तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

ग़ुस्ल के अहकाम

378. ग़ुस्ले इरतिमासी या ग़ुस्ले तरतीबी में सारे ग़ुस्ल से पहले सारे जिस्म का पाक होना ज़रूरी नहीं है बल्कि अगर पानी में ग़ोता लगाने या ग़ुस्ल के इरादे से पानी बदन पर डालने से बदन पाक हो जाए तो ग़ुस्ल सहीह होगा।

379. अगर कोई शख़्स हराम से जुनुब हुआ हो और गर्म पानी से ग़ुस्ल कर ले तो अगरचे उसे पसीना भी आए तब भी उसका ग़ुस्ल सहीह है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि ठण्डे पानी से ग़ुस्ल करे।

380. ग़ुस्ल में अगर बाल बराबर भी बदन अनधुला रह जाए तो ग़ुस्ल बातिल है लेकिन कान और नाक के अन्दरूनी हिस्सों का और हर उस चीज़ का धोना जो बातिन शुमार होती है वाजिब नहीं है ।

381. अगर किसी शख़्स को बदन के किसी हिस्से के बारे में शक हो कि उसका शुमार बदन के ज़ाहिर में है या बातिन में तो ज़रूरी है कि उसे धोए।

382. अगर कान की बाली का सूराख़ या उस जैसा कोई और सूराख़ इस क़दर खुला हो कि उसका अन्दरूनी हिस्सा बदन का ज़ाहिर शुमार किया जाए तो उसे धोना ज़रूरी है वर्ना उसका धोना ज़रूरी नहीं है।

383. जो चीज़ बदन तक पानी पहुंचाने में माने हो ज़रूरी है कि इन्सान उसे हटा दे और अगर इससे पेशतर कि उसे यक़ीन हो जाए कि वह चीज़ हट गई है ग़ुस्ल करे तो उसका ग़ुस्ल बातिल है।

384. अगर ग़ुस्ल के वक़्त किसी शख़्स को शक गुज़रे कि कोई ऐसी चीज़ उसके बदन पर है या नहीं जो बदन तक पानी पहुंचने में माने हो तो ज़रूरी है कि छानबीन करे हत्ता कि मुत्मइन हो जाए कि कोई ऐसी रूकावट नही है।

385. ग़ुस्ल में उन छोटे छोटे बालों को जो बदन का जुज़्व का शुमार होता है धोना ज़रूरी है और लम्बे बालों को धोना वाजिब नहीं है बल्कि अगर पानी को जिल्द तक इस तरह पहुंचाए कि लम्बे बाल तर न हो तो ग़ुस्ल सहीह है लेकिन अगर उन्हें धोए बग़ैर जिल्द तक पानी पहुंचाना मुम्किन न हो तो उन्हें भी धोना ज़रूरी है ताकि पानी बदन तक पहुंच जाए।

386. वह तमाम शराइत जो वुज़ू के सहीह होने के लिये बताई जा चुकी है मसलन पानी का पाक होना और ग़स्बी न होना वही शराइत ग़ुस्ल के सहीह होने के लिये भी हैं। लेकिन ग़ुस्ल में यह ज़रूरी नहीं कि इन्सान बदन को ऊपर से नीचे की जानिब धोए। अलावा अज़ीं ग़ुस्ले तरतीबी में यह ज़रूरी नहीं कि सर और गर्दन धोने के फ़ौरन बाद बदन को धोए लिहाज़ा अगर सर और गर्दन धोने के बाद तवक़्क़फ़ करे और कुछ वक़्त गुज़रने के बाद बदन को धोए तो कोई हरज नहीं बल्कि ज़रूरी नहीं कि सर और गर्दन या तमाम बदन को एक साथ धोए पस अगर मिसाल के तौर पर सर धोया हो और कुछ देर बाद गर्दन धोए तो जायज़ है लेकिन जो शख़्स पेशाब या पाख़ाना के निकलने को न रोक सकता हो ताहम उसे पेशाब या पाखाना अन्दाज़न इतने वक़्त तक न आता हो कि ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़ ले तो ज़रूरी है कि फ़ौरन ग़ुस्ल करे और ग़ुस्ल के बाद फ़ौरन नमाज़ पढ़ ले।

387. अगर कोई शख़्स यह जाने बग़ैर कि हम्माम वाला राज़ी है या नहीं उसकी उजरत उधार रखने का इरादा रखता हो तो ख़्वाह हम्माम वाले को बाद में इस बात पर राज़ी भी कर ले उसका ग़ुस्ल बातिल है।

388. अगर हम्माम वाला उधार पर ग़ुस्ल कराने के लिये राज़ी हो लेकिन ग़ुस्ल करने वाला उसकी उजरत न देने या हराम माल से देने का इरादा रखता हो तो उसका ग़ुस्ल बातिल है।

389. अगर कोई शख़्स हम्माम वाले को ऐसी रक़्म बतौरे उजरत दे जिसका ख़ुम्स अदा न किया गया हो तो अगरचे वह हराम का मुर्तकिब होगा लेकिन बज़ाहिर उसका ग़ुस्ल सहीह होगा और मुस्तहिक़्क़ीन को ख़ुम्स अदा करना उसके ज़िम्मे रहेगा.

391. अगर कोई शख़्स शक करे कि उसने ग़ुस्ल किया है या नहीं तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे लेकिन अगर ग़ुस्ल के बाद शक करे कि ग़ुस्ल सहीह किया है या नहीं तो दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी नहीं।

392. अगर ग़ुस्ल के दौरान किसी शख़्स से हदसे असग़र सर्जद हो जाए मसलन पेशाब कर दे तो उस ग़ुस्ल को तर्क करके नए सिरे से ग़ुस्ल करना ज़रूरी नहीं है बल्कि वह अपने उस ग़ुस्ल को मुकम्मल कर सकता है इस सूरत में एहतियाते लाज़िम की बिना पर वुज़ू करना भी ज़रूरी है। लेकिन अगर वह शख़्स ग़ुस्ले तरतीबी से ग़ुस्ले इरतिमासी की तरफ़ या ग़ुस्ले इरतिमासी से ग़ुस्ले तरतीबी या इरतिमासी तफ़्ई की तरफ़ पलट जाए तो वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है।

393. अगर वक़्त कम की वजह से मुकल्लफ़ शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो लेकिन इस ख़्याल से कि ग़ुस्ल और नमाज़ के लिये उसके पास वक़्त है ग़ुस्ल करे तो अगर उसने ग़ुस्ल क़स्दे क़ुर्बत से किया है तो उसका ग़ुस्ल सहीह है अगर चे उसने नमाज़ पढ़ने के लिये ग़ुस्ल किया हो।

394. जो शख़्स जुनुब हो अगर वह शक करे कि उसने ग़ुस्ल किया है या नहीं तो जो नमाज़े वह पढ़ चुका है वह सहीह है लेकिन बाद की नमाज़ों के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। और अगर नमाज़ के बाद उससे हदसे असग़र सादिर हुआ हो तो लाज़िम है कि वुज़ू भी करे और अगर वक़्त हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर जो नमाज़ पढ़ चुका है उसे दोबारा पढ़े।

395. जिस शख़्स पर कई ग़ुस्ल वाजिब हों वह उन सबकी नियत कर के एक ग़ुस्ल कर सकता है और ज़ाहिर यह है कि अगर उनमें से किसी एक मख़्सूस ग़ुस्ल का क़स्द करे तो वह बाक़ी ग़ुस्लों के लिये भी काफ़ी है।

396. अगर बदन के किसी हिस्से पर क़ुरआने मजीद की आयत या अल्लाह तआला का नाम लिखा हुआ हो तो वुज़ू या ग़ुस्ले तरतीबी करते वक़्त उसे चाहिये की पानी अपने बदन पर इस तरह पहुंचाए कि उसका हाथ उन तहरीरों को न लगो।

397. जिस शख़्स ने ग़ुस्ले जनाबत किया हो ज़रूरी नहीं कि नमाज़ के लिये वुज़ू भी करे बल्कि दूसरे वाजिब ग़ुस्लों के बाद सिवाए ग़ुस्ले इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सिता और मुस्तहब ग़ुस्लों के जिनका ज़िक्र मसअला 651 में आयेगा बग़ैर वुज़ू नमाज़ पढ़ सकता है अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू भी करे।

इस्तिहाज़ा

औरतों को जो ख़ून आते रहते हैं उनमें से एक ख़ूने इस्तिहाज़ा है और औरत को ख़ूने इस्तिहाज़ा आने के वक़्त मुस्तहाजा कहते हैं।

398. ख़ूने इस्तिहाज़ा ज़्यादातर ज़र्द रंग का और ठंडा होता है और फ़िशार और जलन के बग़ैर के होता है और गाढ़ा भी नहीं होता लेकिन मुम्किन है कि कभी स्याह या सुर्ख़ और गर्म और गाढ़ा हो और फ़िशार और सोज़िश के साथ ख़ारिज हो।

399. इस्तिहाज़ा तीन क़िस्म का होता हैः- क़लील, मुतवस्सित और कसीरः ।

क़लीलः- यह है कि ख़ून सिर्फ़ उसे रूई के ऊपर वाले हिस्से को आलूदा करे जो औरत अपनी शर्मगाह में रखे और उस रूई के अन्दर तक सरायत न करे।

इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः- यह है कि ख़ून रुई के अन्दर तक चला जाए अगरचे उसके एक कोने तक ही हो और रूई से उस कपड़े तक न पहुंचे जो औरत उमूमन ख़ून रोकने के लिये बांधती हैं।

इस्तिहाज़ा ए कसीरः- यह है कि ख़ून रूई से तजावुज़ करके कपड़े तक पहुंच जाए।

इस्तिहाजा के अहकाम

400. इस्तिहाज़ा ए क़लीलः में हर नमाज़ के लिये अलायहदा वुज़ू करना ज़रूरी है और एहतियाते मुस्तहब कि बिना पर रूई को धो ले या उसे तब्दील कर दे और अगर शर्मगाह के ज़ाहिरी हिस्से पर ख़ून लगा हो तो उसे भी धोना ज़रूरी है।

401. इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः में एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि औरत अपनी नमाज़ों के लिये रोज़ाना एक ग़ुस्ल करे और यह भी ज़रूरी है कि इस्तिहाज़ा ए क़लीलः के वह अफ़्आल सर अंजाम दें जो साबिक़ा मस्अले में बयान हो चुके हैं चुनांचे अगर सुब्ह की नमाज़ के दौरान औरत को इस्तिहाज़ा आ जाए तो सुब्ह की नमाज़ के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। अगर जान बूझ कर या भूल कर सुब्ह की नमाज़ के लिये ग़ुस्ल न करे तो ज़ौहर और अस्र की नमाज़ के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है और अगर नमाज़े ज़ौहर और अस्र के लिये ग़ुस्ल न करे तो मग़रिब और इशा से पहले ग़ुस्ल करना ज़रूरी है ख़्वाह ख़ून आ रहा हो या बन्द हो चुका हो।

