हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

हिन्दुस्तान में वहाबियत का फ़ितना शाह वली उल्लाह मोहद्दिस के घर से नमूदार हुआ। हालांकि शाह साहब का मसलन सूफ़ीयाना था और बज़ाते खुद तसव्वुफ़ के क़ाएल व हमनवां थे।

शाह साहब के साहबज़ादों में शाह अब्दुल अज़ीज़ वग़ैरह भी वहाबियत के मसअले में कभी नुमाया नहीं हुए। मगर उसकी बाज़ किताबों से इस अम्र की निशानदेही होती है। उनके अफ़कारो रूझानात में वहाबियत का मोहलक जरासीम ग़ैर शउरी तौर पर इस अन्दाज़ से कार फ़रमा थे कि उन्हें ख़ुद भी इस ख़तरनाक मर्ज़ का एहसास न था। नीज़ बाज़ तारीख़ी शवाहिद से यह बात भी उभर कर सामने आती है कि इन हज़रात के दौर में वहाबियों की एक ख़ुफ़िया जमाअत मुस्लिम मुआशरे में इस तरह घुली मिली हुई थी कि उस की शिनाख़्त भी मुश्किल थी।

शाह वली उल्लाह और शाह अब्दुल अज़ीज़ वग़ैरा के बाद जब शाह इस्माइल का ज़माना आया तो उन्होंने आले सऊद से दरपर्दा साज़बाज़ कर के वहाबियत की हिमायत का ना सिर्फ़ खुल्लम खुल्ला एलान किया बल्कि उसकी पर्चमबरदारी भी ख़ुद क़ुबूल कर ली। जिसका नतीजा यह हुआ कि वहाबियों की ख़ुफ़िया जमाअत जो अब तक मसलहत और तक़य्या के पर्दे में लिपटी हुई मुसलमानों की नज़रों से पोशीदा थी मैदाने अमल में उतर आयी और उस ने अपने तबलीग़ी उमूर अंजाम देना शुरू कर दिया।

शाह इस्माइल के बाद नोज़ाएदाह जमाअत की क़यादत और सरबराही की तमाम तर ज़िम्मेदारियां सैय्यद अहमद ने सम्भाली। जिन के नाम के साथ वहाबी फ़िरक़ा उमूमन लफ़ज़े शहीद का इस्तेमाल करता है। वहाबी मिशन की तबलीग़ के लिए सऊदी हुकूमत की तरफ़ से दी जाने वाली ग़ैर मामूली मराआत मालो इम्दाद व वज़ायफ़ की करिश्मा कारियों ने दीगर मुमालिक के ज़मीर फ़रोश मौलवियों की तरह कुछ हिन्दुस्तानी कठमुल्लाओं को भी अपने सुनहरे जाल में फंसाया और उन्हीं कठमुल्लाओं के ज़रिये फ़ितना ए वहाबियत हिन्दुस्तान के मुख़तलिफ़ शहरों में फैली और फिर रफ़ता रफ़ता उस में इतनी शिद्दत पैदा हुई कि बड़े बड़े सुन्नी उलेमा और लाखों की तादात में सादाह लौह मुसलमान नजदी अक़ाएद के रेगिस्तानों में भटक कर गुमराह हो गये। यहां तक कि अक्सर उलेमा ने कुफ़्र इख़्तियार कर लिया और वह रसूले अकरम स 0 (अ.स.) की शाने अक़दस में बेअदबी व ग़ुस्ताख़ी पर आमादा हो गये। जैसा कि देवबंदियों के पेशवा मौलाना मोहम्मद क़ासिम तातूतरी के तहरीरी अफ़कार से वाज़ेह है। इन्क़ेलाबे हिजाज़ के बाद जब सऊदी फ़िरऔनों ने इब्ने तीमिया और इब्ने अब्दुल वहाब के शैतानी अफ़कार को अमली जामा पहनाते हुए पैग़म्बरे अकरम स 0 (अ.स.) के रोज़ा ए मुबारक को सनमे अकबर (बड़ा बेटा) क़रार दिया और एक बार फिर उन की काफ़ेराना जसारतों ने मक्का और मदीना के बाक़ी मांदा मज़ाराते मुक़द्देसा को मिस्मार व मुनहदिम करने के लिए अपने सफ़्फ़ाक व नजिस हाथों को बढ़ाया तो पूरे आलमे इस्लाम में एक कोहराम मच गया और करबो इज़तेराब के साथ ग़मों ग़ुस्से का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। चुनान्चे इस तूफ़ान के असरात हिन्दुस्तान के दीगर शहरों की तरह लखनऊ की पुरअमन व रवायती तहज़ीब पर मुरत्तब हुए और इस उभरते हुए फ़ितने को दबाने के लिये यहां के उमरा , उलमा और सूफ़ि ए कराम कमर बस्ता हुए। जिसके नतीजे में मौलवी अब्दुल बारी फ़िरंगी महली के ज़ेरे सरपरस्ती अन्जुमने ख़ुद्दामुल हरमैन क़ायम हुई और आल इण्डिया शिया कांफ़्रेंस के ज़ेरे एहतेमाम अन्जुमने तहफ़्फ़ुज़े माअसरमोताबर्रेका का क़याम अमल में आया। फिर एक माह बाद इन दोनों को नौ ए तशक़ील अन्जुमनों के बाहमी इशतेराक व तअव्वुन से रेफ़ा ए आम कल्ब पर एक अज़ीमुश्शान जलसा हुआ। जिस में बिला तफ़रीक़ शिया व सुन्नी उलमा ने बड़ी तादात में शिरकत की और तक़रीरों तजवीज़ के बाद तमाम हिन्दुस्तानी मुसलमानों की तरफ़ से एक एहतेजाजी मैमोरेंडम सऊदी हुकूमत को भेजा गया। जिस में मज़ाराते मुक़द्देसा के इन्हेदाम पर लानत मलामत के साथ ग़मों ग़ुस्से का इज़हार भी था।

जिस जलसा ए आम की अदीमुल मिसाल कामयाबी के बाद क़ैसरबाग़ बारादरी में हिजाज़ कांफ़्रेंस के इनेक़ाद का एहतेमाम हुआ जिसमें अहले सुन्नत की तरफ़ से फ़ुल्वारी शरीफ़ के मौलाना शाह मोहम्मद सुलेमान , शाह फ़ाक़िर इलाहाबादी , मौलाना अब्दुल माजिद बदायूनी , मौलाना मज़हरूद्दीन एडीटर , मौलाना अब्दुल बारी फ़िरंगी महली के हमराह तक़रीबन दो दर्जन दीगर उलमा ने शिरकत की नीज़ शियों की तरफ़ से मुमताज़ुल उलेमा सरकारे नासेरूल मिल्लत , सरकारे नजमुल मिल्लत , सरकारे उम्दतुल उलमा , फ़ख़रे क़ौम सैय्यद कल्बे अब्बास और सैय्यद अली ज़हीर वग़ैरा ने शिरकत फ़रमायी।

इस तारीख़ साज़ कांफ़्रेंस में फ़रीक़ैन की तरफ़ से घन गरज तक़रीरों के बाद इल्तेवा ए हज की तजवीज़ भी पेश हुई। जो इत्तेफ़ाक़ राय से मन्ज़ूर कर ली गयी। लेकिन अली बरादरान यानी मौलाना अली जौहर और मौलाना शौकत अली ने इस से इत्तेफ़ाक़ नहीं किया क्योंकि यह दोनों भाई आले सऊद के अफ़कारो नज़रियात से मुतास्सिर थे।

मुख़तसर यह कि एक तरफ़ शिया और सुन्नी उलमा मिल कर फ़ितना ए वहाबियत के ख़िलाफ़ मुख़तलिफ़ अन्दाज़ की तहरीकें चला रहे थे और दूसरी तरफ़ इसी लखनऊ की सरज़मीन पर पाटा नालवी और मन्ज़ूर अहमद नोमानी ऐसे चन्द यज़ीद परस्तों और फ़ितना परदाज़ों के ज़ेरे साया वहाबियों के भेस में एक नया यज़ीदी फ़िरक़ा जन्म ले रहा था। जिसका नस्बुल ऐन और मक़सद सही मुसलमानों के दरमियान इफ़तेराक़ व इन्तेशार पैदा करना शिया सुन्नी इत्तेहाद को पारा पारा करना फ़िरक़ा ए वाराना फ़साद , तशद्दुद और ग़ुडा गर्दी के ज़रिए शहर के पुरसुकून व पुरअमन माहौल को दरहम बरहम करना मुसलमानों के मज़हबी जज़बात को उभार कर क़त्ल व ग़ारतगरी और लूट मार पर आमादा करना और यज़ीद जैसे फ़ासिक़ो फ़ाजिर और ज़ालिम इन्सान की हिमायत कर के उस के ज़ालिमाना व जाबिराना किरदार की परदा पोशी करना वग़ैरा था।

चुनान्चे यह ख़ारजी नासिबी और यज़ीदी गिरोह मुनज़्ज़म होकर पूरी तैयारी के साथ 1905 ई 0 में सरगर्मे अमल हुआ और उस ने शिया सुन्नी मुसलमानों को आपस में लड़ाने और शहर में फ़साद बरपा करने की ग़रज़ से जुलूस हाय अज़ा के सामने चारी यारी नज़में पढ़ने का शाख़्साना खड़ा किया। यह शियों के लिए इन्तेहाई दिल आज़ार और परेशानकुन मरहला था। चुनान्चे इस सिलसिले में शियों ने सब्रो ज़ब्त से काम लेते हुए हुकूमत और इन्तिज़ामिया को इस शरपसन्दी की तरफ़ मुतावज्जे किया। लेकिन यज़ीदी बाज़ न आये और आख़िरकार 13 फ़रवरी 1908 ई 0 को ऐन आशूर के दिन शिया सुन्नी फ़साद हो गया। इस ग़ैर मोतावक़्क़े फ़साद में दोनों फ़िरक़ों को जानी व माली नुक़सानात से दो चार होना पड़ा। कुछ बेगुनाह लोग मौत के घाट उतर गये। सैकड़ों अफ़राद बुरी तरह ज़ख़्मी हुए घरों और इमामबाड़ों को नज़रे आतिश किया गया। बहुत सी दुकानें लूट ली गयीं।

