वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

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वहाबियत इतिहास के दर्पण मे कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

वहाबियत , वास्तविकता व इतिहास

वहाबियत की आधारशिला रखने वाले इब्ने तैमिया ने अपने पूरे जीवन में बहुत सी किताबें लिखीं और अपनी आस्थाओं का अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है। उन्होंने ऐसे अनेक फ़त्वे दिए जो उनसे पहले के किसी भी मुसलमान धर्मगुरुओं ने नहीं दिए विशेष रूप से ईश्वर के बारे में। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर वैसा ही है जैसा कि क़ुरआन की कुछ आयतों में उल्लेख है हालांकि ऐसी आयतों की क़ुरआन की दूसरी आयतें व्याख्या करती हैं और पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के कथनों से भी ऐसी आयतों की तार्कपूर्ण व्याख्या की गयी है। किन्तु इब्ने तैमिया और दूसरे सलफ़ी क़ुरआन की आयतों की विवेचना व स्पष्टीकरण से दूर रहे और इस प्रकार ईश्वर के अंग तथा उसके लिए परिसिमा को मानने लगे।

इब्ने तैमिया और उनके प्रसिद्ध शिष्य इब्ने क़य्यिम जौज़ी ने अपनी किताबों में इस बिन्दु पर बल दिया है कि ईश्वर सृष्टि की रचना करने से पूर्व ऐसे घने बादलों के बीच में था कि जिसके ऊपर और न ही नीचे हवा थी , संसार में कोई भी वस्तु मौजूद नहीं थी और ईश्वर का अर्श अर्थात ईश्वर की परम सत्ता का प्रतीक विशेष स्थान पानी के ऊपर था।

इस बात में ही विरोधाभास मौजूद है। क्योंकि एक ओर यह कहा जा रहा है कि ईश्वर इससे पहले कि किसी चीज़ को पैदा करता , घने बादलों के बीच में था जबकि बादल स्वयं ईश्वर की रचना है। इसलिए यह कैसे माना जा सकता है कि रचना अर्थात बादल रचनाकार से पहले सृष्टि में मौजूद रहा है ? क्या इस्लामी शिक्षाओं से अवगत एक मुसलमान इस बात को मानेगा कि महान ईश्वर को ऐसे अस्तित्व की संज्ञा दी जाए जो ऐसी बेबस हो कि घने बादलों में घिरी हो और बादल उस परम व अनन्य अस्तित्व का परिवेष्टन किए हो ? इस्लाम के अनुसार कोई भी वस्तु ईश्वर पर वर्चस्व नहीं जमा सकती क्योंकि क़ुरआनी आयतों के अनुसार ईश्वर का हर वस्तु पर प्रभुत्व है और पूरी सृष्टि उसके नियंत्रण में है। इब्ने तैमिया के विचारों का इस्लामी शिक्षाओं से विरोधाभास पूर्णतः स्पष्ट है।

वह्हाबियों की आस्थाओं में एक आस्था यह भी है कि ईश्वर किसी विशेष दिशा व स्थान में है। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर के शरीर के अतिरिक्त व्यवहारिक विशेषता भी है और शारीरिक तथा बाह्य दृष्टि से भी आसमानों के ऊपर है। इबने तैमिया में अपनी किताब मिन्हाजुस्सुन्नह में इस विषय का इस प्रकार उल्लेख किया हैः हवा , ज़मीन के ऊपर है , बादल हवा के ऊपर है , आकाश , बादलों व धरती के ऊपर हैं और ईश्वर की सत्ता का प्रतीक अर्श आकाशों के ऊपर है और ईश्वर इन सबके ऊपर है। इसी प्रकार वे पूर्वाग्रह के साथ कहते हैः जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर दिखाई देगा किन्तु ईश्वर के लिए दिशा को सही नहीं मानते उनकी बात बुद्धि की दृष्टि से अस्वीकार्य है।

प्रश्न यह उठता है कि इब्ने तैमिया का यह दृष्टिकोण क्या पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक पंद्रह से स्पष्ट रूप से विरुद्ध नहीं है जिसमें ईश्वर कह रहा हैः पूरब पश्चिम ईश्वर का है तो जिस ओर चेहरा घुमाओगे ईश्वर वहां है। ईश्वर हर चीज़ पर छाया हुया व सर्वज्ञ है। और इसी प्रकार सूरए हदीद की आयत क्रमांक चार में ईश्वर कह रहा हैः जहां भी हो वह तुम्हारे साथ है।

अब सूरए सजदा की इस आयत पर ध्यान दीजिएः ,,,और फिर उसका संचालन अपने हाथ में लिया और उससे हटकर न तो कोई तुम्हारा संरक्षक और न ही उसके मुक़ाबले में कोई सिफ़ारिश करने वाला है।

