हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत लेखक:
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

जंगे जमल की रौशनी में हज़रत आयशा

हज़रत आयशा जो आम मुसलमानों के नज़दीक़ एक आलिमा और मुहद्दिसा का दर्जा रखती हैं , इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ थीं कि ख़ूने उस्मान के क़िसास का उन्हें कोई हक़ नहीं है दर हक़ीक़त ये हक़ हुकूमते वक़्त का है या फिर मक़तूल के वारिसों को ये हक़ हासिल है।

हज़रत आयशा जो न मुसलमानों के इक़तिदार की मालिक थीं न उस्मान के वारिसों में शामिल थीं , इसके बावजूद हुकूमते वक़्त से टकराने के लिये मैदान में उतर आईं और उन्होंने मुसलमानों की एक अज़ीम जमीअत को मौत के मुंह में झोंक दिया हालां कि परवरदिगारे आलम ने उन्हें अपने घर की चहारदीवारी में रहने का हुक्म दिया था जैसा कि क़ुर्आन में हैः-

ऐ रसूल की बीवियों ! अपने घरों में बैठी रहो , ज़माना ए जाहिलियत की तरह बन ठन के न निकलों।

चुनान्चे उम्मुल मोमिनीन ज़ैनब बिन्ते हजश और उम्मुल मोमिनीन सौदा ने इस क़ुर्आनी हुक्म के एहतिराम में मदीने से बाहर निकलना गवारा न किया और ज़िन्दगी भर घर की चहारदीवारी में क़ैद रहीं और ये औरतों का शेवा भी नहीं है कि वो घर का गोशा छोड़ कर मैदाने कारज़ार में फांद पड़ें और क़त्लों ग़ारतगरी का बाज़ार गर्म करें। ख़ुद आयशा का बयान है कि मैंने पैग़म्बर से जिहाद की इजाज़त चाही तो उन्होंने फ़रमाया कि औरतों का जिहाद हज है। ( 1)

और आयशा का यही क़ौल भी है कि औरतों के हाथ में चरख़ा उस नेज़े से कहीं बेहतर है जो राहे ख़ुदा में लड़ने वाले मुजाहिद के हाथ में होती है। ( 2)

लेकिन लुत्फ़ की बात तो ये है कि इन तमाम बातों से मुत्तिला होने के बावजूद उम्मुल मोमिनीन आयशा मुसलमानों की एक बड़ी जमाअत के साथ मक्के से वारिदे बसरा हुईं और लशकर की क़ियादत करते हुए मैदानें जंग में कूद पड़ीं। उन्होंने ये भी न सोचा कि इस इक़दाम के नतीजे में हज़ारों औरतों का सुहाग उजड़ जायेगा और हमारें बच्चे यतीमी की गोद में चले जायेंगें। उन्होंने नताइज की परवाह किये बग़ैर मुसलमानों को तलवारों के सामने ला कर खड़ा कर दिया।

इस जंग में अतलाफ़े जान , क़त्लों ग़ारतगरी और तबाही व बरबादी की पूरी पूरी ज़िम्मेदारी हज़रत आयशा पर आइद होती है और उनके दौर में भी लोगों के दरमियान यही तास्सुर था। चुनान्चे एक मरतबा एक शख़्स ने ( जिसके क़बीले के सैकड़ों आदमी इस जंग में मारे गये थे) हज़रत आयशा से पूछा कि ऐ उम्मुल मोमिनीन ! आप उस औरत के बारे में क्या फ़रमाती हैं जिसने अपने बच्चे को मार डाला हो ? कहा वो औरत दोज़ख़ में जाएगी। उस शख़्स ने फिर पूछा कि उस औरत के बारे में आपका का क्या ख़्याल है जिसने अपने तीस हज़ार जवांसाल बेटों को एक ही मक़ाम पर क़त्ल कर दिया हो ?

ये सुन कर उम्मुल मोमिनीन भड़क उठीं और फ़रमाने लगीं कि ऐ ख़ुदा उस दुश्मन औरत को दोज़ख़ में न जाने देना। ( 3)

बहरहाल जमल का मारका हज़रत आयशा का कोई क़ाबिले क़द्र कारनामा नहीं था। उसे ख़ुद उनके ख़ानदान के अफ़राद भी बाइसे नांगवार समझते थे जैसा कि इस रवायत से ज़ाहिर हैः-

हज़रत आयशा ने एक मौक़े पर अपने भतीजे इब्ने अबी अफ़ीक से किसी ज़रूरत के तहत खच्चर मांगा तो उन्होंने जवाब में क़ासिद से कहा कि उम्मुल मोमिनीन से कहना कि अभी तक तो हम यौमे जमल का धब्बा नहीं धो सके अब क्या यौमे बग़ल बरपा करने का इरादा है। ( 4)

इब्ने अबी अक़ीक़ ने तंज़न ये बात कही थी मगर यौमे जमल के बाद यौमे बग़ल भी दुनिया वालों ने देख लिया , उस वक़्त जब इमामे हसन (अ.स) का जसदे मुबारक दफ़्न की ग़रज़ से हुजरा ए रसूल (स.अ.व.व) में लाया गया और मरवान बिन हकम अपने हमराहियों के साथ दफ़्न में माने हुआ तो उस मौक़े पर आयशा भी खच्चर पर सवार हो कर उसके साथ थीं जैसा कि मोतज़ली का बयान है कि , हज़रत आयशा उस दिन खच्चर पर सवार हुईं जो मरवान और उसके साथियों को उभार रहीं थीं। ( 5)

और मोहतरमा ने यहां तक उभारा कि सत्तर तीर इमाम के जनाज़े में पेवस्त हो गये।

हज़रत आयशा क़िसासे ख़ूने उस्मान के नाम पर हज़रत अली के ख़िलाफ़ एक अज़ीम लशकर फ़राहम करने पर इस वजह से क़ादिर हो गयीं कि लोगों के दिलों में उनका बड़ा एहतिराम था , बड़ी इज़्ज़तों तौक़ीर थी और लोग उनके मुतीओ फ़रमा बरदार थे।

हज़रत आयशा को सियासत में महारत और तक़रीर पर उबूर हासिल था। वो इन्तिहाई फ़सीहो बलीग़ गुफ़्तुगू फ़रमाती थीं जिसका नमूना वो जवाब है जो उन्होंने उम्मे सलमा को दिया था , जब उम्मे सलमा ने उन्हें हज़रत अली के ख़िलाफ़ ख़ुरूज पर लानत मलामत की थी तो उन्होंने फ़रमाया था कि मैं बरसरे पैकार दो जमाअतों में सुल्ह कराने जा रहीं हूं। इसी तरह उनका वो फ़िक़रा जो उन्होंने बसरा में मुरीद के मक़ाम पर जब तल्हा व ज़ुबैर की तक़रीर के बाद लोगों में इख़तिलाफ़ के मौक़े पर कहा था कि तुम ने उस्मान को उनकी तौबा करने के बाद मार डाला।

उम्मुल मोमिनीन से ये कौन पूछता कि आप तल्हा और ज़ुबैर के अलावा क़त्ले उस्मान का ज़िम्मेदार और कौन है ? अगर आपने मुसलमानों को बरग़लाया भड़काया न होता या उनके क़त्ल का फ़त्वा न दिया होता तो ये नौबत ही क्यों आती ?

