हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत
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हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

हिन्दुस्तान में फ़ितना ए वहाबियत

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मौलाना सैय्यद ज़ाहिद अहमद साहब क़िब्ला का एक़दाम –

जुलूस हाय अज़ा की बहाली के सिलसिले में की गयी शिया मंच की इस कोशीश को मौलाना सैय्यद ज़ाहिद अहमद साहब क़िब्ला ने अपने ज़ाती असरात की बुनियाद पर कुछ और बढ़ाया।

मौलाना मौसूफ़ ने दिल्ली के कुछ मोअज़्ज़िज़ तरीन शियों और कुछ मुमताज़ सियासी शख़्सियतों को अपने हमराह ले कर मिस्टर लाल कृष्ण आडवानी और मिस्टर सिकन्दर बख़्त वग़ैरह की रिहायशगाहों पर उन से मुलाक़ात की और सख़्ती से जुलूस हाय अज़ा की बहाली का मुतालिबा किया यहां तक कि मौलाना ने भा 0 ज 0 पा 0 के सेन्ट्रल आफ़िस में मजलिस व मातम का इन्एक़ाद कर के मिस्टर कल्याण सिंघ वज़ीरे आला यू 0 पी 0 को भी इस बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया।

दिल्ली से लखनऊ वापसी पर मौलाना मौसूफ़ मिस्टर अटल बिहारी वाजपेयी , मिस्टर लाल जी टन्डन और वज़ीरे आला कल्याण सिंघ से भी मिले नतीजा यह हुआ कि मौलाना की यह कोशीश बारावर हुई और मुख़तलिफ़ सरकारी मीटिंगों के बाद मिस्टर कल्याण सिंघ ने यह फ़ैसला किया कि अज़ादारी के जुलूसों पर साबेक़ा हुकूमतों की तरफ़ से लगायी गयी पैबन्दी चूंकि ग़लत और नाजायज़ है इस लिये इसे ख़त्म कर के शियों को उन का हक़ दे दिया जाये। मगर अफ़सोस कि कुछ मसलेहत परवर शिया उलमा ही ने इन तमाम कोशिशों और कार्यवाहियों पर यह कह कर पानी फेर दिया कि भा 0 ज 0 पा 0 चूंकि एक फ़िर्क़ा परस्त और मुस्लिमकश जमात है लिहाज़ा अगर इस के दौर ए इक़्तेदार में जुलूस हाय अज़ा उठे तो फ़साद हो जायेगा।

वाक़यात ए ख़ुदसोज़ी –

लखनऊ में जुलूस हाय अज़ा पर गर्वनमेंट की तरफ़ से आयद शुदा पाबन्दी का बीसवां ( 20) साल शुरू हुआ तो इमाम हुसैन (अ.स.) के कुछ जांनिसारों ने उलमा ए कराम से मशविरे के बग़ैर एक अन्जुमन कारवाना ए हयात की ज़ेरेएहतेमाम इस पाबन्दी के ख़िलाफ़ ग़ैर मोअय्येना मुद्दत की अलामती भूख हड़ताल का एक प्रोग्राम किया और इस प्रोग्राम के तहत 10 अप्रैल 1997 से दरगाह हज़रत अब्बास (अ.स.) रोड पर अलामती भूख हड़ताल शुरू कर दी गयी लेकिन इस मुख़ल्लेसाना एहतेजाजी तहरीक के ज़ैल में 13 अप्रैल 1997 को एक इन्तेहायी करबआमेज़ वाक़ेया यह पेश आया कि मोहम्मद हुसैन उर्फ़ बब्बू और यूसुफ़ हुसैन उर्फ़ भोपाली नाम के जज़बाती नौजवानों ने जुलूस हाय अज़ा की बहाली के बुतालिबे के तहत ख़ुदसोज़ी कर ली। बुरी तरह से जले और झुलसे नौजवानों को फ़ौरी तौर पर मेडिकल कालेज ले जाया गया जहां से बेहतर इलाज की सहूलत के पेशे नज़र वह दोनों संजय गांधी मेडिकल इंस्टीट्यूट (पीजीआई) मुन्तक़िल कर दिये गये लेकिन इन्तेहायी नाज़ुक हालत की बिना पर वहां के डाक्टर भी हिम्मत छोड़ बैठे और उन्होंने इन दोनों जवानों को दिल्ली ले जाने का मशविरा दिया चुनान्चे वह दोनों दिल्ली ले जाये गये और वहीं उन दोनों की शम्मा ए हयात गुल हो गयी।

इस ग़ैर मुतावक़्क़े , ग़ैर मामूली क़ुरबानी ने सिर्फ़ अलामती भूख हड़ताल की इस तहरीक को नया मोड़ दे कर आसमान पर पहुंचाया बल्कि शियों के एहसासात को भी बुरी तरह झिंझोड़ कर रख दिया। चुनान्चे इस वाक़्ये ख़ुदसोज़ी के बाद लोगों के दिलों में भरपूर जोश व वलवला पैदा हो गया और इस दिन बरादरम बाक़र अली ख़ां रविश लखनऊ ने हल मिन नासेरिन यनसुरना की उनवान से एक पम्फ़लेट अवाम में तक़सीम कर के दरगाह हज़रत अब्बास (अ.स.) में मोमेनीन का एक जलसा तलब किया और डेढ बजे रात में तमाम शिया उलमा से राबता क़ायम कर के उन्हें मुत्तहिद होने और इस तहरीक में शामिल होने की दावत दी।

उलमा ए कराम अभी किसी ठोस लह ए अमल के बारे में ग़ौर व फ़िक्र कर ही रहे थे कि 16 अप्रैल 1997 को एक तीसरे नौजवान इशरत अल्ताफ़ उर्फ़ गुड्डू ने भी अज़ादारी के नाम पर ख़ुदसोज़ी कर ली और दूसरे या तीसरे दिन लखनऊ में इलाज के दौरान वह भी चल बसा।

इधर बब्बू और भोपाली की लाशों को दिल्ली से लखनऊ लाने की शिया क़यादत के मुतालिबे पर हुकूमत का रवैया धोकेबाज़ी का रहा वह यक़ीन दिलाती रही कि मरहूमीन की लाशें लखनऊ लायी जा रही हैं मगर इन्हें ख़ामोशी से बघरा ज़िला मुज़फ़्फ़र नगर में दफ़्न कर दिया गया। इस सूरते हाल ने पूरी शिया क़ौम में ग़म व ग़ुस्से की एक लहर पैदा कर दी और मर्द व औरत , बूढ़े , बच्चे जवान सब के सब सर से कफ़न बांध कर मैदान में आने पर तैयार हो गये और शिया क़यादत ने हुकूमत को अल्टीमेटम दिया कि बक़रीद की नमाज़ के बाद बड़े इमामबाड़े से छोटे इमामबाड़े तक एहतेजाजी जुलूस निकाला जायेगा , अगर हुकूमत रोक सकती हो तो रोके।

इस अल्टीमेटम में इतना वेक़ार व एतेमाद था कि हुकूमत का सारा ग़ुरूर चकना चूर हो गया। इसने ज़िला हुक्काम और पुलिस अफ़सरान को यह अहकामात जारी किये कि अगर शिया फ़िर्क़ा किसी तरह का कोई भी जुलूस निकालने की कोशीश करे तो इसे सख़्ती से कुचल दिया जाये। चुनान्चे 9 ज़िलहिज्जा की रात में आसफ़ी इमामबाड़े को चारों तरफ़ से घेर लिया गया रास्ते सील कर दिये गये बड़े इमामबाड़े से छोटे इमामबाड़े तक शाही सड़क को कई जगह बल्लियों के ज़रिये मुस्तहकम रुकावटें पैदा कर दी गयीं ताकि मजमा आगे न बढ़ सके और मसला पुलिस पी 0 ए 0 सी 0 नेज़नीम फ़ौजी दस्तों का एक जाल बिछा दिया गया।

मोहतरमा मायावती वज़ीरे आला हुक्म हाकिम व अफ़सरान से बराबर राब्ता किये हुये थीं और हुक्काम इस इंतिज़ार में थे कि बक़रीद की नमाज़ तमाम होने पर मजमा जैसे ही बाहर सड़क पर निकले वैसे ही वह इस पर ज़ुल्मों सीतम शुरू कर दें लेकिन जब मरदों , औरतों औऱ बच्चों पर मुशतमिल तक़रीबन दो लाख का मजमा मोहतरमा मायावती की सारी कोशिशों को रौंदता हुआ अलमें मुबारक के साथ इमामबाड़े के बाहर आया तो हाकिम व अफ़सरान हैरत से एक दूसरे का मुंह तकते रह गये। पुलिस व पी 0 ए 0 सी 0 की राइफ़लें झुक गयीं और सारी रूकावटें और बंदिशें टूट गयीं और अलमे मुबारक अपनी शाने बेनियाज़ी के साथ जांबाज़ मोमेनीन के झुरमुट में छोटे इमामबाड़े तक पहुंच गया। यह मायावती सरकार की पहली शिकस्त फ़ाश थी और इस जुलूस की क़यादत उलमा ए कराम फ़रमा रहे थे।

