अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम हसन (अ)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)
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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


1

बाप की शमशीर का हमसर है बेटे का क़लम।

बाज़ुए हैदर की ताक़त , खा़मए शब्बर में है।।

फ़तेह ख़ैबर में है मुज़मर मक़सदे सुलहे हसन।

मक़सदे सुलहे हसन , फ़तहे दरे ख़ैबर में है।।

साबिर थरयानी (कराची)

वली ज़ुलमेनन , हज़रत हसन , आँ सरवरे ख़ूबां।

कि हर चीज़ अज़ अदम बाकु़दर तश मुमकिन ज़े इमकाँ शुद।।

ज़ेहे सौदाए बातिल , के तवानम , मदहे आँ शाहे।

कि मदाहश ख़ुदा , रावी पयम्बर , मदहे कु़रां शुद।।

हज़रत इमाम हसन (अ स ) , अमीरल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) व सय्यदतुननिसां हज़रत फ़ात्मा (स अ व व ) के फ़रज़न्द और पैग़म्बरे ख़ुदा हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) व मोहसिने इस्लाम हज़रत ख़दीजतुल कुबरा के नवासे थे। आपको खु़दा वन्दे आलम ने मासूम मन्सूस अफ़ज़ले कायनात आलिमे इल्मे लदुन्नी क़रार दिया है।

आपकी विलादत

आप 15 रमज़ानुल मुबारक 3 हिजरी की शब को मदीनाए मुनव्वरा में पैदा हुये। विलादत से क़ब्ल उम्मे अफ़ज़ल ने ख़्वाब में देखा कि रसूले अकरम (स अ व व ) के जिस्मे मुबारक का एक टूकड़ा मेरे घर में आ पहुँचा है। ख़्वाब रसूले करीम (स अ व व ) से बयान किया। आपने फ़रमाया कि इसकी ताबीर यह है कि मेरे लख़्ते जिगर फ़ात्मा के बत्न से एक बच्चा पैदा होगा जिसकी परवरिश तुम करोगी। मुवर्रेखी़न का बयान है कि रसूल (स अ व व ) के घर में आपकी पैदाईश अपनी नवैय्यत की पहली ख़ुशी थी। आपकी विलादत ने रसूल (स अ व व ) के दामन में मक़तूलून् नसल होने का धब्बा साफ़ कर दिया और दुनियां के सामने सूरए कौसर की एक अमली और बुनियादी तफ़सीर पेश कर दी।

आपका नामे नामी

विलादत के बाद इस्मे गेरामी हम्ज़ा तजवीज़ हो रहा था लेकिन सरवरे कायनात (स अ व व ) ने बा हुक्मे खुदा मूसा (अ.स.) के वज़ीर हारून (अ.स.) के फ़रज़न्दों के शब्बीर व शब्बर नाम पर आपका नाम हसन और बाद में आपके भाई का नाम हुसैन रखा। बेहारूल अनवार में है कि इमाम हसन (अ.स.) की पैदाईश के बाद जिब्राईले अमीन ने सरवरे कायनात (स अ व व ) की खि़दमत में एक सफ़ैद रेशमी रूमाल पेश किया जिस पर हसन , हुसैन लिखा हुआ था। माहिरे इल्म अल नसब अल्लामा अबुल हुसैन का कहना है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने दोनो शाहज़ादों का नाम अन्ज़ारे आलम से पोशीदा रखा था यानी इनसे पहले हसन और हुसैन नाम से कोई मोसूम नहीं था। किताबे आलमे अलवरी के मुताबिक़ यह नाम भी लौहे महफ़ूज़ में लिखा हुआ था।

ज़बाने रिसालत दहने इमामत में अल्ल शराए में है कि जब इमाम हसन (अ.स.) की विलादत हुई और आप सरवरे कायनात (स अ व व ) की खि़दमत में लाये गये तो रसूले करीम (स अ व व ) बे इन्तेहा खु़श हुये और उनके दहने मुबारक में अपनी ज़बाने अक़दस दे दी। बेहारूल अनवार में है कि आं हज़रत ने नौज़ायदा बच्चे को आग़ोश में ले कर प्यार किया और दाहिने कान में अज़ान और बांए में अक़ामत फ़रमाने के बाद अपनी ज़बान उनके मुंह में दे दी इमाम हसन (अ.स.) उसे चूसने लगे। इसके बाद आपने दुआ की ख़ुदाया इसको और इसकी औलाद को अपनी पनाह में रखना। बाज़ लोगों का कहना है कि इमाम हसन (अ.स.) को लोआबे दहने रसूल (स अ व व ) कम और इमाम हुसैन (अ.स.) को ज़्यादा चूसने का मौक़ा दस्तियाब हुआ था। इसी लिये इमामत नसले इमाम हुसैन (अ.स.) में मुस्तक़र हो गई।

आपका अक़ीक़ा

आपकी विलादत के सातवें दिन सरवरे कायनात ने खुद अपने दस्ते मुबारक से अक़ीक़ा फ़रमाया और बालों के मुंडवा कर उसके हम वज़न चांदी तसद्दुक़ की।(असद उल ग़ाबेता जिल्द 3 पृष्ठ 13 ) अल्लामा कमालुद्दीन का बयान है कि अक़ीक़े के सिलसिले में दुम्बा ज़ब्हा किया गया था।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 220 ) काफ़ी कुलैनी में है कि सरवरे कायनात (स अ व व ) ने अक़ीक़े के वक़्त जो दुआ पढ़ी थी उसमें यह इबारत भी थीः अल्लाह हुम्मा अज़महा बाअज़मा लहमहा , बिल हमा , दमहा बदमहा वशअरहा , बशराही , अल्लाहा हुम्मा अज अलहा वक़आ लम हमीदिन वालेही

तरजुमाः

खु़दाया इसकी हड्डी मौलूद की हड्डी के ऐवज़ , इसका गोश्त उसके गोश्त के एवज़ , इसका ख़ून उसके खून के ऐवज़ , इसका बाल उसके बाल के ऐवज़ क़रार दे और इसे मोहम्मद व आले मोहम्मद (स अ व व ) के लिये हर बला से नजात का ज़रिया बना दे। इमामे शाफ़ेई का कहना है कि आं हज़रत (स अ व व ) ने इमामे हसन (अ.स.) का अक़ीक़ा कर के इसके सुन्नत होने की दाएमी बुनियाद डाल दी।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 220 ) बाज़ माआसेरीन ने लिखा है कि आं हज़रत (स अ व व ) ने आपका ख़त्ना भी कराया था लेकिन मेरे नज़दीक यह सही नहीं है क्यो कि इमामत की शान से मख़्तून पैदा होना भी है।

कुन्नियत व अलक़ाब

आपकी कुन्नियत सिर्फ़ अबू मोहम्मद थी और आपके अलक़ाब बहुत कसीर हैं जिनमें तय्यब , तक़ी , सिब्त व सय्यद ज़्यादा मशहूर हैं। (मोहम्मद बिन तलहा शाफ़ेई का बयान है कि आपका सय्यद लक़ब खुद सरवरे कायनात का अता करदा है।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 221 )

ज़्यारते आशूरा से मालूम होता है कि आपका लक़ब नासेह और अमीन भी था।

इमामे हसन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स .अ.व.व. ) की नज़र में

यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि इमाम हसन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) के नवासे थे लेकिन कु़रआने मजीद ने उन्हें फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व ) का दरजा दिया है और अपने दामन में जा बजा आपके तज़किरे को जगह दी है। ख़ुद सरवरे कायनात (स अ व व ) ने बे शुमार आहादीस आपके मुताअल्लिक़ इरशाद फ़रमाई हैं। एक हदीस में है कि आं हज़रत (स अ व व ) ने इरशाद फ़रमाया है कि मैं हसनैन को दोस्त रखता हूं और जो उन्हें दोस्त रखे उसे भी क़द्र की निगाह से देखता हूँ। एक सहाबी का बयान है कि मैंने रसूले करीम (स अ व व ) को इस हाल में देखा है कि वह एक कंधे पर इमामे हसन (अ.स.) और एक पर इमामे हुसैन (अ.स.) को बिठाए हुए लिये जा रहे हैं और बारी बारी दोनों का मुंह चूमते जाते हैं। एक सहाबी का बयान है कि एक दिन आं हज़रत (स अ व व ) नमाज़ पढ़ रहे थे और हसनैन आपकी पुश्त पर सवार हो गये किसी ने रोकना चाहा तो हज़रत ने इशारे से मना फ़रमाया।(असाबा जिल्द 2 पृष्ठ 12 ) एक सहाबी का बयान है कि मैं उस दिन से इमाम हसन (अ.स.) को बहुत ज़्यादा दोस्त रखने लगा हूँ जिस दिन मैंने रसूले करीम (स अ व व ) की आग़ोश में बैठ कर उन्हें उनकी दाढ़ी से खेलते हुए देखा।(नूरूल अबसार पृष्ठ 113 ) एक दिन सरवरे कायनात (स अ व व ) इमाम हसन (अ.स.) को कंधे पर सवार किये हुए कहीं लिये जा रहे थे , एक सहाबी ने कहा कि ऐ साहब ज़ादे तुम्हारी सवारी किस क़द्र अच्छी है , यह सुन कर आं हज़रत (स अ व व ) ने फ़रमाया कहो कि किस क़द्र अच्छा सवार है।(असद अल ग़ाब्बा जिल्द 3 पृष्ठ 15 बाहवाला तिरमिज़ी) इमाम बुख़ारी और इमाम मुस्लिम लिखते हैं कि एक दिन रसूले खुदा (स अ व व ) इमाम हसन (अ.स.) को कांधे पर बिठाए हुए फ़रमा रहे थे ख़ुदाया मैं इसे दोस्त रखता हूँ तू भी इससे मुहब्बत कर। हाफ़िज़ अबू नईम , अबू बक्र से रवायत करते हैं कि एक दिन आं हज़रत (स अ व व ) नमाज़े जमाअत पढ़ा रहे थे कि नागाह इमाम हसन (अ.स.) आ गये और वह दौड़ कर पुश्ते रसूल (स अ व व ) पर सवार हो गये यह देख कर रसूल (स अ व व ) ने निहायत नरमी के साथ सर उठाया। इख्तेतामे नमाज़ पर आपसे इसका तज़किरा किया गया तो फ़रमाया यह मेरा गुले उम्मीद है।

इब्नी हाज़ा सय्यद यह मेरा बेटा सरदार है और देखो यह अनक़रीब दो बड़े गिरोहों में सुलह करायेगा। इमाम निसाई अब्दुल्लाह इब्ने शद्दाद से रवायत करते हैं कि एक दिन नमाज़े इशा पढ़ाने के लिये आं हज़रत (स अ व व ) तशरीफ़ लाये आपकी आग़ोश में इमाम हसन (अ.स.) थे आं हज़रत नमाज़ में मशग़ूल हो गये जब सजदे में गये तो इतना तूल कर दिया कि मैं यह समझने लगा कि शायद आप पर वही नाज़िल होने लगी है। इख़्तेतामे नमाज़ पर आपसे इसका तज़किरा किया गया तो फ़रमाया कि मेरा फ़रज़न्द मेरी पुश्त पर आ गया था , मैंने यह न चाहा कि उसे उस वक़्त तक पुश्त से उतारूं जब तक कि वह खुद न उतर जाये , इस लिये सजदे को तूल देना पड़ा। हकीम तिरमिजी़ और निसाई व अबू दाऊद ने लिखा है कि आं हज़रत (स अ व व ) एक दिन महवे ख़ुत्बा थे कि हसनैन (अ.स.) आ गये और हसन (अ.स.) के पांव अबा के दामन में इस तरह उलझे कि ज़मीन पर गिर पडे़ , यह देख कर आं हज़रत (स अ व व ) ने ख़ुतबा तर्क कर दिया और मिम्बर से उतर कर आग़ोश में उठा लिया और मिम्बर पर ले जा कर ख़ुत्बा शुरू फ़रमाया।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 223 )

इमाम हसन (अ.स.) की सरदारीए जन्नत

आले मोहम्मद (अ.स.) की सरदारी मुसल्लेमात में से है , उलेमाए इस्लाम का इस पर इत्तेफ़ाक़ है कि सरवरे कायनात (स अ व व ) ने इरशाद फ़रमाया हैःالحسن والحسین سیدا شباب اهل الجنة و ابوهما خیر منهما

हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) जवानाने बहिश्त के सरदार हैं और उनके वालिदे बुज़ुर्गवार यानी अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) इन दोनों से बेहतर हैं। जनाबे हुज़ैफ़ाए यमानी का बयान है कि मैंने आं हज़रत (स अ व व ) को एक दिन बहुत ही मसरूर पा कर अर्ज़ कि मौला आज इफ़राते शादमानी की क्या वजह है ? इरशाद फ़रमाया कि मुझे आज जिब्राईल ने यह बशारत दी है कि मेरे दोनों फ़रज़न्द हसन (अ.स.) व हुसैन (अ.स.) जवानाने बेहिशत के सरदार हैं और उनके वालिद अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) उनसे बेहतर हैं।(कन्ज़ुल आमाल जिल्द 7 पृष्ठ 107, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 117 ) इस हदीस से इसकी भी वज़ाहत हो गई है कि हज़रत अली (अ.स.) सिर्फ़ सय्यद ही न थे बल्कि फ़रज़न्दाने सियादत के बाप थे।

जज़बाए इस्लाम की फ़रावानी

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि एक दिन अबू सुफ़ियान हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर कहने लगा कि आप आं हज़रत (स अ व व ) से सिफ़ारिश कर के एक ऐसा मोहायदा लिखवा दीजिए जिसके रू से मैं अपने मक़सद में कामयाब हो सकूं। आप ने फ़रमाया कि आं हज़रत (स अ व व ) जो कह चुके हैं अब उसमें बाल बराबर फ़र्क़ न होगा। उसने इमाम हसन (अ.स.) से सिफ़ारिश की ख़्वाहिश की। आपकी उम्र अगरचे उस वक़्त सिर्फ़ 4 साल की थी लेकिन आप ने उस वक़्त ऐसी र्जुअत का सबूत दिया जिसका तज़किरा ज़बाने तारीख़ पर है। लिखा है कि अबू सुफ़ियान की तलब सिफ़ारिश पर आपने दौड़ कर उसकी दाढ़ी पकड़ ली और नाक मरोड़ कर कहा कलमा ए शहादत ज़बान पर जारी करो। तुम्हारे लिये सब कुछ है। यह देख कर अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) मसरूर हो गये।(मनाक़िबे आले अबू तालिब जिल्द 4 पृष्ठ 46 )

इमाम हसन (अ.स.) और तरजुमानी वही

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) का यह तरीका था कि आप इन्तेहाई कम सिनी के आलम में अपने नाना पर नाज़िल होने वाली वही मन अन अपनी वालेदा माजेदा को सुना दिया करते थे। एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ बिन्ते रसूल मेरा जी चाहता है कि हसन को तरजुमानीए वही खुद करते हुए देखूं और सुनूं सय्यदा (स अ व व ) ने इमाम हसन (अ.स.) के पहुँचने का वक़्त बता दिया। एक दिन अमीरल मोमेनीन (अ.स.) हसन (अ.स.) से पहले दाखि़ले ख़ाना हो गये और गोशा ख़ाना में छुप कर बैठ गए। इमाम हसन (अ.स.) हसबे मामूल तशरीफ़ लाये और मां की आग़ोश में बैठ कर वही सुनानी शुरू कर दी , लेकिन थोड़ी देर के बाद अर्ज़ कि , ‘‘ या अमाह क़द तलजलज लेसानी व कुल बयानी लाअल सय्यदी यरानी ’’ मादरे गेरामी आज वही तरजुमानी में लुक़नत और बयाने मक़सद में रूकावट हो रही है मुझे ऐसा मालूम होता है कि जैसे मेरे बुजु़र्ग मोहतरम मुझे देख रहे हों। यह सुन कर हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने दौड़ कर इमाम हसन (अ.स.) को आग़ोश में उठा लिया और बोसा देने लगे।(बेहारूल अनवार जिल्द 10 पृष्ठ 193 )