फिर आपने अपने दिल का राज़ उगलते हुए फ़रमाया था कि ऐ मुसलमानों ? तुम ने इब्ने अबी तालिब की बैअत बग़ैर राय मशवरे के ज़बरदस्ती और ग़स्बी तौर पर कर ली है , इस ख़िलाफ़त को फिर शूरा पर रखो और शूरा के मिम्बरान वो हों जिन्हें उमर ने मुनतख़ब किया था लेकिन इस शूरा में उसे शामिल न करो जिसने क़त्ले उस्मान में हिस्सा लिया हो।

आयशा की तक़रीरी गुफ़्तुगू का ये हिस्सा उनके ज़बरदस्त सियासी तदब्बुर का पता देता है। उनका मक़सद ये था कि हज़रत अली ख़िलाफ़त से महरूम हो जायें क्यों कि उस वक़्त मिम्बराने शूरा में सिर्फ़ चार अफ़राद यानी अली (अ.स) तल्हा , ज़ुबैर और सअद इब्ने अबी विक़ास बाक़ी थे और हज़रत अली पर चूंकि उन्होंने क़त्ले उस्मान की तोहमत आइद की थी लिहाज़ा वो शूरा में दोबारा शरीक न किये जाते अब रह गये सअद तो उनको भी मोहतमीम कर देना उनके लिए बहुत आसान था लिहाज़ा उन दोनों के बाद सिर्फ़ तल्हा और ज़ुबैर बाक़ी रह जाते हैं और उन्हीं में से कोई एक ख़लीफ़ा हो जाता और अगर बिल फ़र्ज़ तल्हा और ज़ुबैर के साथ हज़रत अली को भी शूरा में शामिल होने की इजाज़त मिल भी जाती तो भी वो तन्हा एक तरफ़ होते और तल्हा व ज़ुबैर एक तरफ़ जैसा कि उमर ने ज़ाब्ता मुअय्यन कर दिया था कि जिधर ज़्यादा अफ़राद होंगे उधर ही ख़िलाफ़त रहेगी। इसी बिना पर ख़िलाफ़त तल्हा और ज़ुबैर में ही मुनहसिर होती और हज़रत अली के ख़िलाफ़ हंगामा बरपा करने की अस्ल ग़रज़ भी यही थी।

तल्हा और ज़ुबैर का मौक़िफ़

जंगे जमल से वाबस्ता तल्हा व ज़ुबैर का मौक़िफ़ भी हज़रत आयशा के मौक़िफ़ से कम नहीं था। उन लोगों ने बसरा पहुंचते ही क़िसासे उस्मान के नाम से क़त्ले आम शुरू कर दिया और बग़ैर ये सोचे कि कौन मुजरिम है और कौन नहीं। सब को तलवार की बाढ़ पर रख लिया। हालांकी उन लोगों को ये भी हक़ नहीं पहुंचता था कि वो अहले बसरा को क़िसासन क़त्ल करते जैसा कि हम तहरीर कर चुके हैं कि ये हक़ मक़तूल के वारिस या हुकूमत का है। तल्हा व ज़ुबैर न तो ख़लीफ़ा ए वक़्त थे और न उस्मान के क़राबतदार कि बरबिना ए क़राबतदारी उन्हें ये हक़ हासिल होता। फिर हैरत और तआज्जुब की बात तो ये है कि यही लोग बैअत शिकनी को जाइज़ और अपने इस ज़ाहिराना इक़दाम को दुरूस्त समझते हुए हज़रत को क़त्ले उस्मान का ज़िम्मेदार क़रार देते रहे थे , हालां की ये उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि क़त्ले उस्मान के सिलसिले में हज़रत अली का मौक़िफ़ क्या था और ख़ुद उनका अपना तर्ज़े अमल क्या था।

जैसा कि अमीरूल मोमिनीन का इरशाद है किः-

ख़ुदा की क़सम तल्हा और ज़ुबैर और आयशा अच्छी तरह जानते हैं कि वो बातिल पर हैं और मैं हक़ पर हूं। ( 6)

अगर ये लोग हक़ीक़तन अमीरूल मोमिनीन को क़त्ले उस्मान का ज़िम्मेदार समझ रहे थे तो उन्हें चाहिए था कि बैअत से पहले ही आवाज़ उठाते मगर न क़त्ल के मौक़े पर और न मानेहा ए क़त्ल और बैअत के दर्मियान मुद्दत में इन लोगों ने कोई आवाज़ बलन्द की न हज़रत अली पर कोई इल्ज़ाम आइद किया और न ही क़त्ल का ज़िम्मेदार ठहराया जैसा कि अक़दुल फ़रीद में है किः-

किसी ने हज़रत अली पर क़त्ले उस्मान की तोहमत नहीं लगायी यहां तक कि उनकी बैअत हुई और जब बैअत हो चुकी तो कुछ लोगों ने उनपर इल्ज़ाम लगाना शुरू कर दिया। ( 7)

इन मुत्तहम करने वालों के सरगना यही तल्हा और ज़ुबैर थे और इनकी ज़बाने भी उसी वक़्त खुलीं जब उनके मफ़ादात पर ज़र्ब लगी। और अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने उन्हें कूफ़े और बसरे की हुकूमत देने से इन्कार कर दिया।

अगर इन हज़रात की क़िसास तलबी में हमदर्दी और ख़ैर ख़्वाही का कोई जज़्बा था तो उसे क़त्ल के मौक़े पर ज़ाहिर होना चाहिए था और हज़रत अली के साथ पर बैअत करने के बजाए उनसे क़िसास का मुतालबा करना चाहिए था , मगर ये लोग उस वक़्त तक ख़ामोश रहे जब तक इन्हें इदारत की उम्मीद व तवक़्क़ो रहीं और जब उधर से मायूसी हुई तो क़िसास के लिए खड़े हो गयें ताकि इस क़िसास की आड़ में अपने इक़तिदार का रास्ता हमवार कर सकें।

