हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

सुलह की कोशिश –

26 मई 1969 के फ़साद के बाद सुलह की तीन बार कोशिश की गयी पहली बार करनल बशीर ज़ैदी , मजलिस मुशावेरत के मौलाना अतीक़ुर्रहमान और जमाअते इस्लामी के मौलाना यूसुफ़ साहब देहली से तशरीफ़ लाये और इन लोगों ने शिया व सुन्नी लीडरों से तबादला ए ख़्याल किया। लेकिन कोई हल न निकल सका इस लिए वापस चले गये दूसरी बार यही हज़रात लखनऊ तशरीफ़ लाये और मसला तय होते होते रह गया। तीसरी और आख़िरी कोशिश उस वक़्त के वज़ीरे आला मिस्टर चन्द्र भान गुप्ता ने की जो बज़ाहिर कामयाब हुए और एक समझोते पर फ़रीक़ैन ने दस्तख़त की जिसे आम इस्तेलाह में 1969 का मुहायदा कहा जाता है और इस पर फ़रीक़ैन के नुमाइन्दों ने 24 सितम्बर 1969 की रात को तक़रीबन दो बजे गवर्नमेंट गेस्ट हाउस में दस्तख़त किये और 26 सितम्बर 1969 को सरकारी मुहकम ए दाख़िला की तरफ़ से एक प्रेस नोट जारी किया गया जिसमें सुलह के शरायत बयान किये गये थे और कहा गया था –

यह समझौता गेस्ट हाउस में वज़ीरे आला श्री सी 0 बी 0 गुप्ता की तरफ़ से शिया व सुन्नी नज़रबन्दों और शिया व सुन्नी नुमाइन्दों को दिये गये एक डिनर के मौक़े पर तवील तबादला ए ख़्याल के बाद हुआ। इस मौक़े पर नज़म व नुस्क़ और मुहकम ए दाख़िला के आला अफ़सरान के अलावा वज़ीरे लोकल सेल्फ़ गवर्नमेंट मिस्टर अतीक़ुर्रहमान भी मौजूद थे। वज़ीरे आला श्री गुप्ता ने शिया व सुन्नी लीडरों को बराहे रास्त डिस्ट्रिक्ट जेल में डिनर का दावत नामा भेजा था। यह नज़र बन्द जो साढ़े नौ बजे रात को पुलिस गाड़ियों पर जेल से गेस्ट हाउस आये थे। समझोता होने के बाद सीधे अपने घरों को गये।

1969 का मुहायदा –

यह मुहायदा अंग्रेज़ी ज़बान में टाइप किया गया था। जिसका उर्दू तरजुमा हस्बे ज़ैल है –

1. शिया अपने जुलूस व अलम भी निकालेंगे और मामूल के मुताबिक़ अपने मीलाद भी करेंगे लेकिन वह शार ए आम पर किसी अन्दाज़ में भी तबर्रा नहीं पढ़ेंगे। इन मीलादों में शिया पैग़म्बर स 0 (अ.स.) और अपने इमामों वग़ैरह की मदह व सना ऐसे अन्दाज़ में करेंगे कि इससे सुन्नियों के एहसासात व जज़्बात को ठेस न पहुंचे।

2. सुन्नी अपने मीलाद अपने उसी अन्दाज़ में करेंगे जिस तरह वह करते आए हैं। जिन में वह हज़रत पैग़म्बर और उन के सहाबा की ज़िन्दगी तालीमात और कारनामे उसी अन्दाज़ में बयान करेंगे जैसे कि वह अभी तक बयान करते रहे हैं। ऐसे मीलादों में हज़रत पैग़म्बर और उनके सहाबा की मदह व सना ऐसे अन्दाज़ में की जायेगी कि उससे शियों के मज़हबी ऐसास व जज़बात को ठेस न पहुंचे।

3. अलमों मीलादों मजलिसों और जुलूसों के सिलसिले में कोई नई बात नहीं की जायेगी जिन मीलादों अलमों मजलिसों और जुलूसों का इन्देराज त्योहारों के रजिस्टरों में हैं इनका तसलीम करना दोनों फ़िरक़ों के लिए लाज़मी होगा। कोई फ़रीक़ किसी जवाबी मीलाद या तक़रीब का इनेक़ाद नहीं करेगा और दोनों फ़रीक़ हर ऐसी कार्यवाही से इज्तेनाब करेंगे जिसका मक़सद दूसरे के मज़हबी एहसासात और जज़बात को ठेंस पहुंचाना हो।