हज़रत इमाम हसन (अ.स.) का बचपन में लौहे महफ़ूज़ का मुतालेआ करना।

इमाम बुख़ारी रक़म तराज़ हैं कि एक दिन कुछ सदक़े की खजूरें आईं हुई थीं इमाम हसन (अ.स.) इसके ढेर से खेल रहे थे और खेल ही के तौर पर इमाम हसन (अ.स.) ने दहने अक़दस में रख ली , यह देख कर आं हज़रत (स अ व व ) ने फ़रमाया , ऐ हसन क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि हम लोगों पर सदक़ा हराम है।(सही बुखारी पारा 6 पृष्ठ 25 )

हज़रत हुज्जतुल इस्लाम शहीदे सालिस का़ज़ी नूर उल्लाह शूशतरी फ़रमाते हैं कि इमाम पर अगरचे वही नाज़ील नहीं होती लेकिन उसको इल्हाम होता है और वह लौहे महफ़ूज़ का मुतालेआ करता है जिस पर अल्लामा इब्ने हजरे असक़लानी का वह क़ौल दलालत करता है जो उन्होंने सही बुखा़री की इस रवायत की शरह में लिखा है जिसमें आं हज़रत (स अ व व ) ने इमाम हसन (अ.स.) के शीरख़्वारगी के आलम में सदक़े की खजूर के मुंह में रख लेने पर ऐतेराज़ फ़रमाया था। ‘‘ कख़ कख़ अमा ताअलम अनल सदक़तः अलैना हराम ’’ थूकू थूकू क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोगों पर सदक़ा हराम है और जिस शख़्स ने यह ख़्याल किया कि इमाम हसन (अ.स.) उस वक़्त दूध पीते थे , आप पर अभी शरई पाबन्दी न थी आं हज़रत (स अ व व ) ने उन पर क्यों एतेराज़ किया। इसका जवाब अल्लामा असक़लानी ने अपनी फ़तेह अलबारी शरह सही बुखा़री में दिया है कि इमाम हसन (अ.स.) और दूसरे बच्चे बराबर नहीं हो सकते। क्यों कि ‘‘انا الحسن یتلالع لوح المحفوظ ’’ इमाम हसन (अ.स.) शीर ख़्वारगी के आलम में भी लौहे महफ़ूज़ का मुतालेआ किया करते थे।(हक़ाएक़ुल हक़ पृष्ठ 127 )

ख़लीफ़ाए अव्वल को मिम्बरे रसूल (स .अ.व.व. ) से उतरने का हुक्म

अल्लामा इब्ने हसर और इमामे सियूती रक़मतराज़ हैं कि इमाम हसन (अ.स.) एक दिन मस्जिदे रसूल (स अ व व ) से गुज़रे। आपने देखा कि हज़रत अबू बक्र मिम्बरे रसूल (स अ व व ) पर बैठे हुये है आप से रहा न गया और आप मिम्बर के क़रीब तशरीफ़ ले जा कर फ़रमाने लगेانزل ممنر ابی

मेरे बाप के मिम्बरे से उतर आओ , यह तुम्हारे बैठने की जगह नहीं है , यह सुन कर वह मिम्बर से उतर आये और इमाम हसन (अ.स.) को अपनी आग़ोश में बैठा लिया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 105, तारीलख अल ख़ोल्फ़ा पृष्ठ 55, रियाज़ुन नज़रा पृष्ठ 128 )

इमाम हसन (अ.स.) का बचपन और मसाएले इल्मिया

यह मुसल्लेमात से है कि हज़रात आइम्मा ए मासूमीन (अ.स.) को इल्मे लदुन्नी हुआ करता था। वह दुनिया में तहसीले इल्म के मोहताज नहीं हुआ करते थे। यही वजह है कि वह बचपन में ही ऐसे मसाएले इल्मिया से वाक़िफ़ होते थे जिनसे दुनिया के आम उलेमा अपनी ज़िन्दगी के आख़री उम्र तक बे बहरा रहते थे। इमाम हसन (अ.स.) जो ख़ानवादाए रिसालत की एक फ़र्द अकमल और सिलसिले असमत की एक मुस्तहकम कड़ी थे कि बचपन के हालात व वाक़ेयात देखे जायें तो मेरे दावे का सबूत मिल सकेगा।

पहला वाकिआ

मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब में ब हवाले शरह अख़बारे क़ाज़ी नोमान मरक़ूम है कि एक सायल हज़रत अबू बक्र की खि़दमत में आया और उसने सवाल किया कि मैंने हालाते अहराम में शुतर मुर्ग़ के चन्द अन्डे भून कर खा लिये हैं बताइये कि मुझ पर क्या कफ़्फ़ारा वाजिब उल अदा हुआ ? सवाल का जवाब चूंकि उनके बस का न था , इस लिये अरक़े निदामत पेशानिये खि़लाफ़त पर आ गया। इरशाद हुआ कि इसे अब्दुल रहमान बिन औफ़ के पास ले जाओ। जो उनसे सवाल दोहराया तो वह भी ख़ामोश हो गये और कहा कि इसका हल तो अमीरल मोमेनीन (अ.स.) कर सकते हैं। साएल हज़रत अली (अ.स.) की खिदमत में लाया गया। आपने साएल से फ़रमाया कि मेरे दो छोटे बच्चे जो सामने नज़र आ रहे हैं उनसे दरयाफ़्त कर ले। साएल इमामे हसन (अ.स.) की तरफ़ मुतवज्जे हुआ और मसला दोहराया , इमामे हसन (अ.स.) ने जवाब दिया कि तूने जितने अन्डे खाए हैं उतनी ही ऊंटनियां ले कर उन्हें हामेला करा और उन से जो बच्चे पैदा हों उन्हें राहे ख़ुदा में हदियाए खा़ना काबा कर दे। अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने हंस कर फ़रमाया कि बेटा जवाब तो बिल्कुल सही है लेकिन यह तो बताओ कि क्या ऐसा नहीं है कि कुछ हमल ज़ाया हो जाते हैं और कुछ बच्चे मर जाते हैं। अर्ज़ कि बाबा जान बिल्कुल दुरूस्त है , मगर ऐसा भी तो होता है कि कुछ अन्डे भी ख़राब और गन्दे निकल जाते हैं। यह सुन कर साएल पुकार उठा कि एक मरतबा अपने अहद में सुलैमान बिन दाऊद ने भी यही जवाब दिया था जैसा कि मैंने अपनी किताबो में देखा है।

दूसरा वाकिआ

एक रोज़ अमीरल मोमेनीन (अ.स.) मक़ामे रहबा में तशरीफ़ फ़रमा थे और हसनैन (अ.स.) वहां मौजूद थे , नागाह एक शख़्स आ कर कहने लगा कि मैं आपकी रियाया और अहले बलद(शहरी) हूं। हज़रत ने फ़रमाया कि तू झूठ बोलता है , तू न तो मेरी रियाया में से है और न मेरे शहर का शहरी है , बल्कि तू बादशाहे रोम का फ़रसतादा है। तुझे उसने माविया के पास चन्द मसाएल दरयाफ़्त करने के लिये भेजा था और उसने मेरे पास भेज दिया है। उसने कहा या हज़रत आपका इरशाद बिल्कुल बजा है मुझे माविया ने पोशीदा तौर पर आपके पास भेजा है और इसका हाल ख़ुदा वन्दे आलम के सिवा किसी को मालूम नहीं है , मगर आप बा इल्मे इमामत समझ गये। आप ने फ़रमाया की अच्छा अब इन मसाएल के जवाबात इन दो बच्चों में से किसी एक से भी पूछ ले। यह इमाम हसन (अ.स.) की तरफ़ मुतवज्जे हो कर चाहता था कि सवाल करे कि इमाम हसन (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ शख़्स तू यह दरियाफ़्त करने आया है कि , 1. हक़ो बातिल में कितना फ़ासला है ?, 2. ज़मीन व आसमान तक कितनी मसाफ़त है ?, 3. मशरिक़ व मग़रिब में कितनी दूरी है ?. 4. का़ैस क़ज़ा क्या चीज़ है ?, 5. मख़नस किसे कहते हैं ?, 6. वह दस चीज़ें क्या हैं जिनमें से हर एक को ख़ुदा वन्दे आलम ने दूसरे से सख़्त और फ़ाएक़ पैदा किया है ?.

सुन हक़ व बातिल में चार अंगुश्त का फ़र्क़ व फ़ासला है। अक्सर व बेशतर जो कुछ आंख से देखा है और जो कुछ कान से सुना व बातिल है। (आंख से देखा हुआ यक़ीनी , कान से सुना हुआ मोहताजे तहक़ीक़) ज़मीन और आसमान के दरमियान इतनी मसाफ़त है कि मज़लूम की आह और आंख की रौशनी पहुँच जाती है। मशरिक़ व मग़रिब में इतना फ़ासला है कि सूरज एक दिन में तय कर लेता है और कौसे क़ज़ा असल में कौसे ख़ुदा है। इस लिये कि क़ज़ह शैतान का नाम है। यह फ़रावनी रिज़्क़ और अहले ज़मीन के लिये ग़र्क़ से अमान की अलामत है इस लिये अगर यह ख़ुश्की में नमूदार होती है तो बारिश के अलामात से समझी जाती है और बारिश में निकलती है तो ख़त्मे बारान की अलामात में से शुमार की जाती है। मुख़न्नस वह है जिसके मुताअल्लिक़ यह मालूम न हो कि वह मर्द है या औरत और जिसके जिस्म में दोनों के आज़ा हों। इसके हुक्म यह है कि ता हदे बुलूग़ इन्तेज़ार करे , अगर मोहतलिम हो तो मर्द और हायज़ हो और पिस्तान उभर आयें तो औरत। अगर इससे मसला हल न हो तो देखना चाहिये कि उसके पेशाब की धार सीधी जाती है कि नहीं , अगर वह सीधी जाती है तो मर्द वरना औरत। और वह दस चीज़ें जिनमें से एक दूसरे पर ग़ालिब व क़वी हैं वह यह हैं कि ख़ुदा ने सब से ज़्यादा सख़्त पत्थर को पैदा किया है मगर इस से ज़्यादा सख़्त लौहा है जो पत्थर को भी काट देता है , उससे ज़्यादा सख़्त क़वी आग है जो लोहे को पिघला देती है और आग से ज़्यादा सख़्त क़वी पानी है जो आग को बूझा देता है और इससे ज़्यादा सख़्त क़वी अब्र है जो पानी को अपने कंधों पर उठाए फिरता है और उससे ज़्यादा क़वी हवा है जो अब्र को उड़ाये फिरती है और हवा से ज़्यादा सख़्त व क़वी फ़रिश्ता है जिसकी हवा महकूम है और उससे ज़्यादा सख़्त व क़वी मलकुल मौत है जो फ़रिशताए बाद की भी रूह क़ब्ज़ कर लेंगे और मलकुल मौत से भी ज़्यादा सख़्त व क़वी मौत है जो मलकुल मौत को भी मात डालेगी और मौत से भी ज़्यादा सख़्त क़वी हुक्मे ख़ुदा है। यह जवाबात सुन कर साएल फ़ड़क उठा।

तीसरी वाकिआ

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) से मनक़ूल है कि एक मरतबा लोगों ने देखा कि एक शख़्स के हाथ में खून आलूदा छुरी है और उसी जगह एक शख़्स ज़ब्ह किया हुआ पड़ा है। जब उससे पूछा गया कि तूने उसे क़त्ल किया है तो उसने कहा हां। लोग उसे जसदे मक़तूल समेत जनाबे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की खि़दमत में चले। इतने में एक शख़्त दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि इसे छोड़ दों , इस मक़तूल का क़ातिल मैं हूँ। उन लोंगों ने उसे भी साथ ले लिया और हज़रत के पास ले गये। सारा क़िस्सा बयान किया गया। आपने पहले शख़्स से पूछा कि जब तू इसका क़ातिल नहीं था तो क्या वजह है कि अपने को इस का क़ातिल बयान किया। उसने कहा मौला मैं क़स्साब हूँ। गोसफ़न्द ज़ब्ह कर रहा था कि मुझे पेशाब की हाजत हुई। इस तरह ख़ून आलूदा छुरी लिये हुये उस ख़राबे में चला गया , वहां देखा की वह मक़तूल ताज़ा ज़िब्हा किया हुआ पड़ा है , इतने में लोग आ गये और मुझे पकड़ लिया। मैंने यह ख़्याल करते हुये कि इस वक़्त जब कि क़त्ल के सारे क़राएन मौजूद हैं मेरे इन्कार को कौन बावर करेगा। मैंने इक़रार कर लिया। फिर आपने दूसरे से पूछा कि तू इसका क़ातिल है ? उसने कहा जी हंा मैं ही उसे क़त्ल कर के चला गया था। जब देखा कि एक क़स्साब की ना हक़ जान चली जायेगी , तो हाज़िर हो गया। आपने फ़रमाया मेरे फ़रज़न्द हसन को बुलाओ वही इस मक़सद का फ़ैसला सुनायेंगे। इमाम हसन (अ.स.) आये सारा क़िस्सा सुना। फ़रमाया दोनों को छोड़ दो यह क़स्साब बे कु़सूर है और यह शख़्स अगरचे का़तिल है मगर उसने एक नफ़्स को क़त्ल किया तो दूसरे नफ़्स (क़स्साब) को बचा कर उसे हयात दी और उसकी जान बचा ली , और हुक्मे क़ुरआन है कि ! ‘‘ मन अययाहा फ़ाक़ानमा अहया अन्नास जमीअन ’’ जिसने एक नफ़्स की जान बचाई उसने गोया तमाम लोगों की जान बचाई। लेहाज़ा उस मक़तूल का ख़ून बहा बैतुलमाल से दे दिया जाये।

चौथा वाकिआ

अली इब्ने इब्राहीम क़ुम्मी ने अपनी तफ़सीर मे लिखा कि शाहे रोम ने जब हज़रत अली (अ.स.) के मुक़ाबले में माविया की चीरा दस्तियों से आगाही हासिल की तो दोनों को लिखा कि मेरे पास एक एक नुमाइन्दा भेज दें। हज़रत अली (अ.स.) की तरफ़ से इमाम हसन (अ.स.) और माविया की तरफ़ से यज़ीद की रवानगी अमल में आई। यज़ीद ने वहां पहुँच कर शाहे रोम की दस्त बोसी की और इमाम हसन (अ.स.) ने जाते ही कहा कि ख़ुदा का शुक्र है मैं यहूदी , नसरानी , मजूसी वग़ैरा नहीं हूँ बल्कि ख़ालिस मुसलमान हूँ। शाहे रोम ने चन्द तसावीर निकालीं। यज़ीद ने कहा कि मैं इन में से एक को भी नहीं पहचानता और न बता सकता हूं कि यह किन हज़रात की शक्लें हैं। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) ने , हज़रत आदम (अ स ) , हज़रत नूह (अ स ) , हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और शुऐब (अ.स.) व याहीया (अ.स.) की तसवीरें देख कर शक्लें पहचान लीं और एक तसवीर देख कर आप रोने लगे। बादशाह ने पूछा यह किसी तसवीर है ? फ़रमाया मेरे जद्दे नामदार की। इसके बाद बादशाह ने सवाल किया कि वह कौन से जान दार हैं जो अपनी मां के पेट से पैदा नहीं हुए ? आपने फ़रमाया कि ऐ बादशाह , वह सात 7 जानदार हैं। 1. आदम , 2. हव्वा , 3. दुम्बाए इब्राहीम , 4. नाक़ा ए सालेह , 5. इबलीस , 6. मुसवी अज़दहा , 7. वह कव्वा जिसने क़ाबील की दफ़्ने हाबील की तरफ़ रहबरी की। बादशाह ने यह तबह्हुरे इल्मी देख कर बड़ी इज़्ज़त की और ताहएफ़ के साथ वापस किया।

