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वहाबियत इतिहास के दर्पण मे कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

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यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 11

पिछले लेख में हमने कहा कि जिन विषयों के बारे में वहाबियों ने अत्यधिक हो हल्ला मचाया है उनमें से एक ईश्वर के प्रिय बंदों से तवस्सुल या अपने कार्यों के लिए उनके माध्यम से ईश्वर से सिफ़ारिश करवाना है। सलफ़ी , तवस्सुल को एकेश्वरवाद के विरुद्ध बताते हैं और उनका कहना है कि ऐसा करने वाला अनेकेश्वरवादी है। अलबत्ता यह भी इस कट्टरपंथी मत की वैचारिक पथभ्रष्टताओं में से एक है क्योंकि क़ुरआने मजीद की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के कथनों का तनिक भी ज्ञान रखने वाला हर समझदार व्यक्ति जानता है कि तवस्सुल न केवल यह कि एकेश्वरवाद से विरोधाभास नहीं रखता बल्कि यह अन्नय ईश्वर से निकट होने का माध्यम है और इसी कारण मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों से तवस्सुल करते हैं ताकि कृपाशील उनके महान स्थान के वास्ते से उन पर कृपा दृष्टि डाले और उनकी प्रार्थनाओं को स्वीकार करे।

हर मुसलमान जानता है कि ईश्वर अनन्य है और वही विश्व की सभी वस्तुओं का स्रोत और हर घटना का मूल आधार है। इसी प्रकार ब्रह्मांड की समस्त वस्तुएं केवल ईश्वर की इच्छा और अनुमति से ही प्रभाव स्वीकार करती हैं। क़ुरआने मजीद ने अपनी रोचक शैली में बड़े ही सुंदर ढंग से इस बात को बयान किया है। सूरए अनफ़ाल की सत्रहवीं आयत में वह पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता हैः याद कीजिए उस समय को जब आपने (युद्ध में) तीर चलाया , तो वस्तुतः आपने नहीं बल्कि ईश्वर ने तीर चलाया। इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम द्वारा तीर चलाए जाने का मुख्य कारक ईश्वर को बताया गया है। अर्थात तीर पैग़म्बर ने भी चलाया और ईश्वर ने। यह आयत सभी को यह बताना चाहती है कि हर कार्य का मुख्य कारक ईश्वर है और सभी बातें व घटनाएं उसी की इच्छा से होती हैं तथा इस आयत में पैग़म्बर उस कार्य अर्थात तीर चलाने का माध्यम हैं।

उदाहरण स्वरूप मनुष्य क़लम द्वारा कोई बात लिखे तो क़लम इस बात का माध्यम होता है कि मनुष्य उसके द्वारा लिखने का काम करे। अब प्रश्न यह है कि क्या लिखने के समय मनुष्य और क़लम दोनों का रुतबा और स्थान एक ही है ? खेद के साथ कहना पड़ता है कि वह्हाबी मत के लोग तवस्सुल के संबंध में भी शेफ़ाअत की ही भांति भ्रांति व पथभ्रष्टता का शिकार हो गए हैं और माध्यम व अनन्य ईश्वर को एक ही समझ बैठे हैं। इसी आधार पर उन्होंने मुसलमानों को काफ़िर एवं अनेकेश्वरवादी बताया है जबकि तवस्सुल , पैग़म्बरों को ईश्वर का समकक्ष बताने नहीं अपित पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम जैसे पवित्र लोगों को अनन्य ईश्वर के समक्ष अपनी प्रार्थनाओं की स्वीकृति के लिए माध्यम बनाने को कहते हैं।

ईश्वर का सामिप्य , बंदगी के मार्ग में मनुष्य के लिए सबसे उच्च एवं सम्मानीय दर्जा है। क़ुरआने मजीद ने सूरए माएदा की 35वीं आयत में स्पष्ट रूप से कहा है कि माध्यम व साधन के बिना ईश्वर का सामिप्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह कहता है। हे ईमान वालो! ईश्वर (के आदेश के विरोध) से डरो और (उससे सामिप्य के लिए) साधन जुटाओ तथा उसके मार्ग में जेहाद करते रहो कि शायद तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो जाए। इस आयत में , जिसके संबोधन के पात्र ईमान वाले हैं , मोक्ष व कल्याण के लिए तीन विशेष आदेश दिए गए हैं। ये तीन आदेश हैं , ईश्वर से भय , ईश्वर से सामिप्य के लिए साधन जुटाना और ईश्वर के मार्ग में जेहाद करना। अब प्रश्न यह है कि इस आयत में साधन से तात्पर्य क्या है ? इस आयत में साधन का अर्थ अत्यंत व्यापक है किंतु हर स्थिति में कोई वस्तु या व्यक्ति होना चाहिए जो प्रेम व उत्साह के साथ ईश्वर से सामिप्य का कारण बने। ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर पर ईमान , जेहाद तथा नमाज़ , ज़कात , रोज़ा व हज जैसी उपासनाएं तथा दान दक्षिणा व परिजनों से मेल-जोल जैसी बातें भी ईश्वर से सामिप्य का कारण हो सकती हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम , उनके उत्तराधिकारियों तथा ईश्वर के प्रिय बंदों से तवस्सुल भी इन्हीं उपासनाओं की भांति है और क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार वह भी ईश्वर से सामिप्य का कारण बनता है।

क़ुरआने मजीद की कुछ आयतों में कहा गया है कि पैग़म्बर भी ईश्वर के बंदों पर कृपा करते हैं। सूरए तौबा की 59वीं आयत में कहा गया है। और यदि जो कुछ ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने उन्हें प्रदान किया है उस पर वे प्रसन्न रहते और कहते कि ईश्वर हमारे लिए काफ़ी है , ईश्वर और उसके पैग़म्बर शीघ्र ही अपनी कृपा से हमें प्रदान करेंगे और हम ईश्वर की ओर से आशावान हैं (तो निश्चित रूप से यह उनके लिए बेहतर होता)। जब स्वयं क़ुरआन ने पैग़म्बर को प्रदान करने वाला बताया है तो फिर हम उनसे सहायता क्यों न चाहें और उनके उच्च स्थान को ईश्वर के समक्ष माध्यम क्यों न बनाएं ? यही कारण है कि दयालु व कृपालु ईश्वर सूरए निसा की 64वीं आयत में मुसलमानों को पैग़म्बरे इस्लाम से सिफ़ारिश करवाने और उन्हें माध्यम बनाने हेतु प्रोत्साहित करता है। इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहा गया हैः और जब उन्होंने अपने आप पर अत्याचार किया और ईश्वरीय आदेश की अवज्ञा की थी तो यदि वे आपके पास आते और ईश्वर से क्षमा याचना करते और पैग़म्बर भी उन्हें क्षमा करने की सिफ़ारिश करते तो निसंदेह वे ईश्वर को बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान पाते।