402. इस्तिहाज़ा ए कसीरः में एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि औरत हर नमाज़ के लिये रूई और कपड़े का टुकड़ा तब्दील करे या उसे धोए। और एक ग़ुस्ल फ़ज्र की नमाज़ के लिये और एक ग़ुस्ल ज़ौहर और अस्र की और एक ग़ुस्ल मग़रिब व इशा की नमाज़ के लिये करना ज़रूरी है और ज़ौहर और अस्र की नमाज़ों के दरमियान फ़ासला न रखे। और अगर फ़ासिला रखे तो अस्र की नमाज़ के लिये दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। इसी तरह अगर मग़रिब व इशा की नमाज़ के दरमियान फ़ासिला रखे तो इशा की नमाज़ के लिये दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। यह मज़्कूरा अहकाम उस औरत में हैं कि अगर खून बार बार रूई से पट्टी पर पहुंच जाए। अगर रूई से पट्टी तक पहुंचने में इतना फ़ासिला हो कि औरत उस फ़ासिले के अन्दर एक नमाज़ या एक से ज़्यादा नमाज़ पढ़ सकती हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि जब ख़ून रूई से पट्टी तक पहुंच जाए तो रूई और पट्टी को तब्दील कर ले या धो ले और ग़ुस्ल कर ले। इसी बिना पर अगर औरत ग़ुस्ल करे और मसलन ज़ौहर की नमाज़ पढ़े लेकिन अस्र की नमाज़ से पहले या नमाज़ के दौरान दोबारा ख़ून रूई से पट्टी पर पहुंच जाए तो अस्र की नमाज़ के लिये भी ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। लेकिन अगर फ़ासिला इतना हो कि औरत उस दौरान दो या दो से ज़्यादा नमाज़ें पढ़ सकती हो तो ज़ाहिर यह है कि उन नमाज़ों के लिये दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी नहीं है इन तमाम सूरतों में अज़्हर यह है कि इस्तिहाज़ा ए कसीरः में ग़ुस्ल करना वुज़ू के लिये भी काफ़ी है।

403. अगर ख़ूने इस्तिहाज़ः नमाज़ के वक़्त से पहले भी आए औरत ने उस ख़ून के लिये वुज़ू या ग़ुस्ल न किया हो तो नमाज़ के वक़्त वुज़ू या ग़ुस्ल करना ज़रूरी है अगरचे वह उस वक़्त मुस्तहाज़ः न हो।

404. मुस्तहाज़ा ए मुतवस्सितः जिसके लिये वुज़ू और ग़ुस्ल करना ज़रूरी है एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसे चाहिये कि पहले ग़ुस्ल करे और बाद में वुज़ू करे लेकिन मुस्तहाज़ा ए कसीरः मे अगर वुज़ू करना चाहे तो ज़रूरी है कि वुज़ू ग़ुस्ल से पहले करे।

405. अगर औरत का इस्तिहाज़ा ए क़लीलः सुब्ह की नमाज़ के बाद मुतवस्सितः हो जाए तो ज़रूरी है कि ज़ौहर और अस्र की नमाज़ के लिये ग़ुस्ल करे। और अगर ज़ौहर और अस्र की नमाज़ के बाद मुतवस्सितः हो तो मग़रिब और इशा की नमाज़ के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

406. अगर औरत का इस्तिहाज़ा ए क़लीलः या मुतवस्सितः सुब्ह की नमाज़ के बाद कसीरः हो जाए और वह औरत उसी हालत पर बाक़ी रहे तो मस्अला न0. 402 में जो अहकाम गुज़र चुके हैं नमाज़े ज़ौहर व अस्र और मग़रिब व इशा पढ़ने के लिये उन पर अमल करना ज़रूरी है।

407. मुस्तहाज़ा ए कसीरः की जिस सूरत में ज़रूरी है कि नमाज़ और ग़ुस्ल के दरमियान फ़ासिला न हो जैसा कि मस्अला न0. 402 में गुज़र चुका है अगर नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने से पहले ग़ुस्ल करने की वजह से नमाज़ और ग़ुस्ल में फ़ासिला हो जाए तो उस ग़ुस्ल के साथ नमाज़ सहीह नहीं है और यह मुस्तहाज़ः नमाज़ के लिये दोबारा ग़ुस्ल करे। और यही हुक्म मुस्तहाज़ा ए मुतवस्सितः के लिये भी है।

408. ज़रूरी है कि मुस्तहाज़ा ए क़लीलः व मुतवस्सितः रोज़ाना की नमाज़ों के अलावा जिनके बारे में हुक्म ऊपर बयान हो चुका है हर नमाज़ के लिये ख़्वाह वह वाजिब हो या मुस्तहब, वुज़ू करे। लेकिन अगर वह चाहे कि रोज़ाना की वह नमाज़े जो वह पढ़ चुकी हो एहतियातन दोबारा पढ़े या जो नमाज़ें उसने तन्हा पढ़ीं हैं दोबारा बाजमाअत पढ़े तो ज़रूरी है कि वह तमाम अफ़्आल बजा लाए जिनका ज़िक्र इसतिहाज़ः के सिलसिले में किया गया है अलबत्ता अगर वह नमाज़े एहतियात. भूले हुए सज्दे और भूले हुए तशह्हुद की बजा आवरी नमाज़ के फ़ौरन बाद करे और इसी तरह सज्दा ए सहव किसी भी सूरत में करे तो उसके लिये इसतिहाज़ः के अफ़्आल का अन्जाम देना ज़रूरी नहीं है।

409. अगर किसी मुस्तहाज़ः औरत का ख़ून रूक जाए तो उसके बाद जो पहली नमाज़ पढ़े सिर्फ़ उसके लिये इसतिहाज़ः के अफ़्आल अन्जाम देना ज़रूरी है। लेकिन बाद की नमाज़ों के लिये ऐसा करना ज़रूरी नहीं।

410. अगर किसी औरत को यह मालूम न हो कि उसका इस्तिहाज़ा कौन सा है तो जब नमाज़ पढ़ना चाहे बतौ एहतियात ज़रूरी है कि तह्क़ीक़ करने के लिये थोड़ी सी रूई शर्मगाह में रखे और कुछ देर इन्तिज़ार करे और फिर रूई निकाल ले और जब उसे पता चल जाए कि उसका इस्तिहाज़ः तीन अक़्साम में से कौन सी क़िस्म का है तो उस क़िस्म की इस्तिहाज़ः के लिये जिन अफ़्आल का हुक्म दिया गया है उन्हें अन्जाम दे। लेकिन अगर वह जानती हो कि जिस वक़्त तक वह नमाज़ पढ़ना चाहती है उसका इस्तिहाज़ः तब्दील नहीं होगा तो नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने से पहले भी वह अपने बारे में तहक़ीक़ कर सकती है।

411. अगर मुस्तहाज़ः अपने बारे में तहक़ीक़ करने से पहले नमाज़ में मश्ग़ूल हो जाए तो अगर वह क़ुर्बत का क़स्द रखती हो और उसने अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल किया हो मसलन उसका इस्तिहाज़ः क़लीलः हो और उसने इस्तिहाज़ः क़लीलः के मुताबिक़ अमल किया हो तो उसकी नमाज़ सहीह है लेकिन अगर वह क़ुर्बत का क़स्द न रखती हो या उसका अमल उसके वज़ीफ़े के मुताबिक़ न हो मतलब उसका इस्तिहाज़ः मुतवस्सितः हो और उसने अमल इस्तिहाज़ः क़लीलः के मुताबिक़ किया हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।

412. अगर मुस्तहाज़ः अपने बारे में तहक़ीक़ न कर सके तो ज़रूरी है कि जो उसका यक़ीनी वज़ीफ़ा हो उसके मुताबिक़ अमल करे मसलन अगर वह यह न जानती हो कि उसका इस्तिहाज़ः क़लीलः है या मुतवस्सितः तो ज़रूरी है कि इस्तिहाज़ः क़लीलः के अफ़्आल अन्जाम दे और अगर वह यह न जानती हो की उसका इस्तिहाज़ः मुतवस्सितः है या क़सीरः तो ज़रूरी है कि इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः के अफ़्आल अन्जाम दे। लेकिन अगर वह जानती हो कि इससे पेशतर उसे उन तीन अक़्साम में से कौन सी क़िस्म का इस्तिहाज़ः था तो ज़रूरी है कि उसी क़िस्म के मुताबिक़ अपना वज़ीफ़ा अन्जाम दे।

413. अगर इस्तिहाज़ः का ख़ून अपने इब्तिदाई मर्हले पर जिस्म के अन्दर ही हो और बाहर न निकले तो औरत ने जो वुज़ू या ग़ुस्ल किया हुआ हो उसे बातिल नहीं करता लेकिन अगर बाहर आ जाए तो ख़्वाह कितना ही कम क्यों न हो वुज़ू और ग़ुस्ल को बातिल कर देता है।

414. मुस्तहाज़ः अगर नमाज़ के बाद अपने बारे में तहक़ीक़ करे और ख़ून न देखे तो अगरचे उसे इल्म हो कि दोबारा ख़ून आयेगा जो वुज़ू वह किये हुए है उसी से नमाज़ पढ़ सकती है।

415. मुस्तहाज़ः औरत अगर यह जानती हो कि जिस वक़्त वह वुज़ू या ग़ुस्ल में मशग़ूल हुई है ख़ून उसके बदन से बाहर नहीं आया और न ही शर्मगाह के अन्दर है तो जब तक उसे पाक रहने का यक़ीन हो नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर कर सकती है।

416. अगर मुस्तहाज़ः को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त गुज़रने से पहले पूरी तरह पाक हो जायेगी या अन्दाज़न जितना वक़्त नमाज़ पढ़ने में लगता है उसमें ख़ून आना बन्द हो जायेगा तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि इन्तिज़ार करे और उस वक़्त नमाज़ पढ़े जब पाक हो।

417. अगर वुज़ू और ग़ुस्ल के बाद में ख़ून आना बज़ाहिर बन्द हो जाए और मुस्तहाज़ः को मालूम हो कि अगर नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर करे तो जितनी देर में वुज़ू ग़ुस्ल और नमाज़ बजा लायेगी बिल्कुल पाक हो जायेगी तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि मुवख़्खर कर दे और जब बिल्कुल पाक हो जाए दोबारा वुज़ू और ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़े और अगर ख़ून के बज़ाहिर बन्द होने के वक़्त नमाज़ का वक़्त तंग हो तो वुज़ू और ग़ुस्ल दोबारा करना ज़रूरी नहीं बल्कि जो वुज़ू और ग़ुस्ल उसने किये हुए हैं उन्हीं के साथ नमाज़ पढ़ सकती है।