इमाम हसन (अ.स.) और तफ़सीरे क़ुरआन

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई बा हवाला ए तफ़सीर वसीत वाहिदी लिखते हैं कि एक शख़्स ने इब्ने अब्बास और इब्ने उमर से एक आयत से मुताअल्लिक़ ‘‘ शाहिद व मशहूद ’’ के मानी दरयाफ़्त किये। इब्ने अब्बास ने शाहिद से यौमे जुमा और मशहूद से यौमे अरफ़ा बताया और इब्ने उमर ने यौमे जुमा और यौमुल नहर कहा। इसके बाद वह शख़्स इमाम हसन (अ.स.) के पास पहुँचा। आपने शाहिद से रसूले ख़ुदा (स अ व व ) और मशहूद से यौमे क़यामत फ़रमाया और दलील से आयत पढ़ी। 1. ‘‘ या अय्योहन नबी अना अरसलनाका शाहिदो मुबशशिरो नज़ीरा ’’ ऐ नबी हम ने तुम को शाहिदो मुबशशिर और नज़ीर बना कर भेजा। 2. ‘‘ ज़ालेका यौमे मजमूआ लहा अन्नास व ज़ालेका यौमे मशहूद ’’ क़यामत का वह दिन होगा , जिसमें तमाम लोग एक मक़ाम पर जमा कर दिये जायेंगे और यही यौमे मशहूर है। साएल ने सब के जवाब सुन्ने के बाद कहा ‘‘ फ़काना का़ैल अल हसन अहसन ’’ इमाम हसन (अ.स.) का जवाब दोनों से कहीं बेहतर है।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 225 )

इमाम हसन (अ.स.) की साया ए रहमत से महरूमी

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि इमाम हसन (अ.स.) की उम्र जब सात 7 , साल पांच 5 , माह और तेरह 13 दिन की हुई तो आपके सर से रहमतुल लिल आलेमीन का साया 28 सफ़र 11 हिजरी को उठ गया। अभी आप नाना का सोग मनाने से फ़राग़त हासिल न कर सके थे कि 3 जमादिउस्सानी 11 हिजरी को आपकी वालेदा माजेदा हज़रत फ़ात्मा ज़हरा (स अ व व ) ने भी इन्तेक़ाल फ़रमाया। इस गाम बालाए ग़म ने इमाम हसन (अ.स.) को बे इन्तेहा सदमा पहुँचाया।

मुशहबेहते रसूल (स अ व व )

अल्लामा अली मुत्तक़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रते अली (अ.स.) फ़रमाया करते थे कि हसन रसूले करीम (स. अ.) की शक्लो शबाहत से बहुत ज़्यादा मुशाबेह है। अनस बिने मालिक का बयान है कि इमाम हसन (अ.स.) के जिस्म का निस्फ़ बालाई हिस्सा रसूल अल्लाह (स अ व व ) से और निस्फ़ हिस्सा ज़ेरी अमीरल मोमेनीन (अ.स.) से मुशाबेहत है।

एक रवायत में है कि आं हज़रत (स अ व व ) फ़रमाया करते थे कि हसन में ख़ुदा ने हैबत और सरदारी और हुसैन में जुर्रत व हिम्मत वदीअत की है।(कन्ज़ुल आमाल जिल्द 7 पृष्ठ 107 )

इमाम हसन (अ.स.) की इबादत

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़रमाते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) ज़बरदस्त आबिद बेमिसाल ज़ाहिद , अफ़ज़ल तरीन आलिम थे। आप ने जब भी हज फ़रमाया पैदल फ़रमाया। कभी कभी पा बरहैना हज को जाते थे। आप अकसर मौत , अज़ाबे क़ब्र , सिरात और बेअसत व नशूर को याद कर के रोया करते थे। जब आप वज़ू करते थे तो आपके चेहरे का रंग ज़र्द हो जाया करता था और जब नमाज़ के लिये खड़े होते थे तो बेद की मिस्ल कांपने लगते थे। आपका मामूल था कि जब दरवाज़ए मस्जिद पर पहुँचते तो खुदा को मुख़ातिब करके कहते , मेरे पालने वाले तेरा गुनाहगार बन्दा तेरी बारगाह में आया है ऐ रहमानों रहीम अपनी अच्छाईयों के सदक़े में मुझ जैसे बुराई करने वाले को माफ़ कर दे। आप जब नमाज़े सुबह से फ़ारिग़ होते थे तो उस वक़्त तक वजा़एफ़ में मशगू़ल रहते थे जब तक सूरज तुलू न हो जाये।(रौज़ातुल वाएज़ीन व बेहारूल अनवार)

आपका ज़ोहद

इमाम शाफ़ेई लिखते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) ने अक्सर अपना सारा माल राहे ख़ुदा में तक़सीम कर दिया और बाज़ मरतबा निस्फ़ माल तक़सीम फ़रमाया। वह अज़ीम ज़ाहिदो परहेज़गार थे।

आपकी सख़ावत

मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि एक शख़्स ने हज़रत इमाम हसन (अ.स.) से कुछ मांगा। दस्त सवाल दराज़ होना था कि आपने 50,000 (पचास हज़ार) दिरहम और 500 (पांच सौ) अशर्फि़यां दे दीं और फ़रमाया कि मज़दूर ला कर इसे उठा ले जा। इसके आपने मज़दूर की मज़दूरी में अपना चोग़ा बख़्श दिया।(मरातुल जनान 123 ) एक मरतबा आपने एक साएल को ख़ुदा से दुआ करते हुए सुना , ख़ुदाया मुझे दस हज़ार दिरहम अता फ़रमा। आपने घर पहुँच कर मतलूबा रक़म भिजवा दी।(नूरूल अबसार पृष्ठ 122 )

आपसे किसी ने पूछा कि आप तो फ़ाक़ा करते हैं लेकिन साएल को महरूम वापस नहीं फ़रमाते। इरशाद फ़रमाया कि मैं खु़दा से मांगने वाला हूँ उसने मुझे देने की आदत डाल रखी है , और मैंने लोगों को देने की आदत डाली है। मैं डरता हूँ कि अगर अपनी आदत बदल दूं तो कहीं ख़ुदा भी अपनी आदत न बदल दे और मुझे भी महरूम कर दे।(सफ़ा 123 )

तवक्कुल के मुताअल्लिक़ आपका इरशाद

इमामे शाफ़ेई का बयान है कि किसी ने इमाम हसन (अ.स.) से अर्ज़ की कि अबूज़रे ग़फ़्फ़ारी फ़रमाया करते थे कि मुझे तवंगरी से ज़्यादा नादारी और सेहत से ज़्यादा बीमारी पसन्द है। आपने फ़रमाया कि ख़ुदा अबू ज़र पर रहम करे उनका कहना दुरूस्त है लेकिन मैं तो कहता हूँ कि जो शख़्स के क़ज़ा व क़द्र पर तवक्कल करे वह हमेशा इसी चीज़ को पसन्द करेगा जिसे खु़दा उसके लिये पसन्द करे।(मरातुल जेना जिल्द 1 पृष्ठ 125 )

इमाम हसन (अ.स.) हिल्म और अख़्लाक़ के मैदान में

अल्लामा इब्ने शहरे आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम हसन (अ.स.) घोड़े पर सवार कहीं तशरीफ़ लिये जा रहे थे , रास्ते में माविया के तरफ़दारों का एक शामी सामने आ पड़ा। उसने हज़रत को गालियां देनी शुरू कर दी। आपने उसका मुतलक़न कोई जवाब न दिया। जब वह अपनी जैसी कर चुका तो आप उसके क़रीब गये और उसको सलाम कर के फ़रमाया कि भाई शायद तू मुसाफ़िर है , सुन अगर तुझे सवारी की ज़रूरत हो , तो मैं तुझे सवारी दे दूं। अगर तू भूखा हो तो खाना खिला दूं। अगर तुझे कपड़े दरकार हों तो कपड़े दे दूं। अगर तुझे रहने को जगह चाहिये तो मकान का इन्तेज़ामक र दूं। अगर दौलत की ज़रूरत है तो तुझे इतना दे दूं कि तू ख़ुश हाल हो जाये। यह सुन कर शामी बे इन्तेहा शरमिन्दा हुआ और कहने लगा कि मैं गवाही देता हूँ कि आप ज़मीने ख़ुदा पर ख़लीफ़ा हैं। मौला मैं तो आपको और आपके बाप दादा के सख़्त नफ़रत और हिक़ारत की नज़र से देखता था लेकिन आज आपके इख़्लाक़ ने मुझे आपका गिरवीदा बना दिया। अब मैं आपके क़दमों से दूर न जाऊंगा और ता हयात आपकी खि़दमत में रहूँगा।(मुनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 53 व कामिल मबरूज 2 पृष्ठ 86 )

एहसान का बदला एहसान

अबुल हसन मदाईनी का बयान है कि एक मरतबा इमाम हसन (अ स ) , इमाम हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार हज को जाते हुए भूख और प्यास की हालत में एक ज़ईफ़ा के झोपड़े में जा पहुँचे और उससे खाने पीने की चीज़ तलब फ़रमाई। उसने अर्ज़ की कि मेरे पास एक बकरी है उसका दूध दूह कर प्यास बुझाई जा सकती है , उन्होंने दूध पी लिया लेकिन गुरसनगी से तसल्ली न हुई तो उससे फ़रमाया कि कुछ खाने का बन्दो बस्त भी हो सकता है। उसने कहा मेरे पास तो बस यही एक बकरी है लेकिन मैं क़सम देती हूँ कि आप इसे ज़ब्ह कर के तनावुल फ़रमा लें। बकरी ज़ब्ह की गई गोश्त भूना गया और सब ने खा लिया और इसके बाद क़दरे आराम कर के वह लोग रवाना हो गये। जब शाम को उसका शौहर आया तो उस औरत ने सारा वाक़िया सुनाया। शौहर ने पूछा वह कौन लोग थे ? कहा मालूम नहीं , जाते वक़्त यह कहा था कि हम मदीने के रहने वाले है। शौहर ने कहा ख़ुदा की बन्दी यह तो बता कि अब हमारा गुज़ारा किस तरह होगा। ग़रज़ कि थोड़े ही अरसे में उन लोगों को क़हत का सामना करना पड़ा और यह सख़्त मुसिबतों में मुब्तिला हो कर भीख मांगते हुए मदीने जा पहुँचे। एक गली से गुज़र रहे थे कि नागाह इमाम हसन (अ.स.) की निगाह उस औरत पर जा पड़ी। आप ने उसे बुलवा कर बकरी वाला वाक़िया याद दिलाया और उसको एक हज़ार बकरियां और एक हज़ार अशर्फि़यां इनायत फ़रमा दीं और उसे इमाम हुसैन (अ.स.) की खि़दमत में भेज दिया , उन्होंने भी उसे इसी क़द्र बकरियां वग़ैरा अता फ़रमाई फिर अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र को इत्तेला दी गई उन्होंने भी उसी के लगभग उसे दे दिया। वह माला माल हो कर अपने घर वापस चली गई।(नूरूल अबसार पृष्ठ 121 व मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 229 )

115-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(तलबे बारिश के सिलसिले में)

ख़ुदाया! हमारे पहाड़ों का सब्ज़ा ख़ुश्क हो गया है और हमारी ज़मीन पर ख़ाक उड़ रही है। हमारे जानवर प्यासे हैं और अपनी मन्ज़िल की तलाश में सरगर्दां हैं और अपने बच्चों के हक़ में इस तरह फ़रयादी हैं जैसे ज़न पिसर मुर्दा, सब चरागाहों की तरफ़ फेरे लगाने और तालाबों की तरफ़ वालेहाना तौर पर दौड़ने से आजिज़ आ गए हैं, ख़ुदाया! अब इनकी फ़रयादी की बकरियों और इष्तिेयाक़ आमेज़ पुकारने वाली ऊंटनियों पर रहम फ़रमा। ख़ुदाया! इनकी राहों में परेशानी और मन्ज़िलों पर चीख़ व पुकार पर रहम फ़रमा। ख़ुदाया् हम इस वक़्त घर से निकल कर आए हैं जब क़हत साली के मारे हूए लाग़र ऊंट हमारी तरफ़ पलट पड़े हैं और जिनसे करम की उम्मीद थी वह बादल आकर चले गए हैं। अब दर्द के मारों का तू ही आसरा है और इल्तिजा करने वालों का तू ही सहारा है। हम उस वक़्त दुआ कर रहे हैं जब लोग मायूस हो चुके हैं। बादलों के ख़ैर को रोक दिया गया है और जानवर हलाक हो रहे हैं तो ख़ुदाया हमारे आमाल की बिना पर हमारा मवाखि़ज़ा न करना, और हमें हमारे गुनाहों की गिरफ़्त में मत ले लेना, अपने दामने रहमत को हमारे ऊपर फैला दे बरसने वाले बादल, मूसलाधार बरसात और इसीन सब्ज़ा के ज़रिये। ऐसी बरसात जिससे मुरदा ज़मीन ज़िन्दा हो जाएं और गई हुई बहार वापस आ जाए। ख़ुदाया! ऐसी सेराबी अता फ़रमा जो ज़िन्दा करने वाली, सेराब बनाने वाली। कामिल व शामिल, पाकीज़ा व मुबारक, ख़ुशगवार व शादाब हो जिसकी बरकत से नबातात फलने फूलने लगें। शाख़ें बारआवर हो जाएं, पत्ते हरे हो जाएं, कमज़ोर बन्दों को उठने का सहारा मिल जाए, मुर्दा ज़मीनों को ज़िन्दगी अता हो जाए। ख़ुदाया! ऐसी सेराबी अता फ़रमा जिससे टीले सब्ज़ापोश हो जाएं, नहरें जारी हो जाएं, आस-पास के इलाक़े शादाब हो जाएं, फल निकलने लगें, जानवर जी उठें, दूर दराज़ के इलाक़े भी तर हो जाएं और खुले मैदान भी तेरी इस वसीअ बरकत और अज़ीम अता से मुस्तफ़ैज़ हो जाएं जो तेरी तबाह हाल मख़लूक़ आवारागर्द जानवरों पर है। हम पर ऐसी बारिश नाज़िल फ़रमा जो पानी से शराबोर कर देने वाली, मूसलाधार, मुसलसल बरसने वाली हो, जिसमें क़तरात, क़तरात को ढकेल रहे हों और बून्दें बून्दों को तेज़ी से आगे बढ़ा रही हों। न उसकी बिजली धोका देने वाली हो और न उसके बादल पानी से ख़ाली हों न उसके अब्र से सफ़ेद टुकड़े बिखरे हों और न सिर्फ़ ठण्डे झोंकों की बून्दाबान्दी हो, ऐसी बारिश हो के क़हत के मारे हुए इसकी सरसब्ज़ियों से ख़ुशहाल हो जाएं और ख़ुश्क साली के शिकार इसकी बरकत से जी उठें। इसलिये के तू ही हमारी मायूसी के बाद पानी बरसाने वाला और दामाने रहमत का फैलाने वाला है तू ही क़ाबिले हम्द व सताइश, सरपरस्त व मददगार है।