सूरए हदीद की आयत क्रमांक 4 में ईश्वर कह रहा हैः फिर सृष्टि का संचालन संभाला और जो कुछ ज़मीन में प्रविष्ट करती है उसे जानता है।

और अब सूरए ताहा की आयत क्रमांक 5 पर ध्यान दीजिएः वही दयावान जिसके पास पूरी सृष्टि की सत्ता है।

वह्हाबी इन आयतों के विदित रूप के आधार पर ईश्वर की सत्ता के प्रतीक के लिए विशेष रूप व आकार को गढ़ लिया है कि जिसके सुनने पर शायद हंसी आ जाए। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर का भार बहुत अधिक है और वह अर्श पर बैठा है। इब्ने तैमिया कि जिसका सलफ़ी अनुसरण करते हैं , अनेक किताबों में लिखा है कि ईश्वर अपने आकार की तुलना में अर्श के हर ओर से अपनी चार अंगुली अधिक बड़ा है। इब्ने तैमिया कहते हैः पवित्र ईश्वर अर्श के ऊपर है और उसका अर्श गुंबद जैसा है जो आकाशों के ऊपर स्थित है और अर्श ईश्वर के अधिक भारी होने के कारण ऊंट की काठी भांति आवाज़ निकालता है जो भारी सवार के कारण निकालता है।

इब्ने क़य्यिम जौज़ी जो इब्ने तैमिया के शिष्य व उनके विचारों के प्रचारक तथा मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पौत्र भी हैं , अपनी किताबों में ईश्वर का इस प्रकार उल्लेख किया है कि सुनने वाले उसके बचपन की कलपनाएं याद आ जाती हैं। वे कहते हैः ईश्वर का अर्श कि जिसकी चौड़ाई दो आकाशों के बीच की दूरी जितनी है , आठ भेड़े के ऊपर है कि जिनके पैर के नाख़ुन से घुटने तक की दूरी भी दो आकाशों के बीच की दूरी की भांति है। ये भेड़े एक समुद्र के ऊपर खड़े हैं कि जिसकी गहराई दो आकाशों के बीच की दूरी की जितनी है और समुद्र सातवें आकाश पर स्थित है। ये बातें ऐसी स्थिति में हैं कि न तो पवित्र क़ुरआन की आयतें , न पैग़म्बरे इस्लाम और न ही उनके सदाचारी साथियों ने इस प्रकार की निराधार व अतार्किक विशेषताओं का उल्लेख किया बल्कि उनका मानना है कि ईश्वर कैसा है इसका उल्लेख असंभव है।

हर चीज़ से ईश्वर के आवश्यकतामुक्त होने की आस्था धर्म व पवित्र क़ुरआन की महत्वपूर्ण शिक्षाओं में है और पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में इस विषय पर चर्चा की गयी है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 263 में ईश्वर कह रहा हैः ईश्वर आवश्यकतामुक्त और सहनशील है। इसी प्रकार सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 267 में हम पढ़ते हैः ईश्वर आवश्यकतामुक्त और सारी प्रशंसा उसी से विशेष हैं।

पवित्र क़ुरआन की इन आयतों में इस प्रकार के अर्थ को केवल चिंतन मनन द्वारा ही समझा जा सकता है। पवित्र क़ुरआन मानव समाज को निरंतर तर्क का निमंत्रण देता है और दावा करने वालों से कह रहा है कि यदि उनके पास अपनी बात की सत्यता का कोई तर्क है तो उसे बयान करे।

उदाहरण स्वरूप तर्क की दृष्टि से यह कैसे माना जा सकता है कि ईश्वर आठ भेड़ों पर सवार है। क्योंकि यदि ईश्वर वास्तव में आठ भेड़ों पर सवार होगा तो उसे उनकी आवश्यकता होगी। जबकि अनन्य ईश्वर पवित्र है इस त्रुटि से कि उसे किसी चीज़ की आवश्यकता पड़े। इसी प्रकार इस भ्रष्ट विचार के आधार पर कि ईश्वर का अर्श आठ भेड़ों पर है , यह निष्कर्श निकलेगा कि ये आठ भेड़ें भी जब से ईश्वर है और जब तक रहेगा , मौजूद रहेंगी। जबकि ईश्वर सूरए हदीद की चौथी आयत में स्वयं को हर चीज़ से पहले और हर चीज़ के बाद बाक़ी रहने वाला अस्तित्व कह रहा है और सलफ़ियों के आठ भेड़ों सहित दूसरी कहानियों से संबंधित किसी बात का उल्लेख नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहै अलैहे व आलेही व सल्लम ईश्वर की विशेषता के संबंध में कहते हैः तू हर चीज़ से पहले था और तुझसे पहले कोई वस्तु नहीं थी और तू सबके बाद भी है।