418. मुस्तहाज़ा ए क़सीरः जब ख़ून से बिल्कुल पाक हो जाए अगर उसे मालूम हो कि जिस वक़्त से उसने ग़ुज़िशता नमाज़ के लिये ग़ुस्ल किया था उस वक़्त तक ख़ून नहीं आया तो दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी नहीं है बसूरते दीगर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। अगरचे इस हुक्म का बतौरे कुल्ली होना एहतियात की बिना पर है और मुस्तहाज़ा ए मुतवस्सितः में ज़रूरी नहीं है कि ख़ून से बिल्कुल पाक हो जाए फिर ग़ुस्ल करे।

419. मुस्तहाज़ा ए क़लीलः को वुज़ू के बाद और मुस्तहाज़ा ए मुतवस्सित को ग़ुस्ल और वुज़ू के बाद और मुस्तहाज़ा ए क़सीरः को ग़ुस्ल के बाद (उन दो सूरतों के अलावा जो मस्अला 403 और 415 में आई हैं) फ़ौरन नमाज़ में मशग़ूल होना ज़रूरी है। लेकिन नमाज़ से पहले अज़ान और इक़ामत कहने में कोई हर्ज नहीं और वह नमाज़ में मुस्तहब काम समलन क़ुनूत वग़ैरह पढ़ सकती है।

420. अगर मुस्तहाज़ः जिसका वज़ीफ़ा यह हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल और नमाज़ के दरमियान फ़ासिला न रखे अघर उसने अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल न किया हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू या ग़ुस्ल करने के बाद फ़ौरन नमाज़ में मशग़ूल हो जाए।

421. अगर औरत का ख़ूने इस्तिहाज़ः जारी रहे और बन्द होने में न आए और ख़ून का रोकना उसके लिये मुज़िर न हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के फ़ौरन बाद ख़ून को बाहर आने से रोके और अगर ऐसा करने में कोताही बर्ते और ख़ून निकल आए तो जो नमाज़ पढ़ ली हो उसे दोबारा पढ़े बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा ग़ुस्ल करे।

422. अगर ग़ुस्ल करते वक़्त ख़ून न रूके तो ग़ुस्ल सहीह है लेकिन अगर ग़ुस्ल के दौरान इस्तिहाज़ा ए मुतावस्सितः इस्तिहाज़ा ए क़सीरः हो जाए तो अज़ सरे नव ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

423. एहतियाते मुस्तहब यह है कि मुस्तहाज़ः रोज़े से हो तो सारा दिन जहां तक मुम्किन हो ख़ून को निकल ने से रोके।

424. मशहूर क़ौल की बिना पर मुस्तहाज़ा ए क़सीरः का रोज़ा उस सूरत में सहीह होगा कि जिस रात के बाद के दिन वह रोज़ा रखना चाहती हो उस रात की मग़रिब और इशा की नमाज़ का ग़ुस्ल करे। अलावा अज़ीं दिन के वक़्त वह ग़ुस्ल अन्जाम दे जो दिन की नमाज़ों के लिये वाजिब है। लेकिन कुछ बईद नहीं कि उसके रोज़े की सेहत का इनहिसार ग़ुस्ल पर न हो। इसी तरह बिनाबर अक़्वा मुस्तहाज़ा ए सुतवस्सितः में यह ग़ुस्ल शर्ते नहीं है।

425. अगर औरत अस्र की नमाज़ के बाद मुस्तहाज़ः हो जाए और ग़ुरूबे आफ़ताब तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा बिला इशकाल सहीह है।

426. अगर किसी औरत का इस्तिहाज़ा ए क़लीलः नमाज़ से पहले मुतवस्सितः या कसीरः हो जाए तो ज़रूरी है कि मुतवस्सितः या क़सीरः के अफ़्आल जिनका ऊपर ज़िक्र हो चुका है अंजाम दे और अगर इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः कसीरः हो जाए तो चाहिये कि इस्तिहाज़ा ए कसीरः के लिये ग़ुस्ल कर चुकी हो तो उसका यह ग़ुस्ल बेफ़ायदा होगा और उसे इस्तिहाज़ा ए कसीरः के लिये दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

427. अगर नमाज़ के बाद किसी औरत का इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः कसीरः में बदल जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़ दे और इस्तिहाज़ा ए क़सीर के लिये ग़ुस्ल करे और उसके दूसरे अफ़्आल अन्जाम दे और फिर उसी नमाज़ को पढ़े और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ग़ुस्ल से पहले वुज़ू करे और अगर उसके पास ग़ुस्ल के लिये वक़्त न हो तो ग़ुस्ल के लिये तयम्मुम करना ज़रूरी है। और अगर तयम्मुम के लिये भी वक़्त न हो तो एहतियात की बिना पर नमाज़ न तोड़े और उसी हालत में ख़त्म करे। लेकिन ज़रूरी है कि वक़्त गुज़रने के बाद उसी नमाज़ की क़ज़ा करे। और इसी तरह अगर नमाज़ के दौरान उसका इस्तिहाज़ा ए क़लीलः इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः या क़सीरः हो जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ को तोड़ दे और इस्तहाज़ा ए मुतवस्सितः कसीरः हो जाए तो ज़रूरी है कि नमाज़ को तोड़ दे और इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः या कसीरः के अफ़्आल को अन्जाम दे।

428. अगर नमाज़ के दौरान ख़ून बन्द हो जाए और मुस्तहाज़ः को मालूम न हो कि बातिन में भी ख़ून बन्द हुआ है या नहीं तो अगर नमाज़ के बाद उसे पता चले कि ख़ून पूरे तौर पर बन्द हो गया था और उसके बाद इतना वसी वक़्त हो कि पाक होकर दोबारा नमाज़ पढ़ सके तो अगर ख़ून बन्द हो ने से मायूस न हुई हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर अपने वज़ीफ़ के मुताबिक़ वुज़ू या ग़ुस्ल करे और नमाज़ दोबारा पढ़े।

429. अगर किसी औरत का इस्तिहाज़ा ए कसीरः मुतवस्सितः हो जाए तो ज़रूरी है कि पहली नमाज़ के लिये क़सीरः का अमल और बाद की नमाज़ों के लिये मुतवस्सितः का अमल बजा लाए मसलन अगर ज़ौहर की नमाज़ से पहले इस्तिहाज़ा ए क़सीरः मुतवस्सितः हो जाए तो ज़रूरी है कि ज़ौहर की नमाज़ के लिये ग़ुस्ल करे और अस्र व मग़रिब व इशा के लिये सिर्फ़ वुज़ू करे लेकिन अगर नमाज़े ज़ौहर के लिये ग़ुस्ल न करे और उसके पास सिर्फ़ नमाज़े अस्र के लिये वक़्त बाकी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़े अस्र के लिये ग़ुस्ल करे और अगर नमाज़े अस्र के लिये भी ग़ुस्ल न करे तो ज़रूरी है कि नमाज़े मग़रिब के लिये ग़ुस्ल करे और अगर उसके लिये भी ग़ुस्ल न करे और उसके पास सिर्फ़ नमाज़े इशा के लिये वक़्त हो तो नमाज़े इशा के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

430. अगर हर नमाज़ से पहले मुस्तिहाज़ा ए क़सीर का ख़ून बन्द हो जाए और दोबारा आ जाए तो हर नमाज़ के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

431. अगर इस्तिहाज़ा ए कसीरः क़लीलः हो जाए तो ज़रूरी है कि वह औरत पहली नमाज़ के लिये कसीरः वाले और बाद की नमाज़ों के लिये क़लीलः वाले अफ़्आल बजा लाए और इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सितः क़लीलः हो जाए तो पहली नमाज़ के लिये मुतवस्सितः वाले और बाद की नमाज़ों के लिये क़लील वाले अफ़्आल बजा लाना ज़रूरी है।

432. मुस्तहाज़ः के लिये जो अफ़्आल वाजिब है अगर वह उनमें से किसी एक को भी तर्क कर दे तो उसकी नमाज़ बातिल है।

433. मुस्तहाज़ा ए क़लीलः या मुतवस्सितः अगर नमाज़ के अलावा वह काम अन्जाम देना चाहती हो जिनके लिये वुज़ू का होना शर्त है मसलन अपने बदन का कोई हिस्सा क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ से मस करना चाहती हो तो नमाज़ अदा करने के बाद वुज़ू करना ज़रूरी है और वह वुज़ू जो नमाज़ के लिये किया था काफ़ी नहीं है।

434. जिस मुस्तहाज़ः ने अपने वाजिब ग़ुस्ल कर लिये हों उसका मस्जिद में जाना और वहां ठहरना और वह आयात पढ़ना जिनके पढ़ने से सज्दा वाजिब हो जाता है और उसके शौहर का उसके साथ मुजामिअत करना हलाल है। ख़्वाह उसने वह अफ़्आल जो नमाज़ के लिये अन्जाम देती थी (मसलन रूई और कपड़े के टुकड़े का तब्दील करना) अंजाम न दिये हों और बईद नहीं कि यह अफ़्आल बग़ैर ग़ुस्ल भी जायज़ हों अगरचे एहतियात उनके तर्क करने में है।

435. जो औरत इस्तिहाज़ा ए कसीरः या मुतवस्सितः में हो अगर वह चाहे कि नमाज़ के वक़्त से पहले उस आयत को पढ़े जिसके पढ़ने से सज्दा वाजिब हो जाता है या मस्जिद में तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे और उसका शौहर उससे मुजामिअत करना चाहे तो तब भी यही हुक्म है।

436. मुस्तहाज़ः पर नमाज़े आयात का पढ़ना वाजिब है और नमाज़े आयात अदा करने के लिये यौमीयः नमाज़ों के लिये बयान किये गए तमाम अफ़्आल अंजाम देना ज़रूरी है।

437. जब भी यौमीयः नमाज़ के वक़्त में नमाज़े आयात मुस्तहाज़ः पर वाजिब हो जाए और वह चाहे कि उन दोनों नमाज़ों को यके बाद दीगरे अदा करे तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह उन दोनों को एक वुज़ू और ग़ुस्ल से नहीं पढ़ सकती।

438. अगर मुस्तहाज़ः क़ज़ा नमाज़ पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि नमाज़ के लिये वह अफ़्आल अन्जाम दे जो अदा नमाज़ के लिये उस पर वाजिब हैं और एहतियात की बिना पर क़ज़ा नमाज़ के लिये उन अफ़्आल पर इक्तिफ़ा नहीं कर सकती जो कि उसने अदा नमाज़ के लिये अंजाम दियें हों।