सय्यद रज़ी- इन्साहत जबालना- यानी पहाड़ों में ख़ुश्कसाली से शिगाफ़ पड़ गए हैं के इन्साहलसौब कपड़े के फट जाने को कहा जाता है। या इसके मानी घास के ख़ुश्क हो जाने के हैं। साहा-इन्साह ऐसे मवाक़ेअ पर भी इस्तेमाल होता है, हामत दवाबना - यानी प्यासे हैं और हयाम यहाँ अतश के मानी हैं।

हदाबीरल सनीन- हदबार की जमा है, वह ऊंट जिसे सफ़र लाग़र बना दे, गोया के क़हतज़दा साल को इस ऊंट से तशबीह दी गई है जैसा के ज़वालरमा शाएर ने कहा था- (यह लाग़र और कमज़ोर ऊंटनिया हैं जो सख़्ती झेलकर बैठ गई हैं या फिर बेआब व ग्याह सहरा में ले जाने पर चली जाती हैं)

या क़ज़अ रबाबहा- क़जअ - बादल के छोटे-छोटे टुकड़े, ला शफ़्फ़ान ज़हाबहा - असल में “ज़ाते शफ़ान”है- शफ़ान ठण्डी हवा को कहा जाता है और ज़ेहाब हल्की फवार का नाम है। यहाँ लफ़्ज़ “ज़ात”हज़फ़ हो गया है।

116- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें अपने असहाब को नसीहत फ़रमाई है)

अल्लाह ने पैग़म्बर (स0) को इस्लाम की तरफ़ दावत देने वाला और मख़लूक़ात के आमाल का गवाह बनाकर भेजा तो आपने पैग़ामे इलाही को मुकम्मल तौर से पहुंचा दिया। न कोई सुस्ती और न कोई कोताही , दुश्मनाने ख़ुदा से जेहाद किया और इस राह में न कोई कमज़ोरी दिखलाई और न किसी बख़ीला और बहाने का सहारा लिया। आप मुत्तक़ीन के इमाम और तलबगाराने हिदायत के लिये आंखों की बसारत थे।

अगर तुम इनत माम बातों को जान लेते जो तुमसे मख़फ़ी रखी गई हैं और जिनको मैं जानता हूँ तो सहराओं में निकल जाते। अपने आमाल पर गिरया करते और अपने किये पर सर व सीना पीटते और सारे अमवाल को इस तरह छोड़ कर चल देते के न इनका कोई निगहबान होता और न वारिस और हर शख़्स को सिर्फ़ अपनी ज़ात की फ़िक्र होती। कोई दूसरे की तरफ़ रूख़ भी न करता। लेकिन अफ़सोस के तुमने इस सबक़ को बिल्कुल भुला दिया जो तुम्हें याद कराया गया था और उन हौलनाक मनाज़िर की तरफ़ से यकसर मुतमईन हो गए जिनसे डराया गया था। तो तुम्हारी राय भटक गई और तुम्हारे कामो में इन्तेशार पैदा हो गया और मैं यह चाहने लगा के काश अल्लाह मेरे और तुम्हारे दरम्यान जुदाई डाल देता और मुझे उन लोगों से मिला देता जो मेरे लिये ज़्यादा सज़ा थे। वह लोग जिनकी राय मुबारक और जिनका हिल्म ठोस है। हक़ की बातें करते हैं और बग़ावत व सरकशी से किनारा करने वाले हैं। उन्होंने रास्ते पर क़दम आगे बढ़ाए और राहे रास्त पर तेज़ी से बढ़ते चले गये, जिसके नतीजे में दाएमी आख़ेरत और पुरसुकून करामत हासिल कर ली।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

आगाह हो जाओ के ख़ुदा की क़सम तुम पर वह नौजवान बनी सक़ीफ़ का मुसल्लत हो जाएगा जिसका क़द तवील होगा और वह लहराकर चलने वाला होगा। तुम्हारे सब्ज़े को हज़म कर जाएगा और तुम्हारी चर्बी को पिघला दे, हाँ, हाँ अबू ऐ अबू वज़हा कुछ और।

(((- अमीरूल मोमेनीन (अ0) की ज़िन्दगी का अज़ीमतरीन इल्मिया है के आँख खोलने के बाद से 30 साल तक रसूले अकरम (स0) के साथ गुज़ारे। इसके बाद चन्द मुख़लिस असहाबे कराम के साथ रहा इसके बाद जब ज़माने ने पलटा खाया और इक़्तेदार क़दमों में आया तो एक तरफ़ नाक्सीन , क़ासेतीन और ख़वारिज का सामना करना पड़ा और दूसरी तरफ़ अपने गिर्द कूफ़े के बेवफ़ाओं का मजमा लग गया। ज़ाहिर है के ऐसा शख़्स इस हाल को देख कर उसके माज़ी की तमन्ना न करे तो और क्या करे और उसने ज़ेहन से अपना माज़ी किस तरह निकल जाए।-)))

117- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें जान व माल से कंजूसी करने वालों की सरज़निश गई है)

न तुमने माल को उसकी राह में ख़र्च किया जिसने तुम्हें अता किया था और न जान को उसकी ख़ातिर ख़तरे में डाला जिसने पैदा किया था। तुम अल्लाह के नाम पर बन्दों में इज्ज़त हासिल करते हो और बन्दों के बारे में अल्लाह का एहतेराम नहीं करते हो, ख़ुदारा इस बात से ग़ैरत हासिल करो के अनक़रीब उन्हें मनाज़िल में नाज़िल होने वाले हो जहां पहले लोग नाज़िल हो चुके हैं और क़रीबतरीन भाइयों से पलट कर रह जाने वाले हो।

118-आपका इरशादे गिरामी

(अपने असहाब में नेक किरदार अफ़राद के बारे में)

तुम हक़ के सिलसिले में मददगार और दीन के मामले में भाई हो। जंग के रोज़ मेरी सिपर और तमाम लोगों में मेरे राज़दार हो। मैं तुम्हारे ही ज़रिया रूगरदानी करने वालों पर तलवार चलाता हूँ और रास्ते पर आने वालों की इताअत की उम्मीद रखता हूँ। लेहाज़ा ख़ुदारा मेरी मदद करो इस नसीहत के ज़रिये जिसमें मिलावट न हो और किसी तरह के शक व शुबहे की गुन्जाइश न हो के ख़ुदा की क़सम मैं लोगों की क़यादत के लिये तमाम लोगों से ऊला और अहक़ हूँ।

119-आपका इरशादे गिरामी

(जब आपने लोगों को जमा करके जेहाद की तलक़ीन की और लोगों ने सुकूत इख़्तेयार कर लिया तो फ़रमाया)

तुम्हें क्या हो गया है, क्या तुम गूंगे हो गए हो? इस पर एक जमाअत ने कहा के या अमीरूल मोमेनीन (अ0)! आप चलें हम चलने के लिये तैयार हैं। फ़रमाया , तुम्हें क्या हो गया है- अल्लाह तुम्हें हिदायत की तौफ़ीक़ न दे और तुम्हें सीधा रास्ता नसीब न हो। क्या ऐसे हालात में मेरे लिये मुनासिब है के मैं ही निकलूँ? ऐसे मौक़े पर एक शख़्स को निकलना चाहिये जो तुम्हारे बहादुरों और जवाँमर्दों में मेरा पसन्दीदा हो और हरगिज़ मुनासिब नहीं है के मैं लशकर, शहर बैतुलमाल, ख़ेराज की फ़राहेमी, क़ज़ावत, मुतालबात करने वालों के हुक़ूक़ की निगरानी का सारा काम छोड़कर निकल जाऊँ और लशकर लेकर दूसरे लशकर का पीछा करूं और इस तरह जुम्बिश करता रहूँ जिस तरह ख़ाली तरकश में तीर। मैं ख़ेलाफ़त की चक्की का मरकज़ हूँ जिसे मेरे गिर्द चक्कर लगाना चाहिये के अगर मैंने मरकज़ छोड़ दिया तो उसकी गर्दिश का दाएरा मुतज़लज़ल हो जाएगा और उसके नीचे की बिसात भी जाबजा हो जाएगी। ख़ु़दा की क़सम यह बदतरीन राय है और वही गवाह है के अगर दुशमन का मुक़ाबला करने में मुझे शहादत की आरज़ू न होती, जबके वह मुक़ाबला मेरे लिये मुक़द्दर हो चुका हो, तो मैं अपनी सवारियों को क़रीब करके उनपर सवार होकर तुमसे बहुत दूर निकल जाता और फिर तुम्हें उस वक़्त तक याद भी न करता जब तक शिमाली व जुनूबी हवाएं चलती रहें। तुम तन्ज़ करने वाले, ऐब लगाने वाले, किनारा कशी करने वाले और सिर्फ़ शोर मचाने वाले हो, तुम्हारे आदाद की कसरत का क्या फाएदा है जब तुम्हारे दिल यकजा नहीं हैं। मैंने तुमको इस वाज़ेअ रास्ते पर चलाना चाहा जिस पर चलकर कोई हलाक नहीं हो सकता है मगर यह के हलाकत इसका मुक़द्दर हो। इसी राह पर चलने वाले की वाक़ेई मन्ज़िल जन्नत है और यहाँ फिसल जाने वाले का रास्ता जहन्नम है।

(((-ऐ लोग हर दौर में दीनदारों में भी रहे हैं और दुनियादारों में भी, जो क़ौम से हर तरह के एहतेराम के तलबगार होते हैं और क़ौम का किसी तरह का एहतेराम नहीं करते हैं, लोगों से दीने ख़ुदा की ठेकेदारी के नाम पर हर तरह की क़ुरबानी का तक़ाज़ा करते हैं और ख़ुद किसी तरह की क़ुरबानी का इरादा नहीं करते हैं उनकी नज़र में दीने ख़ुदा दुनिया कमाने का बेहतरीन ज़रिया है और यह दरहक़ीक़त बदतरीन तिजारत है के इन्सान दीन की अज़ीम व शरीफ़ दौलत को देकर दुनिया जैसी हक़ीर व ज़लील शै को हासिल करने का मन्सूबा बनाए, ज़ाहिर है के जब दनिदारों में ऐसे किरदार पैदा हो जाते हैं तो दुनियादारों का क्या ज़िक्र है उन्हें तो बहरहाल उससे बदतर होना चाहिये।-)))

120- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें अपनी फ़ज़ीलत का ज़िक्र करते हुए लोगों को नसीहत फ़रमाई है)

ख़ुदा की क़सम- मुझे पैग़ामे इलाही के पहुँचाने, वादाए इलाही के पूरा करने और कलेमाते इलाहिया की मुकम्मल वज़ाहत करने का इल्म दिया गया है। हम अहलेबैत (अ0) के पास हिकमतों के अबवाब और मसाएल की रौशनी मौजूद है , याद रखो, दीन की तमाम शरीअतों का मक़सद एक है और उसके सारे रास्ते दुरूस्त हैं, जो इन रास्तों को इख़्तेयार कर लेगा वह मन्ज़िल तक पहुंच भी जाएगा और फ़ायदा भी हासिल कर लेगा और जो रास्ते ही में ठहर जाएगा वह बहक भी जाएगा और शर्मिन्दा भी होगा। अमल करो उस दिन के लिये जिस के लिये ज़ख़ीरे फ़राहम किये जाते हैं और जिस दिन नीयतों का इम्तेहान होगा और जिसको अपनी मौजूद अक़्ल फ़ायदा न पहुँचाए उसे दूसरों की ग़ायब और दूरतरीन अक़्ल क्या फ़ायदा पहुंचा सकती है। इस आगणन से डरो जिसकी तपिश शदीद, गहराई बईद, आराइश हदीद और पीने की शै सदीद (पीप) है। याद रखो, वह ज़िक्रे ख़ैर जो परवरदिगार किसी इन्सान के लिये बाक़ी रखता है वह उस माल से कहीँ ज़्यादा बेहतर होता है जिसे इन्सान उन लोगों के लिये छोड़ जाता है जो तारीफ़ तक नहीं करते हैं।

121-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

जब लैलतलहरीर के बाद आपके असहाब में से एक शख़्स ने उठकर कहा के आपने पहले हमें हकम बनाने से रोका और फिर उसी का हुक्म दे दिया तो आखि़र इन दोनों में से कौन सी बात सही थी? तो आपने हाथ पर हाथ मारकर फ़रमाया, अफ़सोस यही उसकी जज़ा होती है जो अहद व पैमान को नज़र अन्दाज़ कर देता है। याद रखो अगर मैं तुमको इस नागवार अम्र (जंग) पर मामूर कर देता जिसमें यक़ीनन अल्लाह ने तुम्हारे लिये ख़ैर रखा था, इस तरह के तुम सीधे रहते तो तुम्हें हिदायत देता और टेढ़े हो जाते तो सीधा कर देता और इन्कार करते तो इसका इलाज करता तो यह इन्तेहाई मुस्तहकम तरीक़ए कार होता, लेकिन यह काम किसके ज़रिये करता और किसके भरोसे पर करता। मैं तुम्हारे ज़रिये क़ौम का इलाज करना चाहता था लेकिन तुम्हें तो मेरी बीमारी हो, यह तो ऐसा ही होता जैसे कांटे से कांटा निकाला जाए, जबके इसका झुकाव उसी की तरफ़ हो। ख़ुदाया! गवाह रहना के इस मूज़ी मर्ज़ के इतबा आजिज़ आ चुके हैं और इस कुएं से रस्सी निकालने वाले थक चुके हैं।

कहाँ हैं वह लोग जिन्हें इस्लाम की दावत दी गई तो फ़ौरत क़ुबूल कर ली और उन्होंने क़ुरान को पढ़ा तो बाक़ाएदा अमल भी किया और जेहाद के लिये आमादा किये गए तो इस तरह शौक़ से आगे बढ़े जिस तरह ऊंटनी अपने बच्चों की तरफ़ बढ़ती है।

(((- मक़सद यह है के तुम लोगों ने मुझसे इताअत का अहद व पैमान किया था लेकिन जब मैंने सिफ़्फ़ीन में जंग जारी रखने पर इसरार किया तो तुमने नैज़ों पर क़ुरआन देखकर जंग बन्दी का मुतालबा कर दिया और अपने अहद व पैमान को नज़रअन्दाज़ कर लिया, ज़ाहिर है के ऐसे एक़दाम का ऐसा ही नतीजा होता है जो सामने आ गया तो अब फ़रयाद करने का क्या जवाज़ है?-)))

मैंने तलवारों को न्यामों से निकाल लिया और दस्त दस्त, सफ़ ब सफ़ आगे बढ़कर तमाम एतराफ़े ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। उनमें से बाज़ चले गये और बाज़ बाक़ी रह गये। उन्हें न ज़िन्दगी की बशारत से दिलचस्पी थी और न मुर्दों की ताज़ियत से। उनकी आंखें ख़ौफ़े ख़ुदा में गिरया से सफ़ेद हो गई थीं, पेट रोज़ों से धंस गए थे, होंट दुआ करते-करते ख़ुश्क हो गए थे, चेहरे शब-बेदारी से ज़र्द हो गए थे और चेहरों पर ख़ाकसारी की गर्द पड़ी हुई थी। यही मेरे पहले वाले भाई थे जिनके बारे में हमारा यक़ीन है के हम इनकी तरफ़ प्यासों की तरह निगाह करें और इनके फ़िराक़ में अपने ही हाथ काटें।

यक़ीनन शैतान तुम्हारे लिये अपनी राहों को आसान बना देता है और चाहता है के तुम एक-एक करके तुम्हारी सारी गिरहें खोल दे, वह तुम्हें इज्तेमाअ के बजाए इफ़तेराक़ देकर फ़ितनों में मुब्तिला करना चाहता है लेहाज़ा इसके ख़यालात और इसकी झाड़ फूंक से मुंह मोड़े रहो और उस शख़्स की नसीहत क़ुबूल करो जो तुम्हें नसीहत का तोहफ़ा दे रहा है और अपने दिल में इसकी गिरह बांध लो।