मिस्टर बटलर उस वक़्त लखनऊ के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने अमन की बहाली के लिये मोअज़ेज़ीन ए शहर का एक जलसा तलब किया और उन की तरफ़ से एक अपील जारी कराई लेकिन जब बल्वाइयों पर इस अपील का कोई असर न हुआ और छुट पुट वारदातों का सिलसिला जारी रहा तो बटलर साहब ने हुकूमत की ताक़त को बरू ए कार लाकर शरपसन्दों की सरकशी को सख़्ती से कुचल दिया।

8 अप्रैल 1908 ई 0 को शियों का एक नुमाइन्दावफ़्द लेफ़्टिनेंट गर्वनर से मिला और उन्हें तमाम कैफ़ियतों से आगाह कराते हुए इन से चार यारी फ़ितने पर पाबन्दी आयद करने का मुतालबा किया। जिस के जवाब में गर्वनर ने यह यक़ीन दिलाया कि वह इस मसअले की जांच सरकारी सतह पर करायेंगे और फिर इन्क्वायरी रिपोर्ट के मुताबिक़ मुनासिब फ़ैसला करेंगे। शियों के वफ़द ने यह भी मुतालबा किया कि चूंकि आठवीं रबीउल अव्वल क़रीब है और हो सकता है कि इस मौक़े पर यज़ीदी फ़िरक़ा फिर गड़बड़ी पैदा करने की कोशीश करे लिहाज़ा मुनासिब यह होगा कि पुलिस फ़ोर्स का माक़ूल बन्दोबस्त कर के शियों को तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम किया जाये ताकि वह आज़ादी और अमन की फ़िज़ा में अपने मरासिमे अज़ा को अन्जाम दे सकें। लेफ़्टिनेंट गर्वनर ने इस मुतालबे को मन्ज़ूर करते हुए ज़िला मजिस्ट्रेट को यह हुक्म जारी किया कि आठवीं रबीउलअव्वल के मौक़े पर अज़ादारों को मुकम्मल तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम किया जाये। अज़ा के जुलूसों को पुलिस की निगरानी में रखा जाए और बलवाई अगर किसी क़िस्म की रुकावट डालें या फ़साद बरपा करने की कोशीश करें तो उन्हें पूरी ताक़त से कुचल दिया जाये। चुनान्चे इस हुक्म पर मुस्तैदी से अमल हुआ और शियों के जुलूस हाय अज़ा अपनी रिवायती शान व शौकत के साथ बरामत होकर ब ख़ैरियत अन्जाम पज़ीर हुए। उस के बाद 13 अक्टूबर 1908 ई 0 को लेफ़्टिनेंट गर्वनर की हिदायत पर मिस्टर जय ढिल्लो चीफ़ सेक्रेटरी ने गर्वनर की तरफ़ से चारयारी के ख़िलाफ़ एक इन्क्वायरी कमेटी तशक़ील दी जिस के चेयरमैन मिस्टर टी 0 सी 0 पगट आई 0 सी 0 एस 0 मुक़र्रर हुए और मेम्बरों में मिस्टर ए 0 सी 0 पी 0 आलयवर , एहतेशाम अली , मौलाना अब्दुल माजिद , मौलाना सैय्यद नासिर हुसैन साहब क़िबला , नासिरूल मिल्लत , मौलाना अब्दुल बारी फ़िरंगी महली , सैय्यद शहंशाह हुसैन , श्री राम बहादुर सी 0 आई 0 ई 0 और बाबू गंगा प्रसाद नामज़द हुए। यह कमेटी पगट कमेटी के नाम से मशहूर हुई और इस ने तक़रीबन डेढ़ माह की इन्क्वायरी के बाद अपनी जो रिपोर्ट गर्वनमेंट में पेश की वह ज़ैली नोकात पर मुशतमिल थी।

क. शियों और सुन्नियों के दरमियान अस्ल तनाज़ा ए लफ़ज़ चारयारी पर मुनहसिर है और चारयारी नज़मों का अज़ादारी के जुलूसों में पढ़ा जाना शियों के लिए इन्तेहाई दिलाज़ार फ़ेल है। (पैराग्राफ़ नम्बर 14)

ख. चारयारी नज़मों का ताज़ियों के सामने मुसलसल और मुतावातिर पढ़ा जाना इस बात की कोशीश पर मबनी है कि जुलूस हाय अज़ा चारयारी जुलूसों में तब्दील हो जायें। यह यक़ीनन एक नये फ़िरक़े की तरफ़ से नई बिदत और नई बात है। (पैराग्राफ़ नम्बर 76)

ग. हमारी राय में चारयारी नज़मों के ज़रिए ख़ुलफ़ाए सलासा की तारीफ़ अज़ादारी के जुलूसों में उसके जुज़ की हैसियत के एक नामुनासिब फ़ेल और शियों के लिए दिल आज़ार मरहला है। इसके ख़िलाफ़ कोई ज़ाबेता व क़ायदा मुरत्तब करना ज़रूरी है।

घ. हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि गर्वनमेंट की तरफ़ से जो नोटिस अशरा ए मोहर्रम , चेहल्लुम और 21 रमज़ान के मौक़े पर बयान किया जाता हैं इस में जुलूस हाय अज़ा के सामने या उन के रास्ते में या फिर उसके बाद शार ए आम पर चारयारी नज़मों का पढ़ना और इन नज़मों में ख़लफ़ा ए सलासा की तारीफ़ व तौसीफ़ को आमतौर पर मम्नू क़रार दिया जाये और मुस्तक़बिल में ऐसी नज़मों को शार ए आम पर पढ़ना क़ानूने वक़्त पर छोड़ दिया जाये। (पैराग्राफ़ नम्बर 30)

गर्वनमेंट ने मज़्कूरा इन्क्वायरी रिपोर्ट को मामूली तरमीम व तंसीख़ के बाद 7 जनवरी 1909 को मन्ज़ूर कर लिया और फिर 1909 से 1937 तक चारयारी फ़ितने पर मुकम्मल पाबन्दी नाफ़ीस रही।

मदहे सहाबा का जन्म –

1909 की इब्तेदा में गर्वनमेंट की तरफ़ से फ़ितना ए चारयारी पर मुकम्मल पाबन्दी आयद हो जाने के बाद यह यज़ीदी गिरोह जो इब्तेदा ए इस्लाम से ख़ानवादा ए रिसालत का बदतरीन दुश्मन था अंगारों पर लोटने लगा और इस फ़िक्र में रहने लगा कि किस तरह नवासा ए रसूल स 0 (अ.स.) की अज़ादारी को ख़त्म किया जाये और किस तरीक़े से मुसलमानों में तफ़रेक़ा पैदा कर के शिया और सुन्नी को एक दूसरे से अलग किया जाये। चुनान्चे ख़ारजियों और नास्बियों के इस गिरोह ने एक नए फ़ितने को जन्म दिया और उस का नाम मदहे सहाबा रखा।

इस्लामी दुनिया की तारीख़ में पहली बार इन यज़ीदियों ने मलिहाबाद जाकर जोश मलिहाबादी की दादी मरहूमा के ताज़िये के मुक़ाबले में झण्डा उठाने की मज़मूम कोशिश की लेकिन चूंकि मुसलमानों के नज़दीक यह एक नया और अजूबा फ़ितना था और चारयारी फ़ितने से वहां लोग बख़ूबी वाक़िफ़ थे। लिहाज़ा चन्द पठानी तमाचों ने फ़ितना परदाज़ों का सारा बुख़ार उतार दिया था। इस वाक़ाए का ज़िक्र जोश मलिहाबादी ने अपनी किताब यादों की बारात में तफ़्सील से किया है।

मलिहाबाद की पठानी सरज़मीन पर शिकस्त व हज़िमत और ज़िल्लतो रूस्वाई के बाद मुद्दतों तक यह गिरोह लखनऊ में बरसरे आम मदहे सहाबा के झण्डे के ख़ातिर गर्वनमेंट से इसरार करता रहा। लेकिन चूंकि इस्लाम में यह एक नई बिदत थी इस लिए गवर्नमेंट हमेशा उन के इसरार व मुतालेबात को ठुकराती रही।

यज़ीदियों का यह मुतालबा ऐसा था कि जैसा कि मौजूदा दौर में शुमाली हिन्दुस्तान में रावण के पुजारी यह मुतालबा कर रहे हैं कि उन्हें राम के मुक़ाबले में रावण की मदह का हक़ दिया जाये और ज़ाहिर है कि रावण की मदह कोई हिन्दू बरदाश्त नहीं कर सकता। बल्कि यह तो रावण का पूतला जलाना , उस पर लानतों मलामत करना और उस से बेज़ारी का इज़हार करना अपना धर्म समझता है। बिल्कुल इसी तरह शिया फ़िर्क़ा भी इन नामनेहाद सहाबा की तारीफ़ और तौसीफ़ को बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिन लोगों ने इस्लाम और ख़ानवादा ए रिसालत के साथ ग़द्दारी की उन के ख़िलाफ़ साज़िशें और पैग़म्बरे इस्लाम उनकी बेटी फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) और उन के तामाद अली ए मुर्तज़ा (अ.स) और उन के नवासों पर ज़ुल्म व तशद्दुद के पहाड़ तोड़े उन के हुक़ूक़ को ग़स्ब किया और उन्हें बेरहमी और बे दर्दी के साथ क़त्म किया।