वह्हाबी मत के लोगों ने तवस्सुल का इन्कार करने के लिए क़ुरआने मजीद की कुछ आयतों को प्रमाण में प्रस्तुत किया है। उदाहरण स्वरूप वे सूरए फ़ातिर की 14वीं आयत को प्रस्तुत करते हैं जिसमें कहा गया हैः (हे पैग़म्बर!) यदि आप उन्हें पुकारें तो वे आपकी पुकार नहीं सुनेंगे और यदि वे सुनें भी तो आपकी बात स्वीकार नहीं करेंगे और प्रलय के दिन वे आपके समकक्ष ठहराने (और उपासना) का इन्कार कर देंगे। और (जानकार ईश्वर की) भांति कोई भी आपको (तथ्यों से) सूचित नहीं करता। सूरए फ़ातिर में मूर्तियों की पूजा करने वालों को संबोधित करती हुई कई आयतें हैं और यह आयत भी उन्हें मूर्तियों की पूजा से रोकती है क्योंकि मूर्तियां न तो अपनी उपासना करने वालों की प्रार्थनाएं सुन सकती हैं और यदि सुन भी सकतीं तो उन्हें पूरा करने का उनमें सामर्थ्य नहीं है और न ही संसार में उनका तनिक भी कोई स्वामित्व है किंतु कुछ अतिवादी वह्हाबियों ने तवस्सुल व शेफ़ाअत के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों से मुसलमानों के संपर्क को समाप्त करने के लिए इस आयत और इसी प्रकार की अन्य आयतों का सहारा लिया है और कहा है कि ईश्वर को छोड़ कर पैग़म्बरों सहित वे सभी लोग , जिन्हें तुम पकारते हो , तुम्हारी बात नहीं सुनते हैं और यदि सुन भी लें तो उसे पूरा नहीं कर सकते। या इसी प्रकार सूरै आराफ़ की आयत क्रमांक 197 में कहा गया हैः और जिन्हें तुम ईश्वर के स्थान पर पुकारते हो वे न तो तुम्हारी सहायता कर सकते हैं और न ही अपनी रक्षा कर सकते हैं। वह्हाबी इसी प्रकार की अन्य आयतें प्रस्तुत करके पैग़म्बरों और इमामों से हर प्रकार के तवस्सुल का इन्कार कर देते हैं और इसे एकेश्वरवाद के विपरीत बताते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि इन आयतों से पहले और बाद वाली आयतों पर एक साधारण सी दृष्टि डाल कर भी इस वास्तविकता को समझा जा सकता है कि इन आयतों का तात्पर्य मूर्तियां हैं क्योंकि इन सभी आयों में उन पत्थरों और लकड़ियों की बात की गई है जिन्हें ईश्वर का समकक्ष ठहराया गया था और उन्हें ईश्वर की शक्ति के मुक़ाबले में प्रस्तुत किया गया था।

कौन है जो यह न जानता हो कि पैग़म्बर और ईश्वर के प्रिय बंदे ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वाले उन लोगों की भांति हैं जिनके बारे में क़ुरआन स्पष्ट रूप से कहता है कि वे जीवित हैं। दूसरी ओर इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि इन पवित्र हस्तियों से तवस्सुल का अर्थ यह नहीं है कि हम इन्हें ईश्वर के मुक़ाबले में स्वाधीन शक्ति का स्वामी समझते हैं बल्कि लक्ष्य है कि उनके सम्मान और स्थान के माध्यम से ईश्वर से सहायता चाहें और ईश्वर की दृष्टि में उनकी जो महानता है उसके द्वारा ईश्वर से यह चाहें कि वह हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर ले और यह बात एकेश्वरवाद और ईश्वर की बंदगी से तनिक भी विरोधाभास नहीं रखती बल्कि यही एकेश्वरवाद है। इस आधार पर जैसा कि क़ुरआने मजीद ने सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 255 में सिफ़ारिश के संबंध में स्पष्ट रूप से कहा है कि कोई भी ईश्वर की अनुमति और आदेश के बिना सिफ़ारिश नहीं कर सकता , ठीक उसी प्रकार उनसे तवस्सुल भी इसी माध्यम से होता है और ईश्वर की अनुमति के बिना नहीं हो सकता। यही कारण है कि ईश्वर अपने पैग़म्बर के माध्यम से एक कथन में कहता है कि जान लो कि जिस किसी की कोई समस्या है और वह उसे दूर करना तथा कोई लाभ प्राप्त करना चाहता है या किसी अत्यंत जटिल व हानिकारक घटना में ग्रस्त हो गया है और चाहता है कि वह समाप्त हो जाए तो उसे चाहिए कि मुझे मुहम्मद व उनके पवित्र परिजनों के माध्यम से पुकारे ताकि मैं उसकी प्रार्थनाओं को उत्तम ढंग से स्वीकार करूं।

यही कारण है कि हम पैग़म्बरे इस्लाम के काल के वरिष्ठ मुसलमानों तथा अन्य धार्मिक नेताओं की जीवनी में देखते हैं कि वे समस्याओं के समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र पर जाते , उनसे तवस्सुल करते तथा उनकी पवित्र आत्मा के माध्यम से ईश्वर से सहायता चाहते थे। इस संबंध में बहुत सी हदीसें हैं जिन्हें शीया और सुन्नी दोनों की विश्वस्त किताबों में देखा जा सकता है। इब्ने हजरे मक्की ने अपनी किताब सवाएक़े मुहरिक़ा में प्रख्यात सुन्नी धर्मगुरू इमाम शाफ़ेई के हवाले से लिखा कि वे पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की प्रशंसा में कविजाएं लिख कर उनसे तवस्सुल करते थे और कहते थे कि पैग़म्बर के परिजन मेरे माध्यम हैं , वे ईश्वर से सामिप्य के लिए मेरा साधन हैं , मुझे आशा है कि प्रलय के दिन उन्हीं के कारण मेरा कर्मपत्र मेरे सीधे हाथ में दिया जाएगा और मुझे मोक्ष प्राप्त होगा।

तवस्सुल की एक अन्य घटना पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पत्नी हज़रत आएशा से संबंधित है। अबुल जोज़ा के हवाले से दारमी ने अपनी पुस्तक सहीह में लिखा कि एक वर्ष मदीना नगर में भारी अकाल पड़ा। हज़रत आएशा ने लोगों से कहा कि वे अकाल की समाप्ति के लिए पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल करें। उन्होंने ऐसा ही किया और फिर जम कर वर्ष हुई तथा अकाल समाप्त हो गया। सुन्नी मुसलमानों की सबसे विश्वस्त किताब सहीह बुख़ारी में वर्णित है कि दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने अकाल व सूखे के समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के चाचा अब्बास से तवस्सुल किया और कहा कि प्रभुवर! जब भी हम अकाल में ग्रस्त होते थे तो पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल किया करते थे और वर्षा होने लगती थी अब मैं तुझे उनके चाचा अब्बास का वास्ता देता हूं ताकि तू वर्षा को भेज दे। बुख़ारी ने लिखा है कि इसके बाद वर्षा होने लगी। सुन्नियों के एक बड़े धर्मगुरू आलूसी ने क़ुरआने मजीद की व्याख्या में लिखी गई अपनी किताब में तवस्सुल के संबंध में बड़ी संख्या में हदीसों का वर्णन किया है। वे इन हदीसों की लम्बी व्याख्या और तवस्सुल से संबंधित हदीसों के बारे में कड़ा रुख़ अपनाने के बाद अंत में कहते हैं कि इन सारी बातों के बावजूद मेरी दृष्टि में ईश्वर के निकट पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल में किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं है , चाहे उनके जीवन में हो अथवा मृत्यु के पश्चात। इसके बाद आलूसी ने यह भी लिखा है कि ईश्वर को पैग़म्बर के अतिरिक्त भी किसी अन्य का वास्ता देने में कोई रुकावट नहीं है किंतु उसकी शर्त यह है कि वह वास्तव में ईश्वर के निकट उच्च स्थान रखता हो।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 12