एलानिया में कहा गया है कि दोनों फ़िर्क़ों के दरमियान जो समझौता हो गया है उसके पेशे नज़र हुकूमत ने उन सात अफ़राद को जो शिया सुन्नी तनाज़े के सिलसिले मे तदार की नज़रबन्दी क़ानून के तहत बन्द रहे रिहा कर दिया है। नज़र बन्द लीडरों के नाम यह हैं – 1. क़ारी मोहम्मद सिद्दीक़ , 2. नज़ीर अहमद एडवोकेट , 3. हाजी ग़ुलाम ज़ैनुलआबेदीन , 4. मिस्टर सग़ीर हुसैन (सुन्नी) , 5. मौलाना सैय्यद मुज़फ़्फ़र हुसैन ताहिर जरवली , 6. मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ और 7. सैय्यद अशरफ़ हुसैन एडवोकेट

इस मुहायदे पर मज़कूरा नज़रबन्द सातों अशख़ास के अलावा मौलाना सआदत हुसैन , मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद आलिम , मौलाना सैय्यद अली नासिर सईद आबाक़ाती (आग़ा रूही) , हाजी वसी अहमद एहरारवी और हाजी अमीर सलोनवी के भी दस्तख़त हैं।

मुहायदे की क़ानूनी हैसियत –

इस मुहायदे की कोई क़ानूनी हैसियत नहीं है इस लिए कि –

1. फ़रीक़ैन (शिया , सुन्नी) की तरफ़ से जिन लीडरों ने जिस वक़्त इस मुहायदे (समझौते) पर दस्तख़त किये थे उस वक़्त इन लीडरों के पास इनकी क़ौम की तरफ़ से कोई मुख़तार नामा या ख़ुसूसी इजाज़त नामा नहीं था और न ही यह लीडरान दस्तूरे हिन्द की मौजूदा जमूरी व इन्तेख़ाबी आइने के तहत दोनों क़ौमों के चुने हुए नुमाइन्दे थे। वह इस अम्र के मजाज़ होते कि पूरी क़ौम की तरफ़ से किसी समझोते या मुहायदे पर दस्तख़त की ज़िम्मेदारी को सर अन्जाम देते। क़ानून की नज़र में ख़ुद साख़्ता नुमाइंदगी कोई माने नहीं रखती।

2. सरकार की तरफ़ से जो एलानिया शायां किया गया है उस में इस मुहायदे की मन्ज़ूरी का कोई एलान नहीं है यानि सरकार ने यह नहीं कहा कि वह इस मुहायदे को मन्ज़ूर करती है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

3. सब से बड़ी ख़ामी इम मुहायदे में यह है कि सरकारी मुशाहेदीन की कोई ऐसी जमाअत नहीं बनायी गयी जो दोनों फ़िरक़ों की मज़हबी तक़रीबात में यह देखती कि कौन फ़िरक़ा किस फ़िरक़े की दिल आज़ारी कर रहा है या कौन फ़िरक़ा कोई नई जिद्दत कर रहा है। अगर सरकार की तरफ़ से ग़ैर जानिबदार मुशाहेदीन मुक़र्रर किये जाते और मौक़े पर उन्हें फ़ैसला करने और उसे फ़ौरी तौर पर ज़िला हुक्काम के ज़रिये नाफ़िस करने का हत्मी इख़तेयार दे दिया जाता तो यह बात अमनो आमान के मुस्तक़बिल के लिए कारगर साबित हो सकती थी।

क्या खोया क्या पाया –

इस मुहायदे के ज़ैल में शिया- सुन्नी दोनों फ़िरक़ों ने कामयाबी और नाकामयाबी के तअस्सुरात का इज़हार किया और काफ़ी दिनों तक इस पर तनक़ीदों तब्सेरा होता रहा लेकिन दरहक़ीक़त देखना यह चाहिए कि इस मुहायदे के बाद दोनों फ़िरक़ों ने क्या खोया और क्या पाया –

1. शियों ने अपना बुनियादी और मज़हबी हक़ क़रार दे कर शार ए आम पर तबर्रा पढ़ने का मुतालबा सरकार से भी नहीं किया अलबत्ता इसका मुतालबा उस वक़्त किया जब सुन्नियों की तरफ़ से जुलूसों और मीलादों में शियों की दिलाज़ारी के लिए दानिस्ता तौर पर मदहे सहाबा पढ़ी जाने लगी चुनान्चे शार ए आम पर तबर्रा न पढ़ने का मुहायदा कर के शियों ने कोई नई चीज़ नहीं खोयी और न सुन्नियों को इस एलान से कुछ हासिल हुआ।