122- आपका इरशादे गिरामी

(जब आप ख़वारिज के उस पड़ाव की तरफ़ तशरीफ़ ले गए जो तहकीम के इन्कार पर अड़ा हुआ था और फ़रमाया)

क्या तुम सब हमारे साथ सिफ़्फ़ीन में थे? लोगों ने कहा बाज़ अफ़राद थे और बाज़ नहीं थे! फ़रमाया तो तुम दो हिस्सों में तक़सीम हो जाओ, सिफ़्फ़ीन वाले अलग और ग़ैर सिफ़्फ़ीन वाले अलग, ताके मैं हर एक से उसके हाल के मुताबिक़ गुफ़्तगू कर सकूँ।

इसके बाद क़ौम से पुकारकर फ़रमाया तुम सब ख़ामोश हो जाओ और मेरी बात सुनो और अपने दिलों को भीं मेरी तरफ़ मुतवज्जो रखो ताके अगर मैं किसी बात की गवाही तलब करूं तो हर शख़्स अपने इल्म के मुताबिक़ जवाब दे सके, (यह कहकर आपने एक तवील गुफ़्तगू फ़रमाई जिसका एक हिस्सा यह था)

ज़रा बतलाओ के जब सिफ़्फ़ीन वालों ने हीला व मक्र और जाल व फ़रेब से नैज़ों पर क़ुरआन बलन्द कर दिये थे तो क्या तुमने यह नहीं कहा था के यह सब हमारे भाई और हमारे साथ के मुसलमान हैं। अब हमसे माफ़ी के तलबगार हैं और किताबे ख़ुदा से फैसला चाहते हैं लेेहाज़ा मुनासिब यह है के इनकी बात मान ली जाय और उन्हें सांस लेने का मौक़ा दे दिया जाए। मैंने तुम्हें समझाया था के इसका ज़ाहिर ईमान है लेकिन बातिन सिर्फ ज़ुल्म और तादी है। इसकी इब्तेदा रहमत व राहत है लेकिन इसका अन्जाम शर्मिन्दगी और निदामत है लेहाज़ा अपनी हालत पर क़ायम रहो और अपने रास्ते को मत छोड़ो और जेहाद पर दांतों को भींचे रहो और किसी बकवास करने वाले की बकवास को मत सुनो के उसके क़ुबूल कर लेने में गुमराही है और नज़रअन्दाज़ कर देने में ज़िल्लत है। लेकिन जब तहकीम की बात तय हो गई तो मैंने देखा के तुम्हीं लोगों ने उसकी रज़ामन्दी दी थी हालांके ख़ुदा गवाह है के अगर मैंने उससे इन्कार कर दिया होता तो उससे मुझ पर कोई फ़रीज़ा आयद न होता और न परवरदिगार मुझे गुनहगार क़रार देता और अगर मैंने उसे इख़्तेयार किया होता तो मैं ही वह साहेबे हक़ था जिसका इत्तेबाअ होना चाहिए था के किताबे ख़ुदा मेरे साथ है और जबसे मेरा इसका साथ हुआ है कभी जुदाई नहीं हुई। हम रसूले अकरम (स0) के ज़माने में उस वक़्त जंग करते थे जब मुक़ाबले पर ख़ानदानों के बुज़ुर्ग , बच्चे, भाई बन्द और रिश्तेदार होते थे लेकिन हर मुसीबत व शिद्दत पर हमारे ईमान में इज़ाफ़ा ही होता था और हम अम्रे इलाही के सामने सरे तस्लीम ख़म किये रहते थे। राहे हक़ में बढ़ते ही जाते थे और ज़ख़्मों की टीस पर सब्र ही करते थे मगर अफ़सोस के अब हमें मुसलमान भाइयों से जंग करना पड़ रही है के इनमें कजी, इन्हेराफ़, शुबह और ग़लत तावीलात का दख़ल हो गया है लेकिन इसके बावजूद अगर कोई रास्ता निकल आए जिससे ख़ुदा हमारे इन्तेशार को दूर कर दे और हम एक-दूसरे से क़रीब होकर रहे सहे, ताल्लुक़ात को बाक़ी रख सकें तो हम इसी रास्ते को पसन्द करेंगे और दूसरे रास्ते से हाथ रोक लेंगे।

123- आपका इरशादे गिरामी

(जो सिफ़्फ़ीन के मैदान में अपने असहाब से फ़रमाया था)

देखो! अगर तुमसे कोई शख़्स भी जंग के वक़्त अपने अन्दर क़ूवते क़ल्ब और अपने किसी भाई में कमज़ोरी का एहसास करे तो उसका फ़र्ज़ है के अपने भाई से इसी तरह दिफ़ाअ करे जिस तरह अपने नफ़्स से करता है के ख़ुदा चाहता तो उसे भी वैसा ही बना देता लेकिन उसने तुम्हें एक ख़ास फ़ज़ीलत अता फ़रमाई है।

देखो! मौत एक तेज़ रफ़्तार तलबगार है जिससे न कोई ठहरा हुआ बच सकता है और न भागने वाला बच निकल सकता है और बेहतरीन मौत शहादत है। क़सम है उस परवरदिगार की जिसके क़ब्ज़ए क़ुदरत में फ़रज़न्दे अबूतालिब की जान है के मेरे लिये तलवार की हज़ार ज़र्बें इताअते ख़ुदा से अल होकर बिस्तर पर मरने से बेहतर हैं। गोया मैं देख रहा हूँ के तुम लोग वैसी ही आवाज़ें निकाल रहे हो जैसी सौ समारों के जिस्मों की रगड़ से पैदा होती हैं के न अपना हक़ हासिल कर रहे हो और न ज़िल्लत का दिफ़ाअ कर रहे हो जबके तुम्हें रास्ते पर खुला छोड़ दिया गया है और निजात इसीके लिये है जो जंग में कूद पड़े और हलाकत उसी के लिये है जो देखता ही रह जाए।

124- आपका इरशादे गिरामी

(अपने असहाब को जंग पर आमादा करते हुए)

ज़िरहपोश अफ़राद को आगे बढ़ाओ और बेज़िरह लोगों को पीछे रखो। दांतों को भींच लो के इससे तलवारें सर से उचट जाती हैं और नैज़ों के एतराफ़ से पहलूओं को बचाए रखो के इससे नैज़ों के रूख़ पलट जाते हैं। निगाहों को नीचा रखोे के इससे क़ूवते क़ल्ब में इज़ाफ़ा होता है और हौसले बलन्द रहते हैं। आवाज़ें धीमी रखो के इससे कमज़ोरी दूर होती है। देखो अपने परचम का ख़याल रखना। वह न झुकने पाए और न अकेला रहने पाए। उसे सिर्फ़ बहादुर अफ़राद और इज़्ज़त के पासबानों के हाथों में रखना के मसाएब पर सब्र करने वाले ही परचमों के गिर्द जमा होते हैं और दाहिने बाएं, आगे-पीछे हर तरफ़ से घेरा डालकर उसका तहफ़्फ़ुज़ करते हैं, न इससे पीछे रह जाते हैं के इसे दुश्मनों के हवाले कर दें और न आगे बढ़ जाते हैं के वह तन्हा रह जाए।

देखो। हर शख़्स अपने मुक़ाबिल का ख़ुद मुक़ाबला करे और अपने भाई का भी साथ दे और ख़बरदार अपने मुक़ाबिल को अपने साथी के हवाले न कर देना के इस पर यह और इसका साथी दोनों मिलकर हमला कर दें।

ख़ुदा की क़सम अगर तुम दुनिया की तलवार से बचकर भाग भी निकले तो आखि़रत की तलवार से बचकर नहीं जा सकते हो। फिर तुम तो अरब के जवाँमर्द और सरबलन्द अफ़राद हो। तुम्हें मालूम है के फ़रार में ख़ुदा का ग़ज़ब भी है और हमेशा की ज़िल्लत भी है। फ़रार करने वाला न अपनी उम्र में इज़ाफ़ा कर सकता है और न अपने वक़्त के दरम्यान हाएल हो सकता है। कौन है अल्लाह की तरफ़ यूँ जाए जिस तरह प्यासा पानी की तरफ़ जाता है। जन्नत नैज़ों के एतराफ़ के साये में है आज हर एक के हालात का इम्तेहान हो जाएगा। ख़ुदा की क़सम मुझे दुश्मनों से जंग का इष्तेयाक़ उससे ज़्यादा है जितना उन्हें अपने घरों का इष्तेयाक़ है। ख़ुदाया यह ज़ालिम अगर हक़ को रद कर दें तो उनकी जमाअत को परागन्दा कर दे, उनके कलमे को मुत्तहिद न होने दे, उनको उनके किये की सज़ा दे दे के यह उस वक़्त तक अपने मौक़फ़ से न हटेंगे जब तक नैज़े इनके जिस्मों में नसीम सहर के रास्ते न बना दें और तलवारें उनके सरों को शिगाफ़्ता, हड्डियों को चूर-चूर और हाथ पैर को शिकस्ता न बना दें और जब तक उन पर लशकर के बाद लशकर और सिपाह के बाद सिपाह हमलावर न हो जाएं और उनके शहरों पर मुसलसल फ़ौजों की यलग़ार हो और घोड़े उनकी ज़मीनों को आखि़र तक रौन्द न डालें और उनकी चरागाहों और सब्ज़े जारों को पामाल न कर दें।

(((- हक़ीक़ते अम्र यह है के इन्सान की ज़िन्दगी की हर तशनगी का इलाज जन्नत के अलावा कहीं नहीं है, यह दुनिया सिर्फ़ ज़र व रियात की तकमील के लिये बनाई गई है और बड़े से बड़े इन्सान का हिस्सा भी उसके ख़्वाहिशात से कमतर है वरना सारे रूए ज़मीन पर हुकूमत करने वाला भी उससे बेशतर का ख़्वाहिश मन्द रहता और दामाने ज़मीन में उससे ज़्यादा वुसअत नहीं है। यह सिर्फ़ जन्नत है जिसके बारे में यह एलान किया गया है के वहां हर ख़्वाहिश नफ़्स और लज़्ज़ते निगाह की तस्कीन का सामान मौजूद है। अब सवाल सिर्फ़ यह रह जाता है के वहाँ तक जाने का रास्ता क्या है। मौलाए कायनात ने अपने साथियों को इसी नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जो किया है के जन्नत तलवारों के साये के नीचे है और इसका रास्ता सिर्फ़ मैदाने जेहाद है लेहाज़ा मैदाने जेहाद की तरफ़ उस तरह बढ़ो जिस तरह प्यासा पानी की तरफ़ बढ़ता है के इसी राह में हर जज़्बए दिल की तस्कीन का सामान पाया जाता है और फिर दीने ख़ुदा की सरबलन्दी से बालातर कोई शरफ़ भी नहीं है।-)))

125- आपका इरशादे गिरामी

(तहकीम के बारे में, हकमीन की दास्तान सुनने के बाद)

याद रखो, हमने अफ़राद को हकम नहीं बनाया था बल्के क़ुरआन को हकम क़रार दिया था और क़ुरान वही किताब है जो दफ़्तियों के दरम्यान मौजूद है लेकिन मुश्किल यह है के यह ख़ुद नहीं बोलता है और उसे तर्जुमान की ज़रूरत है और तर्जुमान अफ़राद ही होते हैं। इस क़ौम ने हमें दावत दी के हम क़ुरान से फ़ैसले कराएं तो हम तो क़ुरान से रूगर्दानी करने वाले नहीं थे जबके परवरदिगार ने फ़रमाया है के अपने खि़लाफ़त को ख़ुदा व रसूल की तरफ़ मोड़ दो और ख़ुदा की तरफ़ मोड़ने का मतलब उसकी किताब से फ़ैसला कराना ही है और रसूल (स0) की तरफ़ मोड़ने का मक़सद भी सुन्नत का इत्तेबाअ करना है और यह तय है के अगर किताबे ख़ुदा से सच्चाई के साथ फ़ैसला किया जाए तो उसके सबसे ज़्यादा हक़दार हम ही हैं और इसी तरह सुन्नते पैग़म्बर के लिये सबसे ऊला व अक़रब हम ही हैं।

अब तुम्हारा यह कहना के आपने तहकीम की मोहलत क्यों दी? तो किसका राज़ यह है के मैं चाहता था के बेख़बर बाख़बर हो जाए और बाख़बर तहक़ीक़ कर ले के शायद परवरदिगार इस वक़्फ़े में उम्मत के कामो की इस्लाह कर दे और इसका गला न घोंटा जाए के तहक़ीक़े हक़ से पहले गुमराही के पहले ही मरहले में भटक जाएं और याद रखो के परवरदिगार के नज़दीक बेहतरीन इन्सान वह है जिसे हक़ पर अमल दरआमद करना (चाहे इसमें नुक़सान ही क्यों न हो) बातिल पर अमल करने से ज़्यादा महबूब हो (चाहे इसमें फ़ायदा ही क्यों न हो), तो आखि़र तुम्हें किधर ले जाया जा रहा है और तुम्हारे पास शैतान किधर से आ गया है, देखो इस क़ौम से जेहाद के लिये तैयार हो जाओ जो हक़ के मामले में इस तरह सरगर्दां है के उसे कुछ दिखाई ही नहीं देता है और बातिल पर इस तरह अक़ारद कर दी गई है के सीधे रास्ते पर जाना ही नहीं चाहती है। यह किताबे ख़ुदा से अलग और वह राहे हक़ से मुन्हरिफ़ हैं मगर तुम भी क़ाबिले एतमाद अफ़राद और लाएक़ तमस्सुक शरफ़ के पासबान नहीं हो। तुम आतिशे जंग के भड़काने का बदतरीन ज़रिया हो, तुम पर हैफ़ है मैंने तुमसे बहुत तकलीफ़ उठाई है, तुम्हें अलल एलान भी पुकारा है और आहिस्ता भी समझाया है लेकिन तुम न आवाज़े जंग पर सच्चे शरीफ़ साबित हुए और न राज़दारी पर क़ाबिले एतमाद साथी निकले।

(((- हज़रत ने तहकीम का फ़ैसला करते हुए दोनों अफ़राद को एक साल की मोहलत दी थी ताके इस दौरान नावाक़िफ़ अफ़राद हक़ व बातिल की इत्तेलाअ हासिल कर लें और जो किसी मिक़दार में हक़ से आगाह हैं वह मज़ीद तहक़ीक़ कर लें, ऐसा न हो के बेख़बर अफ़राद पहले ही मरहले में गुमराह हो जाएं और अम्र व आस की मक्कारी का शिकार हो जाएं। मगर अफ़सोस यह है के हर दौर में ऐसे अफ़राद ज़रूर रहते हैं जो अपने अक़्ल व फ़िक्र को हर एक से बालातर तसव्वुर करते हैं और अपने क़ाएद के फ़ैसलों को भी मानने के लिये तैयार नहीं होते हैं और खुली हुई बात है के जब इमाम (अ0) के साथ ऐसा बरताव किया गया है तो नाएब इमाम या आलिमे दीन की क्या हक़ीक़त है ?-)))

126- आपका इरशादे गिरामी

(जब अताया की बराबरी पर एतराज़ किया गया)

