अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

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अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम काज़िम (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)
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अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की बग़दाद में क़त्ल के लिये तलबी

जैसा कि मैंने ऊपर तहरीर किया है मेंहदी चन्द दिनों से ज़्यादा आले मोहम्मद स. का तरफ़ दार नहीं रहा। आखि़र वह वक़्त आ गया कि उसने इमाम (अ.स.) को मदीने से बग़दाद तलब कर लिया। इस तलबी का मक़सद यह था कि वहां बुला कर उन्हें क़त्ल करा दे। बहर सूरत इसी मक़सद के पेशे नज़र हुक्म पहुँचा कि आप बग़दाद हाजि़र हों। इमाम (अ.स.) हसबुल हुक्म वहां से रवाना हो गये।

अल्लामा शिबलंजी और अल्लामा जामी लिखते हैं कि आप मंजि़ले ज़बाला पर पहुँचे तो आप से अबूख़ालिद ने मुलाक़ात की। अबू ख़ालिद कहते हैं कि मैंने हज़रत मूसा काजि़म (अ.स.) को देखा कि आप उन लोगों की हिरासत में तशरीफ़ ला रहे हैं जो बग़दाद से आपको लाने के लिये भेजे गये थे। मैं हज़रत के क़रीब गया और मैंने सलाम किया , मुझे देख कर इमाम (अ.स.) ख़ुश हो गये और मुझसे फ़रमाने लगे कि फ़लां फ़लां चीज़ें ख़रीद कर अपने पास रख लेना जब मैं वापस आऊंगा तो ले लूगां। मैंने अजऱ् कि बहुत बेहतर। थोड़ी देर के बाद आपने फ़रमाया , अबू ख़ालिद रंजिदा क्यों हो ? मैंने अजऱ् कि , मौला आप दुशमनों के मुँह में जा रहे हैं , डरता हूँ कि जाने वह क्या करें। आपने फ़रमाया , घबराओ नहीं मैं इन्शा अल्लाह वापस आऊगां और अबू ख़ालिद सुनो तुम फ़लां तारीख़ ब वक़्त शाम मेरा इन्तेज़ार करना , यह फ़रमा कर आप रवाना हो गये और बग़दाद जा पहुँचे।

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई व अल्लामा जामी लिखते हैं कि बग़दाद पहुँचते ही आप क़ैद कर दिये गये। अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि थोड़े दिन क़ैद रखने के बाद मेंहदी ने आपको क़त्ल करा देना चाहा और इसी लिये इसने हमीद इब्ने क़हतबा को आधी रात के वक़्त बुला भेजा और उस से कहा कि मेरे और तुम्हारे बाप और भाई के दरमियान कितने अच्छे ताअल्लुक़ात थे और सुनों इस वक़्त मुझे तुम से एक ज़रूरी काम लेना है क्या तुम उसे कर सकोगे , इसने कहा कि हाँ ज़रूर करूगां और ऐ बादशाह अगर तामील इरशाद में मेरा माल , मेरी जान , मेरी औलाद हत्ता कि मेरा ईमान भी काम आजाए तो परवाह नहीं। ख़लीफ़ा मेंहदी ने कहा कि ख़ुदा तुम्हारा भला करे , मुझे तुमसे इसी की तवक़्क़ो थी। देखो काम यह है कि तुम इमाम मूसा काजि़म को सुबह होने से पहले क़त्ल कर दो। उसने कहा बेहतर है। बात तय हो गई , हमीद चला गया। मेंहदी सोने चले गया। अभी थोड़ी ही देर सोया था कि अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ख़्वाब में तशरीफ़ लाये और उससे कहने लगे कि क्या तुम्हें हुकूमत इसी लिये दी गई है कि तुम अहले क़राबत को तबाह कर दो , होश में आओ और अपने इरादाऐ नजिस से बाज़ आओ। यह देख कर मेंहदी बेदार हो गया और उसने फ़ौरन हमीद को कहला भेजा कि मैंने जो हुक्म दिया है उस पर आज अमल न करना। इसी ख़्वाब की वजह से मेंहदी ने उन्हें रेहा कर के मदीने भेज दिया।

अल्लामा जामी (अलैहिर् रहमा) लिखते हैं कि इमाम (अ.स.) वापस आ रहे थे और अबू ख़ालिद ज़बावली का हाल यह था कि जिस दिन से इमाम (अ.स.) ज़बाला से रवाना हुए थे यह बड़ी मुश्किलों से दिन रात काट रहे थे। जब वह दिन आया जिस दिन इमाम (अ.स.) ने पहुँचने का वायदा फ़रमाया था यह घर से निकल कर बग़दाद के रास्ते पर खड़े हो गये। सूरज डूबते ही उनका दिल डूबने लगा और उन्हें यह शुब्हा पैदा होने लगा कि शायद इमाम (अ.स.) पर कोई मुसिबत आ गई है। नागाह देखा कि ईराक़ की तरफ़ से ग़ुबार नमूदार हुआ और उस के आगे इमाम (अ.स.) ख़च्चर पर सवार चले आ रहे हैं। यह देख कर अबू ख़ालिद मसरूर हो गये और इस्तेक़बाद के लिये दौड़ पड़े। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया ऐ अबू खालिद अपने कहने के मुताबिक़ वापस आ गया हूँ लेकिन एक मौक़ा ऐसा भी आने वाला है कि बग़दाद जा कर वापस न आ सकूगां।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 130, दमेए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 13, बा हवालाए मनाकि़ब व बेहार जिल्द 9 पृष्ठ 64, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 193, मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 278 ) फिर वहां से रवाना हो कर आप मदीना ए मुनव्वरा पहुँचे और बा दस्तूर फ़राएज़े इमामत की अदाएगी में मसरूफ़ हो गये।

इमाम मूसा ए काजि़म (अ.स.) हादी अब्बासी की क़ैद में

तवारीख़ में है कि मेहदी के बाद उसका बेटा हादी अब्बासी 22 मोहर्रम 169 हिजरी मुताबिक़ 785 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त पर बैठा। मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि हादी बड़ा खुद सर , खुद राय , जि़द्दी , ख़ूंख़ार और बे रहम था। शराब पीता और लहो आब में मसरूफ़ रहता था।