वाक़िआत की रौशनी में बग़ैर तरदीद ये बात कही जा सकती है कि इस शोरिशों हंगामा का मक़सद सिर्फ़ हुसूले इक़तिदार था। चुनान्चे इन लोगों ने बैअत तोड़ कर दूसरों को बैअत शिकनी पर उभारा और हकीम बिन जबला से ख़ुले अल्फ़ाज़ में कहा कि जब तक उस्मान बिन हुनैफ़ हज़रत अली की बैअत नहीं तोड़ेंगे रिहा नहीं किए जायेंगे। और ख़ुद हज़रत अली के सामने भी इस अम्र का इज़हार किया कि वो उन्हें ख़िलाफ़त का अहल नहीं समझते और सईद बिन आस से ये भी वाज़ह कर दिया कि हम उस्मान के बेटों में से किसी को ख़लीफ़ा नहीं बनाएगें बल्कि हम दोनों तल्हा व ज़ुबैर में से जिसे लोग मुनतख़ब करेंगे वही ख़लीफ़ा होगा और यही वजह थी कि इन लोगों ने पहले क़त्ले उस्मान का बन्दोबस्त किया और उनके क़त्ल के बाद उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा की ताईद के सहारे अमीरूल मोमिनीन के मुक़ाबले पर उतर आऐ।

बहरहाल वो उम्मुल मोमिनीन आयशा हों या तल्हा और ज़ुबैर उनके इस इक़दाम का न कोई शरई जवाज़ है और न अख़लाक़ी। इनकी शख़्सियतें कितनी ही अहम सही मगर जुर्म बहरहाल जुर्म होता है ख़्वाह उसका मुर्तकिब कोई भी हो। इन लोगों ने एक ऐसा ख़ूंरेज़ इक़दाम किया जिससे न तो इन्कार की कोई गुंजाइश है और न ही कुश्तो ख़ून की ज़िम्मेदारी से इन्हें बरी किया जा सकता है।

अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर

अब्दुल्लाह , हज़रत आयशा की हक़ीक़ी बहन अस्मा बिन्ते अबू बकर के बेटे थे। आयशा इन्हें बेहद चाहती थीं। उनके दिल में अब्दुल्लाह की मोहब्बत ऐसे थी जैसे किसी मां के दिल में इकलौते बेटे की होती है। इन्हीं अब्दुल्लाह के नाम पर आपकी कुन्नियत उम्मे अब्दुल्लाह पड़ी। हिशाम बिन उर्वा का बयान है कि मैंने आयशा को जैसी दुआ इब्ने ज़ुबैर के हक़ में करते सुनी वैसी किसी दूसरी मख़लूक़ के लिए नहीं सुनी।

एक बार आयशा बीमार हुईं तो अब्दुल्लाह उन्हें देखने आए और दहाढ़ें मार मार कर रोने लगे। आयशा ने उन्हें सर उठा कर देखा तो बदहवास हो गयीं और ख़ुद भी रोने लगीं और फ़रमाया कि ऐ अब्दुल्लाह तुम से बढ़ कर दुनिया में मुझे कोई भी अज़ीज़ नहीं। ( 8)

जंगे जमल में जब मालिके अशतर ने इन्हें अधमुआ कर के डाल दिया और ये शदीद ज़ख़्मी हुए तो आयशा उस वक़्त तक के बेक़रारी के बिस्तर पर करवटें बदलती रहीं जब तक उन्हें अब्दुल्लाह के ज़िन्दा बच जाने की ख़बर नहीं मिल गयी। तारीख़ों से पता चलता है कि हज़रत आयशा ने उस शख़्स को दस हज़ार दिरहम दिये जिसने उनके बच जाने की ख़ुशख़बरी सुनाई थी। ( 9)

आयशा ने इन्हीं अब्दुल्लाह को अपने हुजरे में दफ़्न करने की वसीयत भी की थी ये वही हुजरा था जिसमें फ़रज़न्दे रसूल हज़रत इमामे हसन (अ.स) को उन्होंने दफ़्न न होने दिया था। ( 10)

अब्दुल्लाह की परवरिश और नशोनुमा बचपन से ही अदावत और नफ़रत की आग़ोश में हुई। ये बनी हाशिम ख़ुसूसन आले मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के सख़्त तरीन दुश्मन थे। इन्हीं का कारनामा था कि अपने बाप ज़ुबैर को भी इन्होंने हज़रत अली का दुश्मन बना दिया।

अमीरूल मोमिनीन का इरशाद हैः-

ज़ुबैर उस वक़्त तक हम अहलेबैत के बही ख़्वाह रहे जब तक कि उनका मनहूस बेटा अब्दुल्लाह जवान नहीं हुआ। ( 11)

अब्दुल्लाह की आले मोहम्मद (स.अ.व.व) से अदावत इस इन्तिहा को पहुंची हुई थी कि उन्होंने अपने ज़माना ए ख़िलाफ़त में चालीस जुम्अ (नमाज़ के मौक़े पर) पैग़म्बर (स.अ.व.व) पर दुरूद नहीं भेजा। उनका कहना था कि इससे रसूल (स.अ.व.व) के घराने की नाक ऊंची होती है। एक दूसरी रवायत में है कि उन्होंने जुम्अ में दुरूद न भेजने की वजह ये बयान की कि रसूल के घर वाले दुरूद में अपना नाम सुन कर अपना सर बलन्द करेंगे। ( 12)

इब्ने अब्बास से एक मरतबा अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर ने कहा , कि मैं चालीस बरस से अहलेबैत की अदावत अपने दिल में छिपाए हुए हूं। इन्हें हज़रत अली से ख़ुसूसी और पैदाइशी अदावत थी और ये अमीरूल मोमिनीन को बुरा भला कहा करते थे। ( 13)

यही अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर थे जिन्होंने इब्ने अब्बास , मोहम्मदे हनफ़िया और सत्तरह बनी हाशिम के अफ़राद को मक्के में महसूसर कर के पुख़्ता इरादा कर लिया था कि इन सब को ज़िन्दा जला दें और इस मक़सद की तकमील के लिए उन्होंने लकड़िया भी इकट्ठा कर ली थीं। जनाबे मुख़्तार को जब ये मालूम हुआ तो उन्होंने चार हज़ार सिपाहियों का एक दस्ता रवाना किया जो इन्तिहाई तेज़ी से मन्ज़िले तय करता हुआ मक्के आया और उसने उन लोगों की जान बचायी। ( 14)

मगर अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर के दिल में ख़ानवादा ए बनी हाशिम से दुश्मनी की जो आग भड़क रही थी वो बदस्तूर भड़कती रही , उन्होंने एक और कोशिश की कि मोहम्मदे हनफ़िया और उनके साथ तमाम बनी हाशिम को इकट्ठा कर के उन्हें क़ैद कर दिया और क़ैदख़ाने में लकड़ियां भरवा दीं और उनमें आग लगा दी। इस मरतबा अबू अब्दुल्लाहे जदली ऐन वक़्त पर अपने हमराहियों के साथ मौक़े पर पहुंच गये और बड़ी कोशिश के बाद आग पर क़ाबू हासिल कर के उन लोगों को रिहा कराया। ( 15)