2. जब तक मस्जिदों और इमामबाड़ों , घरों और दीगर प्राइवेट जगहों पर तबर्रा पढ़ने का सवाल है तो यह शिया उसी तरह आज़ाद हैं जिस तरह वह इस मुहायदे के पहले थे क्योंकि मुहायदे सिर्फ़ शार ए आम तक महदूद है और मस्जिदों और इमामबाड़ों या घरों वग़ैरह में तबर्रा पढ़ने या न पढ़ने में कोई वज़ाहत नहीं है।

3. मुहायदे की शर्तें मुअय्यन करते वक़्त सुन्नी लीडरों ने अपने जुलूस में मदहे सहाबा पढ़ने का कोई मुतालेबा नहीं किया और न ही उन सहाबा के नामों की कोई वज़ाहत की जिनकी शान में वह मदहे करना चाहते हैं। इसके सरीही मानें यह हैं कि वह अपने इस मुतालबे से दस्तबरदार हो गये और मुस्तक़बिल में उन्हें जुलूसे मदहे सहाबा के मुतालबे का हक़ नहीं रहा।

4. वहाबी सुन्नियों की तरफ़ से मदहे सहाबा की आढ़ में अहलेबैते रसूल स 0 (अ.स.) की शान में जो बत्तमीज़ियां और ग़ुस्ताख़ियां की जाती थीं वह इस मुहायदे की रूह से मुमकिन नहीं है।

5. मुहायदे की दफ़ा 10 इमामों के बाद वग़ैरह का लफ़्ज़ शियों के लिए यह गुन्जाइश पैदा करता है कि वह भी सहाबा व ताबेईन की मदहे कर सकते हैं।

6. इस मुहायदे में यह तज़किरा नहीं है कि शिया तहरीरी या तक़रीरी तौर पर ख़ोलफ़ाये सलासा की सीरत को तारीख़ की रोशनी में बयान नहीं कर सकते हैं।

1974 का फ़साद और मुहायदे की तजदीद –

शियों ने 1969 के मुहायदे पर पूरी तरह अमल किया और वह ज़िला हुक्काम के साथ वक़्तन फ़ौक़्तन ताव्वुन भी करते रहे लेकिन सुन्नियों की तरफ़ से इस मुहायदे की ख़िलाफ़ वर्ज़ियां बराबर होती रहीं , यहां तक कि उन्होंने मुताअद्दिद बार शहर में फ़ितना व फ़ासद बरपा करने की कोशीश भी की लेकिन ज़िला इन्तिज़ामियां की चौकसी की बिना पर नाकाम रहे। लेकिन इन नाकामियों के दौरान कुछ शर पसन्द लोग 1970 में एक शिया नौजवान लाडले मिर्ज़ा साकिन भदेवां में क़ातिलाना हमला कर के उसे मौत के घाट उतारने में कामयाब भी हुए।

पांच बरस की ख़ामोशी के बाद 16 मार्च 1974 चेहलुम के दिन फिर लखनऊ में उस वक़्त लूट मार और आतिशज़नी का बाज़ार गररम हो गया जब पाटानाला के सुन्नियों ने एक पुरअमन मातमी जुलूस पर जारहाना हमला कर दिया और इस में दो दर्जन शिया बहुत बुरी तरह ज़ख़्मी हो गये। उस वक़्त की बहुगुढ़ां सरकार ने हमलावरों पर क़ाबू तो पा लिया लेकिन हालात की कशीदगी छुटपुट वारदातों और ख़ौफ़ो वहशत का सिलसिला छह माह तक जारी रहा और शियों के जुलूस मुलतवी रहे यहां तक कि मिस्टर हेमवती नन्दन बहुगुड़ा ने वज़ीरे आला की हैसियत से दोनों फ़िरक़ों के लीडरों को तलब किया और अमन की बहाली के लिए उन से गुफ़्तगू की चुनान्चे उस गुफ़्तगू के ज़ैल में एक दूसरा मुहायदा अमल में आया जिसका उर्दू तरजुमा मुन्दरजा ज़ैल है –

1. शिया और सुन्नी 1969 में किये गये मुहायदे पर अमल करेंगे लेकिन शियों को अपने इन मज़हबी जुलूसों पर कुछ पाबन्दी आयद करना होगी जो पाटानाला और पुल ग़ुलाम हुसैन से हो कर गुज़रते हैं।