हादी को आले मोहम्मद (स. अ.) से वही बुग़्ज़ व एनाद था जो उसके आबाव अजदाद को था , उसी की सलतन्त में और उसी के अहद में हुकूमत में मदीने के गर्वनर ने इमाम हसन (अ.स.) की औलाद में से बाज़ अफ़राद का बादा ख़वारी का झूठा इल्ज़ाम लगवा कर पिटवाया और उनके गले में रस्सियां बंधवा कर मदीने के कूचे व बाज़ार में तशहीर कराया और कई सौ बनी हसन को क़त्ल कराया और उनकी नुमायां फ़र्द जनाबे हुसैन बिन अली बिन हसन मुसल्लस बिन हसने मुसन्ना का सर कटवा कर बग़दाद भिजवा दिया और पूरी ताक़त से सादात पर ज़ुल्म करता रहा।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 7 )

हादी ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के साथ वही कुछ किया जो इमाम के आबाव अजदाद के साथ करते आय थे।

अल्लामा इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि ख़लीफ़ा हादी बिन मेहदी ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को कै़द कर दिया। बाप क़ैद की मुसिबतों को बरदाश्त कर ही रहे थे कि एक शब हज़रत अली (अ.स.) ने उसके सामने एक आयत पढ़ी जिसका तरजुमा यह है कि क्या इसी लिये तुम हाकिम बने हो कि फ़साद बरपा करो और क़तए रहम करो। इस ख़्वाब से वह बेदार हुआ और उसने फ़ौरन आपकी रेहाई का हुक्म दिया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122 व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 453 )

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के अख़लाक़ व आदात

अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) उस मुक़द्दस सिलसिले की एक फ़र्द थे जिसको ख़ालिक़ ने नौए इन्सान के लिये मेयारे कमाल क़रार दिया था। इसी लिये उनमें से हर एक अपने वक़्त में बेहतरीन इख़लाक़ व औसाफ़ का मुरक़्क़ा था। बे शक यह एक हक़ीक़त है कि बाज़ अफ़राद में बाज़ सिफ़ात इतने मुम्ताज़ नज़र आते हैं कि सब से पहले उन पर नज़र पड़ती है। चुनान्चे सातवें इमाम (अ.स.) में तहम्मुल व बरदाश्त और ग़ुस्सा ज़ब्त करने की सिफ़ात इतनी नुमाया थी कि आपका लक़ब काजि़म क़रार पा गया। जिसके मानी ही हैं ग़ुस्से को पीने वाला। आपको कभी किसी ने तुर्श रूई और सख़्ती के साथ बात करते नहीं देखा और इन्तेहाई नागवार हालात में भी मुस्कुराते हुये नज़र आये।

मदीने के एक हाकिम से आपको सख़्त तकलीफ़े पहुँची यहां तक कि वह जनाबे अमीर (अ.स.) की शान में भी नाज़ेबा अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किया करता था मगर हज़रत ने अपने असहाब को हमेशा उसके जवाब देने से रोका।

जब अस्हाब ने उसकी ग़ुस्ताखि़यों की बहुत शिकायत की और कहा कि अब हमें ज़ब्त की ताब नहीं हमें उनसे इन्तेक़ाम लेने की इजाज़त दी जाऐ तो हज़रत ने फ़रमाया कि मैं ख़ुद उसका तदारूक करूगां। इस तरह उनके जज़्बात में सुकून पैदा करने के बाद हज़रत ख़ुद उस शख़्स के पास उसके ख़ेमों में तशरीफ़ ले गये और कुछ ऐसा एहसान और हुसने सुलूक फ़रमाया कि वह अपनी ग़ुस्ताखि़यों पर नादिम हुआ और अपने तरज़े अमल को बदल दिया। हज़रत ने अपने अस्हाब से सूरते हाल बयान फ़रमा कर पूछा कि जो मैंने उसके साथ किया वह अच्छा था या जिस तरह तुम लोग उसके साथ करना चाहते थे। सब ने कहा यक़ीनन हुज़ूर ने जो तरीक़ा इख़्तेयार फ़रमाया वही बेहतर था। इस तरह आपने अपने जद्दे बुजुर्गवार हज़रत अमीर (अ.स.) के उस इरशाद को अमल में ला कर दिख लाया जो आज तक नहजुल बलाग़ा में मौजूद है कि अपने दुश्मन पर ऐहसान के साथ फ़तेह हासिल करो क्यों कि यह दो कि़स्म की फ़तेह में ज़्यादा पुर लुत्फ़े कामयाबी है। बेशक इस लिये फ़रीक़े मुख़ालिफ़ के ज़र्फ़ का सही अन्दाज़ा ज़रूरी है और इसी लिये हज़रत अली (अ.स.) ने इन अल्फ़ाज़ के साथ यह भी फ़रमाया है कि ख़बरदार! यह अदम तशद्दुद का तरीक़ा न अहल के साथ इख़्तेयार न करना वरना उसके तशद्दुद में इज़ाफ़ा हो जायेगा।

यक़ीनन ऐसे अदम तशद्दुद के मौक़े को पहचानने के लिये ऐसी ही बालीग़ निगाह की ज़रूरत है जैसी इमाम (अ.स.) को हासिल थी मगर यह उस वक़्त में है जब मुख़ालिफ़ की तरफ़ से कोई ऐसा अमल हो चुका हो जो उसके साथ इन्तेक़ामी तशद्दुद का जवाज़ पैदा कर सके लेकिन अगर उसकी तरफ़ कोई एक़दाम अभी ऐसा न हुआ हो तो यह हज़रात बहर हाल उसके साथ ऐहसान करना पसन्द करते थे ताकि उसके खि़लाफ़ हुज्जत क़ायम हो और उसे ऐसे जारेहाना एक़दाम के लिये तलाश से भी कोई उज़्र न मिल सके बिल्कुल इसी तरह जैसे इब्ने मुल्जिम के साथ जनाब अमीर (अ.स.) को शहीद करने वाला था आखि़र वक़्त तक जनाबे अमीर (अ.स.) एहसान फ़रमाते रहे। इसी तरह मोहम्मद बिन इस्माईल के साथ जो इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की जान लेने के बाएस हुआ। आप एहसान फ़रमाते रहे यहां तक कि इस सफ़र के लिये जो उसने मदीने से बग़दाद की जानिब ख़लीफ़ा अब्बासी के पास इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की शिकायतें करने के लिये किया था। साढ़े चार सौ दीनार और पन्द्रह सौ दिरहम की रक़म ख़ुद हज़रत ही ने अता फ़रमाई थी जिसको वह ले कर रवाना हुआ था।