यही अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर थे जिन्होंने अपने बाप के ख़यालात को तबदील करा के उन्हें हज़रत अली का दुश्मन बनाया और तल्हा वग़ैरह के साथ मिलकर आयशा को मजबूर किया कि वो अली से जंग करें। आयशा के दिल में अली की तरफ़ से अदावतों कुदूरत पहले ही से थी , इब्ने ज़ुबैर की तहरीक को तरग़ीब ने उन्हें पूरी तरह अमादाए क़िताल कर दिया।

मोवर्रेख़ीन का कहना है कि जब हव्वाब मे आयशा ने कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनीं तो उन्हें पैग़म्बर की हदीस याद आ गयी और उन्होंने चाहा की यहीं से लौट जायें। इब्ने ज़ुबैर ने उन्हें यक़ीन व इतमिनान दिलाया कि जिसने इस मक़ाम को हव्वाब बताया है वो झूठा है , और ये हव्वाब नहीं है और इस क़दर बज़िद हुए कि आयशा से अपने झूठ को मनवा कर उन्हें पेश क़दमी के लिए मजबूर कर दिया।

इन तमाम हक़ाइक़ और शवाहिद की रौशनी में हम ये कह सकते है कि जंगे जमल के बानियान में अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को नज़र अन्दाज़न नहीं किया जा सकता।

हज़रत आयशा की शरमिंदगी

अल्लामा इब्ने असीर का बयान है कि एक दिन उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा के सामने यौमे जमल का तज़किरा छिड़ा तो आयशा ने पूछा कि क्या इस दिन को लोग यौमे जमल के नाम से याद करते हैं ? लोगों ने कहा , जी हां उस पर आयशा ने कहा , काश उस रोज़ मैं भी पैग़म्बर की दूसरी बीवियों की तरह घर में बैठी रहती........ फ़िर फ़रमाया कि अगर रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के सुल्ब से अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर , अब्दुर रहमान बिन हारिस जैसे दस बेटे मेरे पैदा हो जाते तो मुझे इतनी ख़ुशी न होती जितनी घर में बैठ कर होती। ( 16)

मसरूक से रवायत है कि आयशा जब क़ुर्आने मजीद की वो आयात पढ़ती जिसमें कहा गया है कि , ऐ अज़्वाजे पैग़म्बर (स.अ.) अपने घरों में बैठी रहना , तो इतना रोतीं कि उनकी चादर आसुंओं से तर हो जाती। ( 17)

बलाग़ातुन निसां में है कि वाक़ेया ए जमल के बाद आयशा हर वक़्त मुज़तरिबो परेशान रहने लगीं थीं। लोगों ने पूछा की आप तो उम्मुल मोमिनीन हैं , आप पर इस क़दर इज़तेराबी कैफ़ियत क्यों तारी रहती है ? फ़रमाया , यौमे जमल मेरे गले में अटका हुआ है। काश उस दिन से पहले ही मैं मर गयी होती या उस दिन के लिए पैदा ही न हुई होती। ( 18)

हज़रत आयशा ने (अपनी किसी बीमारी के मौक़े पर) बतौरे वसीयत लोगों से कहा था कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के बाद मैंने नये नये काम किये हैं लिहाज़ा अगर मैं मर जाऊं तो मुझे रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के पास दफ़्न करना।

ज़हबी का कहना है कि नये कामों से आयशा की मुराद जंगे जमल में उनकी शिरकत है। ( 19)

1. बुख़ारीः- जिल्द 2 पेज न. 101

2. अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 2 पेज न. 6

3. अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 3 पेज न. 108

4. अल अनसाबुल अशरफ़ः- जिल्द 1 पेज न. 428

5. शरह इब्ने आबिल हदीदः- जिल्द 4 पेज न. 17

6. इस्तीयाबः- जिल्द 2 पेज न. 214

7. अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 3 पेज न. 93

8. 9. 10. तहज़ीब इब्ने असाकरः- जिल्द 4 पेज न. 400- 402, शरह नहजुल बलाग़ाः- जिल्द 4 पेज न. 442- 443

11. मोरव्वेजुज़ ज़हब मसूऊदी बरहाशिया तारीख़े कामिलः- पेज न. 163, 164 जिल्द 5, याक़ूबीः- जिल्द 3 पेज न. 807

12. मोरव्वेजुज़ ज़हब मसूऊदी बरहाशिया तारीख़े कामिलः- पेज न. 163, 164 जिल्द 5, याक़ूबीः- जिल्द 3 पेज न. 807

13. मोरव्वेजुज़ ज़हबः- जिल्द 5 पेज न. 163- 164, तारीख़े याक़ूबीः- जिल्द 3 पेज न. 877

14. तहज़ीबः- जिल्द 7 पेज न. 8- 9, मुरव्वेजुज़ ज़हबः- जिल्द 5 पेज न. 158

15 आग़ानीः- जिल्द 9, पेज न. 16

16. असदुल ग़ाबाः- जिल्द 4 पेज न. 284, तबक़ात इब्ने सअदः- जिल्द 5 पेज न. 11

17. तबक़ात इब्ने सअदः- जिल्द 8 पेज न. 56

18. बलाख़तुन निसाः- पेज न. 8, तज़किरा ए ख़्वासुल उम्मा

19. अल नबलाः- जिल्द 2 पेज न. 134, मुतराक हाकिमः- जिल्द 4 पेज न. 6

अहदे माविया और आयशा

माविया इब्ने अबी सुफ़ियान और हज़रत आयशा के किर्दारों अमल में हैरत अंगेज़ हद तक हम आंहगी यकसानियत और मुशाबेहत नज़र आती है। जिस तरह माविया , अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) के अज़ली व जानी दुश्मन थे। उसी तरह आयशा हज़रत अली की अज़ली मुख़ालिफ़ और जानी दुश्मन थी।

जिस तरह अमीरूल मोमिनीन से माविया उम्र भर बरसरे पैकार रहे उसी तरह आयशा भी अली (अ.स) से लड़ती रहीं। जिस तरह माविया के दिल में अबू तुराब (अ.स) के ख़िलाफ़ आतिशे बुग़ज़ों इनाद भड़कती रही , उसी तरह आयशा के दिल में भी हमेशा अदावतों नफ़रत का ज्वालामुखी भड़कता रहा। जिस तरह शहादते अमीरूल मोमिनीन के बाद माविया ने हज़रत अली पर मिम्बर से तबर्रा और सबो शित्म करा के अपने दिल की भड़ास निकाली , उसी तरह आयशा ने हज़रत अली की ख़बरे शहादत सुन कर शुक्र का सजदह किया और तरबिया अशआर पढ़े और ख़ुशी के गीत गा कर अपना दिल ठंडा किया।

