी ख़ुश्क हो चुकी हो लेकिन चेहरा तर हो तो वुज़ू सहीह है।

290. अगर कोई शख़्स वुज़ू के अफ़्आल बिला फ़ासिला अन्जाम दे लेकिन गर्म हवा या बदन की तप या किसी और ऐसी ही वजह से पहली जगहों की तरी (यानी उन जगहों की तरी जिन्हे वह पहले धो चुका हो या जिनका मसह कर चुका हो) ख़ुश्क हो जाए तो उसका वुज़ू सहीह है।

291. वुज़ू के दौरान चलने फिरने में कोई हर्ज नहीं लिहाज़ा अगर कोई शख़्स चेहरा और हाथ धोने के बाद चन्द क़दम चले और फिर सर और पांवो का मसह करे तो उसका वुज़ू सही है।

(ग्यारहवीं शर्त) इन्सान ख़ुद अपना चेहरा और हाथ धोए और फिर सर और पावों का मसह करे अगर कोई दूसरा उसे वुज़ू कराए या उसके चेहरे या हाथों पर पानी डाल दे या सर और पांव का मसह करने में उसकी मदद करे तो उसका वुज़ू बातिल है।

292. अगर कोई शख़्स ख़ुद वुज़ू न कर सकता हो तो किसी दूसरे शख़्स से मदद ले अगरचे धोने और मसह करने में हत्तल इम्कान दोनों की शिर्कत ज़रूरी है। और अगर वह शख़्स उजरत मांगे तो अगर उसकी अदायगी कर सकता हो तो और ऐसा करना उसके लिये माली तौर पर नुक़सान देह न हो तो उजरत अदा करना ज़ूरूरी है। नीज़ ज़रूरी है कि वुज़ू की नियत ख़ुद करे और अपने हाथ से मसह करे और अगर ख़ुद दूसरे के साथ शिर्कत न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे शख़्स से मदद ले जो उसे वुज़ू कर वाए या इस सूरत में एहतियाते वाजिब यह है कि दोनों वुज़ू की नियत करें। और अगर यह मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि उसका नायब उसका हाथ पकड़ कर उसकी मसह की जगहों पर फेरे और अगर यह मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि नायब उसके हाथ से तरी हासिल करे और उस तरी से उसके सर और पांव का मसह करे।

293. वुज़ू के जो भी अफ़्आल इन्सान बज़ाते ख़ुद अन्जाम दे सकता हो ज़रूरी है कि उन्हें अंजाम देने के लिये दूसरों की मदद न ले।

(बारहवीं शर्त) वुज़ू करने वाले के लिये पानी के इस्तेमाल में कोई रूकावट न हो ।

294. जिस शख़्स को ख़ौफ़ हो कि वुज़ू करने से बीमार हो जायेगा या उस पानी से वुज़ू करेगा तो प्यासा रह जायेगा उसका फ़रीज़ा वुज़ू नहीं है और अगर उसे इल्म न हो कि पानी उसके लिये मुज़िर है और वह वुज़ू कर ले और उसे वुज़ू करने से नुक़सान पहुंचे तो उसका वुज़ू बातिल है।

295. अगर चेहरे या हाथों को इतने कम पानी से धोना, जिससे वुज़ू सहीह हो जाता हो ज़रर रसां न हो, और उससे ज़्यादातर ज़रर रसां हो तो ज़रूरी है कि कम मिक़दार में ही वुज़ू करे।

(तेरहवीं शर्त) वुज़ू के अअज़ा तक पानी पहुंचने में कोई रूकावट न हो।

296. अगर किसी शख़्स को मालूम हो कि वुज़ू के अअज़ा पर कोई चीज़ लगी हुई है, लेकिन इस बारे में उसे शक हो कि आया वह चीज़ पानी के उन अअज़ा तक पहुंचने में माने है या नहीं तो ज़रूरी है कि या तो उस चीज़ को हटा दे या पानी उसके नीचे तक पहुंचाए।

297. अगर नाख़ून के नीचे मैल हो तो वुज़ू दुरूस्त है लेकिन अगर नाख़ून काटा जाए और उस मैल की वजह से पानी खाल तक न पहुंचे तो वुज़ू के लिये उस मैल का दूर करना ज़रूरी है। अलावा अज़ी अगर नाख़ून मामूल से ज़्यादा बढ़ जाए तो जितना हिस्सा मामूल से ज़्यादा बढ़ा हुआ हो उसके नीचे से मैल निकालना ज़रूरी है।

