अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.)

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अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली नक़ी (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.)
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अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की नज़र बन्दी

इमाम अली नक़ी (अ.स.) को धोके से बुलाने के बाद पहले तो ख़ान अल सआलेक में फिर इसके बाद एक दूसरे मक़ाम में आपको नज़र बन्द कर दिया और ताहयात इसी में क़ैद रखा। इमाम शिब्लन्जी लिखते हैं कि मुतावक्किल आपके साथ ज़ाहिर दारी ज़रूर करता था , लेकिन आपका सख़्त दुश्मन था। उसने हीला साज़ी और धोका बाज़ी से आपको बुलाया और दरपर्दा सताने और तबाह करने और मुसीबतों में मुबतिला करने की कोशिश करता रहा।

(नूरूल अबसार सफ़ा 150 )

अल्लामा इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि मुतावक्किल ने आपको जबरन बुला कर सामरा मे नज़र बन्द कर दिया और ता जि़न्दगी बाहर न निकलने दिया।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 124 )

इमाम अली नक़ी (अ.स.) का जज़बा ए हमदर्दी

मदीने से सामरा पहुंचने के बाद भी आपको पास लागों की आमद का तांता बंधा रहा। लोग आपसे फ़ायदे उठाते और दीनी और दुनियावी उमूर में आपसे मदद चाहते रहे और आप हल्ले मुश्किल में उनके काम आते रहे। उलमाए इस्लाम लिखते हैं कि सामरा पहुंचने के बाद जब आपकी नज़र बन्दी मे सख़्ती और शिद्दत न थी , एक दिन आप सामरा के एक क़रये में तशरीफ़ ले गये। आपके जाने के बाद एक साएल आपके मकान पर आया , उसे यह मालूम हुआ कि आप फ़लां गांव में तशरीफ़ ले गए हैं , वह वहां चला गया और जाकर आपसे मिला। आपने पूछा कि तुम कैसे आए हो। तुम्हारा क्या काम है ? उसने अर्ज़ कि मौला ग़रीब आदमी हूं। मुझ पर दस हज़ार दिरहम क़र्ज़ हो गया है और इसकी अदाएगी की कोई सबील नहीं। मौला ख़ुदा के लिये मुझे इस बला से निजात दिलाईये। हज़रत ने फ़रमाया घबराओ नहीं। इन्शाअल्लाह तुम्हारे क़र्ज़ की अदाएगी का बन्दो बस्त हो जाएगा। वह साएल रात को आपके हमराह मुक़ीम रहा , सुबह के वक़्त आपने इस से कहा कि मैं तुम्हे जो कहूं उसकी तामील करना और देखो इस अमर में ज़रा भी मुख़लेफ़त न करना , उसने तामीले इरशाद का वादा किया। आपने उसे एक ख़त लिख कर दिया जिसमें यह मरक़ूम था कि ‘‘ मैं दस हज़ार दिरहम इसके अदा कर दूंगा और फ़रमाया कि कल मैं सामरा पहुंच जाऊंगा जिस वक़्त मैं वहां कें बड़े बड़े लोगो के दरमियान बैठा हूं तो तुम मुझसे रूपयां का तक़ाज़ा करना उसने अर्ज़ कि हुज़ूर यह क्यों कर हो सकता है कि मैं लोगो में आपकी तौहीन करूं। हज़रत ने फ़रमाया कोई हर्ज नहीं मैं तुमसे जो कहूं वह करो। ग़रज़ कि साएल चला गया और जब आप सामरा वापस हुए और लोगो को आपकी वापसी की इत्तेला मिली तो आयाने शहर आपसे मिलने आए। जिस वक़्त आप लोगों से महवे मुलाक़ात थे साएल मज़कूर भी पहुंच गया साएल ने हिदायत के मुताबिक़ आपसे रक़म का तक़ाज़ा किया। आपने बहुत नरमी से उसे टालने की कोशिश की , लेकिन वह न टला और ब दस्तूर रक़म मांगता रहा। बिल आखि़र हज़रत ने उसे तीन दिन में अदाएगी का वादा फ़रमाया और वह चला गया। यह ख़बर जब बादशाहे वक़्त को पहुंची तो उसने मुबलिग़ तीस हज़ार दिरहम आपकी खि़दमत में भेज दिये तीसरे दिन जब साएल आया तो आपने उससे फ़रमाया कि यह तीस हज़ार दिरहम ल ले और अपनी राह लग। उसने अर्ज़ कि मौला मेरा क़र्ज़ तो सिर्फ़ दस हज़ार है आप तीस हज़ार दे रहे हैं। आपने फ़रमाया जो क़र्ज़ की अदाएगी से बचे उसे अपने बच्चों पर सर्फ़ करना। वह बहुत ख़ुश हुआ और यह पढ़ता हुआ कि ख़ुदा ही ख़ूब जानता है कि रिसालत व अमानत का कोई अहल है। अपने घर चला गया।

(नूरूल अबसार सफ़ा 149, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 123, शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 207 अरजहुल मतालिब सफ़ा 461 )

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की हालत सामरा पहुंचने के बाद

मुतावक्किल की नीयत ख़राब थी ही इमाम अली (अ.स.) के सामराह पहुचने के बाद उसने अपनी नीयत का मुज़ाहरा अमल से शुरु किया और आपके साथ न मुनासिब तरीक़ों से दिल का बुख़ार निकालने की तरफ़ मुतावज्जा हुआ लेकिन अल्लाह जिसकी लाठी में आवाज़ नहीं उसने उसे कैफ़रे किरदार तक पहुंचा दिया मगर इसकी जि़न्दगी में भी ऐसे असार और असरात ज़ाहिर किए जिससे वह भी जान ले कि वह जो कुछ कर रहा था ख़ुदावन्द उसे पसन्द नहीं करता।

मुवर्रिख़ अज़ीम लिखते हैं कि मुतावक्किल के ज़माने में बड़ी आफ़तें नाजि़ल हुईं बहुत से इलाक़ों में ज़लज़ले आए , ज़मीने धस गईं , आगें लगीं , आसमान से हौलनांक आवाज़ें सुनाई दीं। बादे समूम से बहुत से जानवर और आदमी हलाक हुए। आसमान से मिस्ल टिड्डी के कसरत से सितारे टूटे , दस दस रसल के पत्थर आसमान से बरसे। रमज़ान 243 हिजरी में हलब से एक परिन्दा कौवे से बड़ा आ कर बैठा और वह शोर मचाया ‘‘या अय्योहन नास इत्तक़ूल्लाह ’’ चालीस दफ़ा यह आवाज़ लगा कर उड़ गया दो दिन ऐसा ही हुआ।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 65 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और सवारी की तेज़रफ़्तारी

अल्लामा तबरसी लिखते हैं कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के मदीने से सामरा तशरीफ़ ले जाने के बाद एक दिन अबू हाशिम ने कहाः मौला मेरा दिल नहीं मानता कि मैं एक दिन भी आपकी जियारत से महरूम हूं , बल्कि जी चाहता है कि हर रोज़ आपकी खि़दमत में हाजि़र हुआ करूं। हज़रत ने पूछा इसके लिए तुम्हें कौन सी रूकावट है ? उन्होने अर्ज़ की मेरा क़याम बग़दाद है और मेरी सवारी कमज़ोर है। हज़रत ने फ़रमायाः जाओ अब तुम्हारी सवारी का जानवर ताक़तवर हो जाऐगा और इसकी रफ़्तार बहुत तेज़ हो जाएगी। अबू हाशिम का बयान है कि हज़रत के इस इरशाद के बाद से ऐसा हो गया कि मैं रोज़ाना नमाज़े सुब्ह व नमाज़े ज़ोहर सामरा के असकर महल्ले में और नमाज़े मग़रिब इशा बग़दाद में पढ़ने लगा।