इन ज़ालिम व जाबिर सहाबियों की तारीफ़ जो वहाबियों और यज़ीदियों की नज़र में मदहे सहाबा है महज़ शियों को दिली व रूहानी अज़ीयत पहुंचाने के लिये की जाती है। जो आले रसूल से मोहब्बत रखते हैं वरना हक़ीक़त तो यह है कि मदहे सहाबा का मामूलाते इस्लामी से कोई वास्ता और ताल्लुक़ नहीं है और यह फ़ेल ख़ुद वहाबियों की शरीअत में बिदअत शिर्क और कुफ़्र है। नीज़ इसकी मुख़ालेफ़त सिर्फ़ शिया ही नहीं करते बल्कि ख़ुश अक़ीदा अहले सुन्नत की अकसरियत भी इसके ख़िलाफ़ है। काश क़ज़ीया ए मदहे सहाबा के बारे में वोटिंग के ज़रिये हज़रात अहले सुन्नत की राय मालूम की जाती तो मौजूदा सरकार पर इस क़ज़ीय का सारा भरम खुल जाता और मदहे सहाबा के शैदाइयों को अपनी ही क़ौम के हाथों ज़बर्दस्त शिकस्त का सामना करना पड़ता।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इस मंज़िल में यह सवाल भी किया जा सकता है कि जब वहाबियों की शरीयत में मदहे सहाबा बिदअत , शिर्क और कुफ़्र है तो उनकी तरफ़ से जुलूस ए मदहे सहाबा का तक़ाज़ा क्यों है इस का सीधा सा जवाब यह है कि वहाबियों का मक़सूद मदहे सहाबा या झण्डा नहीं है बल्कि इस फ़ितने की आढ़ में वह मुसलमानों के दो फ़िरक़ों के दरमियान तफ़रिक़ा पैदा कर के सदियों से राएज जुलूसों को रोकना या ख़त्म करना चाहते हैं। जो नवासा ए रसूल हज़रते इमामे हुसैन (अ.स.) और उन के 72 साथियों की याद से वाबस्ता है और जिन लोगों ने ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ते हुए इस्लाम की बक़ा और तहफ़्फ़ुज़ के लिए दस मोहर्रम सन् 61 हिजरी को कर्बला के मैदान में अपनी जाने क़ुर्बान कर दीं।

दूसरा दौर –

मदहे सहाबा का फ़ितना 1909 से 1935 तक वहाबियों , ख़ारजियों , नासिबयों और यज़ीदों के ज़ेरे साया पलता और बढ़ता और जवान होता रहा। यहां तक कि चौथाई सदी की मुसलसल और पुर इसरार ख़ामोशी के बाद उस का सुकूत उस वक़्त टूटा जब 1935 में लखनऊ एसेम्बली सीट के लिए चौधरी ख़लीकुज़्ज़मा और सैय्यद अली ज़हीर एक दूसरे के मुक़ाबिल सफ़आरा हुए। फ़ितने को एक बार फिर जगाया ख़लीकुज़्ज़मा इस वादे पर एलेक़्शन जीते कि वह एसेम्बली में इस आवाज़ को बुलन्द कर के मदहे सहाबा पढ़ने का हक़ सरकार से दिलवाऐंगे। मगर मदहे सहाबा के शैदाइयों का यह ख़्वाब शर्मिंदा ए ताबीर न हो सका क्योंकि एलेक्शन जीतने के बाद चौधरी साहब ने इस मामले में ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली थी। इस नाकामी के एहसास में यज़ीदियों के जज़्बात को क़दरे मुशतइल कर दिया था कि वह लोग ज़िद पर उतर आये और अपनी ख़िफ़्फ़त मिटाने के लिए उन्होंने हुकूमत की तरफ़ से आएद शुदा सारी पाबन्दियों को तोड़ दिया मुख़तलिफ़ मस्जिदों की दीवारों से मदहे सहाबा की आवाज़ टकराने लगी और यह हवा इस तरह फैली कि लखनऊ की पुरअमन हवा एक बार फिर ख़राब होने लगी। शियों ने इस सूरते हाल से ज़िला इन्तिज़ामियां के हुक्काम के मुत्तलआ किया लेकिन जब कोई तसल्ली बख़्श कार्यवाही नहीं की गयी तो मजबूरन शियों की तरफ़ से तबर्रा के धमाके होने लगे नतीजा यह हुआ कि पूरे शहर में अफ़रा तफ़री और कशीदगी का माहौल पैदा हो गया।

एलसप कमेटी और उसकी तहक़ीक़ाती रिपोर्ट –

मदहे सहाबा और तबर्रा की आवाज़ों से जब शहर में अबतरी व बदनज़मी फैली तो हुकूमत ने मजबूर होकर 10 अप्रेल 1937 को एक दो रूकनी मदहे सहाबा व तबर्रा तहक़ीक़ाती कमेटी बनायी जो हाई कोर्ट इलाहाबाद के जस्टिस मिस्टर एलिस और अलीगढ़ के ज़िला मजिस्ट्रेट मिस्टर एच 0 सी 0 दास पर मुश्तमिल थी और जिन उमूर की तहक़ीक़ात की ज़िम्मेदारी इस कमेटी को सौंपी गयी थी वह भी दोनुकाती थे।

1. गुज़िशता वाक़ेयात की रौशनी में गवर्नमेंट तजवीज़ मोअर्रेख़ा 7 जनवरी 1909 में जो उसूल और पोलिसी तय की गयी थी उस में किसी तब्दीली की ज़रूरत है या नहीं।

2. ज़िला हुक्काम ने इन मामलात (मदहे सहाबा या तबर्रा) के सिलसिले में जो तरीक़ा ए कार इख़्तेयार किया है उस में क्या तब्दीलियां मुम्किन हैं। दो माह की तहक़ीक़ात के बाद 2 जून 1937 में इस कमेटी ने अपनी जो रिपोर्ट गवर्नमेंट में पेश की वह मुन्दरजा ज़ैल सिफ़ारिशात पर मबनी थी –

1. पूरी तहक़ीक़ात और ग़ौरो ख़ौस के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इस बात की कोई ज़रूरत नहीं है कि इन उसूलों पर पालीसियों में कोई तबदीली की जाये जो गवर्नमेंट तजवीज़ 7 जनवरी 1909 में मुन्दरजा है।

2. दूसरे सवाल के जवाब में हमारी तजवीज़ यह है कि जो तरीक़ा ए कार ज़िला हुक्काम ने लखनऊ में इख़्तेयार कर रखा है उस में भी फ़िलहाल किसी तब्दीली की ज़रूरत नहीं है बशर्ते कि इस तरीक़ा ए कार में कोई ऐसी बात ख़िलाफ़े क़ानून न हो जिस से सुन्नियों को परेशान करना मक़सूद हो और जिस बुनियाद पर मदहे सहाबाब का पढ़ना मम्नूं क़रार दिया जाये। मदहे सहाबा पर पाबन्दी आएद रखने के लिए यही काफ़ी है कि वह शिया फ़िर्क़े के लिए दिल आज़ार है या पब्लिक के लिए परेशानियों और दिक़्क़तों का सबब है।

इज़हारे ख़्याल

एलसप कमेटी ने जो अपनी इस रिपोर्ट में जो ख़्याल तजवीज़ की शक्ल में ज़ाहिर किया वह दर्जे ज़ैल है –

1.मदहे सहाबा का तक़ाबुल ताज़ियों के जुलूसों से सही नहीं है बल्कि मदहे सहाबा का सही तक़ाबुल तबर्रा से है और इस बिना पर हमारी राय से गवर्नमेंट तजवीज़ 7 जनवरी 1909 में कोई ऐसी बात नहीं है जिस से यह ज़ाहिर हो कि सुन्नियों के साथ तफ़रिक़ो नाइन्साफ़ी से काम लिया गया है।

2. अगर इस उसूल को तसलीम कर लिया जाए कि मदहे सहाबा के जुलूस निकाल कर या शारा ए आम पर मदहे सहाबा पढ़ कर सुन्नियों में तब्लीग़ की जा सकती है और यही तरीक़ा दुरूस्त है तो फिर यह बात दिक़्क़त तलब और दुशवार तलब होगी कि शियों को तबर्रा के ज़रिये अपनी क़ौम में तबलीग़ करने से क्यों कर रोका जा सकता है हालांकि शिया इस बात को मानते हैं कि शार ए आम पर तबर्रा मुनासिब नहीं लेकिन सुन्नियों को शार ए आम पर मदहे सहाबा पढ़ने की इजाज़त दी जाती है महज़ इस लिए कि वह इस बात का ऐलान करते फिरें कि पहले कि तीन ख़लीफ़ा क़ाबिले तारीफ़ हैं तो शिया भी अपने इस मौक़िफ़ में हक़ बजानिब होंगे। यह तीनों ख़लीफ़ा क़ाबिले लानत व बेज़ार हैं लिहाज़ा उन्हें भी तबर्रा पढ़ कर मज़हबी अक़ाएद की तबलीग़ की इजाज़त दी जाये।

3. सुन्नियों ने यह बहस की है कि मज़हबी पेशवाओं को क़ानूनन ममनू है और मदह कभी क़ाबिले ऐतेराज़ नहीं हो सकती। यह दोनों बातें ऐसी हैं जो मुकम्मल तौर पर वाज़ेह नहीं हैं। पहला अम्र तो यह है कि मज़हबीं पेशवाओं की जाएज़ तनक़ीद व तनक़ीस जो नेक नियती पर मब्नी हो और दूसरी फ़रीक़ की दिलआज़ारी की नियत से न हो जुर्म नहीं है। इसके अलावा बहुत सी ऐसी मिसालें भी हैं जिन में तारीफ़ भी इशतेआल अन्ग़ेज़ और दिलाज़ार हैं जैसे कि फ़ीस्ट रहनुमाओं की शान में तारीफ़ या क़सीदे जुलूस के रास्ते में क़ाबिले ऐतेराज़ हो सकते हैं।