आपको ज़माना बहुत ना साज़गार मिला था न उस वक़्त वह इल्मी दरबार क़ायम रह सकता था जो इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के ज़माने में क़ायम रह चुका था। न दूसरे ज़राए से तबलीग़ो इशाअत मुमकिन थी। बस आपकी ख़ामोश सीरत ही थी जो दुनिया को आले मोहम्मद (अ.स.) की तालीमात से रूशेनास बना सकती थी। आप अपने मजमूओ में भी अकसर बिलकुल ख़ामोश रहे थे। यहां तक कि जब तक आपसे किसी अमर के मुताअल्लिक़ कोई सवाल न किया जाय आप गुफ़्तुगू में इब्तेदा भी न फ़रमाते थे। इसके बाद आपकी इल्मी जलालत का सिक्का दोस्त और दुश्मन सब के दिल पर क़ायम था और आपकी सीरत की बलन्दी को भी सब मानते थे। इसी लिये आम तौर पर आपको इबादत और शब जि़न्दा दारी की वजह से अब्दे सालेह के लक़ब से याद किया जाता था। आपकी सख़ावत और फ़य्याज़ी का भी शोहरा था और फ़ोक़राए मदीना की अकसर पोशीदा तौर पर ख़बर गीरी फ़रमाते थे। हर नमाज़े सुब्ह की ताक़ीबात के बाद आफ़ताब के बलन्द होने के बाद से पेशानी सजदे में रख देते थे और ज़वाल के वक़्त सर उठाते थे। क़ुरआने मजीद की निहायत दिलकश अन्दाज़ में तिलावत फ़रमाते थे खुद भी रोते जाते थे और पास बैठने वाले भी आपकी आवाज़ से मुताअस्सिर हो कर रोते थे।

(सवानेह मूसा काजि़म पृष्ठ 8 व आलामुल वुरा पृष्ठ 178 )

अल्लामा शिबलंजी लिखते हैं कि हज़रत मूसा काजि़म (अ.स.) का यह तरीक़ा और वतीरा था कि आप फ़की़रों को ढ़ूंढा़ करते थे और जो फ़क़ीर आपको मिल जाता था उसके घर में रूप्या पैसा अशरफ़ी और खाना , पानी पहुँचाया करते थे और यह अमल आपका रात के वक़्त होता था। इस तरह आप फ़ुक़राए मदीना के बे शुमार घरों का आज़ूक़ा चला रहे थे और लुत्फ़ यह है कि उन लोगों तक को यह पता न था कि हम तक सामान पहुँचाने वाला कौन है। यह राज़ उस वक़्त खुला जब आप दुनिया से रेहलत फ़रमा गये।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 136 प्रकाशित मिस्र)

इसी किताब के पृष्ठ 134 में है कि आप हमेशा दिन भर रोज़ा रखते और रात भर नमाज़ें पढ़ा करते थे। अल्लामा ख़तीबे बग़दादी लिखते हैं कि आप बे इन्तेहा इबादत व रियाज़त फ़रमाया करते थे और ताअते ख़ुदा में इस दरजा शिद्दत बरदाश्त किया करते थे जिसकी कोई हद न थी।

एक दफ़ा मस्जिदे नबवी में आपको देखा गया कि आप सजदे में मुनाजात फ़रमा रहे हैं और इस दरजा सजदे को तूल दिया कि सुबह हो गई।

(दफ़यात अल अयान जिल्द 2 पृष्ठ 131 )

एक शख़्स आपकी बराबर बिला वजह बुराईयां करता था जब आपको इसका इल्म हुआ तो आपने एक हज़ार दीनार (अशरफ़ी) उसके घर पर बतौर इनाम भिजवा दिया जिसके नतीजे में वह अपनी हरकत से बाज़ आ गया।

(रवाएह अल मुस्तफ़ा पृष्ठ 264 )

इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की तसनीफ़ात

आपको अगरचे तसनीफ़ात का मौका़ ही नहीं नसीब हुआ लेकिन फिर भी आप उसकी तरफ़ मुतवज्जेह रहे हैं। आपकी एक तसनीफ़ जिसका जि़क्र अल्लामा चलपी बा हवाला हाफि़ज़ अबु नईम असफ़हानी किया है वह मसनदे इमाम मूसा काजि़म है।(कशफ़ुल ज़नून पृष्ठ 433 व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454 )

आपकी रिवायत की हुई हदीसे

आपसे बहुत सी हदीसें मरवी हैं जिनमें की दो यह हैं

1. आं हज़रत (स. अ.) फ़रमाते हैं कि लड़के का अपने वालेदैन के चेहरों पर नज़र करना इबादत है।

2. झूठ और ख़यानत के अलावा मोमिन हर आदत इख़्तेयार कर सकता है।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 134 )

अहमद बिन हम्बल का कहना है कि आपका सिलसिलाए रवायत इतना अहम है कि ‘‘ लौ क़दी अल्लल मजनून ला फ़ाक़ेहा ’’ यानी अगर मजनून पर पढ़ कर दम कर दिया जाय तो उसका जुनून जाता रहे।

(मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 73 )

ख़लीफ़ा हारून रशीद अब्बासी और हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ स . )

पांच रबीउल अव्वल 170 हिजरी को मेहदी का बेटा अबू जाफ़र हारून रशीद अब्बासी ख़लीफ़ाए वक़्त बनाया गया। उसने अपना वज़ीरे आज़म यहीया बिन ख़ालिद बर मक्की को बनाया और इमाम अबू हनीफ़ा के शागिर्द अबू यूसुफ़ को क़ाज़ी क़ज़्ज़ाता का दरजा दिया। बा रवायत ज़ेहनी उसने अगरचे बाज़ अच्छे काम भी किये हैं लेकिन लहो लाब और हुसूले लज़्ज़ाते मम्नुआ में मुन्फ़रीद था।