298. अगर किसी के चेहरे, हाथों, सर के अगले हिस्से या पांव के ऊपर वाले हिस्से पर जल जाने या किसी और वजह से वरम हो जाए तो उसे धो लेना और उस पर मसह कर लेना काफ़ी है और अगर उसमें सूराख़ हो जाए तो पानी जिल्द के नीचे पहुंचाना ज़रूरी नहीं बल्कि अगर जिल्द का एक हिस्सा उखड़ जाए तब भी यह ज़रूरी नहीं की जो हिस्सा नहीं उखड़ा उसके नीचे तक पानी पहुंचाया जाए लेकिन जब उखड़ी हुई जिल्द कभी बदन से चिपक जाती हो और कभी ऊपर उठ जाती हो तो ज़रूरी है कि या तो उसे काट दें या उसके नीचे पानी पहुंचाए।

299. अगर किसी शख़्स को शक हो कि उसके वुज़ू के अअज़ा से कोई चीज़ चिपकी हुई है या नहीं और उसका यह एहतिमाल लोगों की नज़रों में भी दुरूस्त हो मसलन गारे से कोई काम करने के बाद शक हो कि गारा उसके हाथ से लगा रह गया है या नहीं तो ज़रूरी है कि तहक़ीक़ कर ले या हाथ को इतना मलें कि इत्मीनान हो जाए कि अगर उस पर गारा लगा रह गया था तो वह दूर हो गया है या पानी उसके नीचे पहुंच गया है।

300. जिस जगह को धोना या जिस जगह का मसह करना हो अगर उस पर मैल हो लेकिन वह मैल पानी के जिल्द तक पहुंचने में रूकावट न डाले तो कोई हरज नहीं। इसी तरह अगर पलस्तर वग़ैरह का काम करने के बाद सफ़ेदी हाथ पर लगी रह जाए जो पानी को जिल्द तक पहुंचने से न रोके तो उसमें भी कोई हरज नहीं। लेकिन अगर शक हो कि उन चीज़ों की मौजूदगी पानी के जिल्द तक पहुंचने में माने है या नहीं तो उन्हें दूर करना ज़रूरी है।

301. अगर कोई शख़्स वुज़ू करने से पहले जानता हो कि वुज़ू के अअज़ा पर ऐसी चीज़ मौजूद है जो उन तक पानी पहुंचने में माने है और वुज़ू के बाद शक करे कि वुज़ू करते वक़्त पानी उन अअज़ा तक पहुंचा है या नहीं तो उसका वुज़ू सहीह है।

302. अगर वुज़ू के बाज़ अअज़ा में ऐसी रूकावट हो जिसके नीचे पानी कभी तो ख़ुद ब ख़ुद चला जाता हो और कभी न पहुंचता हो और इन्सान वुज़ू के बाद शक करे कि पानी उसके नीचे पहुंचा है या नहीं जबकि वह जानता हो कि वुज़ू के वक़्त वह उस रुकावट के नीचे पानी पुहंचने की जानिब मुतवज्जह न था तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा वुज़ू करे।

303. अगर कोई शख़्स वुज़ू करने के बाद वुज़ू के अअज़ा पर कोई ऐसी चीज़ देखे जो पानी के बदन तक पहुंचने में माने हो और उसे यह मालूम न हो कि वुज़ू के वक़्त यह चीज़ मौजूद थी या बाद में पैदा हुई तो उसका वुज़ू सहीह है लेकिन अगर वह जानता हो कि वुज़ू करते वक़्त वह रूकावट की जानिब मुतवज्जह न था तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा वुज़ू करे।

304. अगर किसी शख़्स को वुज़ू के बाद शक हो कि जो चीज़ पानी के पहुंचने में माने है वुज़ू के अअज़ा पर थी या नहीं तो उसका वुज़ू सहीह है।

वुज़ू के अहकाम

305. अगर कोई शख़्स वुज़ू के अफ़्आल और शरायत पानी के पाक होने या ग़स्बी न होने के बारे में बहुत ज़्यादा शक करे तो उसे चाहिये कि अपने शक की परवाह न करे।