मन्ज़ूरी तबसेरा

गवर्नमेंट ने एलसप कमेटी की सिफ़ारिश को एक तजवीज़ के ज़रिए मन्ज़ूर कर लिया और 19 मार्च 1038 को अपने फ़ैसले का ऐलान कर दिया। यह फ़ैसला भी 28 मार्च 1938 के गज़ेट में शायां हुआ जिसमें एलसप कमेटी की रिपोर्ट शायां हुई थी। यह अम्र भी क़ाबिले ग़ौर है की एलसप कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में पगट कमेटी की साबेक़ा रिपोर्ट और हुक्काम ज़िला के इस तर्ज़े अमल को जाइज़ क़रार दिया जो उन्होंने 1909 से मदहे सहाबा को ममनू क़रार देने के बारे में इख़्तेयार कर रखा था। इस के अलावा इस दो रुकनी कमेटी ने दो बातों को और वाज़ेह कर दिया अव्वल यह कि वहाबी सुन्नियों का यह दावा कि मदहा या तारीफ़ किसी पहलू से दिल आज़ार नहीं है , बिल्कुल ग़लत है महज़ हालात की बिना पर मदहा या तारीफ़ भी दिलाज़ार हो सकती हैं मसलन राम के भक्तों के सामने रावण की तारीफ़ , दूसरे यह कि अगर सुन्नियों की तरफ़ से इस बात पर इसरार है कि उन्हें शार ए आम पर मदहे सहाबा पढ़ने की इजाज़त दी जाये तो उसके जवाब में शियों का भी यह मुतालबा जाएज़ और दुरूस्त है कि उन्हें भी शार ए आम पर तबर्रा पढ़ कर अपने मक़सूस मज़हबी अक़ाएद की तबलीग़ का हक़ मिलना चाहिए। इन तमाम बातों और फ़ैसलों के बावजूद अगर किसी तरफ़ से यह यक़ीन दिलाया जाए कि मदहे साहाब दिल आज़ार नहीं हो सकती और शियों को मदहे सहाबा के जवाब में तबर्रा पढ़ने का हक़ नहीं है तो यह बात सरासर ग़लत और बे बुनियाद होगी। इस तरह एलसप कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर यह वाज़ेह कर दिया कि मदहे सहाबा के जवाब में शियों को तबर्रा पढ़ने का हक़ है।

30 मार्च 1939 का सियासी फ़ैसला –

1939 में जब यू 0 पी 0 कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश का निज़ामे हुकूमत सम्भाला और पंडित गोबिन्द वल्लभ पन्त वज़ीरे आला मुन्तख़ब हुए तो मदहे सहाबा का फ़ितना एक बार फिर उभर कर सामने आया। इस मरतबा इस फितने की क़यादत मशहूर यज़ीदी अलमबरदार और ख़ानदाने रिसालत के बदतरीन दुशमन मौलवी अब्दुल शकूर के हाथों में थी जिनका मक़सद ही मदहे सहाबा के नाम पर अज़ादारी को नुक़सान पहुंचाना और शिया सुन्नी झगड़े कराना था नीज़ उस वक़्त लखनऊ में जमाअत ए एहरार का काफ़ी ज़ोर था जो मौलवी अब्दुल शकूर की हम ख़्याल थी। इस पर सोने पर सुहागा की मुम्ताज़ कांग्रेज़ी कारकुन मौलवी अहमद हुसैन मदनी नाज़िम जमीयतुल अलमा ए हिन्द मौलवी अब्दुल शकूर के क़रीबी रिश्तेदार थे चुनान्चे उन्होंने इन यज़ीदियों की ख़्वाहिश के मुताबिक़ वज़ीरे आला गोविन्द वल्लभ पन्त पर यह कह कर ग़ैर उसूली और नाजाएज़ दबाव डाला कि आप सुन्नियों को जुलूसे मदहे सहाबा की इजाज़त दे देंगे तो मुसलमानों का अकसरियती फ़िरक़ा आप के साथ हो जायेगा और आइन्दा के लिये कांग्रेस के वोट महफ़ूज़ हो जायेंगे। इस दबाव का नतीजा यह हुआ कि शियों से मशविरा किये बग़ैर वज़ीरे आला ने सियासी मफ़ाद को मद्दे नज़र रखते हुए पहली बार क़ज़िया ए मदहे सहाबा पर हुकूमत की हिमायती मोहर सबद कर दी और 30 मार्च 1939 को एक सरकारी ऐलानिया जारी कर दिया जिसका तर्जुमा दर्जे ज़ैल है –

उत्तर प्रदेश सरकार यह ऐलान करती है कि वह लखनऊ के सुन्नियों को बारह वफ़ात के दिन शार ए आम पर एक जलसा करने और जुलूस की शक्ल में मदहे सहाबा पढ़ने का मौक़ा फ़राहम करेगी लेकिन उस के साथ एक शर्त यह होगी कि वक़्त जगह और रास्ते का तअय्युन ज़िला हुक्काम करेंगे।

तबर्रा ऐजीटेशन –

तबर्रा ऐजीटेशन की दास्तान बड़ी दर्दअंगेज़ और तूलानी है जिसे समेटने के लिये इस किताब में गुजांइश नहीं है। कुछ अहम वाक़ियात का तज़केरा इस लिए ज़रूरी है कि इन वाक़ेआत की रौशनी में हमारी मौजूदा या आइन्दा की नसलों को अपना लाहे अमल मुरत्तब करने में आसानी होगी। जुलूसे मदहे सहाबा के बारे में मौलाना मदनी की इन हतक कोशिशों और यू 0 पी 0 की नौज़ाएदा कांग्रेसी हुकूमत के रवैये का इल्म पहले से ही हो चुका था और शिया तंज़ीमों को इस बात का भी यक़ीन था कि वज़ीरे आला मिस्टर पन्त दबाव के तहत अन्क़रीब कोई न कोई यकतरफ़ा और जांबेराना फ़ैसला करने वाले हैं चुनान्चे उन्हें हालात के पेशे नज़र शिया पालिटिकल कांग्रेस की कमेटी ने 23 मार्च 1939 को सैय्यद अली ज़हीर साहब मरहूम की ज़ेरे सदारत मुनअक़िद होने वाले एक ख़ुसूसी और हंगामी जलसे में यह तय किया कि जुलूसे मदहे सहाबा के लिये सरकार और सुन्नियों के दरमियान जो सांठ गांठ चल रही है उस के ख़िलाफ़ 31 मार्च सन् 1939 ई 0 से कोई मुनज़्ज़म व मोअस्सिर तहरीक़ छेड़ दी जाये ताकि हुकूमत मनमानी न कर सके। इस फ़ैसने का आम ऐलान दूसरे दिन एक ऐसी मजलिस में किया गया जिसमें कई अकाबिर शिया उलमा और मुम्ताज़ शख़्सियतें मौजूद थीं। इसी ऐलान का अफ़सोसनांक नतीजा यह हुआ कि मौलवी अब्दुल शकूर ने मौलाना मदनी के ज़रिये इसकी ख़बर फौरी तौर पर वज़ीरे आला तक पहुंचा दी। वज़ीरे आला ने शियों की तरफ़ से कोई तहरीक़ शुरू करने से क़ब्ल ही 30 मार्च 1930 ई 0 को जुलूसे मदहे सहाबा के हक़ में यकतरफ़ा एलानिया जारी कर दिया जिसकी वजह से शियों में एक ज़बर्दस्त हैज़ान पैदा हो गया और पूरी क़ौम में ग़मों ग़ुस्से की आग भड़क उठी चुनान्चे वह पुरअमन तहरीक़ जो शिया पालिटिकल कांफ़्रेंस के मुताबिक़ 21 मार्च 1939 से शुरू होने वाली थी अचानक तबर्रा एजेटेशन की तरफ़ मुड़ गयी और जिस दिन मिस्टर गोविन्द पन्त की तरफ़ से मदहे सहाबा का सरकारी ऐलान जारी हुआ उसी दिन यानी 30 मार्च 1939 को ही नवाब सुल्तान अली ख़ां नाजिम सिपाहे अब्बासिया की क़यादत में 16 रज़ाकारों ने नारा ए तबर्रा बुलन्द करते हुए ख़ुद को इमामबाड़ा ए ग़ुफ़रांमाब के बाहर गिरफ़्तार करा दिया। शिया पालिटिकल कांफ़्रेंस और दीगर चन्द इदारों की तजवीज़ पर 31 मार्च 1939 से बाक़ायदा तारीख़साज़ ऐजीटेशन इमामबाड़ा ए आसफ़ी से शुरू हुआ और तबर्रा की मुसलसल धमाकों की अवाज़ें शहर की फ़िज़ा में गूंजने लगीं।

