तौज़ीहुल मसाइल

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तौज़ीहुल मसाइल लेखक:
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तौज़ीहुल मसाइल

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली हुसैनी सीस्तानी साहब
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दीनियात और नमाज़ तौज़ीहुल मसाइल
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तौज़ीहुल मसाइल

तौज़ीहुल मसाइल

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मरने के बाद के अहकाम

547. मुस्तहब है कि मरने के बाद मैयित के आंखे और होट बन्द कर दिये जाएं और उसकी ठोड़ी को बांध दिया जाए नीज़ उसके हाथ और पांव सीधे कर दिये जाएं और उसके ऊपर कपड़ा डाल दिया जाए। और अगर मौत रात को वाक़े हो तो जहां मौत वाक़े हुई हो वहां चिराग़ जलाये (रौशनी कर दे) और जनाज़े में शिरकत के लिये मोमिनीन को इत्तिलाअ दे और मैयित को दफ़्न करने में जल्दी करे। लेकिन अगर उस शख़्स के मरने का यक़ीन न हो तो इन्तिज़ार करे ताकि सूरते हाल वाज़ेह हो जाए। अलावा अज़ीं अगर मैयित हामिला हो और बच्चा उसके पेट में ज़िन्दा हो तो ज़रूरी है कि दफ़्न करने में इतना तवक़्क़ुफ़ करें कि उसका पहलू चाक कर के बच्चा बाहर निकाल लें और फिर उस पहलू को सी दें।

ग़ुस्ल, कफ़न, नमाज़ और दफ़्न का वुजूब

548. किसी मुसलमान का ग़ुस्ल, हुनूत, कफ़न, नमाज़े मैयित और दफ़्न ख़्वाह वह इसना अशरी शीअः न भी हो उसके वली पर वाजिब है। ज़रूरी है कि वली खुद इन कामों को अंजाम दे या किसी दूसरे को इन कामों के लिये मुअय्यन करे और अगर कोई शख़्स इन कामों को वली की इजाज़त से अंजाम दे तो वली पर से वुजूब साक़ित हो जाता है बल्कि दफ़्न और उसकी मानिन्द दूसरे उमूर को कोई शख़्स वली की इजाज़त के बग़ैर अंजाम दे तब भी वली से वुजूब साक़ित हो जाता है और इन उमूर को दोबार अंजाम देने की ज़रूरत नहीं और अगर मैयित का कोई वली न हो या वली उन कामों को अंजाम देने से मनाअ करे तब भी बाक़ी मुकल्लफ़ लोगों पर वाजिबे किफ़ाई है कि मैयित के इन कामों को अंजाम दे और अगर बाज़ मुकल्लफ़ लोगों ने अंजाम दिया तो दूसरों पर से वुज़ूब साक़ित हो जाता है। चुनांचे अगर कोई भी अंजाम न दे तो तमाम मुकल्लफ़ लोग गुनाहगार होगें और वली के मनअ करने की सूरत में उससे इजाज़त लेने की शर्त ख़त्म हो जाती है।

549. अगर कोई शख़्स तज्हीज़ो तक्फ़ीन के कामों में मशग़ूल हो जाए तो दूसरों के लिये इस बारे में कोई इक़्दाम करना वाजिब नहीं लेकिन अगर वह इन कामों को अधूरा छोड़ दें तो ज़रूरी है कि दूसरे इन्हें पायए तक्मील तक पहुंचायें।

550. अगर किसी शख़्स को इत्मीनान हो कि दूसरा मैयित को (नहलाने, कफ़्नाने और दफ़्नाने) के कामों में मशग़ूल है तो उस पर वाजिब नहीं है कि मैयित के (मुतज़क्किरा) कामों में के बारे में इक़्दाम करे लेकिन अगर उसे (मुतज़क्किरा कामों के न होने का) महज़ शक या गुमान हो तो ज़रूरी है कि इक़्दाम करे।

551. अगर किसी शख़्स को मालूम हो कि मैयित का ग़ुस्ल या कफ़न या नमाज़ या दफ़्न ग़लत तरीक़े से हुआ है तो ज़रूरी है कि इन कामों को दोबारा अंजाम दे। लेकिन अगर उसे बातिल होने का गुमान हो (यानी यक़ीन न हो) या शक हो कि दुरूस्त था या नहीं तो फिर इस बारे में कोई इक़्दाम करना ज़रूरी नहीं।

552. औरत का वली उसका शौहर है और औरत के अलावा वह अश्ख़ास कि जिनको मैयित से मीरास मिलती है उसी तरतीब से जिसका ज़िक्र मीरास के मुख़तिलफ़ तब्क़ों में आयेगा, दूसरों पर मुक़द्दम है । मैयित का बाप मैयित के बेटे पर, और मैयित का दादा उसके भाई पर, और मैयित का पदरी व मादरी भाई उसके सिर्फ़ पदरी भाई या मादरी भाई पर, और उसका पदरी भाई उसके मादरी भाई पर, और उसके चाचा उसके मामू पर मुक़द्दम होने में इश्क़ाल है। चुनांचे इस सिलसिले में एहतियात के (तमाम) तक़ाज़ों को पेशे नज़र रखना चाहिये।

553. नाबालिग़ बच्चा और दीवाना मैयित के कामों को अंजाम देने के लिये वली नहीं बन सकते और बिल्कुल इसी तरह वह शख़्स भी जो ग़ैर हाज़िर हो वह ख़ुद या किसी शख़्स को मामूर कर के मैयित से मुतअल्लिक़ उमूर को अंजाम न दे सकता हो तो वह भी वली नहीं बन सकता।

554. अगर कोई शख़्स कहे कि मैं मैयित का वली हूँ या मैयित के वली ने मुझे इजाज़त दी है कि मैयित के ग़ुस्ल, कफ़्न व दफ़्न को अंजाम दूं या कहे कि मैं मैयित के दफ़्न से मुतअल्लिक़ कामों में मैयित का वली हूं और उसके कहने में इत्मीनान हासिल हो जाए या मैयित उसके तसर्रूफ़ में हो या दो आदिल शख़्स गवाही दें तो उसका क़ौल क़बूल कर लेना चाहिये।

555. अगर मरने वाला अपने ग़ुस्ल, कफ़्न, दफ़्न और नमाज़ के लिये अपने वली के अलावा किसी और को मुक़र्र करे तो इन उमूर की विलायत उसी शख़्स के हाथ में है और यह ज़रूरी नहीं कि जिस शख़्स को मैयित ने वसीयत की हो कि वह ख़ुद इन कामों को अंजाम देने का ज़िम्मेदार बने और इस वसीयत को क़बूल करे लेकिन अगर क़बूल कर ले तो ज़रूरी है कि उस पर अमल करे।

ग़ुस्ले मैयित की कैफ़ीयत

556. मैयित को तीन ग़ुस्ल देने वाजिब हैः- पहला ऐसे पानी से जिसमें बेरी के पत्ते मिलें हुए हों, दूसरा ऐसे पानी से जिसमें काफ़ूर मिला हुआ हो और तीसरा ख़ालिस पानी से।

