तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मुब्तिलाते वुज़ू

329. सात चीज़ें वुज़ू को बातिल कर देती हैः-

1. पेशाब, 2. पाखाना, 3, मेदे और आंतों की हवा जो मक़्अद से खारिज होती है, 4. नींद जिसकी वजह से न आंखें देख सकें न कान सुन सकें। लेकिन अगर आंखें न देख रही हों लेकिन कान सुन रहें हो तो वुज़ू बातिल नहीं होता, 5. ऐसी हालत जिनमें अक़्ल ज़ाया हो जाती हो मसलन दीवानगी मस्ती या बेहोशी, 6. औरतों का इस्तिहाज़ा जिसका ज़िक्र बाद में आयेगा, 7. जनाबत बल्कि एहतियाते मुस्तहब की बिना पर हर वह काम जिसके लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

जबीरा के अहकाम

वह चीज़ जिसके ज़ख़्म या टूटी हुई हड्डी बांधी जाती है और वह दवा जो ज़ख़्म या ऐसी ही किसी चीज़ पर लगाई जाती है जबीरा कहलाती है।

330. अगर वुज़ू के अअज़ा में से किसी पर ज़ख़्म या फ़ोड़ा हो या हड्डी टूटी हुई और उसका मुंह खुला हो और पानी उसके लिये मुज़िर न हो तो उसी तरह वुज़ू करना ज़रूरी है जैसे आमतौर पर किया जाता है।

331. अगर किसी शख़्स के चेहरे और हाथों पर ज़ख़्म या फ़ोड़ा हो या उसके (चेहरे या हाथों) की हड्डी टूटी हुई हो और उसका मुंह खुला हो और उस पर पानी डालना नुक़सान देह हो तो उसे ज़ख़्म के आस पास का हिस्सा इस तरह ऊपर से नीचे को धोना चाहिये जैसा वुज़ू के बारे में बताया गया है और बेहतर यह है कि अगर उस पर हाथ खींचना नुकसान देह न हो तो तर हाथ उस पर खींचे और उसके बाद पाक कपड़ा उस पर डाल दें और गीला हाथ उस पर भी ख़ींचे। अलबत्ता अगर हड्डी टूटी हुई हो तो तयम्मुम करना लाज़िम है।

332. अगर ज़ख़्म या फ़ोडा या टूटी हुई हड्डी किसी शख़्स के सर के अगले हिस्से या पांव पर हो और उसका मुंह खुला हो और वह उस पर मसह न कर सकता हो क्योंकि ज़ख़्म मसह की पूरी जगह पर फ़ैला हुआ हो या मसह की जगह का जो हिस्सा सहीह व सालिम हो उस पर मसह करना भी उसकी क़ुदरत से बाहर हो तो इस सूरत में ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर वुज़ू भी करे और पाक कपड़ा ज़ख़्म वग़ैरह पर रखे और वुज़ू के पानी की तरी से जो हाथों पर लगी हो कपड़े पर मसह करे।

333. अगर फोड़े या ज़ख़्म या टूटी हुई हड्डी का मुंह किसी चीज़ से बन्द हो और उसका खोलना वग़ैरह तक्लीफ़ के मुम्किन हो और पानी भी उसके लिये मुज़िर न हो तो उसे खोल कर वुज़ू करना ज़रूरी है ख़्वाह ज़ख़्म वग़ैर चेहरे और हाथों पर हो या सर के अगले हिस्से और पांव के ऊपर वाले हिस्से पर हो।

334. अगर किसी शख़्स का ज़ख़्म या फोड़ा या टूटी हुई हड्डी जो किसी चीज़ से बंधी हुई हो उसके चेहरे या हाथों पर हो और उसको खोलना और उस पर पानी डालना मुज़िर हो तो ज़रूरी है कि आस पास के जितने हिस्से को धोना मुम्किन हो उसे धोए और ज़वीरा पर वुज़ू करे।

335. अगर ज़ख़्म का मुंह न खुल सकता हो और खुद ज़ख्म और जो चीज़ उस पर लगाई गई हो पाक हो और ज़ख़्म तक पानी पुहंचना मुम्किन हो और मुज़िर हो भी न हो तो ज़रूरी है की पानी को ज़ख़्म के ऊपर से नीचे की तरफ़ पहुंचाए। और अगर ज़ख़्म या उसके ऊपर लगाई गई चीज़ नजिस हो और उसका धोना और ज़ख़्म के मुंह तक पानी पहुंचाना मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि उसे धोए और वुज़ू करते वक़्त पानी ज़ख़्म तक पहुंचाए। और अगर पानी ज़ख़्म के लिये मुज़िर न हो लेकिन या ज़ख़्म नजिस हो और उसे धोया न जा सकता हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।