ये वो मुशतरक ख़ुसूसियात थीं जिन्होंने माविया और आयशा के दर्मियान क़ुरबतों में ऐसी हम आंहगी और नज़दीक़ी पैदा कर दी कि माविया और उसके हुक्काम व उम्माल की नज़र में आयशा की क़द्रों मन्ज़िलत अपनी मुअय्याना हुदूद को उबूर कर गयी। चुनान्चे उसके अहद में जब तक आयशा का एहतिरामों इक़बाल बरक़रार रहा , हुकूमत की तरफ़ से उन पर ख़ुसूसी इनायत नवाज़िशात और मराआत की बारिश होती रहती है। उर्वा बिन ज़ुबैर से रवायत है कि , माविया हज़रत आयशा का बड़ा ख़्याल रखते थे। उन्होंने एक मौक़े पर इन्हें एक लाख दिरहम दिये। ( 1)

इब्ने कसीर ने अता से रवायत की है कि जब आयशा मक्के में थीं तो माविया ने उनके पास एक हंसली भेजी जिसकी क़ीमत एक लाख दिरहम थी। ( 2)

इब्ने सआद का बयान है कि आयशा ने एक शख़्स जिसका नाम मुनक़दर बिन अब्दुल्लाह था से फ़रमाया कि अगर मेरे पास होते तो मैं तुम्हें दस हज़ार दिरहम दे देती। ये बात माविया को मालूम हुई तो उन्होंने उसी दिन शाम से पहले आयशा के पास एक बड़ी रक़म भेज दी और आपने मुनक़दर को दस हज़ार दिरहम दिए जिससे उन्होंने एक कनीज़ ख़रीदी। ( 3)

इब्ने क़सीर ने सअद बिन अज़ीज़ से रवायत की है कि माविया ने आयशा का अट्ठारह हज़ार अशरफ़ियों का क़र्ज़ा अदा किया।

इसी तरह बनी उमय्या के तमाम दौलतमन्द और सरमाया दार हज़रत आयशा का ख़ास ख़्याल रखते थे और दिरहमों दीनार के साथ मुख़तलिफ़ क़िस्म के तहाएफ़ उनकी ख़िदमत में पेश किया करते थे। ( 4)

लेकिन ये सिलसिला ज़्यादा दिनों तक क़ायम न रह सका। माविया और आयशा के दरमियान इख़तिलाफ़ ने सर उठाया और इनायतों मराआत के वो आरज़ी बादल जो करीमाना अन्दाज़ में आयशा के सर पर बरसा करते थे मुखालिफ़त की हवा में चलते फ़िरते नज़र आए।

मुख़ालिफ़त की वजह ये बताई जाती है कि माविया ने जब ख़िलाफ़त को ख़ानदानी मीरास बनाने की जिद्दो जहद की तो उन्हें मुसलमानों की तरफ़ से शदीद मुख़ालिफ़त का सामना करना पड़ा यहां तक कि उनके ख़ुसूसी असहाब और पास बैठने वाले भी ख़िलाफ़ हो गये।

चुनान्चे आयशा ने भी मुख़ालिफ़ीन की मुकम्मल ताईदन हमनवाई की जिसके नतीजे में ताल्लुक़ात ख़राब हो गये। मगर तबरी का बयान है कि दोनों के दर्मियान पहली तलख़ी सहाबी ए रसूल (स.अ.व.व) हुजर के क़त्ल से पैदा हुई। लिखते हैः-

हज़रत आयशा ने हुजर और उनके अस्हाब की सिफ़ारिश के साथ अब्दुर रहमान बिन हर्स बिन हिशाम को माविया के पास भेजा। अब्दुर रहमान उस वक़्त पहुंचे जब माविया हुजर और उनके साथियों को मौते के घाट उतार चुके थे। हज़रत आयशा इस हादसे पर बरहम , रंजीदा और मुलूल हुईं चुनान्चे वो अक्सर कहा करती थी कि काश ऐसा न होता। अब हम किसी चीज़ को बदलना चाहते हैं तो पहले से ज़्यादा मुश्किलों में पड़ जाते हैं। ख़ुदा की क़सम हम हुजर के क़त्ल को ज़रूर मुतग़य्यर कर देते। जहां तक मैं समझती हूं हुजर एक पक्के मुसलमान और हज व उमरह के बजा लाने वाले थे। ( 5)

हज़रत आयशा का ये जुमला , जब हम किसी चीज़ को बदलना चाहते हैं तो पहले से ज़्यादा मुश्किल में पड़ जाते हैं। इन्तिहाई मानी ख़ेज़ और ग़ौर तलब है इसका मतलब ये है कि आयशा ने उस्मानी हुकूमत का तख़्ता उलटना चाहा जिसके नतीजे में उस्मान क़त्ल हो गये और उनके बाद मुसलमानों ने बिलइत्तिफ़ाक़ हज़रत अली को ख़लीफ़ा मुनतख़ब कर लिया। जिनकी ख़िलाफ़त आयशा के लिये सख़्त तरीन....... मुसीबत थी। फिर आपने हज़रत अली (अ.स) की ख़िलाफ़त को उलटना चाहा तो जंगे जमल में तल्हा मारे गये जिन्हें वो ख़लीफ़ा के रूप में देखना चाहती थीं , ज़ुबैर क़त्ल हुए जो आपके हक़ीक़ी बहनोई थे। अब धड़का ये था कि माविया की हुकूमत का तख़्ता उलटने की कोशिश करूं तो इसके नतीजा इससे कहीं ज़्यादा बुरा निकलेगा।

(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)

इस लिए उन्होंने अपने ग़मों ग़ुस्से को ज़ब्त किया और ख़ामोश रहीं।

जब माविया यज़ीद (ल) की बैअत के सिलसिले में वारिदे मदीना हुए और उम्मुल मोमिनीन आयशा से उन्होंने मुलाक़ात की तो सब से पहले जो गुफ़्तुगू माविया और आयशा के दर्मियान हुई वो हुजर के क़त्ल के बारे में थी। इस गुफ़्तुगू ने तल्ख़ी के साथ यहां तक तूल ख़ीचा कि माविया को कहना पड़ा किः-

मेरे और हुजर के मामले को छोड़ दीजिए यहां तक कि रोज़े क़यामत हम दोनों अपने रब से मिलें। ( 6)

