तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हैज़ के मुतफ़र्रिक़ मसाइल

506. मुब्तदिअः, मुज़्तरिबः, नासियः और अदद की आदत रखने वाली औरतों को अगर ख़ून आए जिसमें हैज़ की अलामात हों या यक़ीन हो कि यह ख़ून तीन दिन तक आयेगा तो उन्हें चाहिये कि इबादात तर्क कर दें और अगर बाद में उन्हें पता चले कि यह हैज़ नहीं था तो उन्हें चाहिये कि जो इबादात बजा न लाईं हो उनकी क़ज़ा करें।

507. जो औरत हैज़ की आदत रखती हो ख़्वाह यह आदत हैज़ के वक़्त के एतिबार से हो या हैज़ के अदद के एतिबार से या वक़्त और अदद दोनों के एतिबार से हो। अगर उसे यके बाद दीगरे दो महीनों में अपनी आदत के बर ख़िलाफ़ ख़ून आए जिसका वक़्त या दिनों की तादाद या वक़्त और दिन दोनों की तादाद यकसां हो तो उसकी आदत जिस तरह इन दो महीनों में उसे ख़ून आया है उसमें तब्दील हो जाती है। मसलन अगर पहले उसे महीने की पहली तारीख़ से सातवीं तारीख़ तक ख़ून आता था और फिर बन्द हो जाता था मगर दो महीनों में उसे दसवीं तारीख़ से सत्तरहवीं तारीख़ तक ख़ून आया हो और फिर बन्द हुआ हो तो उसकी आदत दसवीं तारीख़ से सत्तरहवीं तारीख़ तक हो जायेगी।

508. एक महीने से मुराद ख़ून के शूरू होने से तीस दिन तक है। महीने की पहली तारीख़ से महीने की आखिर तक नहीं है।

509. अगर किसी औरत को उमूमन महीने में एक मर्तबा ख़ून आता हो लेकिन किसी एक महीने में दो मर्तबा आ जाए और उस ख़ून में हैज़ की अलामात हों तो अगर उन दरमियानी दिनों की तादाद जिनमें उसे ख़ून नहीं आया दस दिन से कम न हो तो उसे चाहिये की दोनों ख़ून को हैज़ क़रार दे।

510. अगर किसी औरत को तीन या उससे ज़्यादा दिनों तक ऐसा ख़ून आए जिसमें हैज़ की अलामात हों और उसके बाद दस या उससे ज़्यादा दिनों तक ऐसा ख़ून आए जिसमें इस्तिहाज़ा की अलामात हों और उसके बाद दोबारा तीन दिनों तक हैज़ की अलामतों के साथ ख़ून आए तो उसे चाहिये की पहले और आख़िरी ख़ून को जिसमें हैज़ की अलामात हों हैज़ क़रार दे।

511. अगर किसी औरत का ख़ून दस दिन से पहले रूक जाए और उसे यक़ीन हो कि उसके बातिन में ख़ूने हैज़ नहीं है तो उसे चाहिये की अपनी इबादात के लिये ग़ुस्ल करे अगरचे गुमान रखती हो कि दस दिन पूरे होने से पहले दोबारा ख़ून आ जायेगा। लेकिन अगर उसे यक़ीन हो कि दस दिन पूरे होने से पहले उसे दोबारा ख़ून आ जायेगा तो जैसे बयान हो चुका उसे चाहिये की एहतियातन ग़ुस्ल करे और अपनी इबादात बजा लाए और जो चीज़े हाइज़ पर हराम हैं उसे तर्क करे।