2. जुलूस में जाने वालों की तादात और जुलूस का वक़्त उस के निकालने का तरीक़ा मुअय्यन होगा।

3. इन जुलूसों पर आगे लगायी जाने वाली पाबन्दी के बारे में तफ़सील और तरीक़ा लखनऊ के ज़िला हुक्काम वक़्तन फ़ौक़्तन मौजूदा सूरते हाल के तहत तय करेंगे और ज़िला हुक्काम का यह फ़ैसला दोनों फ़िरक़ों को मानना पड़ेगा।

1977 का फ़साद –

जब तक हेमवती नन्दन बहुगुड़ां की सरकार रही उस वक़्त तक लखनऊ में शिया सुन्नी झगड़ा नहीं हुआ लेकिन जब हिन्दुस्तान में इमेर्जेंसी का नेफ़ाज़ अमल में आया और वज़ीरे आज़म मिसिस इन्दिरा गांधी के साहबज़ादे मिस्टर संजय गांधी और मिस्टर बहुगुंड़ा के दरमियान सियासी इख़्तिलाफ़ात की वजह से बहुगुडां सरकार ख़त्म हो गयी तो शहर का वहाबी तबक़ा एक मरतबा फिर सरगर्मे अमल हो गया यह तक कि 3 मार्च 1977 को ऐन बारह वफ़ात के दिन फ़साद की आग फिर भड़क उठी। बलवाईयों ने इस मरतबा विक्टोरिया गंज में वाक़ा ए शाहीख़ैरातख़ाना को अपना निशाना बनाया जो ग़रीब बेवाओं और लावारिस औरतों की पनाह गाह है। हमलावरों ने इस ख़ैरात ख़ाने पर चारों तरफ़ से हमला कर के बेवाओं और लावारिस औरतों का सामान लूटा और उन्हें बुरी तरह मारा और कई घरों में आग लगा दी इसी तरह की शख़ावत और बरबरियत का मुज़ाहेरा दूसरे इलाक़ों में किया गया।

इसी साल 23 मार्च को दूसरा हमला अन्जुमन सदर मातम शाहे इन्सोंजां पर किया गया जो नौचन्दी जुमेरात की वजह से अपने अलमे मुबारक के साथ पुल ग़ुलाम हुसैन से गुज़री थी चुनान्चे बहुत से लोग ज़ख़्मी हुए और देखते ही देखते पूरे शहर में फ़साद की आग भड़क उठी। हुक्काम ने कर्फ़्यू नाफ़िस कर के हालात को क़ाबू में किया लेकिन इसी कर्फ़्यू के दौरान रामगंज के वहाबियों ने हुसैनाबाद पुलिस चौकी के सामने डा 0 रईस आग़ा नामी एक शिया समाजी कारकुन को चाकुओं से मौत के घाट उतार दिया जिससे हालात मज़ीद बदतर हुए लेकिन शियों ने सब्र व तहम्मुल का मुज़ाहेरा किया और क़दम क़दम पर ज़िला हुक्काम के साथ अमन की बहाली में लगे रहे।

जुलूस हाय अज़ा पर पाबन्दी –

23 मार्च 1977 के इस फ़साद के बाद इसी सियासी दबाव के तहत अज़ादारी के तमाम जुलूसों पर हुकूमत की तरफ़ से ग़ैरे मुअय्येना मुद्दत के लिए पाबन्दी लगा दी गयी जिसका कोई जवाज़ नहीं था।

इस ग़ैरे आयनी व ग़ैरे पाबन्दी के ख़िलाफ़ शिया लीडरों ने बार बार हुकूमत से राबता क़ायम कर के एहतेजाज किया लेकिन जब कोई नतीजा बरामद न हुआ तो इदारा ए तन्ज़ीम मिल्लत के ज़ेरे एहतेमाम इमामबाड़े में एक जलसा ए आम का इन्ऐक़ाद किया गया और जलसे के एहतेमाम पर 21 जुलाई 1977 से 24 जुलाई 1977 तक शियों की तरफ़ से बड़ी तादात में एहतेजाजी गिरफ़्तारियां पेश की गयीं।