इस अज़ीम कामयाबी के बाद अन्जुमन कारवाना ए हयात के ज़ेरेएहतेमाम शुरू की गयी तहरीक पर भरपूर जवानी आ गयी। शहर की तमाम अन्जुमनें शिया वकील , शिया शोअरा और तमाम उलमा व ज़ाकेरीन सब के सब इस तहरीक में शामिल हो गये और दरगाह हज़रत अब्बास रोड़ पर धने अलामती भूख हड़ताल और मजलिस व मातम का एक सिलसिला इस अन्दाज़ से आगे बढ़ा कि मोहतरमा मायावती सरकार को पसीने आने लगे यहां तक कि वह शियों की इस तहरीक के सामने घुटने टेकने पर मजबूर हो गयीं। आख़िरकार उन्होंने सरकारी सतह की एक दोरूकनी कमेटी तशकील दे कर शियों के जुलूसों के मामले को इस के हवाले कर दिया ताकि वह अपनी रिपोर्ट की रोशनी में किसी हतमी फ़ैसले की सिफ़ारिश कर सकें। इस वक़्त यह दो रूकनी कमेटी मिस्टर आर 0 के 0 चौधरी और मिस्टर लाल जी टन्डन नगर विकास मंत्री पर मुशतमिल थी।

लखनऊ के फ़ितना परदाज़ वहाबियों को जब इस सरकारी कमेटी के क़याम का पता चला तो वह भी बेचैन हो गये और उन्होंने कमेटी के मेम्बरान से अज़ ख़ुद राब्ता क़ायम कर के क़ज़ीया ए मदहे सहाबा को उभारा और इस सिलसिले में अपनी सरगर्मियां तेज़ कर दीं। लुत्फ़ की बात तो यह है कि एक तरफ़ वहाबी रहनुमा इस कमेटी के दोनों मेम्बरान को अपने ग़लत मौक़ूफ़ के शीशे में उतारने की कोशिशों में दिलोजान से मसरूफ़ थे और दूसरी तरफ़ शिया क़यादत इस ख़ुश फ़हमी के तहत मुतमइन थी कि कमेटी को ग़रज़ होगी तो वह ख़ुद ही इस से राब्ता क़ायम करेगी।

मौलाना ज़ाहिद हुसैन साहब क़िब्ला इस मौक़े पर हज के लिये तशरीफ़ ले गये थे जब वह वापस आये और उन्हें हालात की नज़ाकत का इल्म हुआ तो उन्होंने मिस्टर लाल जी टन्डन से मिल कर इन की सरकारी रिहाइशगाह पर शिया क़ायदीन से गुफ़्तगू के लिये एक मीटिंग का एहतेमाम किया जिस में मौलाना हमीदुल हसन साहब , मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब , मौलाना सैय्यद अली नासिर सईद आबाक़ाती आग़ा रूही साहब , मौलाना ज़हीर अहमद इफ़्तेख़ारी साहब के साथ दीगर उलमा व ज़ाकेरीन शरीक हुए और गुफ़्तुगू का सिलसिला चार घंटे तक जारी रहा। यहां तक कि इस मीटिंग के एहतेमाम पर मिस्टर लाल जी टन्डन ने ज़िला इन्तिज़ामिया के इन आला हुक्काम व अफ़सरान को जो वहां मौजूद आशरा ए मोहर्रम के दौरान माक़ूल इन्तिज़ामात की हिदायतें दीं और यह हुक्म दिया कि शियों को परेशान न किया जाये। इस के बाद मौलाना सैय्यद ज़ाहिद अहमद साहब क़िब्ला बग़रज़ ज़ियारत ईरान और ईराक़ के सफ़र पर रवाना हो गये और जारी शुदा तहरीक के मुख़तलिफ़ मरहलों से गुज़र कर माहे मोहर्रम तमाम हो गया।

मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब क़िब्ला की क़यादत –

मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब क़िब्ला की क़यादत में शियों की इस तहरीक को उस वक़्त एक नये मोड़ पर ले आयी जब उनकी दावत पर मौलाना अब्दुल्ला बुख़ारी साहब और दिल्ली शिया मस्जिद के शाही इमाम मौलाना सैय्यद अली साहब तक़वी शियों की हिमायत में दिल्ली से लखनऊ तशरीफ़ लाये और मौलाना बुख़ारी और मौलवी अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी के दरमियान अज़ादारी और मदहे सहाबा के मसले पर 1 जून 1997 को हाजी ग़ुलाम हुसैन की रिहायिशगाह पर अच्छी ख़ासी झड़प हो गयी। इस ग़ैर मुतावक़्क़े झड़प तल्ख़ कलामी और तूतू मैंमैं की बुनियादी वजह यह थी कि मौलाना अब्दुल्लाह बुख़ारी ने मौलवी अब्दुल अलीम फ़ारूख़ी से पूछा कि क्या शिया मुसलमान नहीं हैं तो जवाब में उन्होंने शियों को मुसलमान मानने पर साफ़ तौर पर इन्कार कर दिया इस पर बुख़ारी साहब ने मौलवी अब्दुल अलीम की सरज़निश करते हुए फ़रमाया कि आप का यह अहमक़ाना नज़रिया आप को मुबारक यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि मैं जब यहां आयां हूं तो शियों के जुलूसों को उठवा कर रहूंगा। अब रह गया मदहे सहाबा का मसला तो वह सुन्नियों का कोई मज़हबी जुज़ नहीं है।

मौलाना बुख़ारी की इस गुफ़्तुगू की ख़बर ने ज़िला हुक्काम को भी परेशानी में मुबतेला कर दिया चुनान्चे वज़ीरे आला मिस मायावती को मुत्तेला किया और तीन जून 1997 को वज़ीरे आला के हुक्म से मौलाना अब्दुल्लाह बुख़ारी और मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद सहित तक़रीबन डेढ़ दर्जन मुअज़्ज़िज़ शिया व सुन्नी शख़्सियतों को हिरासत में ले लिया गया। इस गिरफ़्तारी की ख़बर जब जंगल की आग की तरह शहर में फैली तो हर शिया व सुन्नी अज़ादार घर से बाहर निकल पड़ा देखते ही देखते बाज़ार बन्द हो गये , सड़के जाम कर दी गयें और हर दरो दीवार से या हुसैन की सदायें टकराने लगीं। हज़ारों का मजमा एहतेजाज करता हुआ विधान सभा के गेट पर पहुंच गया और शहर में कशीदगी पैदा होने लगी बिगड़ती हुई सूरते हाल को देख कर मोहतरमा मायावती को मजबूरन यह हुक्म देना पड़ा कि मौलाना अब्दुल्लाह बुख़ारी और उनके तमाम साथियों को जो हिरासत में हैं फ़ौरी तौर पर रिहा कर दिया जाये। यह मोहतरमा मायावती की दूसरी शिकस्त थी।

ग़रज़ की मौलाना अब्दुल्लाह बुख़ारी और दीगर हनफ़ी उलमज़हब सुन्नी उलमा की तशरीफ़ आवरी व हौसला अफ़ज़ायी ने शियों की तरफ़ से जारी शुदा तहरीक को मज़ीद तक़वीयत अता की और वह लखनऊ से जाते वक़्त यह कह कर गये कि हम लोग उस वक़्त तक लखनऊ बार बार आयेंगे जब तक जुलूस हाय अज़ा से पाबन्दी ख़त्म नहीं होती। चुनान्चे अपने इस वादे के तहत चेहलुम से एक दिन क़ब्ल बज़रिया ए ट्रेन दिल्ली से फ़िर लखनऊ के लिए रवाना हो गये ताकि वह कर्बला ए तालकटोरा में जुलूस हाय अज़ा की मौजूदा नौइय्यत का मुशाहेदा करें और उन शियों का इज्तेमायीं शुक्रियां अदा करें जिन्होंने उनकी गिरफ़्तारी पर एहतेजाज किया था। लेकिन मौलाना अब्दुल्लाह बुख़ारी के दिल्ली से लखनऊ रवाना होने की ख़बर चूंकि ख़ुफ़िया ब्योरो के ज़रिये यू 0 पी 0 की वज़ीरे आला मोहतरमा मायावती को फ़राहम हो चुकी थी इस लिए मौलाना मौसूफ़ को ग़ाज़ियाबाद या उसके मुल्हक़ किसी स्टेशन के क़रीब हुक्काम व अफ़सरान की एक जमाअत ने ट्रेन रोक कर उतार लिया और वापस उन्हें दिल्ली रवाना कर दिया। यह ख़बर जब लखनऊ के शियों तक पहुंची तो उमूमी तौर पर ग़मो ग़ुस्से की एक लहर दौड़ गयी और हर शख़्स यह मुतालेबा करने लगा कि जिस तरह भी मुम्किन हो मौलाना बुख़ारी को चेहलुम के दिन लखनऊ लाया जाये।

इस मुतालबे में जब शिद्दत पैदा होने लगी और हालात ख़राब होने लगे तो मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब दरगाह हज़रत अब्बास रोड के जारी शुदा धरने पर तशरीफ़ लाये और वहां पर मौजूदा तक़रीबन पन्द्रह बीस हज़ार शियों की राय मालूम करने के बाद उन्होंने यह ऐलान किया कि अगर मायावती सरकार चेहल्लुम के मौक़े पर एक बजे दिन तक मौलाना अब्दुल्लाह बुख़ारी को लखनऊ नहीं लाती तो हम दो बजे दिन में एहतेजाजन आसफ़ी इमामबाड़े से अलम उठा कर करबला ए तालकटोरा तक ले जायेंगे।

कर्फ़्यू का नेफ़ाज़ –

बक़रीद के दिन बड़े इमामबाड़े से छोटे इमामबाड़े हुसैनाबाद तक जाने वाले एहतेजाजी जुलूस पर मोहतरमा मायावती को अनानियत व ताक़त के अन्जाम का तल्क़ तजुरबा हो चुका था इस लिए मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद के इस एलान के ख़िलाफ़ उन्होंने यह मुसतैदी दिखायी कि ज़िला हुक्काम व पुलिस अफ़सरान का एक आला सतही हंगामी जलसा तलब कर के उन्हें हुक्म दिया कि शियों के इलाक़ों में कर्फ़्यू नाफ़िज़ कर के उस में इतनी शिद्दत पैदा कर दी जाये कि एक भी शिया घर से बाहर नहीं निकल सके चुनान्चे चेहलुम की शब में बग़ैर किसी ऐलान के कर्फ़्यू का ऐलान अमल में आ गया। क़दम क़दम पर पुलिस व पी 0 ए 0 सी 0 की कम्पनियां तैनात कर दी गयीं और शियों की नक़लों हरकत पर कड़ी निगाह रखी जाने लगी लेकिन इन तमाम कार्यवाहियों , तदबीरों और सख़्तियों के बावजूद ना तो शियों के हौसले मुताज़लज़ल थे और न ही उनका जज़्बा ए ईमानी मुज़महिल था और न ही उनके चेहरों पर तरद्दुद की कोई शिकन थी।

मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब के ऐलान के मुताबिक़ इमामबाड़ा आसफ़ी से अलमे मुबारक का उठ कर करबला ए तालकटोरा तक ले जाना चूंकि एक यक़ीनी अम्र था इस लिए चेहलुम का सूरज निकलते ही पुलिस और पी 0 ए 0 सी 0 के साथ हुक्कामे ज़िला की सरगर्मियां काफ़ी बढ़ गयीं थी और इस प्रोंग्राम को नाकाम बनाने की कोशिशों में वह दिलो जान से मसरूफ़ थे यहां तक कि ज़िला हुक्काम व पुलिस अफ़सरान ने मौलाना मौसूफ़ के मकान को भी घेर रखा था और उन्हें इस बात पर आमादा किया जा रहा था कि वह वक़्ते मुक़र्रेरा से पहले ही ख़ुद को रज़ाकाराना तौर पर गिरफ़्तार करा दें ताकि शियों की इजतेमायी सूरत पैदा ही न हो लेकिन मौलाना मौसूफ़ हुक्काम की इस तजवीज़ पर अमल पैरा होने के लिए तैयार न थे। उनका जवाब यह न था कि अगर आप हमें गिरफ़्तार करना ही चाहते हैं तो जिस वक़्त हम एहतेजाज करें उस वक़्त गिरफ़्तार करें। ग़रज़ कि मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब ठीक ग्यारह बजे दिन में मोमेनीन की एक मुख़तसर सी जमाअत के साथ अपनी क़यामगाह से आसफ़ी इमामबाड़े जाने के लिए जैसे ही बाहर सड़क पर आये वैसे ही पुलिस के आला अफ़सरान ने उन्हें अपनी हिरासत में ले लिया।

यह ख़बर टेलीफ़ोन के ज़रिये जब शियों में आम हुई तो पूरी क़ौम में ग़म व ग़ुस्से की लहर पैदा हो गयी। गली गली कूचे कूचे से अलम उठने लगे और तमाम सरकारी बन्दिशों को तोड़ता हुआ इन्सानी सरों का सैलाब सड़कों पर उमड़ पड़ा जिसे देख कर ज़िला हुक्काम और पुलिस व पी 0 ए 0 सी 0 के अफ़सरान दम ब ख़ुद रह गये। डेढ़ दो लाख के मजमे पर लाठी चार्ज किया जाना या गोलियों का बरसाना कोई आसान काम न था। हां इस लिये शियो के बिखरे हुए हुजूम पर क़ाबू हासिल करने के लिए मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब को फ़ौरी तौर पर रिहा कर दिया गया। मौलाना की रिहायी से पहले जिन हज़ारों शियों ने एहतेजाज करते हुए ख़ुद को गिरफ़्तार करवाया था उन्हें जेल भी भेज दिया गया।

मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब ने अपने दिलेराना अक़दाम और क़ौम के साथ ईमानदारी व वफ़ादारी के बिना पर अरबाबे हुकूमत की नज़र पर चढ़ चुके थे और वह उन्हें किसी तदबीर से जेल की सलाख़ों के पीछे नज़र बन्द कर देना चाहते थे। चुनान्चे चेहलुम के दूसरे दिन मायावती सरकार के एक दूसरे नुमाइन्दे ने सियासी नौइय्यत के एक शिया आलिम को एतेमाद में ले कर दो बजे रात को थाना चौक में मौलाना के ख़िलाफ़ एक झूठी रिपोर्ट दर्ज करायी जिसमें उन्हें शियों की तमाम सरगर्मियों का ज़िम्मेदार क़रार दिया गया और इसी रिपोर्ट की बुनियाद पर तीसरे दिन सुबह साढ़े तीन बजे के क़रीब क़ौमी सलामती एक्ट के तहत उन्हें गिरफ़्तार कर के ललितपुर जेल में नज़रबन्द कर दिया गया लेकिन यह सिलसिला ज़्यादा दिनों तक क़ायम न रह सका क्योंकि मौलाना की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ पूरे हिन्दुस्तान के शियों ने एहतेजाज शुरू कर दिया था और यू 0 पी 0 की हालत ख़ास तौर पर बिगड़ने लगी थी इस लिये हुकूमत ने घबरा कर तेरहवें दिन दो रबीउलअव्वल को मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद को नीज़ उन तमाम शिया हज़रात को जो चेहलुम के दिन गिरफ़्तार हुए थे ग़ैर मशरूत तौर पर रिहा कर दिया गया और जो मुक़द्देमात शियों के ख़िलाफ़ क़ायम किये गये थे वह वापस ले लिये गये थे। यह मायावती सरकार की तीसरी शिकस्त थी।

दो रूकनी तहक़ीक़ाती कमेटी –

क़ज़ीया ए मदहे सहाबा की अज़ सरे नौ तहक़ीक़ात और जुलूस हाय अज़ा की बहाली पर ग़ौरो फ़िक्र के लिए मोहतरमा मायावती वज़ीरे आला ने जो दो रूकनी कमेटी तशकील दी थी उसकी तमाम कार्यवाहियां यह हुकूमत और शियों के माबैन चल रही कशमकश की वजह से मफ़ज़ूल व मुंजमिद रही और यह कमेटी अपना एक भी तहक़ीक़ाती क़दम आगे न बढ़ा सकी।

जब माहौल कुछ साज़गार हुआ और जुलूस हाय अज़ादारी की बहाली के बारे में शियों का मुतालेबा अपनी जगह बरक़रार रहा तो पहली कमेटी के मेम्बरान की तब्दीली के बाद मोहतरमा मायावती ने जो दुबारा कमेटी बनायी उसमें उन्होंने होम सेक्रेटरी और डायरेक्टर जनरल आफ़ पुलिस को नामज़द किया नीज़ ए 0 सी 0 एन 0 कन्वेनर मुक़र्रर हुए।

इस कमेटी ने अपनी तहक़ीक़ात के ज़ैल में पहला क़दम यह उठाया कि उसने शिया और सुन्नी लीडरों के पास 28 जून 1997 को एक सरकारी मकतूब रवाना किया जिसमें यह पूछा गया था कि –

1. आप हुकूमत से क्या चाहते हैं ?

2. क़ज़ीया क्या है ?

3. दूसरे फ़िर्क़े से क्या तवक़्क़ोआत रखते हैं ?

4. मुमकिन हल क्या है ?

इसका जवाब 15 जुलाई को शियों की तरफ़ से यह दिया गया कि –

1. शिया फ़िर्क़ा जिन जुलूसों का मुतालेबा कर रहा है वह कस्टमरी है और पुलिस रिकार्ड में दर्ज हैं।

2. सुन्नी फ़िर्क़ा जिन जुलूसों का मुतालेबा कर रहा है क्या वह कस्टमरी जुलूस हैं जो पुलिस रिकार्ड में दर्ज हैं।

3. क्या हुकूमत और इन्तिज़ामियां उम्मते मुसलेमा के एक फ़िर्क़े को किसी नए मज़हबी जुलूस की इजाज़त दे सकती है और दूसरे फ़िर्क़े को मना कर सकती है।

4. क्या हुकूमत और इन्तिज़ामिया को किसी मक़सूस फ़िर्क़े को तमाम मज़हबी जुलूसों पर बीस साल तक पाबन्दी लगाये रखने का हक़ हासिल है।

मशवेरा –

1. उन जुलूसों को निकलवाया जाये जो मज़हबी और कस्टमरी हैं।

2. किसी फ़िर्क़े को एक तरफ़ा तौर पर अगर कोई नया जुलूस दिया जाये तो दूसरे फ़िर्क़े को भी नया जुलूस दिया जाये।

3. मज़हबी और बुनियादी हुक़ूक़ में रोड़ा अटकाने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्यवाही की जाये।

हुकूमत से तवक़्क़ोआत –

1. हुकूमत व इन्तिज़ामिया , क़ानून शिकनी और क़ानून के ग़लत इस्तेमाल को बन्द करें।

2. दफ़ा 144 के तहत दिये गये इख़्तेयारात का हुकूमत व इन्तिज़ामिया सही इस्तेमाल करे और ग़ुलाम अब्बास केस में सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से दी हुई हिदायत की पाबन्दी करें।

3. दफ़ा 144 के तहत जारी किये गये एहकाम की मुद्दत हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के तहत महदूद होना चाहिए।

4. ईमानदारी और फ़र्दशिनासी का सुबूत दिया जाये।

दूसरे फ़िर्क़े से तवक़्क़ोआत –

1. एक दूसरे के जज़बात का लिहाज़ रखा जाये।

2. एक दूसरे के मज़हबी उमूर को रूकावट न पैदा की जाये।

3. किसी नये जुलूस का मुतालेबा करते वक़्त दूसरे फ़िर्क़े के मसावी हुक़ूक को मलहूज़े ख़ातिर रखा जाये।