ये गुफ़्तुगू तलख़ी और तरद्दुद की फ़ज़ा में तमाम हुई और यहीं से इख़्तिलाफ़ की ख़लीज़ और भी वसीअ से वसीअतर होती चली गयीं। फिर हज़रत आयशा के हक़ीक़ी भाई अब्दुर रहमान इब्ने अबी बकर का वाक़ेया पेश आया जिन्होंने यज़ीद (ल) की बैअत की मुख़ालिफ़त की और उसके फ़ौरन बाद नागहानी तौर पर ख़त्म कर दिये गये। बुख़ारी का कहना है कि जब अब्दुर रहमान ने यज़ीद की बैअत की मुख़ालिफ़त की और माविया और यज़ीद को बुरा भला कहा तो मरवान ने उन्हें गिरफ़्तार करना चाहा मगर वो भाग कर आयशा के घर में घुस गये। ( 7)

कुछ मोवर्रेख़ीन का कहना है कि जब लोगों को यज़ीद की बैअत पर आमादह करने के लिये मरवान तक़रीर कर रहे थे तो अब्दुर रहमान बिन अबी बकर उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा कि तू भी झूठा है और माविया भी। तुम लोग ख़िलाफ़त को हरकली हुकूमत बनाना चाहते हो कि एक हरकल मरने के बाद दूसरा हरकल उसका जानशीन हो जाए। ( 8)

ये वो इख़तिलाफ़ी मारका था जिसके नतीजे में हज़रत आयशा को अपने हक़ीकी भाई से हाथ धोना पड़ा और इख़्तिलाफ़ात के शोले कोहे आतिश फ़िशां बन गये लेकिन चूंकि उम्मुल मोमिनीन में इतनी सकत और ताक़त नहीं रह गयी थी कि वो बनी उमय्या से जंग के लिए जंगलों और बियाबानों की ख़ाक छानती। लिहाज़ा उन्होनो ज़बानी जंग का सहारा लिया और बद्दुआओं के राकिटों से बनी उमय्या पर हमला आवर हो गयीं। अंजाम ये हुआ कि माविया की सफ़्फ़ाक़ी ने उन्हें मौत के मुंह में झोंक दिया।

हज़रत आयशा का इबरतनाक अंजाम

माविया की मुख़ालिफ़त हज़रत आयशा को रास न आ सकी और उन्हें इन्तिहाई इबरतनाक व अलमनाक अंजाम से दो चार होना पड़ा। साहिबे हबीबुस सैर तारीख़े हाफ़िज़े अबरू , रबीउल अबरार और कामिलुस सफ़ीना के मोतबर हवालों से रक़म तराज़ है कि जब माविया इब्ने अबी सुफ़ियान अपने फ़ासिक़ो फ़ाजिर बेटे की बैअत के लिए मदीने आया और हज़रत आयशा से मिला तो उन्होंने ख़ूब खरी खरी सुनाई और उसके इस इक़दाम पर लानत मलामत की। जिस पर माविया ने उम्मुल मोमिनीन का क़िस्सा ही तमाम करने का मनसूबा तैय्यार किया और अपनी क़याम गाह के सहन में एक गहरा कुंआ खुदवाया और उसके दहाने को ख़सो ख़ाशाक से मंढ़ कर उस पर आबनूस की एक ख़ूब सूरत कुर्सी रखवा दी। जब ये सब कुछ हो चुका तो दूसरे दिन उसने उम्मुल मोमिनीन को निहायत अदबो एहतिराम से दावत पर मदू किया।

उम्मुल मोमिनीन तशरीफ़ लाईं तो उनसे माविया ने उस कुर्सी पर बैठने की दरख़्वास्त की जो मोअज़्ज़मा के लिए मख़सूस की गयी थी। आयशा ने जैसे ही क़दम बढ़ाया वैसे ही कुंए के अन्दर चली गयीं उम्मुल मोमिनीन के गिरते ही माविया ने उसमें चूना भरवा दिया। जब उम्मुल मोमिनीन ख़ाक हो गयीं तो उस कुंए को बन्द करा दिया गया और मक्के की तरफ़ रवाना हो गया। ( 9)

बाज़ मोवर्रेख़ीन ने ये भी लिखा है कि उम्मुल मोमिनीन आयशा का इन्तिक़ाल अलालत की वजह से हुआ और वो बक़ीअ में दफ़्न हुई। इस इख़तिलाफ़ की वजह ये समझ में आती है कि बाद में माविया को इस संगीन जुर्म से बरी करने के लिए ये रवायत गढ़ी गयी है।

हज़रत आयशा के मुताल्लिक़ मुसलमानों के मुख़तलिफ़ नज़रियात

हज़रत आयशा के बारे में मुसलमानों के मुख़तलिफ़ फ़िर्क़ों के जो अक़ाइदों नज़रियात हैं उनकी हल्की सी झलक गुज़शता सफ़हात में पेश की जा चुकी है। किसी ने उन्हें मासूम समझा , किसी ने उन्हें इमामे वक़्त के ख़िलाफ़ ख़ुरूज करने पर ख़ताकार , गुनाहगार और काफ़िर क़रार दिया। एक गिरोह आज तक कशमकश में मुबतिला है जो उनके बारे में लब कुशाई ही नहीं करना चाहता और वो फ़िर्क़ा कहता है जो कुछ उम्मुल मोमिनीन ने किया वो भी दुरूस्त और जो कुछ अमीरूल मोमिनीन ने किया वो भी दुरूस्त , ये भी राहे सवाब पर वो भी राहे सवाब पर।

इस मुख़तलिफ़ अक़ाइदों नज़रियात में जो तज़ाद और अफ़रा तफ़री है उसे मामूली अक़्ल वाला इन्सान भी समझ सकता है। अगर इन तमाम अक़ाइदों नज़रियात की रौशनी में मुनसिफ़ाना नज़र से देखा जाए तो जितना आदिलाना नज़रिया शिआ फ़िर्क़े का है उतना किसी भी फ़िर्क़े का नहीं। शियों ने आयशा के बारे में मियाना रवी इख़्तियार की है और उनका कहना है कि हज़रत आयशा मासूम न थीं। जिस तरह सहाबा ए किराम में कुछ लोग ख़ाती और मुनाफ़िक़ थे और उनसे तारिख़ी ग़ल्तियां सरज़द हुईं उसी तरह उम्मुल मोमिनीन आयशा ने उस्मान के ख़िलाफ़ लोगों को उनके क़त्ल पर आमादा और बरअंगेख़्ता किया और जब वो क़त्ल हो गये तो इन्तिक़ाम के बहाने से हज़रत अली पर ख़रूज कर के बहुत बड़ी ख़ता की। परवरदीगारे आलम गुनाहों औऱ ख़ताओं का बख़्शने वाला है अगर उम्मुल मोमिनीन ने सिद्क़ दिल से तौबा की होगी तो उनका मुआमला अदालत से तय होगा। कमोबेश यही नज़रिया ख़ुश अक़ीदा मुहक़्क़ेक़ीने अहले सुन्नत का भी है वो तस्लीम करते हैं कि उम्मुल मोमिनीन से ख़ता सरज़द हो गयी। मगर वो इस ख़ता को ख़ता ए इज़तेदादी से ताबीर करते हैं। ख़ता ए इज़तेदादी के बारे में उलमा ए अहले सुन्नत के मफ़रूज़ात ये हैं कि कितनी ही बड़ी ख़ता क्यों न हो ख़ताए इज़तेहादी के सबब से अजरो सवाब की हामिल है।