इब्ने ख़ल्दून का कहना है कि यह अपने दादा मन्सूर दवानक़ी के नक़्शे क़दम पर चलता था फ़कऱ् इतना था कि वह बख़ील था और यह सख़ी। यह पहला ख़लीफ़ा है जिसने राग रागनी और मौसीक़ी को शरीफ़ पेशा क़रार दिया था। उसकी पेशानी पर भी सादात कुशी का नुमायां दाग़ है। इल्मे मौसीक़ी माहिर अबू इस्हाक़ इब्राहीम मौसली उसका दरबारी था। हबीब अल सैर में है कि यह पहला इस्लामी बादशाह है जिसने मैंदान में गेंद बाज़ी की और शतरंज के खेल का शौक़ किया। अहादीस में है कि शतरंज खेलना बहुत बड़ा गुनाह है। जामेए अल अख़बार में है कि जब इमामे हुसैन (अ.स.) का सर दरबारे यज़ीद में पहुँचा था तो वह शतरंज खेल रहा था। तारीख़ अल ख़ुल्फ़ा स्यूती में है कि हारून रशीद अपने बाप की मदख़ूला लौंड़ी पर आशिक़ हो गया। उसने कहा कि मैं तुम्हारे बाप के पास रह चुकी हूँ तुम्हारे लिये हलाल नहीं हूँ। हारून ने क़ाज़ी अबू युसूफ़ से फ़तवा तलब किया। उन्होंने कहा आप इसकी बात क्यों मानते हैं यह झूठ भी तो बोल सकती है। इस फ़तवे के सहारे से उसने उसके साथ बद फ़ेली (बलात्कार) की।

अल्लामा स्यूती यह भी लिखते हैं कि बादशाह हारून रशीद ने एक लौंड़ी ख़रीद कर उसके साथ उसी रात बिला इस्तेबरा जिमआ (सम्भोग) करना चाहा। क़ाज़ी अबू युसूफ़ ने कहा कि इसे किसी लड़के को हिबा कर के इस्तेमाल कर लिजिये।

अल्लामा स्यूती का कहना है कि इस फ़त्वे की उजरत क़ाज़ी अबू युसूफ़ ने एक लाख दिरहम ली थी।

अल्लामा इब्ने ख़ल्क़ान का कहना है कि अबू हनफि़या के शार्गिदों में अबू युसूफ़ की नज़ीर न थी। अगर यह न होते तो इमाम अबू हनीफ़ा का जि़क्र भी न होता।

तारीख़े इस्लाम मिस्टर जा़किर हुसैन मे ब हवाला सहाह अल अख़बार में है कि हारून रशीद का दरजा सादात कुशी में मन्सूर के कम न था। उसने 176 हिजरी में हज़रत नफ़्से ज़किया (अल रहमा) के भाई यहीया को दीवार में जि़न्दा चुनवा दिया था। उसी ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को इस अन्देशे से कि कहीं वह वली अल्लाह मेरे खि़लाफ़ अलमे बग़ावत बलन्द न कर दें अपने साथ हिजाज़ से ईराक़ में ला कर क़ैद कर दिया और 183 हिजरी में ज़हर से हलाक कर दिया। अल्लामा मजलिसी तहफ़्फ़ुज़े ज़ाएर में लिखते हैं कि हारून रशीद ने दूसरी सदी हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र मुताहर की ज़मीन जुतवाई थी और क़ब्र पर जो बेरी का दरख़्त बतौरे निशान मौजूद था उसे कटवा दिया था। जिलाउल उयून और क़म्क़ाम में बाहवाला अमाली शेख़ तूसी मरक़ूम है कि जब इस वाक़ेए की इत्तला जरीर इब्ने अब्दुल हमीद को हुई तो उन्होंने कहा कि रसूले ख़ुदा (स अ व व ) की हदीस ‘‘ अलाअन अल्लाह क़ातेअ अल सिदरता ’’ बेरी के दरख़्त काटने वाले पर ख़ुदा की लानत , का मतलब अब वाज़े हुआ।

(तस्वीरे करबला पृष्ठ 61 प्रकाशित देहली पृष्ठ 1338 )

हारून रशीद का पहला हज और इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की पहली गिरफ़्तारी

मोहम्मद अबुल फि़दा लिखता है कि एनाने हुकूमत लेने के बाद हारून रशीद ने 173 हिजरी मे पहला हज किया।

अल्लामा इब्ने हजर मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ कि जब हारून रशीद हज को आया तो लोगों ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के बारे में चुग़ली खाई कि उनके पास हर तरफ़ से माल चला आता है। इत्तेफ़ाक़ से एक रोज़ हारून रशीद ख़ानाए काबा के नज़दीक हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से मुलाक़ी हुआ और कहने लगा तुम ही हो जिनसे लोग छुप छुप कर बैयत करते है। इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने फ़रमाया कि हम दिलों के इमाम हैं और आप जिसमों के। फिर हारून रशीद ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से पूछा कि तुम किस दलील से कहते हो कि हम रसूल (स अ व व ) की ज़ुर्रियत हैं हालांकि तुम अली की औलाद हो और हर शख़्स अपने दादा से मुन्तसिब होता है नाना से मुन्तसिब नहीं होता। हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने फ़रमाया कि ख़ुदा ए करीम क़ुरान मजीद में इरशाद करता है ‘‘वमन ज़मुरैत दाऊद सुलैमान व अयूबा व ज़करया व यहया व इसा ” और ज़ाहिर है कि हज़रत ईसा बे बाप के पैदा हुए थे तो जिस तरह महज़ अपनी वालेदा की निस्बत से ज़ुर्रियत अम्बिया में मुल्हक़ हुए उसी तरह हम भी अपनी मादरे गिरामी जनाबे फ़ात्मा (स अ व व ) की निस्बत से जनाबे रसूले खुदा (स अ व व ) की ज़ुर्रियत में ठहरे। फिर फ़रमाया कि जब आयत मुबाहेला नाजि़ल हुई तो मुबाहेले के वक़्त पैग़म्बरे ख़ुदा (स अ व व ) ने सिवा अली (अ.स.) और फ़ात्मा (स अ व व ) और हसन हुसैन (अ.स.) के किसी को नहीं बुलाया इस लिहाज़ से हज़रत हसन (अ.स.) व हज़रत हुसैन (अ.स.) ही रसूल अल्लाह (स. अ.) के बेटे क़रार पाए।