माहे रमज़ानुल मुबारक का भयानक फ़साद –

सैय्यद अली ज़हीर साहब साबिक़ वज़ीरे क़ानून के ज़ेरे सदारत 18 सितम्बर 1977 को इमामबाड़े आसफ़ी में शियों का एक बहुत बड़ा जलसा हुआ और उस में यह तय किया गया कि अगर हुकूमत जुलूस हाय अज़ा पर लगी पाबन्दी को नहीं ख़त्म करती तो माहे शव्वाल की नौचन्दी से जेल भरों आन्दोलन माहे ज़ीक़ाद में काउन्सिल हाउस के सामने धरना और भूख हड़ताल और माह ज़िलहिज से मुल्कगीर तहरीक शुरू की जायेगी लेकिन इसी दौरान वज़ीरे आज़म मिस्टर मोरारजी देसाई इत्तेफ़ाक़ से लखनऊ आये और शिया लीडरों ने उन से मिल कर लखनऊ के शिया सुन्नी मसाएल और हालात से उन्हें आगाह करते हुए जुलूस हाय अज़ा से पाबन्दी हटाने और शियों के रूके हुए जुलूसों को उठवाने का मुतालबा किया। वज़ीरे आज़म ने शिया लीडरों की बातों को हमदर्दी से सुना और वज़ीरे आला राम नरेश यादव से गुफ़्तगू के बाद उन्हें हुक्म दिया कि 21 रमज़ानुल मुबारक को हज़रत अली (अ.स.) के यौमे शहादत पर शियों के जुलूस उठा दिये जायें चुनान्चे वज़ीरे आज़म के जाने के बाद वज़ीरे आला ने पुलिस व ज़िला इन्तिज़ामियां की एक मीटिंग में यह हिदायत दी कि हज़रत अली (अ.स.) की शहदत के मौक़े पर 21 रमज़ान को शियों के जुलूस उठवा दिये जायें।

इस मौक़े पर ज़िला हुक्काम ने एहतियाती तदबीर के तहत शहर के तमाम हस्सास इलाक़ों में ज़बरदस्त पुलिस और पी 0 ए 0 सी 0 का इन्तिज़ाम किया कि कोई नाख़ुशगवार वाक़ेया न होने पाये। चुनान्चे 28 सितम्बर 1977 को सुबह 4 बजे नजफ़ से हज़रत अली (अ.स.) का वह ताबूत जिसके बानी हसन मिर्ज़ा थे उठा के अपने रवायती शान व शौकत के साथ करबला ताल कटोरा के लिए रवाना हो गया। इस के बाद दिगर मक़ाम से ताबूत बरामद हो कर शिया सोगवारों का कसीर मजमा इन ताबूतों के साथ बड़े पुरसुकून और पुरअमन अन्दाज़ में करबला तालकटोरा की तरफ़ बढ़ रहा था कि अचानक बिल्लौचपुरा के चौराहे पर वहाबियों का एक बहुत बड़ा हुजूम शियों पर हमलाआवर हुआ और देखते ही देखते शहर का काफ़ी हिस्सा फ़साद की लपेट में आ गया और लखनऊ की सरज़मीन एक बार फिर शियों के हक़ में क़त्लगाह बन गयी।

इस मरतबा वहाबी सुन्नियों ने बहुत ख़ुफ़िया तरीक़े से फ़साद की स्कीम तैयार की थी और लूट मार और क़त्ल व ग़ारत के लिए बाहर से गुण्डे व बदमाश व पेशावर क़ातिल बुलाये गये थे जिसके नतीजे में शियों को काफ़ी जानी व माली नुक़सान से दो चार होना पड़ा।

ज़िला हुक्काम की ज़बरदस्ती कोशिशों पुलिस व पी 0 ए 0 सी 0 की मुस्तैदी और सख़्त कर्फ़्यू के बावजूद 18 अक्टूबर 1977 तक आगज़नी छुरेबाज़ी और क़त्ल की छुटपुट वारदातें होती रहीं। इस फ़साद के मुख़तलिफ़ मरहलों में जो शिया मारे गये हैं उनके नामों की फ़ेहरिस्त मुन्दरजा ज़ैल है –

1. मिर्ज़ा मोहम्मद अक़ील , मुफ़्तीगंज

2. बशारत हुसैन , गढ़ी पीर ख़ान

3. क़ारी हसन रज़ा , कंघी वाली गली

4. इक़बाल हुसैन , भदेवां

5. अकबर हुसैन , भदेवां

6. तक़ी हुसैन , हैदरगंज

7. बादशाह हुसैन उर्फ़ बाबू मियां , मशकगंज

8. मक़सूद हुसैन , कश्मीरी मोहल्ला

9. हैदर अब्बास , कटरा अबू तुराब खां

10. सज्जाद हुसैन , कटरा आज़म ख़ां

11. सख़ी हुसैन , झवांइ टोला

12. असरारूल हसन , चिकमण्डी

13. नईम अब्बास , नज़रबाग़ , कानपुर

फ़ैसला कुन एक़दाम –

29 ज़िल्हिज्जा 12 दिसम्बर इमामबाड़ा आसफ़ी में शियों का जलसा ए आम हुआ और उसमें बिलाइत्तेफ़ाक़े राय मुन्दरजा तजावीज़ पास की गयीं –