512. अगर किसी औरत का ख़ून दस दिन गुज़रने से पहले बन्द हो जाए और इस बात का एहतिमाल हो कि उसके बातिन में ख़ूने हैज़ है तो उसे चाहिये की अपनी शर्मगाह में रूई रख कर कुछ देर इन्तिज़ार करे। लेकिन उस मुद्दत से कुछ ज़्यादा इन्तिज़ार करे जो आम तौर पर औरतें हैज़ से पाक होने की मुद्दत के दरमियान करती हैं उसके बाद निकाले, पस अगर ख़ून ख़त्म हो गया हो तो ग़ुस्ल करे और इबादात बजा लाए और अगर ख़ून बन्द न हुआ हो या थोड़ा सा ज़र्द पानी लगा हो पस अगर वह हैज़ की मुअय्यन आदत न रखती हो या उसकी आदत दस दिन की हो या अभी उसकी आदत के दस दिन तमाम न हुए हों तो उसे चाहिये कि इन्तिज़ार करे, और अगर दस दिन से पहले ख़ून ख़त्म हो जाए तो ग़ुस्ल करे और अगर दसवें दिन के ख़ातमें पर ख़ून आना बन्द हो या खून दस दिन के बाद भी आता रहे तो दसवें दिन ग़ुस्ल करे और अगर उसकी आदत दस दिनों से कम हो और वह जानती हो कि दस दिन ख़त्म होने से पहले या दसवें दिन के ख़ात्में पर ख़ून बन्द हो जायेगा तो ग़ुस्ल करना ज़रूरी नहीं है और अगर एहतिमाल हो कि उसे दस दिन तक ख़ून आयेगा तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि एक दिन के लिये इबादत तर्क करे और और दसवें दिन तक भी इबादत को तर्क कर सकती है और यह हुक्म सिर्फ़ उस औरत के लिये मख़्सूस है जिसे आदत से पहले लगातार ख़ून नहीं आता था वर्ना आदत के गुज़रने के बाद इबादत तर्क करना जायज़ नहीं है।

513. अगर कोई औरत चन्द दिनों को हैज़ क़रार दे और इबादत न करे लेकिन बाद में उसे पता चले कि हैज़ नहीं था तो उसे चाहिये की जो नमाज़ें और रोज़ें वह उन दिनों में बजा नहीं लाईं उनकी क़ज़ा करा और अगर चन्द दिन इस ख़्याल से इबादात बजा लाती रही हो कि हैज़ नहीं है और बाद में उसे पता चले कि हैज़ था तो अगर उन दिनों में उसने रोज़े भी रखे हों तो उसकी क़ज़ा करना ज़रूरी है।

निफ़ास

514. बच्चे का पहला जुज़्व मां के पेट से बाहर आने के वक़्त से जो ख़ून औरत को आए अगर वह दस दिन से पहले या दसवें दिन के ख़ात्मे पर बन्द हो जाए तो वह ख़ूने निफ़ास है और निफ़ास की हालत में औरत को नफ़्सा कहते हैं।

515. जो ख़ून औरत को बच्चे का पहला जुज़्व बाहर आने से पहले आए वह निफ़ास नहीं है।

516. यह ज़रूरी नहीं है कि बच्चे की ख़िल्क़त मुकम्मल हो बल्कि अगर उसकी ख़िल्क़द नामुकम्मल हो तब भी अगर उसे बच्चा जनना कहा जा सकता हो तो वह ख़ून जो औरत को दस दिन तक आए ख़ूने निफ़ास है।

517. यह हो सकता है कि ख़ूने निफ़ास एक लेह्ज़ा से ज़्यादा न आए लेकिन वह दस दिन से ज़्यादा नहीं आता।

518. अगर किसी औरत को शक हो कि इस्क़ात हुआ है या नहीं या जो इस्क़ात हुआ है वह बच्चा था या नहीं तो उसके लिये तहक़ीक़ करना ज़रूरी नहीं और जो ख़ून उसे आए वह शरअन निफ़ास नहीं है।

519. मस्जिद में ठहरना और दूसरे अफ़्आल जो हाइज़ पर हराम हैं एहतियात की बिना पर नफ़्सा पर भी हराम हैं और जो कुछ हाइज़ पर वाजिब है वह नफ़्सा पर भी वाजिब है।