(सवाएके़ मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122, नूरूल अबसार पृष्ठ 134 अरजहुल मतालिब पृष्ठ 452 )

अल्लामा इब्ने ख़ल्क़ान लिखते हैं कि हारून रशीद हज करने के बाद मदीना मुनव्वरा आया और ज़्यारत करने के लिये रौज़ा ए मुक़द्देसा नबी (स. अ.) पर हाजि़र हुआ। उस वक़्त उसके गिर्द क़ुरैश और दीगर क़बाएले अरब जमा थे , नीज़ हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी साथ थे। हारून रशीद ने हाज़ेरीन पर अपना फ़ख़्र ज़ाहिर करने के लिये क़ब्रे मुबारक की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा , सलाम हो आप पर ऐ रसूल अल्लाह (स. अ.) ऐ इब्ने अम (मेरे चचा जा़द भाई) हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने फ़रमाया कि सलाम हो आप पर मेरे पदरे बुजुर्गवार यह सुन कर हारून के चेहरे का रंग फ़क़ हो गया और उसने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को अपने हमराह ले जाकर क़ैद कर दिया।

(दफ़ायात अल अयान जिल्द 2 पृष्ठ 131 व तारीख़े अहमदी पृष्ठ 349 )

अल्लामा इब्ने शहर आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में आप हारून रशीद के क़ैद ख़ाने में थे हारून ने आप का इम्तेहान करने के लिये नेहायत हसीन जमील लड़की , आपकी खि़दमत करने के लिये क़ैद ख़ाने में भेज दी। हज़रत ने जब उसे देखा तो लाने वाले से फ़रमाया कि हारून से जा कर कह देना कि उन्होंने यह हदिया वापस दिया हैं। ‘‘ बल अन्तुम बहदयातकम तफर हूना ’’ वह अताए तौबा लक़ा तो इससे तुम ही ख़ुशी हासिल करो। उसने हारून से वाकि़या बयान किया। हारून ने कहा कि इसे ले जाकर वहीं छोड़ आओ और इब्ने जाफ़र से कहो कि न मैंने तुम्हारी मरज़ी से क़ैद किया और न तुम्हारी मरज़ी से तुम्हारे पास यह लौंड़ी भेजी है , मैं जो हुक्म दूँ तुम्हे वह करना होगा। अल ग़रज़ वह लौंड़ी हज़रत के पास छोड़ दी गई।

चन्द दिनों के बाद हारून ने एक शख़्स को हुक्म दिया कि जा कर पता लगाए कि इस लौंड़ी का क्या रहा। उस ने जो क़ैद ख़ाने में जा कर देखा तो वह हैरान रह गया। वह भागा हुआ हारून के पास आ कर कहने लगा कि वह लौंड़ी तो ज़मीन पर सजदे में पड़ी हुई सुब्बूहुन क़ुद्दूसुन कह रही है और इसका अजब हाल है। हारून ने हुक्म दिया कि उसे इसके सामने पेश किया जाए , जब वह आई तो बिल्कुल मबहूस थी। हारून ने पूछा कि बात क्या है ? उसने कहा कि जब हज़रत के पास गई और उनसे कहा कि मैं आपकी खि़दमत के लिये हाजि़र हुईं हूँ तो आपने एक तरफ़ इशारा कर के फ़रमाया कि यह लोग जब कि मेरे पास मौजूद हैं मुझे तेरी क्या ज़रूरत है। मैंने जब उस सिम्त को नज़र की तो देखा कि जन्नत आरास्ता है और हूरो गि़लमान मौजूद हैं , उनका हुस्नों जमाल देख कर मैं सज्दे में गिर पड़ी और इबादत करने पर मजबूर हो गई। ऐ बादशाह ! मैंने वह चीज़े कभी नहीं देखीं जो क़ैद ख़ाने में मेरी नज़र से गुज़रीं। बादशाह ने कहा कि कहीं तूने सोने की हालत में ख़्वाब न देखा हो। उसने कहा ऐ बादशाह! ऐसा नहीं है मैंने आलमे बेदारी में बचश्मे ख़ुद सब कुछ देखा है। यह सुन कर बादशाह ने उस औरत को किसी महफ़ूज़ मुक़ाम पर पहुँचा दिया और उसके लिये हुक्म दिया कि इसकी निगरानी की जाय ताकि यह किसी से यह वाक़ेया बयान न करने पाय। रावी का बयान है कि इस वाकि़ये के बाद वह ता हयात मशग़ूले इबादत रही और जब कोई उसकी नमाज़ वग़ैराह के बारे में कुछ कहता था तो यह जवाब में कहती थी कि मैंने अब्दे सालेह हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को इसी तरह करते देखा है। यह पाक बाज़ औरत हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की वफ़ात से कुछ दिनों पहले फ़ौत हो गई।(मनाक़िब इब्ने शहर आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 63 )

क़ैद ख़ाने से आपकी रेहाई आप क़ैद खा़ने में तकलीफ़ से दो चार थे और हर कि़स्म की सखि़्तयां आप पर की जा रही थीं कि नागाह बादशाह ने एक ख़्वाब देखा जिससे मजबूर हो कर उसने आपको रेहा कर दिया।

अल्लामा इब्ने हजर मक्की बहवाला अल्लामा मसूदी लिखते हैं कि एक शब को हारून रशीद ने हज़रत अली (अ.स.) को ख़्वाब में इस तरह देखा कि वह एक तेशा (एक तरह का हथियार) लिये हुए तशरीफ़ लाये हैं और फ़रमाते हैं कि मेरे फ़रज़न्द को रेहा कर दे वरना मैं अभी तुझे कैफ़रे किरदाद तक पहुँचा दूँगा। इस ख़्वाब को देखते ही उसने रेहाई का हुक्म दे दिया और कहा कि अगर आप यहां रहना चाहें तो रहिये और मदीना जाना चाहते हैं तो वहां तशरीफ़ ले जाइये आपको इख़्तेयार है।