सुन्नियों की तरफ़ से भेजे गये जवाब में सिर्फ़ जुलूसे मदहे सहाबा के मुतालिबे पर ज़ोर दिया गया था। अलबत्ता क़मर मीनाई साहब सज्जाद नशीन शाह मीना साहब ने मदहे सहाबा की मुख़ालेफ़त करते हुए जुलूस ए मोहम्मदी का मुतालेबा किया था और अज़ादारी के जुलूसों की बहाली के बारे में सिफ़ारिश की थी।

पहली मीटिंग –

सरकारी तौर पर पहली मीटिंग 23 जुलाई 1997 को सात बजे रखी गयी थी। अब सवाल यह पैदा हुआ कि शिया नुमाइन्दों की हैसियत से इस मीटिंग में कौन कौन हज़रात शिरकत करेंगे। चुनान्चे इस ज़ैल में 23 जुलाई को सुबह साढ़े आठ बजे एक हंगामी जलसा शिया क़ायदीन का जलसा मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब के मकान पर तलब किया गया जिसमें तमाम उलमा ए कराम के साथ साथ जनाब जावेद मुर्तुज़ा साहब एडवोकेट और जनाब हुसैन अब्बास साहब एडवोकेट और दीगर मोअज़्ज़ेज़ीन को भी शिरकत की दावत दी गयी और इस जलसे में शिरकत के लिये मौलाना सैय्यद हमीदुल हसन साहब , मौलाना आग़ा रूही साहब , मौलाना अदीबुल हिन्द साहब , मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब , मौलाना ज़हीर अहमद इफ़्तेख़ारी साहब , मिर्ज़ा जावेद मुर्तुज़ा साहब नीज़ हुसैन अब्बास साहब एडवोकेट और दीगर मोअज़्ज़ेज़ीन हज़रात ने शिरकत की। मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला और मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब क़िब्ला तो वहां मौजूद थे ही। चुनान्चे मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब ने गुफ़्तगू का आग़ाज़ करते हुए फ़रमाया कि सरकार की तरफ़ से आज शाम को सेक्रेट्रियेट में एक मीटिंग रखी गयी इस सिलसिले में दो चीज़ें सामने हैं अव्वल यह कि मीटिंग में कौन कौन लोग जायें और दूसरे यह कि वहां क्या बात करें ? इस पर मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब ने फ़रमाया कि जो लोग बात करने अब तक जाते रहे हैं वहीं लोग जायेंगे। मिर्ज़ा जावेद मुर्तुज़ा साहब ने कहा कि यह मसला आज का नहीं है बल्कि बीस साल पुराना है जो लोग अब तक बात करते रहे हैं वह वही पुरानी बाते करेंगे लिहाज़ा मेरी राय है कि चार हज़रात मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब , मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब , मौलाना आग़ा रूही साहब और मौलाना सैय्यद हमीदुल हसन साहब बात करने न जायें बल्कि किसी पांचवे शख़्स को अपना नुमाइन्दा मुक़र्रर कर दें। एक मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब हो जायें और दो आदमी शिया वोकला में से मुन्तख़ब कर लिये जायें क्योंकि यह मामला बुनियादी तौर पर क़ानूनी है। उसके अलावा नौजवान ज़ाकेरीन अन्जुमन हाय मातमी और मोमेनीन में से एक एक नुमाइन्दा हो जाये और यही लोग हुकूमत व इन्तिज़ामिया से गुफ़्तुगू करें। इस पर मौलाना हमीदुल हसन साहब जलसे से वाक आउट कर गये और उनके पीछे मौलाना मोहम्मद अतहर साहब भी उठ कर चले गये। चुनान्चे उस दिन शाम को सरकारी मीटिंग में शिया फ़िर्क़े की तरफ़ से मौलाना सैय्यद कल्बे जव्वाद साहब , मौलाना अदीबुल हिन्दी साहब , मौलाना आग़ा रूही साहब और मिर्ज़ा जावेद मुर्तुज़ा साहब ने शिरकत की और शिया सुन्नी मसले के बारे में कोई गुफ़्तुगू नहीं हुई बल्कि यह तय पाया कि ए 0 सी 0 एम 0 2 के लेटर के जो जवाबात फ़रीक़ैन ने दिये हैं उनकी नक़लें एक दूसरे को फ़राहम कर दी जायें और जिन अफ़राद को कमेटी ने नुमाइन्दा तसलीम कर लिया है इन में से कोई शख़्स किसी मजबूरी के तहत शिरकत नहीं कर सकता तो वह इस बात के लिये मजाज़ होगा कि उन्हें तसलीम शुदा मेम्बरान में से किसी को अपना नुमाइन्दा क़रार दे सकता है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

दूसरी मीटिंग –

दूसरी मीटिंग 18 अगस्त 1997 को हुई उसमें शिया या सुन्नी मसायल के बारे में कोई क़ाबिले ज़िक्र गुफ़्तगू नहीं हुई बल्कि मामले को टाल दिया गया।

तीसरी मीटिंग –

यह मीटिंग 30 अगस्त 1997 को एन 0 एक्स 0 सी 0 में हुई। इस में अथारटीज़ ने कहा कि –

1. कुछ रवायती फ़ंक्शन अब भी अंजाम दिये जा रहे हैं।

2. दोनों फ़िर्क़ों ने एक जगह बैठ कर कोई अमली फ़ारमूला मुश्तरका तौर पर तय कर लें।

3. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी इस मले के हल में शरीक करें।

4. बदले हुए हालात के पेशे नज़र कस्टमरी जुलूस तब्दीली चाहते हैं।

5. मौलाना क़मर मीनाई साहब जो जुलूस चाहते हैं वह कस्टमरी नहीं हैं और न ही वह उसके बारे में कोई सुबूत पेश कर सकते हैं लिहाज़ा उन्हें बातचीत से अलग कर दिया गया है।

मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब ने कहा कि –

1. 1977 के बाद से कौन सी ऐसी नयी बात हो गयी है कि शियों के जुलूस नहीं उठ रहे हैं।

2. सुन्नी फ़िर्क़ा हम से क्या चाहता है और वह हमे क्या देना चाहते हैं ?

मौलाना आग़ा रूही साहब ने कहा –

हम पाटानाला और पुल ग़ुलाम हुसैन का रास्ता छोड़ देंगे। बड़े रास्तों से उठायेंगे और जुलूसों की तादाद भी कम कर देंगे।

मिर्ज़ा जावेद मुर्तुज़ा साहब ने कहा –

हम को कस्टमरी जुलूसों और बिदत में फ़र्क़ करना होगा।

उसके बाद यह तय पाया कि कमेटी आइन्दा शियों और सुन्नियों की मुशतरका मीटिंग करायेगी।

चौथी मीटिंग –

4 सितम्बर 1997 को सुबह साढ़े नौ बजे योजना भवन में मुनअक़िद हुई जिस में शियों की तरफ़ से मौलाना हमीदुल हसन साहब , मौलाना अदीबुल हिन्दी साहब , मौलाना कल्बे सादिक़ साहब , मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब , मौलाना ज़हीर इफ़्तेख़ारी साहब , मिर्ज़ा जावेद मुर्तुज़ा साहब एडवोकेट और एम 0 एम 0 ताहिर साहब ने शिरकत की और सुन्नियों की तरफ़ से फ़ज़्ले आलम एडवोकेट , शेख़ सग़ीर हसन अहमद सिद्दीक़ी , अब्दुल अलीम फ़ारूक़ी , अब्दुल अज़ीम फ़ारूक़ी और हाजी ग़ुलाम हसनैन ने शिरकत की। अच्छे और ख़ुशगवार माहौल में गुफ़्तुगू हुई और इस बात पर फ़रीक़ैन मुत्तफ़िक़ थे कि मसले का हल निकलना चाहिये और अमनो अमान का अमल क़याम में आना चाहिये।

पांचवी मीटिंग –

5 सितम्बर 1997 को हुयी इस में मिस्टर जावेद मुर्तुज़ा ने कहा कि रवादारी या फ़िर्क़ा की बिना पर कोई समझौता मुम्किन नहीं।

छठी मीटिंग –

छठी मीटिंग 7 सितम्बर 1997 को हुई। इस मीटिंग में फ़रीक़ैन के दरमियान जब कुछ लेने और देने का मसला ज़ेरे ग़ौर आया तो मिस्टर जावेद मुर्तुज़ा ने फिर अपने मोक़िफ़ को दोहराया और कहा कि फ़िर्क़ा या अक्सरियत की बिना पर कोई सौदेबाज़ी नहीं की जा सकती और न ही किसी शख़्स को लेनदेन का हक़ इख़्तेयार है क्योंकि जो कस्टमरी जुलूस हैं उनका हक़ क़ानूनी तौर पर बीस बरस की मुद्दत में मुसतहकम होता है और उसको आसानी से ख़त्म नहीं किया जा सकता।

डायरेक्टर जनरल और पुलिस ने कहा –

यह बात आप किस बुनियाद पर कह रहे हैं ? इस पर जावेद मुर्तुज़ा साहब ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की वह नज़ीर पेश की जिस में इस बात की वज़ाहत मौजूद है कि न तो ख़ुदसाख़ता लीडर और ना कि हुकूमत व हुक्काम के मुन्तख़ब करदा चन्द अफ़राद किसी कौम की बुनियाद पर कोई मुहायदा कर सकते हैं और न समझौता क्योंकि क़ौम में बिला शक व शुब्हा नाबालिग़ अफ़राद भी होते हैं जिन की तरफ़ से अदालत के ज़रिए मुक़र्ररकरदा क़ानूनी वली ही मुहायदा कर सकता है। मिस्टर जावेद मुर्तुज़ा ने मज़ीद कहा था कि शेख़ सग़ीर इस मीटिंग में मौजूद हैं और 1969 और 1974 के समझौतों पर इन के भी दस्तख़त हैं लेकिन यह ख़ुद इन मुहायदों को नहीं मानते और जो लोग इन को बहैसियत सुन्नी लीडर के यहां लाये हैं वह भी इन मुहायदों पर इनकार कर रहे हैं। इस के बाद मिस्टर जावेद मुर्तुज़ा ने सुन्नियों के नुमाइन्दों को मुख़ातिब करते हुए कहा कि आप लोग अपने को सुन्नी फ़िर्क़े का नुमाइन्दा कह रहे हैं। क़मर मीनाई साहब भी अहले सुन्नत की नुमाइन्दगी कर रहे हैं जब कि वह आप लोगों को अपना नुमाइन्दा नहीं मानते। इस पर डी 0 जी 0 पी 0 ने कहा बराये मेहरबानी आप इस मीटिंग में न क़ानून की कोई बात करें और न ही 1969 के मुहायदों का ज़िकर करें।

