हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

जुलूसे मदहे सहाबा पर इसरार क्यों ?

मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी का बयान –

आख़िर लखनऊ के कुछ सुन्नियों को मदहे सहाबा पर इसरार क्यों है ? इस ज़ैल में फ़िलहाल हम मौलवी अब्दुल शकूर के जानशीन वहाबियत के परचमबरदार और मदहे सहाबा के शैदायी मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी के उस बयान के ज़रूरी इख़्तेसाबात पर इकतेफ़ा करेंगे जो इन्टरव्यू की शक्ल में माहनामा बांगदरा के शुमारे माह जुलाई – अगस्त 1997 में शायां हुआ है।

सदाक़त व सच्चाई का यह मोजिज़ा है कि हक़ बात कभी कभी ग़ैरे इरादी तौर पर झूठों की ज़बान से निकल जाती है और इंसान ग़ैर दानिस्तां तौर पर वह सब कुछ उगल देता है जिसे वह दिल की गहराईयों में छुपाए रखना चहाता है। मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी ने अपने असलाफ़ की तरह जहां अहमक़ाना बकवास और बचकाना दरोग़गोई से काम लिया है वहां उनके बयान में उन्ही की ज़बान से मुतालेबा ए जुलूसे मदहे सहाबा की हक़ीक़त वाज़ेह हो गयी। चुनान्चे मौलाना मौसूफ़ अपने इन्टरवयू में फ़रमाते हैं –

मदहे सहाबा के सिलसिले में हमेशा यह बात पेशे नज़र रही है चूंकि शियों को यह हक़ है कि वह अपने इमामों और बुज़ुर्गों की तारीफ़ व तौसीफ़ बाहर निकल कर सड़क पर करते हैं , इसी अन्दाज़ की तारीफ़ का हक़ सुन्नियों को भी मिलना चाहिए। जहां तक मदहे सहाबा की बात है तो मदहे सहाबा क़ुरआन से साबित है , रह गया मामला जुलूस का तो फ़ोक़हा की सराहत है कि सहाबा ए कराम की मदह व सना शार ए आम पर उसी अन्दाज़ से करना चाहिए जिस अन्दाज़ से नउज़ो बिल्लाह से उनकी बुराई की जाती है। हम मदहे सहाबा को असल नहीं कहते बल्कि उसको सहाबा ए कराम की तारीफ़ व तौसीफ़ की इशाअत का ज़रिया समझते हैं। तमाम उलमा जानते हैं कि अगर किसी मुबाह चीज़ को कोई आदमी रोक दे तो फिर वही चीज़ ज़रूरी हो जाती है ऐसी सूरत में जबकि उस पर पाबन्दियां आयद हों तो फिर हमारा फ़र्ज़ है कि हम अपना शहरी हक़ इस्तेमाल करें और मदहे सहाबा का जूलूस निकालें अगर यह कहा जाये कि सड़क पर मदहे सहाबा नहीं हो सकती तो जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि फ़ोक़हा की सराहत है कि जब किसी जगह पर किसी चीज़ को रोका जाये तो उस जगह वाजिब भी हो जाती है लिहाजा ऐसी सूरत में हम को मदहे सहाबा पर इसरार है।

मौलाना मौसूफ़ के बयान का ख़ुसूसी मत्न मुंदरजा ज़ैल नुक़ात पर मब्नी है –

1. शियां चूंकि अपने इमामों और बुज़ुर्गों की तारीफ़ व तौसीफ़ बाहर निकल कर सड़क पर करते हैं इस लिए उसी अन्दाज़ की तारीफ़ का हक़ सुन्नियों को भी मिलना चाहिए।

2. मदहे सहाबा क़ुरआन से साबित है।

3. सहाबा ए कराम की मदह व सना शार ए आम पर उसी अन्दाज़ से करना चाहिए जिस अन्दाज़ से उनकी बुराई की जाती है।

4. जुलूसे मदहे सहाबा असल नहीं है।

5. फ़ोक़हा की सराहत है जब किसी जगह किसी चीज़ को रोका जाये तो उसी जगह पर वाजिब भी हो जाती है।

तन्क़ीद व तब्सेरा –

1.मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी के इस बयान से कि शिया चूंकि अपने इमामों और बुज़ुर्गों की तारीफ़ व तौसीफ़ बाहर निकल कर सड़कों पर करते हैं लिहाज़ा इसी अन्दाज़ की तारीफ़ का हक़ सुन्नियों को भी मिलना चाहिए। साफ़ तौर पर यह वाज़ेह है कि सुन्नियों की तारीफ़ से जुलूसे मदहे सहाबा का मुतालेबा अज़ादारी के रिवायती जुलूसों की ज़िद में है और हर साहेबे फ़ेहम इन्सान मौलाना मौसूफ़ के इस बयान से कि शिया ऐसा करते हैं तो सुन्नियों को भी ऐसा करने का हक़ मिलना चाहिए। यही मफ़हूम अख़ज़ करेगा कि जुलूसे मदहे सहाबा का मुतालेबा महज़ हासिदाना और शर पसन्दाना ज़िद का नतीजा है और यही वह सच्चाई है जिस की आड़ में मुख़ालेफ़ीन अज़ाए हुसैन (अ.स.) की तरफ़ से लखनऊ में शिया व सुन्नी फ़सादात की आग भड़काई जाती है और मुख़ालेफ़ीन ए अज़ा ए हुसैन (अ.स.) की तरफ़ से लखनऊ में शिया व सुन्नी फ़सादात की आग भड़काई जाती है और अज़ादारी के उन जुलूसों को रोकने की जद्दो जेहद की जाती है जो इज्तेमाई , रवायती , कस्टमरी है और जिन के अमीन सिर्फ़ शिया ही नहीं बल्कि हर मज़हबो मिल्लत के लोग हैं नीज़ यह जद्दो जेहद सिर्फ़ इस लिए है कि इन जुलूसों की बरामदगी से उन ज़ालिमों की नक़ाब कशाई होती है जो रसूले अकरम स 0 (अ.स.) की बेटी और दामाद और नवासों के मुसल्लेमुस सुबूत क़ातिल थे और जिन्हे मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी का मसलक ख़लीफ़तुल मुस्लेमीन तसलीम करता है।

मौलाना मौसूफ़ के इस बयान का यह पहलू इन्तेहाई अफ़सोसनांक और कर्ब आमेज़ है कि उन्होंने अपनी शातेराना दरोग़गोई को बरू ए कार लाते हुए ना जाने किस मसलहत की बिना पर जुलूस हाय अज़ा के दौरान नौहा व मातम के अमल को तारीफ़ व तौसीफ़ से ताबीर किया है जबकि वह ख़ुद भी जानते होंगे कि तारीफ़ व तौसीफ़ और नौहे व मातम में मानवी ऐतेबार से क्या फ़र्क़ है। नीज़ यह कि शिया अपने इमामों और बुज़ुर्गों की शान में उनकी विलादत के मौक़े पर बज़म ए मक़ासेदा के उनवान से तारीफ़ व तौसीफ़ की जिन महफ़िलो का इन्एक़ाद करते हैं वह शार ए आम पर या सड़कों पर नहीं होती बल्कि शियों के इमामबाड़ों , रौज़ों , मस्जिदों और घरों में होती हैं। अलबत्ता 1945 से पहले जशन ए फ़ातहे ख़ैबर के उनवान से क़सीदा ख़्वानी की एक महफ़िल अज़ीमुद्दौला पार्क में सय्यद ज़ामिन हुसैन साहब कम्पाउन्डर साकिन रईस मंज़िल , हुसैनाबाद के ज़ेरे एहतेमाम हुआ करती थी लेकिन उनके इन्तेक़ाल के बाद वह भी ख़त्म हो गयी। उसके बाद से अब तक शियों की तरफ़ से तारीफ़ व तौसीफ़ का कोई प्रोग्राम शार ए आम पर नहीं होता और न ही इस क़िस्म के प्रोग्राम के बारे में शियों का गर्वन्मेंट से कोई मुतालेबा है उनका हक़ बजानिब मुतालेबा सिर्फ़ जुलूस हाय अज़ा से मुताल्लिक़ है जो क़दीमी , रवायती और कस्टमरी है और जिन पर 20 बर्सों से ग़ैर क़ानूनी पाबन्दी नाफ़िस है।