ज़ियारत व दर्शन का इस्लाम में विशेष स्थान है और वह मुसलमानों के निकट एक अच्छा कार्य है। मुसलमान शफ़ाअत अर्थात प्रलय के दिन सिफारिश/ तवस्सुल अर्थात सहारा व माध्यम और भले लोगों की क़ब्रों के सम्मान को ऐसी चीज़ मानते हैं जिसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर पर ईमान रखने वालों की क़ब्रों का दर्शन मुसलमानों के मध्य प्रचलित है यहां तक कि मुसलमान , महान धार्मिक हस्तियों की क़ब्रों पर ईश्वर से प्रार्थना व दुआ करते हैं। उदाहरण स्वरुप अतीत में हाजी लोग ओहद नामक युद्ध में शहीद होने वाले पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा और शहीदों के सरदार हज़रत हम्ज़ा की क़ब्र की मिट्टी से तस्बीह अर्थात माला बनाते थे। ६ठीं हिजरी क़मरी के महान शायर ख़ाक़ानी शेरवानी अपने एक शेर में वर्तमान इराक़ में स्थित मदायन नगर में पैग़म्बरे इस्लाम के महान साथी सलमान फारसी की समाधि का दर्शन करने वालों से सिफारिश करते हैं कि वे सलमान फार्सी की क़ब्र से तसबीह बनायें क्योंकि इन महान हस्तियों की पवित्र क़ब्र की मिट्टी आध्यात्मिक मूल्य व महत्व रखती है।

सलफी एवं वहाबी पंथ की बुनियाद रखने वाला इब्ने तय्मिया पैग़म्बरे इस्लाम की पावन समाधि के दर्शन को हराम और क़ब्र का दर्शन करने के इरादे से की जाने वाली यात्रा को भी हराम समझता है। वह मिनहाजुस्सुन्नत नामक अपनी पुस्तक में कोई तर्कसंगत कारण बयान किये बिना लिखता है " ”क़ब्रों का दर्शन करने के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम से जो हदीसें अर्थात कथन आये हैं वे सबके सब झूठे हैं और सबके सही होने का प्रमाण कमज़ोर है। इब्ने तय्मिया इसी प्रकार कहता है ” " पैग़म्बरे इस्लाम या उनके अतिरिक्त किसी और की क़ब्र के दर्शन का अर्थ ईश्वर के सिवा किसी और को बुलाना है तथा ईश्वरीय कार्यों में दूसरे को भी उसका सहभागी मानना है और यह कार्य हराम एवं अनेकेश्वरवाद है ” जबकि पैग़म्बरे इस्लाम और महान धार्मिक हस्तियों की क़ब्र का दर्शन ईश्वर के निकट उनके उच्च स्थान के कारण है न कि उसके कार्यों में किसी को उसका सहभागी बनाना है।

वहाबी पंथ की बुनियाद रखने वाले इब्ने तय्मिया और मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब शीया मुसलमानों पर आक्रमण करते और उन पर आरोप लगाते हैं कि शीया अपने इमामों की क़ब्रों एवं उनकी समाधियों के दर्शन को हज से भी बड़ा कार्य समझते हैं! मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब अपनी पुस्तक कश्फुश्शुबहात में उस सम्मान को , जो शीया मुसलमान पैग़म्बरों , इमामों और महान हस्तियों की क़ब्रों की करते हैं , बहाना बनाता है कि शीया मुसलमान ईश्वर का सहभागी मानते हैं और वह अनेकेश्रवाद पर विश्वास रखते हैं। वास्तव में इब्ने तय्मिया , मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब और उनके अनुयाइयों की एक सबसे बड़ी कमज़ोरी व समस्या यह है कि वे धर्म के बारे में अपने भ्रष्ठ विचारों को एकेश्वरवाद तथा दूसरों के अनेकेश्वरवाद का मापदंड मानते हैं। वे ईश्वरीय धर्म इस्लाम के बारे में अपने ग़लत निष्कर्ष को दूसरों के विश्वासों पर थोपते हैं जबकि पवित्र क़ुरआन , इस्लामी शिक्षाएं और विश्वस्त मुसलमान धर्मगुरू उनके विचारों से भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं। क़ब्रों के दर्शन के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं ” कि क़ब्रों को देखने जाओ कि वह तुम्हें परलोक की याद दिलाती है ” । इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर कहते हैं ” क़ब्रों को देखने जाओ क्योंकि उसमें तुम्हारे लिए सीख है।

मनुष्य क़ब्रों को देखकर अपनी अक्षमता को समझ जाता है और भौतिक शक्तियों के नष्ट होने को निकट से देखता है। समझदार मुसलमान क़ब्रों को देखकर समझ जाता है कि शीघ्र समाप्त हो जाने वाले जीवन को बेखबरी एवं निश्चेतना से बर्बाद नहीं करना चाहिये बल्कि थोडे से जीवन के समय का सदुपयोग करके परलोक के लिए कुछ करना चाहिये।

पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के रौज़ों में उपस्थिति एक प्रकार से लोगों के मार्गदर्शन के लिए उठाई गयी उनकी कठिनाइयों व त्यागों के प्रति आभार और उनके वचनों के पालन के प्रति दोबारा वचनबद्धता है। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की क़ब्रों का दर्शन करने वाला वास्तव में उनके साथ एक प्रकार की प्रतिज्ञा करता है कि वह उनके बताये गये मार्ग के अतिरिक्त जीवन में किसी अन्य मार्ग पर नहीं चलेगा।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि क़ब्रों को देखने जाना पैग़म्बरे इस्लाम का आचरण है। सुन्नी मुसलमानों की किताबों में लिखा हुआ है कि पैग़म्बरे इस्लाम अपनी माता हज़रत आमिना की क़ब्र पर जाकर रोया करते थे। इसी प्रकार अबु हुरैरा के हवाले से लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम अपनी माता की क़ब्र का दर्शन करते , वहां पर रोते और दूसरों भी रुलाते और कहते थे कि ” क़ब्रों को देखने जाओ क्योंकि क़ब्र देख कर मौत की याद आ जाती है। ” पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर कहते हैं ” " क़ब्रों का देखना सहानुभूति , आंखों से आंसू निकलने और परलोक की याद का कारण बनता है तो क़ब्रों को देखने जाओ"

पवित्र क़ुरआन के सूरये तकासुर में महान ईश्वर अनेकेश्वरवादियों के उस गुट की ओर संकेत करता है जो क़ब्रों को देखने तो गया परंतु सीख लेने के उद्देश्य से नहीं। सूरये तकासुर की पहली और दूसरी आयत में हम पढ़ते हैं जिसमें ईश्वर कहता है" धन एवं कुल की बहुतायत ने तुम लोगों को ईश्वर की याद से निश्चिंत बना रखा है यहां तक कि तुम लोगों ने अपने मरे हुए लोगों की क़ब्र को गिना"

” स्पष्ट है कि सर्वसमर्थ व महान ईश्वर क़ब्रों की गणना करके उस पर गर्व करने को बिल्कुल पसंद नहीं करता परंतु क़ब्रों को देखने से किसी प्रकार मना नहीं करता। सातंवी हिजरी क़मरी के प्रसिद्ध पवित्र क़ुर्आन के व्याख्याकर्ता मोहम्मद क़ुरतबी इन आयतों के संदर्भ में कहते हैं ” "क़ब्रों का देखना कठोर हृदयों के लिए सर्वोत्तम औषधि है क्योंकि क़ब्रों का देखना मौत और परलोक की याद का कारण है तथा मौत एवं परलोक की याद आकांक्षाओं के कम होने तथा दुनिया से विरक्तता और उसमें बाक़ी रहने की कामना छोड़े देने का कारण बनता है।