336. अगर ज़बीरा अअज़ाए वुज़ू के किसी हिस्से पर फैला हुआ हो तो बज़ाहिर वुज़ू ज़बीरा ही काफ़ी है लेकिन अगर जबीरा तमाम अअज़ाए वुज़ू पर फ़ैला हुआ हो तो एहतियात की बिना पर तयम्मुम करना ज़रूरी है और वुज़ू जबीरा भी करें।

337. यह ज़रूरी नहीं कि जबीरा उन चीज़ों में से हों जिनके साथ नमाज़ पढ़ना दुरूस्त है बल्कि अगर वह रेशम या उन हैवानात के अज्ज़ा से बनी हो जिनका गोश्त खाना जायज़ नहीं तो भी मसह करना जायज़ है।

338. जिस शख़्स की हथेली और उंगलियों पर जबीरा हो और वुज़ू करते वक़्त उसने तर हाथ उस पर ख़ींचा हो तो सर और पांव का मसह उसी तरी से करे।

339. अगर किसी शख़्स के पांव के ऊपर वाले पूरे हिस्से पर जबीरा हो लेकिन कुछ हिस्सा उंगलियों की तरफ़ से औऱ कुछ हिस्सा पांव के ऊपर वाले हिस्से की तरफ़ खुला हो तो जो जगह खुली है वहां पांव के ऊपर वाले हिस्से पर और जिन जगहों पर जबीरा है वहां जबीरा पर मसह करना ज़रूरी है।

340. अगर चेहरे या हाथों पर कई जबीरे हों तो उनका दरमियाना हिस्सा धोना ज़रूरी है और अगर सर या पांव के ऊपर वाले हिस्से पर जबीरें हों तो उनके दरमियानी हिस्से का मसह करना ज़रूरी है और जहां जबीरें हों वहां जबीरे के बारे में अहकाम पर अमल करना ज़रूरी है।

341. अगर जबीरा ज़ख़्म के आस पास के हिस्सों को मामूल से ज़्यादा घेरे हुए हो और उसका हटाना बग़ैर तकलीफ़ के मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि मुतअल्लिक़ा शख़्स तयम्मुम करे बजुज़ इसके कि जबीरा तयम्मुम की जगहों पर हो क्योंकि उस सूरत में ज़रूरी है कि वुज़ू और तयम्मुम दोनों दोनों करे और दोनों सूरतों में अगर जबीरा का हटाना बग़ैर तक्लिफ़ के मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि उसे हटा दे। पस अगर ज़ख़्म चेहरे या हाथों पर तो उसके आस पास की जगहों को धोए औऱ अगर सर या पांव के ऊपर वाले हिस्से पर हो तो आस पास की जगह का मसह करे और ज़ख़्म की जगह के लिये जबीरे के एहकाम पर अमल करे।

342. अगर वुज़ू के अअज़ा पर ज़ख़्म न हो या उनकी हड्डी टूटी हुई न हो लेकिन किसी दूसरी वजह से पानी उनके लिये मुज़िर हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।

343. अगर वुज़ू के अअज़ा की किसी रग से ख़ून निकल आया हो और उसे धोना मुम्किन न हो तो तयम्मुम करना लाज़िम है। लेकिन अगर पानी उसके लिये मुज़िर हो तो जबीरा के अहकाम पर अमल करना ज़रूरी है।

344. अगर वुज़ू या ग़ुस्ल की जगह पर कोई ऐसी चीज़ चिपक गई हो जिसक उतराना मुम्किन न हो या उसे उतारने की तक्लीफ़ नाक़ाबिले बर्दाश्त हो तो मुतअल्लिक़ा शख़्सा का फ़रीज़ा तयम्मुम है। लेकिन अगर चिपकी हुई चीज़ तयम्मुम के मक़ामात पर हो तो उस सूरत में ज़रूरी है कि वुज़ू और तयम्मुम दोनों करे और अगर चिपकी हुई चीज़ दवा हो तो जबीरा के हुक्म में आती है।