(आलामुलवुरा सफ़ा 208 )

दो माह पहले पहले काज़ी की मौत की ख़बर

अल्लामा जामी रहमतुर अल्लाह तहरीर फ़रमाते हैं कि आप से एक मानने वाले ने अपनी तकलीफ़ बयान करते हुए बग़दाद के काज़ी शहर की शिकायत की और कहा कि मौला वह बड़ा ज़ालिम है हम लोगों को बेहद सताता है आपने फ़रमाया घबराओ नहीं वह दो माह बाद बग़दाद में न रहेगा। रावी का बयान है कि ज्योंही दो माद पूरे हुए काज़ी अपने मनसब से माज़ूल हो कर अपने घर बैठ गया।(शवाहेदुन नबूवा)

आपका एहतिराम जानवरों की नज़र में

अल्लामा मौसूफ़ यह भी लिखते हैं कि मुतावक्किल के मकान में बहुत सी बतख़े पली हुईं थीं जब कोई वहां जाता तो वह इतना शोर मचाया करती थीं कि कान पड़े बात सुनाई न देती थी लेकिन जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ ले जाते थे तो वह सब ख़ामोश हो जाती थीं और जब तक आप वहां तशरीफ़ रखते थे , वह चुप रहती थीं।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 209 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और ख़्वाब की अमली ताबीर

अहमद बिन ईसा अल कातिब का बयान है कि मैंने एक शब ख़्वाब में देखा कि हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. तशरीफ़ फ़रमा हैं और मैं उनकी खि़दमत में हाजि़र हूं। हज़रत ने मेरी तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अपने दस्ते मुबारक से एक मुठ्ठी ख़ुरमा इस तश्त से अता फ़रमाया जो आपके सामने रखा हुआ था। मैंने उन्हें गिना तो वह पच्चीस थे। इस ख़्वाब को अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे कि मुझे मालूम हुआ कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) सामरा तशरीफ़ लाए हैं। मैं उनकी ज़्यारत के लिए हाजि़र हुआ तो मैंने देखा कि उनके सामने एक तश्त रखा है जिसमें ख़ुरमें है। मैंने हज़रत को सलाम किया। हज़रत ने जवाबे सलाम देने के बाद एक मुठ्ठी ख़ुरमा मुझे अता फ़रमाया , मैंने इन ख़ुरमों का शुमार किया तो वह भी पच्चीस थे। मैंने अर्ज़ की मौला क्या कुछ ख़ुरमा और मिल सकता है ? जवाब में फ़रमाया ! अगर ख़्वाब में तुम्हें रसूले ख़ुदा स. ने इससे ज़्यादा दिया होता तो मैं भी इज़ाफ़ा कर देता। दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 124 इसी कि़स्म का वाकि़या इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और इमाम अली रज़ा (अ.स.) के लिए भी गुज़रा है।

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और फ़ुक़हाए मुस्लेमीन

यह तो मानी हुई बात है कि आले मौहम्मद स. ही वह है जिनके घर में क़ुरान मजीद नाजि़ल हुआ। इन से बेहतर न क़ुरान समझने वाला है और न उसकी तफ़्सीर जानने वाला है। उलमा का बयान है कि जब मोतावक्किल को ज़हर दिया गया तो उसने यह नज़र मानी कि अगर मैं अच्छा हो गया तो राहे ख़ुदा में माले कसीर दूगां। फिर सेहत पाने के बाद उसने अपने उल्माए इस्लाम को जमा किया और इनसे वाकि़या बयान कर के माले कसीर की तफ़्सीर मालूम करना चाही। इसके जवाब में हर एक ने अलाहेदा अलाहेदा बयान दिया एक फ़क़ीहे ने कहा माले क़सीर से एक हज़ार दिरहम दूसरे फ़क़ीह ने दस हज़ार दिरहम , तीसरे ने कहा एक लाख दिरहम मुराद लेना चाहिए। मोतावक्किल ने जब हर फ़क़ीह से अलाहेदा जवाब सुना तो तशवीश में पड़ गया और ग़ौर करने लगा कि अब क्या करना चाहिए। मुतावक्किल अभी सोच ही रहा था कि एक दरबान सामने आया जिसका नाम हसन था और अर्ज़ करने लगा कि हुज़ूर अगर मुझे हुक्म हो तो मैं इसका सही जवाब ला दूं। मुतावक्किल ने कहा बेहतर है जवाब लाओ अगर तुम सही जवाब लाए तो दस हज़ार दिरहम तुमको इनाम दूगां और अगर तसल्ली बख़्श जवाब न ला सके तो सौ कोड़े मारूगां। इसने कहा मुझे मन्ज़ूर हैं। इसके बाद दरबान हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में गया। इमाम (अ.स.) जो नज़र बन्द जि़न्दगी बसर कर रहे थे दरबान को देख कर बोले अच्छा अच्छा माले कसीर की तफ़्सीर पूछने आया है जा और मुतावक्किल से कह दे माले कसीर अस्सी दिरहम मुराद हैं दरबान ने मुतावक्किल से यही कह दिया। मुतावक्किल ने कहा जा कर दलील मालूम कर। वह वापस आया हज़रत ने फ़रमाया कि क़ुरान मजीद में आं हज़रत स. के लिए आया है कि लक़द नसरकुमुलिल्लाह फ़ी मवातिन कसीरतह ऐ रसूल अल्लाह स. ! ने तुम्हारी मद मवातिन कसीरह यानी बहुत से मुक़ामात पर की है जब हमने इन मुक़ामात का शुमार किया जिनमें ख़ुदा ने आपकी मद्द फ़रमाई है तो वह हिसाब से अस्सी होते हैं। मालूम हुआ की लफ़्ज़े कसीर का इतलाक़ अस्सी पर होता है। यह सुन कर मुतावक्किल ख़ुश हो गया और उसने अस्सी दिरहम सदक़ा निकाल कर दस हज़ार दिरहम दरबान को इनाम दिया।

(मनाकि़ब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 सफ़ा 116 )

इसी कि़स्म का एक वाकि़या है कि मुतावक्किल के दरबार में एक नसरानी पेश किया गया जो मुसलमान औरत से जि़ना करता हुआ पकड़ा गया। जब वह दरबार में आया तो कहने लगा मुझ पर हद जारी न किया जाए। मैं इस वक़्त मुसलमान होता हूँ। यह सुन कर काज़ी यहिया बिन अक़सम ने कहा कि इसे छोड़ देना चाहिए क्योंकि यह मुसलमान हो गया है। एक फ़क़ीह ने कहा कि नहीं हद जारी होना चाहिए ग़रज़ कि फोक़हाए मुसलेमीन में इख़्तेलाफ़ हो गया। मुतावक्किल ने जब यह देखा कि मसला हल होता नज़र नहीं आता तो हुक्म दिया कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को ख़त लिख कर इनसे जवाब मगाया जाए। चुनान्चे मसला लिखा गया। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया यज़रब हत्त यमूता कि उसे इतने मारना चाहिए कि मर जाए। जब यह जवाब मुतावक्किल के दरबार में पहुंचाया तो यहिया इब्ने अकसम क़ाज़ी शहर और फ़क़ीह सलतनत नीज़ दीगर फ़ुक़हा ने कहा इसका कोई सबूत क़ुरान मजीद में नहीं है बराए मेहरबानी इसकी वज़ाहत फ़रमायें। आपने ख़त मुलाहेज़ा फ़रमा कर एक आयत तहरीर फ़रमाई जिसका तरजुमा यह है। जब काफि़रों ने हमारी सख़्ती देखी तो कहा कि हम अल्लाह पर ईमान लाते हैं और अपने कुफ़्र से तौबा करते हैं यह उनका कहना उनके लिए मुफि़द न हुआ और न ईमान लाना काम आया आयत पढ़ने के बाद मुतावक्किल ने तमाम फ़ुक़हा के अक़वाल मुस्तरद कर दिए और नसरानी के लिए हुक्म दे दिया कि इस क़दर मारा जाए कि मर जाए।