557. ज़रूरी है कि बेरी और काफ़ूर न इस क़द्र ज़्यादा हों कि पानी मुज़ाफ़ हो जाए और न इस क़द्र कम हो कि यह न कहा जा सके कि बेरी और काफ़ूर उस पानी में नहीं मिलाए गए हैं।

558. अगर बेरी और काफ़ूर इतनी मिक़्दार में न मिल सकें जितनी की ज़रूरी है तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर जितनी मिक़्दार मुयस्सर आए पानी में डाल दी जाए।

559. अगर कोई शख़्स एहराम की हालत में मर जाए तो उसे काफ़ूर के पानी से ग़ुस्ल नहीं देना चाहिये बल्कि उसके बजाए ख़ालीस पानी से ग़ुस्ल देना चाहिये लेकिन अगर वह हज्जे तमत्तो का एहराम हो और वह तवाफ़ और तवाफ़ की नमाज़ और सई को मुकम्मल कर चुका हो या हज्जे क़िरान या इफ़राद के एहराम में हो और सर मुंडा चुका हो तो इन दो सूरतों में उसको काफ़ूर के पानी से ग़ुस्ल देना ज़रूरी है।

560. अगर बेरी या काफ़ूर या उनमें से कोई एक न मिल सके या उसका इस्तेमाल जाइज़ न हो मसलन यह कि ग़स्बी हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि उनमें से हर उस चीज़ के बजाए जिसका मिलना मुम्किन न हो मैयित को ख़ालिस पानी से ग़ुस्ल दिया जाए और एक तयम्मुम भी कराया जाए।

561. जो शख़्स मैयित को ग़ुस्ल दे ज़रूरी है कि वह अक़्लमन्द और मुसलमान हो और क़ौले मश्हूर की बिना पर ज़रूरी है कि वह इसना अशरी हो और ग़ुस्ल के मसाइल से भी वाक़िफ़ हो और ज़ाहिर यह है कि जो बच्चा अच्छे और बुरे की तमीज़ रखता हो अगर वह ग़ुस्ल को सहीह तरीक़े से अंजाम दे सकता हो तो उसका ग़ुस्ल देना भी काफ़ी है । चुनांचे अगर इसना अशरी मुसलमान की मैयित को उसके हम मज़्हब के मुताबिक़ ग़ुस्ल दे तो मोमिने इसना अशरी से ज़िम्मेदारी साक़ित हो जाती है । लेकिन वह इस्ना अशरी शख़्स मैयित का वली हो तो उस सूरत में ज़िम्मेदारी उससे साक़ित नहीं होती।

562. जो शख़्स ग़ुस्ल दे ज़रूरी है कि वह क़ुर्बत की नीयत रखता हो यानी अल्लाह तआला की ख़ुशनूदी के लिये ग़ुस्ल दे।

563. मुसलमान के बच्चे को ख़्वाह वह वलदुज़्ज़िना ही क्यों न हो ग़ुस्ल देना वाजिब है और काफ़िर और उसकी औलाद का ग़ुस्लो कफ़न और दफ़्न शरीअत में नहीं है। और जो शख़्स बचपन से दीवाना हो और दीवानगी की हालत में बालिग़ हो जाए अगर वह इस्लाम के हुक्म हो तो ज़रूरी है कि उसे ग़ुस्ल दें।

564. अगर एक बच्चा चार महीने या उससे ज़्यादा का होकर साक़ित हो जाए तो उसे ग़ुस्ल देना ज़रूरी है बल्कि अगर चार महीने से भी कम का हो लेकिन उसका पूरा बदन बन चुका हो दो एहतियात की बिना पर उसको ग़ुस्ल देना ज़रूरी है। इन दो सूरतों के अलावा एहतियात की बिना पर उसे कपड़े में लपेट कर बग़ैर ग़ुस्ल दिये दफ़्न कर देना चाहिये।

565. मर्द औरत को ग़ुस्ल नहीं दे सकता, इसी तरह औरत मर्द को ग़ुस्ल नही दे सकती। लेकिन बीवी अपने शौहर को ग़ुस्ल दे सकती है और शौहर भी अपनी बीवी को ग़ुस्ल दे सकता है अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि बीवी अपने शौहर को और शौहर अपनी बीवी को हालते इख़्तियार में ग़ुस्ल न दे।

566. मर्द इतनी छोटी लड़की को ग़ुस्ल दे सकता है जो मुमैयज़ न हो और औरत भी इतने छोटे लड़के को ग़ुस्ल दे सकती है जो मुमैयज़ न हो।

567. अगर मर्द की मैयित को ग़ुस्ल देने के लिये मर्द न मिल सके तो वह औरतें जो उसकी क़राबतदार और महरम हों मसलन मां बहन फुफी और ख़ाला या वह औरतें जो रिज़ाअत या निकाह के सबब से उसकी महरम हो गई हों उसे ग़ुस्ल दे सकती हैं, और इसी तरह अगर औरत की मैयित को ग़ुस्ल देने के लिये कोई और औरत न हो तो जो मर्द उसके क़राबतदार और महरम हों या रिज़ाअत या निकाह के सबब से उसके महरम हो गए हों उसे ग़ुस्ल दे सकते हैं। दोनों सूरतों में लिबास के नीचे से ग़ुस्ल देना ज़रूरी नहीं है अगरचे इस तरह ग़ुस्ल देना अहवत है सिवाय शर्मगाह के (जिन्हें लिबास के नीचे ही से ग़ुस्ल देना चाहिये)।

568. अगर मैयित और ग़स्साल दोनों मर्द हों या दोनों औरत हों तो जाइज़ है कि शर्मगाह के अलावा मैयित का बाक़ी बदन बरहना हो लेकिन बेहतर यह है कि लिबास के नीचे से ग़ुस्ल दिया जाए।

569. मैयित की शर्मगाह पर नज़र डालना हराम है और जो शख़्स उसे ग़ुस्ल दे रहा हो अगर वह उस पर नज़र डाले तो गुनाहगार है लेकिन उससे ग़ुस्ल बातिल नहीं होता।

570. अगर मैयित के बदन के किसी हिस्से पर ऐने नजासत हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से को ग़ुस्ल देने से पहले ऐने नजासत दूर करे और औला यह है कि ग़ुस्ल शूरू करने से पहले मैयित का तमाम बदन पाक हो।

571. ग़ुस्ले मैयित ग़ुस्ले जनाबत की तरह है और एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक मैयित को ग़ुस्ले तरतीबी मुम्किन हो ग़ुस्ले इरतिमासी न दिया जाए और ग़ुस्ले तरतीबी में भी ज़रूरी है कि दाहिनी तरफ़ को बाई तरफ़ से पहले धोया जाए और अगर मुम्किन हो तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर बदन के तीनों हिस्सों में से किसी हिस्से को पानी में न डुबोया जाए बल्कि पानी उसके ऊपर डाला जाए।