345. ग़ुस्ले मसे मय्यत के अलावा तमाम क़िस्म के ग़ुस्लों में ग़ुसले जबीरा वुज़ू ए जबीरा की तरह है लेकिन एहतियाते लाज़िम की बिना पर मुकल्लफ़ शख़्स के लिये ज़रूरी है कि ग़ुस्ले तरतीबी करे (इरतिमासी न करे) और अज़्हर यह है कि अगर बदन पर ज़ख़्म या फोड़ा हो तो मुकल्लफ़ को ग़ुस्ल या तयम्मुम का इख़्तियार है। अगर वह ग़ुस्ल को इख़्तियार करता है और ज़ख़्म या फोड़े पर जबीरा न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़ख़्म या फोड़े पर पाक कपड़ा रखे और उस कपड़े के ऊपर मसह करे। और अगर बदन का कोई हिस्सा टूटा हुआ हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे और एहतियातन जबीरा के ऊपर भी मसह करे और अगर जबीरा के ऊपर मसह करना मुम्किन न हो या जो जगह टूटी हुई हो वह खुली हुई हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।

346. जिस शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर उसकी तयम्मुम की बाज़ जगहों पर ज़ख़्म या फोड़ा हो या हड्डी टूटी हुई हो तो ज़रूरी है कि वह वुज़ू ए जबीरा के अहकाम के मुताबिक़ तयम्मुमे जबीरा करे।

347. जिस शख़्स को वुज़ू ए जबीरा या ग़ुस्ले जबीरा करके नमाज़ पढ़ना ज़रूरी हो अगर उसे इल्म हो कि नमाज़ के आख़िर वक़्त तक उसका उसका उज़्र दूर नहीं होगा तो वह अव्वल वक़्त में नमाज़ पढ़ सकता है लेकिन अगर उसे उम्मीद हो कि आख़िर वक़्त तक उसका उज़्र दूर हो जाएगा तो उसके लिये बेहतर यह है कि इन्तेज़ार करे और अगर उसका उज़्र दूर न हो तो आख़िर वक़्त में वुज़ू जबीरा या ग़ुस्ले जबीरा के साथ नमाज़ अदा करे। लेकिन अगर अव्वल वक़्त में नमाज़ पढ़ ले और आख़िर वक़्त तक उसका उज़्र दूर हो जाए तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू या ग़ुस्ल करे और दोबारा नमाज़ पढ़े।

348. अगर कोई शख़्स आंख की बीमारी की वजह से पलकें मूंद कर रखता हो तो ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करे।

349. अगर किसी शख़्स को यह इल्म न हो कि आया उसका वज़ीफ़ा तयम्मुम है या वुज़ू ए जबीरा तो एहतियाते वाजिब की बिना पर तयम्मुम और वुज़ू ए जबीरा दोनों बजा लाने चाहिये।

350. जो नमाज़े किसी इन्सान ने वुज़ू ए जबीरा से पढ़ी हों वह सहीह हैं और वह उसी वुज़ू के साथ आइन्दा के नमाज़े भी पढ़ सकता है।

वाजिब ग़ुस्ल

वाजिब ग़ुस्ल सात हैः-

1.ग़ुस्ले जनाबत,2. ग़ुस्ले हैज़, 3. ग़ुस्ले निफ़ास, 4. गुस्ले इस्तिहाज़ा, 5. ग़ुस्ले मसे मेयित, 6. ग़ुस्ले मेयित और 7. वह ग़ुस्ल जो मन्नत या क़सम वग़ैरह की वजह से वाजिब हो जाए।

जनाबत के अहकाम

351. दो चीज़ों से इन्सान जुनुब हो जाता है अव्वल जिमाअ से और दोम मनी के ख़ारिज होने से ख़्वाह वह नींद की हालत में निकले या जागते में, कम हो या ज़्यादा, शहवत के साथ निकले या बग़ैर शहवत के और उसका निकलना मुतअल्लिक़ा शख़्स के इख़्तियार में हो या न हो।