(दमतुस साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 120 )

शाहे रोम को हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) का जवाब

अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी लिखते है कि बादशाहे रोम ने ख़लीफ़ाए वक़्त को लिखा कि मैंने इन्जील में पढ़ा है कि जो शख़्स इस सूरे की तिलावत करे जिसमें यह सात लफ़्ज़ न हों 1. से 2. जीम 3. ख़े 4. ज़े 5. शीन 6. ज़ो 7. फ़े। वह जन्नत में जाएगा। इसे देखने के बाद मैंने तौरैत ज़बूर का अच्छी तरह मुतालेआ किया लेकिन इस कि़स्म का कोई सूरा इसमें नहीं मिला। आप ज़रा अपने उलमा से तहक़ीक़ कर के लिखये कि शायद यह बात आपके क़ुरान मजीद में हो। बादशाहे वक़्त ने बहुत से उलमा जमा किये और उनके सामने यह चीज़ पेश की सबने बहुत देर तक ग़ौर किया लेकिन कोई इस नतीजे पर न पहुंच सका कि तसल्ली बख़्श जवाब दे सके। जब ख़लीफ़ा ए वक़्त तमाम उलमा से मायूस हो गया तो इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तरफ़ तवज्जा की। जब आप दरबार में तशरीफ़ लाए और आपके सामने मसला लाया गया तो आपने बिला ताख़ीर कहा , वह सूरा ए हम्द है। अब जो गौ़र किया गया तो बिल्कुल ठीक पाया गया। बादशाहे इस्लाम ख़लीफ़ा ए वक़्त ने अर्ज़ कि , यब्ना रसूल अल्लाह स. क्या अच्छा होता अगर आप इसकी वजह भी बताऐं कि यह हरूफ़ इस सूरा में क्यंों नहीं लाए गये। आपने फ़रमाया यह सूरा रहमत व बरकत का है इसमें यह हुरूफ़ इस लिए नहीं लाए गए कि से सबूर हलाकत तबाही , बरबादी की तरफ़ , जीम से जेहीम जहन्नम की तरफ़ ख़े ख़ैबत यानी ख़ुसरान की तरफ़ ज़े से ज़क़ूम यानी थोहड़ की तरफ़ शीन से शक़ावत की तरफ़ ज़ो ज़ुलमत की तरफ़ फ़े फ़ुरक़त की तरफ़ तबादरे ज़ेहनी होता है और यह तमाम चीज़ें रहमत व बरकत के मुनाफ़ी हैं। ख़लीफ़ा ए वक़्त ने आपका तफ़्सीली बयान शाहे रोम को भेज दिया। बादशाहे रोम ने ज्यांही उसे पढ़ा मसरूर हो गया और उसी वक़्त इस्लाम लाया और ता हयात मुसलमान रह।

(दमतुस साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 140 ब हवाला शरा शाफ़या अबू फ़रास)

मुतावक्किल के कहने से इब्ने सकीत व इब्ने अकसम का इमाम अली नक़ी (अ.स.) से सवाल

उलमा का बयान है कि एक दिन मुतावक्किल अपने दरबार में बैठा हुआ था दीगर कामों से फ़राग़त के बाद इब्ने सकीत की तरफ़ मुतावज्जा हो कर बोला अबुल हसन से ज़रा सख्त सख्त सवाल करो , इब्ने सक़ीन ने क़ाबलीयत भर सवाल किए। इमाम (अ.स.) ने तमाम सवालात के मुफ़स्सल और मुकम्मल जवाब दिए। यह देख कर यहिया इब्ने अक़सम क़ाज़ी सलतनत ने कहा ऐ इब्ने सकीत तुम नहो शेर , लुग़द के आलिम हो , तुम्हें मनाज़रे से क्या दिलचस्पी , ठहरो मैं सवाल करता हूं। यह कह कर उसने एक सवाल नामा निकाला जो पहले से लिख कर अपने हमराह रखे हुए था और हज़रत को दे दिया। हज़रत ने इसका इसी वक़्त जवाब लिखना शुरू कर दिया कि क़ाज़ी शहर को मुतावक्किल से कहना पड़ा कि इन जवाबात को पोशीदा रखा जाए वरना शीयां की हौसला अफ़ज़ाई होगी। इन सवालात में एक सवाल यह भी था कि क़ुरान मजीद में सबता अलबहर और मानफ़दत कलमात अल्लाह जो हैं इसमें किन सात दरियाओं की तरफ़ इशारा है और कलमात अल्लाह से क्या मुराद है। आपने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया कि सात दरिया यह हैं 1 ऐन अलकिबरीयत 2 ऐन अलमैन 3 ऐन अलबरहूत 4 ऐन अलबतरया 5 ऐन अलसैदान 6 ऐन अल फ़रीक़ 7 ऐन अल याहुरान यह कलमात से हम मौहम्मद स. व आले मौहम्मद (अ.स.) मुराद हैं जिनके फ़ज़एल का एहसा न मुम्किन है।

(मनाक़िब जिल्द 5 सफ़ा 117 )

क़ज़ा व क़दर के मुताअल्लिक़ इमाम अली नक़ी (अ.स.) की रहबरी व रहनुमाई

क़ज़ा व क़दर के बारे में तक़रीबन तमाम फि़रक़े जादए ऐतिदाल से हटे हुए हैं इसकी वज़ाहत में कोई जब्र का क़ाएल नज़र नहीं आता है कोई मुतलक़न तफ़वीज़ पर ईमान रखता हुआ दिखाई देता है। हमारे इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह क़ज़ाओ क़दर की वज़ाहत इन लफ़्ज़ों में फ़रमाई हैः न इन्सान बिल्कुल मजबूर है न बिल्कुल आज़ाद है बल्कि दोनो हालातों के दरमियान है।

(दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 134 )

मैं हज़रत का मतलब यह समझता हूं कि इन्सान असबाब व आमाल में बिल्कुल आज़ाद है और नतीजे की बरामदगी में ख़ुदा का मोहताज है।

उलमाए इमामिया की जि़म्मेदारीयों के मुतालिक़ हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) का इरशाद है

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया है कि हमारे उलमा ग़ैबते क़ाएम आले मौहम्मद स. के ज़माने में मुहाफि़ज़े दीन और रहबरे इल्म व यक़ीन होंगे। इनकी मिसाल शियों के लिये बिल्कुल वैसी ही होगी जैसी कश्ती के लिए न ख़ुदा की होती है। वह हमारे ज़ईफ़ों को तसल्ली देंगे। वह अफ़जल उन नास और क़ाएदे मिल्लत होंगे।

(दमतुस् साकेबा जिल्द 2 सफ़ा 137 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की ख़ाना तलाशी