हम मौलाना अब्दुल अलीम साहब के ममनून व मुताशक्किर हैं कि उनके इन्टरव्यू से यह हक़ीक़त उभर कर सामने आ गयी कि मुतालेबा ए जुलूसे मदहे सहाबा की तड़प सिर्फ़ और सिर्फ़ जुलूसे हाय अज़ा की ज़िद व मुक़ाबले में है वरना इस्लामी व शरई ऐतेबार से मदहे सहाबा के जुलूसों की कोई सदाक़त व असलियत नहीं है। जैसा कि मौलाना मौसूफ़ ने अपने बयान के फ़िक़रा नम्बर 4 में ख़ुद फ़रमाया है कि जुलूसे मदहे सहाबा असल नहीं है।

2. मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी ने बड़े वालेहाना अन्दाज़ में यह तो फ़रमाया है कि मदहे सहाबा क़ुरआन से साबित है लेकिन मौसूफ़ ने यह सराहत क्यों नहीं की कि वह और उनके हम मसलक अफ़राद मोमेनीन सहाबा की मदहो सना की ख़्वाहिश मन्द हैं या मुनाफ़ेक़ीन या मुशरेक़ीन की जबकि क़ुरआने करीम में रसूले अकरम के सहाबा को हतमी तौर पर दो हिस्सों में तक़सीम किया है। सहाबा का एक गरोह वह था जिसका ज़ाहिरो बातिन एक था जो दिलो जान से ईमान लाये ख़ुदा और रसूल की इताअत की और मोमिन कहलाए उनके बारे में क़ुरआन का इरशाद है कि –

इन्नललाहशतरा मेनल मोअमेनीना अन्फ़ोसाहुम व अमवालहुम बेअन्ना लहोमुल जन्नतो लक़ातेलूना फ़ी सबीलिल्लाहे फ़यक़तोलूना व यक़तोलून।

अल्लाह ने मोमेनीन से उनकी जानों और मालों को जन्नत के एवज़ ख़रीद लिया है। वह राहे ख़ुदा में क़ेताल करते हैं और क़त्ल कर दिये जाते हैं।

इन्नल्लाहा योहिब्बुल लज़ीना योक़ातेलूना फ़ी सबीलेही सअफ़्फ़न कअन्नहुम बुनयानुन मरसूस।

अल्लाह उन लोगों से यक़ीनन मोहब्बत रखता है जो सफ़ बांधकर ख़ुदा की राह में ऐसी साबित क़दमी से क़ेताल करते हैं गोया वह सीसा पिलाई हुई दीवारें –

व मेनन्न नासे मंय्यशरी नफ़सहू व तेग़ाआ मराज़ातिल्लाहे वल्लाहो रऊफ़ुम बिल एबाद।

लोगों में से वह भी हैं जो अल्लाह की रज़ा के लिए अपनी जान बेट देते हैं और अल्लाह ऐसे बन्दों पर मेहरबान है।

ग़रज़ कि सहाबा के उस गरोह की मदहा व सना क़ुरआन में जा बजा मौजूद है और अल्लाह ने अपनी इस मुक़द्दस किताब के आइने में इन ख़ुबसूरत ख़द्दो ख़ाल को उनके औसाफ़ व कमालात के साथ पेश किया है किसी की मजाल उनके दामने किरदार को दाग़दार बना सके या उनकी सीरत पर हमला आवर हो सके।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

अज़रूहे क़ुरआन दूसरा गरोह मुशरेक़ीन व मुनाफ़ेक़ीने सहाबा का है जो मुसलमान होने के बावजूद मुसलमान नहीं थे। उनकी मज़म्मत से क़ुरआने मजीद भरा पड़ा है और इस आसमानी किताब का शायद ही कोई हिस्सा ऐसा हो जिसमें उनकी मज़म्मत न की गयी हो और इन मुनाफ़ेक़ीन सहाबा में कुछ तो ऐसे ओछे और हलके पेट के थे कि बाज़ कि बाज़ औक़ाफ़ अपनी मुनाफ़ेक़त को छुपाने के लिए ऐसी हरकते कर बैठते थे कि जिन से उनकी मुनाफ़िक़त का भांडा फूट जाता था और मोमेनीन सहाबा समझ जाते थे कि यह मुनाफ़िक़ है। लेकिन कुछ मुनाफ़ेक़ीन ऐसे मोहतात और भारी पेट के थे जो किसी तरह अपनी मुनाफ़ेक़त की हवा भी किसी को न देते थे। यह लोग ऐसे छुपे रूस्तम थे कि मोमेनीन तो मोमेनीन अगर वही ए इलाही इनके बारे में निशानदेही न करती तो पैग़म्बरे इस्लाम की दूर रस और दूरबीन निगाहें भी इन से बेख़बर रह जाती। जैसा कि सूरा ए तौबा की आयत नम्बर 101 से वाज़ेह होता है।

उन सहाबा के बारे में क़ुरआने मजीद पुकार कर कह रहा हैः-

वमंय्योशाक़ेक़िरसूला मिम बअदे मातबय्येना लहुल होदा व यत बेअ ग़ैयरा सबीलिल मोअमोनीना नोवल्लीही मा तवल्ला व नोसल्लेही जहन्नम वस्साअत मसीरअ।

जो राहे रास्त इख़्तेयार करने के बाद रसूल से सरकशी करें और मोमेनीन के रास्ते से हटकर किसी और राह पर चले तो जिधर वह फिर गया है हम भी उसे उधर ही फेर देंगे और उसे जहन्नम में झोंक देंगे जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।

उन्हीं सहाबा के बारे में अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया है कि

उलाएका जज़ाओहुम इन्ना अलैहिम तआनतुल्लाहे वल्मलाएकते वन्नासे अजमाईन।

यह वह हैं जिन के कारनामों के नतीजों पर अल्लाह के फ़रिश्ते और तमाम लोग लानत करते हैं।

एक दूसरी आयतः-

इन्नल्लज़ीना यूज़ूनल्लाह व रसूलहू ला अनहोमुल्लाहो फ़िद्दुनया वलआख़ेरह वअद्दालहुम अज़ाबन मोहीना।

वह लोग जो अल्लाह और रसूल को ईज़ा पहुंचाते हैं यक़ीनन उनके लिए दुनिया और आख़ेरत दोनों जगह अल्लाह की लानत और ज़िल्लत वाला अज़ाब है।

उन्हीं सहाबा के बारे में डॉ 0 मोहम्मद अबू बकर ख़ान मलिहाबादी जो किसी ज़माने मे तहरीक़े मदहे सहाबा के रूहे रवां थे राहे रास्त पर आने के बाद अपने एक तहक़ीक़ी मक़ाले में लिखते हैं –

सादा लोह मुसलमान और चालाक मुनाफ़ेक़ीन मरे नहीं थे बल्कि मुनाफ़ेक़त की नक़ाब चेहरों पर डाल कर मुसलमानों में घुल मिल गये थे और उस दिन का इन्तिज़ार कर रहे थे कि पैग़म्बर की आख़ें बन्द हों और वह सल्तनते इस्लामिया पर क़ब्ज़ा कर के ख़ूब गुलछर्रे उड़ायें। मुनाफ़ेक़ीन के नुक़ताए नज़र से वफ़ाते रसूल का वक़्त ही उस के लिए ही नेहायत मुनासिब व मसउब था कि वह भोले भोले मुसलमानों की मदद से अपनी आरज़ुऐं बरू ए कार लायें और 23 साल तक जिस बात को दिल की गहराइयों और मुनाफ़ेक़त के परदों में छुपाए हुए थे ज़ाहिर कर के रहें। रसूल के इन्तेक़ाल के बाद ही जब कि अभी हुज़ूर ए अकरम की तजहीज़ व तक़फ़ीन भी नहीं हुई थी जनाज़े को छोड़ कर सहाबा का यह एख़तेदार पसन्द गिरोह सक़ीफ़ा बनी साएदा में जमा हो गया और बिल आख़िर हज़रत अबू बकर ख़लीफ़ा बन गये।