डी 0 जी 0 पी 0 के इस कहने पर मिस्टर जावेद मुर्तुज़ा ने ख़ामोशी इख़्तेयार की और ख़त्मे मीटिंग के दूसरे दिन दो रूकनी सरकारी कमेटी को यह ख़त लिख कर भेज दिया कि मसले का हल सिर्फ़ क़ानून और आइन के दायरे के अन्दर रह कर ही हल किया जा सकता है और हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के अहकामात को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता बल्कि इन का एहतेराम भी ज़रूरी है लिहाज़ा मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि जिस सरकारी कमेटी में क़ानून और आईन के हवाले से बात करने की मुमानेअत ह उस में शामिल रहने से कोई फ़ायदा नहीं है इस लिए मैं अपने आप को कमेटी की कार्यवाही से इस वक़्त तक के लिये अलग करता हूं जब तक कमेटी की तरफ़ से मुझे यह यक़ीन दहानी न करादी जाये कि यह कमेटी क़ानून और आइने के दायरे में रह कर नेज़ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की रौशनी में काम करेगी।

सातवीं मीटिंग –

सातवीं मीटिंग 14 सितम्बर को हुई। इस मीटिंग में फ़रीक़ैन के दरमियान कुछ ख़ास बात नहीं हुई और यह 16 सितम्बर के लिये मुलतवी हो गये।

आठवीं मीटिंग –

16 सितम्बर 1997 को शाम के साढ़े आठ बजे मुनअक़िद की गयी इस मीटिंग की कार्यवाही के दौराना मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला ने यह कहकर अपना एक फ़ारमूला पेश किया कि इस फ़ारमूले को रशीद अहमद शेरवानी साहब जमाते इस्लामी के शफ़ी मोनिस साहब , मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मस्लिस मुमशाबेरत के अहम अफ़राद नेज़ हज़रत मौलाना अली मियां नदवी की ताईद हासिल है। फ़ारमूले की इबारत मुन्दरजा ज़ैल है --

हिन्दुस्तान एक जमहूरी मुल्क है और यहां हर मज़हब व फ़िरक़े को अपने अपने मज़हबी रूसूम अपनी अपनी इबादतगाहों के अलावा शार ए आम पर भी इन्जाम देने की उसूली तौर पर मुकम्मल क़ानूनी आज़ादी हासिल है बशरते कि इन की ग़रज़ मुस्तनद मज़हबी रूसूम की अन्जामदही हो। किसी दूसरे मज़हब या फ़िरक़े की दिल आज़ारी न हो।

इस लिये मुसलमानों को भी बहैसियते उम्मत और इस उम्मत के तमाम फ़िरक़ों को बहैसियत फ़िरक़ा इस बात का क़ानूनी हक़ हासिल है कि वह दीगर मुसतनद मज़हबी रूसूम के साथ अपने अपने मज़हबी बुज़ुरगों और रहनुमाओं की पैदाइश या वफ़ात व शहादत के मौक़े पर मज़हबी इजतेमाआत करें या शार ए आम पर जुलूस निकालें लेकिन किसी मज़हब या फ़िरक़े को इस बात की आज़ादी न होनी चाहिये कि वह इन जुलूसों में कोई ऐसी बात कहे या करें जो दूसरे मज़हब या फ़िरक़े के लिये दिल आज़ार हो। किसी मज़हबी फ़िरक़े या जुलूस के शोरका को इस बात की इजाज़त नहीं होना चाहिये कि वह दूसरे मज़हब या फ़िरक़े के किसी बुज़ुर्ग या रहनुमा के बारे में नाज़ेबा और तौहीन आमेज़ कलामात कहे या ऐसे कलामात परचमों पर लिखे या किसी ऐसे शख़्स की तारीफ़ करें या इसका नाम परचम पर लिखें जो दूसरे फ़िरक़े के किसी बुज़ुर्ग या रहनुमा के क़त्ल में मूलव्विस (शामिल) हो।

शार ए आम पर बारमद होने वाले जुलूसों के सिलसिले में शहर में बसने वाले दूसरी क़ौमों का लिहाज़ भी ज़रूरी है इस लिये ऐसे जुलूसों की तादाद को कम से कम रखा जाना चाहिये।

चूंकि मुख़तलिफ़ अक़वाम व मज़हब और मुख़तलिफ़ फ़िरक़ों के दरमियान बाहमी रवाबित व ताल्लुक़ात में नज़दीकी व दूरी पैदा होती रहती है। इस लिये जहां तक मुमकिन हो सके एक मज़हब या फ़िरक़े का जुलूस , रास्ते की मौजूदगी में दूसरे मज़हब या फ़िरक़े की घनी आबादी से न गुज़ारें।

मज़कूरा बाला रहनुमा उसूल की रौशनी में और शहर में अमन व अमान की बरक़रारी को नज़र में रखते हुए जुलूसों की तादाद अवक़ात और रास्ते का तअय्युन मुक़ामी इन्तिज़ामियां की ज़िम्मेदारी होना चाहिये।

मज़कूरा फ़ारमूले की दस फ़ोटे कापियां मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला अपने साथ लाये थे जो उन्होंने कुछ लोगों में तक़सीम कीं। हुक्काम ने इन्हीं कापियों में से एक कापी की मज़ीद फोटो कापियां करा के दीगर लोगों में तक़सीम कीं। इस के बाद कहा गया कि इस फ़ारमूले पर ग़ौर करने के लिये वक़्त दरकार होगा लिहाज़ा अगली मीटिंग में इस पर तबादलाए ख़्याल किया जायेगा।

इस फ़ारमूले की इबारत अरबाबे अक़्ल व होश को ग़ौर व फ़िक्र की दावत देती है।

मदहे सहाबा लखनऊ के कुछ अफ़राद की ईजाद

(सैय्यद शहाबुद्दीन)

मुसलमानों में इत्तेहाद ख़ुसूसन हिन्दुस्तान में इस की ज़रूरत व हुकूमत के पेशे नज़र मिल्लत का दर्द रखने वाले अफ़राद किस क़दर तशवीश में मुब्तेला हैं ? इस का अन्दाज़ा इस ख़त से होता है जो लखनऊ के शिया सुन्नी क़ज़ीय का दोनों फ़िरक़ों के दरमियान बातचीत के बावजूद अभी तक कोई हल न निकलने पर मारूफ़ मुस्लिम रहनुमा और दानिशवर सैय्यद शहाबुद्दीन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदर मौलाना अली मियां नदवी और नाएब सदर मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला को तहरीर किया है। सैय्यद शहाबुद्दीन साहब ने इन दोनों रहनुमाओं को मुख़ातिब करते हुए अपने ख़त में लिखा है कि –

मेरी नज़र में अज़ादारी एक क़दीम रवायत है जो पूरे मुल्क में मनायी जाती है और जिसमें सुन्नी हज़रात भी शिरकत करते हैं जब कि जुलूसे मदहे सहाबा सिर्फ़ लखनऊ के कुछ अफ़राद की ईजाद है जो उन्होंने अज़ादारी और तबर्रा के जवाब में की है। अब जब कि शियों ने इस बात की यक़ीन देहानी करा दी है कि वह जुलूस हाय अज़ा के दौरान तबर्रा नहीं करेंगे तो इन दोनों बातों को एक दूसरे से नहीं जोड़ना चाहिए कि मौक़े पर लखनऊ में शिया और सुन्नी हज़रात को मुशतरका तौर पर जुलूस और जुलूसों का इन्एक़ाद करना चाहिए। यह बात तसल्ली बख़्श है कि शिया क़ायदीन इस अम्र पर राज़ी हो गये हैं कि जुलूसों के रास्तों में तब्दीली लायी जाये ताकि सुन्नी अक्सरियत वाले मोहल्लों से बचा जाये।

(रोज़ नामा सहाफ़त , शुमारा 277, जिल्द 7 बुध , 15 अक्टूबर , 1997 मुताबिक़ 16 जमादिउस्सानी , 1418 हिजरी)

मौलाना नदवी से एक मुलाक़ात

जनाब सैय्यद शहाबुद्दीन साहब के मज़कूरा ख़त की तहरीक पर मेरे दिल में यह ख्याल पैदा हुआ कि क्यों न मौलाना अली मियां नदवी से मिल कर जुलूस हाय अज़ा और क़ज़ीया ए मदहे सहाबा के बारे में इनके अफ़कारो ख़्यालात का जाएज़ा लिया जाये ? चुनान्चे इस ख़्याल के तहत 18 अक्टूबर 1997 को मैंने नदवा टेलीफोन कर के मौलाना मौसूफ़ की मौजूदगी और प्रोग्राम के मुताल्लिक़ दरयाफ़्त कया तो मुझे यह बताया गया कि हज़रत अपने वतन राय बरेली में तशरीफ़ फ़रमा हैं। मैं दो बजे दिन में बज़रिया ए बस लखनऊ से राय बरेली रवाना हुआ और यह मेरी ख़ुश क़िस्मती थी कि मौलाना मौसूफ़ के दरमियान जवाब व सवाब की शक्ल में जो गुफ़्तुगू हुई इस में मौलाना के सख़्ती से मना करने के बावजूद भी इस किताब में शामिल कर रहा हूं ताकि हक़ीक़त वाज़ेह हो जाये।

(सलाम। रहमत , मिजाज़ पुरसी के और रस्मी बातचीत के बाद..........)