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि 243 हिजरी में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) सामरा पहुंच कर नज़र बन्द हो गए , लेकिन आपने इस हालत में भी फ़रीज़ाए इमामत अदा करने में ज़रा भी पसो पेश नहीं फ़रमाया और फ़रीज़ाए मन्सबी तबलीग़े दीने इस्लाम बराबर फ़रमाते रहे चूंकि आप फ़रज़न्दे रसूल स. और आलिमें अहले ज़माना थे इस लिए आपका विक़ार लोगों की निगाहों में रोज़ बरोज़ बढ़ता गया। आप लोगों को उसूले इस्लाम और इबादत की तालीम फ़रमाया करते थे और ख़ुद भी शबो रोज़ इबादत गुज़ारी में मशग़ूल रहा करते थे। आप यह तहय्या किए हुए थे कि उमूरे सलतनत में कोई दख़ल किसी तरह से न देंगे और अपने को हर वक़्त मशग़ूले हक़ रखेगें और यही कुछ रहे लेकिन दुनिया वाले कब किसी अल्लाह वाले को चैन लेने देते हैं। वह लोग यह भी बर्दाश्त न कर सके कि इमाम इज़्ज़त व विक़ार और सुकून व इतमिनाने ज़ाहेरी की जि़न्दगी बसर करें। बिल आखि़र ज़ालिम मुतावक्किल से चुग़ली ख़ाना शुरू कर दिया और इसे इस दर्जा भड़काया कि वह आपकी हैसीयत से क़ता नज़र कर के आपकी ख़ाना तलाशी पर आमादा हो गया। अल्लामा इब्ने ख़लक़ान लिखते हैं कि बाज़ लोगों ने मुतावक्किल से चुग़ली की कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर मे हतियार और ख़ुतूत वग़ैरा इनके शियों के भेजे हुए जमा हैं। नीज़ मुतावक्किल को यह भी वहम दिलाया गया कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने लिए अमरे खि़लाफ़त के तालिब हैं। मुतावक्किल ने चन्द सिपाही मुक़र्रर किये कि रात को उन्हें गिरफ़्तार कर लाएं। सिपाहीयों ने अचानक हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर में पहुंच कर देखा कि वह बालों का कुर्ता पहने सौफ़ की चादर ओढ़े तन्हा अपने हुजरे में रेग और संग रेज़ों के फ़र्श पर रू बा कि़ब्ला बैठे हुए आहिस्ता आहिस्ता क़ुरान मजीद की तिलावत कर रहे हैं। सिपाहीयां ने उन्हें इसी हालत में ले जा कर मुतावक्किल के सामने पेश किया। मुतावक्किल उस वक़्त शराब लिए हुए मै नोशी कर रहा था। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को देख कर इसने ताज़ीम की और उनको अपने पहलू मे बैठा लिया। सिपाहीयों ने बयान किया कि इनके घर में कोई शै अज़ कि़स्म कुतुब वग़ैरा नहीं मिली और न कोई ऐसी बात पाई गई जिससे इन पर शक व इल्ज़ाम क़ायम हो , यह सुन कर मुतावक्किल ने वह जाम शराब जो इसके हाथों में था हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) जानिब बढ़ाया। उन्होंने फ़रमाया मेरा गोश्त व ख़ून कभी शराब से आलूदा नहीं हुआ। मुझे इससे माफ़ रख। मुतावक्किल ने कहा कि अगर शराब न पियो तो कुछ अश्आर पढ़ूं। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया कि मुझे अश्आर से कम दिलचस्पी है। मुतावक्किल न माना कि ज़रूर कुछ पढ़ो। इमाम नक़ी (अ.स.) ने मजबूर हो कर चन्द शेर इरशाद फ़रमाये , जिनका हासिले मक़सद यह है कि जिन लोगों ने अपनी हिफ़ाज़त की ग़रज़ से पहाड़ों की चोटियों पर सुकूत इख़्तेयार की इनको भी मौत ने न छोड़ा और इज़्ज़त की बुलन्दी से ख़ाके जि़ल्लत पर गिर कर कशां कशां क़ब्रों पर पहुंचा दिया , बाद अज़ां इनको हातिफ़ ने आवाज़ दी के ऐ ! क़ब्र वालों कहां गऐ तुम्हारे तख्त ताज और कहां हैं तुम्हारे लिबासे नफ़ीस और क्या हुए वह नाज़ परवर्दा वह चेहरे जिनके लिए ख़ेमें सरा पर्दे नसब किए जाते थे। इस वक़्त क़ब्र ने इनकी जानिब से जवाब दिया कि दुनिया में वह मुद्दत तक खाते पीते रहे आखि़र कार खुद लुक़्माए हशरातुल अर्ज़ हो गये और अब इन पर कीड़े रेंग रहे हैं। अल्लामाऐ मआसिर मौलाना सैय्यद अली नक़ी साहब कि़ब्ला ने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के अश्आर का तरजुमा इस नज़म में फ़रमाया है।

रहे पहाड़ों की चोटी पर पहरे बिठला कर

बहादुरों की हरासत में बच न सके मगर

बुलन्द कि़लों की इज़्ज़त जो पस्त होके रही

तो कुन्ज क़ब्र में मन्जि़ल भी क्या बुरी पाई

सदा ये उनको दी हातिफ़ ने बादे दफ़ने लहद

कहां हैं वह तख्त व ताज और वह लिबासे जस्द

कहां वह चेहरे हैं जो थे हमेशा ज़ेरे नक़ाब

ग़ुबार जिन पे कभी आने देते थे न हिजाब

ज़बाने हाल से बोले जवाब में मदफ़न

वह रूख़ ज़मीन के कीड़ों का बन गए मसकन

ग़ेजा़एं खाईं शराबें जो पी थीं हद से सिवा

नतीजा इसका है खुद आज बन गए वह गि़ज़ा।।

जब हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने यह अशआर पढ़े तो मुतावक्किल और हाज़ेरीन पर कमाले रिक़्क़त तारी हुई और मुतावक्किल इस क़दर रोया कि इसकी दाढ़ी आंसूओं से तर हो गई। बाद इसने हुक्म दिया कि शराब उठा ली जाए और हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को उनके घर पहुंचा दिया जाए।

(मुलाहेज़ा हो किताब दफ़ायात अयान जिल्द 1 सफ़ा 322 व नूरूल अबसार , दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 142 )

अल्लामा शिबलन्जी ने इन अश्आर के चार इब्तेदाई अश्आर सैफ़ बिन ज़ीयज़ हमीरी के क़स्त्र पर लिखे हुए देखे गए हैं। कंज़ुल फ़वाएद कन्ज़ुल मदफ़ून में है कि मुतावक्किल रोते , रोते अपने हाथ से जाम ज़मीन पर फेंक देता था।

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और शेरे क़ालीन

मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक दिन मुतावक्किल के पास एक मशहूर हिन्दी शोबदे बाज़ आया और उसने बहुत से करतब दिखालाए। मुतावक्किल ने उससे कहा मेरे दरबार में एक निहायत शरीफ़ शख़्स अनक़रीब आने वाला है अगर तू अपने करतब से उसे शर्मिन्दा कर दे तो मैं तुझे एक हज़ार अशरफ़ी इनाम दूगां। उसने कहा ऐ बादशाह ज बवह आजाए तो खाने का बन्दोबस्त कर और मुझे पहलू में बिठा दे मैं ऐसा करूंगा कि सख्त शर्मिन्दा होगा। यह सुन कर मुतावक्किल ख़ुश हो गया और जब आप तशरीफ़ लाए तो खाना लाया गया और सब खाने के लिये बैठे। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने ज्यों ही लुक़मा उठाया और तनावुल फ़रमाना चाहा उसने जादू के ज़ोर से उड़ाना दिया। इसी तरह उसने तीन मरतबा ऐसा किया , आखि़र यह सारा मजमा हंस पड़ा। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) यह देख कर उस क़ालीन की तरफ़ मुतावज्जा हुए जो दीवार में लगा हुआ था और उस पर शेर की तस्वीर बनी हुई थी। आपने शेरे क़ालीन को हुक्म दिया कि मुज्जसम हो कर इस काफि़रे अज़ली को निगल ले। शेर मुज्जसम हुआ और उसने बढ़ कर काफि़रे हिन्दी को मुसल्लम निगल लिया। इस वाकि़ये से दरबार में हलचल मच गई। मुतावक्किल सर निगूं हो गया और इमाम (अ.स.) से दरख्वास्त करने लगा कि इस शेरे क़ालीन को जो फिर अपनी हालत पर आ गया है। हुक्म दीजिए कि इस काफि़रे हिन्दी को उगल दे। आपने फ़रमाया यह हरगिज़ न होगा और उठ कर चले गए। एक रिवायत की बिना पर आपने जवाब दिया कि अपर मूसा के अज़दहे ने फि़रऔन के सांपों को निगल लेने के बाद उगल दिया होता तो यह शेर भी उगल देता। चूंकि उसने नहीं उगला था , इस लिए यह भी नहीं उगले गा।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 209 दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 145 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और अब्दुर रहमान मिस्री का ज़ेहनी इन्क़ेलाब