मुनाफ़ेक़ीन ए सहाबा की सराहत डॉ 0 मोहम्मद अबू बकर ख़ां मलिहाबादी के इस इक़तेबात से हो जाती है उसके आगे हमें कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है अक़लमंद के लिए इशारा काफ़ी है। क़ुरआन का इरशाद है कि हक़ीक़त की तह तक पहुंचने वालो को अल्लाह दोस्त रखता है और हक़ीक़त की तह तक किसी अक़लमंद आदमी को पहुंचाने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि अलिफ़ से वस्सलाम तक सारा रिकार्ड उसके सामने रख ही दिया जाये। अगर मौलाना अब्दुल अलीम साहब अब किसी भी तजब्जुब का शिकार हों तो मुनासिब होगा कि मुझ नाचीज़ की किताब अल ख़ोलफ़ा हिस्सा अव्वल व दोम का मुतालेआ फ़रमायें इन्शाअल्लाह उनके सहाबा ए कराम की सारी हक़ीक़त वाज़ेह हो जायेगी।

3. सहाबा कराम की मदहो सना आम तौर पर इसी अन्दाज़ से करना चाहिए जिस अन्दाज़ से उनकी बुराई की जाती है।

इस बुराई के ज़ैल में अगर मौलाना अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी का नैज़ा ए सुख़न शियों की तरफ़ है तो हम इनकी ख़िदमत में यह वाज़े कर देना चाहते हैं कि बदी या बुराई शियों के मसलक में एक नाजाएज़ मज़मूम फ़ेल है। अलबत्ता शिया उन सहाबा पर लानत ज़रूर करते हैं जो क़ुरआन और हदीस और तारीख़ की रौशनी में क़ाबिले लानत हैं। नीज़ जिन पर ख़ुदा और उसके रसूल ने भी लानत की है इसके अलावा शिया किसी सहाबी के बारे में कुछ नहीं कहते। अगर मौलाना मौसूफ़ के मसलक में बुराई के बदले मदह का यह उसूल जायज़ है तो क्या वह यह बता सकते हैं कि हज़रत अली अकरमुल्ला वजहू के बारे में इनका ख़्याल क्या है इनका शुमार सहाबा ए कराम में है या नहीं और अगर है तो इनकी मदहा व सना के बारे में आप क्या फ़रमायेंगे जबकि तारीख़ें गवाह हैं कि बुराई तो बुराई है लेकिन अहदे माविया में रसूल के उस इन्हे अम और अज़ीम तरीन सहाबी को उसके अज़ीज़ों के सामने ख़ुल कर गालियां दी जाती थीं जैसा कि मौलाना अबुल्आला मौदूदी ने अपनी किताब ख़िलाफ़त और मलूकियत में तहरीर फ़रमाया है कि –

एक और निहायत मकरूह बिदत हज़रत माविया के दौर में यह शुरू हुई कि वह खुद और उनके हुक्म से उनके तमाम गवर्नर ख़ुतबों में बरसरे मिम्बर हज़रत अली पर सब्र व शितम की बौछार कर करते थे हत्ता कि मस्जिदे नबवी में मिम्बरे रसूल पर ऐने रौज़ा ए नबवी के सामने हुज़ूर के महबूबतरीन को गालियां दी जाती थीं और हज़रत अली (अ.स.) की औलादें और इनके क़रीब तरीन रिश्तेदार अपने कानों से गालियां सुनते थे।

मौलाना अब्दुल अलीम साहब हमें यह बतायें कि हज़रत अली (अ.स.) की शान में की जानी वाली इस बुराई और उनकी मदहो सना किस अन्दाज़ में होना चाहिए। मौलाना क्या यह बात के ऐवज़ बता सकते हैं कि उनके ख़लीफ़तुल मुसलेमीन और ख़लीफ़तुल मुस्लेमीन के गवर्नरो का यह मज़मूम फ़ेल किस शरीयत और किस फ़िर्कें के तहत जाएज़ था। क्या यह बता सकते हैं कि मस्जिदे नबवी के अन्दर मिम्बरे रसूल पर और रौज़ा ए नबवी के सामने किसी को उसके अज़ीज़ों और रिश्तेदारों के सामने गालियां देना किस इस्लामी उसूल के तहत जाएज़ हो सकता है। क्या मौलाना मौसूफ़ यह बता सकते हैं कि जिस अन्दाज़ से हज़रत अली (अ.स.) को गालियां दी जाती थीं इसी अन्दाज़ से उनकी मदहा व सना सुन्नियों के यहां क्यों नहीं की जाती और उन्हें गालियां देने वालों को बुरा क्यों नहीं कहा जाता। आख़िर हज़रत अली (अ.स.) भी तो रसूल के सहाबी थे क्या इस मंज़िल में आप का यह उसूल ख़त्म हो जाता है कि सहाबा ए कराम की मदह व सना इसी अन्दाज़ से करना चाहिए जिस अन्दाज़ से इनकी बुराई की जाती है।

4. जुलूसे मदहे सहाबा अस्ल नहीं है – यह बात हम भी तसलीम करते हैं।

5. फ़ोक़हा की सराहत है कि जब किसी मोबाह चीज़ को किसी जगह रोकी जाये तो उसी जगह वह वाजिब भी हो जाती है।

अगर फ़ोक़हा की यह सराहत दुरूस्त है तो मौलाना अब्दुल अलीम साहब को चाहिए कि जिस तबर्रे को क़ुरआन ने भी मुबह क़रार दिया है और जो सुन्नते रसूल भी है उससे शियों को रोकने की कोशीश न करें वरना वही तबर्रा वाजिब हो कर मुख़ालेफ़ीन के लिए एक मुसीबत बन जाएगा।

मौलाना मौसूफ़ ने इन मज़कूरा ख़ुराफ़ाती बातों के अलावा अपने इन्टरव्यू के दौरान शियों और शियत पर पुराने तर्ज़ के जो हमले किये हैं इनके जवाबात शिया उलमा की तरफ़ से मुताद्दिद बार तहरीरी शक्ल में दिये जा चुके हैं और मुझ नाचीज़ की किताब अल ख़ोलफ़ा में भी यह जवाबात मौजूद हैं इत्मेनाने क़ल्ब के लिए मुलाहेज़ा फ़रमायी जा सकती है।

क़ज़ीया ए मदहे सहाबा का तीसरा दौर –

क़ज़ीया ए मदहे सहाबा का तीसरा दौर 1962 से शुरू होता है जब सैय्यद अली ज़हीर साहब मग़रिबी लखनऊ के हल्क़े इन्तेख़ाब से इसेम्बली के मेम्बर चुने गये और उन के मुख़ालिफ़ व शिकास्ताख़ुदी सियासी जमाअतों ने इस फ़ितने को नये ढ़ंग से फिर उभारा चुनान्चे इसी साल रबीउल अव्वल में पुल ग़ुलाम हुसैन की मस्जिद पर सहाबा के नाम तहरीर किये गये। दिल आज़ार और इश्तेआल अंगेज़ तक़रीरें हुईं। शियों को बुरा भला कहा गया और आइम्मा ए अतहार की शान में ग़ुस्ताख़ियां की गयीं। नेज़ लाउड स्पीकर पर जमकर मदहे सहाबा पढ़ी गयी जिसकी वजह से मग़रिबी लखनऊ में इन्तेशार फैल गया और शिया मुशतेअल हो गये मगर पुलिस की कसरत , चौकसी माक़ूल इन्तिज़ाम और एतेदाल पसन्द रहनुमाओं की बरवक़्त मदाख़ेलत ने शहर को एक हौलनाक फ़साद से बचा लिया।