439. अगर कोई औरत जानती हो कि जो ख़ून उसे आ रहा है वह ज़ख़्म का ख़ून नहीं है लेकिन उस ख़ून के इस्तिहाज़ः हैज़ या निफ़ास होने के बारे में शक और शरअन वह ख़ून हैज़ व निफ़ास का हुक्म भी न रखता हो तो ज़रूरी है कि इस्तिहाज़ः वाले अहकाम के मुताबिक़ अमल करे। बल्कि अगर उसे शक हो कि यह ख़ून इस्तिहाज़ः है या कोई दूसरा और वह दूसरे ख़ून की अलामत भी न रखता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर इस्तिहाज़ः के अफ़्आल अन्जाम देना ज़रूरी है।

हैज़ (माहवारी)

हैज़ वह ख़ून है जो उमूमन हर महीने चन्द दिनों के लिये औरतों के रहिम (गर्भाशय) से ख़ारिज होता है और औरत को जब हैज़ (माहवारी) का ख़ून आए तो उसे हाइज़ कहते हैं।

440. हैज़ का ख़ून उमूमन गाढ़ा और गर्म होता है और उसका रंग स्याह या सुर्ख होता है। वह उछलकर और थोड़ी जलन के साथ ख़ारिज होता है।

441. वह ख़ून जो औरतों को साठ बरस पूरे करने के बाद आता है हैज़ का हुक्म नहीं रखता। एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह औरतें जो ग़ैर क़ुरेशी है वह पाच से साठ साल की उम्र के दौरान ख़ून इस तरह देखें कि अगर वह पचास साल से पहले ख़ून देखतीं तो वह ख़ून यक़ीक़न हैज़ का हुक्म रखता तो वह मुस्तहाज़ः वाले अहकाम बजा लायें और उन कामों को तर्क करें जिन्हें हाइज़ तर्क करती है।

442. अगर किसी लड़की को नौ साल की उम्र तक पहुंचने से पहले ख़ून आए तो वह हैज़ नहीं है।

443. हामिलः और बच्चे को दूध पिलाने वाली औरत को भी हैज़ आना मुम्किन है और हामिलः और ग़ैर हामिलः का हुक्म एक ही है। बस (फ़र्क़ यह है कि) हामिलः औरत अपनी आदत के अय्याम शूरू होने के बीस रोज़ बाद भी अगर हैज़ की अलामतों (माहवारी के लक्षणों) के साथ ख़ून देखे तो उसके लिये एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि वह उन कामों को तर्क कर दे जिन्हें हाइज़ तर्क करती है और मुस्तहाज़ः के अफ़्आल भी बजा लाए।

444. अगर किसी ऐसी लड़की को ख़ून आए जिसे अपनी उम्र के नौ साल पूरे होने का इल्म न हो और उस ख़ून में हैज़ की अलामत न हों तो वह हैज़ नहीं है और अगर उस ख़ून में हैज़ की अलामत हों तो उस पर हैज़ का हुक्म लगाना महल्ले इश्क़ाल है मगर यह कि इत्मीनान हो जाए कि यह हैज है उस सूरत में यह मआलूम हो जायेगा कि उसकी उम्र पूरे नौ साल हो गई है।

445. जिस औरत को शक हो कि उसकी उम्र साठ साल हो गई है या नहीं अगर वह ख़ून देखे और यह न जानती हो कि यह हैज़ या नहीं तो उसे समझना चाहिये कि उसकी उम्र साठ साल नहीं है।

446. हैज़ की मुद्दत तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा नहीं होती और अगर ख़ून आने की मुद्दत तीन दिन से भी कम हो तो वह हैज़ नहीं होगा।

447. हैज़ के लिये ज़रूरी है कि पहले तीन दिन लगातार आए लिहाज़ा अगर मिसाल के तौर पर किसी औरत को दो दिन ख़ून आए फिर एक दिन न आए और फिर एक दिन आ जाए तो वह हैज़ नहीं है।

448. हैज़ की इब्तिदा में ख़ून का बाहर आना ज़रूरी है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि पूरे तीन दिन ख़ून निकलता रहे बल्कि अगर शर्मगाह में ख़ून मौजूद हो तो काफ़ी है और अगर तीन दिनों में थोड़े से वक़्त के लिये भी कोई औरत पाक हो जाए जैसा कि तमाम या बाज़ औरतों के दरमियान मुतआरफ़ है तब भी वह हैज़ है।

449. एक औरत के लिये यह ज़रूरी है कि उसका ख़ून पहली रात और चौथी रात को बाहर निकले लेकिन यह ज़रूरी है कि दूसरी और तीसरी रात को मुन्क़तअ न हो पस अगर पहले दिन सुब्ह सवेरे से तीसरे दिन ग़ुरूबे आफ़ताब तक मुतवातिर ख़ून आता रहे और किसी वक़्त बन्द न हो तो वह हैज़ है। और अगर पहले दिन दोपहल से ख़ून आना शूरू हो और चौथे दिन उसी वक़्त बन्द हो तो उसकी सूरत भी यही हुक्म है (यानी वह भी हैज़ है) ।

450. अगर किसी औरत को तीन दिन मुतवातिर ख़ून आता रहे फिर वह पाक हो जाए चुनांचे अगर फिर वह दोबारा ख़ून देखे तो जिन दिनों में वह ख़ून देखे और जिन दिनों में वह पाक हो उन तमाम दिनों को मिला कर अगर दस दिन से ज़्यादा न हों तो जिन दिनों में वह ख़ून देखे वह हैज़ के दिन हैं लेकिन एहतियाते लाज़िम की बिना पर पाकी के दिनों में वह उन तमाम उमूर को जो पाक औरत पर वाजिब और हाइज़ के लिये हराम है अंजाम दे।

451. अगर किसी औरत को तीन दिन से ज़्यादा और दस दिन से कम ख़ून आए और उसे यह इल्म न हो कि या ख़ून फोड़े या ज़ख़्म का है या हैज़ का तो उसे चाहिये की उस ख़ून को हैज़ न समझे।

452. अगर किसी औरत को ऐसा ख़ून आए कि जिसके बारे में उसे इल्म न हो कि ज़ख़्म का ख़ून है या हैज़ का तो ज़रूरी है कि अपनी इबादत बजा लाती रहे। लेकिन अगर उसकी साबिकः हालत हैज़ की रही हो तो उस सूरत में उसे हैज़ क़रार दे।

453. अगर किसी औरत को ख़ून आए और उसे शक हो कि यह ख़ून हैज़ है या इस्तिहाज़ः तो ज़रूरी है कि हैज़ की अलामत मौजूद होने की सूरत में उसे हैज़ क़रार दे।

454. अगर किसी औरत को ख़ून आए और उसे यह मआलूम न हो कि हैज़ या बकारत का ख़ून है तो ज़रूरी है कि अपने बारे में तहक़ीक़ करे यानी कुछ रूई शर्मगाह में रखे और थोड़ी देर इन्तिज़ार करे फिर रूई बाहर निकाले। पस अगर ख़ून रूई के अत्राफ़ में लगा हो तो बकारत है और सारी की सारी रूई ख़ून में तर हो जाए तो हैज़ है।

455. अगर किसी औरत को तीन दिन से कम मुद्दत तक ख़ून आए और फिर बन्द हो जाए और तीन दिन के बाद ख़ून आए तो दूसरा ख़ून हैज़ है और पहला ख़ून ख़्वाह वह उसकी आदत के दिनों ही में आया हो हैज़ नहीं है।

हाइज़ के अहकाम

456. चन्द चीज़ें हाइज़ पर हराम हैः-

1. नमाज़ या उस जैसी दीगर इबादतें जिन्हें वुज़ू या ग़ुस्ल या तयम्मुम के साथ अदा करना ज़रूरी है लेकिन उन इबादतों के अदा करने में कोई हरज नहीं जिनके लिये वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम करना ज़रूरी नहीं जैसै नमाज़े मैयित।

2. वह तमाम चीज़ें जो मुज्निब पर हराम हैं और जिनका ज़िक्र जनाबत के अहकाम में आ चुका है।

3. औरत की फ़र्ज़ में जिमाअ (संभोग) करना जो मर्द और औरत दोनों के लिये हराम है ख़्वाह दुख़ूल सिर्फ़ सुपारी की हद तक ही हो और मनी भी ख़ारिज न हो बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि सुपारी से कम मिक़दार में भी दुख़ूल न किया जाए नीज़ एहतियात की बिना पर औरत की दुबुर में मुजामिअत न करे ख़्वाह वह हाइज़ हो या न हो।

457. उन दिनों में भी जिमाअ करना हराम है जिनमें औरत का हैज़ यक़ीनी न हो लेकिन शरअन उसके लिये ज़रूरी है कि अपने आप को हाइज़ क़रार दे। पस जिस औरत को दस दिन से ज़्यादा ख़ून आया हो उसके लिये ज़रूरी है कि उस हुक्म के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र बाद में किया जायेगा अपने आपको उतने दिन के लिये हाइज़ क़रार दे जितने दिन ती उसके कुंबे की औरतों की आदत हो तो उसका शौहर उन दिनों में उस से मुजामिअत नहीं कर सकता।

558. अगर मर्द अपनी बीवी से हैज़ की हालत में मुजामिअत करे तो उसके लिये ज़रूरी है कि इस्तिग़फ़ार करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा भी अदा करे, उसका कफ़्फ़ारा मस्अला 460 में बयान होगा।

459. हाइज़ से मुजामिअत के अलावा दूसरी लुत्फ़ अन्दोज़ियों मसलन बोसो कनार की मुमानिअत नहीं है।

460. हैज़ की हालत में मुजामिअत का कफ़्फ़ारा हैज़ के पहले हिस्से में अट्ठारा चनों के बराबर, दूसरे हिस्से में नौ चनों के बराबर और तीसरे हिस्से में साढ़े चार चनों के बराबर सिक्कादार सोना है। मसलन अगर किसी औरत को छः दिन हैज़ का ख़ून आए और उसका शौहर पहली या दूसरी रात या दिन में उससे जिमाअ करे तो अट्ठारा चनों के बराबर सोना दे अगर तीसरी या चौथी रात या दिन में जिमाअ करे तो नौ चनों के बराबर सोना दे और अगर पांचवी या छठी रात में जिमाअ करे तो साढ़े चार चनों के बराबर सोना दे।