520. जो औरत निफ़ास की हालत में हो उसे तलाक़ देना और उससे जिमाअ करना हराम है लेकिन अगर उसका शौहर उससे जिमाअ करे तो उस पर बिला इश्क़ाल कफ़्फ़ारा नहीं।

521. जब औरत निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाए तो उसे चाहिये कि ग़ुस्ल करे और अपनी इबादात बजा लाए और अगर बाद में एक या एक बार से ज़्यादा ख़ून आए तो ख़ून आने वाले दिनों को पाक रहने वाले दिनों से मिलाकर अगर दस दिन से कम हो तो सारा ख़ूने निफ़ास है। और ज़रूरी है कि दरमियान में पाक रहने के दिनों में एहतियात की बिना पर जो काम पाक औरत पर वाजिब है अंजाम दे, और जो काम नफ़्सा पर हराम है उन्हें तर्क करे और अगर उन दिनों में कोई रोज़ा रखा हो तो ज़रूरी है कि उनकी क़ज़ा करे। और अगर बाद में आने वाला ख़ून दस दिन से तजावुज़ कर जाए और वह औरत अदद की आदत न रखती हो तो ख़ून की वह मिक़्दार जो दस दिन के अन्दर आई है उसे निफ़ास और दस दिन के बाद आने वाले ख़ून को इस्तिहाज़ा क़रार दे। और अगर वह औरत अदद की आदत रखती हो तो ज़रूरी है कि एहतियातन आदत के बाद आने वाले तमाम ख़ून की मुद्दत में जो काम मुस्तहाज़ा के लिये हैं अंजाम दे और जो काम नफ़्सा पर हराम है उन्हें तर्क करे।

522. अगर औरत ख़ूने निफ़ास से पाक हो जाए और एहतिमाल हो कि उसके बातिन में ख़ूने निफ़ास है तो उसे चाहिये की कुछ रूई अपनी शर्मगाह में दाख़िल करे और कुछ देर बाद इन्तिज़ार करे फिर अगर वह पाक हो तो इबादात के लिये ग़ुस्ल करे।

523. अगर औरत को निफ़ास का ख़ून दस दिन से ज़्यादा आए और वह हैज़ में आदत रखती हो तो आदत के बारबर दिनों की मुद्दत निफ़ास और बाक़ी इस्तिहाज़ा है। और अगर आदत न रखती हो तो दस दिन तक निफ़ास और बाक़ी इस्तिहाज़ा है। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि जो औरत आदत रखती हो वह आदत के बाद के दिन से और जो औरत आदत न रखती हो वो दसवें दिन के बाद से बच्चे की पैदाइश के अट्ठारवें दिन तक इस्तिहाज़ा के अफ़्आल बजा लाए और वह काम जो नफ़्सा पर हराम हैं उन्हें तर्क करे।

524. अगर किसी औरत को जिसकी हैज़ की आदत दस दिन से कम हो अपनी आदत से ज़्यादा दिन ख़ून आए तो उसे चाहिये की अपनी आदत के दिनों की तादाद को निफ़ास क़रार दे और उसके बाद उसे इख़्तियार है कि दस दिन तक नमाज़ तर्क करे या मुस्तहाज़ा के अहकाम पर अमल करे। लेकिन एक दिन की नमाज़ तर्क करना बेहतर है। और अगर ख़ून दस दिन के बाद भी आता रहे तो उसे चाहिये कि आदत के दिनों के बाद दसवें दिन तक भी इस्तिहाज़ा क़रार दे और जो इबादात वह उन दिनों में बजा नहीं लाई उनकी क़ज़ा करे। मसलन जिस औरत की आदत छः दिनों की हो अगर उसे छः दिन से ज़्यादा ख़ून आए तो उसे चाहिये की छः दिनों को निफ़ास क़रार दे और सातवें, आठवें, नवें और दसवें दिन उसे इख़्तियार है कि या तो इबादात तर्क करे या इस्तिहाज़ा के अफ़्आल बजा लाए और अगर उसे दस दिन से ज़्यादा ख़ून आया हो तो उसकी आदत के बाद के दिन से वह इस्तिहाज़ा होगा।