अल्लामा मसूदी का कहना है कि इसी शब को हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ ) को ख़्वाब में देखा था।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122 प्रकाशित मिस्र) अल्लामा जामी लिखते हैं कि मदीने रवाना करते वक़्त हारून ने आप से ख़ुरूज का शुबहा जा़हिर किया। आपने फ़रमाया कि ख़ुरूज व बग़ावत मेरे शायाने शान नहीं है , ख़ुदा की क़सम मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकता।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 192 )

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) और अली बिन यक़तीन बग़दादी

क़ैद ख़ाना ए रशीद से छूटने के बाद हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) मदीना ए मुनव्वरा पहुँचे और बदस्तूर अपने फ़राएज़े इमामत की अदायगी में मशग़ूल हो गये। आप चूंकि इमामे ज़माना थे इस लिये आपको ज़माने के तमाम हवादिस की इत्तेला थी। एक मरतबा हारून रशीद ने अली बिन यक़तीन बिन मूसा कूफ़ी बग़दादी को जो कि हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के ख़ास मानने वाले थे और अपनी कार करदिगी की वजह से हारून रशीद के मुक़र्रेबीन में से थे। बहुत सी चीज़ें दीं जिनमें ख़ेलअते फ़ाख़ेरा और एक बहुत उमदा कि़स्म का सियाह ज़रबफ़त का बना हुआ चोग़ा था जिस पर सोने के तारों से फूल कढ़े हुये थे और जिसे सिर्फ़ ख़ुल्फ़ा औद बादशाह पहना करते थे। अली बिन यक़तीन ने अज़ राहे तक़र्रूब व अक़ीदत उस सामान में और बहुत सी चीज़ों का इज़ाफ़ा कर के हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की खि़दमत में भेज दिया। आपने उनका हदिया क़ुबूल कर लिया लेकिन उसमें से इस लिबास मख़सूस को वापस कर दिया जो ज़रबफ़त का बना हुआ था और फ़रमाया कि उसे अपने पास रखो यह तुम्हारे उस वक़्त काम आयेगा जब ‘‘ जान जोखम ’’ में पड़ी होगी। उन्होंने यह ख़्याल करते हुए कि इमाम ने न जाने किस वाकि़ये की तरफ़ इशारा फ़रमाया हो उसे अपने पास रख लिया। थोड़े दिनों के बाद इब्ने यक़तीन अपने एक ग़ुलाम से नाराज़ हो गये और उसे अपने घर से निकाल दिया। इसने जा कर रशीद ख़लीफ़ा से इनकी चुग़ली खाई और कहा कि आप ने जिस क़दर खि़लअत उन्हें दी है उन्होंने सब का सब हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को दे दिया है और चूंकि वह शिया हैं इस लिये इमाम को बहुत मानते हैं। बादशाह ने जैसे ही यह बात सुनी वह आग बबूला हो गया और उसने फ़ौरन सिपाहियों को हुक्म दिया कि अली बिन यक़तीन को इसी हालत में गिरफ़्तार कर लाऐं जिस हाल में वह हों। अलग़रज़ इब्ने यक़तीन लाए गये , बादशाह ने पूछा मेरा दिया हुआ चोग़ा कहाँ है ? उन्होंने कहा बादशाह मेरे पास है। इसने कहा मैं देखना चाहता हूँ और सुनों ! अगर तुम इस वक़्त उसे न दिखा सके तो मैं तुम्हारी गरदन मार दूँगा। उन्होंने कहा बादशाह मैं अभी पेश करता हूँ। यह कह कर उन्होंने एक शख़्स से कहा कि मेरे मकान में जा कर मेरे फ़ुलां कमरे से मेरा सन्दूक उठा ला। जब वह बताया हुआ सन्दूक ले आया तो आपने उसकी मोहर तोड़ी और चोग़ा निकाल कर उसके सामने रख दिया। जब बादशाद ने अपनी आंखों से चोग़ा देख लिया तो उसका ग़ुस्सा ठन्डा हुआ और ख़ुश हो कर कहने लगा कि अब मैं तुम्हारे बारे में किसी की कोई बात न मानूँगा।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 194 )

अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि फिर उसके बाद रशीद ने और बहुत सा अतिया दे कर उन्हें इज़्ज़त व ऐहतराम के साथ वापस कर दिया और हुक्म दिया कि चुग़ली करने वालों को एक हज़ार कोड़े लगाए जाऐं चुनान्चे जल्लादो ने मारना शुरू किया और वह पाँच सौ कोड़े खा कर मर गया।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 130 )

अली बिन यक़तीन को उलटा वज़ू करने का हुक्म

अल्लामा तबरसी और अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते हैं अली बिन यक़तीन ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को एक ख़त लिखा जिसमें तहरीर किया कि हमारे दरमियान इस अमर में बहस हो रही है कि आया मसह काब से असाबा (उंगलियों) तक होना चाहिये या उंगलियों से काब तक , हुज़ूर इसकी वज़ाहत फ़रमायें। हज़रत ने उस ख़त का एक अजीब व ग़रीब जवाब तहरीर फ़रमाया , आपने लिखा कि मेरा ख़त पाते ही तुम इस तरह वज़ू शुरू करो तीन मरतबा कुल्ली करो , तीन मरतबा नाक में पानी डालो , तीन मरतबा मुह धो अपनी दाढ़ी अच्छी तरह भिगो , सारे सर का मसा करो , अन्दर बाहर कानों का मसा करो तीन मरतबा पाँव धो और देखो मेरे इस हुक्म के खि़लाफ़ हरगिज़ हरगिज़ ना करना। अली बिन यक़तीन ने जब इस ख़त को पढ़ा तो वह हैरान रह गये लेकिन यह समझते हुए मौलाई आलमा बेमा क़ाला आपने जो कुछ हुक्म दिया है उसकी गहराई और उसकी वजह का अच्छी तरह आपको इल्म होगा। इस पर अमल करना शुरू कर दिया।