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि एक दिन मुतावक्किल ने बरसरे दरबार हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को क़त्ल कर देने का फ़ैसला कर के आपको दरबार में तलब किया आप सवारी पर तशरीफ़ लाए।

अब्दुर्ररहमान मिस्री का बयान है कि मैं सामरा गया हुआ था और मुतावक्किल के दरबार का यह हाल सुना कि एक अलवी के क़त्ल का हुक्म दिया गया है तो मैं दरवाज़े पर इस इन्तेज़ार में खड़ा हो गया कि देखूं वह कौन शख़्स है जिसके क़त्ल के इन्तेज़ामात हो रहे हैं इतने में देखा कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) तशरीफ़ ला रहे हैं। मुझे किसी ने बताया कि इसी अलवी के क़त्ल का बन्दो बस्त हुआ है। मेरी नज़र ज्यां ही उनके चेहरे पर पड़ी , मेरे दिल में उनकी मोहब्बत सराएत कर गई और मैं दुआ करने लगा। ख़ुदाया तू मुतावक्किल के शर से इस शरीफ़ अलवी को बचाना। मैं दिल में दुआ कर ही रहा था कि आप नज़दीक आ पहुंचे और मुझसे बिला जाने पहचाने फ़रमाया कि ऐ अब्दुर्रहमान तुम्हारी दुआ क़ुबूल हो गई है और मैं इन्शा अल्लाह महफ़ूज़ रहूंगा। चुनान्चे दरबार में आप पर कोई हाथ उठा न सका और आप महफ़ूज़ रहे। फिर आपने मुझे दुआ दी और मैं माला माल हो गया और साहेबे औलाद हो गया। अब्दुर्रहमान कहता है कि मैं इसी वक़्त आपकी इमामत का क़ाएल हो कर शिया हो गया।

(कश्फ़ुल ग़म्मा सफ़ा 123 व दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 125 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के दौर मे नकली ज़ैनब का आना

उलमा का बयान है कि एक दिन मुतावक्किल के दरबार में एक औरत जवान और ख़ूबसूरत आई और उसने आकर कहा ज़ैनब बिन्ते अली व फ़ात्मा हूं। मुतावक्किल ने कहा कि तू जवान है और ज़ैनब को पैदा हुए और वफ़ात पाए अर्सा गुज़र गया। अगर तुझे ज़ैनब तस्लीम कर लिया जाय तो यह कैसे माना जाए कि ज़ैनब इतनी उमर तक जवान रह सकती हैं। इसने कहा कि मुझे रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने यह दुआ दी थी कि मैं चालीस और पचास साल के बाद जवान हो जाऊंगी इस लिये मैं जवान हूं। मुतावक्किल ने उलमाए दरबार को जमा कर के उनके सामने इस मसले को पेश किया। सब ने कहा यह झूठी हैं। ज़ैनब के इन्तेक़ाल को अर्सा हो गया है। मुतावक्किल ने कहा कोई ऐसी दलील दो कि मैं इसे झुठला सकूं। सब ने अपनी आजिज़ी का हवाला दिया। फ़ता इब्ने ख़ाक़ान वज़ीर मुतावक्किल ने कहा कि इस मसले को इब्ने रज़ा अली नक़ी (अ.स.) के सिवा कोई हल नहीं कर सकता। लेहाज़ा उन्हें बुलाया जाए। मुतावक्किल ने हज़रत को ज़हमते तशरीफ़ आवरी दी। जब आप दरबार में पहुंचे मुतावक्किल ने सूरते मसला पेश की। इमाम ने फ़रमाया झूठी है , मुतावक्किल ने कहा कोई ऐसी दलील दीजिऐ कि मैं इसे झूठी साबित कर सकूं। आपने फ़रमाया मेरे जद्दे नामदार का इरशाद है कि दरिन्दों पर मेरी औलाद का गोश्त हराम है। ऐ बादशाह तू इस औरत को दरिन्दों में डाल दे अगर यह सच्ची होगी और इसका ज़ैनब होना तो दरकिनार अगर यह सय्यदा भी होगी तो जानवर इसे न छेड़ेंगे और अगर सय्यदा से भी बे बहरा और ख़ाली होगी तो दरिन्दे इसे फाड़ खाऐंगे। अभी यह गुफ़्तुगू जारी ही थी कि दरबार में इशारा बाज़ी होने लगी और दुश्मनों ने मिल जुल कर मुतावक्किल से कहा कि इसका इम्तेहान इमाम अली नक़ी (अ.स.) ही के ज़रिये से क्यों न लिया जाए और देखा जाए कि आया दरिन्दे सय्यदों को खाते हैं या नहीं। मतलब यह था कि अगर उन्हें जानवरों ने फाड़ खाया तो मुतावक्किल का मन्शा पूरा हो जाएगा और अगर यह बत गए तो मुतावक्किल की वह उलझन दूर हो जाऐगी जो ज़ैनब काज़ेबा ने डाल रखी है। ग़रज़ कि मुतावक्किल ने इमाम (अ.स.) से कहा ऐ इब्नुल रज़ा क्या अच्छा होता कि आप खुद बरकतुल सबआ में जा कर इसे साबित कर दीजिऐ कि आले रसूल स. का गोश्त दरिन्दों पर हराम है। इमाम (अ.स.) तैय्यार हो गये। मुतावक्किल ने अपने बनाये हुए बरकतुल सबआ ‘‘ शेर ख़ाने ’’ में आपको डलवा कर फाटक बन्द करवा दिया और खुद मकान के बाला ख़ाने पर चला गया ताकि वहां से इमाम के हालात का मुतालेआ करे। अल्लामा हजर मक्की लिखते हैं कि जब दरिन्दां ने दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनी तो ख़ामोश हो गये। जब आप सहन में पहुंच कर सीढ़ी पर चढ़ने लगे तो दरिन्दे आप की तरफ़ बढ़े जिनमें तीन और बारिवायते दमे साकेबा 6 शेर भी थे, और ठहर गये और आप को छू कर आपके गिर्द फिरने लगे। आप अपनी आस्तीन उन पर मलते थे। फिर दरिन्दे घुटने टेक कर बैठ गये। मुतावक्किल इमाम (अ.स.) के मुताल्लिक़ छत पर से यह बाते देखता रहा और उतर आया। फिर जनाब सहन से बाहर तशरीफ़ ले आये। मुतावक्किल ने आपके पास गरां बहा सिला भेजा। लोगों ने कहा मुतावक्किल तू भी ऐसा कर के दिखला दे। उसने कहा शायद तुम मेरी जान लेना चाहते हो।