306. अगर किसी शख़्स को शक हो कि उसका वुज़ू बातिल हुआ है या नहीं तो उसे समझना चाहिये की उसका वुज़ू बाक़ी है लेकिन अगर उसने पेशाब करने के बाद इसतिबरा किये बग़ैर वुज़ू कर लिया हो और वुज़ू के बाद उसके मखरजे पेशाब से ऐसी रूतूबत ख़ारिज हुई हो जिसके बारे में वह यह न जानता हो कि पेशाब है या कोई और चीज़ तो उसका वुज़ू बातिल है।

307. अगर किसी शख़्स को शक हो कि उसने वुज़ू किया है या नहीं तो ज़रूरी है कि वुज़ू करे।

308. जिस शख़्स को मालूम हो कि उसने वुज़ू किया है और उससे हदस भी वाक़े हो गया है मसलन उसने पेशाब किया है लेकिन उसे यह मालूम न हो कि कौन सी बात पहले वाक़े हुई है अगर यह सूरत नमाज़ से पेश आए तो उसे चाहिये कि वुज़ू करे और नमाज़ के दौरान पेश आए तो नमाज़ तोड़ कर वुज़ू करना ज़रूरी है और अगर नमाज़ के बाद पेश आए तो जो नमाज़ वह पढ़ चुका है वह सहीह है अलबत्ता दूसरी नमाज़ों के लिये नया वुज़ू करना ज़रूरी है।

309. अगर किसी शख़्स को वुज़ू के बाद या वुज़ू के दौरान यक़ीन हो जाए कि उसने बाज़ जगह नहीं धोई या उनका मसह नहीं किया और जिन अअज़ा को पहले धोया हो या मसह किया हो उनकी तरी ज़्यादा वक़्त गुज़र जाने की वजह से ख़ुश्क हो चुकी हो तो उसे चाहिये कि दोबारा वुज़ू करे लेकिन अगर वह तरी ख़ुश्क न हुई हो या हवा की गर्मी या किसी और ऐसी वजह से ख़ुश्क हो चुकी हो तो ज़रूरी है कि जिन जगहों के बारे में भूल गया हो उन्हें और उनके बाद आने वाली जगहों को धोए या उनका मसह करे और अगर वुज़ू के दौरान किसी उज़्व के धोने या मसह करने के बारे में शक करे तो उसी हुक्म पर अमल करना ज़रूरी है।

310. अगर किसी शख़्स को नमाज़ पढ़ने के बाद शक हो कि उसने वुज़ू किया था या नहीं तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन आइन्दा नमाज़ों के लिये वुज़ू करना ज़रूरी है।

311. अगर किसी शख़्स को नमाज़ के दौरान शक हो कि आया उसने वुज़ू किया था या नहीं तो उसकी नमाज़ बातिल है। और ज़रूरी है कि वह वुज़ू करे और नमाज़ दोबारा पढ़े।

312. अगर कोई शख़्स नमाज़ के बाद यह समझे कि उसका वुज़ू बातिल हो गया था लेकिन शक हो कि उसका वुज़ू नमाज़ से पहले बातिल हुआ था या बाद में तो जो नमाज़ पढ़ चुका है वह सहीह है।

313. अगर कोई शख़्स ऐसे मरज़ में मुब्तला हो कि उसे पेशाब के क़तरे गिरते रहते हों या पख़ाना रोकना का क़ादिर न हो तो अगर उसे यक़ीन हो कि नमाज़ के अव्वल वक़्त से लेकर आख़िर वक़्त तक उसे इतना वक़्फ़ा मिल जायेगा कि वुज़ू करके नमाज़ पढ़ सके तो ज़रूरी है कि उस वक़्फ़े के दौरान नमाज़ पढ़ ले और अगर उसे सिर्फ़ इतनी मोहलत मिले जो नमाज़ के वाजिबात अदा करने के लिये काफ़ी हो तो उस दौरान सिर्फ़ नमाज़ के वाजिबात बजा लाना और मुस्तहब अफ़्आल मसलन अज़ान, इक़ामत और क़ुनूत को तर्क कर देना ज़रूरी है।