ईश्वरीय दूतों की पवित्र क़ब्रों के दर्शन के बारे में इब्ने तय्मिया की बातों से कुछ चीज़ें निष्कर्ष के रूप में निकलती हैं। पहली चीज़ यह है कि वह पैग़म्बरों व ईश्वरीय दूतों की क़ब्रों के दर्शन को हराम समझता है। इसी प्रकार वह कहता है कि जो व्यक्ति पैग़म्बरों और भले लोगों की क़ब्रों का दर्शन करने , वहां पर नमाज़ पढ़ने और दुआ करने के उद्देश्य से यात्रा करने का इरादा करे तो ऐसे व्यक्ति ने हराम कार्य करने का इरादा किया है और उसे चाहिये कि वह नमाज़ पूरी पढ़े। इब्ने तय्मिया इस प्रकार की यात्रा को पाप समझता है जबकि वह यात्रा हराम होती है जिसमें हराम कार्य किया जाये। उदाहरण स्वरूप शराब बेचने या लोगों के धन को लूटने के लिए की जाने वाली यात्रा हराम है। इस आधार पर इब्ने तय्मिया की बात के इस भाग में भी स्पष्ट किया गया है कि पैग़म्बरों और ईश्वरीय दूतों की क़ब्रों का दर्शन पाप व हराम है। उल्लेखनीय है कि इस प्रकार के विचार न केवल ग़लत एवं आधारहीन हैं बल्कि बहुत बुरे व शिष्टाचार से परे हैं। नवीं हिजरी क़मरी के सुन्नी मुसलमानों के वरिष्ठ मिस्री धर्मगुरू इब्ने हजर अस्क़लानी अपनी पुस्तक "फत्हुल बारी" में कहते हैं कि ” आश्चर्य उन लोगों से है जो इब्ने तय्मिया को निर्दोष व बरी दिखाने का प्रयास करते हैं और उक्त बातों को इब्ने तय्मिया पर आरोप मानते एवं कहते हैं" इब्ने तय्मिया ने केवल दर्शन के इरादे से की जाने वाली यात्रा को हराम कहा है न कि पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र का दर्शन बल्कि वह तो पैग़म्बरों की क़ब्रों के दर्शन को परंपरा व अच्छा कार्य मानता है। ” यहां प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार इब्ने तय्मिया पैग़म्बरों की क़ब्रों के दर्शन को परंपरा व अच्छा कार्य मानता है जबकि इन क़ब्रों के दर्शन के इरादे से की जाने वाली यात्रा को हराम व पाप मानता है ? क्या इस प्रकार की बात में विरोधाभास नहीं है ? क्या इब्ने तय्यिया द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम के उन कथनों को झुठलाना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह पैग़म्बरों की क़ब्रों के दर्शन पर विश्वास नहीं रखता है ? बहुत से सुन्नी विद्वानों एवं धर्मगुरूओं ने पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे पैग़म्बरों की क़ब्रों का दर्शन करने के संबंध में इब्ने तय्यिया के फतवों का रहस्योदघाटन किया है जिसमें उसने साफ- साफ कहा है कि पैग़म्बरों की क़ब्रों का दर्शन हराम है।

इब्ने तय्मिया अपने भ्रष्ठ विचारों को सही सिद्ध करने के लिए बहुत सी रवायतों व कथनों की अनदेखी करता और झूठ बोलता है। पैग़म्बरे इस्लाम की पवित्र क़ब्र के दर्शन के बारे में बहुत से कथन और इस्लामी शिक्षाएं मौजूद हैं। इब्ने अब्बास ने कहा है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है जो मेरे मरने के बाद मेरी क़ब्र का दर्शन करे वह उस व्यक्ति की भांति है जिसने मेरा दर्शन मेरे जीवन में किया और जो मेरे दर्शन के लिए आये और मेरी क़ब्र के किनारे पहुंच जाये तो मैं प्रलय के दिन उसके लिए गवाही दूंगा" ”

अब्दुल्लाह बिन उमर पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से कहता है" जो व्यक्ति हज करने के लिए आये और मेरे देहांत के बाद मेरी क़ब्र का दर्शन करे तो मानो जीवन में उसने मेरा दर्शन किया। अनस बन मालिक भी कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि जो ध्यान और मेरा दर्शन करने के इरादे से मदीना आये और मेरा दर्शन करे तो मैं प्रलय के दिन उसकी शिफाअत करूंगा और उसके हित में गवाही दूंगा। बहुत से सुन्नी धर्मगुरूओं ने यह सिद्ध करने के लिए इन कथनों का सहारा लिया है कि पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र का दर्शन परम्परा व अच्छा कार्य है। राफेई अपनी पुस्तक फत्हुल अज़ीज़ में कहते हैं जो व्यक्ति हज करने जाता है उसके लिए मुस्तहब व अच्छा यह है कि ज़मज़म का पानी पीये और उसके बाद हज के संस्कारों के निर्वाह के पश्चात पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र की ज़ियारत करे। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से एक कथन बयान किया गया है जिसमें आपने कहा है कि जो व्यक्ति मेरे मरने के बाद मेरे दर्शन के लिए आयेगा वह उस व्यक्ति की भांति है जिसने मेरे जीवन में मेरा दर्शन किया है और जो व्यक्ति मेरी क़ब्र का दर्शन करे उसका प्रतिदान स्वर्ग है। पैग़म्बरे इस्लाम की पवित्र क़ब्र की ज़ियारत करने के इरादे से यात्रा करना वह चीज़ है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के साथी और उनके साथियों को देखने वालों ने जीवन भर किया। पैग़म्बरे इस्लाम के एक प्रतिष्ठित साथी और उनके मुअज़्ज़िन अर्थात अज़ान देने वाले बेलाल बिन रेबाह हैं जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की पवित्र क़ब्र की ज़ियारत के लिए शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से पवित्र नगर मदीना की यात्रा की। इब्ने असाकिर कहते हैं" बेलाल ने पैग़म्बरे इस्लाम को स्वप्न में देखा कि उससे कह रहे हैं कि क्या अत्याचार है जो तुम मेरे साथ कर रहे हो ? क्या वह समय नहीं आया कि तुम मेरे दर्शन के लिए आओ ? बेलाल स्वप्न से उठ गये और वह क्षुब्ध व दुःखी थे तथा वह स्वयं से डर रहे थे। उसके पश्चात बेलाल घोड़े पर सवार हुए और शाम से पवित्र नगर मदीना के लिए रवाना हो गये। जब वह पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र के पास पहुंच गये तो क़ब्र के किनारे रोये और अपने चेहरे को पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र से मल रहे थे कि अचानक इमाम हसन और इमाम हुसैन वहां आ गये। बेलाल ने उन्हें अपनी गोद में उठा लिया और उन्हें चूमा। इमाम हसन और इमाम हुसैन ने उनसे कहा हम वैसी अज़ान सुनना चाहते हैं कि जैसी अज़ान हमारे नाना के काल में तुम भोर में दिया करते थे।

मित्रो उक्त प्रमाणों और प्रसिद्ध सुन्नी धर्मगुरूओं के कथनों के बयान के बाद यह किस तरह स्वीकार किया जा सकता है कि महान हस्तियों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम की पवित्र क़ब्र का दर्शन व सम्मान हराम है ? क्या इब्ने तय्मिया और मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब की ओर से उस चीज़ हो हराम बताना , जिसे ईश्वर ने हलाल व वैध कहा है , महापाप नहीं है ?