461. अगर सिक्कादार सोना मुम्किन न हो तो मुतअल्लिक़ा शख़्स उसकी क़ीमत दे और अगर सोने की उस वक़्त की क़ीमत से जबकि उसने जिमाअ किया था उस वक़्त की क़ीमत जबकि वह ग़रीब मोहताज को देना चाहता हो मुख़्तलिफ़ हो गई हो तो उस वक़्त की क़ीमत के मुताबिक़ लगाए जब वह ग़रीब मोहताज को देना चाहता हो।

462. अगर किसी शख़्स ने हैज़ के पहले हिस्से में भी दूसरे हिस्से में भी और तीसरे हिस्से में भी अपनी बीवी से जिमाअ किया हो तो वह तीनों कफ़्फ़ारे दे जो सब मिलकर साढ़े एक्तीस (6.506 ग्राम) हो जाते हैं।

463. अगर कोई शख़्स हाइज़ से कई बार जिमाअ करे तो बेहतर यह है कि हर जिमाअ के लिये कफ़्फ़ारा दे।

464. अगर मर्द को जिमाअ के दौरान मालूम हो जाए कि औरत को हैज़ आने लगा है तो ज़रूरी है कि फ़ौरन उस से जुदा हो जाए और अगर जुदा न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा दे।

465. अगर कोई शख़्स हाइज़ से ज़िना (बलात्कार) करे या यह गुमान करते हुए ना महरम हाइज़ से जिमाअ करे कि वह उसकी अपनी बीवी है तब भी एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा दे।

466. अगर कोई शख़्स ला इल्मी की बिना पर भूल कर औरत से हालते हैज़ में मुजामिअत करे तो उस पर कफ़्फ़ारा नहीं।

467. अगर एक मर्द यह ख़्याल करते हुए कि औरत हाइज़ है उससे मुजामिअत करे लेकिन बाद में मआलूम हो कि हाइज़ नहीं थी तो उस पर कफ़्फ़ारा नहीं।

468. जैसा कि तलाक़ के अहकाम में बताया जायेगा औरत को हैज़ की हालत में तलाक़ देना बातिल है।

469. अगर औरत कहे कि मैं हाइज़ हूँ या यह कहे कि मैं हैज़ से पाक हूँ और वह ग़लत बयानी न करती हो तो उसकी बात कुबूल की जाए लेकिन अगर ग़लत बयान हो तो उसकी बात क़ुबूल करने में इश्क़ाल है।

470. अगर कोई औरत नमाज़ के दौरान हाइज़ हो जाए तो उसकी नमाज़ बातिल है।

471. अगर औरत नमाज़ के दौरान शक करे कि हाइज़ हुई है या नहीं तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले की नमाज़ के दौरान हाइज़ हो गई थी तो जो नमाज़ उसने पढ़ी है वह बातिल है।

472. औरत के हैज़ से पाक हो जाने के बाद उस पर वाजिब है कि नमाज़ और दूसरी इबादत के लिये जो वुज़ू, गुस्ल या तयम्मुम करके बजा लाना चाहिये ग़ुस्ल करे और उसका तरीक़ा ग़ुस्ले जनाबत की तरह है और बेहतर यह है कि ग़ुस्ल से पहले वुज़ू भी करे।

473. औरत के हैज़ से पाक हो जाने के बाद अगरचे उसने ग़ुस्ल न किया हो उसे तलाक़ देना सहीह है और उसका शौहर उससे जिमअ भी कर सकता है लेकिन एहतियाते लाज़िम यह है कि जिमाअ शर्मगाह धोने के बाद किया जाए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसके ग़ुस्ल करने से पहले मर्द उससे जिमाअ न करे। अलबत्ता जब तक वह औरत ग़ुस्ल न करे वह दूसरे काम जो हैज़ के वक़्त पर हराम थे मसलन मस्जिद में ठहरना या क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ को छूना उस पर हलाल नहीं होते।

474. अगर पानी (औरत के) वुज़ू और ग़ुस्ल के लिये काफ़ी न हो और तक़रीबन इतना हो कि उससे ग़ुस्ल कर सके तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे और बेहतर यह है कि वुज़ू के बदले तयम्मुम करे और अगर पानी सिर्फ़ वुज़ू के लिये काफ़ी हो और इतना न हो कि उससे ग़ुस्ल किया जा सके तो बेहतर यह है कि वुज़ू करे और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना ज़रूरी है और अगर दोनों में से किसी के लिये भी पानी न हो तो ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना ज़रूरी है और बेहतर यह है कि वुज़ू के बदले भी तयम्मुम करे ।

475. जो नमाज़े औरत ने हैज़ की हालत में न पढ़ी हों उनकी क़ज़ा नहीं लेकिन रमज़ान के वह रोज़े जो हैज़ की हालत में न रखे हों ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा करे और इसी तरह एहतियाते लाज़िम की बिना पर जो रोज़े मन्नत की वजह से मुअय्यन दिनों में वाजिब हुए हों और उसने हैज़ की हालत में वह रोज़े न रखे हों तो ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा करे।

476. जब नमाज़ का वक़्त हो जाए और औरत यह जान ले (यानी उसे यक़ीन हो) की अगर वह नमाज़ पढ़ने में देर करेगी तो हाइज़ हो जायेगी तो ज़रूरी है कि फ़ौरन नमाज़ पढ़े और अगर उसे फ़क़त एहतिमाल हो कि नमाज़ में ताख़ीर करने से वह हाइज़ हो जायेगी तो भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है।

477. अगर औरत नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर करे और अव्वले वक़्त में से इतना वक़्त ग़ुज़र जाए जितना की हदस से पानी के ज़रीए, और एहतियाते लाज़िम की बिना पर तयम्मुम के ज़रीये, तहारत हासिल करके नमाज़ पढ़ने में लगता और उसे हैज़ आ जाए तो उस नमाज़ की क़ज़ा उस औरत पर वाजिब है। लेकिन जल्दी पढ़ने और ठहर ठहर के पढ़ने और दूसरी बातों के बारे में ज़रूरी है कि अपनी आदत का लिहाज़ करे मसलन एक औरत जो सफ़र में नहीं है अव्वले वक़्त में नमाज़े ज़ौहर न पढ़े तो उसकी क़ज़ा उस सूरत में वाजिब होगी जबकि हदस से तहारत हासिल करने के बाद चार रक्अत नमाज़ पढ़ने के बराबर वक़्त अव्वले ज़ौहर से ग़ुज़र जाए और वह हाइज़ हो जाए और उस औरत के लिये जो सफ़र में हो तहारत हासिल करने के बाद दो रक्अत पढ़ने के बराबर वक़्त गुज़र जाना भी काफ़ी है।

478. अगर एक औरत नमाज़ के आख़री वक़्त में ख़ून से पाक हो जाए और उसके पास अन्दाज़न इतना वक़्त हो कि ग़ुस्ल कर के एक या एक से ज़्यादा रक्अत पढ़ सके तो ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़े और अगर न पढ़े तो ज़रूरी है कि उसकी क़ज़ा बजा लाए।

479. अगर एक हाइज़ के पास (हैज़ से पाक होने के बाद) ग़ुस्ल के लिये वक़्त न हो लेकिन तयम्मुम कर के नमाज़ वक़्त के अन्दर पढ़ सकती हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह नमाज़ तयम्मुम के साथ पढ़े और अगर न पढ़े तो क़ज़ा करे। लेकिन अगर वक़्ती तंगी से क़त्ए नज़र किसी और वजह से उसका फ़रीज़ा ही तयम्मुम करना हो मसलन पानी उसके लिये मुज़िर हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करके वह नमाज़ पढ़े और अगर न पढ़े तो ज़रूरी है कि उसकी कज़ा करे।

480. अगर किसी औरत को हैज़ से पाक हो जाने के बाद शक हो कि नमाज़ के लिये वक़्त बाक़ी है या नहीं तो उसे चाहिये की नमाज़ पढ़ ले।

481. अगर कोई औरत इस ख़्याल से नमाज़ न पढ़े कि हदस से पाक होने के बाद एक रक्अत नमाज़ पढ़ने के लिये भी उसके पास वक़्त नहीं है लेकिन बाद में उसे पता चले कि वक़्त था तो उस नमाज़ की क़ज़ा बजा लाना ज़रूरी है।

482. हाइज़ के लिये मुस्तहब है कि नमाज़ के वक़्त अपने आप को ख़ून से पाक करे और रूई या कपड़े का टुकड़ा बदले और वुज़ू करे और अगर वुज़ू न कर सके तो तयम्मुम करे और नमाज़ की जगह पर रू बक़िबला बैठ कर ज़िक्र, दुआ और सलवात में मशग़ूल हो जाए।

483. हाइज़ के लिये क़ुरआने मजीद का पढ़ना और उसे अपने साथ रखना और अपने बदन का कोई हिस्सा उसके अल्फ़ाज़ के दरमियानी हिस्से से छूना नीज़ मेंहदी य उस जैसी किसी और चीज़ से ख़िज़ाब करना मकरूह है।

हाइज़ की क़िस्में

484. हाइज़ की छः क़िस्में हैः-

1. वक़्त और अदद की आदत रखने वाली औरतः- यह वह औरत है जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में एक मुअय्यन वक़्त पर हैज़ आए और उसके हैज़ के दिनों की तादाद भी दोनों महीनों में एक जैसी हो मसलन यके बाद दीगरे दो महीनों में उसे महीने की पहली तारीख़ से सातवीं तारीख़ तक ख़ून आता हो।

2. वक़्त की आदत रखने वाली औरतः- यह वह औरत है जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में मुअय्यन वक़्त पर हैज़ आए लेकिन उसके हैज़ के दिनों की तादाद दोनों महीनों में एक जैसी न हो। मसलन यके बाद दीगरे उसे महीने की पहली तारीख़ में ख़ून आना शरूउ हो लेकिन वह पहले महीने में सातवें दीन और दूसरे महीने में आठवें दीन ख़ून से पाक हो।

3. अदद की आदत रखने वाली औरतः- यह वह औरत है जिसके हैज़ के दिनों की तादाद यके बाद दीगरे दो महीनों में एक जैसी हो लेकिन हर महीने ख़ून आने का वक़्त यक़सां न हो । मसलन पहले महीने में उसे पांचवीं से दसवीं तारीख़ तक और दूसरे महीने में बारहवीं से सत्तरहवीं तारीख़ तक ख़ून आता हो।

4. मुज़्तरिबः- यह वह औरत है जिसे चन्द महीने पहले ख़ून आया हो लेकिन उसकी आदत मुअय्यन न हुई हो या उसकी साबिक़ा आदत बिगड़ गई हो और नई आदत न बनी हो।