352. अगर किसी शख़्स के बदन से कोई रूतूबत ख़ारिज हो और वह यह न जानता हो कि मनी (वीर्य) है या पेशाब या कोई और चीज़ और अगर वह रूतूबत शहवत के साथ उछल कर निकली हो और उसके निकलने के बाद बदन सुस्त हो गया हो तो वह रूतूबत मनी (वीर्य) का हुक्म रखती है। लेकिन अगर इन तीन अलामात में से सारी की सारी या कुछ मौजूद न हों तो वह रूतूबत मनी के हुक्म में नहीं आयेगी । लेकिन अगर मुतअल्लिक़ा शख़्स बीमार हो तो फिर ज़रूरी नहीं की वह रूतूबत उछल कर निकली हो और उसके निकलने के वक़्त बदन सुस्त हो जाए बल्कि अगर सिर्फ़ शहवत के साथ निकले तो वह रूतूबत मनी के हुक्म में होगी।

353. अगर किसी ऐसे शख़्स के मख़रजे पेशाब से जो बीमार न हो कोई ऐसा पानी ख़ारिज हो जिसमें उन तीन अलामतों में से जिनका ज़िक्र ऊपर वाले मसअले मे किया गया है एक अलामत मौजूद हो और उसे यह इल्म न हो कि बाक़ी अलामत भी उसमें मौजूद है या नहीं तो अगर उस पानी के ख़ारिज हो ने से पहले उसने वुज़ू किया हो तो ज़ूरूरी है कि उसी वुज़ू को काफ़ी समझे और अगर वुज़ू नहीं किया था तो सिर्फ़ वुज़ू करना काफ़ी है और उस पर ग़ुस्ल करना लाज़िम नहीं।

354. मनी ख़ारिज होने के बाद इन्सान के लिये पेशाब करना मुस्तहब है और अगर पेशाब न करे और ग़ुस्ल के बाद उसके मखरजे पेशाब से रूतूबत ख़ारिज हो जिसके बारे में वह न जानता हो कि मनी है या कोई और रूतूबत तो वह रूतबत मनी का हुक्म रखती है।

355. अगर कोई शख़्स जिमाअ करे और उज़्वे तनासुल सुपारी की मिक़्दार तक या उससे ज़्यादा औरत की फ़र्ज़ में दाख़िल हो जाए तो ख़्वाह यह दुखूल फ़र्ज़ में हो या दुबुर में और ख़्वाह वह बालिग़ हो या न बालिग़ और ख़्वाह मनी ख़ारिज हो या न हो दोनो जुनुब हो जाते हैं।

356. अगर किसी को शक हो कि उज़्वे तनासुल सुपारी की मिक़्दार तक दाख़िल हुआ है या नहीं तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नहीं है।

357. नऊज़ो बिल्लाह अगर कोई शख़्स किसी हैवान के साथ वती करे और उसकी मनी ख़ारिज हो तो सिर्फ़ ग़ुस्ल करना काफ़ी है और अगर मनी ख़ारिज न हो और उसने वती करने से पहले वुज़ू किया हो तो तब भी सिर्फ़ ग़ुस्ल काफ़ी है और अगर वुज़ू न कर रखा हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि ग़ुस्ल करे और वुज़ू भी करे और मर्द या लड़के से वती करने की सूरत में भी यही हुक्म है।

358. अगर मनी अपनी जगह से हरकत करे लेकिन खारिज न हो या इन्सान को शक हो कि मनी खारिज हुई है या नही तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नहीं है।

359. जो शख़्स ग़ुस्ल न कर सके लेकिन तयम्मुम कर सकता हो वह नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद भी अपनी बीवी से जिमआ कर सकता है।

360. अगर कोई शख़्स अपने लिबास में मनी देखे और जानता हो कि उसकी अपनी मनी है और उसने उस मनी के लिये ग़ुस्ल न किया हो तो ज़ूरूरी है कि ग़ुस्ल करे और जिन नमाज़ों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह उसने मनी ख़ारिज होने के बाद पढ़ी थी, उनकी क़ज़ा करे लेकिन उन नमाज़ों की क़ज़ा ज़रूरी नहीं जिनके बारे में एहतिमाल हो कि वह उसने मनी ख़ारिज होने से पहले पढ़ी थीं।

वह चीज़ें जो मुज्निब पर हराम हैं

361. पांच चीज़े जुनुब शख़्स पर हराम हैः-

1. अपने बदन का कोई हिस्सा क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ या अल्लाह तआले के नाम से ख़्वाह वह किसी भी ज़बान में हो मस करना और बेहतर यह है कि पैग़म्बरों, इमामों और हज़रते ज़हरा (अ0) के नामों से भी अपना बदन मस न करें।