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 13

पैग़म्बरों , ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों पर मज़ार एवं मस्जिद का निर्माण वह कार्य है जिसके बारे में वहाबी कहते हैं कि यह चीज़ धर्म में नहीं है और इसके संबंध में वे अकारण ही संवेदनशीलता दिखाते हैं। यह बात सबसे पहले वहाबियत की बुनियाद रखने वाले इब्ने तैय्मिया और उसके पश्चात उसके शिष्य इब्ने क़य्यम जौज़ी ने कही। उन्होंने क़ब्रों के ऊपर इमारत निर्माण करने को हराम और उसके ध्वस्त करने को अनिवार्य होने का फतवा दिया। इब्ने क़ैय्यम अपनी किताब " “ज़ादुल माअद फी हुदा ख़ैरिल एबाद" ” में लिखता है क़ब्रों के ऊपर जिस इमारत का निर्माण किया गया है उसका ध्वस्त करना अनिवार्य है और इस कार्य में एक दिन भी विलंब नहीं किया जाना चाहिये। इस आधार पर मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब द्वारा भ्रष्ठ वहाबी पंथ की बुनियाद रखे जाने और सऊद परिवार द्वारा उसके समर्थन के बाद पवित्र स्थलों व स्थानों पर भारी पैमाने पर आक्रमण किये गये और वहाबियों ने महत्वपूर्ण इस्लामी स्थलों को ध्वस्त करना आरंभ कर दिया। वर्ष १३४४ हिजरी क़मरी अर्थात १९२६ में वहाबियों द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों और साथियों की क़ब्रों के ऊपर बने मज़ारों को ध्वस्त किये जाने को सबसे अधिक दुस्साहसी कार्य समझा जाता है जबकि वहाबी और उनके विद्वान आज तक अपने इस अमानवीय कृत्य का कोई तार्किक व धार्मिक कारण पेश नहीं कर सके हैं।

इस्लाम धर्म की निशानियों की सुरक्षा और उनका सम्मान महान ईश्वर की सिफारिश है। पवित्र क़ुरआन के सूरये हज की ३२वीं आयत में महान ईश्वर ने ईश्वरीय चिन्हों की सुरक्षा के लिए मुसलमानों का आह्वान किया है। इस संबंध में महान ईश्वर कहता है ” जो भी ईश्वर की निशानियों व चिन्हों को महत्व दे तो यह कार्य दिलों में ईश्वरीय भय होने का सूचक है ” जिस तरह से सफा , मरवा , मशअर , मिना और हज के समस्त संस्कारों को ईश्वरीय निशानियां बताया गया है उसी तरह पैग़म्बरों और महान हस्तियों की क़ब्रों का सम्मान भी ईश्वरीय धर्म इस्लाम के आदेशों का पालन है और यह कार्य महान ईश्वर से सामिप्य प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में है। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे पैग़म्बर व ईश्वरीय दूत ज़मीन पर महान व सर्वसमर्थ ईश्ववर की सबसे बड़ी निशानी थे और इन महान हस्तियों के प्रति आदरभाव एवं उनकी प्रतिष्ठा का एक तरीक़ा उनकी क़ब्रों की सुरक्षा है। दूसरी ओर पैग़म्बरों और महान हस्तियों की क़ब्रों की सुरक्षा एवं उसका सम्मान , इस्लाम धर्म के प्रति मुसलमानों के प्रेम , लगाव और इसी तरह इन महान हस्तियों द्वारा उठाये गये कष्टों के प्रति आभार व्यक्त करने का सूचक है। पवित्र क़ुरआन ने भी इस कार्य को अच्छा बताया है और समस्त मुसलमानों को आदेश दिया है कि वे न केवल पैग़म्बरे इस्लाम बल्कि उनके पवित्र परिजनों से भी प्रेम करें। पवित्र क़ुरआन के सूरये शूरा में महान ईश्वर कहता है" ” हे पैग़म्बर कह दो कि मैंने जो ईश्वरीय आदेश तुम लोगों तक पहुंचाया है उसके बदले में मैं अपने निकट संबंधियों से प्रेम करने के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता ” "

अब यहां पर पूछा जाना चाहिये कि क्या पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की रचनाओं , उनके जीवन स्थलों और उनकी क़ब्रों की सुरक्षा उनके प्रति सम्मान नहीं है ?

प्रिय श्रोताओ यहां यह जानना रोचक होगा कि पवित्र क़ुरआन में भी न केवल इन निशानियों की सुरक्षा की सिफारिश की गयी है बल्कि पवित्र क़ुरआन ने क़ब्रों के ऊपर इमारतों के निर्माण को वैध भी बताया है। इस बात को "असहाबे कहफ़" की एतिहासिक घटना में भी देखा जा सकता है। जब असहाबे कहफ तीन सौ वर्षों के बाद नींद से जागे और उसके कुछ समय के पश्चात वे मर गये तो दूसरे लोग आपस में बात कर रहे थे कि उनकी क़ब्र के ऊपर इमारत का निर्माण किया जाये या नहीं। उनमें से कुछ लोगों ने कहा कि इन लोगों के सम्मान के लिए उनकी कब्रों के ऊपर इमारत का निर्माण करना आवश्यक है जबकि कुछ दूसरे कह रहे थे कि उनकी क़ब्रों पर मस्जिद का निर्माण किया जाना चाहिये ताकि उनकी याद बाक़ी रहे। इस विषय का वर्णन पवित्र क़ुरआन के सूरये कहफ की २१वीं आयत में भी आया है जो इस बात का सूचक है कि ब्रह्मांड के रचयिता को भले लोगों की क़ब्रों के ऊपर इमारत के निर्माण से कोई विरोध नहीं है क्योंकि यदि यह विषय सही नहीं होता तो निश्चित रूप से इसका वर्णन पवित्र कुरआन में होता। जैसाकि महान ईश्वर ने ईसाईयों और यहूदियों सहित पिछली कुछ जातियों के व्यवहार को नकारा और उसे सही नहीं बताया है। उदाहरण स्वरूप

महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरये हदीद की २७वीं आयत में कहता ” है" जिस सन्यास को ईसाईयों ने उत्पन्न किया था हमने उसे अनिवार्य नहीं किया था यदि अनिवार्य किया था तो केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिए परंतु उन्होंने उसका वैसा निर्वाह नहीं किया जैसा निर्वाह करना चाहिये था" यदि ईश्वर महान हस्तियों एवं अपने दूतों की क़ब्रों पर इमारत या मस्जिद बनाये जाने का विरोधी होता तो निश्चित रूप से वह इस विषय का इंकार पवित्र क़ुरआन में करता और इसे अप्रिय कार्य घोषित करता।

अच्छे व भले लोगों की क़ब्रों पर इमारत या मज़ार का निर्माण प्राचीन समय से मुसलमानों से मध्य प्रचलित रहा है और उसके चिन्हों को समस्त इस्लामी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। शीया मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की क़ब्रों पर रौज़ों एवं ज़रीह अर्थात विशेष प्रकार की जाली का निर्माण किया। सुन्नी मुसलमानों ने भी शहीदों और अपनी सम्मानीय हस्तियों की क़ब्रों पर गुंम्बद का निर्माण करवाया तथा उनके दर्शन के लिए जाते हैं। सीरिया के दमिश्क नगर में जनाबे ज़ैनब सलामुल्लाह का पवित्र रौज़ा , मिस्र में वह रौज़ा जहां हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पावन सिर को दफ्न किया गया है , इराक के बग़दाद नगर में अबु हनीफा और अब्दुल क़ादिर गीलानी का मज़ार , समरकन्द में सुन्नी मुसलमानों की प्रसिद्ध पुस्तक ” सही बुखारी के लेखक मोहम्मद बिन इस्माईल का मज़ार और महान हस्तियों की समाधियों के ऊपर बहुत सारी मस्जिदें व इमारतें इसके कुछ नमूने हैं। महान हस्तियों और धार्मिक विद्वानों की समाधियों के पास पवित्र स्थलों एवं मस्जिदों