5. मुब्तदीअहः- यह वह औरत है जिसे पहली दफ़्आ ख़ून आया हो।

6. नासियहः- यह वह औरत है जो अपनी आदत भूल चुकी हो। इनमें से हर क़िस्म की औरत के लिये अलायहदा अलायहदा अहकाम हैं जिनका ज़िक्र आइन्दा मसाइल में किया जायेगा।

1. वक़्त और अदद की आदत रखने वाली औरत

485. जो औरतें वक़्त और अदद की आदत रखती है उनकी दो क़िस्में हैः-

(अव्वल) वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों से एक मुअय्यन वक़्त पर ख़ून आए और वह और वह एक मुअय्यन वक़्त पर ही पाक भी हो जाए मसलन यके बाद दीगरे दो महीनों में उसे महीने की पहली तारीख़ को ख़ून आए और वह सातवें रोज़ पाक हो जाए तो उस औरत की हैज़ की आदत महीने की पहली तारीख़ से सातवीं तारीख़ तक है।

(दोयम) वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में मुअय्यन वक़्त पर ख़ून आए और जब तीन या ज़्यादा दिन तक ख़ून आ चुके तो वह एक या ज़्यादा दिनों के लिये पाक हो जाए और फिर उसे दोबारा ख़ून आ जाए और उन तमाम दिनों की तादाद जिनमें उसे ख़ून आया है बशुमूल उन दरमियानी दिनों के जिनमें वह पाक रही है दस से ज़्यादा न हो और दोनों महीनों में तमाम दिन जिनमें उसे ख़ून आया और बीच के वह दिन जिनमें पाक रही हो एक जितने हों तो उसकी आदत उन तमाम दिनों के मुताबिक़ क़रार पायेगी जिनमें उसे ख़ून आया लेकिन उन दिनों को शामिल नहीं कर सकती जिनके दरमियान पाक रही हो। पस लाज़िम है कि जिन दिनों में उसे ख़ून आया हो और जिन दिनों में वह पाक रही हो दोनों महीनों में उनकी तादाद एक जितनी हो मसलन अगर पहले महीने में और इसी तरह दूसरे महीने में उसे पहली तारीख़ से तीसरी तारीख़ तक ख़ून आए और फिर तीन दिन पाक रहे और फिर तीन दिन दोबारा ख़ून आए तो उस औरत की आदत छः दिन की हो जायेगी और अगर उसे दूसरे महीने में आने वाले ख़ून के दिनों की तादाद उससे कम या ज़्यादा हो तो यह औरत वक़्त की आदत रखती है, अदद नहीं।

486. जो औरत वक़्त की आदत रखती हो ख़्वाह अदद की आदत रखती हो या न रखती हो अगर उसे आदत के वक़्त या उससे एक दो दिन या उससे भी ज़्यादा दिन पहले ख़ून जाए जबकि यह कहा जाए कि उसकी आदत वक़्त से क़ब्ल हो गई है अगर उस ख़ून में हैज़ की अलामात न भी हों तब भी ज़रूरी है कि उन अहकाम पर अमल करे जो हाइज़ के लिये बयान किये गये हैं। और अगर बाद में उसे पता चले कि वह हैज़ का ख़ून नहीं था मसलन वह तीन दिन से पहले पाक हो जाए तो ज़रूरी है कि जो इबादत उसने अंजाम न दी हों उनकी क़ज़ा करे।

487. जो औरत वक़्त और अदद की आदत रखती हो अगर उसे आदत के तमाम दिनों में और आदत से चन्द दिन पहले और आदत के चन्द बाद ख़ून आए और वह कुल मिलाकर दस दिन से ज़्यादा न हो तो वह सारे का सारा हैज़ है, और अगर यह मुद्दत दस दिन से बढ़ जाए तो जो ख़ून उसे आदत के दिनों में आता है वह हैज़ है, और जो आदत से पहले या बाद में आया है वह इस्तिहाज़ा है, और जो इबादत वह आदत से पहले और बाद के दिनों में बजा नहीं लाई उसकी क़ज़ा करना ज़रूरी है। और अगर आदत के तमाम दिनों में और साथ ही आदत से कुछ दिन पहले उसे ख़ून आए और उन सब दिनों को मिलाकर उनकी तादाद दस से ज़्यादा न हो तो सारा हैज़ है, और अगर दिनों की तादाद दस से ज़्यादा हो जाए तो सिर्फ़ आदत के दिनों में आना वाला ख़ून हैज़ है, अगर चे उसमें हैज़ की अलामत न हों और उससे पहले आने वाला ख़ून हैज़ की अलामत के साथ हो। और जो ख़ून उससे पहले आए वह इस्तिहाज़ा है और अगर उन दिनों में इबादत न कि हो तो ज़रूरी है कि उसकी क़ज़ा करे। और अगर आदत के तमाम दिनों में और साथ ही आदत के चन्द दिन बाद ख़ून आए और कुल दिनों की तादाद मिलाकर दस से ज़्यादा न हो तो सारे का सारा हैज़ है और अगर यह तादाद दस से बढ़ जाए तो सिर्फ़ आदत के दिनों में आने वाला ख़ून हैज़ है और बाक़ी इस्तिहाज़ा है।

488. जो औरत वक़्त और अदद की आदत रखती हो अगर उसे आदत के कुछ दिनों में या आदत से पहले ख़ून आए और उन तमाम दिनों को मिलाकर उनकी तादाद दस से ज़्यादा न हो तो वह सारे का सारा हैज़ है। और अगर उन दिनों की तादाद दस से बढ़ जाए तो जिन दिनों में उसे हस्बे आदत ख़ून आया है और पहले के चन्द दिन शामिल कर के आदत के दिनों की तादाद पूरी होने तक हैज़ और शुरू के दिनों को इस्तिहाज़ा क़रार दे। और अगर आदत के कुछ दिनों के साथ साथ आदत के बाद के कुछ दिनों में ख़ून आए और उन सब दिनों को मिलाकर उनकी तादाद दस से ज़्यादा न हो तो सारे का सारा हैज़ है और अगर दस से बढ़ जाए तो उसे चाहिये कि जिन दिनों में आदत के मुताबिक़ ख़ून आया है उसमें बाद के चन्द दिन मिलाकर जिन दिनों की मजमूई तादाद उसकी आदत के दिनों के बराबर हो जाए उन्हें हैज़ और बाक़ी को इस्तिहाज़ा क़रार दे।

489. जो औरत आदत रखती हो अगर उसका ख़ून तीन या ज़्यादा दिन तक आने के बाद रूक जाए और फिर दोबारा ख़ून आए और उन दोनों ख़ून का दरमियानी फ़ासिला दस दिन से कम हो और उन सब दिनों की तादाद जिनमें ख़ून आया है बशुमूल उन दरमियानी दिनों के जिनमें पाक रही हो दस से ज़्यादा हो, मसलन पांच दिन ख़ून आया हो फिर पांच दिन रूक गया हो फिर पांच दिन दोबारा आया हो तो उसकी चन्द सूरतें हैः-

1. वह तमाम ख़ून या उसकी कुछ मिक़्दार जो पहली बार देखें आदत के दिनों में हों और दूसरा ख़ून जो पाक होने के बाद आया है आदत के दिनों में न हो। इस सूरत में ज़रूरी है कि पहले तमाम ख़ून को हैज़ और दूसरे ख़ून को इस्तिहाज़ा क़रार दे।

2. पहला ख़ून आदत के दिनों में न आए और दूसरा तमाम ख़ून या उसकी कुछ मिक़्दार आदत के दिनों में आए तो ज़रूरी है कि दूसरे तमाम ख़ून को हैज़ और पहले को इस्तिहाज़ा क़रार दे।

3. दूसरे और पहले ख़ून की कुछ मिक़्दार आदत के दिनों में आए और अय्यामें आदत में आना वाला पहला ख़ून तीन दिन से कम न हो, उस सूरत में वह मुद्दत ब मए दरमियान में पाक रहने की मुद्दत, और आदत के दिनों में आने वाले दूसरे ख़ून की मुद्दत, दस दिन से ज़्यादा न हो तो ख़ून हैज़ है, और एहतियाते वाजिब यह है कि वह पाकी की मुद्दत में पाक औरत के काम भी अंजाम दे और वह काम जो हाइज़ पर हराम है तर्क करे। और दूसरे ख़ून की वह मिक़्दार जो आदत के दिनों के बाद आए इस्तिहाज़ा है। और ख़ूने अव्वल की वह मिक़्दार जो अय्यामे आदत से पहले आई हो और उर्फ़न कहा जाए कि उसकी आदत वक़्त से क़ब्ल हो गई है तो वह ख़ून, हैज़ का हुक्म रखता है। लेकिन अगर उस ख़ून पर हैज़ का हुक्म लगाने से दूसरे ख़ून की भी कुछ मिक़्दार जो आदत के दिनों में थी, या सारे का सारा ख़ून, हैज़ के दस दिन से ज़्यादा हो जाए तो उस सूरत में वह ख़ून ख़ूने इस्तिहाज़ा का हुक्म रखता है मसलन अगर की आदत महीने की तीसरी से दसवीं तारीख़ तक हो और उसे किसी महीने की पहली से छठी तारीख़ तक ख़ून आए और फिर दो दिन के लिये बन्द हो जाए और फिर पन्द्रहवीं तारीख़ तक आए तो तीसरी से दसवीं तारीख़ तक हैज़ है और ग्यारहवीं से पन्द्रहवीं तक आने वाला ख़ून इस्तिहाज़ा है।

4. पहले और दूसरे ख़ून की कुछ मिक़्दार आदत के दिनों में आए लेकिन अय्यामें आदत में आने वाला पहला ख़ून तीन दिन से कम हो इस सूरत में बईद नहीं है कि जितनी मुद्दत उस औरत को अय्यामें आदत में ख़ून आया है उसे आदत से पहले आने वाले ख़ून की कुछ मुद्दत के साथ मिलाकर तीन दिन पूरे करे और उन्हें अय्यामे हैज़ क़रार दे। पस अगर ऐसा हो कि वह दूसरे ख़ून की उस मुद्दत को जो आदत के दिनों में आया है उसे हैज़ क़रार दे। मतलब यह है कि वह मुद्दत और पहले ख़ून की वह मुद्दत जिसे हैज़ क़रार दिया है और उनके दरमियान पाकी की मुद्दत सब मिलाकर दस दिन से तजावुज़ न करें तो यह सब अय्यामे हैज़ है, वर्ना दूसरा ख़ून इस्तिहाज़ा है और बाज़ सूरतों में ज़रूरी है कि पहले पूरे ख़ून को हैज़ क़रार दे, न कि उस ख़ास मिक़्दार को जिसे पहले ख़ून की कमी पूरा करने के लिये वह लाज़िमी तौर पर हैज़ क़रार देती, और इसमें दो शर्तें हैः-