525. जो औरत हैज़ में आदत रखती हो अगर उसे बच्चा जनने के बाद एक महीने तक या एक महीने से ज़्यादा मुद्दत तक लगातार ख़ून आता रहे तो उसकी आदत के दिनों की तादाद के बराबर ख़ूने निफ़ास है और जो ख़ून निफ़ास के बाद दस दिन तक आए ख़्वाह वह उसकी माहाना आदत के दिनों में आया हो इस्तिहाज़ा है। मसलन ऐसी औरत जिसके हैज़ की आदत हर महीने की बीस तारीख़ से सत्ताइस तारीख़ तक हो अगर वह महीने की दस तारीख़ को बच्चा जने और एक महीना या उससे ज़्यादा मुद्दत तक उसे मुतवातिर ख़ून आए तो सत्तरहवीं तारीख़ तक निफ़ास और सत्तरहवी तारीख़ से दस दिन तक का ख़ून हत्ताकि वह ख़ून भी जो बीस तारीख़ से सत्ताइस तक उसकी आदत के दिनों में आया है इस्तिहाज़ा होगा और दस दिन गुज़रने के बाद जो ख़ून उसे आए अगर वह आदत के दिनों में हो तो हैज़ है ख़्वाह उसमें हैज़ की अलामत हो या न हों। और अगर वह ख़ून उसकी आदत के दिनों में न आया हो तो उसके लिये ज़रूरी है कि अपनी आदत के दिनों का इन्तिज़ार करे अगरचे उसके इन्तिज़ार की मुद्दत एक महीना या एक महीने से ज़्यादा हो जाए और ख़्वाह उस मुद्दत में जो ख़ून आए उसमें हैज़ की अलामात हों। और अगर वह वक़्त की आदत वाली औरत न हो और उसके लिये मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि वह अपने हैज़ की अलामत के ज़रिए मुअय्यन करे और अगर मुम्किन न हो जैसा कि निफ़ास के बाद दस दिन जो ख़ून आए वह सारा एक जैसा हो और एक महीने या चन्द महीने उन्हीं अलामात के साथ आता रहे तो ज़रूरी है कि हर महीने में अपने कुंबे की बाज़ औरतों के हैज़ की जो सूरत हो वही अपने लिये क़रार दे और अगर यह मुम्किन न हो तो जो अदद अपने लिये मुनासिब समझती है इख़्तियार करे और इन तमाम उमूर की तफ़्सील हैज़ की बहस में ग़ुज़र चुकी है।

526. जो औरत हैज़ में अदद के लिहाज़ से आदत न रखती हो अगर उसे बच्चा जनने के बाद एक महीने तक या एक महीने से ज़्यादा मुद्दत तक ख़ून आए तो उसके पहले दस दिनों के लिये वही हुक्म है जिसका ज़िक्र मस्अला 523 में हो चुका है और दूसरी दहाई में जो ख़ून आए वह इस्तिहाज़ा है और जो ख़ून उसके बाद आए मुम्किन है वह हैज़ हो और मुम्किन है इस्तिहाज़ा हो और हैज़ क़रार देने के लिये ज़रूरी है कि उस हुक्म के मुताबिक़ अमल करे जिसका ज़िक्र साबिक़ा मस्अले में गुज़र चुका है।

ग़ुस्ले मसे मैयित

527. अगर कोई शख़्स किसी ऐसे मुर्दा इंसान के बदन को छुए जो ठंडा हो चुका हो और जिसे ग़ुस्ल न दिया गया हो यानी अपने बदन का कोई हिस्सा उससे लगाए तो उसे चाहिये कि ग़ुस्ले मसे मैयित करे। ख़्वाह उसने नीन्द की हालत में उसका बदन छुआ हो या बेदारी के आलम में, और ख़्वाह इरादी तौर पर छुआ हो या ग़ैर इरादी तौर पर हत्ता की अगर उसका नाख़ून या हड्डी मुर्दे के नाख़ून या हड्ड़ी से छू जाए तब भी उसे चाहिये कि ग़ुस्ल करे लेकिन अगर मुर्दा हैवान को छुए तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नहीं है।