572. जो शख़्स हैज़ या जनाबत की हालत में मर जाए उसे ग़ुस्ले हैज़ या ग़ुस्ले जनाबत देना ज़रूरी नहीं ह बल्कि सिर्फ़ ग़ुस्ले मैयित उसके लिये काफ़ी है।

573. मैयित को ग़ुस्ल देने की उजरत लेना एहतियात की बिना पर हराम है और अगर कोई शख़्स उजरत लेने के लिये मैयित को इस तरह ग़ुस्ल दे कि यह ग़ुस्ल देना क़स्दे क़ुर्बत के मनाफ़ी हो तो ग़ुस्ल बातिल है लेकिन ग़ुस्ल के इब्तिदाई कामों की उजरत लेना हराम नहीं है।

574. मैयित के ग़ुस्ल में ग़ुस्ले जबीरा जाइज़ नहीं है और अगर पानी मुयस्सर न हो या उसके इस्तिमाल में कोई अम्र माने हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले मैयित को एक तयम्मुम कराए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तीन तयम्मुम कराए जायें और उन तीन तयम्मुम में से एक में माफ़िज़्ज़िम्मा की नीयत करे यानी जो शख़्स तयम्मुम करा रहा हो यह नीयत करे कि यह तयम्मुम उस शरई ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के लिये करा रहा हूं जो मुझ पर वाजिब है।

575. जो शख़्स मैयित को तयम्मुम करा रहा हो उसे चाहिये कि अपने हाथ ज़मीन पर मारे और मैयित के चेहरे और हाथों की पुश्त पर फेरे और एहतियाते वाजिब यह है कि अगर मुम्किन हो तो मैयित को उसके अपने हाथों से भी तयम्मुम कराए।

कफ़न के अहकाम

576. मुसलमान मैयित को तीन कपड़ों का कफ़न देना ज़रूरी है जिन्हें लुंग, कुर्ता और चादर कहा जाता है।

577. एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि लुंग ऐसी हो जो नाफ़ से घुटनों तक बदन के अतराफ़ को ढांप ले और बेहतर यह है कि सीने से पांव तक पहुंचे और (कुर्ता या) पेराहन एहतियात की बिना पर ऐसा हो कि कंधों के सिरों से आधी पिन्डलियों तक तमाम बदन को ढांपे और बेहतर यह है कि पांव तक पहुंचे और चादर की लम्बाई इतनी होनी चाहिये कि पूरे बदन को ढांप दे और एहतियात यह है कि चादर कि लम्बाई इतनी होनी चाहिये के मैयित के पांव और सर की तरफ़ से गिरह दे सकें और उसकी चौड़ाई इतनी होनी चाहिये कि उसका एक किनारा दूसरे किनारे पर आ सके।

578. लुंग की इतनी मिक़्दार जो नाफ़ से घुटनों तक के हिस्से को ढांप ले और (कुर्ते या) पैराहन की इतनी मिक़्दार जो कंधे से निस्फ़ पिन्डली तक ढांप ले कफ़न के लिये वाजिब है और उस मिक़्दार से ज़्यादा जो कुछ साबिकः मस्अले में बताया गया है वह कफ़न की मुस्तहब मिक़्दार है।

579. वाजिब मिक़्दार की हद तक कफ़न जिसका ज़िक्र साबिक़ः मस्अले में हो चुका है मैयित के अस्ल माल से लिया जाता है और ज़ाहिर यह है कि मुस्तहब मिक़्दार की हद तक कफ़न मैयित की शान और उर्फ़े आम को पेशे नज़र रखते हुए मैयित के अस्ल माल से लिया जाए अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि वाजिब मिक़्दार से ज़ायद कफ़न उन वारिसों के हिस्से से न लिया जाए जो अभी बालिग़ न हुए हों।

580. अगर किसी शख़्स ने वसीयत की हो कि मुस्तहब कफ़न की मिक़्दार जिसका ज़िक्र दो साबिक़ः मसाइल में आ चुका है उसके तिहाई माल से ली जाए या यह वसीयत की हो कि उसका तिहाई माल खुद उस पर ख़र्च किया जाए लेकिन उसके मस्रफ़ का तअय्युन न किया हो या सिर्फ़ उसके कुछ हिस्से के मस्रफ़ का तअय्युन किया हो तो मुस्तहब कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जा सकता है।

581. अगर मरने वाले ने यह वसीयत न की हो कि कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जाए और मुतअल्लिक़ा अश्ख़ास चाहें कि उसके अस्ल माल से लें तो जो बयान मस्अला 579 में ग़ुज़र चुका है उससे ज़्यादा न लें। मसलन वह मुस्तहब काम जो मअमूलन अंजाम न दिये जाते हों और जो मैयित की शान के मुताबिक़ भी न हों तो उनकी अदायगी के लिये हरगिज़ अस्ल माल से न लें और बिल्कुन इसी तरह अगर कफ़न मअमूल से ज़्यादा क़ीमती हो तो इज़ाफ़ी रक़म को मैयित के अस्ल माल से नहीं लेना चाहिये लेकिन जो वरसा बालिग़ है अगर वह अपने हिस्से से लेने की इजाज़त दें तो जिस हद तक वह लोग इजाज़त दें उनके हिस्से से लिया जा सकता है।

582. औरत के कफ़न की ज़िम्मेदारी शौहर पर है ख़्वाह वह अपना माल भी रखती हो इसी तरह अगर औरत को उस तफ़्सील के मुताबिक़ जो तलाक़ के अहकाम में आयेगी तलाक़े रजई दी गई हो और इद्दत ख़त्म होने से पहले मर जाए तो शौहर के लिये ज़रूरी है कि उसे कफ़न दे और अगर शौहर बालिग़ न हो या दीवाना हो तो शौहर के वली को चाहिये कि उसके माल से औरत को कफ़न दे।

583. मैयित को कफ़न देना उसके क़राबतदारों पर वाजिब नहीं गो उसकी ज़िन्दगी में अख़राजात की कफ़ालत उन पर वाजिब रही हो।

584. एहतियात यह है कि कफ़न के तीनों कपड़ों में से हर एक कपड़ा इतना बारीक न हो कि मैयित का बदन उसके नीचे से नज़र आए लेकिन अगर इस तरह हो कि तीनों कपड़ों को मिलाकर मैयित का बदन उसके नीचे से नज़र न आए तो बिनाबर अक़्वा काफ़ी है।

585. ग़स्ब की गई चीज़ का कफ़न देना ख़्वाह कोई दूसरी चीज़ मुयस्सर न हो तब भी जाइज़ नहीं है पस अगर मैयित का कफ़न ग़स्बी हो और उसका मालिक राज़ी न हो तो वह कफ़न उसके बदन से उतार लेना चाहिये। ख़्वाह उसको दफ़्न भी किया जा चुका हो लेकिन बाज़ सूरतों में (उसके बदन से कफ़न उतारना जाइज़ नहीं) जिसकी तफ़्सील की गुंजाइश इस मक़ाम पर नहीं है।