1. शिया एहतेजाजन उस वक़्त तक अज़ादारी के जुलूस नहीं निकालेंगे जब तक हुकूमत जुलूस हाय अज़ा पर लगी पाबन्दी को ख़त्म नहीं करतीं।

2. शिया मदहे सहाबा किसी क़ीमत पर बर्दाश्त नहों करेंगे और अगर वहाबी सुन्नी सरकारी इजाज़त के बग़ैर शहर में किसी हिस्से से जुलूसे मदहे सहाबा निकालेंगे तो शिया भी इन जुलूसों के जवाब में तबर्रा का जुलूस निकालेंगे।

3. मौजूदा हुकूमत अम्नो अमान और नज़्म व नस्क़ क़ायम करने में नाकाम रही है और सियासी व समाजी दबाव के तहत शर पसन्दों और क़ानून शिकनी करने वालों की हौसला अफ़ज़ायी कर रही है।

इल्तवा का ऐलान –

मौलाना सैय्यद कल्बे आबिद साहब क़िब्ला ने जुलूस हाय अज़ा या मजलिस को मुलतवी किये जाने के इस फ़ैसले से मुत्तफ़ेक़ नहीं थे लेकिन इस के बावजूद शिया क़ौम के कुछ मसलहत परवर लीडरों ने जो ज़िला हुक्काम के ताबा व फ़रमाबरदार थे मौलाना मौसूफ़ की तरफ़ से ख़ुफ़िया तौर पर एक प्रेस नोट जारी कर दिया कि –

शिया लखनऊ के जलसा ए आम मुनअक़िदा इमामबाड़ा आसफ़ी में इत्तेफ़ाक़े राय से यह तय पाया है कि हुकूमत के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ कि जुलूस हाय अज़ा को उठाने के लिए कुछ नाक़ाबिले क़ुबूल शरायत मन्ज़ूर करना लाज़मी हैं। शियाने लखनऊ अय्यामे अज़ा के तमाम उमूमी मरासिम अज़ादारी की बजाअवरी को मुलतवी करते हैं। इस फ़ैसले के मुताबिक़ हुसैनियां गुफ़रानमाब में मुनअक़िद होने वाली मजलिस बेशमोल मजलिस शाम ए ग़रीबां जो आल इण्डिया रेडियो से रिले होती है इस साल मुलतवी की जाती है।

मौलाना सैय्यद कल्बे आबिद साहब क़िब्ला ने जाने किस मजबूरी या दबाव की बिना पर इस ऐलान की तरदीद नहीं कर सके जिस का नतीजा यह हुआ कि दो साल पुरानी एक रिवायत इस वक़्त टूट गयी जब इमामबाड़ा आसफ़ी से पहली मोहर्रम को निकलने वाली शाही ज़री भी नहीं निकाली गयी। यक़ीनन यह मसलहत बिनी और दूरअन्देशी के ख़िलाफ़ ऐसा ग़लत एक़दाम था जिस का ख़िमयाज़ा आज पूरी शिया क़ौम अज़ादारी पर आयद शुदा पाबन्दी की शक्ल में भुगत रही है।

शिया एक्शन कमेटी का एक़दाम और धरना –

कौमी मुजाहिद शेख़ अमीर अहमद की तहरीक व तजवीज़ पर पहली मोहर्रमुल हराम 1398 हिजरी , 19 दिस्मबर , 1977 को शिया क़ायदीन और इदारों के ओहदेदारों पर मुशतमिल शिया एक्शन कमेटी का क़याम अमल में लाया गया और इसी रोज़ इमामबाड़े नाज़िम साहब में एक जलसा ए आम का इन्एक़ाद कर के यह फ़ैसला किया गया कि अज़ादारी के जुलूसों पर आयदशुदा ग़ैरक़ानूनी पाबन्दी के ख़िलाफ़ दूसरी मोहर्रम 14 दिसम्बर से काउन्सिल हाउस के सामने धरने और अलामती भूख हड़तालों का सिलसिला शुरू किया जायेगा। चुनान्चे वक़्ते मुअय्ययेना पर हज़ारों लोग धरने और भूख हड़ताल पर बैठ गये और यह सिलसिला मजलिस व मातम नेज़ शिया लीड़रों की तक़रीरों के साथ साथ नवीं मोहर्रम की शब में ग्यारह बजे तक जारी रहा और रोज़ाना हज़ारों की तादाद में शियों ने अमली तौर पर इस तहरीक में हिस्सा लिया।

