अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमामे सज्जाद (अ)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)
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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

बन के सज्जादे की ज़ीनत आये सज्जाद हज़ीं

चूमती है जिनके क़दमों को , इबादत की जबीं

दोस्त का क्या ज़िक्र है मूज़ी को यह कहना पड़ा

अनता ज़ैनुल आबेदीन , व अनता जै़नुल आबेदीन

(साबिर थरयानी , कराचीं)

मिसाले जद ख़ुद इमामे अवलिया

चूँ पदर मशहूर , दर सबरे रज़ा

दर इबादत ईं क़दर सर गर्म बूद

अन्ता ज़ैनुल आबेदीन आमद निदा

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद (स. अ.) के चोथे जां नशीन , हमारे चौथे इमाम और चाहरदा मासूमीन (अ.स.) की छटे मोहतरम फ़र्द हैं। आपके वालिदे माजिद शहीदे करबला हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) थे और वालेदा माजेदा जनाबे शाहे ज़नान उर्फ़ शहर बानो थीं। आप अपने आबाओ अजदाद की तरह इमामे मन्सूस , मासूम , आलमे ज़माना और अफ़ज़ले कायनात थे। उलेमा का बयान है कि आप इल्म , ज़ोहद , इबादत में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की जीती जागती तस्वीर थे।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 119 )

इमाम ज़हरी इब्ने अयनिया और इब्ने मुसय्यब का बयान है कि हम ने आपसे ज़्यादा किसी को अफ़ज़ले इबादत ग़ुज़ार और फ़क़ीह नहीं देखा।(नूरूल अबसार पृष्ठ 126 )

एक शख़्स ने सईद बिन मुसय्यब से किसी का ज़िक्र करते हुए कहा कि वह बड़ा मुत्तक़ी है। इब्ने मुसय्यब ने पूछा , तुम ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को देखा है ? उसने कहा नहीं। उन्होंने जवाब दिया ‘‘ मा रायता अहदन अवरा मिनहा ’’ मैंने उनसे ज़्यादा मुत्तक़ी और परहेज़गार किसी को नहीं देखा।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 267 )

इब्ने अबी शेबा का कहना है कि ‘‘ असहा इलासा नीद ’’ वह रवायत है जो ज़हरी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मन्सूब करे।(तबक़ात अल हफ़्फ़ाज़ ज़हबी अरजहुल मतालिब पृष्ठ 435 ) अल्लामा दमीरी फ़रमाते हैं कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) हदीस बयान करने में निहायत मोतमिद इलैहे और सादिक़ुल रवायत थे। आप बहुत बड़े आलिम और फ़िक़हे अहलेबैत में बे मिस्ल व बे नजी़र थे।(हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 121 तारीख़ इब्ने ख़ल्कान जिल्द 1 पृष्ठ 320 ) आप ऐसे पुर जलाल व जमाल थे कि जो भी आपको देखता था ताज़ीम करने पर मजबूर हो जाता था।(वसीलतुन नजात पृष्ठ 319 )

आपकी विलादत बा सआदत

आप बतारीख़ 15 जमादिउस सानी 38 हिजरी यौमे जुमा बक़ौले 15 जमादिल अव्वल 38 हिजरी यौमे पन्चशम्बा बा मक़ाम मदीनाए मुनव्वरा पैदा हुए।(आलामुल वुरा पृष्ठ 141 व मनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 131 )

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि जब जनाबे शहर बानो ईरान से मदीने के लिये रवाना हो रही थीं तो जनाबे रिसालत मआब (स. अ.) ने आलमे ख़्वाब में उनका अक़्द हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ में पढ़ दिया था।(जिलाउल उयून पृष्ठ 256 ) और जबा आप वारिदे मदीना हुईं तो हज़रत अली (अ.स.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) के सिपुर्द कर के फ़रमाया कि वह असमत परवर बीवी है कि जिसके बतन से तुम्हारे बाद अफ़ज़ले अवसिया और अफ़ज़ले कायनात होने वाला बच्चा पैदा होगा। चुनान्चे हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पैदा हुए लेकिन अफ़सोस यह है कि आप अपनी मां की आग़ोश में परवरिश पाने का लुत्फ़ उठा न सके। ‘‘ मातत फ़ी नफ़ासहा बेही ’’ आपके पैदा होते ही ‘‘ मुद्दते नेफ़ास ’’ में जनाबे शहर बानो की वफ़ात हो गई।(क़मक़ाम जलाल अल उयून , उयून अख़्बारे रज़ा , दमए साकेबा जिल्द 1 पृष्ठ 426 )

कामिल मुबरद में है कि जनाबे शहर बानो , मारूफ़तुल नसब और बेहतरीन औरतों में थीं।

शेख़ मुफी़द तहरीर फ़रमाते हैं कि जनाबे शहर बानो , बादशाहे ईरान यज़द जरद बिन शहरयार बिन शेरविया इब्ने परवेज़ बिन हरमज़ बिन नौशेरवाने आदिल ‘‘ किसरा ’’ की बेटी थीं।(इरशाद पृष्ठ 391 व फ़ज़लुल ख़त्ताब)

अल्लामा तरयिही तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने शहर बानो से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है तो उन्होंने कहा ‘‘ शाहे जहां ’’ हज़रत ने फ़रमाया नहीं अब ‘‘ शहर बानो ’’ है।(मजमउल बहरैन पृष्ठ 570 )

नाम , कुन्नियत , अल्क़ाब

आपका इस्मे गेरामी ‘‘ अली ’’ कुन्नियत ‘‘ अबू मोहम्मद ’’ ‘‘ अबुल हसन ’’ और ‘‘ अबुल क़ासिब ’’ था।

आपके अल्का़ब बेशुमार थे जिनमें ज़ैनुल आबेदीन , सय्यदुस साजेदीन , जुल शफ़नात , सज्जाद व आबिद ज़्यादा मशहूर हैं।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 261, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 176, नूरूल अबसार पृष्ठ 126, अल फ़रा अल नामी , नवाब सिद्दीक़ हसन पृष्ठ 158 )