586. मैयित को नजिस चीज़ या ख़ालिस रेशमी कपड़े का कफ़न देना (जाइज़ नहीं) और एहतियात की बिना पर सोने के पानी से काम किये हुए कपड़े का कफ़न देना (भी) जाइज़ नहीं लेकिन मजबूरी की हालत में कोई हरज नहीं है।

587. मैयित को नजिस मुर्दार की खाल का कफ़न देना इख़्तियारी हालत में जाइज़ नहीं है बल्कि पाक मुर्दार की खाल का कफ़न देना भी जाइज़ नहीं है। और एहतियात की बिना पर किसी ऐसे कपड़े का कफ़न देना जो रेशमी हो या उस जानवर की ऊन से तैयार किया गया हो जिसका गोश्त खाना हराम हो इख़्तियारी हालत में जाइज़ नहीं है। लेकिन अगर कफ़न हलाल गोश्त जानवर की खाल या बाल और ऊन का हो तो कोई हरज नहीं अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन दोनों चीज़ों का भी कफ़न न दिया जाए।

588. अगर मैयित का कफ़न उसकी अपनी नजासत या किसी दूसरी नजासत से नजिस हो जाए और अगर ऐसा करने से कफ़न ज़ाए न होता हो तो जितना हिस्सा नजिस हुआ है उसे धोना या काटना ज़रूरी है ख़्वाहा मैयित को क़ब्र में ही क्यों न उतारा जा चुका हो। और अगर उसका धोना या काटना मुम्किन न हो लेकिन बदल देना मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि बदल दें।

589. अगर कोई ऐसा शख़्स मर जाए जिसने हज या उमरे का एहराम बांध रखा हो तो उस दूसरों की तरह कफ़न पहनाना ज़रूरी है और उसका सर और चेहरा ढांप देने में कोई हरज नहीं।

590. इंसान का अपनी ज़िन्दगी में कफ़न, बेरी और काफ़ूर का तैयार रखना मुस्तहब है।

हनूत के अहकाम

591. ग़ुस्ल देने के बाद वाजिब है कि मैयित को हनूत किया जाए यानी उसकी पेशानी, दोनों हथेलियों, दोनों घुटनों और दोनों पांव के अंगूठों पर काफ़ूर इस तरह मला जाए कि काफ़ूर उस पर बाक़ी रहे ख़्वाह कुछ काफ़ूर बग़ैर मले बाक़ी बचे और मुस्तहब यह है कि मैयित की नाक पर भी काफ़ूर मला जाए। काफ़ूर पिसा हुआ और ताज़ा होना चाहिये और अगर पुराना होने की वजह से उसकी ख़ुशबू ज़ाइल हो गई हो तो काफ़ी नहीं।

592. एहतियाते मुस्तहब यह है कि काफ़ूर पहले मैयित के पेशानी पर मला जाए। लेकिन दूसरे मक़ामात पर मलने में तरतीब ज़रूरी नहीं है।

593. बेहतर यह है कि मैयित को कफ़न पहनाने से पहले हनूत किया जाए। अगरचे कफ़न पहनाने के दौरान या उसके बाद भी हनूनत करें तो कोई हरज नहीं है।

594. अगर कोई ऐसा शख़्स मर जाए जिसने हज या उमरे के लिये एहराम बांध रखा हो तो उसे हनूत करना जाइज़ नहीं है मगर उन दो सूरतों में (जाइज़ है) जिनका ज़िक्र मस्अला 559 में गुज़र चुका है।

595. ऐसी औरत जिसका शौहर मर गया हो और अभी इद्दत बाक़ी हो अगरचे ख़ुशबू लगाना उसके लिये हराम है लेकिन अगर वह मर जाए तो उसे हनूत करना वाजिब है।

596. एहतियाते मुस्तहब यह है कि मैयित को मुश्क, अंबर (ऊद) और दूसरी ख़ुशबूयें न लगाई जायें और उन्हें काफ़ूर के साथ भी न मिलाया जाए।

597. मुस्तहब है कि सैयिदुश्शुहदा इमाम हुसैन (अ0) की क़ब्रे मुबारक की मिट्टी (ख़ाके शिफ़ा) की कुछ मिक़्दार काफ़ूर में मिला ली जाए लेकिन उस काफ़ूर को ऐसे मक़ामात पर नहीं लगाना चाहिये जहां लगाने से ख़ाके शिफ़ा की बे हुर्मती हो और यह भी ज़रूरी है कि जब वह काफ़ूर के साथ मिल जाए तो उसे काफ़ूर न कहा जा सके।

598. अगर काफ़ूर न मिल सके या फ़क़त ग़ुस्ल के लिये काफ़ी हो तो हनूत करना ज़रूरी नहीं और अगर ग़ुस्ल की ज़रूरत से ज़्यादा हो लेकिन तमाम सात अअज़ा के लिये काफ़ी न हो तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर चाहिये कि पहले पेशानी पर और अगर बच जाए तो दूसरे मक़ामात पर मला जाए।

599. मुस्तहब है कि (दरख्त की) दो तरोताज़ा टहनियां मैयित के साथ क़ब्र में रखी जायें।

नमाज़े मैयित के अहकाम

600. हर मुसलमान की मैयित पर और ऐसे बच्चे की मैयित पर जो इस्लाम के हुक्म में हो और पूरे छः साल का हो चुका हो नमाज़ पढ़ना वाजिब है।

601. एक ऐसे बच्चे की मैयित पर जो छः साल का न हुआ हो लेकिन नमाज़ को जानता हो एहतियाते लाज़िम की बिना पर नमाज़ पढ़ना चाहिये और अगर नमाज़ को न जानता हो तो रजाअ की नीयत से नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं और वह बच्चा जो मुर्दा पैदा हुआ हो उसकी मैयित पर नमाज़ पढ़ना वाजिब नहीं है।

602. मैयित की नमाज़ – उसे ग़ुस्ल देने, हनूत करने और कफ़न पहनाने के बाद पढ़नी चाहिये और अगर इन उमूर से पहले या उनके दरमियान पढ़ी जाए तो ऐसा करना ख़्वाह भूल चूक या मस्अले से ला इल्मी की बिना पर ही क्यों न हो काफ़ी नहीं है।

603. जो शख़्स मैयित की नमाज़ पढ़नी चाहे उसके लिये ज़रूरी नहीं कि उसने वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम कर रखा हो और उसका बदन और लिबास पाक हो और अगर उसका लिबास ग़स्बी हो तब भी कोई हरज नहीं। अगरचे बेहतर यह है कि उन चीज़ों का ख़्याल रखे जो दूसरी नमाज़ों में लाज़िमी हैं।

604. जो शख़्स नमाज़े मैयित पढ़ रहा हो उसे चाहिये कि रू ब-क़िब्ला हो और यह भी वाजिब है कि मैयित को नमाज़ पढ़ने वाले के सामने पुश्त के बल यूं लिटाया जाए कि मैयित का सर नमाज़ पढ़ने वाले के दाईं तरफ़ हो और पांव बाई तरफ़ हों।

605. एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि जिस जगह एक शख़्स मैयित की नमाज़ पढ़े वह ग़स्बी न हो और यह भी ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने की जगह मैयित के मक़ाम से ऊंची न हो लेकिन मअमूली पस्ती या बलन्दी में कोई हरज नहीं।

606. नमाज़ पढ़ने वाले को चाहिये कि मैयित से दूर न हो लेकिन जो शख़्स नमाज़े मैयित बा जमाअत पढ़ रहा हो अगर वह मैयित से दूर हो जबकि सफ़े बाहम मुत्तसिल हों तो कोई हरज नहीं।

607. नमाज़ पढ़ने वाले को चाहिये कि मैयित के सामने खड़ा हो लेकिन अगर नमाज़ बा जमाअत पढ़ी जाए और जमाअत की सफ़ मैयित के दोनों तरफ़ से गुज़र जाए तो उन दोनों की नमाज़ में जो मैयित के सामने न हों कोई इशक़ाल नहीं है।

608. एहतियात की बिना पर मैयित और नमाज़ पढ़ने वाले के दरमियान पर्दा या दीवार या कोई और ऐसी चीज़ हाइल नहीं होनी चाहिये लेकिन अगर मैयित ताबूत में या ऐसी ही किसी और चीज़ में रखी हो तो कोई हरज नहीं।

609. नमाज़ पढ़ते वक़्त ज़रूरी है कि मैयित की शर्मगाह ढकी हुई हो। और अगर उसे कफ़न पहनाना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि उसकी शर्मगाह को लकड़ी या ईंट या ऐसी ही किसी और चीज़ से ढांक दें।

610. नमाज़ मैयित खड़े होकर और क़ुर्बत की नीयत से पढ़नी चाहिये और नीयत करते वक़्त मैयित को मुअय्यम कर लेना चाहिये मसलन नीयत करनी चाहिये कि इस मैयित पर क़ुर्बतन इलल्लाह नमाज़ पढ़ रहा हूं।

611. अगर कोई शख़्स खड़े होकर नमाज़े मैयित न पढ़ सकता हो तो बैठ कर पढ़ ले।

612. अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि कोई मखसूस शख़्स उसकी नमाज़ पढ़ाए तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह शख़्स मैयित के वली से इजाज़त हासिल करे।

613. मैयित पर कई दफ़ा नमाज़ पढ़ना मकरूह है लेकिन अगर मैयित किसी साहबे इल्म व तक़्वा की हो तो मकरूह नहीं है।

614. अगर मैयित को जान बूझ कर या भूल चूक की वजह से या किसी उज़्र की बिना पर बग़ैर नमाज़ पढ़े दफ़्त कर दिया जाए या दफ़्न कर देने के बाद पता चले कि जो नमाज़ उस पर पढ़ी जा चुकी है वह बातिल है तो मैयित पर नमाज़ पढ़ने के लिये उसकी क़ब्र को खोलना जाइज़ नहीं लेकिन जब तक उसका बदन पाश पाश न हो जाए और जिन शराइत का नमाज़े मैयित के सिलसिले में ज़िक्र आ चुका है उनके साथ रजाअ की से उसकी क़ब्र पर नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नहीं है।

नमाज़े मैयित का तरीक़ा

615. मैयित की नमाज़ में पांच तक्बीरे हैं और अगर नमाज़ पढ़ने वाला शख़्स मुन्दरिजए ज़ैल तरतीब के साथ पांच तक्बीरें कहे तो काफ़ी है।

नीयत करने और पहली तक्बीर पढ़ने के बाद कहेः

अश्हदु अल्लाइलाहा इल्लल्लाहो व अश्हदु अन्ना मोहम्मदन रसूलुल्लाह –

और दूसरी तक्बीर के बाद कहेः

अल्लाहुम्मा स्वल्ले अला मोहम्मदिन व आले मोहम्मदिन

और तीसरी तक्बीर के बाद कहेः

अल्लाहुम्मग़्फ़िर लिलमोमिनीना वल मोमिनाते

और चौथी तक्बीर के बाद अगर मैयित मर्द हो तो कहे –

अल्लाहुम्मग़्फ़िर ले हाज़ल मैयित

और अगर मैयित औरत हो तो कहे –

अल्लाहुम्मग़्फ़िर ले हाज़िहिल मैयित –

और उसके बाद पांचवीं तक्बीर पढ़े ।

और बेहतर यह है कि पहली तक्बीर के बाद कहेः अश्हदु अल्लाइलाहा इल्लल्लाहो वह्दहू ला शरीका लहू व अश्हदो अन्ना मोहम्मदन व अब्दुहू व रसूलुहू अर्सलहू बिलहक़्क़े बशीरों व नज़ीरम् बैना यदैइस्सअते।

और दूसरी तक्बीर के बाद कहेः अल्लाहुम्मा स्वल्ले अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिंव व बारिक अला मोहम्मदिंव व आले मोहम्मदिंव वरहम मोहम्मदों व अला मोहम्मदिन कअफ़्ज़ले मा सल्लैता व बारक्ता व तरह्हम्ता अला इब्राहीमा व आले इब्राहीमा इन्नका हमीदुम्मजीद व स्वल्ले अला जमीइल अंबियाए वल मुर्सलीना वश्शुहदाए वस्सिद्दीक़ीना व जमीए इबादिल्लाहिस स्वालेहीना।

और तीसरी तक्बीर के बाद कहेः अल्लाहुम्मग़्फ़िर लिल मोमिनीना वल मोमिनाते वल मुस्लिमीना वल मुसलिमाते अलअहयाए मिनहुम वल अम्वाते ताबेए बैनना व बैनहुम बिल ख़ैराते इन्नका मुजीबुद दअवाते इन्नका अला कुल्ले शयइन क़दीरून।

और अगर मैयित मर्द हो तो चौथी तक्बीर के बाद कहेः

अल्लाहुम्मा इन्ना हाज़ा अब्दुका वब्नो अब्दिका वब्ना अमतिका नज़ला बिका व अन्ता ख़ैरो मज़ूलिम बिही, अल्लाहुम्मा इन्ना ला नअलमो मिन्हो इल्ला खैरा व अन्ता अअलमो बिही मिन्ना अल्लाहुम्मा इनकाना मोह्सिन्न फ़ज़िद फ़ी एह्सानेही व इनकाना मुसीअन फ़तजावज़ अन्हो वग़्फ़िर लहू अल्लाहुम्मज अल्हो अन्दका फ़ी अअला इल्लीयीना वख्लुफ़ अला अहलिही फ़िल ग़ाबिरीना वर्हम्हो बेरहतमेका या अर्हमर्राहिमीना। उसके बाद पांचवी तक्बीर पढ़ेः – लेकिन अगर मैयित औरत हो तो चौथी तक्बीर के बाद कहेः- अल्लाहुम्मा इन्ना हाज़िही अमतुका वब्नतो अब्दिका वब्नतो अमतिका नज़लत बिका व अन्ता खैरो मंज़िलम बिही अल्लाहुम्मा इन्ना ला नअलमो मिन्हा इल्ला खैरा व अन्ता अअलमो बिहा मिन्ना अल्लाहुम्मा इन कानत मोहसिनतन फ़ज़िद फ़ी एह्सानिहा व इन कानत मुसीअतन फ़तजावज़ अन्हा वग़्फ़िर लहा अल्लाहुम्मज अल्हा इन्दका फ़ी अअला इल्लीयीना वख़लुफ़ अला अहलिहा फ़िल ग़ाबिरीना वर्हमहा बेरहमतिका या अर्हमर्राहिमीना।