सच तो यह है कि इस तारीख़ी ऐजीटेशन की कामयाबी ग़ैबी ताइदो इमदाद का नतीजा थी वरना ग़ैरे इरादी तौर पर बग़ैर किसी तैय्यारी के जिन हालात में इसकी इब्तेदा हुई थी वह इन्तेहाई मायूसकुन और हिम्मत शिकन थी पहली सब से बड़ी कमज़ोरी यह थी कि यह तबर्रा ऐजीटेशन बग़ैर किसी मन्सूबाबन्दी और तैय्यारी के शुरू किया गया था दूसरी यह कि उलमा ए कराम से इसकी मन्ज़ूरी नहीं ली गयी थी। चुनान्चे इन दोनों कमज़ोरियों से कुछ ना फ़हम और रवादार क़िस्म के लोगों ने यह फ़ाइदा उठाना चाहा कि उन्हें जेल जाने की शरयी हैसियत का शाख़्साना खड़ा किया और इसके ज़ैल में उलमा ए कराम से फ़तवा हासिल करने की भाग दौड़ शुरू कर दी। इस जाहिलाना भाग दौड़ का फ़ौरी और अमली जवाब सबसे पहले सरकार नसीरूल मिल्लत ने यह दिया कि पहली अप्रैल 1939 को उन्होंने तबर्राइयों की क़यादत करते हुए 660 मोमेनीन के साथ ख़ुद को गिरफ़्तार करा दिया यही वह दूरअन्देशाना एक़दाम था कि जिसने नाफ़ैहम को जेल जाने की शरयी हैसियत से आगाह कर दिया और तबर्रा की आबरू रख ली। इस अमली एक़दाम में जहां एक तरफ़ ऐजीटेशन में एक नई रूह वहां दूसरी तरफ़ इसतिफ़ता की सारी कोशिशों को यक़लख़त मुनजमिय कर दिया उस के बाद चूंकि सरकारे नासेरूल मिल्लत का नज़रिया जो उन के फ़रज़न्दे अकबर की गिरफ़्तारी के बाद तबर्रा एजीटेशन के हक़ में बख़ूबी वाज़ेह हो चुका था इस लिए दीगर शिया उलेमा ने भी इसकी ताइद फ़रमा दी और इस तरह यह एजीटेशन हिन्दुस्तान की तारीख़ में एक संगेमील बन गया और फिर उसमें इतनी तवानाई पैदा हो गई कि रोज़ाना 400- 400 500- 500 की तादाद में मोमेनीन तिलावते तबर्रा के बाद ख़ुद को गिरफ़्तारी के लिये पेश करने लगे और जा बजा नयी जेलें खुलने लगीं। मौलाना मदनी और मौलवी अब्दुल शकूर लखनऊ छोड़ कर भाग खड़े हुए और यू 0 पी 0 हुकूमत अपने ग़लत फ़ैसले पर अपना सर पीटने लगी।

ग़ैर मुनक़सिम हिन्दुस्तान के गोशे गोशे साहेबाने ईमान का एक ताक़तवर सैलाब उमड़ कर लखनऊ की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहा था और ज़िला हुक्काम उसे रोकने में नाकाम व परेशान थे। उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली , गुजरात , पंजाब , महाराष्ट्र , बिहार , बंगाल , आसाम , झंग , सिंह और दीगर मक़ामात के शिया भी इस ऐजीटेशन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। ग़रज़ की हिन्दुस्तान की शिया आबादी का कोई हिस्सा ऐसा नहीं था कि जहां से मोमेनीन ए कराम के जत्थे न आये हों। शायद इसी जोशे इमानी से मुतास्सिर होकर अकबर इलाहाबादी ने शायरी के स्टेज से अपने इस शेर के ज़रिये हुकूमत को ललकारा था –

हाकिम न कोई चैन से बंगले में सोयेगा ,

झण्डा अगर उठा तो तबर्रा भी होयेगा।।

बहर हाल यह ऐजीटेशन अपनी पूरी क़ूवतो तवानाई के साथ तमाम सरकारी बंदिशों और पाबन्दियों की कोशिशों के बावजूद अज़मों इस्तेक़लाल की छांव में मुसलसल जारी रहा और शियों का जेल भरो आन्दोलन मदहे सहाबा की धज्जियां फ़िज़ां में बिखेरता रहा। इस ऐजीटेशन के बारे में जो बजाए ख़ुद एक मुस्तक़िल तारीख़ है हफ़्त रोज़ा अख़बार जंग 3 जुलाई 1939 के ख़ुसूसी शुमारे 208 के सफ़ ए तीन पर लिखा है कि मफ़ाद परस्त सियासत दाओं की शोबदाबाज़ी ने 30 मार्च को मदहे सहाबा के जुलूस की इजाज़त देकर शियों को तबर्रा बाज़ी का मौक़ा फ़राहम किया जो रफ़ता रफ़ता एक मुस्तक़िल ऐजीटेशन में तब्दील हो गया और इसमें पूरे हिन्दुस्तान के शिया शरीक हो गये। यक़ीकनन हुकूमत की तरफ़ से यह एक ग़ैर दानिशमंदाना एक़दाम था जिसका ख़ामियाज़ा सुन्नियों को ख़ुद भुगतना पड़ा उस वक़्त तक आम अन्दाज़े के मुताबिक़ गिरफ़्तार शुदागान की तादाद तक़रीबन 22 हज़ार तक पहुंच चुकी थी जबकि सरकारी बयान में यह तादाद 18 हज़ार बतायी जाती है।

5 जुलाई 1939 का कर्फ़्यू –

5 से 7 जुलाई 1939 तक तीन दिन इमामबाड़ा ए आसफ़ी के सामने लक्ष्मण टीला पर शाह पीर मोहम्मद का उर्स होने वाला था हुकुमत ए इन्तिज़ामिया ने इस उर्स की आढ़ लेकर ख़ुफ़िया तौर पर 4/5 जुलाई की दरमियानी शब में सिर्फ़ शियों के लिए 36 घंटे का कर्फ़्यू नाफ़िस कर दिया और सुन्नियों को टीले पर जाने की इजाज़त दे दी। यह इस लिये किया गया था कि शियों का ऐजीटेशन तअतुल की बिना पर कमज़ोरी का शिकार हो जाये। चुनान्चे 5 जुलाई की सुबह को सरगर्दा शिया लीडर जिन्हें कर्फ़्यू का कोई इल्म न था शिया पालिटिकल कांफ़्रेंस और तन्ज़ीमुल मोमेनीन के दफ़तरों नीज़ दीगर मक़ामात से गिरफ़्तार कर लिये गये और उन्हें जेल रवाना कर दिया गया जिससे एक परेशानी और इन्तेशार का आलम पैदा हो गया लेकिन चूंकि एजीटेशन का जारी रखना बहर हाल ज़रूरी था इस लिए सख़्त क़र्फ़्यू और चौकसी के बावजूद मुजाहिदे मिल्लत सय्यद अशरफ़ हुसैन अडवोकेट और उन के 6 साथी नज़ीर हुसैन सरांय माली ख़ां , दुल्हा साहब निवाज गंज , नवाबो साहब , पुत्ती मरहूम , कज्जन साहब और नवाब संझू साहब एक ख़ूफ़िया मक़ाम पर जमा हुए और इन में से तीन अफ़राद इमामबाड़ा ए आसफ़ी की पुश्त पर बहने वाले नाले के ज़रिये इमामबाड़े के अन्दर दाख़िल हो गए और सैय्यद अशरफ़ हुसैन मरहूम की क़यादत में तीन अफ़राद सुन्नियों के उस मजमे में शामिल हो गये जो लक्ष्मण टीले पर उर्स के लिये जा रहा था यह लोग लक्ष्मण टीला पहुंच कर सामने गये गेट से पुलिस वालों की आंखों में धूल झोंक कर इमामबाड़े के अन्दर पहुंच गये तो इमामबाड़े से तबर्रा का नारा बुलन्द हुआ जिसे सुन कर उर्स में शिरकत में आये हुए सुन्नियों में भगधड़ मच गयी और इन्तिज़ामिया के अफ़सरान और हुक्काम हैरत से एक दूसरे का मुंह तकते रह गये। इस इस्तेक़लाल और पामर्दी का नतीजा यह हुआ कि सैय्यद अशरफ़ हुसैन और उनके साथियों की गिरफ़्तारी के बाद हुक्काम को मजबूर हो कर कर्फ़्यू हटा लेना पड़ा और ऐजीटेशन के ख़िलाफ़ हुकूमत की सारी तदबीरे नाकाम हो गयी।