लक़ब ज़ैनुल आबेदीन की तौज़ीह

अल्लामा शिब्लन्जी का बयान है कि इमाम मालिक का कहना है कि आपको ज़ैनुल आबेदीन कसरते इबादत की वजह से कहा जाता है। नूरूल अबसार पृष्ठ 126 उलेमाए फ़रीक़ैन का इरशाद है कि हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) एक शब नमाज़े तहज्जुद में मशग़ूल थे कि शैतान अज़दहे की शक्ल में आपके क़रीब आ गया और आपके पाए मुबारक के अंगूठे को मुंह में ले कर काटना शुरू किया , इमाम जो अमातन मशग़ूले इबादत थे और आपका रूजहाने कामिल बारगाहे ईज़दी की तरफ़ था। वह ज़रा भी उसके अमल से मुताअस्सिर न हुए और बदस्तूर नमाज़ में मुन्हमिक व मसरूफ़ व मशग़ूल रहे बिल आखि़र वह आजिज़ आ गया और इमाम ने अपनी नमाज़ भी तमाम कर ली। उसके बाद आपने शैतान मलऊन को तमाचा मार कर दूर हटा दिया। उस वक़्त हातिफ़े गै़बी ने अनतः ज़ैनुल आबेदीन की तीन बार आवाज़ दी और कहा बे शक तुम इबादत गुज़रों की जी़नत हो। उसी वक़्त से आपका यह लक़ब हो गया।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 262 शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 177 )

अल्लामा शहरे आशोब लिखते हैं कि इस अजदहे के दस सर थे और उसके दांत बहुत तेज़ और उसकी आंखें सुखऱ् थीं और वह मुसल्ले के क़रीब से ज़मीन फाड़ के निकला था।(मनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 108 )

एक रवायत में इसकी वजह यह भी बयान कि गई है कि क़यामत में आपको इसी नाम से पुकारा जायेगा।(दएम साकेबा पृष्ठ 426 )

लक़ब सज्जाद की तौजीह

ज़हबी ने तबक़ात उल हफ़ाज़ में इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के हवाले से लिखा है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को सज्जाद इस लिये कहा जाता है कि आप तक़रीबन हर कारे ख़ैर पर सजदा फ़रमाया करते थे। जब आप ख़ुदा की किसी नेमत का ज़िक्र करते थे तो सजदा करते। जब कलामे खुदा की आयते ‘‘ सजदा ’’ पढ़ते तो सजदा करते। जब दो शख़्सों में सुलह कराते तो सजदा करते इसी का नतीजा था आपके मवाज़े सुजूद पर ऊंट के घट्टों की तरह घट्टे पड़ जाते थे फिर उन्हें कटवाना पड़ता था। इसी लिये आपका लक़ब ‘‘ ज़ुल शफ़नास ’’ यानी घट्टे वाले भी था।(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 434 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की नसब बलन्दी

नसब और नस्ल बाप और मां की तरफ़ से देखे जाते हैं। इमाम (अ.स.) के वालिदे माजिद हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और दादा हज़रत अली (अ.स.) और दादी फ़ात्मातुज़ ज़हरा बिन्ते रसूले ख़ुदा (स. अ.) हैं और आपकी वालेदा जनाबे शहर बानो बिन्ते यज़द जर्द इब्ने शहरयार इब्ने किसरा हैं। आप पैग़म्बरे इस्लाम (स. अ.) के पोते और नौशेरवाने आदिल के नवासे हैं। यह वह बादशाह है जिसके अहद में पैदा होने पर सरवरे कायनात (स. अ.) ने इज़हारे मसर्रत फ़रमाया है। इस सिलसिलाए नसब के मुताअल्लिक़ अबुल असवद दवाएली ने अपने अशआर में उसकी वज़ाहत की है कि इस से बेहतर और सिलसिला नामुम्किन है। उसका एक शेर यह है वा अन ग़ुलामन , बैन क़िसरा व हाशिम

ला करम मन यनतत , अलैहे अल तमाएम

इस फ़रज़न्द से बलन्द नसब कोई और नहीं हो सकता जो नौशेरवाने आदिल और फ़ख़्रे कायनात हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) के दादा हाशिम की नसल से हो।(उसूले काफ़ी पृष्ठ 255 )

शेख़ सुलैमान कन्दूज़ी और दीगर उलेमाए इस्लाम लिखते हैं कि नौशेरवां आदिल की बरकत तो देखो कि उसी नस्ल को आले मोहम्मद (स. अ.) के नूर की हामिल क़रार दिया और आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) की एक अज़ीम फ़र्द को उस लड़की से पैदा किया जो नौशेरवां की तरफ़ मन्सूब है। फिर तहरीर करते हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) की तमाम बीवीयों में यह शरफ़ सिर्फ़ जनाबे शहर बानो को नसीब हुआ जो हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की वालेदा माजेदा हैं।(नियाबुल मोअद्दता पृष्ठ 315 व फ़स्ल अल ख़ताब पृष्ठ 261 )

अल्लामा अबीदुल्लाह बा हवाला इब्ने ख़लक़ान लिखते हैं कि जनाब शहर बानो शाहाने फ़ारस के आख़री बादशाह ‘‘ यज़द जर्द ’’ की बेटी थीं और आप ही से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पैदा हुए हैं। जिनको ‘‘ अल ख़ैरतैन ’’ कहा जाता है क्यों कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) फ़रमाया करते थे कि खुदा वन्दे आलम ने अपने बन्दों में से दो गिरोह अरब और अजम को बेहतरीन क़रार दिया है और मैंने अरब से क़ुरैश और आजम से फ़ारस को मुन्तख़ब कर लिया है चूंकि अरब और अजम का इज्तेमा इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) में है इसी लिये आपको इब्नल ख़ैरतैन से याद किया जाता है।(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 434 )

अल्लामा शहरे आशोब लिखते हैं कि जनाबे शहर बानों को ‘‘ सय्यदुन निसां ’’ कहा जाता है।(मनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 131 )