314. अगर किसी शख़्स को (बीमारी की वजह से) वुज़ू करके नमाज़ का कुछ हिस्सा पढ़ने की मोहलत मिलती हो और नमाज़ के दौरान एक दफ़्आ या चन्द दफ़्आ उसका पेशाब या पाख़ाना ख़ारिज हो जाता हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि उस मोहलत के दौरान वुज़ू करके नमाज़ पढ़े लेकिन नमाज़ के दौरान लाज़िम नहीं है कि पेशाब या पाख़ाना ख़ारिज होने की वजह से दोबारा वुज़ू करे अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि पानी का बर्तन अपने साथ रखे और जब भी पेशाब या पाख़ाना खारिज हो वुज़ू करे और बाक़ी मान्दा नमाज़ पढ़े और यह एहतियात इस सूरत में है कि जब पेशाब या पाख़ाना खारिज़ होने का वक़्फ़ा तवील न हो या दोबारा वुज़ू करने की वजह से अरकाने नमाज़ के दरमियान फ़ासिला ज़्यादा न हो। बसूरते दीगर एहतियात का कोई फ़ायदा नहीं।

315. अगर किसी शख़्स को पेशाब या पाख़ाना बार बार यूं आता हो कि उसे वुज़ू करके नमाज़ का कुछ हिस्सा पढ़ने की भी मोहलत न मिलती हो तो उसकी हर नमाज़ के लिये बिला हश्काल एक वुज़ू काफ़ी है- बल्कि अज़्हर यह है कि एक वुज़ू चन्द नमाज़ों के लिये भी काफ़ी है। मासिवा इसके कि किसी दूसरे हदस में मुब्तिला हो जाए। और बेहतर यह है कि हर नमाज़ के लिये एक बार वुज़ू करे लेकिन क़ज़ा सजदे, क़ज़ा तशहहुद और नमाज़े एहतियात के लिये दूसरा वुज़ू ज़रूरी नहीं है।

316. अगर किसी शख़्स को पेशाब या पाख़ाना बार बार आता हो तो उसके लिये ज़रूरी नहीं कि वुज़ू के बाद फ़ौरन नमाज़ पढ़े अगरचे बेहतर है कि नमाज़ पढ़ने में जल्दी करे।

317. अगर किसी शख़्स को पेशाब या पाख़ाना बार बार आता हो तो वुज़ू करने के बाद अगर वह नमाज़ की हालत में न हो तब भी उसके लिये क़ुरआने मजीद के अलफ़ाज़ को छुना जायज़ है।

318. अगर किसी शख़्स को क़तरा क़तरा पेशाब आता रहता हो तो उसे चाहिये कि नमाज़ के लिये एक ऐसी थेली इस्तेमाल करे जिसमें रूई या कोई और चीज़ रखी हो जो पेशाब को दूसरी जगहों तक पहुंचने से रोके और एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ से पहले नजिस शुदा ज़कर (लिंग) को धोए। अलावा अज़ीं जो शख़्स पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो उसे चाहिये की जहां तक मुम्किन हो नमाज़ पढ़ने तक पख़ाने को दूसरी जगहों तक फ़ैलने से रोके और एहतियाते वाजिब यह है कि अगर बाइसे ज़हमत न हो तो हर नमाज़ के लिये मक़्अद को धोए।

319. जो शख़्स पेशाब या पाख़ाने को रोकने पर क़ुदरत न रखता हो तो जंहा तक मुम्किन हो नमाज़ में पेशाब या पाखाने को रोके चाहे इस पर कुछ ख़र्च करना पड़े बल्कि उसका मरज़ अगर आसानी से दूर हो सकता हो तो अपना इलाज कराए।

320. जो शख़्स अपना पेशाब या पाखाना रोकने पर क़ादिर न हो उसके सेह्हतयाब होने के बाद ज़रूरी नहीं कि जो नमाज़े उसने मरज़ की हालत में अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ पढ़ी हों उनकी क़ज़ा करे लेकिन अगर उसका मरज़ नमाज़ पढ़ते हुए दूर हो जाए तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि जो नमाज़ उस वक़्त पढ़ी हो उसे दोबारा पढ़े।

321. अगर किसी शख़्स को यह आरिज़ा लाहिक़ हो कि रियाह रोकने पर क़ादिर न हो तो ज़रूरी है कि उन लोगों के वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल करे जो पेशाब और पाखाना रोकने पर क़ुदरत न रखते हों।