सवाल – क्या आप मेरी किसी किताब के लिये कोई इन्टरव्यू देना पसन्द करेंगे ?

जवाब – हरगिज़ नहीं। इस लिये कि मैं किसी किताब के मुसन्निफ़ , मौवल्लिफ़ या किसी अख़बार की रिपोर्टर को इन्टरव्यू देना पसन्द नहीं करता। अलबत्ता आप के और मेरे माबैन वतनी रिश्ते की बुनियाद पर इन्टरव्यू से हट कर ज़ाती गुफ़्तुगू मुमकिन है मगर शर्त यह होगी कि आप मेरी इस गुफ़्तुगू को अपनी किसी किताब में शामिल नहीं करेंगे। अब जो पूछना हो पूछें।

सवाल – लखनऊ में शियों और सुन्नियों के दरमियान जुलूस हाय अज़ा और मदहे सहाबा का जो क़ज़ीया चल रहा है इस के बारे में आपका क्या ख़्याल है ? और इस के हल की क्या सूरत मुम्किन है ?

जवाब – लखनऊ का यह झगड़ा पुराना होने के साथ साथ फ़रीक़ैन के दरमियान कुछ ग़लत पालीसियों और नाक़िस क़यादत की वजह से उलझ कर रह गया है और मेरे लिए इस सिलसिले में लब कुशायी इस लिये मुनासिब नहीं है कि मेरा नज़रिया वाज़ेह है जिसमें जुलूसे मदहे सहाबा और जुलूसे हाय अज़ा दोनों ही बिदत हैं। अब रहा इसे हल करने का सवाल तो इस सिलसिले में जो लोग हैं उन के हक़ में मेरी दुआ है कि अल्लाह ताला उन्हें नेक तौफ़ीक़ात के साथ अपने मक़सद में कामयाब करे क्योंकि लड़ाई झगड़ा और क़त्लो ग़ारतगरी किसी मज़हब किसी फ़िरक़े और किसी मसलक में जाएज़ नहीं है।

सवाल – क्या जनाब सैय्यद शहाबुद्दीन साहब ने इस क़ज़ीये के बारे में आप को कोई ख़त लिखा है ? जैसा कि अख़बार सहाफ़त का बयान है।

जवाब – जिस अख़बार का हवाला आप दे रहे हैं वह मेरी नज़र से नहीं गुज़रा और न ही शहाबुद्दीन साहब का कोई ख़त मुझे मौसूल हुआ है।

नोट – सहाफ़त अख़बार इत्तेफ़ात से मैं अपने हमराह लेता गया था। इसे पेश करते हुए मैंने मौलाना मौसूफ़ से कहा कि बिस्मिल्लाह इसे पढ़ लीजिये। अख़बार पढ़ने के बाद मौलाना ने हैरत व इस्तेजाब ज़ाहिर करते हुए फ़रमाया भई मुझे तो अभी तक कोई ख़त नहीं मिला , मुम्किन हो नदवा लखनऊ के पते से आया हो। कल मैं जब नदवा जाऊंगा तो मालूम होगा।

सवाल – अगर जनाब शहाबुद्दीन साहब का ख़त आप को नदवे में मौसूल हो गया तो इसका क्या जवाब आप देगें ?

जवाब – ख़त और हालात की नवय्यत को देखते हुए जवाब के बारे में कोई राय क़ायम की जा सकती है किसी अख़बारी बयान पर आंख बन्द कर के यक़ीन कर लेना मेरे ख़्याल में दानिशमन्दी नहीं है।

सवाल – इस शिया सुन्नी क़ज़ीये को हल करने के लिये यू 0 पी 0 सरकार ने जो दोरूकनी कमेटी तशकील दी है इस के रू ब रू मौलाना सैय्यद कल्बे सादिक़ साहब क़िब्ला ने अपना जो फ़ारमूला पेश किया है उसे क्या आप की तायीद हासिल है ?

जवाब – अभी तक मैंने किसी फ़ारमूले की हिमायत नहीं की और न ही मुझे इस बारे में इल्म है क्योंकि मैं लखनऊ से बाहर था।

सवाल – जनाब शहाबुद्दीन साहब ने फ़रमाया है कि मदहे सहाबा सिर्फ़ लखनऊ के कुछ लोगों की इजाद है , इस के मुतअल्लिक़ आप का क्या ख़्याल है ?

जवाब – यह झगड़ा दर असल मेरी पैदाइश से पहले का है और उसके बारे में जो तारीख़ है उस से पढ़ा लिखा इन्सान वाक़िफ़ है।

सवाल – क्या आप बता सकते हैं कि अहाता शौकत अली , रकाबगंज , लखनऊ में तहफ़्फ़ुज़े नामूसे सहाबा के नाम से जो हालिया कान्फ़्रेंस हुई थी उसका बुनयादी मक़सद क्या था ?

जवाब – उसका मक़सद सहाबा ए कराम की तालीमात से मुसलमानों को रूशिनास करना और मुत्तहद करना था।

सवाल – अख़बारों की वज़ाहत के मुताबिक़ उस कान्फ़्रेंस में शियों के साथ साथ बाज़ शिया उलमा को भी काफ़िर क़रार दिया गया और आले रसूल (अ.स.) की शान में तौहीन आमेज़ कलेमात इस्तेमाल किये गये ऐसा क्यों हैं ?

जवाब – आले रसूल (अ.स.) की फ़ज़ीलत , अज़मत और बुज़ुर्गी से कौन इन्कार कर सकता है अगर कुछ उलमा ने ऐसा किया है तो वह मेरे नज़दीक ग़लत हैं। अब रहा शियों को या शियों के किसी रहनुमा को काफ़िर क़रार देने का सवाल तो यह बात मेरे इल्म में नहीं है और न ही नाफ़हमों के ख़्यालात पर कोई पाबन्दी लगायी जा सकती है।

सवाल – मौलाना ! इस आख़िरी सवाल के ज़ैल में बस इतना और बता दीजिये कि आप की नज़र में जुलूसे मदहे सहाबा की शरई और मज़हबी हैसियत क्या है ?

जवाब – भाई इस का मुख़्तसर सा जवाब यह है कि मदहे सहाबा का जुलूस हमारे मज़हब का जुज़ नहीं है।

इन्टरव्यू नुमा इस गुफ़्तुगू के बाद मैंने मौलाना साहिब का शुक्रिया अदा किया और रूख़सत होते वक़्त उन पर वाज़ेह कर दिया कि आप ख़्वाह तायीद करें या तरदीद लेकिन इस गुफ़्तुगू को मैं अपनी आने वाली किताब फ़ितना ए वहाबियत में ज़रूर शामिल करूंगा क्योंकि उस में 100 साल से चले आ रहे क़ज़ीया ए मदहे सहाबा और अज़ादारी की तारीख़ी तफ़सील भी है और हक़ीक़त निगारी मेरा नसबुलऐन है।

सुन्नी उलामा का मुश्तरका बयान

लखनऊ में जुलूस हाय अज़ा पर आयद शुदा पाबन्दी और शियों के ख़िलाफ़ वहाबियों की मुनाफ़ेक़ाना रविश को क़ाबिले मज़म्मत क़रार देते हुए हिन्दुस्तान के नामवर सुन्नी उलमा ने जो बयान जारी किया है वह अपनी जगह एक फ़तवे की हैसियत रखता है और इस से यह पता भी चलता है कि वहाबियों की शर अंगेज़ियों और फ़ितना परदाज़ों से न सिर्फ़ शिया बल्कि इस मुल्क के तमाम रासेख़ुलअक़ीदा सुन्नी मुसलमान भी दिली करब व इज़तेराब और रूहानी कश्मकश में मुबतेला हैं।

बयान की इबारत मुन्तरजा ज़ैल है –

लखनऊ के मोहिब्बाने अहलेबैत और अज़ादारे इमाम हुसैन (अ.स.) हक़ पर हैं और अज़ादारी के जुलूस निकालना इन का मज़हबी फ़रीज़ा है इन के ख़िलाफ़ एक छोटी सी टोली जो यज़ीदी और ख़ारजी मुसलमानों पर मुश्तमिल है , सफ़आरा है।

हम हिन्दुस्तान के सात करोड़ अहले सुन्नत मुसलमान इन यज़ीदी ख़वारिज के ग़लत अक़ाएद नज़रयात के ख़िलाफ़ ख़ुली हुई नफ़रत मलामत और बेज़ारी का इज़हार करतें हैं। इन यज़ीदी व ख़ारजी मुसलमानों का तमाम हिन्दुस्तान के सुन्नी मुसलमानों से कोई राब्ता व रिश्ता नहीं है क्योंकि यह मुसलमान कहने के क़ाबिल नहीं रहे। यह लोग सिर्फ़ यज़ीदी हैं जिस का सुबूत इन यज़ीदियों की तरफ़दारी में सिविल जज मोहन लाल गंज , लखनऊ की अदालत में एक मुक़दमा क़ायम कर के दिया है।

चूंकि लखनऊ के यह नाम नेहाद सुन्नी मुसलमान और इन के एक़ाएद व अमल इस्लाम के दुश्मन हैं और लखनऊ के शिया हक़ पर हैं और अज़ादारी शियों का मज़हबी फ़रीज़ा है लिहाज़ा उत्तर प्रदेश सरकार को यह चाहिए कि वह अज़ादारी पर लगी पाबन्दी को फ़ौरन हटा लें और अलम व ताबूतों के जुलूस को उठवाने का माक़ूल बन्दोबस्त करे।