जनाबे शहर बानों की तशरीफ़ आवरी की बहस

कहा जाता है कि अहदे उमरी में फ़तेह मदाएन के मौक़े पर जनाबे शहर बानों लशकरे इस्लाम के हाथ लगी थीं और वहां से अपनी दीगर बहनों के साथ मदीने पहुँच कर हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ौजियत से मुशर्रफ़ हुईं।(रबीउल अबरार , ज़मख़्शरी) लेकिन मेरे नज़दीक यह बिल्कुल ग़लत है क्यों कि फ़तेह मदाएन सफ़र 16 , 17 हिजरी में हुई है जैसा कि तारीख़ अबुल फ़िदा , जिल्द 1 पृष्ठ 116 , तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 197 , मोअज़्ज़मुल बलदान जिल्द 7 पृष्ठ 413 व फ़तहुल आज़म पृष्ठ 160 , तारीख़े इब्ने ख़ल्दून जिल्द 2 पृष्ठ 100 में है और यज़द जर्द जनाबे शहर बानों का बाप था 14 हिजरी के शुरू में एनाने हुक्मरानीका मालिक हुआ। जैसा कि तारीख़े तबरी जिल्द 2 पृष्ठ 169 , तारीख़े कामिल जिल्द 1 पृष्ठ 178 व तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द अव्वल पृष्ठ 56 में है और तख़्त नशीनी के वक़्त उसकी उम्र 21 साल की थी। जैसा कि तारीख़े तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 81 तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 172 तारीख़ इब्ने ख़ल्दून जिल्द 2 पृष्ठ 91 , फ़तूहात इस्लामिया जिल्द 1 पृष्ठ 66 में है इस हिसाब से फ़तेह मदाइन के वक़्त उसकी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा 22 साल की हो सकती है। मेरी समझ में नहीं आता कि एक अजमी जो गरम मुल्क का बाशिन्दा न हो वह ग़रीबों की तरह इतनी थोड़ी उम्र में क्यों कर मुबाशेरत के का़बिल बन सकता है यानी यह मुम्किन है कि एक इतने कम सिन शख़्स से ऐसी लड़की पैदा हो सके जो 16 हिजरी में फ़तेह मदाईन के वक़्त शादी के क़ाबिल हो। इस लिये लामोहाला यह मानना पड़ेगा यज़द जर्द की शादी 18 , 19 साल की उम्र में हुई होगी। अब ऐसी सूरत में इसकी शादी 18 , 19 साल की उम्र में तसलीम की जाए और यह भी मान लिया जाए कि जनाबे शहर बानों उसकी पहली औलाद थीं मदाएन के वक़्त जनाबे शहर बानों की उम्र 5 , 6 साल से ज़्यादा नहीं हो सकती। इसके अलावा हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) जो 4 हिजरी में पैदा हुए हैं उनकी शादी कम सिनी में बाहालते नाबालीग़ फिर ऐसी सूरत में जब कि इमाम हसन (अ.स.) की शादी न हुई हो जो इमाम हुसैन (अ.स.) से बडे़ थे , 16 हिजरी में फ़तेह मदाएन के बाद हज़रत अली (अ.स.) क्यों कर सकते हैं।

मुवर्रिख़ शहरी शमसुल उलमा , शिबली नोमानी हज़रत उमर का हाल लिखते हुए तहरीर फ़रमाते हैं कि इस मौक़े पर हज़रत शहर बानो का क़िस्सा जो ग़लत तौर पर मशहूर हो गया है इसे ज़िक्र करना ज़रूरी है। आम तौर पर मशहूर है कि जब फ़ारस फ़तेह हुआ तो यज़द जर्द शहनशाहे फ़ारस की बेटियां गिरफ़्तार हो कर मदीने में आईं हज़रत उमर ने आम लौंड़ियों की तरह बाज़ार में उनके बेचने का हुक्म दिया लेकिन हज़रत अली (अ.स.) ने मना किया कि ख़ानदाने शाही के साथ ऐसा सुलूक जाइज़ नहीं। इन लड़कियों की की़मत का अन्दाज़ा कराया जाए। फिर यह लड़कियां किस के एहतिमाम और सुपुर्दगी में दी जायं और उससे उनकी की़मत आला से आला शरह पर लगवा ली जाए। चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने ख़ुद उनको अपने एहतिमाम में लिया और एक इमाम हुसैन (अ.स.) को एक मोहम्मद बिन अबू बक्र को एक अब्दुल्लाह बिन उमर को इनाएत की। इस ग़लत क़िस्से की हक़ीक़त यह है कि ज़ैहमख़शरी ने जिसको फ़ने तारीख़ से कुछ वास्ता नहीं रबीउल अबरार में इसको लिखा और इब्ने ख़ल्का़न कने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के हाल में यह रवायत उसके हवाले से नक़ल कर दी लेकिन यह महज़ ग़लत है। अव्वलन तो ज़ैहमख़शरी के सिवा तबरी इब्ने असीर , याकू़बी बिलाज़री इब्ने क़तीबा वग़ैरा किसी ने इस वाक़िया को नहीं लिखा और ज़हमख़शरी का फ़न तारीख़ी में जो पाया है वह ज़ाहिर है। इसके अलावा तारीख़ी क़रायन इसके बिल्कुल खि़लाफ़ हैं। हज़रत उमर के अहद में यज़दो जरद और ख़ानदाने शाही पर मुसलमानों को मुतलक़ क़ाबू हासिल नहीं हुआ। मदाएन के मारके में यज़दो जर्द मय तमाम अहलो अयाल के दारूल सलतनत से निकला और हवान पहुँचा। जब मुसलमान हवान पर चढ़े तो वह असफ़हान भाग गया और फिर करमान वग़ैरा से टकराता फिरा। मरू में पहुँच कर 30- 31 हिजरी में जो हज़रत उस्मान की खि़लाफ़त का ज़माना था मारा गया। मुझको शुब्हा है कि ज़ैमख़शरी को यह भी मालूम था या नहीं कि यज़दो जर्द का क़त्ल किस अहद में हुआ। इसके अलावा जिस वक़्त का यह वाक़ेया बयान किया जाता है उस वक़्त इमाम हुसैन (अ.स.) की उम्र 12 साल थी क्यों कि जनाबे मम्दुह हिजरत के पांचवे साल पैदा हुए और फ़ारस 17 हिजरी में फ़तह हुआ इस लिये यह उम्र भी किसी क़दर मुस्तबअद है कि हज़रत अली (अ.स.) ने उनके नागालगी़ में उन पर इस क़िस्म की इनायत की होगी इसके अलावा वह एक शहनशाह की अवलाद की क़ीमत निहायत गरां क़रार पाई होगी और हज़रत अली (अ.स.) निहायत ज़ाहिदाना और फ़क़ीराना ज़िन्दगी बसर करते थे। ग़रज़ कि किसी हैसीयत से इस वाक़िये की सेहत पे गुमान नहीं हो सकता।(अल फ़ारूक़ पृष्ठ 172 )