1963 – इस साल हुक्कामे ज़िला ने बारावफ़ात के मौक़े पर एहतियातन दफ़ा 144 के तहत मीलादों वग़ैरा में लाउड स्पीकर के इस्तेमाल पर पाबन्दी आएद कर दी थी जिस पर सुन्नियों की तरफ़ से बरहमी का इज़हार करते हुए सख़्त एहतेजाज किया गया और सारा ग़म व ग़ुस्सा रसूले अकरम पर इस तरह उतारा गया कि इन की शान में 11 रबीउल अव्वल को मुनअक़िद होने वाले मीलादों को मुलतवी कर दिया। मगर इस के बावजूद कुछ शर पसन्द लोगों ने जबरदस्ती लाउड स्पीकर लगाकर मीलाद करने की कोशीश की जिस पर पुलिस ने लाठी चार्च किया और भगदड़ के नतीजे में मुताअद्दि अफ़राद ज़ख़्मी हुए।

1964 – इस साल कुछ कांग्रेसी रहनुमाओं के इशारे पर ज़िला हुक्काम ने लाउड स्पीकर के साथ साथ मदहे सहाबा व तबर्रा पर से भी पाबन्दी हठा ली थी जिस के नतीजे में वह पुर अमन माहौल जो 1940 से बरक़रार था वह दरहम बरहम हो गया और शंहशाह बिल्डिगं की महफ़िल से वापस आता हुआ एक शिया नौजवान बादशाह हुसैन पुल ग़ुल हुसैन की गली में क़त्ल किया गया और मुन्ज़म तरीक़े से कुछ देर शियों पर भी हमला किया गया जिस की वजह से इन्हें शदीद चोटें आयीं। हुक्काम ज़िला ने फिर मजबूर हो कर दफ़ा 144 लगा दी। तमाम मीलाद रोक दिये गये झगड़े का फिर से आग़ाज़ हो गया।

1965 – इस साल सुन्नियों की तरफ़ से एक नई जदीद जिद्दत की गयी कि बहुत ही ख़ुफ़िया और राज़दाराना तरीक़े से शहर के बाहर काले पहाड़ नामी एक मक़ाम पर मदहे सहाबा का जुलूस निकाला गया। शियों को जब इस की ख़बर हुई तो उन्होंने हुक्कामे ज़िला से इसके ख़िलाफ़ एहतेजाज किया।

1966 – इस साल बाराह वफ़ात के अवसर पर सुन्नियों की तरफ़ से काले पहाड़ों पर जुलूसे मदहे सहाबा निकालने की ज़बरदस्त तैयारी की गयी थी। शिया भी गुज़िश्ता साल के वाक़ए से चौकन्ना हो चुके थे चुनान्चे जब इन्हें जुलूसे मदहे सहाबा के बारे में यह ख़बर मालूम हुई तो उन्होंने भी एक अर्ज़दाश्त बारह वफ़ात के दिन शर्ग़ा पार्क से कर्बला ए दियानतुद्दौला तक एक जुलूस ए तबर्रा निकालने की ज़िला हुक्काम के रू ब रू पेश की मगर हुक्काम चूंकि सुन्नियों की हिमायत में थे इस लिए वह शियों को धोके में रखने के लिए यह यक़ीन दिलाने की कोशीश करते रहे कि मदहे सहाबा की इजाज़त नहीं दी जायेगी लेकिन जब बाराह वफ़ात के दिन पुलिस की टोलियों के साथ सुन्नियों को काले पहाड़ों की तरफ़ जाते देखा तो शिया भी कश्मीरी मोहल्ले के शर्ग़ा पार्क में जमा हो गये और जैसे ही इन्हें यह इत्तेला मिली कि मदहे सहाबा के जुलूस सुन्नियों की तरफ़ से उठ रहे हैं तो उन्होंने भी शर्गा पार्क से भी जुलूसे तबर्रा निकाला और दरगाह हज़रत अब्बास (अ.स.) होते हुए करबला दियानतउद्दौला तक ले गये। इस जुलूस की मज़ाहमत न सुन्नियों की तरफ़ से की गयी न पुलिस की तरफ़ से की गयी लेकिन जब मिलादों का सिलसिला शुरू हुआ तो शियों की दिल आज़ारी के लिए रात रात भर मदहे सहाबा पढ़ी जाने लगी। बिल आख़िर तन्ज़ीमे मिल्लत की जानिब से फिर तबर्रायी मीलादो का जवाबी सिलसिला शुरू किया गया और अलल ऐलान मदहे सहाबा के मुक़ाबले में तबर्रा के नारे बुलन्द होने लगे जिस पर सुन्नियों ने बौख़ला कर हुक्कामे ज़िला को अपने ऐतेमाद में ले लिया और शियों की यकतरफ़ा गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया। पुलिस और इन्तिज़ामियां के अफ़सरान और हुक्काम इस ख़ुश फ़हमी में थे कि गिरफ़्तारियों के ज़रिये शियत और अक़लियत को दबा दिया जाये मगर इन का यह ख़्याल महज़ ख़याले ख़ाम हुआ। गिरफ़्तारियां होती रहीं मुक़दमें क़ायम होते रहे और तबर्रायी मिलादों का यह सिलसिला जारी रहा।

सूरते हाल काफ़ी बिगड़ चुकि थी और मस्जिद तहसीन अली ख़ां चौक के नज़दीक तीन हज़ार सुन्नियों के महमे को तेरह तबर्राइयों ने हवास बाख़्ता कर दिया था और एक मिनारा मस्जिद का सारा प्रोग्राम दरहम बरहम हो गया था चुनान्चे इन तेरह तबर्राई शियों को पुलिस ने फ़ौरी गिरफ़्तार कर लिया और इन पर दफ़ा 153 के तहत मुक़दमा क़ायम कर दिया गया। ज्यूडेश्नल मजिस्ट्रेट के पी 0 अग्रवाल की अदालत में मुक़दमा चला सुन्नियों के मौलवी गवह बनकर आये एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया मगर फ़ाज़िल मजिस्ट्रेट ने तमाम मुल्ज़ेमान को बइज़्ज़त बरी कर दिया। जिन अफ़राद पर यह मुक़दमा क़ायम किया गया था उनके असमा ए गिरामी हस्बे ज़ैल हैं –

1. सैय्यद अशरफ़ हुसैन एडवोकेट

2. डॉ 0 हुज़ूर नवाब

3. क़ारी सैय्यद अली मियां ज़ैदी

4. सैय्यद अली रज़ा

5. ज़ाकिर हुसैन

6. अली ज़हीर , मैदान एल 0 एच 0 ख़ां

7. मोहम्मद अमीर

8. इम्तियाज़ हुसैन

9. मोहम्मद मियां

10. ख़ादिम अब्बास

11. क़ादिर मेहदी

12. एकराम हुसैन

13. बाबू साहब , तिरमिनी गंज।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

1967. यह साल आम इन्तेख़ाबात का साल था। लखनऊ में मग़रिबी हल्क़े से शाकिर अली सिद्दीक़ी व सतही हल्क़े से बाबू विरेन्द्र कुमार और मशरिक़ी हल्क़े से डॉ 0 से सिध्दू कांग्रेस के टिकट पर एसेम्बली के लिए इलेक्शन लड़ने के लिए मसरूफ़ थे। 1962 के आम इन्तेख़ाबात में मग़रिबी हल्क़े से सैय्यद अली ज़हीर और वस्ती हल्क़े से बाबू महावीर प्रसाद एडवोकेट कामयाब हो चुके थे लिहाज़ा यह लोग भी कांग्रेस ही के टिकट पर इलेक्शन के मैदान पर उतरने के ख़्वाहिशमंद थे। यह वह ज़माना था कि जब कांग्रेस पार्टी ख़ुद दो नुमायां हिस्सों में तक़सीम थी। एक हिस्से की क़यादत श्री चन्द्र भानु गुप्ता कर रहे थे और दूसरे हिस्से के सरबराह मिस्टर कमला पति त्रिपाठी थे। शाकिर अली सिद्दक़ी चन्द्र भानु गुप्ता वाली पार्टी में शामिल थे जो कमला पति त्रिपाठी की पार्टी से ज़्यादा ताक़तवर थी।