का निर्माण इस्लामी मूल्यों की सुरक्षा एवं उनके प्रति मुसलमानों के कटिबद्ध रहने का सूचक है। मुसलमान/ विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम , ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों के दर्शन को महान ईश्वर से सामिप्य प्राप्त करने का एक मार्ग समझते हैं और इस दिशा में वे प्रयास करते हैं। इस मध्य पथभ्रष्ठ और रूढ़िवादी विचार रखने वाला केवल वहाबी पंथ है जो दूसरे समस्त मुसलमानों से विरोध और इस्लामी क्षेत्रों में पवित्र स्थलों व स्थानों को ध्वस्त करने का प्रयास करता है। पैग़म्बरे इस्लाम के सुपुत्र हज़रत इब्राहीम की क़ब्र और उस मस्जिद को ध्वस्त कर देना , जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा हज़रत हमज़ा की क़ब्र पर बनाया गया है , वे कार्य हैं जो महान हस्तियों की क़ब्रों पर बनाई गयी इमारतों के प्रति वहाबियों की उपेक्षा और उनके अपमान व दुस्साहस के सूचक हैं। वहाबिया ने अपने इन कार्यों से करोड़ों मुसलमानों की आस्थाओं को आघात पहुंचाया है और अपने घृणित कार्यों के औचित्य में कमज़ोर रवायतों व कथनों का सहारा लेते और उनकी ओर संकते हैं। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के अनुयाईयों ने न केवल इन पवित्र स्थलों को ध्वस्त किया है बल्कि इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि जो लोग महान हस्तियों की क़ब्रों की ज़ियारत करते हैं और उनकी क़ब्रों पर इमारत का निर्माण करते हैं वे काफिर व अनेकेश्वरवादी हैं। अलबत्ता इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय से , जिसके पास कोई तर्कसम्मत प्रमाण नहीं है , इस प्रकार के कार्य व विश्वास अपेक्षा से परे नहीं हैं। इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के विश्वासों का बहुत सतही होना , रूढ़िवाद और पक्षपात इसकी स्पष्ट विशेषताओं में से हैं और इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के विचारों में बुद्धि , सोच विचार और तर्क का कोई स्थान नहीं है।

मुसलमानों के लिए पैग़म्बरों , ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों की सुरक्षा न केवल सम्मानीय है बल्कि मुसलमानों के लिए उन घरों व स्थानों की सुरक्षा और उनका सम्मान विशेष महत्व रखता है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरी महान हस्तियां रही हैं। महान ईश्वर ने भी पवित्र क़ुरआन में सबका आह्वान किया है कि उन स्थानों की सुरक्षा की जाये जिसमें उसका गुणगान किया गया हो और मुसलमान इन स्थानों का सम्मान करें। तो मस्जिदों और पैग़म्बरों के घरों की भांति पैग़म्बरे इस्लाम , हज़रत अली अलैहिस्सलाम , हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा और उनके निकट संबंधियों के मकान भी प्रतिष्ठित हैं क्योंकि ये वे घर हैं जहां ईश्वर के भले बंदों की उपासना एवं दुआ की आध्यात्मिक एवं मधुर ध्वनि गूंजी थी और ये वे स्थान हैं जहां फरिश्ते आवा-जाही करते थे। दूसरी ओर इन मूल्यवान धरोहरों की रक्षा से धर्म इस्लाम की विशुद्धता में वृद्धि होती है। यदि इन इमारतों और यादगार चीज़ों की अच्छी तरह देखभाव व सुरक्षा की जाये तो मुसलमान खुले मन बड़े गर्व से विश्व वासियों से कह सकते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए अनगिनत कठिनाइयां उठाई हैं। उन्होंने इसी साधारण और छोटे से घर में जीवन बिताया है , यही घर उनकी उपासना एवं दुआ का स्थल है परंतु बड़े खेद व दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इन मूल्यवान अवशेषों व धरोहरों को वहाबियों ने ध्वस्त करके उनकी प्रतिष्ठा को बर्बाद कर दिया। यह ऐसी स्थिति में है कि इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने से पहले मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे ईश्वरीय दूतों व महान हस्तियों की यादों की सुरक्षा के लिए बहुत प्रयास किया व कष्ट कष्ट किया था।

उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनी से संबंधित पुस्तक के अतिरिक्त अंगूठी , जूता , दातून , तलवार और कवच जैसी पैग़म्बरे इस्लाम की व्यक्तिगत वस्तुओं यहां तक कि उस कुएं को भी सुरक्षित रखा गया था जिसमें से पैग़म्बरे इस्लाम ने पानी पिया था परंतु खेद की बात है कि इनमें से कुछ ही चीज़ें बाक़ी हैं। वहाबियों द्वारा इस्लामी इतिहास की महत्वपूर्ण चीज़ों को नष्ट करना वास्तव में पुरातत्व अवशेषों को मिटाना है जबकि समस्त राष्ट्र और धर्म विभिन्न व प्राचीन मूल्यों को सुरक्षित रखे हुए हैं और उसे वे अपनी प्राचीन संस्कृति का भाग बताते हैं। वहाबी , सोचे बिना और केवल अपनी भ्रांतियों के आधार पर मूल्यवान इस्लामी मूल्यों व धरोहरों को नष्ट कर रहे हैं। यह ऐसी स्थिति में है जब अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के आधार पर इस प्रकार की मूल्यवान इमारतों को युद्ध की स्थिति में भी नष्ट करना वैध व सही नहीं है। यहां रोचक बिन्दु यह है कि जहां भ्रष्ठ वहाबी संप्रदाय ने पैग़म्बरे इस्लाम , उनके निकट संबंधियों , साथियों तथा दूसरी मूल्यवान वस्तुओं को नष्ट कर दिया है वहीं यह धर्मभ्रष्ठ संप्रदाय इस्लाम और मुसलमानों के शत्रुओं के ख़ैबर नाम के दुर्ग को पवित्र नगर मदीना के पास यह कह कर रक्षा कर रहा है कि यह एक एतिहासिक धरोहर है।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 14

प्रसिद्ध वहाबी लेखक हाफ़िज़ वहबा , वहाबियत के मूल विचारों व आस्थाओं के बारे में इस प्रकार लिखते हैं। बिदअत अर्थात धर्म में शामिल की जाने वाली नई बातों व पापों से संघर्ष विशेष कर उन बातों से संघर्ष जो अनेकेश्वरवाद की श्रेणी में आती हैं जैसे ईश्वर के प्रिय बंदों की ज़ियारत , तवस्सुल और उनसे संबंधित वस्तुओं से विभूति चाहना , उनकी क़ब्रों के निकट नमाज़ पढ़ना , क़ब्रों पर दिया जलाना या उन पर कुछ लिखना , ईश्वर के अतिरिक्त किसी की भी सौगंध खाना , या उससे बीमारी ठीक करने की आशा रखना या उससे शेफ़ाअत करने का अनुरोध करना यह सब शिर्क या अनेकेश्वरवाद है और इनसे संघर्ष किया जाना चाहिए। इब्ने तैमिया का भी कहना है कि किसी भी क़ब्र को , चाहे पैग़म्बरों की ही क्यों न हो चूमना या हाथ लगाना अनेकेश्वरवाद है किसी भी रूप में वैध नहीं है बल्कि यह एकेश्वरवाद के विपरीत है। इस प्रकार की बातें स्वयं ही बिदअत के अतिरिक्त कुछ नहीं क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल में उनके साथी उनसे तथा उनकी वस्तुओं से विभूति प्राप्त करने का प्रयास करते थे और वे भी उन्हें इस कार्य से नहीं रोकते थे। इसका प्रमाण सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े धर्मगुरुओं में से एक इमाम बुख़ारी का कथन है। वे कहते हैं कि उरवा इब्ने मसऊद पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों को देखते थे और कहते थे कि ईश्वर की सौगंध पैग़म्बर द्वारा वुज़ू किए जाने के समय जो पानी गिरता था उसे उनके साथ अपने हाथ में ले लेते थे और अपने चेहरे तथा शरीर पर मल लेते थे। जब भी पैग़म्बर वुज़ू करते तो उनके वुज़ू का पानी लेने के लिए उनके साथियों के बीच इस प्रकार मुक़ाबला होता था कि ऐसा प्रतीत होता था कि शीघ्र ही उनके बीच टकराव हो जाएगा।

जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम हज के अवसर पर अपने बालों को मूंडते थे तो उनके साथी उनके सभी बालों को एकत्रित कर लेते थे और उनसे विभूति प्राप्त करते थे। इसी प्रकार जब कभी वे किसी छागल के मुंहाने से पानी पीते थे तो उनके साथ उस छागल के मुंहाने को काट कर रख लेते थे ताकि उससे विभूति प्राप्त कर सकें। उनके कवच , लाठी , तलवार , बर्तन , मुहर , अंगूठी , बाल व कफ़न से विभूति प्राप्त करने संबंधी हदीसें सहीह बुख़ारी के जेहाद एवं पैग़म्बरे इस्लाम की विशेषताओं के अध्याय में वर्णित हैं। यदि ये बातें अनेकेश्वरवाद होतीं तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम , मुसलमानों को अवश्य ही इस कार्य से रोकते और इ संबंध में कड़ाई से काम लेते। जैसा कि जब उनके पुत्र की मृत्यु को चंद्रगृहण से जोड़ने का प्रयास किया गया तो उन्होंने बड़ी कड़ाई से इस ग़लत आस्था का विरोध किया किंतु हम सुन्नी मुसलमानों की किताबों में देखते हैं कि लोगों द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम और उनकी वस्तुओं से विभूति प्राप्त करने के प्रयास के बारे में अनेक हदीसे हैं जबकि पैग़म्बर द्वारा इसके विरोध के बारे में एक भी हदीस किसी भी विश्वस्त पुस्तक में नहीं मिलती।

वस्तुतः किसी व्यक्ति या उसकी वस्तु से विभूति प्राप्त करने के प्रयास का अर्थ यह होता है कि वह व्यक्ति ईश्वर के निकट ऊंचा दर्जा व सामिप्य रखता है किंतु इस स्थायी आस्था के साथ कि वह ईश्वर की अनुमति के बिना कोई भलाई नहीं पहुंचा सकता या किसी बुराई को दूर नहीं कर सकता। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बैठने के स्थान या मिम्बर तथा उनकी क़ब्र से विभूति की कामना , उनकी क़ब्र को छूना या चूमना , पैग़म्बर के निधन के बाद मुसलमानों में प्रचलित रहा और मदीना नगर के सबसे बड़े धर्मगुरूओं में शामिल सईद बिन मुसय्यब और यहया बिन सईद भी ऐसा किया करते थे। ईश्वर के प्रिय बंदों की क़ब्रों व अन्य वस्तुओं से विभूति प्राप्त करने की कामना इस कारण है कि हम इन वस्तुओं को उन प्रिय बंदों से संबंधित समझते हैं और हमारा मानना है कि उनकी प्रतिष्ठा एवं महानता के चलते उनकी वस्तुओं में भी प्रतिष्ठा के भाव पाए जाते हैं। जब हम क़ुरआने मजीद में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना पढ़ते हैं तो देखते हैं कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपनी ज्योति रहित आंखों को हज़रत यूसुफ़ के कुर्ते से मला और उनकी आंखें लौट आईं। यदि ईश्वर के प्रिय बंदों की वस्तुओं से विभूति की कामना , अनेकेश्वरवाद होती तो क्या क़ुरआने मजीद हज़रत याक़ूब के इस कार्य को ग़लत नहीं ठहराता ? पैग़म्बरों , इमामों और ईश्वर के प्रिय बंदों की वस्तुओं के विभूतिपूर्ण होने का एक ठोस प्रमाण है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र को छूने और चूमने को अनेकेश्वरवाद बताना भी वहाबियत के भ्रष्ट विचारों एवं बिदअतों में से एक है। सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े धर्मगुरुओं में से एक अहमद बिन हम्बल ने कहा है कि इस कार्य में कोई आपत्ति नहीं है। अलबत्ता चूंकि पैग़म्बरे इस्लाम के साथी स्वयं उनके संपर्क में रहते थे इस लिए वे प्रयास करते थे कि सीधे उनसे और उनसे संबंधित वस्तुओं से विभूति प्राप्त करें किंतु हम मुसलमान जो उनके जीवन से सीधे लाभान्वित नहीं हो सकते , उनकी क़ब्र के निकट जा कर , उसे छू कर तथा चूम कर उनसे विभूति प्राप्त कर सकते हैं और उनसे अपने गहरे प्रेम का प्रदर्शन कर सकते हैं।

स्थानों की अपने आपमें कोई प्रतिष्ठा नहीं होती और ईश्वर के प्रिय बंदों द्वारा नमाज़ पढ़ने , रोज़ा रखने और ईश्वर की उपासना करने के कारण कुछ स्थानों में ख़ास विशेषताएं पैदा हो जाती हैं। अपने अच्छे बंदों के भले कर्मों के कारण ईश्वर कुछ स्थानों को अपनी दया व कृपा का पात्र बनाता है , वहां फ़रिश्ते आते हैं और वहां शांति मिलती है। यह वही विभूति है जो ईश्वर उन स्थानों को प्रदान करता है। ईमान वाला व्यक्ति इन स्थानों पर उपस्थित होकर ईश्वर पर अधिक ध्यान केंद्रत करता है और प्रार्थना व तौबा द्वारा अपने हृदय के द्वार ईश्वरीय प्रकाश की प्राप्ति के लिए खोल देता है। मस्जिदुन्नबी में और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों की क़ब्रों के निकट उपस्थित हो कर हम उनके द्वारा सहन की गई कठिनाइयों और उनकी शुद्ध उपासनाओं को याद करते हैं और इस बात का प्रयास करते हैं कि स्वयं को उनके जैसा बनाएं और ईश्वर की शुद्ध रूप से उपसना के मार्ग पर चलें।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम अपनी मेराज की यात्रा में , जो मस्जिदुल अक़सा से आरंभ हुई , मदीना , तूरे सीना और बैत लहम में रुकें और वहां पर नमाज़ अदा की। ईश्वर के निकटवर्ती फ़रिश्ते हज़रत जिब्रईल ने उनसे कहा कि आपने मदीना नगन में नमाज़ पढ़ी क्योंकि वह आपके पलायन का स्थान है , तूरे सीना पर नमाज़ पढ़ी क्योंकि वहां ईश्वर ने हज़रत मूसा से बात की थी , बैत लहम में नमाज़ अदा की क्योंकि वहां हज़रत ईसा मसीह का जन्म हुआ था। इस आधा पर ईश्वर के पैग़म्बरों के जन्म अथव दफ़्न होने के स्थल पर नमाज़ पढ़ने में कोई अंतर नहीं है बल्कि लक्ष्य , उन प्रतिष्ठित लोगों से विभूति प्राप्त करना है जिनके पवित्र शरीर उस मिट्टी और उस स्थान से जुड़े रहे हैं चाहे उनकी आयु के आरंभ में या अंत में।