मैंने तवारीख़ से जो इस्तेमबात किया है वह यह है कि अहदे उसमानी में अहले फ़ारस ने बग़ावत कर के अबीद उल्ला बिन उमर ‘‘ वाली फ़ारस ’’ फ़ारस को मार डाला और हुदूदे फ़ारस से लश्कर भी निकाल दिया। इस वक़्त फ़ारस की लशकरी छावनी का मुक़ाम ‘‘ अस्तख़र ’’ था। ईरान का आख़री बादशाह ‘‘यज़द जर्द ’’ अहले फ़ारस के साथ था। हज़रत उस्मान ने अब्दुल्लाह बिन आमिर को हुक्म दिया बसरा और अम्मान में लशकर को मिला कर फ़ारस पर चढ़ाई कर दो। चुनान्चे ऐसा ही किया गया। हुदूदे अस्तख़र में ज़बरदस्त और घमासान की जंग हुई और मुसलमान कामयाब हुए। अस्तख़र फ़तेह होने के बाद 31 हिजरी में यज़द जर्द ‘‘ रै ’’ वहां से ख़ुरासान और फिर ख़ुरासान से मरोजा पहुँचा। उसके हमराह चार हज़ार जर्रार सिपाही भी थे। मरोजा में वह ख़ाकान चीन की साज़िशी इमदाद की वजह से मारा गया और शहान अजम के गोरिस्तान ‘‘ अस्तख़र ’’ में दफ़्न हुआ। इसके बाद अहदे उस्मानी बदल गया और हज़रत अली (अ.स.) शेरे ख़ुदा का ज़माना आ गया।

जंगे जमल के बाद ईरान ख़ुरासान के मक़ाम ‘‘ मरौ ’’ में सख़्त बग़ावत हुई। उस वक़्त ईरान में बरावायत इरशाद मुफ़ीद व रौज़ातुल पृष्ठ हरीस इब्ने वजअफ़ी गर्वनर थे। हज़रत अली (अ.स.) ने मरौ के क़ज़िया नामरज़िया को ख़त्म करने के लिये इमदादी तौर पर खुलीद इब्ने क़ुर्रा यरबोई को रवाना किया , वहां जंग हुई और लशकरे इस्लाम कामयाब हुआ। हरीस इब्ने जाबिर जाअफ़ी ने यज़द जर्द इब्ने शहरयार इब्ने क़िसरा जो अहदे उस्मानी में मारा जा चुका था कि दो बेटियो शहर बानों और गीहान बानों को आम असीरों के साथ हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में भेजा। शेरे ख़ुदा अली (अ.स.) ने शहर बानों को इमाम हुसैन (अ.स.) और गीहान बानों को मोहम्मद बिन अबी बक्र की ज़ौजियत में दे दिया। जैसा कि रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 9 प्रकाशित निवल किशोर , इरशादे मुफ़ीद जिल्द 2 पृष्ठ 292 , आलाम अल वरा पृष्ठ 101 , उम्दतुल तालिब पृष्ठ 171 , जामेउल तवारीख़ पृष्ठ 149 , कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 89 , मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 261 , सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 , नूरूल अबसार पृष्ठ 126 , तोहफ़ाए सुलैमानिया , शरए इरशाद पृष्ठ 391 में मौजूद है उस वक़्त इमाम हुसैन (अ.स.) की उम्र और जनाबे शहर बानों की उम्र काफ़ी हो चुकि थी और इमाम हसन (अ.स.) की शादी हुये अरसा गुज़र चुका था। हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त 35 हिजरी से 40 हिजरी तक रही। जनाबे शहर बानों से 38 हिजरी में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और गिहान बानों से क़ासिम बिन मोहम्मद पैदा हुए।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के बचपन का एक वाके़या

अल्लामा मजलिसी रक़मतराज़ है कि एक दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जब कि आपका बचपन था बीमार हुये। हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया , बेटा ! अब तुम्हारी तबीयत कैसी है और तुम कोई चीज़ चाहते हो तो बयान करो ताकि मैं तुम्हारी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उसे फ़राहम करने की कोशिश करूँ। आप ने अर्ज़ कि बाबा जान अब ख़ुदा के फ़ज़ल से अच्छा हूँ। मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ यह है कि ख़ुदा वन्दे आलम मेरा शुमार उन लोगों में करे जो परवरदिगारे आलम के क़ज़ा व क़दर के खि़लाफ़ कोई ख़्वाहिश नहीं रखते। यह सुन कर इमाम हुसैन (अ.स.) खु़श व मसरूर हो गये और फ़रमाने लगे बेटा तुम ने बड़ा मसर्रत अफ़ज़ा और मारेफ़त ख़ेज़ जवाब दिया है। तुम्हारा जवाब बिल्कुल हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के जवाब से मिलता जुलता है। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) को जब मिनजनीक़ में रख कर आग की तरफ़ फेंका गया था और आप फ़ज़ां में होते हुए आग की तरफ़ जा रहे थे तो हज़रत जिब्राईल (अ.स.) ने आप से पूछा था ‘‘ हल्लक हाजतः ’’ आपकी कोई हाजत व ख़्वाहिश है ? उस वक़्त उन्होंने जवाब दिया था , ‘‘ नाअम इमा इलैका फ़ला ’’ बेशक मुझे हाजत है लेकिन तुम से नहीं , अपने पालने वाले से है।(बेहारूल अनवार जिल्द 11 पृष्ठ 21 प्रकाशित ईरान)

आपके अहदे हयात के बादशाहाने वक़्त

आपकी विलादत बादशाहे दीनो ईमान हज़रत अली (अ.स.) के अहदे असमत में हुई। फिर इमाम हसन (अ.स.) का ज़माना रहा , फिर बनी उमय्या की ख़ालिस दुनियावी हुकूमत हो गई। सुलेह इमाम हसन (अ.स.) के बाद फिर 60 हिजरी तक माविया बिन अबी सुफ़ियान बादशाह रहा। उसके बाद उसका फ़ासिक़ व फ़ाजिर बेटा यज़ीद 64 हिजरी तक हुक्मरां रहा। 64 हिजरी में माविया बिन यज़ीद बिन माविया और मरवान बिन हकम हाकिम रहे। 64 हिजरी में वलीद बिन अब्दुल मलिक ने हुक्मरानी की और उसी ने 94 हिजरी में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को ज़हरे दग़ा से शहीद कर दिया।(तारीखे़ आइम्मा पृष्ठ 392 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 12 व नूरूल अबसार पृष्ठ 128 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का अहदे तफ़ूलियत और हज्जे बैतुल्लाह