चुनान्चे इल दोनों पार्टियों के नये उम्मीदवारों ने सुन्नियों से वोट हासिल करने के लिए मदहे सहाबा का झगड़ा खड़ा कर दिया अन्जामकार शाकिर अली सिद्दीक़ी सुन्नियों की तरफ़ से खुल कर सामने आये और इनकी क़यादत में सुन्नियों की तरफ़ से इम मीलादों की आढ़ में मदहे सहाबा का सिलसिला जारी हुआ जिनका वुजूद पहले कभी न था। शियों ने इस सूरते हाल के बारे में ज़िला हुक्काम को बार बार मुतावज्जे किया मगर जब कोई तवज्जे नहीं की गई तो इदारा ए तन्ज़ीमे मिल्लत की तरफ़ से सदर कांग्रेस के कमला पति त्रिपाठी को एक अरज़दाश्त पेश की गयी जिनमें यह इस्तेदुआ की गयी कि शाकिर अली सिद्दीक़ी चूंकि एक तंग नज़र और मुतास्सिब इन्सान हैं लिहाज़ा इन्हें कांग्रेस का टिकट नहीं देना चाहिए। चुनान्चे इनके अर्ज़ेदाश्त के बिना पर इन्हें कांग्रेस पार्टी ने टिकट नहीं दिया और वह शियों पर इस क़दर बरहम हुए कि उन्होंने फ़ितना ए मदहे सहाबा में और भी शिद्दत पैदा कर दी। शिया पहले तो सब्रोतहम्मुल से काम लेते रहे लेकिन जब पानी सर से ऊचां होने लगा तो उन्होंने इन्तिज़ामिया के हुक्काम से फिर जुलूसे तबर्रा की मांग की। इस का नतीजा यह हुआ कि बारह वफ़ात के मौक़े पर दफ़ा 144 के तहत मदहे सहाबा और तबर्रा दोनों पर फिर पाबन्दी आयद कर दी गयी। मगर इस पाबन्दी में ख़ुदा जाने क्यों यह नुक़्स रह गया या रहने दिया गया कि इसमें शर ए आम पर मीलादों में मदहे सहाबा पढ़ने न पढ़ने के सिलसिले में कोई वज़ाहत नहीं थी। चुनान्चे सुन्नियों ने इस नुख़्स का फ़ायदा उठाया और बारह वफ़ात का दिन ग़ुज़रते ही रात से मीलादों और मदहे सहाबा का ज़ोरदार सिलसिला शुरू हो गया। यह सूरते हाल देख कर शियों ने फ़ौरी तौर पर ज़िला हुक्काम से राब्ता क़ायम किया और इन्हें मुतावज्जे किया लेकिन जब ज़िला इन्तेज़ामिया की तरफ़ से लाउड स्पीकर के इस्तेमाल पर पाबन्दी नाफ़िज़ करने के अलावा और कोई कार्यवाही अमल में नहीं लायी गयी तो मजबूर हो कर शियों की तरफ़ से जवाबी महफ़िलों का सिलसिला शुरू किया गया और चारों तरफ़ तबर्रा की आवाज़ें गूंजने लगी। आख़िरकार फ़रीक़ैन की गिरफ़्तारियां अमल में आयीं और मुक़दमों की भाग दौड़ और कश्माकश में यह साल तमाम हुआ।

1968. इस साल हालात कशीदा रहे। शिया और सुन्नी दोनों फ़िरक़ों पर ज़िला इन्तिज़ामियां की तरफ़ से दफ़ा 107 के तहत कार्यवाही की गयी और कुछ मुक़द्देमात ताज़ीराते हिन्द दफ़ा 188 के तहत सुन्नियों पर क़ायम किये गये।

1969. यह साल शियों के लिए इन्तेहायी करब व इज़तेराब और परेशानियों का साल था। इलेक्शन हो चुके थे यू 0 पी 0 में कांग्रेस पार्टी बरसरे इक़तेदार आ चुकी थी और मिस्टर चन्द्र भानु गुप्ता वज़ीरे आला बन चुके थे और सूरते हाल यह थी कि इलेक्शन में कांग्रेस का नुमायां साथ देने की वजह से सुन्नियों पर हुकूमत पर और हुकूमत का झुकाव सुन्नियों की तरफ़ था इस लिए शियों और सुन्नियों के दरमियान जो मुताबाज़अ हालात थे वह रोज़ ब रोज़ बिगड़ते जा रहे थे और सिन्नी फ़िरक़ा किसी क़ानून का पाबन्द नहीं रह गया था। हर शख़्स को एक मुन्ज़म फ़साद का यक़ीन था। चुनान्चे शियों लीडरों की तरफ़ से वज़ीरे आला को एक ख़त लिखा गया और इस में कहा गया कि हम आप से मिल कर शिया सुन्नी मसअले पर बात करना चाहते हैं। वज़ीरे आला की तरफ़ से जवाब आया कि वफ़्द में शामिल होने वालों के नामों और मुतालेबात की फ़ेहरिस्त भेजी जाये। शिया लीडरों ने वफ़्द में शामिल होने वालों के नामों और मुतालेबात की फ़ेहरिस्त भेज दी। उम्मीद थी कि वज़ीरे आला से मुलाक़ात और गुफ़्तुगू के बाद हालात सुधर जायेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ न वज़ीरे आला की तरफ़ से पलट कर कोई जवाब आया और न ही उन्होंने शिया वफ़्द से मुलाक़ात की कोई मन्ज़ूरी दी। इस तरज़े अमल से शिया लीडरान समझ गये कि हुकूमत की यह ख़ामोशी किसी बड़े साज़िशी तूफ़ान का पेशे ख़ेमा है चुनान्चे उन्होंने यह फ़ैसला किया कि मुतफ़्फ़ेक़ा तौर पर कोई लाहाये अमल मुरत्तब कर के शियों को आइन्दा पेश आने वाले ख़तरात के इमकानात से आगाह व बाख़बर कर दिया जाये और यह बता दिया जाये कि अब हमें क्या तरीक़ा ए कार इख़्तियार करना है। लेकिन क़ब्ल उसके कि कोई दिफ़ाई लाह ए अमल मुरत्तब किया जाता शिया लीडरों के दरमियान बाहमी इख़्तेलाफ़े राय की बिना पर जनाब सैय्यद अशरफ़ हुसैन साहब एडवोकेट ने बा हैसियते जनरल सेक्रेटरी इदारा ए तंज़ीमे मिल्लत अशरा ए मोहर्रम के दौरान पम्पफलेट की शक्ल में एक अपील छपवाकर सात और आठ मोहर्रम को मुनअक़िद होने वाली मजलिस में तक़सीम करायी। जिसका मक़सद एक ऐसी जमात की तशक़ील पर मब्नी था जो तमाम मसायबों आलाम बरदाश्त करते हुए मदहे सहाबा का जवाब सिर्फ़ तबर्रा से दे सकें। इस जमात के मेम्बरान की अलामत सब्ज़ टोपी मोअय्यन की गयी थी।

इस अपील का मन्ज़रे आम पर आना था कि चारों तरफ़ हलचल मच गयी। सियासते जदीद ने यह प्रोपेगेन्डा शुरू कर दिया कि सब्ज़ टोपियों पर तबर्रा लिखा है और यह तबर्रायी टोपी है सिन्नी फ़िरक़े के जो शर पसन्द अफ़राद अब पहले ही से बलवाओ फ़साद की तैयारी में मसरूफ़ थे वह भी इस टोपी के ख़िलाफ़ मैदाने अमल में उतर आये और मग़रिबी हल्क़े का माहौल इन्तेहाई गर्म हो गया।