अर्श पर ईश्वर के होने का अर्थ ईश्वर की सत्ता है जो पूरी सृष्टि पर छायी हुयी है और पूरे संसार का संचालन उसके हाथ में है। अर्श से तात्पर्य यह है कि ईश्वर का पूरी सृष्टि पर नियंत्रण और हर वस्तु पर उसका शासन है जो अनन्य ईश्वर के अभिमान के अनुरूप है। इसलिए अर्श पर ईश्वर के होने का अर्थ सभी वस्तुओं चाहे आकाश या ज़मीन , चाहे छोटी चाहे बड़ी चाहे महत्वपूर्ण और चाहे नगण्य हो सबका संचालन उसके हाथ में है। परिणामस्वरूप ईश्वर हर चीज़ का पालनहार और इस दृष्टि से वह अकेला है। रब्ब से अभिप्राय पालनहार और संचालक के सिवा कोई और अर्थ नहीं है किन्तु सलफ़ी ईश्वर के अर्श की जो विशेषता बयान करते हैं वह न केवल यह कि धार्मिक मानदंडों व बुद्धि से विरोधाभास रखता है बल्कि उसे बकवास के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। सलफ़ी इसी प्रकार ईश्वर के अर्श से ऐसे खंबे अभिप्राय लेते हैं कि यदि उनमें से एक न हो तो ईश्वर का अर्श ढह जाएगा और ईश्वर उससे ज़मीन पर गिर पड़ेगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम जिन्हें पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने ज्ञान के नगर का द्वार कहा है , ईश्वर के अर्श की व्याख्या इन शब्दों में करते हैः ईश्वर ने अर्श को अपनी सत्ता के प्रतीक के रूप में बनाया है न कि अपने लिए कोई स्थान।

वहाबियत , वास्तविकता व इतिहास- 2

मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने कई शताब्दियों के बाद इब्ने तय्मिया के भ्रष्ठ विचारों का प्रचार करना आरंभ कर दिया। इन्ने तयमिया के भ्रष्ठ , ग़लत और फूट डालने वाले विचारों को १९वीं ईसवी शताब्दी के आरंभ में इतिहास की बहुत ही ख़राब व विषम स्थिति में प्रस्तुत किया गया। उस समय इस्लामी जगत को चारों ओर से पश्चिमी साम्राज्यवादियों के कड़े आक्रमणों का सामना था। ब्रिटेन भारत के बड़े भाग पर अपना आधिपत्य जमाने के साथ पूरब की ओर से फार्स की खाड़ी को अपने नियंत्रण में करने की चेष्टा में था। उसकी सेनाएं लगातार दक्षिण और पश्चिम की ओर से ईरान की ओर आगे बढ़ रही थीं। फ्रांसिसियों ने भी नेपोलियन के नेतृत्व में मिस्र , सीरिया और फिलिस्तीन का अतिग्रहण कर लिया और वे भारत में प्रवेश की चेष्टा में थे। रूस के ज़ार शासक भी ईरान और उसमानी साम्रज्य पर बारम्बार आक्रमण करके अपनी सत्ता क्षेत्रफल को फिलिस्तीन और फार्स की खाड़ी तक विस्तृत करना चाह रहे थे। यहां तक कि अमेरिकी भी उस समय उत्तरी अफ्रीक़ा के इस्लामी देशों पर लोभ की दृष्टि लगाये हुए थे। वे लीबिया और अलजीरिया के नगरों पर गोला बारी करके इस्लामी जगत में पैठ बनाने की जुगत में थे। इस कठिन स्थिति में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने मुसलमानों को नास्तिक कहकर और अपने भ्रष्ठ विचारों को पेश करके इस्लामी एकता को कड़ा आघात पहुंचाया जबकि उस समय मुसलमानों को शत्रुओं के मुक़ाबले में एकता , समरसता और एक दूसरे से सहयोग की अत्यंत आवश्यता थी।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उस समय ब्रिटेन मुसलमान राष्ट्रों के मध्य पैठ बनाने और उन्हें अपना उपनिवेश बनाने में आगे आगे था। बूढ़े साम्राज्य ब्रिटेन की प्रसिद्ध व प्रभावी शैली लोगों के मध्य फूट डालना और उनकी सम्पत्ति व स्रोतों को लूटना था। इसी परिप्रेक्ष्य में ब्रिटेन का प्रयास इस्लामी जगत में धार्मिक मतभेदों को हवा देना था। इसी कारण कुछ इतिहासकार वह्हाबी सम्प्रदाय के गठन को ब्रिटेन की गतिविधियों से असंबंधित नहीं मानते।