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि इब्राहीम बिन अदहम का बयान है कि मैं एक मरतबा हज के लिये जाता हुआ क़ज़ाए हाजत की ख़ातिर क़ाफ़िले से पीछे रह गया। अभी थोड़ी ही देर गुज़री थी कि मैंने एक नौ उम्र लड़के को इस जंगल में सफ़रे पामा देखा। उसे देख कर फिर ऐसी हालत में कि वह पैदल चल रहा था और उसके साथ कोई सामान न था और न उसका कोई साथी था। मैं हैरान हो गया फ़ौरन उसकी खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ। ‘‘ साहब ज़ादे ’’ यह लक़ो दक़ सहरा और तुम बिल्कुल तने तन्हा , यह मामेला क्या है ज़रा मुझे बताओ ? तो सही कि तुम्हारा ज़ादे राह और तुम्हारा राहेला कहां है और तुम कहां जा रहे हो ? इस नौ ख़ेज़ ने जवाब दिया।

ज़ादी तक़वा व राहलती रजाली व क़सादी मौलाया

मेरा ज़ादे राह तक़वा और परहेज़गारी है मेरी सवारी मेरे दोनों पैर हैं और मेरा मक़सूद मेरा पालने वाला है और मैं हज के लिये जा रहा हूँ। मैंने कहा कि आप तो बिल्कुल कमसिन हैं , हज आप पर वाजिब नहीं है। उस नौ ख़ेज़ ने जवाब दिया। बेशक तुम्हारा कहना दुरूस्त है लेकिन ऐ शेख़ मैं देखता हूँ कि मुझसे छोटे छोटे बच्चे भी मर जाते हैं इस लिये हज को ज़रूरी समझता हूँ कि कहीं ऐसा न हो कि इस फ़रीज़े की अदाएगी से पहले मर जाऊँ। मैंने पूछा ऐ साहब ज़ादे तुम ने खाने का क्या इंतेज़ाम किया है देख रहा हूँ कि तुम्हारे साथ खाने का कोई इन्तेज़ाम नहीं है। उसने जवाब दिया। ऐ शेख़ जब तुम किसी के यहां मेहमान जाते हो तो खाना अपने हमराह ले जाते हो ? मैंने कहा नहीं। फिर उसने फ़रमाया सुनो , मैं तो ख़ुदा का मेहमान हो कर जा रहा हूँ खाने का इन्तेज़ाम उसके ज़िम्मे है। मैंने कहा इतने लम्बे सफ़र को पैदल क्यो कर तय करोगे। उसने जवाब दिया कि मेरा काम कोशिश करना है और ख़ुदा का काम मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाना है।

हम अभी बाहमी गुफ़्तुगू में ही मसरूफ़ थे कि नागाह एक ख़ूब सूरत जवान सफ़ैद लिबास पहने हुये आ पहुँचा और उसने इस नौ ख़ेज़ को गले से लगा लिया। यह देख कर मैंने उस जवाने राना से दरयाफ़्त किया यह नौ उम्र फ़रज़न्द कौन है ? उस नौजवान ने कहा कि यह हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बिन इमाम हुसैन (अ.स.) बिन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) हैं। यह सुन कर मैं उस जवाने राना के पास से इमाम की खि़दमत में हाज़िर हुआ और माज़ेरत ख़्वाही के बाद उनसे पूछा कि यह खूब सूरत जवान जिन्होंने आपको गले से लगाया यह कौन हैं ? उन्होंने फ़रमाया यह हज़रते खि़ज्र नबी (अ.स.) हैं। उनका फ़र्ज़ है कि रोज़ाना हमारी ज़्यारत के लिये आया करें। उसके बाद मैंने फिर सवाल किया और कहा कि आखि़र आप इस अज़ीम और तवील सफ़र को बिला ज़ाद और राहेला क्यों कर तय करेंगे। तो आपने फ़रमाया कि मैं ज़ाद और राहेला सब कुछ रखता हूँ और वह यह चार चीज़े हैं। 1. दुनिया अपनी तमाम मौजूदात समेत खुदा की ममलेकत है। 2. सारी मख़्लूक़ अल्लाह के बन्दे हैं। 3. असबाब और अरज़ाक़ ख़ुदा के हाथ में हैं। 4. क़ज़ाए खुदा हर ज़मीन में नाफ़िज़ है। यह सुन कर मैंने कहा ख़ुदा की क़सम आप ही का ज़ाद व राहेला सही तौर पर मुक़द्दस हस्तियों का सामाने सफ़र है।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 437 )

उलेमा का बयान है कि आपने सारी उम्र में 25 (पच्चीस) हज पा पियादा किये हैं। आपने सवारी पर जब भी सफ़र किया है अपने जानवर को एक कोड़ा भी नहीं मारा।

आपका हुलिया ए मुबारक

इमाम शिब्लंजी लिखते हैं कि आपका रंग गन्दुम गूँ (सांवला) और क़द मियाना था। आप दुबले पतले क़िस्म के इंसान थे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 126 व अख़बारूल अव्वल पृष्ठ 109 )

मुल्ला मुबीन तहरीर फ़रमाते हैं कि आप हुसनो जमाल , सूरतो कमाल में निहायत ही मुम्ताज़ थे। आपके चेहरे मुबारक पर जब किसी की नज़र पड़ती थी तो वह आपका एहतेराम करने और आपकी ताज़ीम करने पर मजबूर हो जाता था।(वसीलतुन नजात पृष्ठ 219 )

मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई रक़मतराज़ हैं कि आप साफ़ कपड़े पहनते थे और जब रास्ता चलते थे तो निहायत ख़ुशू के साथ राह रवी में आपके हाथ ज़ानू से बाहर नहीं जाते थे।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 226 व पृष्ठ 264 )