शियों का नज़रिया यह है कि बुराइयों और दानिस्ता ख़ताओं में इज़तेहाद की कोई गुनजाइश नहीं है। हज़रत अली इमामे वक़्त और वाजिबुल इताअत थे। मुत्तफ़क़ा तौर पर उनकी बैअत हो चुकी थी और तमाम मुसलमानों ने उन्हें पेशवा तस्लीम कर लिया था। ऐसी सूरत में उनके ख़िलाफ़ , ख़ुरूज को बग़ावत तो कहा जा सकता है इजतिहाद , हर्ग़िज़ नहीं।

जहां तक आयशा के उम्मुल मोमिनीन होने का सवाल है उससे कोई शिआ इन्कार नहीं करता। बेशक वो मुसलमानों की मां हैं और मुसलमानों की मां होने की हैसियत से उनका जो एहतिराम होना चाहिए उसमें शिआ फ़िर्क़ा दीगर मुसलमानों से पीछे नहीं है।

शिआ फ़िर्क़े का अक़ीदा है कि नबी की ज़ौजा काफ़िर तो हो सकती है , बदचलन और बदकार नहीं। जैसा कि हज़रत नूह और लूत की बीवियां थी। इस लिए शिआ उम्मुल मोमिनीन को वो दर्जा नहीं देते जो हक़ीक़त से ब ख़बर मुसलमान देते हैं।

अज़्वाजे नबी के बारे में किसी भी ख़ुसूसी फ़ज़ीलतों मन्ज़िलत का तज़किरह क़ुर्आने मजीद में नहीं है अलावा इसके कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) की बीवियां तुम्हारी मांयें हैं।

इस आयत की शाने नुज़ूल के बारे में तमाम मुफ़स्सेरीन का मुत्तफ़क़ा फ़ैसला है कि तल्हा इब्ने उबैदुल्लाह ने जो अबू बकर के क़रीबी और ख़ानदानी रिश्तेदार थे अपनी इस राय का इज़हार किया था कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) रेहलत के बाद आयशा से निकाह कर लेंगे। ख़ुदा को तल्हा की ये जसारत नगवार हुई उसके आयत , उज़्वाजुहू उम्माहातुम के ज़रिये तल्हा और उनके जैसे दीगर अफ़राद की उमंगों को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया।

ज़ाहिर है कि इस आयत के ज़रिये अज़्वाजे रसूल की फ़ज़ीलत का इज़हार मक़सूद न था बल्कि कुछ लोगों की नफ़सानी ख़्वाहिशात को ख़ाक में मिलाना था। इसकी ताईद उम्मुल मोमिनीन के उस जुमले से होती है कि जब किसी औरत ने उन्हें मां कह कर पुकारा तो उन्होंने कहा कि हम मर्दों की मां हैं औरतों की नहीं। और इस दलील से इस बात की भी ताईद होती है कि अज़्वाजे पैग़म्बर मुसलमानों की मांयें होने के बावजूद उनसे उसी तरह पर्दा करती थीं जिस तरह ना महरमों से किया जाता है। यही पर्दा ये बताता है कि वो हक़ीक़तन मुसलमानों की मायें नहीं थी बल्कि उन्हें इस लिए मां क़रार दिया गया था कि कोई शख़्स उनसे निकाह न कर सके।

बहरहाल इस आय़ात का मक़सद अज़्वाजे रसूल से निकाह की मुमानिअत के दाएरे में महदूद हैं इसके अलावा कोई फ़ज़ीलत इस आयत से ज़ाहिर नहीं होती।

ख़ुदा वन्दे आलम ने जाबजा क़ुर्आने मजीद में नबी की बीविंयों को मुतनब्बे भी किया है। मसलन नूह और लूत की बीवियों की मिसाल पेश करते हुए परवर दिगार ने फ़रमाया कि ये दोनों हमारे दो नेक बन्दों की ज़ौजियत और तसर्रूफ़ में थीं और दोनों ने ख़यानत की तो उनके शौहर जो नबी थे ख़ुदा के हुक्म के सामने उनके कुछ काम न आए और उन्हें हुक्म दिया गया कि जहन्नम में दाख़िल होने वाली औरतों के साथ तुम भी दाख़िल हो जाओ।

एक मक़ाम पर इरशाद हुआ कि ऐ नबी की बीवियों ! तुम में जो नेक और अच्छे अमल करने वाली है उनके लिए ख़ुदा ने बहुत बड़ा अज्र मुक़र्रर किया है और ऐ नबी की बीवियों अगर तुम में से किसी ने कोई न ज़ेबा हरकत की तो उसके लिए दुगना अज़ाब मुक़र्रर किया जायेगा।

ये तमाम आयतें सरीही तौर पर ये बताती हैं कि अज़्वाजे मासूम न थीं उनसे ख़ताओं और ग़ल्तियों का हर वक़्त इमकान था और ख़ताओं पर उनसे उसी तरह मुआख़िज़ा होगा जिस तरह आम औरतों और मर्दों से बल्कि इरशादे इलाही के मुताबिक़ वो और ज़्यादा क़ाबिले मुआख़िज़ा होगी। और यही शिआ फ़िर्क़े का नज़रिया है।

1. इब्ने क़सीरः- जिल्द 7 पेज न. 36, मुसतदरकः- जिल्द 4 पेज न. 13, हलीयतुल औलिया अबू नईमः- जिल्द 2 पेज न. 47

2. इब्ने क़सीरः- जिल्द 7 पेज न. 127

3. तबक़ात इब्ने सअदः- जिल्द 5 पेज न. 18

4. मसनद अहमदः- जिल्द 6 पेज न. 77, 459

5. तरबीः- जिल्द 6 पेज न. 156

6. इस्तेयाबः- जिल्द 1 पेज न. 134, असदुल ग़ाबाः- जिल्द 1 पेज न. 386

7. बुख़ारीः- जिल्द 3 पेज न. 126

8. तारीख़े क़ामिलः- जिल्द 3 पेज न. 199, इब्ने क़सीरः- जिल्द 4 पेज न. 236, और जिल्द 8 पेज न. 89, इस्तेयाब व असदुल ग़ाबा , असाबा हालाते हकम बिन आस

9. तारीख़े हबीबुस सैर हालाते अज़वाजे रसूलः- जिल्द 1 जुज़. 3, पेज न. 147, मतबुआ तेहरान 1271 हिजरी