इतिहास में ब्रिटिश जासूस मिस्टर HAMFAR और मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के बीच संबंधों का उल्लेख किया गया है। मिस्टर हम्फरे इस्लामी देशों में ब्रिटेन का जासूस था जो विदित में इस्लामी चोला पहनकर मुसलमानों के मध्य फूट डालने के मार्गों की खोज में था। हम्फरे ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि इराक़ के दक्षिण में स्थित बसरा नगर में उसकी भेंट मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब से हुई। हम्फरे मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के बारे में कहता है" मुझे , अपना खोया मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब में मिल गया। वह धार्मिक नियमों के प्रति कटिबद्ध नहीं था। उसमें अहं भरा हुआ था और वह अपने समय के विद्वानों व धर्मगुरूओं से घृणा करता था वह स्वयं को सही समझता था यहां तक कि मुसलमानों के चार ख़लीफाओं को भी कोई महत्व नहीं देता था और वह क़ुरआन एवं सुन्नत के बारे में केवल अपने अल्प विचारों व ज्ञान पर भरोसा करता था। ये विशेषताएं उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थीं और इन्हीं के माध्यम से मैंने उसमें प्रवेश किया और उस पर काम किया" स्वयं हम्फर के कथनानुसार "मैंने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को वह्हाबी नाम का सम्प्रदाय उत्पन्न करने के लिए उकसाया और उसके तथा मोहम्मद बिन सऊद के प्रति ब्रिटिश सरकार के समर्थन की घोषणा की।

जो चीज़ निश्चित है वह यह है कि धर्मगुरू और विद्वान लोग यहां तक कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पिता और उसके भाई भी मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के अतार्किक एवं भ्रष्ठ विचारों के मुखर विरोधी थे। इस प्रकार से कि मात्र अपने पिता की मृत्यु के बाद मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने अपने भ्रष्ठ विचारों को व्यक्त किया। आरंभ से ही उसे अपने भ्रष्ठ विचारों के प्रकट करने में धर्मगुरूओं एवं लोगों के विरोधों का सामना था परंतु उसने अपने भ्रष्ठ विचारों को नहीं छोड़ा। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब सऊदी अरब के हुरैमला नगर में वह्हाबियत का प्रचार और अपने ग़लत विचारों को बयान करना आरंभ कर दिया। उसके इस कार्य से लोग क्रोधित व उत्तेजित हो उठे यहां तक कि वह इस नगर को छोड़ने पर बाध्य हो गया। वह हुरैमला नगर से ओअय्यना नगर चला गया। उस समय ओअय्यना नगर का शासक उसमान बिन माअमर था। उसने अब्दुल वह्हाब को अपने यहां स्वीकार कर लिया और अब्दुल वह्हाब ने भी इसके बदले में वचन दिया कि नज्द क्षेत्र के रहने वाले समस्त लोगों को उसमान बिन माअमर का आज्ञापालक बना देगा परंतु अहसा क्षेत्र के शासक की होशियारी के कारण उस्मान ने अब्दुल वह्हाब को ओअय्यना नगर से बाहर निकाल दिया।

११६० हिजरी कमरी में ओअय्यना से बाहर निकाल दिये जाने के बाद मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब नज्द के प्रसिद्ध नगर देरइय्या की ओर चला गया। उस समय मोहम्मद बिन सऊद अर्थात सऊद परिवार का दादा देरइय्या का शासक था। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने नगर के शासक का आह्वान किया कि वह उसके साथ सहकारिता करे और उसने मोहम्मद बिन सऊद से वादा किया कि भ्रष्ठ वह्हाबी विचारों को फैलाकर उसके शासन के क्षेत्रफल को विस्तृत करेगा। मोहम्मद बिन सऊद ने अब्दुल वह्हाब के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और परिणाम स्वरुप दोनों ने समझौता किया कि सरकार की बागडोर मोहम्मद बिन सऊद के हाथों में रहे और वह्हाबी विचारों का प्रचार अब्दुल वह्हाब करे। इस समझौते को मज़बूत बनाने के उद्देश्य से दोनों परिवारों के मध्य विवाह भी हो गया।