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की शाने इबादत

जिस तरह आपकी इबादत गुज़ारी में पैरवी ना मुम्किन है इसी तरह आपकी शाने इबादत की रक़मतराजी़ भी दुश्वार है। एक वह हस्ती जिसका मक़सद माबूद की इबादत और ख़ालिक की मारेफ़त हो और जो अपनी हयात का मक़सद इताअते ख़ुदा वन्दी ही को समझता हो और इल्मो मारेफ़त में हद दरजा कमाल रखता हो उसकी शाने इबादत को सतेह क़िरतास (क़लम से नहीं लिखा जा सकता) पर क्यों कर लाया जा सकता है और ज़बाने क़लम इसकी तरजुमानी में किस तरह कामयाबी हासिल कर सकती है। यही वजह है कि उलेमा की बे इन्तेहा काहिशो काविश के बा वजूद आपकी शाने इबादत का मुज़ाहेरा नहीं हो सका। ‘‘ क़द बलिग़ मिनल इबादतः मअलम बलीग़ः अहादो ’’ आप इबादत की उस मंज़िल पर फ़ायज़ थे जिस पर कोई भी फ़ायज़ नहीं हुआ।(दमए साकेबा पृष्ठ 439 )

इस लिससिले में अरबाबे इल्म और साहेबाने क़लम जो कुछ कह और लिख सके हैं उनमें से बाज़ वाके़यात व हालात यह हैं।

आपकी हालत वज़ू के वक़्त

वज़ू नमाज़ के लिये मुक़द्दमे की हैसियत रखता है और इसी पर नमाज़ का दारो मदार होता है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जिस वक़्त वज़ू का इरादा फ़रमाते थे आपके रगो पै में ख़ौफ़े ख़ुदा के असरात नुमायां हो जाते थे। अल्लामा मोहम्मद तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि जब आप वज़ू का क़ज़्द फ़रमाते थे और वज़ू के लिये बैठते थे तो आपके चेहरे मुबारक का रंग ज़र्द हो जाया करता था। यह हालत बार बार देखने के बाद उनके घर वालों ने पूछा कि वज़ू के वक़्त आपके चेहरे का रंग ज़र्द क्यों पड़ जाता है तो आपने फ़रमाया कि उस वक़्त मेरा तसव्वुरे कामिल अपने ख़ालिक़ व माबूद की तरफ़ होता है। इस लिये उसकी जलालत के रोब से मेरा यह हाल हो जाया करता है।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 262 )

आलमे नमाज़ में आपकी हालत

अल्लामा तबरेसी लिखते हैं कि आपको इबादत गुज़ारी में इम्तियाज़े कामिज हासिल था। रात भर जागने की वजह से आपका सारा बदन ज़र्द रहा करता था और ख़ौफ़े ख़ुदा में रोते रोते आपकी आंखें फूल जाया करती थीं और नमाज़ में ख़ड़े ख़ड़े आपके पांव सूज जाया करते थे।(आलाम अल वरा पृष्ठ 153 ) और पेशानी पर घट्टे रहा करते थे और आपकी नाक का सिरा ज़ख़्मी रहा करता था।(दमए साकेबा पृष्ठ 439 )

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि जब आप नमाज़ के लिये मुसल्ले पर खड़े हुआ करते थे तो लरज़ा बर अन्दाम हो जाया करते थे। लोगों ने बदन में कपकपी और जिस्म में थरथरी का सबब पूछा तो इरशाद फ़रमाया कि मैं उस वक़्त ख़ुदा की बारगाह में होता हूँ और उसकी जलालत मुझ़े अज़ खुद रफ़ता कर देती और मुझ पर ऐसी हालत तारी कर देती है।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 226 )

एक मरतबा आपके घर में आग लग गई और आप नमाज़ में मशगू़ल थे। अहले महल्ला और घर वालों ने बे हद शोर मचाया और हज़रत को पुकारा ‘‘ हुज़ूर आग लगी हुई है ’’ मगर आपने सरे नियाज़ सजदे बे नियाज़ से न उठाया। आग बुझा दी गई। नमाज़ ख़त्म होने पर लोगों ने आप से पूछा कि हुज़ूर आग का मामेला था , हम ने इतना शोर मचाया लेकिन आपने कोई तवज्जो न फ़रमाई। आपने इरशाद फ़रमाया ‘‘ हाँ ’’ मगर जहन्नम की आग के डर से नमाज़ तोड़ कर उस आग की तरफ़ मुतवज्जे न हो सका।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 177 )

अल्लामा शेख़ सब्बान मालकी लिखते हैं कि जब आप वज़ू के लिये बैठते थे तब की से कांपने लगते थे और जब तेज़ हवा चलती थी तो आप ख़ौफ़े ख़ुदा से लाग़र हो जाने की वजह से गिर कर बेहोश हो जाया करते थे।(असआफ़ अल राग़ेबीन बर हाशिया ए नुरूल अबसार पृष्ठ 200 )

इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि हज़रत इमाम जै़नुल आबेदीन (अ.स.) नमाज़े शब सफ़र व हज़र दोनों में पढ़ा करते थे और कभी उसे क़ज़ा नहीं होने देते थे।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 263 )

अल्लामा मोहम्मद बाक़र बेहारूल अनवार के हवाले से तहरीर फ़रमाते हैं कि इमाम जै़नुल आबेदीन (अ.स.) एक दिन नमाज़ में मसरूफ़ व मशग़ूल थे कि इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) कुएं में गिर पड़े। बच्चे के गेहरे कुएं में गिरने से उनकी मां बेचैन हो कर रोने लगीं और कुएं के गिर्द पीट पीट कर चक्कर लगाने लगीं और कहने लगीं इब्ने रसूल (अ.स.) मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ग़र्क़ हो गये हैं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने बच्चे के कुएं में गिरने की कोई परवाह न की और इतमीनान से नमाज़ तमाम फ़रमाई। उसके बाद आप कुएं के क़रीब आए और पानी की तरफ़ देखा फिर हाथ बढ़ा कर बिला रस्सी के गहरे कुएं से बच्चे को निकाल लिया। बच्चा हंसता हुआ बरामद हुआ। कु़दरते ख़ुदा वन्दी देखिये उस वक़्त न बच्चे के कपड़े भीगे थे और न बदन तर था।(दमए साकेबा पृष्ठ 430, मनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 109 )