एतिराफ़ाते आयशा

जादू वही है जो सर चढ़ के बोले , इस में शक नहीं कि हज़रत आयशा अमीरूल मोमिनीन से बुग़्ज़ों हसद और अदावत रखती थी और अगर उनका बस चलता तो वो अबू तालिब के बेटे को अपने हाथों से ज़हर दे देतीं। इस अदावतों दुश्मनी के बावजूद उम्मुल मोमिनीन की ज़बान से अमीरूल मोमिनीन (अ.स) के जो फ़ज़ाइल बयान हुए वो यक़ीक़न मोजिज़ाती हैं और मुनासिब यही है कि वो कारेईंन के ईमान और रूहानी ज़ौक़ की आसूदगी के लिए पेश कर दिये जायें।

जाबिर से रवायत है कि मैं एक दिन आयशा के पास गया और उनसे पूछा कि आप हज़रत अली के बारे में क्या फ़रमाती हैं ? ये सुन कर वो कुछ देर के लिए सर झुकाये हुए सोचती रहीं फिर एक शेर पढ़ा जिसका मतलब ये था कि , जब सोना कसौटी पर कसा जाता है तो खरे खोटे की पहचान हो जाती है। जंगे जमल के बाद मुझे भी खरे खोटे का फ़र्क़ मालूम हो गया। अली हमारे दर्मियान यूं है जैसे कसौटी होती है।

(कन्ज़ुल मदफ़ून सियूतीः- पेज न. 236, इस्तेयाबः- जिल्द 3 पेज न. 328)

2. हज़रत आयशा फ़रमाती हैं कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने एक मरतबा फ़रमाया कि जो अली पर ख़ुरूज करेगा वो जहन्नमी होगा। ये सुन कर किसी ने आयशा से सवाल किया कि तो फिर आपने खुरूज क्यों किया ? आप ने कहा , मैं इस हदीस को भूल गयी थी और अब तौबा व इस्तिग़फ़ार करती हूं।

(यनाबीउल मोवद्दतः- जिल्द 2 पेज न. 71, बेरूत)

3. हज़रत आयशा कहती हैं कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने फ़रमाया कि सबक़त कुन्निदह सिर्फ़ तीन है। यूशा बिन नून जिन्होंने मूसा (अ.स) की तरफ़ सबक़त की। साहिबे यासीन जिसने ईसा (अ.स) की तरफ़ सबक़त की और अली इब्ने अली तालिब (अ.स) जिन्होंने मेरी तरफ़ सबक़त की।

(सवाइक़े मुहर्रिक़ाः- पेज न. 123)

4. किसी ने आयशा से पूछा कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) सब से ज़्यादा किसको दोस्त रखते थे ? तो उन्होंने फ़रमाया कि अली को जो बड़े (रोज़ादार परहेज़गार थे और नमाज़ी)

(सहीह तिर्मिज़ीः- न. 2 पेज न. 475 रियाजुन नज़रहः- जिल्द 2 पेज न. 213)

5. जमी इब्ने उमैर से रवायत है कि मैं एक मरतबा अपनी मां के साथ आयशा के पास गया तो उन्होंने आयशा से हज़रत अली के बारे में सवाल किया तो उम्मुल मोमिनीन ने जवाब दिया कि ख़ुदा की क़सम मैं किसी ऐसे मर्द को नहीं जानती जो पैग़म्बर (स.अ.व.व) को अली से ज़्यादा महबूब हो और न रूए ज़मीन पर किसी औरत को जो फातेमा (स.अ) से ज़्यादा पैग़म्बर (स.अ.व.व) को अज़ीज़ हो।

(मुसतदरकः- जिल्द 3 पेज न. 154)

6. हज़रत आयशा ने अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) के बारे में फ़रमाया कि वो तमाम ख़लाइक में सब से ज़्यादा सुन्नते नबी के जानने वाले हैं।

(ज़ख़ाइरूल उक़बाः- पेज न. 78)

7. आयशा फ़रमाती हैं कि अली का ज़िक्र इबादत है।

(मुसतदरकः- जिल्द 2, पेज न. 152)

8. आयशा फ़रमाती हैं कि या अली आपके लिये ये बात काफ़ी है कि आपके चाहने वालों के लिये न मौत के वक़्त हसरत होगी , न क़ब्र में वहशत होगी , न क़यामत में दहशत होगी।

(यनाबीउल मवद्दतः- जिल्द 2 पेज न. 81)

9. आयशा फ़रमाती हैं कि मैंने अबू बकर को देखा कि अली के चेहरे की तरफ़ बहुत देखा करते हैं तो मैंने उनसे पूछा क ऐ बाबा जान आप अली के चहरे को बहुत देखा करते हैं , उन्होंने जवाब दिया कि मैंने रसूलल्लाह (स.अ.व.व) को फ़रमाते सुना कि अली के चेहरे पर नज़र करना इबादत है।

(रियाज़ुन नज़रहः- जिल्द 2 पेज न. 291)

10. उम्मुल मोमिनीन आयशा फ़रमाती हैं कि मैं एक दिन ख़िदमतें रसूल (स.अ.व.व) में हाज़िर थी कि इतने में अली इब्ने अली तालीब दाख़िल हुए। उन्हें देख कर आं हज़रत (स.अ.व.व) ने फ़रमाया कि ये सैय्यदुल अरब है।

(सवाइक़े मुहर्रिक़ाः- पेज न. 20 क़ाहिरह , कनज़ुल आमलः- जिल्द 6 पेज न. 15 यनाबीउल मुवद्दतः- पेज न. 248 हज्जुल मतालिबः- पेज न. 20)

11. अता से मरवी है कि मैंने हज़रत आयशा से पूछा कि अली के मुताल्लिक़ आपका क्या ख़्याल है ? फ़रमाया वो ख़ैरूल बशर है और तमाम इन्सानों से बेहतरों अफ़ज़ल है जो इसमें शक करें वो काफ़िर है।

(यनाबीउल मुवद्दतः- 9 पेज न. 246)

12. हज़रत आयशा फ़रमाती हैं कि ख़ुदा ने कोई मख़लूक़ ऐसी पैदा नहीं की जो रसूल (स.अ.व.व) की नज़र में अली इब्ने अबी तालिब से ज़्यादा महबूब हो।

(किफ़ायतुत तालिबः- पेज न. 184)

मज़कूरह अक़वाले आयशा , अक़ीदतमनदाने उम्मुल मोमिनीन के लिए लम्हा ए फ़िक़रियां हैं। वस्सलाम

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[[अलहम्दो लिल्लाह ये किताब ''हज़रते आयशा की तारीखी हैसीयत '' पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क) के लिऐ टाइप कराया।]]

सैय्यद मौहम्मद उवैस नक़वी

30:01:2016