अब्दुल वह्हाब ने सऊद परिवार की सत्ता की छत्रछाया में अपने विचारों के प्रचार को विस्तृत किया। शीघ्र ही निकटवर्ती नगरों एवं क़बीलों पर आक्रमण आरंभ हो गये। अब्दुल वह्हाब ने पहला कार्य यह किया कि ओअय्यना नगर के चारों ओर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के साथियों की जो समाधियां व दर्शनस्थल थे उसे ध्वस्त करा दिया और उन मुसलमानों को अनेकेश्वरवादी व मूर्ति की पूजा करने वाला कहा तथा उनके नास्तिक होने का फतवा दिया जो ईश्वरीय दूतों को माध्यम बनाकर महान ईश्वर से दुआ करते थे। अब्दुल वह्हाब इस प्रकार के मुसलमानों की हत्या को वैध समझता था तथा उनकी धन- सम्पत्ति को ज़ब्त कर लेने को युद्ध में लूटा सामान समझता था। उसके बाद अब्दुल वह्हाब के अनुयाई उसके इसी फतवे को आधार बनाकर हज़ारों निर्दोष मुसलमानों की हत्या की। यहां पर यह जानना उचित होगा कि उस समय देरईय्या के लोग बहुत ही कठिन व निर्धनता की स्थिति में जीवन गुजार रहे थे परंतु इन आक्रमणों व युद्धों के कारण देरईय्या नगर में दूसरे मुसलमानों के लूटे सामानों की भरमार हो गयी।

आलूसी सुन्नी मुसलमान इतिहासकार है और उसका भी रूझान अब्दुल वह्हाब के विचारों की ओर है। वह "इब्ने बोशर नज्दी" नामक इतिहासकार की "तारीख़े नज्द" नामक पुस्तक के हवाले से इस प्रकार बयान करता है" मैं अर्थात इब्ने बोशर आरंभ में देरईय्या नगर के लोगों के बहुत निर्धन होने का साक्षी था परंतु बाद में यह नगर सऊद के काल में धनी नगर में परिवर्तित हो गया यहां तक कि इस नगर के हथियार भी सोने से सुसज्जित कर दिये गये। नगर के लोग अच्छे घोड़ों पर सवारी करते थे , मूल्यवान वस्त्र पहनते थे और धन- दौलत की हर आवश्यकता से सम्मन्न हो गये थे। इस सीमा तक कि ज़बान उन सबका उल्लेख करने से अक्षम है। इन सबके साथ इब्ने बोशर ने अपनी किताब में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि यह अपार सम्पत्ति कहां से आई थी परंतु इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नज्द के जिन नगरों के मुसलमानों व क़बीलों ने वह्हाबी विचारों को स्वीकार नहीं किया उन पर आक्रमण किया गया और उनकी सम्पत्ति लूटकर ये दौलत हाथ आई थी। लूटे हुए समस्त सामान शेख मोहम्मद के अधिकार में होता था और मोहम्मद बिन सऊद भी उसकी अनुमति से ही कुछ ले पाता था। इन लूटे गये सामानों के बटवारे में अब्दुल वह्हाब की मनमानी वाली शैली थी। वह मुसलमानों के लूटे हुए इन सामानों को कभी दो या तीन व्यक्तियों को दे देता था।

एकेश्वरवाद के बारे में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब का जो ग़लत विचार था उसे स्वीकार करने के लिए वह विभिन्न नगरों के लोगों को आमंत्रित करता था। जो उसके निमंत्रण को स्वीकार करता था उसकी जान माल सुरक्षित होती थी और जो उसके निमंत्रण को स्वीकार नहीं करता था उसे अब्दुल वह्हाब इस्लाम का शत्रु समझता था और उसकी हत्या कर देने एवं उसके धन को हड़प लेने को वैध समझता था। भ्रष्ठ विचार के वह्हाबी , नज्द में और नज्द से बाहर जैसे यमन , हेजाज़ और सीरिया तथा इराक़ के आस पास के क्षेत्रों में जो युद्ध करते थे उसका आधार उनके यही भ्रष्ठ विचार थे। युद्ध के माध्यम से जिस नगर पर भी वे अधिकार करते थे वहां की हर चीज़ उनके लिए वैध थी और यदि वे उसे अपने सम्पत्ति में शामिल कर सकते थे तो सम्मिलित करते थे अन्यथा उस नगर को लूटने पर ही संतोष करते थे। जो लोग मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के विचारों से सहमत थे और उसके निमंत्रण को स्वीकार करते थे उन्हें चाहये कि वे उसकी आज्ञा पालन का वचन दें और जो लोग उसके मुक़ाबले के लिए उठ खड़े होते थे उनकी हत्या कर दी जाती थी। इस तरीक़े से अहसा नगर के फुसूल नाम के एक गांव के ३०० पुरुषों की हत्या कर दी गयी और उनकी सम्पत्ति को लूट लिया गया।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 3