6 जुलाई 1939 का तारीख़ी दिन –

5 जुलाई कर्फ़्यू के दौरान मुजाहिदे मिल्लत सैय्यद अशरफ़ हुसैन और उनके साथियों की गिरफ़्तारी के बाद शिया क़ौम में एक नया जोश और वल्वला पैदा हो गया था चुनान्चे 6 जुलाई 1939 को मौलाना सैय्यद सईद साहब क़िब्ला (सईदुल मिल्लत) , मौलाना सैय्यद कल्बे हुसैन साहब क़िब्ला उर्फ़ कब्बन साहब , उम्दातुल उलमा मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद आलिम साहब क़िब्ला , मौलाना सैय्यद क़ायम मेंहदी साहब क़िब्ला , मौलाना सआदत हुसैन साहब क़िब्ला और फ़ख़रूल वायेज़ीन मुल्ला मोहम्मद ताहिर साहब क़िब्ला के साथ तक़रीबन दो दर्जन दीगर उलमा ए कराम और मोअज़्ज़ेज़ीन ने इमामबाड़ा ए आसफ़ी से अपनी गिरफ़्तारियां देने का ऐलान किया। जिसे सुनकर तक़रीबन 50 हज़ार शियों का एक जम्मेग़फ़ीर वक़्त से पहले ही इमामबाड़े में इकट्ठा हो गया। इनमें से हर एक अपने रहनुमाओं की क़यादत में गिरफ़्तारी का शरफ़ हासिल करने के लिए बेचैन मुज़तरिब था। मज़कूरा उलमा ए कराम और मोमेनीन को इमामबाड़ा ए आसफ़ी से बैरूनी गेट वाली सड़क तक पहुंचाने की ग़रज़ से सरकारे नासेरूल मिल्लत और सरकारे नजमुल मिल्लत भी तशरीफ़ लाये थे और तबर्रा के फ़लक शिगाफ़ नारों से शहर की फ़िज़ा गूंज रही थी ग़रज़ की एक तरफ़ शिया उलमा के साथ 50 हज़ार मोमेनीन का कसीर मजमा इमामबाड़ा ए आसफ़ी से बैरूनी गेट वाली सड़क की तरफ़ पेशक़दमी कर रहा था कि उनकी गिरफ़्तारी अमल में आ सके और दूसरी तरफ़ वज़ीरे आला के इशारे पर पुलिस और पी 0 एस 0 सी 0 के जवान इन पुर अमन और निहत्थे मजमे पर गोलियां बरसाने और लाठीचार्ज करने की तैयारी कर रहे थे। चुनान्चे मजमा जैसे ही इमामबाड़े के बैरूनी गेट से निकल कर बाहर सड़क पर आया और गिरफ़्तारी पेश करने के लिए आगे बढ़ा वैसे ही बग़ैर किसी वार्निगं के पुलिस की लाठियां बरसने लगीं। इस बरबरियत और तशद्दुद के नतीजे में मुताअद्दिद उलमा ए कराम और सैकड़ों की तादात में मोमेनीन बुरी तरह घायल हो गये और यावर हुसैन नामी एक नौजवान पुलिस की गोली का निशाना बन गया। हुक्कामे ज़िला इस ख़ुशफ़ैहमी में मुब्तेला थे कि पुलिस की ज़्यादती और गुंडागर्दी के बाद शियों के हौसले पस्त हो जायेंगे और ऐजीटेशन ख़त्म हो जायेगा लेकिन उन्होंने जब यह देखा कि हौसलों में और इस्ताहकाम पैदा हो गया है और ऐजीटेशन में मज़ीद तवानाई आ गयी है तो उनकी ख़ुश फ़ैहमी का सारा तिलस्म टूट गया और उनके चेहरों से मायूसी टपकने लगी।

मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद से वज़ीर ए आला की फ़रियाद –

लखनऊ के हालात जब इन्तेहायी बदतर और हुकूमत के कन्ट्रोल से बाहर हो गये तब नीज़ तबर्रा ऐजीटेशन में कहीं से कोई कमज़ोरी पैदा न हो सकी तो वज़ीर ए आला गोविन्द बल्लभ पन्त ने घबरा कर कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड के सदर और सुन्नियों के मुम्ताज़ और वसीउन्नज़र आलिमेदीन मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद से राबता क़ायम किया और उनसे फ़रियाद की कि वह अपने रूसूक़ो असरात को बरूए कार लाकर किसी तरह तबर्रा ऐजीटेशन को ख़त्म करायें ताकि शहर में अमन बहाल हो सके और हालात मामूल पर आ सकें। मौलाना आज़ाद ने पहले तो वज़ीर ए आला की इस फ़रियाद को ठुकराते हुए इस मसले में पड़ने से साफ़ इन्कार कर दिया लेकिन बाद में वह पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने सुन्ने से राज़ी हो गये और चन्द सुन्नी उलमा के साथ लखनऊ तशरीफ़ ले आए और यहां उन्होंने अपने 17 रोज़ा क़याम के दौरान अव्वल से आख़िर तक के हालात का जायज़ा लिया। वज़ीर ए आला और ज़िला हुक्काम से गुफ़तुगू की और मौलाना मदनी और अब्दुल शकूर के साथ साथ दीगर सुन्नी लीडरान से भी उनका मुतमा ए नज़र मालूम किया। उसके बाद उन्होंने शिया रहनुमाओं से बातचीत की और उनसे दरख़्वास्त की कि वह तबर्रा ऐजीटेशन ख़त्म करा दें। मौलाना ने शिया मौलानाओ को यह यक़ीन दहानी भी कराई कि वह मदहे सहाबा के बारे में हुकूमत की तरफ़ से 30 मार्च 1939 जारी होने वाले ऐलानिया को मन्सूख़ करा देंगे। चुनान्चे मौलाना आज़ाद ऐसी ज़िम्मेदार शख़्सियत की यक़ीन दहानी के बाद शिया रहनुमाओं ने 8 माह दस दिन से चल रहे तबर्रा ऐजीटेशन को वापस ले लिया। जिन लोगों ने गिरफ़्तारियां दीं थीं उन्हें ग़ैरमशरूत तौर पर रिहा कर दिया गया और वह जेलों से अपने घरों को वापस आ गये। उसके चन्द ही रोज़ बाद गोविन्द वल्लभ पन्त की सूबाई हुकूमत भी हालात का शिकार हो कर ख़त्म हो गयी।

मौलाना आज़ाद का तारीख़ी बयान –

मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद का क़याम अगर लखनऊ में आठ दस दिन और होता तो वह यक़ीनन क़ज़ीया ए मदहे सहाबा को दफ़्न कर देते और किसी की हिम्मत न होती कि उनके ख़िलाफ़ आवाज़ बलन्द कर सके क्योंकि वह सुन्नी मुसलमानों के ऐसे मज़हबी रहनुमा थे जिनकी ज़बान से निकला हुआ हर लफ़ज़ एक हुक्म की हैसियत रखता था। लेकिन अफ़सोस है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बाहमी इख़्तेलाफ़ात और पूरे मुल्क में फ़ैले हुए सियासी इन्तेशार ने पंडित नेहरू की तलबी पर उन्हें लखनऊ छोड़ने पर मजबूर कर दिया। ताहम मौलाना ने 30 अप्रैल 1940 को अपने एक बयान के ज़रिये मदहे सहाबा को बिदत क़रार दिया और सुन्नियों को मशविरा दिया कि वह इस बिदत से बाज़ रहें। रोज़नामा नेशनल हेरल्ड ने शायां होने वाले इस बयान के इख़तेबासात का उर्दू तरजुमा हसबे ज़ैल है –

मुझे इस अम्र को मानने में ज़रा भी पसोपेश नहीं है कि जुलूस ए मदहे सहाबा के बारे में यू 0 पी 0 हुकूमत का 30 मार्च 1939 को जारी होने वाला सरकारी ऐलानिया हालात के नाकाफ़ी मुशाहिदे और क़याम राय की ग़लती पर मब्नी था।

बारह वफ़ात की आमद के मौक़े पर मैं अपना फ़र्ज़ समझता हूं कि सुन्नियों से दरख़ास्त करें कि वह पूरे मसले के लिए एक ऐसा माक़ूल नुक़तह नज़र और ऐसा तर्ज़े अमल इख़्तियार करें जो सुन्नि और शियों के दरमियान बिरादराना यकजहती का ज़ामिन बन सके। सुन्नियों का अपनी तक़रीबाते मज़हबी में ख़ुलफ़ा ए सलासा की मदह का हक़ शक व शुभे से बाला तर है और कोई शख़्स भी माक़ूलियत की हल्की सी झलक के साथ उस हक़ पर ऐतेरात नहीं कर सकता। लेकिन जहां तक जुलूसे मदहे सहाबा का ताल्लुक़ है तो वह दरहक़ीक़त सुन्नियों के मज़हबी फ़राएज़ का कोई जुज़ नहीं। अलावा वह अज़ी ख़ालिस मज़हबी नुक़ता ए नज़र और फ़िक़ही लिहाज़ से इस मदहे सहाबा को मज़हब में एक नया फेल या ग़ैरे मामूली जिद्दत (बिदत) ही कहा जा सकता है और यह फेल चूंकि मुसलमानों के दोनों फ़िर्कों के दरमियान मेल व इत्तेहाद बुलन्द और अज़ीम मक़सद के मनाफ़ी हैं लिहाज़ा मज़हबी तौर पर इस पर पाबन्दी इन्तेहाई मुनासिब है।

मैं तमाम बा असर और बुलन्द मरतबा सुन्नी हज़रात से अपील करता हूं कि वह अपने असरात से काम लेकर जुलूसे मदहे सहाबा के कारकुनों को इस बात पर आमादा करें कि वह अपने इन जुलूसों के लिए इसरार न करें बल्कि मुस्लिम साल्मियत को बरक़रार रखने के ख़िदमात को अंजाम दें।

मौलाना आज़ाद के इस बयान से यू 0 पी 0 के सूबाई हुकूमत को अपनी ग़लती का एहसास हुआ चुनान्चे उस ने 11 नवम्बर , 1940 को अपने एक मुख़तसर एलानिया के ज़रिये जुलूसे मदहे सहाबा पर फिर पाबन्दी आएद कर दी। इस पाबन्दी के बाद यज़ीदियों की सारी कोशिशों पर पानी फिर गया इन के हौसले पस्त हो गये और इन के सरों से मदहे सहाबा का भूत इस तरह उतरा कि 22 साल तक उन्होंने दोबारा सर नहीं उठाया। यहां तक कि उन के बच्चे जवान हो गये और जवान बूढ़े हो कर पेवन्द ए ख़ाक हो गये। अलबत्ता इस तवील वक़्फ़े के दौरान यह ज़रूर हुआ कि कुछ फ़ितना परदाज़ों की तरफ़ से जुलूसे मदहे सहाबा का मामला मुक़दमे की शक्ल में मुख़्तलिफ़ अदालतों में समाअत व दादरसी के लिए पेश हुआ और हर अदालत ने इसे शरअंगेज़ दिलआज़ार और फ़ितनाओ फ़साद का सबब ठहराते हुए इस पर हुकूमत की तरफ़ से आएद शुदा पाबन्दी को जाएज़ क़रार दिया।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