क्या तुम मुझे इस बात पर आमादा करना चाहते हो के मैं जिन रिआया का ज़िम्मेदार बनाया गया हूँ उन पर ज़ुल्म करके चन्द अफ़राद की कमक हासिल कर लूँ। ख़ुदा की क़सम जब तक इस दुनिया का क़िस्सा चलता रहेगा और एक सितारा दूसरे सितारे की तरफ़ झुकता रहेगा ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता है। यह माल अगर मेरा ज़ाती होता जब भी मैं बराबर से तक़सीम करता, चे जाएका यह माल माले ख़ुदा है और याद रखो के माल का नाहक़ अता कर देना भी इसराफ़ और फ़िज़ूल ख़र्ची में शुमार होता है और यह काम इन्सान को दुनिया में बलन्द भी कर देता है तो आख़ेरत में ज़लील कर देता है। लोगों में मोहतरम भी बना देता है तो ख़ुदा की निगाह में पस्ततर बना देता है और जब भी कोई शख़्स माल को नाहक़ या ना अहल पर सर्फ़ करता है तो परवरदिगार उसके शुक्रिया से भी महरूम कर देता है और उसकी मोहब्बत का रूख़ भी दूसरों की तरफ़ मुड़ जाता है। फ़िर अगर किसी दिन पैर फैल गए और उनकी इमदाद का भी मोहताज हो गया तो वह बदतरीन दोस्त और ज़लीलतरीन साथी ही साबित होते हैं।

127- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें बाज़ एहकामे दीन के बयान के साथ ख़वारिज के शुबहात का एज़ाला और हकमीन के तोड़ का फ़ैसला बयान किया गया है।)

अगर तुम्हारा इसरार इसी बात पर है के मुझे ख़ताकार और गुमराह क़रार दो तो सारी उम्मते पैग़म्बर (स0) को क्यों ख़ताकार दे रहे हो और मेरी “ग़लती”का मवाख़ेज़ा उनसे क्यों कर रहे हो और मेरे “गुनाह”की बिना पर उन्हें क्यों काफ़िर क़रार दे रहे हो। तुम्हारी तलवारें तुम्हारे कान्धों पर रखी हैं जहां चाहते हो ख़ता, बेख़ता चला देते हो और गुनहगार और बेगुनाह में कोई फ़र्क़ नहीं करते हो हालांके तुम्हें मालूम है के रसूले अकरम (स0) ने ज़िनाए महज़ा के मुजरिम को संगसार किया तो उसकी नमाजे़ जनाज़ा भी पढ़ी थी और उसके अहल को वारिस भी क़रार दिया था और इसी तरह क़ातिल को क़त्ल किया तो उसकी मीरास भी तक़सीम की और चोर के हाथ काटे या ग़ैर शादी शुदा ज़िनाकार को कोड़े लगवाए तो उन्हें माले ग़नीमत में हिस्सा भी दिया और उनका मुसलमान औरतों से निकाह भी कराया गोया के आपने इन लोगों के गुनाहों का मवाख़ेज़ा किया और उनके बारे में हक़े खुदा को क़ायम किया लेकिन इस्लाम में उनके हिस्से को नहीं रोका और न उनके नाम को अहले इस्लाम की फ़ेहरिस्त से ख़ारिज किया। मगर बदतरीन अफ़राद हो के शैतान तुम्हारे ज़रिये अपने मक़ासिद को हासिल कर लेता है और तुम्हें सहराए ज़लालत में डाल देता है और अनक़रीब मेरे बारे में दो तरह के अफ़राद गुमराह होंगे- मोहब्बत में ग़लू करने वाले जिन्हें मोहब्बत ग़ैरे हक़ की तरफ़ ले जाएगी और अदावत में ज़्यादती करने वाले जिन्हें अदावत बातिल की तरफ़ खींच ले जाएगी और बेहतरीन अफ़राद वह होंगे जो दरम्यानी मन्ज़िल पर हों , लेहाज़ा तुम भी इसी रास्ते को इख़्तेयार करो और इसी नज़रिये की जमाअत के साथ हो जाओ के अल्लाह का हाथ इसी जमाअत के साथ है और ख़बरदार तफ़रिक़े की कोशिश न करना के जो ईमानी जमाअत से कट जाता है वह उसी तरह शैतान का शिकार हो जाता है जिस तरह गल्ले से अलग हो जाने वाली भेड़ भेड़िये की नज़र हो जाती है। आगाह हो जाओ के जो भी इस इन्हेराफ़ का नारा लगाए उसे क़त्ल कर दो चाहे वह मेरे ही अमामे के नीचे क्यों न हो। इन दोनों अफ़राद को हकम बनाया गया था ताके उन उमूर को ज़िन्दा करें जिन्हें क़ुरआन ने ज़िन्दा किया है और इन उमूर को मुर्दा करें जिन्हें क़ुरान ने मुर्दा बना दिया है और ज़िन्दा करने के मानी इस पर इत्तेफ़ाक़ करने और मुर्दा बनाने के मानी इससे अलग हो जाने के हैं। हम इस बात पर तैयार थे के अगर क़ुरान हमें दुश्मनों की तरफ़ खींच ले जाएगा तो हम उनका इत्तेबाअ कर लेंगे और अगर उन्हें हमारी तरफ़ ले आएगा तो उन्हें आना पड़ेगा लेकिन ख़ुदा तुम्हारा बुरा करे, इस बात में मैंने कोई ग़लत काम तो नहीं किया और न तुम्हें कोई धोका दिया है और न किसी बात को शुबह में रखा है। लेकिन तुम्हारी जमाअत ने दो आदमियों के इन्तेख़ाब पर इत्तेफ़ाक़ कर लिया और मैंने उन पर शर्त लगा दी के क़ुरान के हुदूद से तजावुज़ नहीं करेंगे मगर वह दोनों क़ुरान से मुन्हरिफ़ हो गए और हक़ को देख भाल कर नज़रअन्दाज कर दिया और असल बात यह है के इनका मक़सद ही ज़ुल्म था और वह उसी रास्ते पर चले गए जबके मैंने उनकी ग़लत राय और ज़ालिमाना फ़ैसले से पहले ही फ़ैसले में अदालत और इरादाए हक़ की शर्त लगा दी थी।

115-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(तलबे बारिश के सिलसिले में)

ख़ुदाया! हमारे पहाड़ों का सब्ज़ा ख़ुश्क हो गया है और हमारी ज़मीन पर ख़ाक उड़ रही है। हमारे जानवर प्यासे हैं और अपनी मन्ज़िल की तलाश में सरगर्दां हैं और अपने बच्चों के हक़ में इस तरह फ़रयादी हैं जैसे ज़न पिसर मुर्दा, सब चरागाहों की तरफ़ फेरे लगाने और तालाबों की तरफ़ वालेहाना तौर पर दौड़ने से आजिज़ आ गए हैं, ख़ुदाया! अब इनकी फ़रयादी की बकरियों और इष्तिेयाक़ आमेज़ पुकारने वाली ऊंटनियों पर रहम फ़रमा। ख़ुदाया! इनकी राहों में परेशानी और मन्ज़िलों पर चीख़ व पुकार पर रहम फ़रमा। ख़ुदाया् हम इस वक़्त घर से निकल कर आए हैं जब क़हत साली के मारे हूए लाग़र ऊंट हमारी तरफ़ पलट पड़े हैं और जिनसे करम की उम्मीद थी वह बादल आकर चले गए हैं। अब दर्द के मारों का तू ही आसरा है और इल्तिजा करने वालों का तू ही सहारा है। हम उस वक़्त दुआ कर रहे हैं जब लोग मायूस हो चुके हैं। बादलों के ख़ैर को रोक दिया गया है और जानवर हलाक हो रहे हैं तो ख़ुदाया हमारे आमाल की बिना पर हमारा मवाखि़ज़ा न करना, और हमें हमारे गुनाहों की गिरफ़्त में मत ले लेना, अपने दामने रहमत को हमारे ऊपर फैला दे बरसने वाले बादल, मूसलाधार बरसात और इसीन सब्ज़ा के ज़रिये। ऐसी बरसात जिससे मुरदा ज़मीन ज़िन्दा हो जाएं और गई हुई बहार वापस आ जाए। ख़ुदाया! ऐसी सेराबी अता फ़रमा जो ज़िन्दा करने वाली, सेराब बनाने वाली। कामिल व शामिल, पाकीज़ा व मुबारक, ख़ुशगवार व शादाब हो जिसकी बरकत से नबातात फलने फूलने लगें। शाख़ें बारआवर हो जाएं, पत्ते हरे हो जाएं, कमज़ोर बन्दों को उठने का सहारा मिल जाए, मुर्दा ज़मीनों को ज़िन्दगी अता हो जाए। ख़ुदाया! ऐसी सेराबी अता फ़रमा जिससे टीले सब्ज़ापोश हो जाएं, नहरें जारी हो जाएं, आस-पास के इलाक़े शादाब हो जाएं, फल निकलने लगें, जानवर जी उठें, दूर दराज़ के इलाक़े भी तर हो जाएं और खुले मैदान भी तेरी इस वसीअ बरकत और अज़ीम अता से मुस्तफ़ैज़ हो जाएं जो तेरी तबाह हाल मख़लूक़ आवारागर्द जानवरों पर है। हम पर ऐसी बारिश नाज़िल फ़रमा जो पानी से शराबोर कर देने वाली, मूसलाधार, मुसलसल बरसने वाली हो, जिसमें क़तरात, क़तरात को ढकेल रहे हों और बून्दें बून्दों को तेज़ी से आगे बढ़ा रही हों। न उसकी बिजली धोका देने वाली हो और न उसके बादल पानी से ख़ाली हों न उसके अब्र से सफ़ेद टुकड़े बिखरे हों और न सिर्फ़ ठण्डे झोंकों की बून्दाबान्दी हो, ऐसी बारिश हो के क़हत के मारे हुए इसकी सरसब्ज़ियों से ख़ुशहाल हो जाएं और ख़ुश्क साली के शिकार इसकी बरकत से जी उठें। इसलिये के तू ही हमारी मायूसी के बाद पानी बरसाने वाला और दामाने रहमत का फैलाने वाला है तू ही क़ाबिले हम्द व सताइश, सरपरस्त व मददगार है।

सय्यद रज़ी- इन्साहत जबालना- यानी पहाड़ों में ख़ुश्कसाली से शिगाफ़ पड़ गए हैं के इन्साहलसौब कपड़े के फट जाने को कहा जाता है। या इसके मानी घास के ख़ुश्क हो जाने के हैं। साहा-इन्साह ऐसे मवाक़ेअ पर भी इस्तेमाल होता है, हामत दवाबना - यानी प्यासे हैं और हयाम यहाँ अतश के मानी हैं।

हदाबीरल सनीन- हदबार की जमा है, वह ऊंट जिसे सफ़र लाग़र बना दे, गोया के क़हतज़दा साल को इस ऊंट से तशबीह दी गई है जैसा के ज़वालरमा शाएर ने कहा था- (यह लाग़र और कमज़ोर ऊंटनिया हैं जो सख़्ती झेलकर बैठ गई हैं या फिर बेआब व ग्याह सहरा में ले जाने पर चली जाती हैं)

या क़ज़अ रबाबहा- क़जअ - बादल के छोटे-छोटे टुकड़े, ला शफ़्फ़ान ज़हाबहा - असल में “ज़ाते शफ़ान”है- शफ़ान ठण्डी हवा को कहा जाता है और ज़ेहाब हल्की फवार का नाम है। यहाँ लफ़्ज़ “ज़ात”हज़फ़ हो गया है।

116- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें अपने असहाब को नसीहत फ़रमाई है)

अल्लाह ने पैग़म्बर (स0) को इस्लाम की तरफ़ दावत देने वाला और मख़लूक़ात के आमाल का गवाह बनाकर भेजा तो आपने पैग़ामे इलाही को मुकम्मल तौर से पहुंचा दिया। न कोई सुस्ती और न कोई कोताही , दुश्मनाने ख़ुदा से जेहाद किया और इस राह में न कोई कमज़ोरी दिखलाई और न किसी बख़ीला और बहाने का सहारा लिया। आप मुत्तक़ीन के इमाम और तलबगाराने हिदायत के लिये आंखों की बसारत थे।

अगर तुम इनत माम बातों को जान लेते जो तुमसे मख़फ़ी रखी गई हैं और जिनको मैं जानता हूँ तो सहराओं में निकल जाते। अपने आमाल पर गिरया करते और अपने किये पर सर व सीना पीटते और सारे अमवाल को इस तरह छोड़ कर चल देते के न इनका कोई निगहबान होता और न वारिस और हर शख़्स को सिर्फ़ अपनी ज़ात की फ़िक्र होती। कोई दूसरे की तरफ़ रूख़ भी न करता। लेकिन अफ़सोस के तुमने इस सबक़ को बिल्कुल भुला दिया जो तुम्हें याद कराया गया था और उन हौलनाक मनाज़िर की तरफ़ से यकसर मुतमईन हो गए जिनसे डराया गया था। तो तुम्हारी राय भटक गई और तुम्हारे कामो में इन्तेशार पैदा हो गया और मैं यह चाहने लगा के काश अल्लाह मेरे और तुम्हारे दरम्यान जुदाई डाल देता और मुझे उन लोगों से मिला देता जो मेरे लिये ज़्यादा सज़ा थे। वह लोग जिनकी राय मुबारक और जिनका हिल्म ठोस है। हक़ की बातें करते हैं और बग़ावत व सरकशी से किनारा करने वाले हैं। उन्होंने रास्ते पर क़दम आगे बढ़ाए और राहे रास्त पर तेज़ी से बढ़ते चले गये, जिसके नतीजे में दाएमी आख़ेरत और पुरसुकून करामत हासिल कर ली।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

आगाह हो जाओ के ख़ुदा की क़सम तुम पर वह नौजवान बनी सक़ीफ़ का मुसल्लत हो जाएगा जिसका क़द तवील होगा और वह लहराकर चलने वाला होगा। तुम्हारे सब्ज़े को हज़म कर जाएगा और तुम्हारी चर्बी को पिघला दे, हाँ, हाँ अबू ऐ अबू वज़हा कुछ और।

(((- अमीरूल मोमेनीन (अ0) की ज़िन्दगी का अज़ीमतरीन इल्मिया है के आँख खोलने के बाद से 30 साल तक रसूले अकरम (स0) के साथ गुज़ारे। इसके बाद चन्द मुख़लिस असहाबे कराम के साथ रहा इसके बाद जब ज़माने ने पलटा खाया और इक़्तेदार क़दमों में आया तो एक तरफ़ नाक्सीन , क़ासेतीन और ख़वारिज का सामना करना पड़ा और दूसरी तरफ़ अपने गिर्द कूफ़े के बेवफ़ाओं का मजमा लग गया। ज़ाहिर है के ऐसा शख़्स इस हाल को देख कर उसके माज़ी की तमन्ना न करे तो और क्या करे और उसने ज़ेहन से अपना माज़ी किस तरह निकल जाए।-)))

117- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें जान व माल से कंजूसी करने वालों की सरज़निश गई है)

न तुमने माल को उसकी राह में ख़र्च किया जिसने तुम्हें अता किया था और न जान को उसकी ख़ातिर ख़तरे में डाला जिसने पैदा किया था। तुम अल्लाह के नाम पर बन्दों में इज्ज़त हासिल करते हो और बन्दों के बारे में अल्लाह का एहतेराम नहीं करते हो, ख़ुदारा इस बात से ग़ैरत हासिल करो के अनक़रीब उन्हें मनाज़िल में नाज़िल होने वाले हो जहां पहले लोग नाज़िल हो चुके हैं और क़रीबतरीन भाइयों से पलट कर रह जाने वाले हो।

118-आपका इरशादे गिरामी

(अपने असहाब में नेक किरदार अफ़राद के बारे में)