2. मस्जिदुल हराम और मस्जिदे नबवी में जाना ख़्वाह एक दरवाज़े से दाख़िल होकर दूसरे दरवाज़े से निकल जाए।

3. मस्जिदुल हराम और मस्जिदे नबवी के अलावा दूसरी मस्जिदों में ठहरना और एहतियाते वाजिब की बिना पर इमामों के हरम में ठहरने की भी यही हुक्म है। लेकिन अगर इन मस्जिदों में से किसी मस्जिद को उबूर करे मसलन एक दरवाज़े से दाख़िल होकर दूसरे से बाहर निकल जाए तो कोई हरज नहीं।

4. एहतियाते लाज़िम की बिना पर किसी मस्जिद में कोई चीज़ रखने या कोई चीज़ उठाने के लिये दाखिल होना।

5. उन आयात में किसी आयत का पढ़ना जिनके पढ़ने से सज्दा वाजिब हो जाता है। और वह आयतें चार सूरतों में हैः-

1. क़ुरआने मजीद की 32वी सूरत – अलिफ़ लाम्मीम तंज़ील।

2,41वी सूरत – हाम्मीम सज्दः

3. 53वी सूरत – वन्नज्म।

4. 96वीं सूरत – अलक़।

वह चीज़ें जो मुज्निब के लिये मकरूह हैं

362. नौ चीज़ें जुनुब के लिये मकरूह हैः-

1 और 2. खाना पानी। लेकिन अगर हाथ मुंह धो ले और कुल्ली कर ले तो मकरूह नहीं है और अगर सिर्फ़ हाथ धो ले तो भी कराहत कम हो जायेगी।

3. क़ुरआने मजीद की सात से ज़्यादा ऐसी आयात पढ़ना जिनमें सज्दा वाजिब न हो।

4. अपने बदन का कोई हिस्सा क़ुरआने मजीद की जिल्द, हाशिया या अल्फ़ाज़ की दरमियानी जगह से छूना।

5. क़ुरआने मजीद अपने साथ रखना।

6. सोना। अलबत्ता अगर वुज़ू कर ले या पानी न होने की वजह से ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम कर ले तो फिर सोना मकरूह नहीं है।

7. मेंहदी या उससे मिलती जुलती चीज़ से ख़िज़ाब करना।

8. बदन पर तेल मलना।

9. एहतिलाम यानी सोते में मनी खारिज होने के बाद जिमाअ करना।

ग़ुस्ले जनाबत

363. ग़ुस्ले जनाबत वाजिब नमाज़ पढ़ने के लिये और ऐसी दूसरी इबादत के लिये वाजिब हो जाता है लेकिन नमाज़े मैयित, सज्दा ए सहव, सज्दा ए शुक्र और क़ुरआने मजीद के वाजिब सज्दों के लिये ग़ुस्ले जनाबत ज़रूरी नहीं है।

364. यह ज़रूरी नहीं कि ग़ुस्ल के वक़्त नीयत करे कि वाजिब ग़ुस्ल कर रहा है, बल्कि फ़क़त क़ुर्बतन इलल्लाह यानी अल्लाह तआला की रिज़ा के इरादे से ग़ुस्ल करे तो काफ़ी है।

365. अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और ग़ुस्ले जनाबत की नियत कर ले लेकिन बाद में पता चले कि उसने वक़्त से पहले ग़ुस्ल कर लिया है तो उसका वुज़ू सहीह है।

366. ग़ुस्ले जनाबत दो तरीक़ों से अन्जाम दिया जा सकता हैः-

तरतीबी व इरतिमासी

तरतीबी ग़ुस्ल

367. तरतीबी ग़ुस्ल में एहतियाते लाज़िम की बिना पर ग़ुस्ल की नियत से पहले पूरा सर और गर्दन और बाद में बदन धोना ज़रूरी है और बेहतर यह है कि बदन को पहले दाई तरफ़ से धोए बाद में बाई तरफ़ से धोए। और तीनो अअज़ा में से हर एक को ग़ुस्ल की नियत से पानी के नीचे हरकत देने से तरतीबी ग़ुस्ल का सहीह होना इशक़ाल से ख़ाली नहीं है और एहतियात इस पर इक़्तिफ़ा न करने में है। और अगर वह शख़्स जान बूझ कर या भूल कर या मस्अला न जानने की वजह से बदन को सर से पहले धोए तो उसका ग़ुस्ल बातिल है।