तबलीग़ी जमाअतों का क़याम और उनकी सरगर्मियां –

तक़सीमे हिन्द के बाद मदहे सहाबा का फ़ितना ख़ामोशी की गहरी तहों में दबा हुआ था और ज़ेहनों में उसके नुक़ूश धुंधले पड़ चुके थे लेकिन जब 1952 का साल शुरू हुआ तो इलेक्शनी मुहिम की मसलहत अंग्रेज़ों और मुख़तलिफ़ सियासी पार्टियों की चीरा दस्तियों ने महज़ वोटों की ख़ातिर सुन्नियों को उनकी अकसरियत का एहसास दिलाकर और 1950 के आइना ए हिन्द में दिये गये मुसलमानों के मज़हबी हुक़ूक़ से उन्हें आगाह कर के इस फ़ितने को एक नये ढंग से उभारा और चूंकि कांग्रेस पार्टी भी अन्दरूनी तौर पर मुसलमानों की इजतेमाई क़ूवत को फ़िरकों में तबदील कर के उन्हें कमज़ोर बनाने की फ़िक्र में लगी हुई थी लिहाज़ा उसने भी अपने इन्तेख़ाबी मन्शूर में हर फ़िरक़े की मज़हबी आज़ादी का ऐलान किया इन दोनों बातों का मजमुयी नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों के दरमियान कुछ ऐसी तबलीग़ी जमाअतें उभर कर आ गयीं जो अफ़कार व ख़यालात में वहाबियत से हम आहंग थीं। चुनान्चे इन जमाअतों ने अपने मसलक की तबलीग़ शुरू कर दी। इस में कोई शक नहीं कि इब्तेदा में इनकी तबलीग़ का दायरा कारे मज़हबी आज़ादी के साय में था मगर रफ़ता रफ़ता इसकी सूरते हाल तब्दील होती गयी और आज की यह कैफ़ियत है कि यह जमाअतें ख़ुफ़िया तौर पर सुन्नी मुसलमानों को अपने मुल्क , वतन , मुआशरे और मामूलाते इस्लामी से इन्हेराफ़ , ग़द्दारी , बग़ावत और सरकशी पर उक्साती हैं। इन में से बाज़ को पाकिस्तानी ख़ुफ़िया ब्यूरो की तरफ़ से जंगी तरबियत और असलहे की फ़राहमी के लिए कसीर तादात में माली इमदाद भी दी जाती है , जो बराहे रास्त दीगर इस्लामी मुमालिक के ज़रिए मौसूल होती है ताकि यह लोग हिन्दुस्तान की सालमियत यकजहती और अमनो सुकून को ग़ारत कर सकें , जैसा कि वादिये कश्मीर में हो रहा है।

यह जमाअतें एक तीर से कई शिकार करती हैं अव्वल यह कि मज़हब के नाम पर फ़ितनाओ फ़साद बरपा करके मुल्क के लिए ख़तरा पैदा करती हैं , दूसरे यह कि हिन्दुओं के ख़िलाफ़ मुसलमानों के दिलों में नफ़रत व फ़िरक़ा परस्ती को उभारती हैं और तीसरे यह कि शियों के ख़िलाफ़ ग़लत और बे बुनियादी प्रोपेगन्डे कर के उन्हें काफ़िर क़रार देती हैं।

ख़ानदाने रिसालत से अजली दुश्मनी की बिना पर यह जमाअतें नवासा ए रसूल हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की अज़ादारी की भी सख़्त मुख़ालिफ़ है और सुन्नियों को इस अम्रे ख़ैर की अन्जाम देही से हत्तल इम्कान रोकने की भी कोशीश करती हैं ताकि शियों और सुन्नियों को दरमियान इख़्वत व मोहब्बत का जो रिश्ता सदियों से क़ायम है वह हमेशा के लिए ख़त्म हो जाये क्योंकि उन्हें यह अच्छी तरह मालूम है कि अज़ादारी शियों का मज़हबी जुज़ है और मुख़ालेफ़िने अज़ा को बर्दाश्त नहीं कर सकते।

इन जमाअतों की तरफ़ से मुनक़्क़ेदा जुलूसों में जो तक़रीरें होती हैं उनमें मुनाफ़ेरत और फ़िरक़ा परस्ती का ज़हर भरा होता है और इनके ज़रिये सुन्नियों को यह तरग़ीब दी जाती है कि वह हिन्दुओं और शियों से दामन कश रहें क्योंकि यह दोनों क़ौमें काफ़िर हैं। यह जमाअतें ऐसी किताबें और लिटरेचर शायां करती हैं जिसमें अहलेबैत व अतहार की दुश्मनी कारफ़रमा हो और जो इन जमाअतों के दिली मक़ासिद को पूरा करने में पूरी तरह मददगार साबित हों। नीज़ यह लोग तहरीर व तक़रीर , सीरत के जुलूसों , तब्लीग़ की टोलियों और दीनी कान्फ़ेंसों के ज़रिए अपने मक़सद को आवाम तक पहुंचाते हैं।

इन जमाअतों के सरकरदा अफ़राद व लीडरान मुख़्तलिफ़ नौइय्यत की तहरीक़ों को चलाने के साथ साथ अमली तौर पर सियासत में हिस्सा लेतें हैं ताकि वक़्त पड़ने पर वह हुक्मरां सियासी पार्टियों के रहनुमाओं से अपने लिए तहफ़्फ़ुज़ हासिल कर सकें।

मज़हब के नाम पर इन जमाअतों की तरफ़ से जो मुनाफ़ेक़ाना तहरीकें चल रही हैं वह तीन हिस्सों में मुशतमिल हैं , एक दीनी तालीम दूसरे सीरत की आड़ में मुफ़सेदाना जलसे और तीसरे तब्लीग़ी सरगर्मियां।

दीनी तालीम के नाम पर यह जमाअतें मरकज़ी और सूबाई हुकूमतों से बड़ी बड़ी रक़में माली इम्दाद के तौर पर हासिल करती हैं लेकिन इन रक़मों को वह शियों और हिन्दुओं के मज़हबी रूसूमात के ख़िलाफ़ तालीम पर ख़र्च करती हैं और इन के मदरसों में बच्चों को मुनाफ़ेरत , इफ़तेराक़ और इन्तेशार फैलाने का सबक़ पढ़ाया जाता है।

सीरत की आढ़ में जो जलसे होते हैं उनका बातनी मक़सूद तहफ़्फ़ुज़ नामूसे सहाबा है जो मदहे सहाबा की बदली हुई शक्ल हैं। मौजूदा दौर में इस तहरीक़ का ख़ुसूसी मरकज़ लखनऊ है जहां सीरत के जुलूसों के बजाय ख़ुलफ़ा ए सलासा को फ़ज़ीलतमआब साबित करने के लिए मुख़तलिफ़ मक़ामात पर सालाना जलसे और कांफ़्रेंसे मुन्अक़िद की जाती हैं और मन गढंत रवायात और अहादीस के हवाले से इनका तक़ाबुल व मवाज़ेना अहलेबैत व अतहार से किया जाता है ताकि यह लोग अपने ख़ताकार सहाबा की मुनाफ़ेक़ाना तर्ज़ की पर्दा पोशी कर सकें। चुनान्चे गुज़िश्ता 20 सितम्बर 1997 को भी तहफ़्फ़ुज़े नामूसे सहाबा के नाम पर एक कांफ़्रेंस शौकत अली के हाते वाक़ा ए रकाबगंज में मुनाक़िद की गयी थी जिस में मौलाना अब्दुल हसन नदवी (अली मियां) मुहतमिम दारूल उलूम नदवा की मौजूदगी में अहलेबैत अलैहमुस्सलाम की शाने अक़दस में ख़ुलकर ग़ुस्ताख़ियां की गयीं और मौलाना डॉ 0 कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला को उनकी पूरी शिया क़ौम के साथ ख़ारिज अज़ इस्लाम काफ़िर क़रार दे कर ज़ेहनी दीवालियापन का सुबूत पेश किया हालांकि डा 0 कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला बज़ाते खुद फ़िक्री तौर पर सुन्नियों के बहुत बड़े हमदर्द और हमनवां और इत्तेहादे बैनुल मुस्लेमीन के शैदाई हैं। इस के अलावा मौसूफ़ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नाएब सदर और मिल्ली काउन्सिल ऑफं इण्डिया के अहम रूकन भी हैं। अब देखना यह है कि यह कल्मागोह इदारे उन्हें ग़ैर मुस्लिम की हैसियत से मुस्तक़बिल में किस अन्दाज़ से क़बूल करते हैं।

इन जमाअतों की तीसरी तहरीक जो बज़ाहिर तबलीग़ी उमूर पर मब्नी है बड़ी मज़हक़ा ख़ेज़ भी है। इस तहरीक के तहत इस्लामी फिक़ व तारीख़ से नावाक़िफ़ व नाबलद और जाहिल मुबल्लेग़ीन जमाअतों की शक्ल में बोरियां बिस्तरा और लोटा थाली लेकर गली गली , कूचा कूचा , गांव गांव और शहरों शहरों की ख़ाक छानते रहते हैं। यह लोग जहां भी जाते हैं वहां इनकी ख़ुसूसी तवज्जो सुन्नियों के दरमियान अज़ादारी की मुख़ालेफ़त पर मरकूज़ रहती हैं। यह लोग मुसलमानों को डरा धमका कर और जहन्नुम के अज़ाब का ख़ौफ़ दिलाकर इन उमूरे ख़ैर की अन्जाम देही से मना करते हैं और शियों को बिदती और काफ़िर बताते हैं।