616. तक्बीरें और दुआयें (तसलसुल के साथ) यके बाद दीगरे इस तरह पढ़नी चाहिये कि नमाज़ अपनी शक्ल न खो दे।

617. जो शख़्स मैयित की नमाज़ बा जमाअत पढ़ रहा हो ख़्वाह वह मुक्तदी ही हो उसे चाहिये कि उसकी दुआयें और तक्बीरें भी पढ़े।

नमाज़े मैयित के मुस्तहब्बात

618. चन्द चीज़े नमाज़े मैयित के लिये मुस्तहब हैः

1. जो शख़्स नमाज़े मैयित पढ़े वह वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम करे। और एहतियात इसमें है कि तयम्मुम उस वक़्त करे जब वुज़ू और ग़ुस्ल करना मुम्किन न हो या उसे खद्शा हो कि अगर वुज़ू या ग़ुस्ल करेगा तो नमाज़ में शरीक न हो सकेगा।

2. अगर मैयित मर्द हो तो इमाम या जो शख़्स अकेला मैयित पर नमाज़ पढ़ रहा हो मैयित के शिकम के सामने खड़ा हो और अगर मैयित औरत हो तो उसके सीने के सामने खड़ा हो।

3. नमाज़ नंगे पांव पढ़ी जाए।

4. हर तक्बीर में हाथों को बलन्द किया जाए।

5. नमाज़ी और मैयित के दरमियान इतना कम फ़ासिला हो कि अगर नमाज़ी लिबास को हरकत दो तो वह जनाज़े को छू जाए।

6. नमाज़े मैयित जमाअत के साथ पढ़ी जाए।

7. इमाम तक्बीरें और दुआयें बलन्द आवाज़ से पढ़े और मुक़्तदी आहिस्ता पढ़ें।

8. नमाज़े ब जमाअत में मुक़्तदी ख़्वाह एक ही शख़्स क्यों न हो इमाम के पीछे खड़ा हो।

9. नमाज़ पढ़ने वाला मैयित और मोमिनीन के लिये कसरत से दुआ करे।

10. बा जमाअत नमाज़ से पहले तीन बार, अस्सलात कहे ।

11. नमाज़ ऐसी जगह पढ़ी जाए जहां नमाज़े मैयित के लिये लोग ज़ियादातर जाते हों।

12. अगर हाइज़ नमाज़े मैयित जमाअत के साथ पढ़े तो अकेली खड़ी हो और नमाज़ियों की सफ़ में न खड़ी हो।

619. नमाज़े मैयित मस्जिदों में पढ़ना मकरूह है लेकिन मसजिदुल हराम में पढ़ना मकरूह नहीं है।

दफ़्न के अहकाम

620. मैयित को इस तरह ज़मीन में दफ़्न करना वाजिब है कि उसकी बू बाहर न आए और दरिन्दे भी उसका बदन बाहर न निकाल सकें और अगर इस बात का ख़ौफ़ हो कि दरिन्दे उसका बदन बाहर निकाल लेंगे तो क़ब्र को ईटों वग़ैरा से पुख़्ता कर देना चाहिये।

621. अगर मैयित को ज़मीन में दफ़्न करना मुम्किन न हो तो दफ़्न करने के बजाए उसे कमरे या ताबूत में रखा जा सकता है।

622. मैयित को क़ब्र में दायें पहलू इस तरह लिटाना चाहिये के उसके बदन का सामने का हिस्सा रू बक़िब्ला हो।

623. अगर कोई शख़्स कश्ती में मर जाए और उसकी मैयित के ख़राब होने का इम्कान न हो और उसे कश्ती में रखने में भी कोई अम्र माने न हो तो लोगों को चाहिये कि इन्तिज़ार करें ताकि ख़ुश्की तक पहुंच जायें और उसे ज़मीन में दफ़्न कर दें वर्ना चाहिये की उसे कश्ती में ही ग़ुस्ल देकर हनूत करें और कफ़न पहनायें और नमाज़े मैयित पढ़ने के बाद उसे चटाई में रख कर उसका मुंह बन्द कर दें और समुंदर में डाल दें या कोई भारी चीज़ उसके पांव में बांधकर समुंदर में डाल दें और जहां तक मुम्किन हो उसे ऐसी जगह नहीं गिराना चाहिये जहां जानवर उसे फ़ौरन लुक़्मा बना लें।

624. अगर इस बात का ख़ौफ़ हो कि दुश्मन क़ब्र खोदकर मैयित का जिस्म बाहर निकाल लेगा और उसके कान या नाक या दूसरे अअज़ा काट लेगा तो अगर मुम्किन हो तो साबिक़ः मस्अले में बयान किये गए तरीक़े के मुताबिक़ उसे समुंदर में डाल देना चाहिये।

625. अगर मैयित को क़ब्र में डालना और उसकी क़ब्र को पुख़्ता करना ज़रूरी हो तो उसके अख़राजात मैयित के अस्ल माल से ले सकते हैं।

626. अगर कोई काफ़िर औरत मर जाए और उसके पेट में मरा हुआ बच्चा हो और उस बच्चे का बाप मुसलमान हो तो उस औरत को क़ब्र में बायें पहलू क़िब्ले की तरफ़ पीठ करके लिटाना चाहिये ताकि बच्चे का मुंह क़िब्ले की तरफ़ हो और अगर पेट में मौजूद बच्चे के बदन में अभी जान न पड़ी हो तब भी एहतियाते मुस्तहब की बिना पर यही हुक्म है।

627. मुसलमान को काफ़िरों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न करना और काफ़िर को मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न करना जाइज़ नहीं है।

628. मुसलमान को ऐसी जगह जहां उसकी बे हुर्मती होती हो मसलन जहां कूड़ा कर्कट और गंदगी फेंकी जाती हो दफ़्न करना जाइज़ नहीं है।

629. मैयित को ग़स्बी ज़मीन में या ऐसी ज़मीन में जो दफ़्न के अलावा किसी दूसरे मक्सद मसलन मस्जिद के लिये वक़्फ़ हो दफ़्न करना जाइज़ नहीं है।