तुम हक़ के सिलसिले में मददगार और दीन के मामले में भाई हो। जंग के रोज़ मेरी सिपर और तमाम लोगों में मेरे राज़दार हो। मैं तुम्हारे ही ज़रिया रूगरदानी करने वालों पर तलवार चलाता हूँ और रास्ते पर आने वालों की इताअत की उम्मीद रखता हूँ। लेहाज़ा ख़ुदारा मेरी मदद करो इस नसीहत के ज़रिये जिसमें मिलावट न हो और किसी तरह के शक व शुबहे की गुन्जाइश न हो के ख़ुदा की क़सम मैं लोगों की क़यादत के लिये तमाम लोगों से ऊला और अहक़ हूँ।

119-आपका इरशादे गिरामी

(जब आपने लोगों को जमा करके जेहाद की तलक़ीन की और लोगों ने सुकूत इख़्तेयार कर लिया तो फ़रमाया)

तुम्हें क्या हो गया है, क्या तुम गूंगे हो गए हो? इस पर एक जमाअत ने कहा के या अमीरूल मोमेनीन (अ0)! आप चलें हम चलने के लिये तैयार हैं। फ़रमाया , तुम्हें क्या हो गया है- अल्लाह तुम्हें हिदायत की तौफ़ीक़ न दे और तुम्हें सीधा रास्ता नसीब न हो। क्या ऐसे हालात में मेरे लिये मुनासिब है के मैं ही निकलूँ? ऐसे मौक़े पर एक शख़्स को निकलना चाहिये जो तुम्हारे बहादुरों और जवाँमर्दों में मेरा पसन्दीदा हो और हरगिज़ मुनासिब नहीं है के मैं लशकर, शहर बैतुलमाल, ख़ेराज की फ़राहेमी, क़ज़ावत, मुतालबात करने वालों के हुक़ूक़ की निगरानी का सारा काम छोड़कर निकल जाऊँ और लशकर लेकर दूसरे लशकर का पीछा करूं और इस तरह जुम्बिश करता रहूँ जिस तरह ख़ाली तरकश में तीर। मैं ख़ेलाफ़त की चक्की का मरकज़ हूँ जिसे मेरे गिर्द चक्कर लगाना चाहिये के अगर मैंने मरकज़ छोड़ दिया तो उसकी गर्दिश का दाएरा मुतज़लज़ल हो जाएगा और उसके नीचे की बिसात भी जाबजा हो जाएगी। ख़ु़दा की क़सम यह बदतरीन राय है और वही गवाह है के अगर दुशमन का मुक़ाबला करने में मुझे शहादत की आरज़ू न होती, जबके वह मुक़ाबला मेरे लिये मुक़द्दर हो चुका हो, तो मैं अपनी सवारियों को क़रीब करके उनपर सवार होकर तुमसे बहुत दूर निकल जाता और फिर तुम्हें उस वक़्त तक याद भी न करता जब तक शिमाली व जुनूबी हवाएं चलती रहें। तुम तन्ज़ करने वाले, ऐब लगाने वाले, किनारा कशी करने वाले और सिर्फ़ शोर मचाने वाले हो, तुम्हारे आदाद की कसरत का क्या फाएदा है जब तुम्हारे दिल यकजा नहीं हैं। मैंने तुमको इस वाज़ेअ रास्ते पर चलाना चाहा जिस पर चलकर कोई हलाक नहीं हो सकता है मगर यह के हलाकत इसका मुक़द्दर हो। इसी राह पर चलने वाले की वाक़ेई मन्ज़िल जन्नत है और यहाँ फिसल जाने वाले का रास्ता जहन्नम है।

(((-ऐ लोग हर दौर में दीनदारों में भी रहे हैं और दुनियादारों में भी, जो क़ौम से हर तरह के एहतेराम के तलबगार होते हैं और क़ौम का किसी तरह का एहतेराम नहीं करते हैं, लोगों से दीने ख़ुदा की ठेकेदारी के नाम पर हर तरह की क़ुरबानी का तक़ाज़ा करते हैं और ख़ुद किसी तरह की क़ुरबानी का इरादा नहीं करते हैं उनकी नज़र में दीने ख़ुदा दुनिया कमाने का बेहतरीन ज़रिया है और यह दरहक़ीक़त बदतरीन तिजारत है के इन्सान दीन की अज़ीम व शरीफ़ दौलत को देकर दुनिया जैसी हक़ीर व ज़लील शै को हासिल करने का मन्सूबा बनाए, ज़ाहिर है के जब दनिदारों में ऐसे किरदार पैदा हो जाते हैं तो दुनियादारों का क्या ज़िक्र है उन्हें तो बहरहाल उससे बदतर होना चाहिये।-)))

120- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें अपनी फ़ज़ीलत का ज़िक्र करते हुए लोगों को नसीहत फ़रमाई है)

ख़ुदा की क़सम- मुझे पैग़ामे इलाही के पहुँचाने, वादाए इलाही के पूरा करने और कलेमाते इलाहिया की मुकम्मल वज़ाहत करने का इल्म दिया गया है। हम अहलेबैत (अ0) के पास हिकमतों के अबवाब और मसाएल की रौशनी मौजूद है , याद रखो, दीन की तमाम शरीअतों का मक़सद एक है और उसके सारे रास्ते दुरूस्त हैं, जो इन रास्तों को इख़्तेयार कर लेगा वह मन्ज़िल तक पहुंच भी जाएगा और फ़ायदा भी हासिल कर लेगा और जो रास्ते ही में ठहर जाएगा वह बहक भी जाएगा और शर्मिन्दा भी होगा। अमल करो उस दिन के लिये जिस के लिये ज़ख़ीरे फ़राहम किये जाते हैं और जिस दिन नीयतों का इम्तेहान होगा और जिसको अपनी मौजूद अक़्ल फ़ायदा न पहुँचाए उसे दूसरों की ग़ायब और दूरतरीन अक़्ल क्या फ़ायदा पहुंचा सकती है। इस आगणन से डरो जिसकी तपिश शदीद, गहराई बईद, आराइश हदीद और पीने की शै सदीद (पीप) है। याद रखो, वह ज़िक्रे ख़ैर जो परवरदिगार किसी इन्सान के लिये बाक़ी रखता है वह उस माल से कहीँ ज़्यादा बेहतर होता है जिसे इन्सान उन लोगों के लिये छोड़ जाता है जो तारीफ़ तक नहीं करते हैं।

121-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

जब लैलतलहरीर के बाद आपके असहाब में से एक शख़्स ने उठकर कहा के आपने पहले हमें हकम बनाने से रोका और फिर उसी का हुक्म दे दिया तो आखि़र इन दोनों में से कौन सी बात सही थी? तो आपने हाथ पर हाथ मारकर फ़रमाया, अफ़सोस यही उसकी जज़ा होती है जो अहद व पैमान को नज़र अन्दाज़ कर देता है। याद रखो अगर मैं तुमको इस नागवार अम्र (जंग) पर मामूर कर देता जिसमें यक़ीनन अल्लाह ने तुम्हारे लिये ख़ैर रखा था, इस तरह के तुम सीधे रहते तो तुम्हें हिदायत देता और टेढ़े हो जाते तो सीधा कर देता और इन्कार करते तो इसका इलाज करता तो यह इन्तेहाई मुस्तहकम तरीक़ए कार होता, लेकिन यह काम किसके ज़रिये करता और किसके भरोसे पर करता। मैं तुम्हारे ज़रिये क़ौम का इलाज करना चाहता था लेकिन तुम्हें तो मेरी बीमारी हो, यह तो ऐसा ही होता जैसे कांटे से कांटा निकाला जाए, जबके इसका झुकाव उसी की तरफ़ हो। ख़ुदाया! गवाह रहना के इस मूज़ी मर्ज़ के इतबा आजिज़ आ चुके हैं और इस कुएं से रस्सी निकालने वाले थक चुके हैं।

कहाँ हैं वह लोग जिन्हें इस्लाम की दावत दी गई तो फ़ौरत क़ुबूल कर ली और उन्होंने क़ुरान को पढ़ा तो बाक़ाएदा अमल भी किया और जेहाद के लिये आमादा किये गए तो इस तरह शौक़ से आगे बढ़े जिस तरह ऊंटनी अपने बच्चों की तरफ़ बढ़ती है।

(((- मक़सद यह है के तुम लोगों ने मुझसे इताअत का अहद व पैमान किया था लेकिन जब मैंने सिफ़्फ़ीन में जंग जारी रखने पर इसरार किया तो तुमने नैज़ों पर क़ुरआन देखकर जंग बन्दी का मुतालबा कर दिया और अपने अहद व पैमान को नज़रअन्दाज़ कर लिया, ज़ाहिर है के ऐसे एक़दाम का ऐसा ही नतीजा होता है जो सामने आ गया तो अब फ़रयाद करने का क्या जवाज़ है?-)))

मैंने तलवारों को न्यामों से निकाल लिया और दस्त दस्त, सफ़ ब सफ़ आगे बढ़कर तमाम एतराफ़े ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। उनमें से बाज़ चले गये और बाज़ बाक़ी रह गये। उन्हें न ज़िन्दगी की बशारत से दिलचस्पी थी और न मुर्दों की ताज़ियत से। उनकी आंखें ख़ौफ़े ख़ुदा में गिरया से सफ़ेद हो गई थीं, पेट रोज़ों से धंस गए थे, होंट दुआ करते-करते ख़ुश्क हो गए थे, चेहरे शब-बेदारी से ज़र्द हो गए थे और चेहरों पर ख़ाकसारी की गर्द पड़ी हुई थी। यही मेरे पहले वाले भाई थे जिनके बारे में हमारा यक़ीन है के हम इनकी तरफ़ प्यासों की तरह निगाह करें और इनके फ़िराक़ में अपने ही हाथ काटें।

यक़ीनन शैतान तुम्हारे लिये अपनी राहों को आसान बना देता है और चाहता है के तुम एक-एक करके तुम्हारी सारी गिरहें खोल दे, वह तुम्हें इज्तेमाअ के बजाए इफ़तेराक़ देकर फ़ितनों में मुब्तिला करना चाहता है लेहाज़ा इसके ख़यालात और इसकी झाड़ फूंक से मुंह मोड़े रहो और उस शख़्स की नसीहत क़ुबूल करो जो तुम्हें नसीहत का तोहफ़ा दे रहा है और अपने दिल में इसकी गिरह बांध लो।

122- आपका इरशादे गिरामी

(जब आप ख़वारिज के उस पड़ाव की तरफ़ तशरीफ़ ले गए जो तहकीम के इन्कार पर अड़ा हुआ था और फ़रमाया)

क्या तुम सब हमारे साथ सिफ़्फ़ीन में थे? लोगों ने कहा बाज़ अफ़राद थे और बाज़ नहीं थे! फ़रमाया तो तुम दो हिस्सों में तक़सीम हो जाओ, सिफ़्फ़ीन वाले अलग और ग़ैर सिफ़्फ़ीन वाले अलग, ताके मैं हर एक से उसके हाल के मुताबिक़ गुफ़्तगू कर सकूँ।

इसके बाद क़ौम से पुकारकर फ़रमाया तुम सब ख़ामोश हो जाओ और मेरी बात सुनो और अपने दिलों को भीं मेरी तरफ़ मुतवज्जो रखो ताके अगर मैं किसी बात की गवाही तलब करूं तो हर शख़्स अपने इल्म के मुताबिक़ जवाब दे सके, (यह कहकर आपने एक तवील गुफ़्तगू फ़रमाई जिसका एक हिस्सा यह था)

ज़रा बतलाओ के जब सिफ़्फ़ीन वालों ने हीला व मक्र और जाल व फ़रेब से नैज़ों पर क़ुरआन बलन्द कर दिये थे तो क्या तुमने यह नहीं कहा था के यह सब हमारे भाई और हमारे साथ के मुसलमान हैं। अब हमसे माफ़ी के तलबगार हैं और किताबे ख़ुदा से फैसला चाहते हैं लेेहाज़ा मुनासिब यह है के इनकी बात मान ली जाय और उन्हें सांस लेने का मौक़ा दे दिया जाए। मैंने तुम्हें समझाया था के इसका ज़ाहिर ईमान है लेकिन बातिन सिर्फ ज़ुल्म और तादी है। इसकी इब्तेदा रहमत व राहत है लेकिन इसका अन्जाम शर्मिन्दगी और निदामत है लेहाज़ा अपनी हालत पर क़ायम रहो और अपने रास्ते को मत छोड़ो और जेहाद पर दांतों को भींचे रहो और किसी बकवास करने वाले की बकवास को मत सुनो के उसके क़ुबूल कर लेने में गुमराही है और नज़रअन्दाज़ कर देने में ज़िल्लत है। लेकिन जब तहकीम की बात तय हो गई तो मैंने देखा के तुम्हीं लोगों ने उसकी रज़ामन्दी दी थी हालांके ख़ुदा गवाह है के अगर मैंने उससे इन्कार कर दिया होता तो उससे मुझ पर कोई फ़रीज़ा आयद न होता और न परवरदिगार मुझे गुनहगार क़रार देता और अगर मैंने उसे इख़्तेयार किया होता तो मैं ही वह साहेबे हक़ था जिसका इत्तेबाअ होना चाहिए था के किताबे ख़ुदा मेरे साथ है और जबसे मेरा इसका साथ हुआ है कभी जुदाई नहीं हुई। हम रसूले अकरम (स0) के ज़माने में उस वक़्त जंग करते थे जब मुक़ाबले पर ख़ानदानों के बुज़ुर्ग , बच्चे, भाई बन्द और रिश्तेदार होते थे लेकिन हर मुसीबत व शिद्दत पर हमारे ईमान में इज़ाफ़ा ही होता था और हम अम्रे इलाही के सामने सरे तस्लीम ख़म किये रहते थे। राहे हक़ में बढ़ते ही जाते थे और ज़ख़्मों की टीस पर सब्र ही करते थे मगर अफ़सोस के अब हमें मुसलमान भाइयों से जंग करना पड़ रही है के इनमें कजी, इन्हेराफ़, शुबह और ग़लत तावीलात का दख़ल हो गया है लेकिन इसके बावजूद अगर कोई रास्ता निकल आए जिससे ख़ुदा हमारे इन्तेशार को दूर कर दे और हम एक-दूसरे से क़रीब होकर रहे सहे, ताल्लुक़ात को बाक़ी रख सकें तो हम इसी रास्ते को पसन्द करेंगे और दूसरे रास्ते से हाथ रोक लेंगे।

123- आपका इरशादे गिरामी

(जो सिफ़्फ़ीन के मैदान में अपने असहाब से फ़रमाया था)

देखो! अगर तुमसे कोई शख़्स भी जंग के वक़्त अपने अन्दर क़ूवते क़ल्ब और अपने किसी भाई में कमज़ोरी का एहसास करे तो उसका फ़र्ज़ है के अपने भाई से इसी तरह दिफ़ाअ करे जिस तरह अपने नफ़्स से करता है के ख़ुदा चाहता तो उसे भी वैसा ही बना देता लेकिन उसने तुम्हें एक ख़ास फ़ज़ीलत अता फ़रमाई है।

देखो! मौत एक तेज़ रफ़्तार तलबगार है जिससे न कोई ठहरा हुआ बच सकता है और न भागने वाला बच निकल सकता है और बेहतरीन मौत शहादत है। क़सम है उस परवरदिगार की जिसके क़ब्ज़ए क़ुदरत में फ़रज़न्दे अबूतालिब की जान है के मेरे लिये तलवार की हज़ार ज़र्बें इताअते ख़ुदा से अल होकर बिस्तर पर मरने से बेहतर हैं। गोया मैं देख रहा हूँ के तुम लोग वैसी ही आवाज़ें निकाल रहे हो जैसी सौ समारों के जिस्मों की रगड़ से पैदा होती हैं के न अपना हक़ हासिल कर रहे हो और न ज़िल्लत का दिफ़ाअ कर रहे हो जबके तुम्हें रास्ते पर खुला छोड़ दिया गया है और निजात इसीके लिये है जो जंग में कूद पड़े और हलाकत उसी के लिये है जो देखता ही रह जाए।