इस बयान पर जिन उलमा ए अहले सुन्नत के दस्तख़त हैं उन में मौलाना पीर सैय्यद सफ़दर निज़ामी सज्जादा नशीन ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया , मौलाना हेमायतुन्नज़र , मुफ़्ती आज़म राम पुर , मौलाना क़मरूद्दीन चिश्ती , बग़दादी कछोछा शरीफ़ , मुफ़्ती आज़म बरेली , मौलाना सैय्यद शाह मोईनुद्दीन जामा मस्जिद बम्बई , मौलाना जमालुद्दीन इमामे जुमा जामा मस्जिद कलकत्ता , मौलाना मुफ़्ती बुरहानुद्दीन इलाहाबाद , मौलाना फ़हीमुद्दीन कानपुरी और मौलाना फ़िरदौस जलाल सज्जादा नशीन बहराइची के नाम ख़ुसूसी तौर पर क़ाबिले ज़िक्र हैं।

यह बयान हुकूमत के रिकार्ड में भी मौजूद होना चाहिए नेज़ इस बयान को जमात अहले सुन्नत नम्बर 9 सिराज जुद्दौला लेन , कलकत्ता ने पम्फलेट की शकल में छपवाकर हिन्दुस्तान के मुख़तलिफ़ मुक़ामात पर तक़सीम भी कराये हैं।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इक्कीसवीं रमज़ान का आरज़ी व उबूरी समझौता

मुसलमानों के अकसरियती फ़िर्क़े से वोटों की ख़ातिर गुज़िश्ता हुकूमत की जांबरादराना व नाक़िस पालिसी और साबिक़ ज़िला इन्तिज़ामियां के ना अहल व नाकारा अफ़सरान की साज़िश हिमकत ए अमली ने दो सौ पचास साला अज़ादारी के क़दीम और कस्टमरी जुलूसों पर अरसा बीस साल से जो ग़ैर क़ानूनी और ग़ैर आयनी पाबन्दी आयद कर रखी है उस के ख़िलाफ़ शिया आवाम और क़ायदीन की तरफ़ से चलायी जाने वाली मुसलसल तहरीकों , मुज़ाहिरों , गिरफ़्तारियों और आख़िर में तीन नौजवानों बब्बू , भोपाली और इशरत अल्ताफ़ की आलमनांक ख़ुदसोज़ियों और क़ुरबानियों नेज़ नासबी सुन्नियों के कुछ मफ़ाद परस्त और ख़ुदसाख़्ता लीडरों की तरफ़ से जुलूसे मदहे सहाबा निकालने की ग़ैर उसूली ज़िद के नतीजे में मौजूदा हुकूमत की तरफ़ से नौ तशकील दो रूकनी तहक़ीक़ाती व मुसालेहती कमेटी के दानिशमंद ज़िम्मेदारों ने हज़रत अली (अ.स.) के यौमे शहादत के मौक़े पर इक्कीसवीं रमज़ान 1428 हिजरी , 21 जनवरी 1998 के लिये जो आरजी व अबूरी समझौता फ़रीक़ैन के दरमियान आयद 26 जनवरी और वस्ती मुद्दत के पार्लिमानी इलेक्शन के दौरान किसी फ़िर्क़े की तरफ़ से किसी तरह की गड़बड़ी को नज़र में रखते हुए 17/18 जनवरी 1998 को कराया है। इसकी असल इबारत इस किताब में शामिल कर रहे हैं –

और ये

तबसेरा –

इस आरज़ी और अगूबरी समझौते में सब से बड़ी ख़ामी यह है कि उसमें फ़रीक़ैन की तरफ़ से निकाले जाने वाले जुलूसों की अलामत व नौइय्यत का कोई ताय्युन का तज़केरा नहीं है और न ही पूरी इबारत में इशारतन व क़िनायतन कोई ऐसी निशानदेही की गयी है जिस से यह वाज़ेह हो कि शिया और सुन्नी दोनों फ़िरक़ों के अफ़राद को किस क़िस्म के जुलूस निकालने का हक़ व इख़्तियार हुकूमत और ज़िला इन्तिज़ामियां की तरफ़ से दिया गया है जब कि दुनिया का हर जुलूस ख़्वाह वह मज़हबी हो या सियासी अपनी अलामत व नौइय्यत की बिना पर ही अपनी शिनाख़्त का मज़हर होता है और जुलूस कहलाने का मुस्तहक़ क़रार पाता है। इस के बरअक्स अगर कोई जुलूस अपनी अलामत और नोइय्यत से महरूम है तो साहेबे फ़हम हज़रात उसे इजतेमायी रोड मार्च या दुम कटी रैली का नाम दे सकते हैं मगर जुलूस नहीं कह सकते ख़्वाह इस की इजतेमाई हैसियत कितनी ही मुस्तहकम क्यों न हो।

और ब ग़रज़े मुहाल अपनी ख़ुशफ़हमी की बिना पर थोड़ी देर के लिये हम यह मान लें कि यह आरज़ी समझौता बीस बरसों से रूके हुए अज़ादारी के क़दीम व रवायती जुलूस की बहाली और सौ साल से चले आ रहे क़ज़िय्याए मदहे सहाबा के किसी मुसबत हल का पेश ख़ेमा है तो फिर इसके साथ ही हमें यह भी तसलीम करना पड़ेगा की जुलूस हाय अज़ा की बहाली के नाम पर जुलूसे मदहे सहाबा को क़ुबूल कर के मौजूदा शिया क़यादत ने साबिक़ शिया क़यादत की इन तमाम मुस्तहब कोशिशों पर पानी फेर दिया है। जो इस मकरूह फ़ेल को रोकने के लिये सरकार नसीरूल मिल्लत , सरकार नजमुल मिल्लत , मौलाना सैय्यद कल्बे हुसैन साहब क़िब्ला उर्फ़ कब्बन साहब , मौलाना सआदत हुसैन ख़ां साहब क़िब्ला , मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद आलिम साहब क़िब्ला , मौलाना सैय्यद क़ायम मेंहदी साहब क़िब्ला , मौलाना सैय्यद अली शब्बर साहब क़िब्ला , मुजाहिदे अकबर सैय्यद क़ैसर हुसैन साहब रिज़वी ऐडवोकेट और मुजाहिदे मिल्लत सैय्यद अशरफ़ हुसैन साहब एडवोकेट वग़ैरा ने 1969 में तबर्रा एजीटेशन के दौरान की थीं और उन्हीं कोशिशों के नतीजे में हिन्दुस्तान के बाईस हज़ार शियों ने रज़ा काराना तौर पर ख़ुद को सरकारी जेलों के हवाले कर दिया था।

यह सच है कि मदहे सहाबा के ख़िलाफ़ शियों की तरफ़ से शुरू किया गया तबर्रा एजीटेशन चन्द माह जारी रह कर मौलाना अबुलकलाम आज़ाद और कुछ दीगर ख़ुश अक़ीदा सुन्नी उलमा की मुख़्लेसाना मदाख़ेलत के नतीजे में ख़त्म कर दिया गया था और मुजाहेदीने तबर्रा जेलों से अपने घरों को वापस आ गये थे लेकिन इसके बाद भी इन साबेक़ा उलमा ए कराम की अमली व असूली जद्दोजेहद जुलूसे मदहे सहाबा के ख़िलाफ़ उन की आख़री सांस तक जारी रही। अगर यह अक़ारिब उलमा चाहते तो उसी दौर में किसी ऐसे ही बाहमी समझौते की बिना पर जुलूसे मदहे सहाबा को क़ुबूल कर लेते और इस क़ज़िए को हमेशा के लिए दफ़्न कर देते। इसके बाद न सन् 1969 सन् 1974 सन् 1997 के फ़सादात होते और न शिया मारे जाते और न ही इमामबाड़ो और मस्जिदों में आग लगाई जाती लेकिन उन उलमा की ग़ैरत व हमियत ने जुलूसे मदहे सहाबा को कतई गवारा नहीं किया आख़िर क्यों , यह मौजूदा शिया क़यादत के लिए एक लमहा ए फ़िकरिया और एक इन्तेहाई संजीदा व ग़ौर तलब मसला ह । हम मौजूदा शिया क़ायदीन की मुख़लेसाना कोशिशों पर तन्क़ीद या किसी क़िस्म का शक नहीं करते लेकिन ये ज़रूर कहेंगे कि समझौता करते वक़्त इन्हें इस नाज़ुक तरीन मसले को भी नज़र में रखना चाहिए था। इस समझौते का दूसरा अफ़सोसनांक पहलू यह है कि शिया क़ायदीन को इशतेराफ़ व ताव्वुन से अरबाबे हुकूमत व ज़िला इन्तिज़ामियां ने इक्कसवीं रमज़ान को ही सुन्नियों के लिये मदहे सहाबा की वह गुंजाइश भी पैदा कर दी जिस के लिये वह सौ साल से बेचैनी के आलम में हाथ पैर मार रहे थे। हालांकि यह तारीख़ एक अज़ीम तरीन ग़म से वाबस्ता है जबकि जुलूसे मदहे सहाबा का इस ग़म की तारीख़ से कोई रबत नहीं है इसका इरतबात चौदह सौ साल से सिर्फ़ और सिर्फ़ शियों के अव्वलीन इमाम व पेशवा और पैग़म्बर इस्लाम के हक़ीक़ी जानशीन और दामाद हज़रत अली इब्ने अबूतालिब (अ.स.) की शहादत से है जिसे शिया फ़िर्क़ा यौमे ग़म से ताबीर करता है और गिरया और मातम के ज़रिये अपने आंसुओं का नज़राना बारगाहे अलवी में पेश करता है।