(अव्वल) उसे अपनी आदत से कुछ दिन पहले ख़ून आया हो कि उसके बारे में यह कहा जाए कि उसकी आदत तब्दील होकर वक़्त से पहले हो गई है।

(दोम) वह उसे हैज़ क़रार दे तो यह लाज़िम न आए कि उसके दूसरे ख़ून की कुछ मिक़्दार जो कि आदत के दिनों में आया हो हैज़ के दस दिन से ज़्यादा हो जाए मसलन अगर औरत की आदत महीने की चौथी तारीख़ से दस तारीख़ तक थी और उसे महीने के पहले दिन से चौथे दिन के आख़िरी वक़्त तक ख़ून आए और दो दिन के लिये पाक हो और फिर दोबारा उसे पन्द्रह तारीख़ तक ख़ून आए तो इस सूरत में, पहला पूरे का पूरा हैज़ है और इसी तरह दूसरा वह ख़ून भी जो दसवें दिन के आख़िरी वक़्त तक आए हैज़ का ख़ून है।

490. जो औरत वक़्त और अदद की आदत रखती हो अगर उसे आदत के वक़्त ख़ून न आए बल्कि उसके अलावा किसी और वक़्त हैज़ के दिनों के बराबर दिनों में हैज़ की अलामत के साथ ख़ून आए तो ज़रूरी है कि उसी ख़ून को हैज़ क़रार दे ख़्वाह वह आदत के वक़्त से पहले आए या बाद में आए।

491. जो औरत वक़्त और अदद की आदत रखती हो अगर उसे आदत के वक़्त तीन या तीन से ज़्यादा दिन तक ख़ून आए लेकिन उसके दिनों की तादाद उसकी आदत के दिनों से कम या ज़्यादा हो और पाक होने के बाद उसे दोबारा इतने दिनों के लिये ख़ून आए जितनी उसकी आदत हो तो उसकी चन्द सूरतें हैः-

1. दोनों ख़ून के दिनों और उनके दरमियान पाक रहने के दिनों को मिलाकर दस दिन से ज़्यादा न हो तो उस सूरत में दोनों ख़ून हैज़ शुमार होंगे।

2. दोनों ख़ून के दरमियान पाक रहने की मुद्दत दस दिन या दस दिन से ज़्यादा हो तो उस सूरत में दोनों ख़ून में से हर एक को एक मुस्तक़िल हैज़ क़रार दिया जायेगा।

3. उन दोनों ख़ून के दरमियान पाक रहने की मुद्दत दस दिन से कम हो लेकिन उन दोनों ख़ून को और दरमियान में पाक रहने की सारी मुद्दत को मिलाकर दस दिन से ज़्यादा हो तो उस सूरत में ज़रूरी है कि पहले आने वाले ख़ून को हैज़ और दूसरे को इस्तिहाज़ा क़रार दे।

492. जो औरत वक़्त और अदद की आदत रखती हो अगर उसे दस दिन से ज़्यादा दिन तक ख़ून आए तो जो ख़ून उसे आदत के दिनों में आए ख़्वाह वह हैज़ की अलामत न भी रखता हो तब भी हैज़ है और जो ख़ून आदत के दिनों के बाद आए ख़्वाह वह हैज़ की अलामत भी रखता हो इस्तिहाज़ा है। मसलन एक ऐसी औरत जिसकी हैज़ की तारीख़ महीने की पहली तारीख़ से सातवीं तारीख़ तक हो उसे पहली से बारहवीं तक ख़ून आए तो पहले सात दिन हैज़ बक़ीया पांच दिन इस्तिहाज़ा के होंगे।

2. वक़्त की आदत रखने वाली औरत

493. जो औरतें वक़्ती आदत रखती हैं और उनकी आदत की पहली तारीख़ मुअय्यन हो उनकी दो क़िस्में हैः-

1. वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीने में मुअय्यन वक़्त पर ख़ून आए और चन्द दिनों बाद बन्द हो जाए लेकिन दोनों महीनों में ख़ून आने के दिनों की तादाद मुख़्तलिफ़ हो, मसलन उसे यके बाद दीगरे महीनों की पहली तारीख़ को ख़ून आए लेकिन पहले महीने में सातवें दिन और दूसरे महीने में आठवें दिन बन्द हो । ऐसी औरत को चाहिये की महीने की पहली तारीख़ को अपनी आदत क़रार दे ।

2. वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में मुअय्यन वक़्त पर तीन या ज़्यादा दिन ख़ून आए और फिर बन्द हो जाए और फिर दोबारा ख़ून आए और उन तमाम दिनों की तादाद जिनमें ख़ून आया है मए उन दरमियानी दिनों के जिनमें ख़ून बन्द रहा है दस से ज़्यादा न हो लेकिन दूसरे महीनें में दिनों की तादाद पहले महीने से कम या ज़्यादा हो मसलन पहले महीने में आठ दिन और दूसरे महीने में नौं दिन बनते हों तो उस औरत को भी चाहिये की महीने की पहली तारीख़ को अपनी हैज़ की तारीख़ का पहला दिन क़रार दे।

494. वह औरत जो वक़्त की आदत रखती हो अगर उसको आदत के दिनों में या आदत से दो या तीन दिन पहले ख़ून आए तो ज़रूरी है कि वह औरत उन अहकाम पर अमल करे जो हाइज़ के लिये बयान किये गए हैं और उस सूरत की तफ़्सील मस्अला 486 में गुज़र चुकी है। लेकिन उन दो सूरतों के अलावा मसलन यह कि आदत से इस क़द्र पहले ख़ून आए कि यह न कहा जा सके कि आदत वक़्त से क़ब्ल हो गई है बल्कि यह कहा जाए कि आदत की मुद्दत के अलावा (यानी दूसरे वक़्त में) ख़ून आया है या यह कहा जाए कि आदत के बाद ख़ून आया है चुनांचे वह ख़ून हैज़ की अलामत के साथ आए तो ज़रूरी है कि उन अहकाम पर अमल करे जो हाइज़ के लिये बयान किये गए हैं। और अगर ख़ून में हैज़ की अलामत न हों लेकिन वह औरत यह जान ले कि ख़ून तीन दिन तक जारी रहेगा तब भी यही हुक्म है। और अगर यह न जानती हो कि ख़ून तीन दिन तक जारी रहेगा या नहीं तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह काम जो मुस्तहाज़ा पर वाजिब है अंजाम दे और वह काम जो हाइज़ पर हराम है तर्क करे।

495. जो औरत वक़्त की आदत रखती है अगर उसे आदत के दिनों में ख़ून आए और उस ख़ून की मुद्दत दस दिन से ज़्यादा हो और हैज़ की निशानियों के ज़रिये उसकी मुद्दत मुअय्यन कर सकती हो तो अहवत यह है कि अपने रिश्तेदारों में से बाज़ औरतों की आदत के मुताबिक़ हैज़ क़रार दे चाहे वह रिश्ते मां की तरफ़ से हो या बाप की तरफ़ से ज़िन्दा हो या मुर्दा लेकिन उसकी दो शर्तें हैः-

1. उसे अपने हैज़ की मिक़्दार और उस रिश्तेदार औरत की आदत की मिक़्दार में फ़र्क़ का इल्म न हो मसलन यह कि वह ख़ुद नौजवान हो और ताक़त के लिहाज़ से क़वी और दूसरी औरत उम्र के लिहाज़ से यास के नज़्दीक़ हो तो ऐसी सूरत में मअमूलन आदत की मिक़्दार कम होती है इसी तरह वह ख़ुद उम्र के लिहाज़ से यास के नज़दीक़ हो और रिश्तेदार औरत नौजवान हो।

2. उसे उस औरत की आदत की मिक़्दार में और उसकी दूसरी रिश्तेदार औरतों की आदत की मिक़्दार में कि जिनमें पहली शर्त मौजूद है इख़्तिलाफ़ का इल्म न हो लेकिन अगर इख़्तिलाफ़ इतना कम हो कि उसे इख़तिलाफ़ शुमार न किया जाता हो तो कोई हर्ज नहीं है और उस औरत के लिये भी यही हुक्म है जो वक़्त की आदत रखती है और आदत के दिनों में कोई ख़ून न आए लेकिन आदत के वक़्त के अलावा कोई ख़ून आए जो दस दिन से ज़्यादा हो और हैज़ की मिक़्दार को निशानियों के ज़रीए मुअय्यन न कर सके।

496. वक़्त की आदत रखने वाली औरत अपनी आदत के अलावा वक़्त में आने वाले ख़ून को हैज़ क़रार नहीं दे सकती, लिहाज़ा अगर उसे आदत का इब्तिदाई वक़्त मालूम हो मसलन हर महीने की पहली को ख़ून आता हो और कभी पांचवे और कभी छठी को ख़ून से पाक होती हो चुनांचे उसे किसी एक महीने में बारह दिन ख़ून आए और वह हैज़ की निशानियों के ज़रीये उसकी मुद्दत मुअय्यन न कर सके तो चाहिये की महीने की पहली को हैज़ की पहली तारीख़ क़रार दे और उसकी तादाद के बारे में जो कुछ पहले मस्अले में बयान किया गया है उस पर अमल करे। और अगर उसकी आदत की दरमियानी या आख़िरी तारीख़ मालूम हो चुनांचे अगर उसे दस दिन से ज़्यादा ख़ून आए तो ज़रूरी है कि उसका हिसाब इस तरह करे कि आखिरी या दरमियानी तारीख़ में से एक उसकी आदत के दिनों के मुताबिक़ हो।

497. जो औरत वक़्ती आदत रखती हो और उसे दस दिन से ज़्यादा ख़ून आए और ख़ून को मस्अला 495 में बताए गए तरीक़े से मुअय्यन न कर सके मसलन उस ख़ून में हैज़ की अलामत न हों या पहले बताई गईं दो शर्तों में से एक शर्त न हो तो उसे इख़्तियार है कि तीन दिन से दस दिन तक जितने दिन हैज़ की मिक़्दार के मुनासिब समझे हैज़ क़रार दे। छः या आठ दिनों को अपने हैज़ की मिक़्दार के मुनासिब समझने की सूरत में बेहतर यह है कि सात दिनों को हैज़ क़रार दे। लेकिन ज़रूरी है कि जिन दिनों को वह हैज़ क़रार दे वह दिन उसकी आदत के वक़्त के मुताबिक़ हों जैसा कि पहले मस्अले में बयान किया जा चुका है।