124- आपका इरशादे गिरामी

(अपने असहाब को जंग पर आमादा करते हुए)

ज़िरहपोश अफ़राद को आगे बढ़ाओ और बेज़िरह लोगों को पीछे रखो। दांतों को भींच लो के इससे तलवारें सर से उचट जाती हैं और नैज़ों के एतराफ़ से पहलूओं को बचाए रखो के इससे नैज़ों के रूख़ पलट जाते हैं। निगाहों को नीचा रखोे के इससे क़ूवते क़ल्ब में इज़ाफ़ा होता है और हौसले बलन्द रहते हैं। आवाज़ें धीमी रखो के इससे कमज़ोरी दूर होती है। देखो अपने परचम का ख़याल रखना। वह न झुकने पाए और न अकेला रहने पाए। उसे सिर्फ़ बहादुर अफ़राद और इज़्ज़त के पासबानों के हाथों में रखना के मसाएब पर सब्र करने वाले ही परचमों के गिर्द जमा होते हैं और दाहिने बाएं, आगे-पीछे हर तरफ़ से घेरा डालकर उसका तहफ़्फ़ुज़ करते हैं, न इससे पीछे रह जाते हैं के इसे दुश्मनों के हवाले कर दें और न आगे बढ़ जाते हैं के वह तन्हा रह जाए।

देखो। हर शख़्स अपने मुक़ाबिल का ख़ुद मुक़ाबला करे और अपने भाई का भी साथ दे और ख़बरदार अपने मुक़ाबिल को अपने साथी के हवाले न कर देना के इस पर यह और इसका साथी दोनों मिलकर हमला कर दें।

ख़ुदा की क़सम अगर तुम दुनिया की तलवार से बचकर भाग भी निकले तो आखि़रत की तलवार से बचकर नहीं जा सकते हो। फिर तुम तो अरब के जवाँमर्द और सरबलन्द अफ़राद हो। तुम्हें मालूम है के फ़रार में ख़ुदा का ग़ज़ब भी है और हमेशा की ज़िल्लत भी है। फ़रार करने वाला न अपनी उम्र में इज़ाफ़ा कर सकता है और न अपने वक़्त के दरम्यान हाएल हो सकता है। कौन है अल्लाह की तरफ़ यूँ जाए जिस तरह प्यासा पानी की तरफ़ जाता है। जन्नत नैज़ों के एतराफ़ के साये में है आज हर एक के हालात का इम्तेहान हो जाएगा। ख़ुदा की क़सम मुझे दुश्मनों से जंग का इष्तेयाक़ उससे ज़्यादा है जितना उन्हें अपने घरों का इष्तेयाक़ है। ख़ुदाया यह ज़ालिम अगर हक़ को रद कर दें तो उनकी जमाअत को परागन्दा कर दे, उनके कलमे को मुत्तहिद न होने दे, उनको उनके किये की सज़ा दे दे के यह उस वक़्त तक अपने मौक़फ़ से न हटेंगे जब तक नैज़े इनके जिस्मों में नसीम सहर के रास्ते न बना दें और तलवारें उनके सरों को शिगाफ़्ता, हड्डियों को चूर-चूर और हाथ पैर को शिकस्ता न बना दें और जब तक उन पर लशकर के बाद लशकर और सिपाह के बाद सिपाह हमलावर न हो जाएं और उनके शहरों पर मुसलसल फ़ौजों की यलग़ार हो और घोड़े उनकी ज़मीनों को आखि़र तक रौन्द न डालें और उनकी चरागाहों और सब्ज़े जारों को पामाल न कर दें।

(((- हक़ीक़ते अम्र यह है के इन्सान की ज़िन्दगी की हर तशनगी का इलाज जन्नत के अलावा कहीं नहीं है, यह दुनिया सिर्फ़ ज़र व रियात की तकमील के लिये बनाई गई है और बड़े से बड़े इन्सान का हिस्सा भी उसके ख़्वाहिशात से कमतर है वरना सारे रूए ज़मीन पर हुकूमत करने वाला भी उससे बेशतर का ख़्वाहिश मन्द रहता और दामाने ज़मीन में उससे ज़्यादा वुसअत नहीं है। यह सिर्फ़ जन्नत है जिसके बारे में यह एलान किया गया है के वहां हर ख़्वाहिश नफ़्स और लज़्ज़ते निगाह की तस्कीन का सामान मौजूद है। अब सवाल सिर्फ़ यह रह जाता है के वहाँ तक जाने का रास्ता क्या है। मौलाए कायनात ने अपने साथियों को इसी नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जो किया है के जन्नत तलवारों के साये के नीचे है और इसका रास्ता सिर्फ़ मैदाने जेहाद है लेहाज़ा मैदाने जेहाद की तरफ़ उस तरह बढ़ो जिस तरह प्यासा पानी की तरफ़ बढ़ता है के इसी राह में हर जज़्बए दिल की तस्कीन का सामान पाया जाता है और फिर दीने ख़ुदा की सरबलन्दी से बालातर कोई शरफ़ भी नहीं है।-)))

125- आपका इरशादे गिरामी

(तहकीम के बारे में, हकमीन की दास्तान सुनने के बाद)

याद रखो, हमने अफ़राद को हकम नहीं बनाया था बल्के क़ुरआन को हकम क़रार दिया था और क़ुरान वही किताब है जो दफ़्तियों के दरम्यान मौजूद है लेकिन मुश्किल यह है के यह ख़ुद नहीं बोलता है और उसे तर्जुमान की ज़रूरत है और तर्जुमान अफ़राद ही होते हैं। इस क़ौम ने हमें दावत दी के हम क़ुरान से फ़ैसले कराएं तो हम तो क़ुरान से रूगर्दानी करने वाले नहीं थे जबके परवरदिगार ने फ़रमाया है के अपने खि़लाफ़त को ख़ुदा व रसूल की तरफ़ मोड़ दो और ख़ुदा की तरफ़ मोड़ने का मतलब उसकी किताब से फ़ैसला कराना ही है और रसूल (स0) की तरफ़ मोड़ने का मक़सद भी सुन्नत का इत्तेबाअ करना है और यह तय है के अगर किताबे ख़ुदा से सच्चाई के साथ फ़ैसला किया जाए तो उसके सबसे ज़्यादा हक़दार हम ही हैं और इसी तरह सुन्नते पैग़म्बर के लिये सबसे ऊला व अक़रब हम ही हैं।

अब तुम्हारा यह कहना के आपने तहकीम की मोहलत क्यों दी? तो किसका राज़ यह है के मैं चाहता था के बेख़बर बाख़बर हो जाए और बाख़बर तहक़ीक़ कर ले के शायद परवरदिगार इस वक़्फ़े में उम्मत के कामो की इस्लाह कर दे और इसका गला न घोंटा जाए के तहक़ीक़े हक़ से पहले गुमराही के पहले ही मरहले में भटक जाएं और याद रखो के परवरदिगार के नज़दीक बेहतरीन इन्सान वह है जिसे हक़ पर अमल दरआमद करना (चाहे इसमें नुक़सान ही क्यों न हो) बातिल पर अमल करने से ज़्यादा महबूब हो (चाहे इसमें फ़ायदा ही क्यों न हो), तो आखि़र तुम्हें किधर ले जाया जा रहा है और तुम्हारे पास शैतान किधर से आ गया है, देखो इस क़ौम से जेहाद के लिये तैयार हो जाओ जो हक़ के मामले में इस तरह सरगर्दां है के उसे कुछ दिखाई ही नहीं देता है और बातिल पर इस तरह अक़ारद कर दी गई है के सीधे रास्ते पर जाना ही नहीं चाहती है। यह किताबे ख़ुदा से अलग और वह राहे हक़ से मुन्हरिफ़ हैं मगर तुम भी क़ाबिले एतमाद अफ़राद और लाएक़ तमस्सुक शरफ़ के पासबान नहीं हो। तुम आतिशे जंग के भड़काने का बदतरीन ज़रिया हो, तुम पर हैफ़ है मैंने तुमसे बहुत तकलीफ़ उठाई है, तुम्हें अलल एलान भी पुकारा है और आहिस्ता भी समझाया है लेकिन तुम न आवाज़े जंग पर सच्चे शरीफ़ साबित हुए और न राज़दारी पर क़ाबिले एतमाद साथी निकले।

(((- हज़रत ने तहकीम का फ़ैसला करते हुए दोनों अफ़राद को एक साल की मोहलत दी थी ताके इस दौरान नावाक़िफ़ अफ़राद हक़ व बातिल की इत्तेलाअ हासिल कर लें और जो किसी मिक़दार में हक़ से आगाह हैं वह मज़ीद तहक़ीक़ कर लें, ऐसा न हो के बेख़बर अफ़राद पहले ही मरहले में गुमराह हो जाएं और अम्र व आस की मक्कारी का शिकार हो जाएं। मगर अफ़सोस यह है के हर दौर में ऐसे अफ़राद ज़रूर रहते हैं जो अपने अक़्ल व फ़िक्र को हर एक से बालातर तसव्वुर करते हैं और अपने क़ाएद के फ़ैसलों को भी मानने के लिये तैयार नहीं होते हैं और खुली हुई बात है के जब इमाम (अ0) के साथ ऐसा बरताव किया गया है तो नाएब इमाम या आलिमे दीन की क्या हक़ीक़त है ?-)))

126- आपका इरशादे गिरामी

(जब अताया की बराबरी पर एतराज़ किया गया)

क्या तुम मुझे इस बात पर आमादा करना चाहते हो के मैं जिन रिआया का ज़िम्मेदार बनाया गया हूँ उन पर ज़ुल्म करके चन्द अफ़राद की कमक हासिल कर लूँ। ख़ुदा की क़सम जब तक इस दुनिया का क़िस्सा चलता रहेगा और एक सितारा दूसरे सितारे की तरफ़ झुकता रहेगा ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता है। यह माल अगर मेरा ज़ाती होता जब भी मैं बराबर से तक़सीम करता, चे जाएका यह माल माले ख़ुदा है और याद रखो के माल का नाहक़ अता कर देना भी इसराफ़ और फ़िज़ूल ख़र्ची में शुमार होता है और यह काम इन्सान को दुनिया में बलन्द भी कर देता है तो आख़ेरत में ज़लील कर देता है। लोगों में मोहतरम भी बना देता है तो ख़ुदा की निगाह में पस्ततर बना देता है और जब भी कोई शख़्स माल को नाहक़ या ना अहल पर सर्फ़ करता है तो परवरदिगार उसके शुक्रिया से भी महरूम कर देता है और उसकी मोहब्बत का रूख़ भी दूसरों की तरफ़ मुड़ जाता है। फ़िर अगर किसी दिन पैर फैल गए और उनकी इमदाद का भी मोहताज हो गया तो वह बदतरीन दोस्त और ज़लीलतरीन साथी ही साबित होते हैं।

127- आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें बाज़ एहकामे दीन के बयान के साथ ख़वारिज के शुबहात का एज़ाला और हकमीन के तोड़ का फ़ैसला बयान किया गया है।)

अगर तुम्हारा इसरार इसी बात पर है के मुझे ख़ताकार और गुमराह क़रार दो तो सारी उम्मते पैग़म्बर (स0) को क्यों ख़ताकार दे रहे हो और मेरी “ग़लती”का मवाख़ेज़ा उनसे क्यों कर रहे हो और मेरे “गुनाह”की बिना पर उन्हें क्यों काफ़िर क़रार दे रहे हो। तुम्हारी तलवारें तुम्हारे कान्धों पर रखी हैं जहां चाहते हो ख़ता, बेख़ता चला देते हो और गुनहगार और बेगुनाह में कोई फ़र्क़ नहीं करते हो हालांके तुम्हें मालूम है के रसूले अकरम (स0) ने ज़िनाए महज़ा के मुजरिम को संगसार किया तो उसकी नमाजे़ जनाज़ा भी पढ़ी थी और उसके अहल को वारिस भी क़रार दिया था और इसी तरह क़ातिल को क़त्ल किया तो उसकी मीरास भी तक़सीम की और चोर के हाथ काटे या ग़ैर शादी शुदा ज़िनाकार को कोड़े लगवाए तो उन्हें माले ग़नीमत में हिस्सा भी दिया और उनका मुसलमान औरतों से निकाह भी कराया गोया के आपने इन लोगों के गुनाहों का मवाख़ेज़ा किया और उनके बारे में हक़े खुदा को क़ायम किया लेकिन इस्लाम में उनके हिस्से को नहीं रोका और न उनके नाम को अहले इस्लाम की फ़ेहरिस्त से ख़ारिज किया। मगर बदतरीन अफ़राद हो के शैतान तुम्हारे ज़रिये अपने मक़ासिद को हासिल कर लेता है और तुम्हें सहराए ज़लालत में डाल देता है और अनक़रीब मेरे बारे में दो तरह के अफ़राद गुमराह होंगे- मोहब्बत में ग़लू करने वाले जिन्हें मोहब्बत ग़ैरे हक़ की तरफ़ ले जाएगी और अदावत में ज़्यादती करने वाले जिन्हें अदावत बातिल की तरफ़ खींच ले जाएगी और बेहतरीन अफ़राद वह होंगे जो दरम्यानी मन्ज़िल पर हों , लेहाज़ा तुम भी इसी रास्ते को इख़्तेयार करो और इसी नज़रिये की जमाअत के साथ हो जाओ के अल्लाह का हाथ इसी जमाअत के साथ है और ख़बरदार तफ़रिक़े की कोशिश न करना के जो ईमानी जमाअत से कट जाता है वह उसी तरह शैतान का शिकार हो जाता है जिस तरह गल्ले से अलग हो जाने वाली भेड़ भेड़िये की नज़र हो जाती है। आगाह हो जाओ के जो भी इस इन्हेराफ़ का नारा लगाए उसे क़त्ल कर दो चाहे वह मेरे ही अमामे के नीचे क्यों न हो। इन दोनों अफ़राद को हकम बनाया गया था ताके उन उमूर को ज़िन्दा करें जिन्हें क़ुरआन ने ज़िन्दा किया है और इन उमूर को मुर्दा करें जिन्हें क़ुरान ने मुर्दा बना दिया है और ज़िन्दा करने के मानी इस पर इत्तेफ़ाक़ करने और मुर्दा बनाने के मानी इससे अलग हो जाने के हैं। हम इस बात पर तैयार थे के अगर क़ुरान हमें दुश्मनों की तरफ़ खींच ले जाएगा तो हम उनका इत्तेबाअ कर लेंगे और अगर उन्हें हमारी तरफ़ ले आएगा तो उन्हें आना पड़ेगा लेकिन ख़ुदा तुम्हारा बुरा करे, इस बात में मैंने कोई ग़लत काम तो नहीं किया और न तुम्हें कोई धोका दिया है और न किसी बात को शुबह में रखा है। लेकिन तुम्हारी जमाअत ने दो आदमियों के इन्तेख़ाब पर इत्तेफ़ाक़ कर लिया और मैंने उन पर शर्त लगा दी के क़ुरान के हुदूद से तजावुज़ नहीं करेंगे मगर वह दोनों क़ुरान से मुन्हरिफ़ हो गए और हक़ को देख भाल कर नज़रअन्दाज कर दिया और असल बात यह है के इनका मक़सद ही ज़ुल्म था और वह उसी रास्ते पर चले गए जबके मैंने उनकी ग़लत राय और ज़ालिमाना फ़ैसले से पहले ही फ़ैसले में अदालत और इरादाए हक़ की शर्त लगा दी थी।


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