अल्लामा मौहम्मद बाक़र लिखते हैं कि ज़ैनबे कज़्ज़ाबा ने जब इन हालात को अपनी आंखों से देखा तो फ़ौरन अपनी किज़्ब बयानी का एतेराफ़ कर लिया। एक रवायत की बिना पर उसे तौबा की हिदायत कर के छोड़ दिया गया। दूसरी रवायत की बिना पर मुतावक्किल ने उसे दरिन्दों में डलवा कर फड़वा डाला।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा , सफ़ा 124, अरजहुल मतालिब सफ़ा 461, दम ए साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 145, जला लल उयून , सफ़ा 293, रौज़ातुल सफ़ा , फ़सल अल ख़त्ताब।)

अल्लामा इब्ने हजर का कहना है कि इस कि़स्म का वाकि़या अहदे रशीद अब्बासी में जनाबे यहिया बिन अब्दुल्लाह बिन हसने मुसन्ना इब्ने इमाम हसन (अ.स.) के साथ भी हुआ है।

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल का इलाज

अल्लामा अब्दुर्रहमान जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) नज़र बन्दी की जि़न्दगी बसर कर रहे थे। मुतावक्किल के बैठने की जगह कमर के नीचे जिसम के पिछले हिस्से में एक ज़बर दस्त ज़हरीला फोड़ा निकल आया। हर चन्द कोशिश की गई मगर किसी सूरत से शिफ़ा की उम्मीद न हुई। जब जान ख़तरे में पड़ गई तो मुतावक्किल की मां ने मन्नत मान ली कि अगर मुतावक्किल अच्छा हो गया तो इब्ने रज़ा की खिदमत में मैं माले कसीर नज़र करूंगी और फ़तह बिन ख़क़ान ने मुतावक्किल से दरख्वास्त की कि अगर आपका हुक्म हो तो मैं मर्ज़ की कैफि़यत अबुल हसन से बयान कर के कोई दवा तजवीज़ करवा लाऊं। मुतावक्किल ने इजाज़त दी और इब्ने ख़क़ान हज़रत की खिदमत में हाजि़र हुए। उन्होंने साना वाकि़या बयान कर के दवा की तजवीज़ चाही , हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया , कस्बे ग़नम बकरी की मेंगनियां लेकर गुलाब के अरक़ में हल कर के लगा दो , इन्शा अल्लाह ठीक हो जाऐगा। वज़ीर फ़तह इब्ने ख़ाक़ान ने दरबार में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तजवीज़ पेश की लोग हंस पड़े और कहने लगे इमाम होकर क्या दवा तजवीज़ फ़रमाई है। वज़ीर ने कहा ऐ ख़लीफ़ा तजरूबे में क्या हर्ज है। अगर हुक्म हो तो मैं इन्तेज़ाम करूं। ख़लीफ़ा ने हुक्म दिया , दवा लगाई गई , मुतावक्किल की आंख खुल गई और रात भर सोया तीन दिन के अन्दर शिफ़ाए कामिल हो जाने के बाद मां ने दस हज़ार अशरफ़ी की सर ब मुहर थैली हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में भिजवा दी।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 207 आलामु वुरा सफ़ा 208 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की दोबारा ख़ाना तलाशी

दरन्दिों की जुब्बा साई और मुतावक्किल के इलाज में इमाम (अ.स.) की शानदार कामयाबी ने दुश्मनों के दिलों में हसद की लगी हुई आग को और भड़का दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि जान आप ही के इलाज से बची थी वह ममनूने एहसान होने के बजाए इमाम के दरपए आज़ार हो कर खुल्लम खुल्ला उन्हें सताने की तरफ़ ख़ुसूसी तौर पर मुतावज्जा हो गया।

मुल्ला जामी अलेहिर्रहमा का बयान है कि वाक़ए सेहत के चन्द ही दिनों बाद लोगों ने मुतावक्किल से चुग़ल खाई और कहा कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर में असलाह जंग जमा हैं और अन क़रीब अपने जमातियों के बल बूते पर तेरी हुकूमत का तख़्ता उलट देगें और हाकिमें वक़्त बन कर तेरे किये का बदला लेगें। मुतावक्किल जो पहले से आले मौहम्मद स. का शदीद दुश्मन था लोगों के कहने से फिर भड़क उठा और उसने सईद को बुला कर हुक्म दिया कि जिनकी नज़र बन्दी में इस वक़्त आप थे, मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि तू आधी रात को दफ़तन ‘‘इमाम के मकान में जा कर तलाशी ले और जो चीज़ बरामद हो उसे मेरे पास ले आ। सईद हाजिब का बयान है कि मैं आधी रात को हज़रत के मकान में कोठे की तरफ़ से गया मुझे रास्ता न मिला था , क्योंकि सख़्त तारीकी थी। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने अपने मुसल्ले पर से जो अन्दर बिछा हुआ था आवाज़ दी , ऐ सईद अन्धेरा है , ठहरो ! मैं शमा ला रहा हूं। ग़रज़ मैंने जा कर देखा कि आप ज़मीन पर मुसल्ला बिछा ए हुए हैं और आप के घर में एक शमा के सिवा कोई असलाह नहीं है और एक वह थैली है जो मुतावक्किल की मां ने भेजी थी। मैंने इन चीज़ों को मुतावक्किल के सामने पेश कर दिया। इसने उन्हें वापस किया और वह अपने मुक़ाम पर शर्मिन्दा हुआ।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 208, जिलाउल उयून सफ़ा 294 )

अल्लामा मजलिसी का बयान है कि मुतावक्किल ने आप पर पूरी सख़्ती शुरू कर दी और आप को क़ैद कर दिया। पहले ज़राफ़ी की क़ैद में रखा और ज़राफ़ी की क़ैद में महबूस रखा। ‘‘जिलाउल उयून सफ़ा 293’’ अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी का बयान है कि मुतावक्किल ने आपके पास जाने पर मुकम्मल पाबन्दी आएद कर दी ‘‘दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 121’’ और हुक्म दिया कि कोई भी आपके क़रीब तक न जाने पाए।

(कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 124 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के तसव्वुरे हुकूमत पर ख़ौफ़े ख़ुदा ग़ालिब था

हज़रत की सीरते जि़न्दगी और अख़लाक़ व कमालात वही थे जो इस सिलसिले असमत की हर फ़र्द के अपने दौर में इम्तेआज़ी तौर पर मुशाहिदे में आते रहे थे , क़ैद खाने और नज़र बन्दी का आलम हो या आज़ादी का ज़माना हर वक़्त हर हाल में यादे इलाही , इबादत , ख़लक़े खुदा से इस्तग़ना सबाते क़दम सब्र इस्तक़लाल , मसाएब के हुजूम में माथे पर शिकन का न होना , दुश्मन के साथ हिलम व मुरव्वत से काम लेना , मोहताजों और ज़रूरत मन्दो की इमादाद करना यही वह औसाफ़ हैं जो हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की सीरते जि़न्दगी में नुमाया नज़र आते हैं।

क़ैद के ज़माने में जहां भी आप रहे आप के मुसल्ले के सामने एक क़ब्र खुदी तैय्यार रहती थी। देखने वालों ने जब इस पर हैरत व दहशत का इज़हार किया तो आपने फ़रमाया मैं अपने दिल में मौत का ख़्याल रखने के लिये यह क़ब्र अपनी निगाहों के सामने तैय्यार रखता हूं। हक़ीक़त मे यह जा़लिम ताक़त को इसके बातिल मुतालबा ए इताअत और इस्लाम की हक़ीक़ी तालीमात कि नश्रो अशाअत के तर्क कर देने की ख़्वाहिश का एक अमली जवाब था। यानी ज़्यादा से ज़्यादा सलातीने वक़्त के साथ जो कुछ है वह जान का लेना। मगर जो शख़्स मौत के लिये इतना तैय्यार हो कर हर वक़्त खुदी हुई क़ब्र अपने सामने रखे। वह ज़ालिम हुकूमत से डर कर सरे तस्लीम ख़म करने पर कैसे मजबूर किया जा सकता है। मगर इसके साथ दुनियावी साजि़शो में शिरकत या हुकूमते वक़्त के खि़लाफ़ किसी बे महल अक़दाम की तैय्यारी से सख्त तरीन जासूसी इन्तेज़ाम के कभी आपके खि़लाफ़ कोई इलज़ाम साबित न हो सका और कभी सलातीने वक़्त को कोई दलील आपके खि़लाफ़ के जवाज़ की न मिल सकी , बा वजूदे कि सलतनते अब्बासिया की बुनियादें इस वक़्त इतनी खोखली हो रही थी कि दारूल सलतनत में हर रोज़ एक नई साजि़श का फि़तना खड़ा होता था।