हिंसा और निर्दयता में प्रसिद्ध सऊद इब्ने अब्दुल अज़ीज़ ने मक्के पर क़ब्ज़ा करने के दौरान सुन्नी समुदाय के बहुत से विद्वानों को अकारण ही मार डाला और मक्के के बहुत से प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित लोगों को बिना किसी आरोप के फांसी पर चढ़ा दिया। प्रत्येक मुसलमान को , जो अपनी धार्मिक आस्थाओं पर डटा रहता है , विभिन्न प्रकार की यातनाओं द्वारा डराया जाता है और नगर-नगर और गांव-गांव में पुकार लगाने वाले भेजे जाते थे और वे ढ़िढोंरा पीट पीट कर लोगों से कहते थे कि हे लोगो सऊद के धर्म में प्रविष्ट हो जाओ और उसकी व्यापक छत्रछाया में शरण प्राप्त करो।

उस्मानी शासन के नौसेना प्रशिक्षण केन्द्र के एक उच्च अधिकारी अय्यूब सबूरी लिखते हैं कि अब्दुल अज़ीज़ इब्ने सऊद ने वहाबी क़बीलों के सरदारों की उपस्थिति में अपने पहले भाषण में कहा कि हमें सभी नगरों और समस्त आबादियों पर क़ब्ज़ा करना चाहिए। अपनी आस्थाओं और आदेशों को उन्हें सिखाना चाहिए। हम अपनी इच्छाओं को व्यवहारिक करने के लिए सुन्नी समुदाय के उन धर्मगुरूओं का ज़मीन से सफाया करने पर विवश हैं जो सुन्नते नबवी और शरीअते मुहम्मदी अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के चरित्र तथा मत का अनुसरण करने का दावा करते हैं , विशेषकर प्रसिद्ध व जाने माने धर्मगुरूओं को तो बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे क्योकि जब तक वे जीवित हैं , हमारे अनुयायी प्रसन्न नहीं हो पाएंगे। इस प्रकार से सबसे पहले उन लोगों का सफाया करना चाहिए जो स्वयं को धर्मगुरू के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

सऊद इब्ने अब्दुल अज़ीज़ , मक्के का अतिग्रहण करने के बाद अरब उपमहाद्वीप के दूसरे महत्त्वपूर्ण नगरों पर क़ब्ज़े के प्रयास में रहा और इस बार उसने जद्दह पर आक्रमण किया। इब्ने बुशर जो स्वयं वहाबी है , तारीख़े नज्दी नामक पुस्तक में लिखता है कि सऊद , बीस दिनों से अधिक समय तक मक्के में रहा और उसके बाद वह जद्दह पर क़ब्ज़े के लिए मक्के से निकला। उसने जद्दह का परिवेष्टन किया किन्तु जद्दह के शासक ने बहुत से वहाबियों को तोप से उड़ा दिया और उन्हें भागने पर विवश कर दिया। इस पराजय के बाद वहाबी मक्के नहीं लौटे बल्कि वे अपनी मुख्य धरती अर्थात नज्द चले गये क्योकि उन्होंने सुना था कि ईरान की सेना ने नज्द पर आक्रमण कर दिया है। यह स्थिति मक्के को वहाबियों के हाथों से छुड़ाने का सुनहरा अवसर थी। मक्के के शासक शरीफ़ ग़ालिब ने , जो वहाबियों के आक्रमण के बाद जद्दह भाग गया था , जद्दह के शासक के सहयोग से भारी संख्या में सैनिकों को मक्के भेजा। यह सैनिक तोप और गोलों से लैस थे और वहाबियों की छोटी सी सेना को पराजित करने और मक्के पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे।

इसके बावजूद संसार के मुसलमानों के सबसे पवित्र स्थान मक्के पर क़ब्ज़े के लिए वहाबियों ने यथावत प्रयास जारी रखे। वर्ष 1804 में सऊद के आदेशानुसार जो वहाबियों का सबसे शक्तिशाली शासक समझा जाता है , पवित्र नगर मक्के का पुनः परिवेष्टन कर लिया गया। उसने मक्केवासियों पर बहुत अत्याचार किया यहां तक कि बहुत से मक्कावासी भूख और अकाल के कारण काल के गाल में समा गये।

सऊद के आदेशानुसार , मक्के के समस्त मार्गों को बंद कर दिया गया और जितने भी लोगों ने मक्के में शरण ले रखी थी , सबकी हत्या कर दी गयी। इतिहास में आया है कि मक्के में बहुत से बच्चे मारे गये और मक्के की गलियों में उनके शव कई दिनों तक पड़े रहे।