528. जिस मुर्दे का तमाम बदन ठंडा न हुआ हो उसे छूने से ग़ुस्ल वाजिब नहीं होता ख़्वाह उसने बदन का जो हिस्सा छुआ हो वह ठंडा हो चुका हो।

529. अगर कोई शख़्स अपने बाद मुर्दे के बदन से लगाए या अपना बदन मुर्दे के बालों से लगाए तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नहीं है।

530. मुर्दा बच्चे को छूने पर हत्ता कि ऐसे सिक्त शुदा बच्चे को छूने पर जिसके बदन में रूह दाखिल हो चुकी हो ग़ुस्ले मसे मैयित वाजिब है। इस बिना पर अगर मुर्दा बच्चा पैदा हुआ हो और उसका बदन ठंडा हो चुका हो और वह मां के ज़ाहिरी हिस्से को छू जाए तो मां को चाहिये कि ग़ुस्ले मसे मैयित करे बल्कि अगर ज़ाहिरी हिस्से को मस न करे तब भी मां को चाहिये की एहतियाते वाजिब की बिना पर ग़ुस्ले मसे मैयित करे।

531. जो बच्चा मां के मर जाने और उसका बदन ठंडा हो जाने के बाद पैदा हो अगर वह मां के बदन के ज़ाहिरी हिस्से को मस करे तो उस पर वाजिब है कि जब बालिग़ हो तो ग़ुस्ले मसे मैयित करे बल्कि अगर मां के बदन के ज़ाहिरी हिस्से को मस न करे तब भी एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि वह बच्चा बालिग़ होने के बाद ग़ुस्ले मसे मैयित करे।

532. अगर कोई शख़्स एक ऐसी मैयित को मस करे जिसे तीन ग़ुस्ल मुकम्मल तौर पर दिये जा चुके हों तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नहीं होता। लेकिन अगर वह तीसरा ग़ुस्ल मुकम्मल होने से पहले उसके बदन के किसी हिस्से को मस करे तो ख़्वाह उस हिस्से को तीसरा ग़ुस्ल दिया जा चुका हो उस शख़्स के लिये ग़ुस्ले मसे मैयित करना ज़रूरी है।

533. अगर कोई दीवाना या नाबालिग़ बच्चा मैयित को मस करे तो दीवाने को आक़िल होने और बच्चे को बालिग़ होने के बाद ग़ुस्ले मसे मैयित करना ज़रूरी है।

534. अगर किसी ज़िन्दा शख़्स के बदन से या किसी ऐसे मुर्दे के बदन से जिसे ग़ुस्ल न दिया गया हो एक हिस्सा जुदा हो जाए और इससे पहले कि जुदा होने वाले हिस्से को ग़ुस्ल दिया जाए कोई शख़्स उसे मस कर ले तो क़ौले अक़्वा की बिना पर अगरचे उस हिस्से में हड्डी हो, ग़ुस्ले मसे मैयित करना ज़रूरी नहीं।

535. एक ऐसी हड्डी के मस करने से जिसे ग़ुस्ल न दिया गया हो ख़्वाह वह मुर्दे के बदन से जुदा हुई हो या ज़िन्दा शख़्स के बदन से ग़ुस्ल वाजिब नहीं है। और दांत ख़्वाह मुर्दे के बदन से जुदा हुए हों या ज़िन्दा शख़्स के बदन से, उनके लिये भी यही हुक्म है।

536. ग़ुस्ले मसे मैयित का तरीक़ा वही है जो ग़ुस्ले जनाबत का है लेकिन जिस शख़्स ने मैयित को मस किया हो अगर वह नमाज़ पढ़ना चाहे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू भी करे।

537. अगर कोई शख़्स कई मैयितों को मस करे या एक मैयित को कई बार मस करे तो एक ग़ुस्ल काफ़ी है।