निश्चित रूप से ईश्वर के प्रिय बंदों यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र पर सजदा करना सही नहीं है क्योंकि सजदा मनुष्य की विनम्रता का चरम बिंदु है और यह भावना केवल ईश्वर के समक्ष ही स्वीकार्य है। तफ़सीरे क़ुरतुबी में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा। न तो क़ब्र की ओर नमाज़ पढ़ो और न ही उस पर बैठो। अर्थात क़ब्रों को क़िबला न बनाओ कि उनकी ओर मुख करके नमाज़ पढ़ो या उन पर सजदा करो। यहूदियों और ईसाइयों ने ऐसा ही किया और अंततः वे क़ब्र में दफ़्न व्यक्ति की उपासना करने लगे। किंतु पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र के निकट नमाज़ पढ़ने का अर्थ उनसे विभूति चाहना है। ईश्वर पवित्र क़ुरआन में हाजियों को आदेश देता है कि वे मक़ामे इब्राहीम को अपनी नमाज़ का स्थान बनाएं। सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 125 में कहा गया है। और मक़ामे इब्राहीम से अपने लिए उपासना स्थल का चयन करो। अन्य पैग़म्बरों की क़ब्रों के निकट नमाज़ पढ़ना , मक़ामे इब्राहीम के निकट नमाज़ अदा करने जैसा ही है। अंतर यह है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का शरीर एक या कई बार इस स्थान से लगा है जबकि उन क़ब्रों में पैग़म्बरों के पवित्र शरीर सदा के लिए आराम कर रहे हैं।

क़ुरआने मजीद , सूरए आले इमरान की सत्रहवीं आयत में ईश्वर के कुछ प्रिय बंदों का उल्लेख इस प्रकार करता हैः वे संयम रखने वाले , सच बोलने वाले , (ईश्वर के समक्ष) विनम्र , दान देने वाले , आज्ञापालन करने वाले और भोर समय प्रायश्चित करने वाले हैं। अब यदि कोई आधी रात को उठ कर नमाज़ के लिए खड़ा हो तथा गिड़गिड़ा कर ईश्वर से यह प्रार्थना करे कि प्रभुवर! मैं चाहता हूं कि तू भोर समय तुझ से क्षमा मांगने वालों के वास्ते मेरे पापों को क्षमा कर दे , तो क्या यह कार्य वैध है ? अबू नईम ने अपनी किताब हिलयतुल औलिया में अनस इब्ने मालिक का कथन लिखा है कि जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम की माता फ़ातेमा बिन्ते असद का निधन हुआ तो उनके लिए एक क़ब्र खोदी गई। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम स्वयं क़ब्र खोदने के लिए नीचे उतरे और उन्होंने अपने हाथों से क़ब्र की मिट्टी बाहर फेंकी। जब क़ब्र पूर्ण रूप से तैयार हो गई तो वे उसमें लेटे गए और फिर उन्होंने कहाः ईश्वर ही है जीवन व मृत्य देता है और वह स्वयं ऐसा जीवित है जिसके लिए मृत्यु की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रभुवर! मेरी माता फ़ातेमा बिन्ते असद को क्षमा कर , उन्हें उनके तर्क से अवगत करा और उनके स्थान को विस्तृत कर दे। तुझे तेरे पैग़म्बर और मुझसे पहले वाले पैग़म्बरों का वास्ता कि तू सबसे अधिक दयावान है।

कभी कहा जाता है कि चूंकि रचयिता पर रचना का कोई अधिकार नहीं होता अतः ईश्वर को रचना का वास्ता देना वैध नहीं है। इसका उत्तर यह है कि स्वयं कृपाशील ईश्वर ने अपने प्रिय बंदों के लिए स्वयं पर कुछ अधिकारों को स्वीकार किया है। कुरआने मजीद के सूरए रूम की सैंतालीसवीं आयत में हम पढ़ते हैं कि और ईमान वालों की सहायता करना हमारे ज़ि म्मे एक स्थायी अधिकार है। इसी प्रकार सूरए यूनुस की आयत संख्या 103 में कहा गया हैः इसी प्रकार हमारा अधिकार है कि हम ईमान वालों को मुक्ति दें। क़ुरआने मजीद की इन आयतों के अतिरिक्त कुछ हदीसें भी हैं जो रचयिता पर रचना के अधिकार की ओर संकेत करती हैं। प्रख्यात सुन्नी धर्मगुरू जलालुद्दीन सुयूती की पुस्तक जामेउस्सग़ीर में वर्णित है। ईश्वर के लिए आवश्यक है कि उस व्यक्ति की सहायता करे जो अपनी पवित्रता की रक्षा और ईश्वरीय वर्जनाओं से बचने के लिए विवाह करे। इसी प्रकार सुनन इब्ने माजा में लिखा हुआ है कि तीन गुटों की सहायता ईश्वर के ज़िम्मे है। वह मुजाहिद जो ईश्वर की राह में युद्ध करता है , वह दास जो पैसे देकर स्वयं को स्वतंत्र कराने का प्रयास करे और वह व्यक्ति जो अपनी नैतिक पवित्रता की रक्षा के लिए विवाह करे।

इन हदीसों और दुआओं में ईश्वर पर बंदों के अधिकार का तात्पर्य वह स्थान और दर्जा है जो ईश्वर उनके द्वारा उसके आज्ञापालन के कारण उन्हें प्रदान करता है और यह बंदों के अधिकार नहीं बल्कि ईश्वर की दया व कृपा के कारण है। अत्यंत स्पष्ट सी बात है कि किसी भी बंदे का चाहे वह शताब्दियों तक ईश्वर की उपासना करे , ईश्वर पर कोई अधिकार नहीं हो सकता क्योंकि बंदों को जो अनुंपाएं मिली हैं वे सबकी सब ईश्वर की ही दी हुई हैं। इस आधार पर जिस अधिकार का हम ईश्वर को वास्ता देते हैं वह , वह अधिकार है जिसे ईश्वर ने अपनी दया व कृपा से स्वयं के लिए स्वीकार किया है। दयावान ईश्वर सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 245 में कहता हैः कौन है जो ईश्वर को अच्छा ऋण दे ? जबकि सभी जानते हैं कि जो कुछ हमारे पास है वह ईश्वर का ही दिया हुआ है। इस प्रकार की बातें ईश्वर द्वारा अपने प्रिय बंदों पर दया व कृपा को दर्शाती हैं , यहां तक कि वह स्वयं को बंदों का ऋणी तक कहता है। वस्तुतः इस प्रकार ईश्वर लोगों को अपने आज्ञापालन के लिए प्रोत्साहित करना चाहता है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि कट्टरपंथी और संकीर्ण सोच वाले वहाबी धर्म में विभिन्न प्रकार की बिदअतें पैदा करके अधिकांश मुसलमानों को काफ़िर एवं अनेकश्वरवादी और केवल स्वयं को सच्चा धर्मावलम्बी समझते हैं जबकि इस्लाम के सच्चे धर्मगुरुओं ने अपने बीच गहरे मतभेदों के बावजूद कभी भी एक दूसरे को काफ़िर या पथभ्रष्ट नहीं कहा।