ताबूत पर हमला 23 अप्रैल 1969 –

5 सफ़र 1386 हिजरी को आठ बजे शब में सुन्नियों की तरफ़ से एक ताबूत पर एक मुनज़्ज़म हमला किया जो दरगाह हज़रत अब्बास (अ.स.) से बरामद हो कर जुलूस की शक्ल में कज्जन साहब के मकान वाक़ा ए दरीवालों , रूस्तम नगर जा रहा था। चुनान्चे जैसे ही ताबूत अपने रवायती अन्दाज़ में घण्टा बेग की गढ़ैया के चौराहे पर पहुंचा सुन्नियों ने उस पर ज़बरदस्त पथराव किया। शिया इस बलाये नागहानी से मुक़ाबले के लिए क़तई तैयार नहीं थे ताहम ज़ख़्मी होने के बावजूद उन्होंने इस पथराव का जवाब पथराव से दिया और ताबूत की हिफ़ाज़त करते हुए उसे मंज़िले मक़सूद तक पहुंचा दिया और जब यह सब कुछ हो गया तो हुक्कामो अफ़सरान जाय वारदात पर पहुंचे। पुलिस भारी तादात में तैनात कर दी गयी लेकिन इस वाक़्ये ने शियों की आंखों से ग़फ़लत के पर्दे हटा दिये थे और उन की समझ में आ गया था कि आइन्दा बारह वफ़ात के मौक़े पर सख़्त ख़तरात का सामना है।

ज़िला हुक्काम का जांबेदाराना रवैया

इस अफ़सोसनांक वाक़्ये के रवैये के बाद ज़िला हुक्काम ने सुन्नियों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्यवाही नहीं की और न ही उनकी गिरफ़्तारियां अमल में लायी गयीं। बल्कि शियों के ख़िलाफ़ उल्टी कार्यवाही यह की गयी कि दफ़ा 144 आयद कर के शियों के ताबूतों , ताज़ियों और अलमों को उनके घरों और इमामबाड़ों में महसूर कर दिया गया और यह हुक्म जारी कर दिया कि बग़ैर इजाज़त कोई भी ताज़िया सड़क पर नहीं लगाया जा सकता। इस हुक्म के तहत ताज़ियों को दफ़्न करने में कुछ दुशवारियां और रूकावटें तो पैदा हुयीं लेकिन इसके साथ ही एक फ़ायदा यह भी हुआ कि शिया लीडरों के दरमियान जो इख़्तेलाफ़ात थे वह दूर हो गये और सब मिल कर अज़ादारी के ख़िलाफ़ रूनुमा होने वाले हर ख़तरे से मुक़ाबले के लिए तैयार हो गयें। एक शिया नौजवान पर क़ातिलाना हमला 23 मई 1969 की रात में तक़रीबन बारह बजे अन्जुमनें शमशीरे हैदरी के अहमद अब्बास नामी एक नौजवान पर जो नाज़िम साहब के इमामबाड़े की शब्बेदारी में शिरकत की ग़रज़ से जा रहा था पुल ग़ुलाम हुसैन के कुछ सुन्नियों ने क़ातिलाना हमला किया लेकिन वह बुरी तरह ज़ख़्मी हो जाने के बावजूद मोअज़्ज़िज़ाना तौर पर अपनी जान बचाने में कामयाब हो गया रात ही में थाना सआदतगंज में रिपोर्ट दर्ज करायी गयी और सुबह को ज़िला हुक्काम से राब्ता क़ायम किया गया लेकिन इन तमाम कार्यवाहियों के बावजूद पुलिस अफ़सरान और ज़िला हुक्काम ख़ामोश रहे।

26 मई का फ़साद –

26 मई 1969 को आठवीं रबीउलअव्वल थी चुप ताज़िये का जुलूस अपनी रवायती शानो शौकत के साथ विक्टोरिया स्ट्रीट चौक अकबरी गेट महमूद नगर और पुल ग़ुलाम हुसैन से गुज़र कर ग्यारह बजे दिन से रौज़ा ए काज़मैन पहुंच चुका था। शिया लीडरान और पुलिस व इन्तिज़ामिया के अफ़सरान और हुक्काम मुतमइन हो गये थे कि झगड़े फ़साद का ख़तरा टल चुका है लेकिन उन्हें यह ख़बर नहीं थी कि ख़ुफ़िया तौर पर सुन्नियों ने चुप ताज़िया गुज़र जाने के बाद ठीक बारह बजकर तीस मीनट पर मुनज़्ज़म फ़साद का मनसूबा तैयार कर रखा है। आठवीं रबीउलअव्वल की दोपहर को आम तौर पर शियों के घर मजलिस और मातमी दस्तों में मर्दों की शिरकत से ख़ाली होते हैं चुनान्चे मुक़र्रेरा वक़्त के मुताबिक़ बारह बजकर तीस मिनट पर महमूद नगर के वहाबी सुन्नियों ने एक मातमी दस्ते पर ज़बरदस्त पथराव किया और उसके साथ ही पूरे शहर में शियों पर मुनज़्ज़म हमले शुरू हो गये। गोलियां चलायीं गयीं दस्ती बमों छुरियों और चाक़ुओं का आज़ादाना इस्तेमाल किया गया। शियों के सैकड़ों मकानों और दुकानों में आग लगा दी गयी। काज़मैन से ले कर मौलवीगंज , मालवीगंज से गोलागंज और वज़ीरगंज तक वज़ीरगंज से हुसैनाबाद और मुफ़्तीगंज तक बयक वक़्त लूट मार और क़त्लोग़ारतगरी का बाज़ार गर्म कर दिया गया। इस मुनज़्ज़म फ़साद के लिए बाहर से गुंडे और बदमाश बुलाये गये थे जिस के नतीजे में पांच बेकुसूर शिया मोहम्मद यामीन ( 18), अफ़्रोज़ मिर्ज़ा ( 26), आफ़ाक़ हुसैन उर्फ़ कज्जन ( 35), सैय्यद मोहम्मद अब्बास ( 30), और हकीम मुर्तुज़ा ( 80) इन्तेहायी बेरहमी से शहीद कर दिये गये। हज़ारो तादाद में औरतें , बच्चे , बूढ़े , जवान ज़ख़्मी हुए बल्वाईयों ने इमामबाड़ा गुफ़रानमाब , इमामबाड़ा आग़ाबाक़र , इमामबाड़ा तहसीन अली ख़ान को नज़रे आतिश कर दिया। अलम , ताबूत , ज़री , मिम्बर और दिगर मुक़द्दस नवादेरात सब जल कर राख हो गये। महमूद नगर में वाक़ए मिर्ज़ा ज़ैना की मस्जिद को लूटा गया। इस में तोड़ फोड़ की गयी क़ुरआन के पारे फाड़े और जलाये गये नीज़ तस्बीहों सज्दागाहों और जानमाज़ों को पैरों तले रौंदा गया। चौक मण्डी के कुछ वहाबी और शर पसन्द कबढ़ियों ने मौलाना कल्बे आबिद साहब के मकान वाक़ये जौहरी मोहल्ला पर तीन बार हमला और पथराव कर के उसे लूटने की कोशिश की लेकिन हर बार उन्हें नाकामी का मुंह देखना पड़ा।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