मक्के के शासक शरीफ़ ग़ालिब ने जिसके पास वहाबियों से संधि करने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं था , वर्ष 1805 में वहाबियों से संधि कर ली। इतिहासकारों ने इस संदर्भ में लिखा कि मक्के के शासक ने भय के मारे वहाबियों के आदेशों का पालन किया। मक्के पर उनके वर्चस्व के समय वह उनके साथ बहुत ही अच्छा व्यवहार करता रहा और उसने वहाबी धर्मगुरूओं को बहुत ही मूल्यवान उपहार दिए ताकि अपनी और मक्केवासियों की जान की रक्षा करे।

वहाबियों द्वारा मक्के के पुनः अतिग्रहण के बाद उन्होंने चार वर्षों तक इराक़ी तीर्थयात्रियों के लिए , वर्तमान सीरिया अर्थात शामवासियों के लिए तीन वर्षों तक और मिस्र वासियों के लिए दो वर्षों तक के लिए हज के आध्यात्मिक व मानवीय संस्कारों पर रोक लगा दी।

मक्के पर अतिग्रहण के बाद सऊद ने पवित्र नगर मदीने पर क़ब्ज़ा करने के बारे में सोचा और इस पवित्र नगर का भी परिवेष्टन कर लिया किन्तु वहाबियों की भ्रष्ट आस्थाओं व हिंसाओं से अवगत , मदीनावासियों ने उनके मुक़ाबले में कड़ा प्रतिरोध किया। अंततः वर्ष 1806 में पवित्र नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। वहाबियों ने पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के रौज़े में मौजूद समस्त मूल्यवान चीज़ों को लूट लिया किन्तु समस्त मुसलमानों के विरोध के भय से रसूले इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पवित्र रौज़े को ध्वस्त न कर सके। वहाबियों ने चार पेटियों में भरे हीरे और मूल्यवान रत्नों से बनी विभिन्न प्रकार की चीज़ों को लूट लिया। इसी प्रकार मूल्यवान ज़मुर्रद से बने चार शमादान को जिनमें मोमबत्ती के बदले रात में चमकने वाले और प्रकाशमयी हीरे रखे जाते थे , चुरा लिया। उन्होंने इसी प्रकार सौ तलवारों को भी चुरा लिया जिनका ग़ेलाफ़ शुद्ध सोने का बना हुआ था और जो याक़ूत और हीरे जैसे मूल्यवान पत्थरों से सुसज्जित थीं जिनका दस्ता ज़मुर्रद और ज़बरजद जैसे मूल्यवान पत्थरों का था। सऊद इब्ने अज़ीज़ ने मदीने पर क़ब्ज़ा करने के बाद समस्त मदीना वासियों को मस्जिदुन्नबी में एकत्रित किया और इस प्रकार से अपनी बातों को आरंभ किया। हे मदीनावासियों , आज हमने धर्म को तुम्हारे लिए परिपूर्ण कर दिया। तुम्हारे धर्म और क़ानून परिपूर्ण हो गये और तुम इस्लाम की विभूतियों से तृप्त हो गये , ईश्वर तुम से राज़ी व प्रसन्न हुआ , अब पूर्वजों के भ्रष्ट धर्मों को अपने से दूर कर दो और कभी भी उसे भलाई से न याद करो और पूर्वजों पर सलवात भेजने से बहुत बचो क्योंकि वे सबके सब अनेकेश्वरवादी विचारधरा अर्थात शिरक में मरे हैं।

सऊद ने अपनी सैन्य चढ़ाइयों में बहुत से लोगों का नरसंहार किया। उसकी और उस समय के वहाबी पंथ की भीषण हिंसाओं से अरब जनता और शासक भय से कांपते थे। इस प्रकार से कि कोई मारे जाने के भय से हज या ज़ियारत के लिए मक्के और मदीने की यात्रा करने का साहस भी नहीं करता था। मक्के के शासक ने अपनी जान के भय से , सऊद की इच्छानुसार , मक्के और मदीने में पवित्र स्थलों और जन्नतुल बक़ीअ क़ब्रिस्तान को ध्वस्त करने का आदेश दिया। उसने हिजाज़ में वहाबी धर्म को औपचारिकता दी और जैसा कि वहाबी चाहते थे , अज़ान से पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम पर सलवात भेजने को हटा दिया। अरब शासकों और हेजाज़ के प्रतिष्ठित लोगों ने जो इस पथभ्रष्ट पंथ की आस्थाओं और ज़ोरज़बरदस्तियों को सहन करने का साहस नहीं रखते थे , सबसे उच्चाधिकारी अर्थात उस्मानी शासक को पत्र लिखकर वहाबियों की दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई शक्ति के ख़तरों से सचेत किया। उन्होंने बल दिया कि वहाबी पंथ केवल सऊदी अरब तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसका इरादा समस्त मुसलमानों पर वर्चस्व जमाना और पूरे उस्मानी शासन पर क़ब्ज़ा करना है।