रावी का बयान है कि अली बिन यक़तीन की मुखा़लेफ़त बराबर दरबार में हुआ करती थी और लोग बादशाह से कहा करते थे कि यह शिया हैं और तुम्हारे मुख़ालिफ़ है। एक दिन बादशाह ने अपने ख़ास मुशीरों से कहा कि अली बिन यक़तीन की शिकायत बहुत हो चुकी है अब मैं ख़ुद छुप कर देख़ूँगा और यह मालूम करूँगा कि वज़ू क्यों कर करते हैं और नमाज़ कैसे पढ़ते हैं। चुनान्चे उसने छुप कर आपके हुजरे में नज़र डाली तो देखा कि वह अहले सुन्नत के उसूल और तरीक़े पर वज़ू कर रहे हैं। यह देख कर उनसे मुतमईन हो गया और उसके बाद से किसी के कहने को बावर नहीं किया। इस वाकि़ये के फ़ौरन बाद हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) का ख़त अली बिन यक़तीन के पास पहुँचा जिसमें मरक़ूम था कि ख़दशा दूर हो गया अब तुम इसी तरह वज़ू करो जिस तरह ख़ुदा ने हुक्म दिया है यानी अब उल्टा वज़ू न करना बल्कि सीधा और सही वज़ू करना और तुम्हारे सवाल का जवाब यह है कि उंगलियों के सर से काबेईन तक पाँव का मसा होना चाहिए।

(आलामुल वरा पृष्ठ 170, मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 58 )

वज़ीरे आज़म अली बिन यक़तीन को हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की फ़हमाईश

अल्लामा हुसैन बिन अब्दुल वहाब तहरीर फ़रमाते हैं कि मोहम्मद बिन अली सूफ़ी का बयान है कि इब्राहीम जमाल जो हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के सहाबी थे , ने एक दिन अबुल हसन अली बिन यक़तीन से मुलाक़ात के लिये वक़्त चाहा उन्होंने वक़्त न दिया। उसी साल वह हज के लिये गये और हज को हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी तशरीफ़ ले गये। इब्ने यक़तीन हज़रत से मिलने के लिये गये उन्होंने मिलने से इन्कार कर दिया। इब्ने यक़तीन को बड़ा ताअज्जुब हुआ। रास्ते मुलाक़ात हुई तो हज़रत ने फ़रमाया कि तुम ने इब्राहीम से मुलाका़त करने से इन्कार किया था इस लिये मैं भी तुम से नहीं मिला और उस वक़्त तक न मिलूगाँ जब तक तुम उनसे माफ़ी न मांगोगे और उन्हें राज़ी न करोगे। इब्ने यक़तीन ने अजऱ् की मौला मैं मदीने में हूँ और वह कूफ़े में है , मेरी मुलाक़ात है कैसे हो सकती है ? फ़रमाया तुम तन्हा बक़ी में जाओ , एक ऊँट तय्यार मिलेगा इस पर सवार हो कर कूफ़ा के लिये रवाना हो चश्में ज़दन में वहां पहुँच जाओगे। चुनान्चे वह गये और ऊँट पर सवार हो कर कूफ़ा पहुँचे , इब्राहीम के दरवाज़े पर दक़्क़ुलबाब किया। आवाज़ आई कौन है ? कहा मैं इब्ने यक़तीन हूँ। उन्होंने कहा तुम्हारा मेरे दरवाज़े पर क्या काम है ? इब्ने यक़तीन ने जवाब दिया , सख़्त मुसीबत में मुबतिला हूँ , ख़ुदा के लिये मिलने का वक़्त दो। चुनान्चे उन्होंने इजाज़त दी। इब्ने यक़तीन ने क़दमों पर सर रख कर माफ़ी मांगी और सारा वाक़ेया कह सुनाया। इब्राहीम जमाल ने माफ़ी दी। फिर इसी ऊँट पर सवार हो कर चश्में ज़दन में मदीने पहुँचे और हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हुए। इमाम ने फिर माफ़ कर दिया और मुलाक़ात का वक़्त दे कर गुफ़्तुगू फ़रमाई।

(ऐनुल मोजेज़ात पृष्ठ 122 प्रकाशित मुल्तान)

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के हुक्म से बादल का एक मर्दे मोमिन को चीन से तालेक़ान पहुँचाने का वाकि़आ

हारून रशीद का एक सवाल और उसका जवाब

यह मुसल्लम है कि हज़रात मोहम्मद व आले मोहम्मद , मोजिज़ात करामात और उमूरे ख़रक़ आदात में यकताए काएनात थे , रजअत शमस , शक़्क़ुल क़मर और हज़रत अली (अ.स.) का एक गिरोह समेत चादर पर बैठ कर ग़ारे अस्हाबे कहफ़ तक सफ़र करना उसके शवाहेद हैं।