ग़रज़ की यह मुफ़सिद और फ़ितना परवर जमाअतें जो अरबाबे सियासत की ग़ल्तियों की पैदावार हैं और 1952 से अब तक सरगर्मे अमल हैं। पूरे हिन्दुस्तानी मुआशरे में हर क़ौम हर क़बीला और हर फ़िरक़े के दरमियान अपनी तब्लीग़ी सरगरमियों से नफ़रत , अदावत , बग़ावत और फ़िरक़ा परस्ती का ज़हर घोल रही है अगर उनकी तरफ़ ध्यान न दिया गया और इन पर क़ानूनी पाबन्दी न लगायी गयी तो एक दिन यह मुल्क की बक़ा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा भी बन सकती है।

मदहे सहाबा क्या है –

मदहे सहाबा एक दिल आज़ार शय और झगड़े की शय है इस लिए कि सुन्नी हज़रात मदहे सहाबा में ज़्यादातर उन सहाबा की तारीफ़ व तौसीफ़ को अपना ईमानी फ़रीज़ा समझते हैं जो मुनाफ़ेक़त का लिबास पहन कर इस्लाम में दाख़िल हुए जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के ख़िलाफ़ मुनाफ़ेक़ाना साज़िशें की , जिन्होंने ज़िन्दगी भर रसूले इस्लाम और उन के अहलेबैत को सताया जिन्होंने क़दम क़दम पर सरकारे दोआलम को अज़ीयतें पहुंचायीं। उनकी राह में कांटे बिछाये उनके अहकाम को ठुकराया और उन्हे वक़्ते आख़िर हिज़्यानगोह क़रार दिया , सुन्नी हज़रात उन सहाबा की मदह का हक़ चाहते हैं जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी , दामाद और नवासों पर मज़ालिम के पहाड़ तोड़े और ख़ुद हुज़ूरे अकरम की शम्मे हयात को हमेशां के लिए गुल कर देने की नापाक सयी की जैसा कि तारीख़ी शाहिद के मुताबिक़ ग़ज़व ए तुबुर्के की वापसी पर पैग़म्बर के साथ पेश आने वाले अफ़सोसनाक वाक़ए से ज़ाहिर है कि उसकी सदाक़त में किसी तरह का कोई इख़्तेलाफ़ नहीं है।

तारीख़ों की सराहत है कि तबूक़ की वापसी पर सरकारे दो आलम की सवारी ख़तरनाक पहाड़ी की ढलानों से उतर रही थी रात का गहरा अंधेरा था और इस अंधेरे में कुछ सहाबा अपने मकरूह चेहरों को नक़ाबों में छुपाए हुए हुज़ूरे अकरम को मौत के घाट उतारने के इरादे से घात लगाए खड़े थे एजाज़े ख़ुदावन्दी से अचानक बिजली चमकी और उसकी रौशनी इतनी देर तक क़ायम रही कि सरकारे दो आलम के नाक़े की मेहार थामे हुए हुज़ैफ़ा ए यमनी ने और नाक़े को हांकते हुए अम्मार ए यासिर ने इन सहाबा को अच्छी तरह पहचान लिया और उस के बाद सरकारे दोआलम ने भी हर सहाबी का नाम हुज़ैफ़ा को बताकर उन्हें राज़दारे गवाह बना दिया लेकिन उस के साथ ही आप ने हुज़ैफ़ा को इन नामों के इन्केशाफ़ से मना भी फ़रमा दिया ताकि इस्लाम में कोई फ़ितना पैदा न हो।

यह वह वाक़ेया है जिसके बाद हज़रते उमर हुज़ैफ़ा ए यमानी से बार बार पूछा करते थे के क्या इन साज़िशी मुनाफ़िक़ों में मेरा नाम भी शामिल है लेकिन हुज़ैफ़ा ताकीदे पैग़म्बर की वजह से हमेशा ख़ामोश रहते थे। आख़िरकार एक दिन ऐसा भी आया कि जब हज़रते उमर ने दिमाग़ी कचूकों और क़ल्बी टहूकों से मजबूर होकर ख़ुद अपने जुर्म का ऐतेराफ़ कर लिया और फ़रमाया –

या हुज़ैफ़ा बिल्लाह अना मेनल मुनाफ़ेक़ीन।

ऐ हुज़ैफ़ा ख़ुदा की क़सम मैं भी उन्हीं मुनाफ़ेक़ीन में से हूं।

अपनी रेहलत के आख़िरी अय्याम में पैग़म्बरे इस्लाम ने मिल्लते मुस्लेमा को दायमी इफ़्तेराक़ व इन्तेशार और अबदी फ़िरक़ा बन्दी से बचाने के लिए बड़े हाकीमाना अन्दाज़ से यहूदियों से जेहाद के लिए उसामा बिने ज़ैद की सरकरदिगी में एक लशकर तरतीब दिया और तमाम आयाने मदीना मुहाजेरीन व अंसार को जिन में हज़रत अबू बकर और हज़रत उमर वग़ैरह भी शामिल थे उस लशकर में जाने का हुक्म दिया लेकिन जब पैग़म्बरे अकरम के बार बार ताकीदी हुक्म के बावजूद यह लोग इस लशकर में शरीक नहीं हुए तो आपने उन सहाबा के ख़िलाफ़ लानत का हरबा इस्तेमाल करते हुए साफ़ लफ़ज़ों में फ़रमाया कि –

लअनल्लाहो मनतख़ल्लफ़ मिन हबीशुल असमा।

ख़ुदा लानत करे उन लोगों पर जिन्होंने लशकरे उसामा से रूगरदानी की। यह बात वाज़ेह रहे कि पैग़म्बर की लानत अबदी होती है।

10 हिजरी में हुज्जतुल वेदा की वापसी पर सूरा ए इन्शेराह की आयत सात और सूरा ए माएदा की आयत 67 के नूज़ूल के मुताबिक़ ख़ुदा के हुक्म पर पैग़म्बरे अकरम पर ग़दीरे ख़ुम के मक़ाम पर ज़ुलअशीरा में किये गये वादे के तहत अपने चचाज़ात भाई हज़रत अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) को अपना ख़लीफ़ा व जानशीन मुक़र्रर किया था लेकिन जब हुज़ूर ने दुनिया से रेहलत इख़्तियार की तो आपके जनाज़े को छोड़ कर जाने वाले उन्हीं साज़िशी सहाबा ने सक़ीफ़ा बनी सअदा में धींगा मुशती से हज़रते अबू बकर की ख़ेलाफ़त का ऐलान कर के हज़रत अली (अ.स.) से उनका हक़ छीन लिया। उसके बाद उनके लगे में रस्सी का फंदा डाल कर उन्हें ख़ींचते हुए दरबारे ख़िलाफ़त तक ले गये और उनके क़त्ल की धमकी दी। रसूल की बेटी के घर में आग लगा दी , उनके पहलू पर जलता हुआ दरवाज़ा गिराया जिस की वजह से मोहसिन नामी एक बच्चा शिकमे मादर में ही शहीद हो गया। हज़रत फ़ातमा को बाप के ग़म में रोने न दिया और जो जायदाद उन्हें उनके बाप ने दी थी उस पर ग़ासेबाना क़ब्ज़ा कर लिया।

अपनी हयाते ताहेरा की आख़िरी लम्हात सन् 11 ई 0 में सरकारे दो आलम ने उन्हीं सहाबा से फ़रमाया कि मुझे क़लम दवात और काग़ज़ दे दो ताकि मैं दस्तावेज़ी तौर पर ऊलुल अम्र के इश्काल को दूर कर दूं और तहरीरन यह बता दूं कि मेरे बाद उसके हक़दार कौन लोग होंगे लेकिन क़लम दवात और काग़ज़ मुहैया करने के बजाय इस मौक़े पर मौजूद तमाम सहाबा ख़ामोश रहे और हज़रत उमर की जसारत ने यह कह कर इस्लाम का सफ़ीना उसी मंज़िल में चकना चूर कर दिया कि इस मर्द को छोड़ दो यह हिज़यान बक रहा है।

जब मुसतनद तारीख़ों के आईने में इन साज़िशी सहाबा के किरदार की झलक पूरी तरह मौजूद है तो ज़ाहिर है कि इन सहाबा की मदह जब की जायेगी तो वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम के फ़िदायी हैं और उनका कलमा पढ़ते हैं और उनके अहलेबैत से मोहब्बतो अक़ीदत रखते हैं इस मदह को किसी भी क़ीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। ख़्वाह उनके हक़ में उस का अन्जाम कुछ भी हो।

यह एक वाज़ेह और खुली हुई अक़ीदत है कि अगर इत्तेहादी ताक़तों के सामने हिटलर की तारीफ़ की जायेगी और नाज़ी तहरीक़ को सराहा जायेगा तो यह फ़ेल इत्तेहादियों के लिए क़तई तौर पर दिलाज़ार होगा। अगर कोई शख़्स उन यहूदियों की मदह करे जिन्होंने ईसाईयों की मदह के मुताबिक़ हज़रते ईसा को सूली दी थी तो ईसाई फ़िर्कां इस मदह को हरगिज़ हरगिज़ बर्दाश्त नहीं करेगा। अगर कोई महात्मा गांधी के क़ातिल नाथूराम गोडसे की मदहो सना करेगा तो हिन्दुस्तानी उस पर लानत व मलामत ज़रूर करेंगे। अगर कोई रावण की शान में क़सीदा पढ़ेगा तो यक़ीनन राम के अक़ीदत मंद ख़ामोश नहीं रहेंगे। बस बिल्कुल यही सूरत मदहे सहाबा की भी है। जब भी इन मुनाफ़िक़ व साज़िशी सहाबा की मदह की जायेगी तो कोई भी हक़ परस्त व इन्साफ़ पसन्द ख़्वाह वह शिया हो या सुन्नी किसी भी कन्डीशन में इस मदह को बर्दाश्त नहीं करेगा और दोनों फ़िर्कों के दरमियान लड़ाई झगड़े की सूरत हमेशा पैदा होती रहती है।