हेजाज़ , यमन , मिस्र , फ़िलिस्तीन , सीरिया और इराक़ जैसी इस्लामी धरती पर शासन करने वाली उस्मानी सरकार ने मिस्र के शासक को वहाबियों से युद्ध करने का आदेश दिया। यह वही समय था जब सऊद 66 वर्ष की आयु में दिरइये नामक स्थान पर कैंसर में ग्रस्त होकर मर गया और उसका अब्दुल्लाह नामक पुत्र उसकी जगह बैठा।

उस्मानी सरकार की ओज्ञ से लैस मिस्र का शासक मुहम्मद अली पाशा वहाबियों को विभिन्न युद्धों में पराजित करने में सफल रहा और उसने वहाबियों के चंगुल से मक्के , मदीने और ताएफ़ को स्वतंत्र करा दिया। मिस्र के शासक ने इन युद्धों में वहाबियों के बहुत से कमान्डरों को गिरफ़्तार कर उस्मानी शासन की राजधानी इस्तांबोल भेज दिया। इस विजय के बाद मिस्र में जनता ने ख़ुशियां मनाई और विभिन्न समारोहों का आयोजन किया किन्तु वहाबियों की शैतानी अभी समाप्त नहीं हुई थी। मिस्र का शासक मुहम्मद अली पाशा ने समुद्री मार्ग से एक बार फिर अपनी सेना हेजाज़ भेजी। उसने मक्के को अपनी सैन्य छावनी बनाई और मक्के के शासक और उसके पुत्र को देश निकाला दे दिया और उनके माल को ज़ब्त कर लिया। उसके बाद वह मिस्र लौट आया और उसने अपनी ही जाति के इब्राहीम पाशा नामक व्यक्ति को लैस करके नज्द की ओर भेजा।

इब्राहीम पाशा ने वहाबियों के केन्द्र नज्द के दिरइये नगर का परिवेष्टन कर लिया। वहाबियों ने इब्राहीम पाशा के मुक़ाबले में कड़ा प्रतिरोध किया। तोप और गर्म हथियारों से लैस इब्राहीम पाशा ने दिरइये पर क़ब्ज़ा कर लिया और अब्दुल्लाह इब्ने सऊद को गिरफ़्तार कर लिया। अब्दुल्लाह इब्ने सऊद को उसके साथियों और निकटवर्तियों के साथ उस्मानी शासक के पास भेज दिया दिया गया। उस्मानी शासक ने अब्दुल्लाह और उसके साथियों को बाज़ारों और नगरों में फिराने के बाद उन्हें मृत्युदंड दे दिया। अब्दुल्लाह इब्ने सऊद के मारे जाने के बाद तत्कालीन शसक आले सऊद और उसके बहुत से साथियों ने विभिन्न इस्लामी जगहों पर समारोहों का आयोजन किया और बहुत ख़ुशियां मनाई।

इब्राहीम पाशा लगभग नौ महीने तक दिरइये नगर में रहा और उसके बाद उसने इस नगर को वासियों से ख़ाली कराने का आदेश दिया और उसके बाद नगर को बर्बाद कर दिया। इब्राहीम पाशा ने मुहम्मद इब्ने अब्दुलवह्हाब और आले सऊद की जाति और उसके बहुत से पौत्रों को मरवा दिया या देश निकाला दे दिया ताकि फिर इस ख़तरनाक पंथ का नाम लेने वाला कोई न रहे। उसके बाद नज्द और हेजाज़ में उस्मानी शासक की सफलताओं का श्रेय मिस्र के शासक मुहम्मद अली पाशा को जाता है। इस प्रकार से 1818 में वहाबियों का दमन हुआ और उसके लगभग एक शताब्दी तक वहाबियों का नाम लेने वाला कोई नहीं था।

सऊदी अरब में नज्द की धरती पर मिस्रियों की चढ़ाई का बहुत ही उल्लेखनीय परिणाम निकला था। अब्दुल अज़ीज़ और उसके पुत्र सऊद का विस्तृत देश बिखर गया और बहुत से वहाबी मारे गये। वहाबी पंथ का निमंत्रण और लोगों पर इस भ्रष्ट आस्था को थोपने का क्रम रूक गया और वहाबियों को लेकर लोगों के दिलों में जो भय था , वह समाप्त हो गया।