सुन्नयों की तरफ़ से किये गये इस मुनज़्ज़म हमले के दौरान शियों को तीन तरह की ताक़तों का सामना था। अव्वल सुन्नयों को जो मुस्लेह भी थे और जिनके साथ बाहरी गुण्ड़ों और बदमाशों की तादात ज़्यादा थी और दूसरे मुस्लेह पुलिस से जो पूरी तरह सुन्नयों की तरफ़दारी और मदद कर रही थी और शियों पर डण्डे बरसा रही थी। इस लाठी चार्ज के दौरान मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब बुरी तरह ज़ख़्मी हुए और पुलिस ज़ख़्मी कर के गिरफ़्तार कर के उन्हें ले गयी और हवालात में बन्द कर दिया और हुक्कामे ज़िला ने उनकी गिरफ़्तारी को सीग़ा ए राज़ में रखा। आख़िर कार डॉ 0 पी 0 बी 0 कपूर की मुसलसल कोशिशों से शियों को मौलाना की गिरफ़्तारी का हाल मालूम हो सका। तीसरी ताक़त शियों के मुक़ाबले में जो सफ़आरा थीं और अरबाबे सियासत की थी जो मिस्टर चन्द्रभानु गुप्ता वज़ीरेआला से बराबर राब्ता क़ायम किये हुए थे और उन से मशविरा कर के ज़िला हुक्काम को क़दम क़दम पर हिदायतें दे रहे थे। इन तीनों ताक़तों से निपटने के अलावा शियों के लिए सब से ज़्यादा परेशानी और मजबूरी की बात यह थी कि उन्हें अपने अलमों और ताज़ियों की हिफ़ाज़त के साथ साथ ही उन बेशुमार औरतों और बच्चों की हिफ़ाज़त का ख़्याल भी था जो ज़्यारत के लिए जमा हुए थे और बलवाईयों के नरग़े में घिर गये थे। चुनान्चे शियों ने अपनी जानों पर खेल कर इस आतिशी और ख़ूनी माहौल में इस ज़िम्मेदारी को भी अन्जाम दिया और औरतों और बच्चों को उनके घरों तक पहुंचाया इस अफ़रा तफ़री और कशमाकश मे शाम हो चुकी थी चुनान्चे शियों ने सब्रो तहम्मुल से काम लेते हुए आठवीं की रात बड़े करबो इज़्तेराब में गुज़ारी और दूसरे दिन नवीं रबीउलअव्वल के दिन इन्तेक़ामी जज़बे के तहत सुन्नियों के साथ वही सुलूक किया जो उन्होंने शियों के साथ किया था इस जवाबी कार्यवाही की शिद्दत से हुक्कामे ज़िला भी बौखला उठे और उन्होंने ग़ैरेमुअय्येना मुद्दत का कर्फ़्यू नाफ़िस कर दिया।

नाना जी देश मुख का दौरा –

अख़बारों के ज़रिये जब इस फ़साद और शियों की तबाही और बरबादी का हाल नाना जी देश मुख को मालूम हुआ तो वह फ़ौरन लखनऊ आये और डॉ 0 पी 0 डी 0 कपूर के हमराह उन्होंने फ़साद ज़दा इलाक़ों का दौरा किया और फ़रीक़ैन के लीडरों से गुफ़्तुगू के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि सियासी साज़िश के तहत मन्सूबामन्द तरीक़े से फ़साद सुन्नियों ने किया है और मदहे सहाबा व तबर्रा के सिलसिले में शियों का मोअक़्क़िफ़ व मुतालेबा जायज़ है। नाना जी देश मुख ने डॉ 0 कपूर प्रताप नारायन और दीगर जनसंगी लीडरों के साथ जेल का भी दौरा किया और वहां भी शियों से बातचीत कर के फ़साद के बारे में ज़रूरी मालूमात फ़राहम की। उसके बाद उन्होंने अपने एक अख़बारी बयान में गुप्ता सरकार से मुतालेबा किया कि मदहे सहाबा और तबर्रा पर पाबन्दी लगा कर शार ए आम पर इसका पढ़ना मम्नूं क़रार दिया जाये और चूंकि यह फ़साद सुन्नियों की मुनज़्ज़म साज़िश का खुला हुआ नतीजा है लिहाज़ा हाई कोर्ट के किसी जज के ज़रिये इसकी तहक़ीक़ात ज़रूरी है।

बारह वफ़ात –

30 मई 1969 का दिन बारह वफ़ात का दिन था सुन्नी लीडरों की दर्ख़ास्त और वज़ीरे आला के हुक्म से सुबह सात बजे से शाम के 6 बजे तक कर्फ़्य् हटा लिया गया था। लेकिन दफ़ा 144 का नेफ़ाज़ बदस्तूर बरक़रार था और इन हंगामी हालात के बावजूद सुन्नियों के काले पहाड़ों पर जुलूसे मदहे सहाबा की इजाज़त हुक्कामे ज़िला ने किसी सियासी दबाव के तहत दे दी थी। शियों को जब इस इजाज़त का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने भी हुकूमत व इन्तिज़ामियां के इस यकतरफ़ा रवैये पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए जुलूस ए तबर्रा के बारे में एक दरख़ास्त ज़िला मजिस्ट्रेट को दी जिस में यह इस्तेदवा थी कि शियों को भी कश्मीरी मोहल्ले से शहदरे की मस्जिद तक जुलूसे तबर्रा की इजाज़त दी जाये लेकिन सुन्नियों के साथ इम्तियाज़ी बरताब की बिना पर शियों की यह दर्ख़ास्त ख़ारिज कर दी गयी। चुनान्चे यह तय किया गया कि ज़िला हुक्काम की मोमानेअत के बावजूद जुलूसे तबर्रा निकाला जाये और दफ़ा 144 तोड़ कर गिरफ़्तारियां दी जायें।

ग़रज़ के तय शुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ दफ़ा 144 की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते हुए पांच अफ़राद पर मुशतमिल मुजाहेदीन की एक जमाअत ने जुलूस ए मदहे सहाबा के मुक़ाबले में कश्मीरी मोहल्ले से जुलूसे तबर्रा निकाला और पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर के दफ़ा 153 – ए और दफ़ा 118 के तहत मुक़दमा क़ायम किया और जेल भेज दिया। जिन मोमेनीन की गिरफ़्तारियां अमल में आयीं उनके नाम हस्बे ज़ैल हैं –

1. मुजाहिदे मिल्लत सैय्यद अशरफ़ हुसैन एडवोकेट ,

2. सैय्यद काज़िम हुसैन , साकिन तालकटोरा ,

3. क़ासिम रज़ा साकिन बन्जारी टोला ,

4. मोहम्मद अमीन साकिन मैदान एल 0 एच 0 ख़ान और

5.इम्तियाज़ हुसैन साकिन रूस्तम नगर।

21 अगस्त का दूसरा फ़साद –

21 अगस्त 1969 को जमादुल आख़िर की नौचन्दी जुमेरात थी और शियों की तरफ़ से यह बात तय हो गयी थी कि इस नौचन्दी के मौक़े पर अलमों के जुलूस बरामद होते हुए उन्हें रोका नहीं जायेगा लेकिन हुक्कामे ज़िला ने रातोरात शिया लीडरान को इस बात पर राज़ी कर लिया कि जुलूस मुलतवी तक दिये जायें चुनान्चे जुलूस का इल्तेवा में आ गया और शिया लीडरान की तरफ़ से मोमेनीन को इल्तेवा की कोई इत्तेला नहीं दी गयी नतीजा यह हुआ कि बेख़बरी में शिया आवाम मौलवीगंज में वाक़्ये मस्जिदे नासिरी में इकट्ठा होने लगे जहां से अलम उठने वाला था। दूसरी तरफ़ से कसीर तादात में मुस्लेह सुन्नी पहले से ही हमला करने के इरादे से एक घर में जमा हो गये थे। चुनान्चे जैसे ही अलम बरामद हो कर मस्जिद के बाहर आया और या हुसैन की सदायें सुन्नियों के कानों में पहुंची उन्होंने इस जुलूस पर हमला कर दिया। इस अचानक और ग़ैर मुतावक़्क़े हमले के दौरान कई शिया बुरी तरह से ज़ख़्मी हुए और दो अफ़राद हकीम सैय्यद मुरतुर्ज़ा हुसैन और सैय्यद मोहम्मद अब्बास साकिनाने गोलागंज ज़ख़्मों की ताब न लाकर चल बसे। यह वाक़ेया पुलिस की लापरवाही और बद इन्तिज़ामी और शिया लीडरान की ग़फ़लत के नतीजे में रूहनुमां हुआ।