368. अगर कोई शख़्स बदन को सर से पहले धोए तो उसके लिये ग़ुस्ल का एआदा करना ज़रूरी नहीं बल्कि अगर बदन को दोबारा धो ले तो उसका ग़ुस्ल सहीह हो जायेगा।

369. अगर किसी शख़्स को इस बात का यक़ीन न हो कि उसने सर, गर्दन व जिस्म का दायां व बायां हिस्सा मुकम्मल तौर पर धो लिया है तो इस बात का यक़ीन करने के लिये जिस हिस्से को धोए उसके साथ दूसरे हिस्से की कुछ मिक़्दार भी दोना ज़रूरी है।

370. अगर किसी शख़्स को ग़ुस्ल के बाद पता चला की बदन का कुछ हिस्सा धुलने से रह गया है लेकिन यह इल्म न हो कि वह कौन सा हिस्सा है तो सर को दोबारा धोना ज़रूरी नहीं और बदन का सिर्फ़ वह हिस्सा धोना ज़रूरी है जिसके न धोए जाने के बारे में एहतिमाल पैदा हुआ हो।

371. अगर किसी को ग़ुस्ल के बाद पता चले कि उसने बदन का कुछ हिस्सा नहीं धोया तो अगर वह बाई तरफ़ हो तो सिर्फ़ उसी मिक़्दार का धो लेना काफ़ी है और अगर दाई तरफ़ हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उतनी मिक़्दार धोने के बाद बाई तरफ़ को दोबारा धोए और अगर सर और गर्दन धुलने से रह गई हो तो ज़रूरी है कि उतनी मिक़्दार धोने के बाद दोबारा बदन को धोए।

372. अगर किसी शख़्स को दाई या बाई तरफ़ का कुछ हिस्सा धोए जाने के बारे में शक गुज़रे तो उसके लिये ज़रूरी है कि उतनी मिक़्दार धोए और अगर उसे सर या गर्दन का कुछ हिस्सा धोए जाने के बारे में शक हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर सर और गर्दन धोने के बाद दायें और बायें हिस्से को दोबारा धोना ज़रूरी है।

इरतिमासी ग़ुस्ल

इरतिमासी ग़ुस्ल दो तरीक़ो से अन्जाम दिया जा सकता हैः- दफ़्ई और तद्रीज़ी।

373. ग़ुस्ले इरतिमासी दफ़्ई में ज़रूरी है कि एक लम्हे में पूरे बदन के साथ पानी में डुबकी लगाए लेकिन ग़ुस्ल करने से पहले एक शख़्स के सारे बदन का पानी से बाहर होना मोतबर नहीं है। बल्कि अगर बदन का कुछ हिस्सा पानी से बाहर हो और ग़ुस्ल की नीयत से पानी में ग़ोता लगाए तो काफ़ी है।

374. ग़ुस्ले इरतिमासी तद्रीजी में ज़रूरी है कि ग़ुस्ल की नीयत से एक दफ़्आ बदन को धोने का ख़्याल रखते हुए आहिस्ता आहिस्ता पानी में ग़ोता लगाए। इस ग़ुस्ल में ज़रूरी है कि बदन का पूरा हिस्सा ग़ुस्ल करने से पहले पानी से बाहर हो।

375. अगर किसी शख़्स को ग़ुस्ले तरतीबी के बाद पता चले कि उसके बदन के कुछ हिस्से तक पानी नहीं पहुंचा है तो ख़्वाह वह उस मख़्सूस हिस्से के मुतअल्लिक़ जानता हो या न जानता हो ज़रूरी है कि दोबारा ग़ुस्ल करे।

376. अगर किसी शख़्स के पास ग़ुस्ले तरतीबी के लिये वक़्त न हो लेकिन इरतीमासी ग़ुस्ल के लिये वक़्त हो तो ज़रूरी है कि इरतिमासी ग़ुस्ल करे।

377. जिस शख़्स ने हज या उमरे के लिये एहराम बांधा हो वह इरतिमासी ग़ुस्ल नहीं कर सकता लेकिन अगर उसने भूल कर इरतीमासी ग़ुस्ल कर लिया हो तो उसका ग़ुस्ल सहीह है।