मुतावक्किल ने खुद इसके बेटे की मुख़ालफ़त और उसके इन्तेइाई अज़ीज़ गु़लाम बाग़र रूमी की इससे दुश्मनी मुतन्तसर के बाद उमराए हुकूमत का इन्तेशार और आखि़र मुतावक्किल के बेटों को खि़लाफ़त से महरूम कराने का फ़ैसला मुस्तईन की दौरे हुकूमत में यहिया बिन उमर यहिया बिन हसीन बिन ज़ैद अलवी का कूफ़ा में ख़ुरूज और हसन बिन ज़ैद अल मुनक़्क़ब ब दाई अलहक़ का एलाक़ए तबरस्तान पर कब्ज़ा कर लेना और मुसतकि़ल सलतनत क़ाएम कर लेना फिर दारूल सलतनत में तुरकी ग़ुलामां की बग़ावत मुस्तईन का सामरा को छोड़ कर बग़दाद की तरफ़ भागना और कि़ला बन्द हो जाना , आखि़र को हुकूमत से दस्त बरदारी पर मजबूर होना और कुछ अर्से बाद माअज़ बिल्लाह के साथ तलवार के घाट , फिर माज़ बिल्लाह के दौर में रूमियों का मुख़ालफ़त पर तैय्यार रहना। माज़ बिल्लाह को खुद अपने भाईयों से ख़तरा महसूस होना और मोवीद की जि़न्दगी का ख़ातमा और मोफि़क़ का बसरा में क़ैद किया जाना , इन तमाम हगांमी हालात , इन तमाम शोरिशो , इन तमाम बेचैनियो और झगड़ो में से किसी में भी हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की शिरकत का शुब्हा तक न पैदा होना क्या इस तर्ज़ अमल के खि़लाफ़ नहीं जो ऐसे मौक़े पर जज़्बात से काम लेने वालों का हुआ करता है। एक ऐसे अक़तेदार के मुक़ाबले में जिसे न सिर्फ़ वह हक़ व इन्साफ़ के रू से नाजाएज़ समझते हैं बल्कि इनके हाथों उन्हें जिलावतनी , क़ैद और एहानितों का सामना भी करना पड़ता है मगर वह जज़्बात से बुलन्द और अज़मते नफ़्स के कामिल मज़हर दुनियावी हंगामों और वक़्त के इत्तेफ़ाक़ी मौका़ं से किसी तरह का फ़ायदा उठाना अपनी बेलौस हक़्क़ानियत और कोह से गरां सदाक़त के खि़लाफ़ समझता है और मुख़ालफ़त पर पसे पुश्त हमला करने को आपने बुलन्द नुक़्ताए निगाह और मेयारे अमल के खि़लाफ़ जानते हुए हमेशा किनारा कश रहा।

(दसवें इमाम सफ़ा 9 )

क़ब्रे हुसैन (अ.स.) के साथ मुतावक्किल की दोबारा बेअदबी 247 हिजरी

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को क़ैद करने के बाद फि़र मुतावक्किल क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) के इन्हेदाम की तरफ़ मुतावज्जा हुआ और चाहा कि नेस्त व नाबूद कर दे। मुवर्रिख़ ने लिखा है कि जब इसे यह मालूम हुआ कि करबला में क़ब्रे हुसैनी की ज़्यारत के लिये एतराफ़े आलम से अक़ीदतमंदों की आमद का तांता बंधा हुआ है और बेशुमार हज़रात ज़्यारत को आते हैं तो मुतावक्किल की आतिशे हसद भड़क उठी और इसने इस सिलसिले को बन्द करने का तैहय्या कर लिया और यह भी न सोचा कि यह वही क़ब्र है जिस पर हस्बे तहक़ीक़ पीराने पीर शेख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी सत्तर हज़ार फ़रिश्ते आसमान से उतर कर ख़ानाए काबा का तवाफ़ करने के बाद जाते हैं वहां रोते हैं और इसकी ज़्यारत करते और मुजावरत के फ़राएज़ रोज़ाना अदा करते हैं।

(ग़नीयतुल तालबैन सफ़ा 374, मजमाउल बहरैन सफ़ा 502 )

आमाली शेख़ तूसी और जिलाउल उयून में है कि मुतावक्किल ने अपनी फ़ौज के दस्ते को ज़्यारत के रोकने और नहरे अलक़मा को काट के क़ब्र पर से गुज़ारने को भेजा और हुक्म दिया जो शख़्स ज़्यारत के लिये आए उसे क़त्ल कर दिया जाए और बाज़ उलमा के बयान के मुताबिक़ यह भी हुक्म दिया गया कि पहले हाथ काटे जायें फिर अगर बाज़ न आऐ तो क़त्ल कर दिये जाऐं यह एक ऐसा हुक्म था जिसने मोतक़ेदीन को बेचैन कर दिया। हज़रत ज़ैद मजनून को दोस्त दाराने आले मौहम्मद स. में से थे , यह ख़बर सुन कर ज़्यारत के लिये मिस्र से चल कर कुफ़े पहुंचे वहां पहुंच कर हज़रत बहलोल दाना से मिले जो उस वक़्त ब मसलेहत अपने को दिवाना बनाए हुए थे। दोनां में तबादलाए ख़्यालात हुआ और दोनों ज़ियारते क़ब्रे मुनव्वर के लिये करबला रवाना हो गये। उन्होंने आपस में तय किया था कि हाथ काटे जाये तो कटवायेंगे क़त्ल होने की ज़रूरत महसूस हो तो क़त्ल हो जायेंगे लेकिन ज़ियारत ज़रूर करेंगे। जब यह दोंनो करबला पहुंचे तो उन्होंने देखा कि क़ब्र की तरफ़ नहर का पानी क़ब्र पर गुज़रने की बे अदबी नहीं करता। पानी क़ब्र तक पहुंच कर फट जाता है और क़तरा कर एतराफ़ व जानिबे क़ब्र का बोसा लेता हुआ गुज़रता है। यह हाल देख कर इनका जज़्बाए मोहब्बत और उभर गया , यह अभी इसी मुक़ाम पर ही थे कि वह शख़्स इनकी तरफ़ मुतावज्जा हुआ जो इन्हेदामें क़ब्र पर मुताअय्यन था। उसने पूछा कि तुम क्यों आये हो ? उन लोगों ने कहा ज़ियारत के लिये। उसने जवाब दिया जो ज़्यारत को आए , मैं उसे क़त्ल करने के लिये मुक़र्रर किया गया हूं। इन हज़रात ने कहा हम क़त्ल होने की तमन्ना में ही आए हैं। यह सुन कर वह इनके पैरों पर गिर पड़ा और अपने अमल से ताऐब हो कर मुतावक्किल के पास वापस गया। मुतावक्किल ने उसे क़त्ल करा कर सूली पर चढ़ा दिया। फिर पैरों में रस्सी बंधवा कर बाज़ार में खिंचवाया। ज़ैद को जब यह वाकि़या मालूम हुआ , फ़ौरन सामरा पहुंचे और उसकी लाश दफ़न की और उस पर क़ुरान मजीद पढ़ा।