इस वाक़्ये के ज़ैल में 22 अगस्त 1969 की सुबह को गिरफ़्तारियां हुईं जिस में सुन्नियों में हाजी ग़ुलाम ज़ैनुलआबेदीन , नज़र अहमद एडवोकेट और सग़ीर अहमद एडवोकेट के साथ तक़रीबन दो दर्जन अफ़राद को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया और शियों में सिर्फ़ सैय्यद अशरफ़ हुसैन एडवोकेट की गिरफ़्तारी अमल में लायी गयी क्योंकि मौसूफ़ ने यह ऐलान कर दिया था कि हकीम मुर्तुज़ा हुसैन और मैय्यद मोहम्मद अब्बास के ख़ून का बदला सुन्नियों के ख़ून से चुकाया जायेगा।

मौलाना सैय्यद मुज़फ़्फ़र हुसैन , ताहिर जरवली और मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ की गिरफ़्तारियां –

8 सितम्बर , 1969 को जब कि शहर के हालात क़द्रे पुरसुकून हो चले थे मुम्ताज़ कांग्रेसी और वहाबी मसलक के अलमबरदार मौलवी असद मदनी साहब लखनऊ तशरीफ़ लाये उन्होंने वज़ीरेआला मिस्टर चन्द्रभानु गुप्ता से मुलाक़ात की और इस बात की शिकायत की कि 21 अगस्त के फ़साद के सिलसिले में सुन्नियों के तीन लीडरों को हिरासत में ले लिया गया है लेकिन शियों के सिर्फ़ एक लीडर को गिरफ़्तार किया गया है पुलिस का यह दरीक़ा ए कार दुरूस्त नहीं है आप एस 0 एस 0 पी 0 को यह हिदायत दें कि वह कम से कम दो शिया लीडरों को और गिरफ़्तार करें चुनान्चे फ़ौरी तौर पर अहकाम जारी किये गये और अहकाम के नतीजे में क़ानून के तहत मौलाना सैय्यद मुज़फ़्फ़र हुसैन , ताहिर जरवली और मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब जेल भेज दिये गये।

सह रोज़ा एजीटेशन –

18 दिसम्बर 1969 को माहे रजब की नौचन्दी थी शियों ने सिविल नाफ़रमानी का फ़ैसला कर लिया था और हुक्काम उन्हें चक्कर में डालना चाहते थे लेकिन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के इशारों पर नाचने वाले शियों लीडरों की एक न चली क्योंकि आवाम का पैमाना सब्र व तहम्मुल से लबरेज़ हो चुका था चुनान्चे आसफ़ी इमामबाड़े में मोमेनीन का बहुत बड़ा इज्तेमा हुआ जिसमें वलवला अंगेज़ तक़रीरें हुईं। मुझ नाचीज़ ने भी उस वक़्त के हालात पर एक नज़्म पढ़ी और आख़िरकार शियों की तरफ़ से एहतेजाजी गिरफ़्तारियां पेश करने का सिलसिला जारी रहा। जो तीन दिन तक मुतावातिर चलता रहा। इस एजीटेशन की ख़ामोश क़यादत निगरानी के साथ मौलाना सैय्यद कल्बे आबिद साहब क़िब्ला , मौलाना सैय्यद अली नासिर सईद आबाक़ाती (आग़ा रूही) , नवाब साजिद अली ख़ां , और डॉ 0 हुज़ूर नवाब वग़ैरा अपने कुछ मुख़लिसतरीन साथियों के साथ कर रहे थे।

इस सह रोज़ा एजीटेशन में पांच हज़ार बहत्तर शिया ख़ुद को गिरफ़्तार करा के जहां गुप्ता हुकूमत के मुंह पर भरपूर तमाचा मारा था वहां सुन्नियों की हिम्मतों को पस्त करते हुए ज़िला हुक्काम पर भी यह साबित कर दिया था कि आप के ख़रीदे हुए शिया लीडर कुछ और हैं और शिया अवाम का जज़्बा ए ईमानी कुछ और है। इस से क़ब्ल जबकि सिविल नाफ़रमानी तहरीर का तज़किरा किया जाता था और 1939 के तबर्रा एजीटेशन की याद दिलायी जाती थी तो कुछ अहले राय शिया हज़रात को भी बुख़ार चढ़ने लगता था और वह मसलहत व नासाज़िये हालात दरिया में ग़ोते लगाने लगते थे। ऐसा क्यों था ? इस लिए कि वह फ़ितरतन सरकारी पिट्ठू थे और अपनी पस्त हिम्मती व बेअमली के आइने में पूरी क़ौम को देखना चाहते थे जो ग़लत था , चूंकि अहले राय अपनी जगह अहले राय हैं और अहले ईमान अहले ईमान हैं। चुनान्चे जब ईमान की कसौटी का वक़्त आया तो अहले राय गोशा ए आफ़ियत में नज़र आय और अहले ईमान मैदाने अमल में दिखायी दिये और इसके साथ ही दुनिया ने यह भी देख लिया कि हुसैनियत पर जब भी वक़्त पड़ेगा अहले ईमान इसी तरह डट कर मुक़ाबला करेंगे जिस तरह उनके अस्लाफ़ करते थे।

शिया अवाम को यह बात याद रखनी चाहिए कि कोई क़ौम अपने मुतालिबात को उस वक़्त तक नहीं मनवा सकती जब तक वह ज़माने के लिहाज़ से क़ुरबानियां न पेश करें। अगर शिया एक बार इज़्ज़त व बावेक़ार क़ौम की तरह ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते है और अपना शुमार ज़िन्दा क़ौमो में कराना चाहते हैं तो उन्हें अपने जाएज़ मुतालिबात के ज़ैल में हर वक़्त क़ुरबानियों के लिए तैयार रहना चाहिए ख़्वाह वह हिन्दुस्तान के किसी हिस्से में क्यों न हों। यह परेशानियां लखनऊ ही के शियों तक महदूद नहीं हैं। वहाबियो की बढ़ती हुई शूरिश के तहत आज नहीं तो कल शियों के ख़िलाफ़ इस क़िस्म के मसाएल पैदा किये जायेंगे और शियों को अपनी क़ुरबानियों को और जज़्बा ए ईसार को बरू ए कार लाकर इन मसाएलों का सामना करना होगा।

शिया अख़बारों की ख़िदमात –

26 मई 1969 के भयानक फ़साद के बाद शिया अख़बारों ने भी मुजाहिदाना तरज़ व अमल इख़्तियार कर के सुन्नी अख़बारों की बदतमीज़ी का भी मुंह तोड़ जवाब दिया उनकी यह जद्दो जेहद यक़ीनन हुसैनी तहरीक़ के एक जुज़ की हैसियत रखती है। जिन अख़बारों ने इस मुजाहिदा में हिस्सा लिया उनमें इन्क़ेलाबी अज़्म , इत्तेहादे हिन्द , नौजवान , मुजाहेदा और एलाने हक़ के नाम सरे फ़ेहरिस्त हैं। चुनान्चे इन अख़बारों को एडीटरों पब्लिशरों , और प्रिंटरों में जनाब अली मिर्ज़ा इन्क़ेलाबी , क़ारी अली मियां ज़ैदी व रियाज़ हैदरी , आकाश भारती व जाफ़र हुसैन बरलासी , मौलाना मोहसिन साहब और नवेज़ साहब एडीटर एलाने हक़ की गिरफ़्तारियां भी अमल में आयीं और उन पर दफ़ा 153 ए के तहत मुक़दमा क़ायम किया गया लेकिन यह लोग अदालत से बरी हो गये।