630. किसी मैयित की क़ब्र को खोद कर किसी दूसरे मुर्दे को उस क़ब्र में दफ़्न करना जाइज़ नहीं लेकिन अगर क़ब्र पुरानी हो गई हो और पहली मैयित का निशान बाक़ी न रह गया हो तो दफ़्न कर सकते हैं।

631. जो चीज़ मैयित से जुदा हो जाए ख़्वाह वह उसके बाल, नाख़ुन या दांत ही हों उसे उसके साथ ही दफ़्न करना देना चाहिये और अगर जुदा होने वाली चीज़ें अगरचे वह दांत, नाखुन या बाल ही क्यों न हों मैयित को दफ़्नाने के बाद मिलें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उन्हें किसी दूसरी जगह दफ़्न कर देना चाहिये। और जो नाख़ुन और दांत इंसान की ज़िन्दगी में ही उससे जुदा हो जायें उन्हें दफ़्न करना मुस्तहब है।

632. अगर कोई शख़्स कुयें में मर जाए और उसे बाहर निकालना मुम्किन न हो तो चाहिये कि कुयें का मुंह बन्द कर दें और उस कुयें को ही उसकी क़ब्र क़रार दें।

633. अगर कोई बच्चा मां के पेट में मर जाए और उसका मां के पेट में रहना मां की ज़िन्दगी के लिये ख़तरनाक हो तो चाहिये की उसे आसान तरीक़े से बाहर निकालें। चुनांचे अगर उसे टुकड़े टुकड़े करने पर भी मजबूर हो तो ऐसा करने में कोई हरज नहीं लेकिन चाहिये की अगर उस औरत का शौहर अहले फ़न हो तो बच्चे को उसके ज़रिये बाहर निकालें और अगर यह मुम्किन न हो तो अहले फ़न औरत के ज़रिये से निकालें और अगर यह मुम्किन हो तो ऐसे महरम मर्द के ज़रिये निकालें जो अहले फ़न हो और अगर यह भी मुम्किन न हो तो न महरम मर्द जो अहले फ़न हो बच्चे को बाहर निकाले और अगर कोई ऐसा शख़्स भी मौजूद न हो तो फ़िर जो शख़्स अहले फ़न न हो वह भी बच्चे को बाहर निकाल सकता है।

634. अगर मां मर जाए और बच्चा उसके पेट में ज़िन्दा हो अगरचे उस बच्चे के ज़िन्दा रहने की उम्मीद न हो तब भी ज़रूरी है कि हर उस जगह को चाक करें जो बच्चे की सलामती के लिये बेहतर है और बच्चे को बाहर निकालें और फिर उस जगह को टांके लगा दें।

दफ़्न के मुस्तहब्बात

635. मुस्तहब है कि मुतअल्लिक़ा अश्ख़ास क़ब्र को एक मुतवस्सित इंसान के क़द के लगभग खोदें और मैयित को नज़दीक़ तरीन क़ब्रिस्तान में दफ़्न करें मासिवा इसके कि जो क़ब्रिस्तान दूर हो वह किसी वजह से बेहतर हो मसलन वहां नेक लोग दफ़्न किये गयें हों या ज़्यादा लोग वहां फ़ातिहा पढ़ने जाते हों। यह भी मुस्तहब है कि जनाज़ा क़ब्र से चन्द ग़ज़ दूर ज़मीन पर रख दें और तीन दफ़्आ कर के थोड़ा थोड़ा क़ब्र के नज़दीक़ ले जायें और हर दफ़्आ ज़मीन पर रखें और फिर उठायें और चौथी दफ़्आ क़ब्र मे उतार दें और अगर मैयित मर्द हो तो तीसरी दफ़्आ ज़मीन पर इस तरह रखें कि उसका सर क़ब्र की निचली तरफ़ हों और चौथी दफ़्आ सर की तरफ़ से क़ब्र में उतार दें और क़ब्र में उतार ते वक़्त एक कपड़ा क़ब्र के ऊपर तान लें। यह भी मुस्तहब है कि जनाज़ा बड़े आराम के साथ ताबूत से निकालें और क़ब्र में दाख़िल करें और वह दुआयें पढ़ें जिन्हें पढ़ने के लिये कहा गया है दफ़्न करने से पहले और दफ़्न करते वक़्त पढ़ें और मैयित को क़ब्र में रखने के बाद उसके कफ़न की गिरहें खोल दें और उसका रूख़्सार ज़मीन पर रख दें और उसके सर के नीचे मिट्टी का तकिया बना दें और उसकी पीठ के पीछे कच्ची ईटें या ढेले रख दें ताकि मैयित चित न हो जाए और इससे पेशतर कि क़ब्र बन्द करें दायां हाथ मैयित के दायें कंधे पर मारें और बायां हाथ ज़ोर से मैयित के बायें कंधे पर रखें और मुंह उसके कान के क़रीब ले जायें और उसे ज़ोर से हरकत दें और तीन दफ़्आ कहें – इस्मअ इफ़हम या फ़ुलानब्ना फ़ुलानिन। और फ़ुलां इब्ने फ़ुलां की जगह मैयित और उसके बाप का नाम लें। मसलन अगर मैयित का नाम मूसा और उसके बाप का नाम इमरान हो तो तीन दफ़्आ कहेः