यौम ए आशूरा और गिरफ़्तारियां –

आशूर 1398 का सोगवार सूरज तुलूअ हो चुका था। शियों के एहसासात व जज़बात मातम व सीनाज़नी के लिये इन के दिलों में घुट घुट कर करवटें बदल रहे थे आंखें अश्कबार थी। तमाम इमामबाड़े वीरान व सुनसान नज़र आ रहे थे अज़ाख़ानों पर हसरत व उदासी बरस रही थी और मज़लूमे करबला के अज़ादार ख़ून के आंसू रो रहे थे। यह सब इस लिये था कि एक तरफ़ इल्तवा ए मरासिम ए अज़ा की कशमाकश थी तो दूसरी तरफ़ मोमेनीन को अज़ादारी पर लगी सरकारी पाबन्दी ने बेबस व मजबूर कर रखा था चुनान्चे इन हालात के पेशेनज़र शिया क़ायदीन ने मुत्तफ़ेक़ा तौर पर यह फ़ैसला किया कि आज हम अपने हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए इमामबाड़ा ए आसफ़ी से ग़ैर मुअय्ययेना तादाद में गिरफ़्तारियां पेश करेंगे।

इस ऐलान का होना था कि लखनऊ के शिया चारों तरफ़ से उमंड़ पड़े और देखते ही देखते इमामबाड़ा आसफ़ी में दो लाख शियों का मजमा इकट्ठा हो गया और या हुसैन , या हुसैन की सदाओं से शहर की फ़िज़ा गूंजने लगी इस कसीर तादाद मजमे में मर्द , औरत , बच्चे , बूढ़े और जवान सभी शामिल थे।

दूसरी तरफ़ हुक्कामे ज़िला को जब यह ख़बर मालूम हुई तो वह भी बौख़ला गया। उन्होंने शिया क़ायदीन से राब्ता क़ायम कर के सूरते हाल का जायज़ा लिया और इस के बाद शहर में आने जाने वाली तमाम गाड़ियों , रोड़ों पर की बसों और पुलिस व पी 0 ए 0 सी 0 के ट्रकों का रूख़ इमामबाड़ा ए आसफ़ी की तरफ़ मोड़ दिया गया ताकि गिरफ़्तारियां पेश करने वालों को ले जाया जा सके। इस मौक़े पर पी 0 ए 0 सी 0 अफ़सरान की तादाद कितनी थी इस का अन्दादाज़ा नहीं किया जा सकता।

बहरहाल इमामबाड़ा आसफ़ी में एक मुख़तसर सी मजलिस के बाद पहले दौर में मुजाहिदे मिल्लत सैय्यद अशरफ़ हुसैन की क़यादत में मोमेनीन का जो जत्था मातम व सीनाज़नी करता हुआ इमामबाड़े के बैरूनी गेट से बरामद हुआ वह तक़रीबन ( 80) अस्सी हज़ार शियों पर मुश्तमिल था। बाहर ट्रक पर तैनात ज़िला इन्तिज़ामिया के अफ़सरान व हुक्काम और पुलिस व पी 0 ए 0 सी 0 के हज़ारों नौजवान इस जत्थे को देख कर घबरा गये लेकिन जब उन्होंने इन मातमदारों के बेमिसाल नज़्म व नस्क़ व डिसप्लिन , तहज़ीब व शाएस्तगी और मज़हबी जोश व ख़रोश को देखा तो उनके हैरत व इस्तेजाब की कोई इन्तेहा न रही। वह लोग मबहूत व हैरतज़दा हो कर सकते के आलम में इस कसीर मजमे को जिन में छोटे छोटे बच्चे , बूढ़े और जवान सभी शामिल थे पुलिस की गाड़ियों की तरफ़ गिरफ़्तारियां देने के लिये अज़ ख़ुद बढ़ते देख रहे थे और उनकी तारीफ़ व सताइश कर रहे थे बाज़ अफ़सरान की आंखें नम थीं और बाज़ आंखें छलक रहीं थीं।