3. अदद की आदत रखने वाली औरत

498. जो औरत अदद की आदत रखती हैं उनकी दो क़िस्में हैः-

1. वह औरत जिसके हैज़ के दिनों की तादाद यके बाद दीगरे दो महीनों में यकसां हो लेकिन उसके ख़ून आने का वक़्त एक जैसा न हो उस सूरत में जितने दिन उसे ख़ून आए वही उसकी आदत होगी। मसलन अगर पहले महीने में उसे पहली तारीख़ से पांचवी तारीख़ तक और दूसरे महीने में ग्यारहवीं तारीख़ तक ख़ून आए तो उसकी आदत पांच दिन होगी।

2. वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में से हर एक में तीन या तीन से ज़्यादा दिनों तक ख़ून आए और एक या उससे ज़्यादा दिनों के लिये बन्द हो जाए और फिर दोबारा ख़ून आए और ख़ून आने का वक़्त पहले महीने में और दूसरे महीने में मुख़्तलिफ़ हो उस सूरत में अगर उन तमाम दिनों की तादाद जिनमें ख़ून आया है ब मए उन दरमियानी दिनों के जिनमें ख़ून बन्द रहा है दस से ज़्यादा न हो और दोनों महीनों में से हर एक में उनकी तादाद भी यकसां हो तो वह तमाम दिन जिनमें ख़ून आया है उसके हैज़ की आदत के दिन शुमार किये जायेगें और उन दरमियानी दिनों में जिनमें ख़ून नहीं आया एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि जो काम पाक औरत पर वाजिब हैं अंजाम दे और जो काम हाइज़ पर हराम हैं उन्हें तर्क करे, मसलन अगर पहले महीने में उसे पहली तारीख़ से तीसरी तारीख़ तक ख़ून आए और फिर दो दिन तक के लिये बन्द हो जाए और फिर दोबारा तीन दिन ख़ून आए और दूसरे महीने में ग्यारहवीं तारीख़ से तेरहवीं तारीख़ तक ख़ून आए और दो दिन के लिये बन्द हो जाए और फिर दोबारा तीन दिन ख़ून आए तो उस औरत की आदत छः दिन की होगी। और अगर पहले महीने में उसे आठ दिन ख़ून आए और दूसरे महीने में चार दिन ख़ून आए और फिर बन्द हो जाए और फिर दोबारा ख़ून आए और ख़ून के दिनों और दरमियान में ख़ून के बन्द हो जाने वाले दिनों की मजमूई तादाद आठ दिन हो तो ज़ाहिरन यह औरत अदद की आदत नहीं रखती, बल्कि मुज़्तरिबः शुमार होगी जिसका हुक्म बाद में बयान किया जायेगा।

499. जो औरत अदद की आदत रखती हो अगर उसे अपनी आदत की तादाद से कम या ज़्यादा दिन ख़ून आए और उन दिनों की तादाद दस से ज़्यादा न हो तो उन तमाम दिनों को हैज़ क़रार दे। और अगर उसकी आदत से ज़्यादा ख़ून आए और दस दिन से ज़्यादा तजावुज़ कर जाए तो अगर तमाम का तमाम ख़ून एक जैसा हो तो ख़ून आने की इब्तिदा से लेकर उसकी आदत के दिनों तक हैज़ और बाक़ी दिनों को इस्तिहाज़ा क़रार दे। और अगर आने वाला तमाम ख़ून एक जैसा न हो बल्कि कुछ दिन हैज़ की अलामत के साथ और कुछ दिन इस्तिहाज़ा की अलामत के साथ हो, पस अगर हैज़ की अलामत के साथ आने वाले ख़ून के दिनों की तादाद उसकी आदत के दिनों के बराबर हो तो ज़रूरी है कि उन दिनों को हैज़ और बाक़ी दिनों को इस्तिहाज़ा क़रार दे, और अगर उन दिनों की तादाद जिनमें ख़ून हैज़ की अलामत के साथ आया हो आदत की दिनों से ज़्यादा हो तो सिर्फ़ आदत के दिन हैज़ और बाक़ी दिन इस्तिहाज़ा है, और अगर हैज़ की अलामत के साथ आने वाले ख़ून के दिनों की तादाद आदत के दिनों से कम हो तो ज़रूरी है कि उन दिनों के साथ और दिनों को मिलाकर आदत की मुद्दत पूरी करे और उनको हैज़ और बाक़ी दिनों को इस्तिहाज़ा क़रार दे।

4. मुज़्तरिबः

500. मुज़्तरिबः यानी वह औरत जिसे चन्द महीने ख़ून आए लेकिन वक़्त और अदद दोनों के लिहाज़ से उसकी आदत मुअय्यन न हुई हो अगर उसे दस दिन से ज़्यादा ख़ून आए और सारा ख़ून एक जैसा हो मसलन तमाम ख़ून हैज़ की निशानियों के साथ या इस्तिहाज़ा की निशानियों के साथ आया हो तो उसका हुक्म आदत रखने वाली औरत का हुक्म है कि जिसे अपनी आदत के अलावा वक़्त में ख़ून आए, और अलामत के ज़रिये हैज़ को इस्तिहाज़ा से तमीज़ न दे सकती हो तो एहतियात की बिना पर उसे चाहिये कि अपनी रिश्तेदार औरतों में से बाज़ औरतों की आदत के मुताबिक़ हैज़ क़रार दे और अगर यह मुम्किन न हो तो तीन और दस दिन में से किसी एक अदद को उस तफ़्सील के मुताबिक़ जो मस्अला 495 और 497 में बयान की गई है, अपने हैज़ की आदत क़रार दे।

501. अगर मुज़्तरिबः को दस दिन से ज़्यादा ख़ून आए जिसमें से चन्द दिनों के ख़ून में हैज़ की अलामात और चन्द दूसरे दिनों में इस्तिहाज़ा की अलामात हो तो अगर वह ख़ून जिसमें हैज़ की अलामात हों तीन दिन से कम या दस दिन से ज़्यादा मुद्दत तक न आया हो तो उस तमाम ख़ून को हैज़ और बाक़ी को इस्तिहाज़ा क़रार दें। और अगर तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा हो तो हैज़ के दिनों की तादाद मालूम करने के लिये ज़रूरी है कि जो हुक्म साबिक़ः मस्अले में गुज़र चुका है उसके मुताबिक़ अमल करे और अगर उस साबिक़ः ख़ून को हैज़ क़रार देने के बाद दस दिन गुज़रने से पहले दोबारा हैज़ की अलामात के साथ ख़ून आए तो बईद नहीं कि उसको इस्तिहाज़ा क़रार देना ज़रूरी हो।

5. मुब्तदिअः

502. मुब्तदिअः यानी उस औरत को जिसे पहली बार ख़ून आया हो दस दिन से ज़्यादा ख़ून आए और वह तमाम ख़ून जो मुब्तदिअः को आया है एक जैसा हो तो उसे चाहिये कि अपने कुंबे वालियों की आदत की मिक़दार को हैज़ और बाक़ी को उन दो शर्तों के साथ इस्तिहाज़ा क़रार दे जो मस्अला 495 में बयान हुई हैं। और अगर यह मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि मस्अला 497 में दी गई तफ़्सील के मुताबिक़ तीन और दस दिन में से किसी एक अदद को अपने हैज़ के दिन क़रार दे।

503. अगर मुब्तदिअः को दस से ज़्यादा दिन तक ख़ून आए जबकि चन्द दिन आने वाले ख़ून में हैज़ की अलामात और चन्द दिन आने वाले ख़ून में इस्तिहाज़ा की अलामात हों तो जिस ख़ून में हैज़ की अलामात हों वह तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा न हों वह सारा हैज़ है। लेकिन ख़ून में हैज़ की अलामात थीं उसके बाद दस दिन गुज़रने से पहले दोबारा ख़ून आए और उसमें भी हैज़ की अलामात हों मसलन पांच दिन स्याह ख़ून और नौ दिन ज़र्द और फिर दोबारा पांच दिन स्याह ख़ून आए तो उसे चाहिये कि पहले आने वाले ख़ून को हैज़ और बाद में आने वाले दोनों ख़ून को इस्तिहाज़ा क़रार दे जैसा कि मुज़्तरिबः के मुतअल्लिक़ बताया गया है।

504. अगर मुब्तदिअः को दस से ज़्यादा दिनों तक ख़ून आए जो चन्द दिन हैज़ की अलामात के साथ और चन्द दिन इस्तिहाज़ा की अलामात के साथ हो लेकिन जिस ख़ून में हैज़ की अलामात हों वह तीन दिन से कम मुद्दत तक आया हो तो चाहिये की उसे हैज़ क़रार दे और दिनों की मिक़्दार से मुतअल्लिक़ मस्अला 501 में बताए गए तरीक़े पर अमल करे।

6. नासियः

505. नासियः यानी वह औरत जो अपनी आदत की मिक़्दार भूल चुकी हो, उसकी चन्द क़िस्में हैः

उनमें से एक यह है कि अदद की आदत रखने वाली औरत अपनी आदत की मिक़्दार भूल चुकी हो अगर उस औरत को ख़ून आए जिसकी मुद्दत तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा न हो तो ज़रूरी है कि वह उन तमाम दिनों को हैज़ क़रार दे और अगर दस दिन से ज़्यादा हो तो उसके लिये मुज़्तरिबः का हुक्म है जो मस्अला 500 और 501 में बयान किया गया है सिर्फ़ एक फ़र्क़ के साथ और वह फ़र्क़ यह है कि जिन अय्याम को वह हैज़ क़रार दे रही है वह उस तादाद से कम न हों जिस तादाद के मुतअल्लिक़ वह जानती है कि उसके हैज़ के दिनों की तादाद उससे कम नहीं होती (मसलन यह है कि वह जानती है कि पांच दिन से कम उसे ख़ून नहीं आता तो पांच दिन को हैज़ क़रार देगी) इसी तरह उन अय्याम से भी ज़्यादा दिनों को हैज़ क़रार नहीं दे सकती जिनके बारे में उसे इल्म है कि उसकी आदत की मिक़्दार उन दिनों से ज़्यादा नहीं होती (मसलन वह जानती है कि पांच दिनों से ज़्यादा उसे ख़ून नहीं आता तो पांच दिन से ज़्यादा हैज़ क़रार नहीं दे सकती) । और इस जैसा हुक्म नाक़िस अदद रखने वाली औरत पर भी लाज़िम है यानी वह औरत जिसे आदत के दिनों की मिक़्दार तीन दिन से ज़्यादा और दस दिन से कम होने में शक हो। मसलन जिसे हर महीने में छः या सात दिन ख़ून आता हो वह हैज़ की अलामत के ज़रिए या अपनी बाज़ कुंबे वालियों की आदत के मुताबिक़ या किसी एक अदद को इख़्तियार कर के दस दिन से ज़्यादा ख़ून आने की सूरत में दोनों अददों (छः या सात) से कम या ज़्यादा दिनों को हैज़ क़रार नहीं दे सकती।