इस्मअ इफ़्हम (तीन बार) या मूसब्ना इमरान – उसके बाद कहें हल अन्ता अलल अहदिल लज़ी फ़ारक़्तना अलैहे मिन शहादते अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो वह्दहू ला शरीका लहू व अन्ना मोहम्मदन सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही अब्दुहू व रसूलुहू व सैयिदुन नबीयीना व खातमुल मुर्सलीना व अन्ना अलीयन अमीरूल मोमिनीना व सैयिदुल वसीयीना व इमामुनिफ़्तरज़ल्लाहो तातहू अलल आलमीना व अन्नल हसना वल हुसैना व अलीयिबनल हुसैना व मोहम्मदब्ना अलीयिन व जाअफ़रब्ना मोहम्मदिन व मूसाब्ना जाअफ़र व अलीयिब्ने मूसा व मोहम्मदब्ना अलीयिन व अलीयिब्ना मोहम्मदिन वल हसनब्ना अलीयिन वल क़ाइमल हुज्जतल महदीया सलवातुल्लाहे अलैहिम अइम्मतुल मोमिनीना व हुज्जतुल्लाहे अलल ख़ल्के अज्मईना व आइम्मतका आइम्मतो हुदन अबरारन या फ़ुलानब्ना फ़ुलानिन (और फ़ुलां इब्ने फ़ुलां की बजाय मैयित का और उसके बाप का नाम लें और फिर कहें) इज़ा अताकल मलकानिल मुक़र्रिबाने रसूलैने मिन इंदिल्लाहे तबारका व तआला व सअलका अंर्रब्बिका व अन्नबीयिका व अन दीनिका व अन किताबीका व अन क़िब्लतिका व अन अइम्मतिका फ़ला तख़फ़ व ला तह्ज़न व क़ुल फ़ी जवाबेहिमा अल्लाहो रब्बी व मोहम्मदुन सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही नबिय्यी वल इसलामों दीनी वल क़ुरआनो किताबी वल कअबतो क़िब्लती व अमीरूल मोमिनीना अलीयुब्नो अबी तालिबिन इमामी वल हसनुब्नो अलीयिनिल मुज्तबा इमामी वल हुसैनुब्नो अलीयिनिश शहीदो बे कर्बलाअ इमामी व अलीयुन ज़ैनुल आबिदीना इमामी व मोहम्मदोनिल बाक़िरो इमामी व मूसल काज़िमो इमामी व अलीयुर्निज़ा इमामी व मोहम्मदोनिल जवादो इमामी व अलीयुनिल हादी इमामी वल हसनुल अस्करीयो इमामी वल हुज्जतुल मुन्तज़रो इमामी हाउलाए सलावातुल्लाहे अलैहिम अज़्मईना अइम्मती व सादती व क़ादती व शुफ़आई बेहिम अतवल्ला व मिन अअदाएहिम अतर्बरओ फ़िद्दुनिया वल आख़िरते सुम्माअअलम या फ़ुलानब्ना फ़ुलांनिन (और फ़ुलां इब्ने फ़ुलां की बजाय मैयित का और उसके बाप का नाम लें और फिर कहें) अन्नल्लाहा तबारका व तआला नेअमर्रब्बो व अन्ना मोहम्मदन सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही नेअमर्रसूलो व अन्ना अलीयब्ना अबी तालिबिन व औलादहुल मअसूमीनल अइम्मतइल इसनय अशरा नेअमल अइम्मतो व अन्ना मा जाअ बेही मोहम्मदुन सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही हक़्क़ुन व अन्नल मौता हक़्क़ुन व सुवाला मुन्क़रिंव व नकीरिन फ़िल क़ब्रे हक़्क़ुन वल बअसा हक़्क़ुन वन्नुशूरा हक़्क़ुन वस्सिराता हक़्क़ुन वल मीज़ाना हक़्क़ुन व ततायुरल कुतुबे हक़्क़ुन वअन्नल जन्नता हक़्क़ुन वन्नारा हक़्क़ुन व अन्नस्साअता आतेयतुल्लारैबा फ़ीहा व अन्नल्लाहा यब्असो मन फ़िल क़ुबूरे। (फ़िर कहें) अफ़्हिम्ता या फ़ुलानों (फ़ुला के बजाय मैयित का नाम लें और उसके बाद कहें) – सब्बतकल्लाहो बिल क़ौलिस्साबिते हदाकल्लाहो इला सिरातिम्मुस्तक़ीमिन अर्रफ़ल्लाहो बैनका व बैना औलियाइका फ़ी मुस्तक़र्रिम मिंर्रह्मतेही, (उसके बाद कहें) – अल्लाहुम्मा जाफ़िल अरज़े अन जंबैहे व अस्इद बेरूहेही इलैका व लक़्क़ेही मिनका बुर्हानन अल्लाहम्मा अफ़्वका अफ़्वका।

636. मुस्तहब है कि जो शख़्स मैयित को क़ब्र में उतारे वह बा तहारत, बरहना सर और बरहना पा हो और मैयित की पांयती की तरफ़ से क़ब्र से बाहर निकले और मैयित के अज़ीज़े अक़रबा के अलावा जो लोग मौजूद हों वह हाथ की पुश्त से क़ब्र पर मिट्टी डालें और इन्ना लिल्लाहे व इन्नाइलैहे राजेऊन पढ़ें। अगर मैयित औरत हो तो उसका महरम उसे क़ब्र में उतारे और अगर महरम न हो तो उसके अज़ीज़ व अक़रबा उसे क़ब्र में उतारें।

637. मुस्तहब है कि क़ब्र मुरब्बअ या मुस्ततील बनाई जाए और ज़मीन से तक़रीबन चार उंगल बलन्द हो और उस पर कोई (कतबा या) निशानी या लगा दी जाए ताकि पहचानने में ग़लती न हो और क़ब्र पर पानी छिड़का जाए और पानी छिड़कने के बाद जो लोग मौजूद हों वह अपनी उंगलियां क़ब्र की मिट्टी में गाड़ कर सात दफ़्अ सूरा ए क़द्र पढ़े और मैयित के लिये मग़्फ़िरत तलब करें और यह दुआ पढ़ेः अल्लाहुम्मा ज़ाफ़िल अरज़े अन जंबैहे व अस्इद इलैका रूहहू मन सिवाका।

638. मुस्तहब है कि जो लोग जनाज़े की मुशायअत के लिये आए हों उनके चले जाने के बाद मैयित का वली या वह शख़्स जिसे वली इजाज़त दे मैयित को उन दुआओं की तल्क़ीन करे जो बताई गई हैं।

639. दफ़्न के बाद मुस्तहब है कि मैयित के पसमादगान को पुर्सा दिया जाए लेकिन अगर इतनी मुद्दत गुज़र चुकी हो कि पुर्सा देने में उनका दुख ताज़ा हो जाए तो पुर्सा न देना बेहतर है । यह भी मुस्तहब है कि मैयित के अहले खाना के लिये तीन दिन तक खाना भेजा जाए। उनके पास बैठकर और उनके घर में खाना मकरूह है।

640. मुस्तहब है कि इंसान अज़ीज़ अक़रबा की मौत पर ख़ुसूस बेटे की मौत पर सब्र करे और जब भी मैयित की याद आए इन्नालिल्लाहे व इन्ना इलैहेराजेऊन पढ़े और मैयित के लिये क़ुरआन ख़्वानी करे और मां बाप की क़ब्रों पर जाकर अल्लाह तआला से अपनी हाजतें तलब करे और क़ब्र को पुख़्तः कर दे ताकि जल्दी टूट फूट न जाए।

641. किसी की मौत पर भी इंसान के लिये एहतियात की बिना पर जाइज़ नहीं कि अपना चेहरा और बदन ज़ख़्मी करे और अपने बाल नोचे लेकिन सर और चेहरे का पीटना बिनाबर अक़्वा जाइज़ है।

642. बाप और भाई के अलावा किसी की मौत पर गरेबान चाक करना एहतियात की बिना पर जाइज़ नहीं है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाप और भाई की मौत पर भी गरेबान चाक न किया जाए।

643. अगर औरत मैयित के सोग में अपना चेहरा ज़ख़्मी कर के ख़ून आलूद कर ले या बाल नोचे तो एहतियात की बिना पर वह एक ग़ुलाम आज़ाद करे या दस फ़क़ीरों को खाना खिलाए या उन्हें कपड़े पहनाए और अगर मर्द अपनी बीवी या फ़र्ज़न्द की मौत पर अपना गरेबान या लिबास फाड़े तो उसके लिये भी यही हुक्म है।

644. एहतियाते मुस्तहब यह है कि मैयित पर रोते वक़्त आवाज़ बलन्द न की जाए।