इस ग़म की तारीख़ में सुन्नियों की तरफ़ से मदहे सहाबा का जुलूस निकालना दुशमनाने अली व मुख़ालेफ़ीने अहलेबैत (अ.स.) की तारीफ़ व तौसीफ़ में बेसुरे गीत गाना इज़्हारे मसर्रत करना सड़कों पर उछलना कूदना क़दम क़दम पर फ़ूलों का बरसाया जाना और एक दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद का देना यह तमाम बातें शियों की दिल आज़ारी के मतराकिफ़ नहीं तो फ़िर क्या है। क्या मौजूदा शिया क़यादत इस उबूरी समझौते पर अपने दस्तख़तों के ज़रिये मोहर तस्दीक़ सबत करते वक़्त इन तमाम बातों से बे नियाज़ व बेगाना थीं ? या अरबाब इक़्तेदार के दबावों में थी।

अगर कोई यह तावील करे कि हज़रत अली (अ.स.) सुन्नियों के भी चौथे ख़लीफ़ा हैं इस लिये उनके यौमे शहादत पर सुन्नी फ़िरक़े को भी जुलूस की इजाज़त दी गयी है तो उस से मैं सवाल करना चाहूंगा कि तो फिर जुलूसे मदहे सहाबा की यह धींगा मुश्ती क्यों सुन्नी हज़रात भी अपने चौथे ख़लीफ़ा की शहादत का ग़म मनाते सियाह लिबास पहनते या बाज़ुओं पर काली पट्टियां बाधं कर ख़ामोश जुलूस निकालते और मस्जिदों में क़ुरआन ख़्वानी का एहतेमाम करते मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ मदहे सहाबा की हंगामा आराई और फ़ितना अंगेज़ी थी। क्या शिया फ़िरक़े के लिए दिल आज़ारी का सबब नहीं था ?

इस समझौते में तीसरी ख़ामी यह है कि जब दोनों फ़िरक़ों के जुलूसों का प्रोग्राम दोनों फ़िरक़ों के नुमाइन्दों की रज़ामन्दी से तय हो चुका था और यह भी फ़ैसला हो चुका था कि किसी फ़िरक़े की तरफ़ से न ऐसी कोई बात कही जायेगी और न की जायेगी जिस से दूसरे फ़िरक़े को तकलीफ़ पहुंचे तो ऐसी सूरत में हुकूमत की तरफ़ से तश्क़ील शुदा दो रूकनी कमेटी का यह फ़र्ज़ था कि वह दोनों फ़िरक़ों के जुलूसों के दरमियान सरकारी तौर पर मजिस्ट्रेट सतह के ऐनी मुशाहेदीन मुक़र्रर करती जो यह देखते कि कौन फ़िर्क़ा किस फ़िर्क़े की दिल आज़ारी कर रहा है ताकि इन्हीं मुशाहेदीन की रिपोर्ट की रौशनी में आइन्दा फ़ैसला किया जाता।

बहर हाल यह आरज़ी समझौता मजमुयी तौर पर एक ऐसा सरकारी खिलौना है जिस के ज़रिये शियों को बहलाया गया है और सुन्नियों के दैरीन मक़सद को पूरा किया गया है ताकि इक्कीस्वीं रमज़ान को शिया फ़िरक़े की ओर से कोई एहतेजाज न हो सके और छब्बीस जनवरी (यौमे जम्हूरिया) , ईद के त्योहार और फ़रवरी में होने वाली वस्ती मुद्दत के पार्लिमानी इलेक्शन पर इसका कोई असर न पड़ सके क्योंकि शिया फ़िरक़े की तरफ़ से 21 रमज़ान को हर हालत में अज़ादारी का जुलूस निकालने का ऐलान पहले ही हो चुका था और ज़िला इन्तिज़ामियां इस ऐलान से बा ख़बर थी।

ऐनी मुशाहेदा

इस समझौते के ज़ैल में सुन्नियों के तर्ज़े अमल और उन के जुलूसों का आंखों देख़ा हाल मैं अपनी किताब में शामिल करना चहाता हूं लेहाज़ा इक्कीसवीं रमज़ान को मुक़र्रेरा वक़्त से कुछ पहले पूरी हिम्मत और मुकम्मल अजम व इरादे के साथ मैं भोलानाथ कुआं से मुत्तसल हकीम अब्दुलवली पार्क पहुंचा जहां से सुन्नियों का जुलूस उठने वाला था क़ुरआन मजीद की तिलावत के बाद ठीक दस बज कर पचपन मिनट पर झण्डे और बैनर के साथ सुन्नी यूथ फेडरेशन का पहला जत्था पार्क से निकला और इस के साथ ही अन्जुमन तहफ़्फ़ुज़े सहाबा और दीगर अन्जुमने अपने अपने झण्डो को सम्भाले हुए सड़क पर आना शुरू हो गयीं और नारे तकबीर के साथ साथ यह सदा भी फ़िज़ा में बुलन्द होने लगी।

सहाबा का परचम उठाए चला चल।

क़दम आगे आगे बढ़ाये चला चल।

साढ़े ग्यारह बजे तक इस जुलूस में शरीक होने वाली सारी अन्जुमने अपने साज़ो सामान के साथ रोड पर आ चुकी थीं झण्डो की तादाद तक़रीबन 35 -40 के दरमियान थी जिन के खुले हुए फरैरे पर अबूबकर , उमर , उस्मान , मरवान , अबू सुफ़ियान , माविया , तलहा और ज़ुबैर के नामों के अलावा और भी कुछ बनी उमैय्या बनी अब्बास के ज़ालिम व जाबिर खोलफ़ा के नाम लिखे हुए थे और एक बैनर पर यह तहरीर था कि सहाबा सितारों की मांनिन्द हैं अगर उनकी पैरवी करोगे तो निजात पाओगे।

अंजुमने जो कलाम सुना रही थीं उन में मिनजुमला दीगर दिल आज़ार और क़ाबिले एतेराज़ अशआर के दो शेर ख़ुसूसी तौर पर क़ाबिले तवज्जो हैं –

1.जिन्हें हम समझते हैं बेहतर से बेहतर ,

वह सारे सहाबा थे हैदर से बेहतर।

2.जहां होती रहती है मदहे सहाबा ,

वह घर है ज़माने के हर घर से बेहतर।

क्या यह दोनों शेर शिया फ़िरक़े के लिए दिल आज़ारी व तकलीफ़ का सबब नहीं हैं और क्या इन शेरों के ज़रिये सुन्नियों की तरफ़ से सरही तौर पर मुहायदे की ख़िलाफ़ वरज़ी नहीं की गई। आख़िर शिया फ़िरक़ा इस क़िस्म की इशतेआल अंगेज़ियों को मुस्तक़बिल में कब तक बर्दाश्त करेगा। आइंदा सरकारी सतह पर होने वाली मीटिंगों में मौजूदा शिया क़यादत को इस दिल आज़ार अक़दाम और समझौते की ख़िलाफ़वरज़ी को नज़र में रखते हुए आवाज़ ए एहतेजाज बुलन्द करना चाहिए।

सुन्नियों और वहाबियों दोनों समलक के लोगों पर मुशतमिल इस जुलूस में शोरका की तादाद चार और पांच हज़ार के दरमियान थी और पढ़े लिखे लोग बहुत कम थे जिस से यह अन्दाज़ा भी लगाया जा सकता है कि लखनऊ शहर में अस्सी फ़ीसदी वहाबियत फैल चुकी है जिस का नसबुल ऐन ही जुलूसे मदहे सहाबा की आड़ में अज़ादारी के जुलूसों को रोकना और फ़ितना व फ़साद पैदा करना है। चुनान्चे इस जुलूसे मदहे सहाबा में वहाबी फ़िरक़े के जो लोग शरीक थे उन में कुछ लोगों के चेहरों पर सफ़फ़ाक़ना शरारत आमेज़ और फ़ातेहाना मुस्कुराहत थी कुछ के चेहरों पर पुलिस व इंतिज़ामियां के अफ़सरों व हुक्काम और पी 0 ए 0 सी 0 का ख़ौफ़ तारी था और कुछ के चेहरे हर क़िस्म के जज़्बात व एहसासात से आरी थे।

अर्ज़ कि ग़ुरूर व अनानियत के साज़ पर अपनी फ़तह व कामयाबी के तराने अलापता हुआ और अपनी मन मानी करता हुआ यह जुलूस जब अकबरी गेट की ढाल पर पहुंचा तो पुल ग़ुलाम हुसैन पर वाक़ेया ए चारयारी मस्जिद की तरफ़ मुड़ने के बजाय कुछ शर पसन्दों ने आगे बढ़ने की कोशिश की शायद इनका इरादा शहमीना या टीले वाली मस्जिद की तरफ़ पेश क़दमी का रहा हो बहर हाल मौक़े पर मौजूद पुलिस व इंतिज़ामियां के होशमंद अफ़सरों ने मौक़े की नज़ाकत को फ़ौरन भाप लिया और थोड़ी सी कशमकश के बाद इन्हें पुल ग़ुलाम हुसैन की तरफ़ मोड़ने पर मजबूर कर दिया इसके बाद मैं वहां से करबलाये तालकटोरा की तरफ़ रवाना हो गया क्योंकि मेरा मक़सद पूरा हो चुका था मेरे नज़दीक़ सुन्नियों की तरफ़ से समझैते की ख़िलाफ़वरज़ी बिलकुल इसी तरह अमल में लाई गयी जिस तरह इमाम हसन (अ.स.) से मुहायदे के बाद मआविया की तरफ़ से अमल में लायी गयी थी।