अल्लामा मोहम्मद इब्ने शहर आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ खा़लिद बिन समा बयान करते हैं कि एक दिन हारून रशीद ने एक शख़्स को तलब किया था अली बिन सालेह तालक़ानी , पूछा तुम ही वह हो जिसको बादल चीन से उठा कर तालक़ान लाए थे ? कहा हाँ। इसने कहा बताओ क्या वाक़ेआ है , यह क्यों कर हुआ ? तालक़ानी ने कहा कि मैं किश्ती में सवार था नागाह जब मेरी कश्ती समुन्दर के इस मक़ाम पर पहुँची जो सब से ज़्यादा गहरा था तो मेरी कश्ती टूट गई। तीन रोज़ मैं तख़्तों पर पड़ा रहा और मौजें मुझे थपेड़े लगाती रहीं , फिर समुन्द्र की मौजों ने मुझे ख़ुश्की में फेंक दिया। वहाँ नहरे और बाग़ात मौजूद थे , मैं एक दरख़्त के साए में सो गया। इसी असना में मैंने एक ख़ौफ़नाक आवाज़ सुनी , डर के मारे बेदार हो गया। फिर दो घोडो को आपस में लड़ते हुए देखा। ऐसे ख़ूब सूरत घोड़े कभी नहीं देखे थे। उन्होंने जब मुझे देखा , समुन्दर में चले गये। मैंने इसी असना में एक अजीब अल खि़ल्क़त परिन्दे को देखा जो आ कर बैठ गया। पहाड़ के ग़ार के क़रीब मैं दरख़्त में छुपे हुए इसके क़रीब गया ताकि इस को अच्छी तरह देख सकूँ। परिन्दे ने जब मुझे देखा तो उड़ गया। मैं उसके पीछे चल पड़ा। ग़ार के क़रीब मैंने तसबीह व तहलील तकबीर और तिलावते क़ुरआने मजीद की आवाज़ सुनी। मैं ग़ार के क़रीब गया। आवाज़ देने वाले ने आवाज़ दी ‘‘ ऐ अली बिन सालेह तालक़ानी ’’ ख़ुदा तुम पर रहम करे। ग़ार में अन्दर आ जाओ। मैं ग़ार के अन्दर चला गया , वहां एक अज़ीम शख़्स को देखा। मैंने सलाम किया , उसने जवाब दिया। फिर फ़रमाया कि ऐ बिन सालेह तालक़ानी तुम मादन उल क़नूज़ हो। भूख , प्यास और ख़ौफ़ के इम्तेहान में पास हुए हो। अल्लाह ताअला ने तुम पर रहम किया है , तुम्हें नजात दी है। तुम्हें पाकीज़ा पानी पिलाया है। मैं उस वक़्त को जानता हूँ जब तुम कश्ती पर सवार हुए और समुन्दर में रहे , तुम्हारी कश्ती टूट गई कितनी दूर तक मौजों के थपेड़े खाती रही। तुम ने अपने आप को समुन्दर में गिराने का इरादा किया , अगर ऐसा करते तो खुद मौत को दावत देते। बड़ी मुसिबत उठाई। मैं उस वक़्त को भी जानता हूँ जब तुम ने नजात पाई और दो ख़ूब सूरत चीज़ें देखीं। तुम ने परिन्दे का पीछा किया। जब उसने तुम्हे देखा तो आसमान की तरफ़ उड़ गया। अल्लाह ताअला तुम पर रहम करें , आओ यहाँ बैठ जाओ। जब मैंने उस शख़्स की बात सुनी तो उस से कहा , मैं तुम्हें अल्लाह ताअला का वास्ता दे कर पूछता हूँ यह बताओ कि मेरे हालात तुम को किसने बताऐ ? फ़रमाया उस ज़ात ने जो ज़ाहिरो बातिन की जानने वाली है। फिर फ़रमाया कि तुम भूखे हो। मैंने अजऱ् की बेशक भूखा हूँ। यह सुन कर आपने अपने लबों को हरकत दी और एक दस्तरख़्वान रूमाल से ढ़का हुआ हाजि़र हो गया। उन्होंने दस्तरख़्वान से रूमाल को उठा लिया। फ़रमाया अल्लाह ताअला ने जो रिज़्क़ दिया है आओ उसे खाओ। मैंने खाना खाया , ऐसा पाकीज़ा खाना कभी न खाया था फिर मुझे पानी पिलाया , मैंने ऐसा लज़ीज़ और मीठा पानी कभी नहीं पिया था। फिर उन्होंने दो रकअत नमाज़ पढ़ी और मुझ से फ़रमाया कि ऐ अली घर जाना चाहते हो , मैंने अजऱ् कि मैं वतन से बहुत दूर हूँ (चीन के इलाक़े में पडा हूँ) मेरी मदद कौन कर सकता है और मैं क्यो कर यहाँ से वतन जा सकता हूँ ? उन्होंने फ़रमाया घबराओ नहीं हम अपने दोस्तों की मदद किया करते हैं। हम तुम्हारी मदद करेंगे। फिर उन्होंने दुआ के लिये हाथ उठाया , नागाह बादल के टुकड़े आने लगे और ग़ार के दरवाज़े को घेर लिये। जब बादल उनके सामने आया तो उसने बाहुक्मे ख़दा सलाम किया ‘‘ ऐ अल्लाह के वली और उसकी हुज्जत आप पर सलाम हो। उन्होंने जवाबे सलाम दिया। फिर बादल के एक टूकड़े से पूछा कहां का इरादा है और किस ज़मीन के लिये तुम भेजे गये हो। उसने ज़मीन का नाम लिये और वह चला गया। फिर अब्र का एक टुकड़ा सामने आया और आ कर सलाम किया। उन्होंने जवाब दिया। पूछा कहां जाने के लिये आया है ? कहा तालक़ान जाने का हुक्म दिया गया है। ऐ ख़ुदा ए वहदहू ला शरीक का इताअत गुज़ार अब्र जिस तरह अल्लाह की दी हुई चीज़ें उड़ा कर लिये जा रहा है इसी तरह इस बन्दाए मोमिन को भी ले जा। जवाब मिला ब सरो चश्म (सर आंखों पर) फिर उन्होंने बादल को हुक्म दिया कि ज़मीन पर बराबर हो जा , वह ज़मीन पर आ गया , फिर मेरे बाज़ू को पकड़ कर उस पर बैठा दिया। बादल अभी उड़ने भी न पाया था कि मैंने उनकी खि़दमत में अजऱ् की , मैं आपको अल्लाम ताअला की क़सम और मोहम्मद (स.अ.व.व.) और आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) का वास्ता दे कर पूछता हूँ कि आप यह फ़रमाइये आप हैं कौन ? आप का इस्मे गेरामी (नाम) क्या है ? इरशाद फ़रमाया ! ऐ अली बिन सालेह तालक़ानी मैं ज़मीन पर अल्लाह की हुज्जत हूँ और मेरा नाम मूसा बिन जाफ़र (मूसा काजि़म) है। फिर मैंने उनके आबाव हजदाद की इमामत का जि़क्र किया और उन्होंने बादल को हुक्म दिया और वह बलन्द हो कर हवा के दोश पर चल पड़ा। ख़ुदा की क़सम न मुझे कोई तकलीफ़ पहुँची और न ख़ौफ़ ला हक़ हुआ। मैं थोडी़ देर में वतन ‘‘ तलक़ान ’’ जा पहुँचा और ठीक उस सड़क पर उतरा जिस पर मेरा मकान था। यह सुन कर हारून रशीद ने जल्लादों को हुक्म दे कर उसे इस लिये क़त्ल करा दिया कि वह कहीं इस वाकि़ये को लोगों में बयान न कर दे और अज़मते आले मोहम्मद और वाज़े न हो जाय।

(मनाक़िब इब्ने शहर आशोब जिल्द 3 पृष्ठ 121 प्रकाशित मुल्तान)