538. जिस शख़्स ने मैयित को मस करने के बाद ग़ुस्ल न किया हो उसके लिये मस्जिद में ठहरना और बीवी से जिमाअ करना और उन आयात का पढ़ना जिनमें सज्दा वाजिब है मम्नूउ नहीं है लेकिन नमाज़ और उस जैसी इबादत के लिये ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।

मुह्तज़र के अहकाम

539. जो मुसलमान मुह्तज़र हो यानी जांकनी की हालत में हो ख़्वाह मर्द हो या औरत, बड़ा हो या छोटा, उसे एहतियात की बिना पर बसूरते इमकान पुश्क के बल यूं लिटाना चाहिये कि उसके पांव के तल्वे क़िब्ला रूख़ हों।

540. औला यह है कि जब तक मैयित का ग़ुस्ल मुकम्मल न हो उसे भी रूबक़िब्ला लिटायें। लेकिन जब उसका ग़ुस्ल मुकम्मल हो जाए तो बेहतर यह है कि उसे उस हालत में लिटायें जिस तरह उसे नमाज़े जनाज़ा पढ़ाते वक़्त लिटाते हैं।

541. जो शख़्स जांकनी की हालत में हो उसे एहतियात की बिना पर रूबक़िब्ला लिटाना हर मुसलमान पर वाजिब है लिहाज़ा वह शख़्स जो जांकनी की हालत में है राज़ी हो और फिर क़ासिर भी हो (यानी बालिग़ और आक़िल हो) तो इस काम के लिये उसके वली से इजाज़त लेना ज़रूरी नहीं है। इसके अलावा किसी दूसरी सूरत में उसके वली से इजाज़त लेना एहतियात की बिना पर ज़रूरी है।

542. मुस्तहब है कि जो शख़्स जांकनी की हालत में हो उसके सामने शहादतैन, बारह इमामों के नाम और दूसरे दीनी अक़ाइद इस तरह दुहरायें जायें कि वह समझ ले। और उसकी मौत के वक़्त तक इन चीज़ों की तकरार करना भी मुस्तहब है।

543. मुस्तहब है कि जो शख़्स जांकनी की हालत में हो उसे मुन्दरिजः ज़ैल दुआ इस तरह सुनाई जाए कि वह समझ लेः-

अल्लाहुम्मग़् फ़िरलियल कसीरा मिंम्मआसीका

वक़्बल मिन्निन यसीरा मिन तआतिका या मैय्यंक् बलुल

यसीरा व यअफ़ु अनिल कसीरा इक़्बल

मिन्निल यसीरा वअफ़ु अन्निल कसीरा इन्नका

अन्तल अफ़ुव्वुल ग़फ़ूरो अल्लाहुम्मर्हमूनी

फ़ इन्नका रहीमुन।

544. किसी की जान सख़्ती से निकल रही हो तो अगर उसे तक्लीफ़ न हो तो उसे उस जगह ले जाना जहां वह नमाज़ पढ़ा करता था मुस्तहब है।

545. जो शख़्स जांकनी के आलम में हो उसकी आसानी के लिये (यानी इस मक़्सद से कि उसकी जान आसानी से निकल जाए) उसके सिरहाने सूरा ए यासीन, सूरा ए सफ़्फ़ात, सूरा ए अहज़ाब, आयतुल कुर्सी और सूरा ए एराफ़ की 54 वीं आयत और सूरा ए बक़रा की आख़री तीन आयत का पढ़ना मुस्तहब है बल्कि क़ुरआने मजीद जितना भी पढ़ा जा सके पढ़ा जाए.

546. जो शख़्स जांकनी के आलम में हो उसे तन्हा छोड़ना और कोई भारी चीज़ उसके पेट पर रखना और जुनुब और हाइज़ का उसके क़रीब होना इसी तरह उसके पास ज़्यादा बातें करना, रोना और सिर्फ़ औरतों को छोड़ना मकरूह है।