अभी हज़रत ज़ैद सामरा में ही थे कि एक दिन बड़े धूम धाम से एक जनाज़ा उठाया गया स्याह अलम साथ था अरकाने दौलत और अमाएदीन सलतनत हमराह थे। चारों तरफ़ से रोने की आवाज़ें आ रही थीं। ज़ैद ने समझा कि शायद मुतावक्किल का इन्तेक़ाल हो गया है। यह मालूम करने के बाद हज़रत ज़ैद ने एक आहे सर्द खींची और कहा अल्लाह अल्लाह फ़रज़न्दे रसूल स. इमाम हुसैन (अ.स.) करबला में तीन रोज़ के भुके प्यासे शहीद कर दिये गये। इन पर कोई रोने वाला नहीं था बल्कि उनकी क़ब्र के निशानात मिटाने के भी लोग दरपए हैं और एक मन्हूस कनीज़ का यह एहतिराम है इसके बाद इसी कि़स्म के मज़ामीन पर मुश्तमिल चन्द अश्आर लिख कर हज़रत ज़ैद मजनून ने मुतावक्किल के पास भिजवा दिया , उसने उन्हें मुक़य्यद कर दिया। मुतावक्किल ने ख़्वाब में देखा कि एक मर्दे मोमिन आए हैं और कहते हैं कि ज़ैद को इसी वक़्त रेहा कर दे। वरना मैं तुझे अभी अभी हलाक कर दूंगा। चुनान्चे उसने उसी वक़्त रेहा कर दिया।

मुतावक्किल का क़त्ल

मुतावक्किल के ज़ुल्म व तआद्दी ने लोगों को जि़न्दगी से बेज़ार कर दिया था। अब इसकी यह हालत हो चूकी थी कि बरसरे आम आले मौहम्मद स. को गालियां देने लगा था। एक दिन उसने अपने बेटे मुस्तनसर के सामने हज़रत फ़ात्मा ज़हरा स. के लिए नासाज़ अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए। मुन्तसार से दरयाफ़्त किया कि जो शख़्स ऐसे अल्फ़ाज़ बिन्ते रसूल स. के लिऐ इस्तेमाल करे उसके लिए क्या हुक्म है। उलमा ने कहा वह वाजेबुल क़त्ल है। तारीख़ अबुल फि़दा में है कि मुनतासिर ने रात के वक़्त बहालते ख़लवत बहुत से आदमियों की मदद से मुतावक्किल को क़त्ल कर दिया। हादी अल तवारीख़ , तारीख़े इस्लाम , जिल्द 1 सफ़ा 66 दमतुस् साकेबा सफ़ा 147 में है कि यह वाकि़या चार शव्वाल 247 हिजरी का है बाज़ मासरीन लिखते हैं मुतावक्किल ने अपने अहदे सलतनत में कई लाख शिया क़त्ल कराए हैं।

इमाम अली नक़ी (अ.स.) को पैदल चलने का हुक्म

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि क़त्ले मुतावक्किल से तीन चार दिन क़ब्ल इसी ज़ालिम मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि मेरी सवारी के साथ तमाम लोग पैदल तफ़रीह के लिये चलें। हुक्म में इमाम (अ.स.) ख़ास तौर पर मामूर थे। चुनान्चे आप भी कई मिल पैदल चल कर वापस तशरीफ़ लाए और आपको इस दर्जे तअब तकलीफ़ हुआ कि आप सख़्त अलील हो गये।

(जिला अल उयून सफ़ा 292 )

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की शहादत

मुतावक्किल के बाद आप का बेटा मुसतनसिर फिर मुसतईन फिर 252 हिजरी में माज़ बिल्लाह ख़लीफ़ा हुआ मोतिज़ इब्ने मुतावक्किल ने भी अपने बाप की सुन्नत को नहीं छोड़ा और हज़रत के साथ सख़्ती ही करता रहा। यहां तक कि उसी ने आपको ज़हर दे दिया। समा अल मोताज़ , अनवारूल हुसैनिया जिल्द 2 सफ़ा 55 और आप व तारीख़ 2 रजब 254 हिजरी बरोज़ दो शम्बा इन्तेक़ाल फ़रमा गए।

(दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 149 )

अल्लामा इब्ने जौज़ी तज़किराए खास अल मता में लिखते हैं कि आप मोताज़ के ज़माने खि़लाफ़त में शहीद किए गये हैं आपकी शहादत ज़हर से हुई है अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि आपको ज़हर से शहीद किया गया। नूरूल अबसार सफ़ा 150, अल्लामा इब्ने हजर लिखते हैं कि आप ज़हर से शहीद हुए हैं सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 124, दमतुस् साकेबा सफ़ा 185 में है कि आपके इन्तेक़ाल से क़ब्ल इमाम हसन अस्करी (अ.स.) को मवारिस अम्बिया वग़ैरा सुपुर्द फ़रमाते थे। वफ़ात के बाद इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने गरेबान चाक किया तो लोग मोतरिज़ हुए। आपने फ़रमाया कि यह सुन्नते अम्बिया है। हज़रत मूसा ने वफ़ाते हज़रत हारून पर अपना गरेबान फाड़ा था।

(दमतुस् साकेबा सफ़ा 185, जिला अल उयून सफ़ा 294 )

आप पर इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने नमाज़ पढ़ी और आप सामरा ही में दफ़्न किए गये इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेउन अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि आपकी वफ़ात इन्तेहाई कसमा पुर्सी की हालत में हुई इन्तेक़ाल के वक़्त आपके पास कोई भी न था।

(जिला अल उयून सफ़ा 292 )

आपकी अज़वाज व औलाद

आपकी कई बीवीयां थीं उनकी कई औलादें पैदा हुईं जिनके असमा यह हैं।

इमाम हसन अस्करी (अ.स.) 2. हुसैन बिन अली 3. मौहम्मद बिन अली 4. जाफ़र बिन अली 5. दुख़्तर मासूमा आयशा बिन्ते अली।

(इरशाद मुफ़ीद सफ़ा 602 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 129 प्रकाशित मिस्र)

हाशिया

अल्लामा क़ाज़ी मौहम्मद सुलैमान मन्सूर पूरी रिटार्यड जज रियासत पटयाला लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी रज़ी अल्लाह अन्हो ताला के दो फ़रज़न्द अबू अब्दुल्लाह जाफ़र क़ज़्ज़ाब और हसन अस्करी र से नस्ल जारी है। अबू अब्दुल्लाह जाफ़र के नाम के साथ लक़ब कज़्ज़ाब बाज़ लोग इस लिए शामिल किया करते हैं कि उन्होने अपने भाई इमाम हसन असकरी (अ.स.) की वफ़ात के बाद ख़ुद इमाम होने का दावा किया था। इनकी औलाद इनको जाफ़र तव्वाब कहती है और अपने आप को रिज़वी कहलाती है। सादाते अमरोहा इन्हीं की नस्ल से हैं। किताब रहमतुलल्लि आलमीन जिल्द 2 पेज न. 146 प्रकाशित लाहौर मेरे नज़दीक मुसन्निफ़ को या तो इल्म नहीं या उन्हें धोखा हो गया है दर अस्ल जनाबे जाफ़र अलैहिर्रहमा की औलाद को नक़वी कहा जाता है।

[[अलहम्दो लिल्लाह ये किताबः अबुलहसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स) जो कि किताबः चौदह सितारे एक हिस्सा है , पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क) के लिऐ टाइप कराया।]]

18 -03 -2016