वह चीज़ें जिनके लिये वुज़ू करना चाहिये

322. छः चीज़ों के लिये वुज़ू करना वाजिब हैः

अव्वलः- वाजिब नमाज़ों के लिये सिवाय नमाज़े मैयित के, और मुस्तहब नमाज़ों में वुज़ू शर्ते सेह्हत है।

दोमः- उस सज्दे और तशह्हुद के लिये जो एक शख़्स भूल गया हो जबकि उनके और नमाज़ के दरमियान कोई हदस उससे सर्ज़द हुआ हो मसलन उसने पेशाब किया हो, लेकिन सज्दा ए सहव के लिये वुज़ू करना वाजिब नहीं।

सोमः- ख़ानाए काबा के वाजिब तवाफ़ के लिये जो कि हज और उमरह के जुज़ हों।

चहारूमः- वुज़ू करने की मन्नत मानी हो या अहद किया हो या क़सम खाई हो।

पंजुमः- जब किसी ने मन्नत मानी हो कि मसलन क़ुरआने मजीद का बोसा लेगा।

शशुमः- नजिस शदः क़ुरआने मजीद को धोने के लिये या बैतुल ख़ला वग़ैरा से निकालने के लिये जब कि मुतअल्लिक़ः शख़्स मजबूर हो कर उस मक़सद के लिये अपना हाथ या बदन का कोई और हिस्सा क़ुरआने मजीद के अलफ़ाज़ से मस करे। लेकिन वुज़ू में सर्फ़ होने वाला वक़्त अगर क़ुरआने मजीद को धोने या उसे बैतुलख़ला से निकालने में इतनी ताख़ीर का बाइस हो जिस से कलामुल्लाह की बेहुर्रमती होती हो तो ज़रूरी है कि वह वुज़ू किये बग़ैर क़ुरआने मजीद को बैतुलखला वग़ैरह से बाहर निकाल ले या अगर नजिस हो गया हो तो उसे धो डाले।

323. जो शख़्स बवुज़ू न हो उसके लिये क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ को छूना यानी अपने बदन का कोई हिस्सा क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ से लगाना हराम है, लेकिन अगर क़ुरआने मजीद का फ़ारसी ज़बान या किसी और ज़बान में तर्जुमा किया गया हो तो उसे छूने में कोई इश्काल नहीं।

324. बच्चे और दीवाने को क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ को छूने से रोकना वाजिब नहीं लेकिन अगर उनके ऐसा करने से क़ुरआने मजीद की तौहीन होती हो तो उन्हें रोकना ज़रूरी है।

325. जो शख़्स बावुज़ू न हो उसके लिये अल्लाह तआला के नामों और उन सिफ़तों को छूना जो सिर्फ़ उसके लिये मख़्सूस हैं ख़्वाह किसी ज़बान में लिखी हों एहतियाते वाजिब की बिना पर हराम हैं और बेहतर यह है कि आंहज़रत सलल्लाहो अलेहै वआलेही व सल्लम और आइम्मा ए ताहिरीन (अ0) और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (अ0) के असमाए मुबारक को भी न छुए।

326. अगर कोई शख़्स नमाज़ के वक़्त से पहले बतहारत होने के इरादे से वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो सहीह है और नमाज़ के वक़्त भी अगर नमाज़ के लिये तैयार होने की नियत से वुज़ू करे तो कोई हरज नहीं।

327. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि (नमाज़ का) वक़्त दाख़िल हो चुका है और वाजिब वुज़ू की नियत करे लेकिन वुज़ू करने के बाद उसे पता चले कि अभी वक़्त दाख़िल नहीं हुआ था तो उसका वुज़ू सहीह है।

328. मैयित की नमाज़ के लिये, क़ब्रिस्तान जाने के लिये, मस्जिद या आइम्मा (अ0) के हरम में जाने के लिये, क़ुरआने मजीद साथ रखने, उसे पढ़ने, लिखने, और उसका हाशिया छूने के लिये और सोने के लिये वुज़ू करना मुस्तहब है। और अगर किसी शख़्स का वुज़ू हो तो हर नमाज़ के लिये दोबारा वुज़ू करना मुस्तहब है। और मज़कूरा बाला कामों में से किसी एक के लिये वुज़ू करे तो हर वह काम कर सकता है जो बावुज़ू करना ज़रूरी है मसलन उस वुज़ू के साथ नमाज़ पढ़ सकता हो।