मोमेनीन की इस तादाद को देखते हुए पुलिस व इन्तिज़ामियां की तरफ़ से फ़ौरी तौर पर मुहय्या की गयी 65 गाड़ियां कुछ भी न थीं। आनन फ़ानन में वह छतों तक भर गयीं इस के बाद भी लाखों का बेक़रार मजमा सड़क पर मातम व सीना ज़नी करता रहा और जब हुक्काम ए ज़िला ने मज़ीद गाड़ियों के सिलसिले में माज़रत की तो यही मजमा पुलिस लाइन की तरफ़ बढ़ने लगा। इस कैफ़ियत को देख कर ज़िला हुक्काम बेहत परेशान हो गये और उन्होंने इस बढ़ते हुए सैलाब को रोकने के लिए ख़ुशामद दरामद कर के मौलाना सैय्यद कल्बे आबिद साहब क़िब्ला का सहारा लिया। चुनान्चे मौलाना की एक आवाज़ पर मोमेनीन के बढ़ते हुए क़दम रुक गये और लोग अपने अपने घरों की तरफ़ वापस होने लगे। जिन लोगों ने गिरफ़्तारियां दी थीं उन्हें भी दो बजे रात में उनके घरों तक सरकारी गाड़ियों से यह कह कर पहुंचा दिया गया कि जेल में जगह नहीं है।

शिया मंच की कोशिश –

जब जुलूस हाय अज़ा पर आयद शुदा पाबन्दी को चौदह साल गुज़र गये और मुसलसल जद्दो जेहद के बाद वुजूदे पाबन्दी ख़त्म किये जाने के बारे में कोई फ़ैसला न हो सका। नेज़ मिस्टर अटल बिहारी वाजपेयी , लखनऊ पार्लियामेंटरी हल्क़ा ए इन्तेख़ाबी से पहली बार पार्लियामेंट के मेम्बर चुने गये और यू 0 पी 0 में इन की पार्टी बरसरे इक़तेदार हुई तो मुझ हक़ीर ने शिया मंच की तरफ़ से बहैसियत जनरल सेक्रेटरी और मिस्टर हसन लखनवी ने बहैसियत सदर 7 जुलाई 1991 (इतवार) को आल इण्डिया शिया यतीम ख़ाना , काज़मैन रोड , लखनऊ में उन्हें एक इस्तेक़बालिया दिया जिस में उन के साथ मुताद्दिद तुज़रा यू 0 पी 0 भारतीय जनता पार्टी के सदर कलराज मिश्र और अक़लियती इदारे के सदर मिस्टर तनवीर उस्मानी भी तशरीफ़ लाये। नेज़ तक़रीबन दस हज़ार शिया और पांच सौ हिन्दुओं पर मुशतमिल मनमदा के साथ कई मेम्बराने इसेम्बली भी इस मौक़े पर मौजूद थे और इस इस्तेक़बालिया जलसे की सदारत मौलाना सैय्यद ज़ाहिद अहमद साहब क़िबला फ़रमा रहे थे।

चुनान्चे मैंने अपनी मुख़तसर सी इस्तेक़बालिया तक़रीर के दौरान मज़कूरा तमाम हज़रात की मौजूदगी में मिस्टर अटल बिहारी वाजपेयी को साबेक़ा हुकूमत की तरफ़ से जुलूस हाय अज़ा पर नाफ़िसशुदा पाबन्दी की तरफ़ मुतावज्जे किया और इस सिलसिले में एक तहरीर मेमोरेन्डम इन की ख़िदमत में पेश करते हुए इन से अपील की कि वह अपने असरात व रुसूख़ को बरूएकार ला कर इस पाबन्दी को ख़त्म करायें।

मिस्टर वाजपेयी ने दस हज़ार शियों के सामने अपनी तक़रीर के दौरान यह एतेराफ़ किया कि साबिक़ हुकूमत की तरफ़ से शियों के जुलूसों पर लगी यह आयद शुदा पाबन्दी उसूलन ग़ैर क़ानूनी है और उन्होंने यह वादा किया कि मिस्टर कल्याण सिंघ वज़ीरे आला से गुफ़्तगू कर के बारे में मालूमात फ़राहम करेंगे और इसे ख़त्म करने की कोशीश करेंगे क्योंकि अज़ादारी के जुलूस सिर्फ़ शियों ही के मज़हबी जुलूस नहीं हैं बल्कि यह लखनवी तहज़ीब व तमद्दुन का आइना है और इन्हें हिन्दु फ़िर्क़ा भी इन्तेहायी अक़ीदत व एहतेराम के साथ अन्जाम देता है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)