इमाम शिब्लन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि ताऊस रावी का बयान है कि मैंने एक शब हजरे असवद के क़रीब जा कर देखा कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बारगाहे ख़ालिक़ में मुसलसल सजदा रेज़ी कर रहे हैं। मैं उसी जगह ख़डा़ हो गया। मैंने देखा कि आपने एक सजदे को बे हद तूल दे दिया है , यह देख कर मैंने कान लगाया तो सुना कि आप सजदे में फ़रमा रहे हैं , ‘‘ अब्देका बे फ़सनाएक मिसकीनेका बेफ़ासनाएक़ साएलेका बेफ़नाएक फ़क़ीरेका बेफ़नाएक ’’ यह सुन कर मैंने भी इन्ही कलेमात के ज़रिए ये दुआ माँगनी शुरू कर दी , फ़वा अल्लाह। ख़ुदा की क़सम मैंने जब भी उन कलामात के ज़रिये से दुआ मांगी फ़ौरन क़ुबूल हुई।(नूरूल अबसार पृष्ठ 126 प्रकाशित मिस्र इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 296 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की शबाना रोज़ एक हज़ार रकअतें

उलेमा का बयान है कि आप शबो रोज़ में एक हज़ार रकअतें अदा फ़रमाया करते थे।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 119 मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 267 ) चूंकि आपके सजदों का कोई शुमार न था इसी लिये आपके आज़ाए सुजूद ‘‘ सफ़ना बईर ’’ ऊँट के घट्टे की तरह हो जाया करते थे और साल में कई मरतबा काटे जाते थे।(अल फ़रआ अल नामी पृष्ठ 158 व दमए साकेबा , कशफ़ल ग़म पृष्ठ 90 )

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि आपके मक़ामाते सुजूद के घट्टे साल में दो बार काटे जाते थे हर मरतबा पांच तह निकलती थीं।(बेहारूल अनवार जिल्द 2 पृष्ठ 3 )

अल्लामा दमीरी मुवर्रिख़ इब्ने असाकर के हवाले से लिखते हैं कि दमिशक़ में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के नाम से मौसूम एक मस्जिद है जिसे ‘‘ जामेए दमिशक़ ’’ कहते हैं।(हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 121 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मन्सबे इमामत पर फ़ाएज़ होने से पहले

अगरचे हमारा अक़ीदा यह है कि इमाम बतने मादर से इमामत की तमाम सलाहियतों से भर पूर आता है। ताहम फ़राएज़ की अदाएगी की ज़िम्मेदारी इसी वक़्त होती है जब वह इमामे ज़माना की हैसियत से काम शुरू करें , यानी ऐसा वक़्त आजाए जब काएनाती अरज़ी पर कोई भी उस से अफ़ज़ल व इल्म में बरतर व अकमल न हो। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अगरचे वक़्ते विलादत ही से इमाम थे लेकिन फ़राएज़ की अदाएगी की ज़िम्मेदारी आप पर उस वक़्त आएद हुई जब आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) दर्जए शहादत पर फ़ाएज़ हो कर हयाते ज़ाहेरी से महरूम हो गए।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की विलादत 38 हिजरी में हुई जब कि हज़रत अली (अ.स.) इमामे ज़माना थे। दो साल उनकी ज़ाहिरी ज़िन्दगी में आपने हालते तफ़ूलियत में अय्यामे हयात गुज़ारे फिर 50 हिजरी तक इमामे हसन (अ.स.) का ज़माना रहा फिर आशुरा 61 हिजरी तक इमाम हुसैन (अ.स.) फ़राएज़े इमामत की अंजाम देही फ़रमाते रहे। आशूर की दो पहर के बाद सारी ज़िम्मेदारी आप पर आएद हो गईं। इस अज़ीम ज़िम्मेदारी से क़ब्ल के वाक़ेयात का पता सराहत के साथ नहीं मिलता अलबत्ता आपकी इबादत गुज़ारी और आपके इख़्लाक़ी कार नामे बाज़ किताबों में मिलते हैं बहर सूरत हज़रत अली (अ.स.) के आख़री अय्यामे हयात के वाक़ेयात और इमाम हसन (अ.स.) के हालात से मुताअस्सिर होता एक लाज़मी अमर है। फिर इमाम हसन (अ.स.) के साथ तो 22- 23 साल गुज़ारे थे यक़ीनन इमाम हसन (अ.स.) के जुमला मामलात में आप ने बड़े बेटे की हैसियत से साथ दिया ही होगा लेकिन मक़सदे हुसैन (अ.स.) के फ़रोग़ देने में आपने अपने अहदे इमामत के आगा़ज़ होने पर इन्तेहाई कमाल कर दिया।

वाक़ेए करबला के सिलसिले में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का शानदार किरदार

28 रज़ब 60 हिजरी को आप हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के हमराह मदीने से रवाना हो कर मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचे चार माह क़याम के बाद वहां से रवाना हो कर 2 मोहर्रमुल हराम को वारिदे करबला हुए। वहां पहुँचते ही या पहुँचने से पहले आप अलील हो गए और आपकी अलालत ने इतनी शिद्दत एख़तियार की आप इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के वक़्त इस क़ाबिल न हो सके कि मैदान में जा कर दर्जए शहादत हासिल करते। ताहम हर अहम मौक़े पर आपने जज़बाते नुसरत को बरूए कार लाने की सई की। जब कोई आवाज़े इस्तेग़ासा कान में आई आप उठ बैठे और मैदाने में कारज़ार में शिद्दते मर्ज़ के बावजूद जा पहुचने की सईए बलीग़ की। इमाम हुसैन (अ.स.) के इस्तेग़ासा पर तो आप ख़ेमे से बाहर निकल आए एक चोबा ए खे़मा ले कर मैदान का अजम कर दिया नागाह इमाम हुसैन (अ.स.) की नज़र आप पर पड़ गई और उन्होंने जंगाह से बक़ौले हज़रते ज़ैनब (स. अ.) को आवाज़ दी ‘‘ बहन सय्यदे सज्जाद को रोको वरना नस्ले मोहम्मद (स. अ.) का ख़ातमा हो जाएगा ’’ हुक्मे इमाम से ज़ैनब (स. अ.) ने सय्यदे सज्जाद (अ.स.) को मैदान में जाने से रोक लिया। यही वजह है कि सय्यदों का वजूद नज़र आ रहा है। अगर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अलील हो कर शहीद होने से न बच जाते तो नस्ले रसूल (स. अ.) सिर्फ़ इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) में महदूद रह जाती। इमाम सालबी लिखते हैं कि मर्ज़ और अलालत की वजह से आप दर्जए शहादत पर फ़ाएज़ न हो सके।(नूरूल अबसार पृष्ठ 126 )

शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) के बाद जब खेमों में आग लगाई तो आप उन्हीं ख़ेमों में से एक ख़ेमे में बदस्तूर पड़े हुए थे। हमारी हज़ार जानें क़ुर्बान हो जायें हज़रत ज़ैनब बिन्ते अली (अ.स.) पर कि उन्होंने अहद फ़राएज़ की अदाएगी के सिलसिले में सब से पहला फ़रीज़ा इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के तहफ़्फ़ुज़ का अदा फ़रमाया और इमाम को बचा लिया। अलग़रज़ रात गुज़री और सुबह नमूदार हुई , दुश्मनों ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को इस तरह झिंझोड़ा कि आप अपनी बिमारी भूल गये। आपसे कहा गया कि नाक़ों पर सब को सवार करो और इब्ने ज़्याद के दरबार में चलो। सब को सवार करने के बाद आले मोहम्मद (अ.स.) का सारेबान फूफियों , बहनों और तमाम मुख़द्देरात को लिये दाखि़ले दरबार हुआ। हालत यह थी कि औरतें और बच्चे रस्सीयों में बंधे हुए और इमाम लोहे में जकड़े हुए दरबार में पहुँच गये। आप चूंकि नाक़े की बरैहना पुश्त पर संभल न सकते थे इस लिये आपके पैरों को नाक़े की पुश्त से बांध दिया गया था। दरबारे कूफ़ा में दाखि़ल होने के बाद आप और मुख़द्देराते अस्मत क़ैद ख़ाने में बन्द कर दिये गये। सात रोज़ के बाद आप सब को लिये हुए शाम की तरफ़ रवाना हुए और 19 मंज़िले तय कर के तक़रीबन 36 यौम (दिनों) में वहां पहुँचे।

कामिल बहाई में है कि 16 रबीउल अव्वल 61 हिजरी को आप दमिश्क़ पहुँचे हैं। अल्लाह रे सब्रे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बहनों और फुफियों का साथ और लबे शिकवा पर सकूत की मोहर हुदूदे शाम का एक वाक़ेया यह है आपके हाथों में हथकड़ी , पैरों में बेड़ी और गले मे ख़ारदार तौक़े आहनी पड़ा हुआ था , इस पर मुस्तज़ाद यह कि लोग आप पर आग बरसा रहे थे। इसी लिये आपने बाद वाक़ेय करबला एक सवाल के जवाब में ‘‘ अश्शाम , अश्शाम , अश्शाम ’’ फ़रमाया था।(तहफ़्फ़ुज़े हुसैनिया अल्लामा बसतामी)

शाम पहुँचने के कई घन्टों या दिनों के बाद आप आले मोहम्मद (अ.स.) को लिये हुए सरहाय शोहदा समेत दाखि़ले दरबार हुए फिर क़ैद ख़ाने में बन्द कर दिये गये। तक़रीबन एक साल क़ैद की मशक़्क़तें झेलीं। क़ैद खा़ना भी ऐसा था कि जिसमें तमाज़ते आफ़ताबी की वजह से इन लोगों के चेहरों की खालें मुताग़य्यर हो गई थी। लहूफ़ मुद्दते क़ैद के बाद आप सब को लिये हुए 20 सफ़र 62 हिजरी को वारिदे करबला हुए। आपके हमराह सरे हुसैन (अ.स.) भी कर दिया गया था।

आपने उसे पदरे बुजु़र्गवार के जिस्में मुबारक से मुलहक़ किया(नासिख़ुल तवारीख़) 8 रबीउल अव्वल 62 हिजरी को आप इमाम हुसैन (अ.स.) का लुटा हुआ काफ़िला लिए हुए , मदीने मुनव्वरा पहुँचे , वहां के लोगों ने आहो जा़री और कमालो रंज से आपका इस्तेक़बाल किया। 15 शाबाना रोज़ नौहा व मातम होता रहा।(तफ़सीली वाक़ेआत के लिये कुतुब मक़ातिल व सैर मुलाहेज़ा किजिए)

इस अज़ीम वाक़ेया का असर यह हुआ की ज़ैनब (अ.स.) के बाल इस तरह सफ़ेद हो गये थे कि जानने वाले उन्हें पहचान न सके।(अहसन अलक़सस पृष्ठ 182 प्रकाशित नजफ़) रूबाब ने साय में बैठना छोड़ दिया , इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) गिरया फ़रमाते रहे।(जलालुल ऐन पृष्ठ 256 ) अहले मदीना यज़ीद की बैअत से अलाहेदा हो कर बाग़ी हुए बिल आखि़र वाक़ेए हर्रा की नौबत आ गई।

वाक़ेए करबला और हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के ख़ुतबात

मारकाए करबला की ग़मगीन दास्तान तारीख़े इस्लाम ही नहीं तारीख़े आलम का अफ़सोस नाक सानेहा है। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अव्वल से आखि़र तक इस होशरूबा और रूह फ़रसा वाक़ेए में अपने बाप के साथ रहे और बाप की शहादत के बाद खु़द इस अलमिया के हीरो बने और फिर जब तक ज़िन्दा रहे इस सानेहा का मातम करते रहे। 10 मोहर्रम 61 हिजरी का यह अन्दोह नाक हादसा जिसमें 18 बनी हाशिम और 72 असहाब व अनसार काम आए। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मुदतुल उम्र घुलता रहा और मरते दम तक इसकी याद फ़रामोश न हुई और इसका सदमाए जां काह दूर न हुआ। आप यूं तो इस वाक़ेए के बाद चालिस साल ज़िन्दा रहे मगर लुत्फ़े ज़िन्दगी से महरूम रहे और किसी ने आपको बशशाशा और फ़रहानाक न देखा। इस जान का वाक़ेए करबला के सिलसिले में आपने जो जाबजा ख़ुत्बे इरशाद फ़रमाये हैं उनका तरजुमा दर्जे ज़ैल है।

कूफ़े में आपका ख़ुत्बा

किताब लहूफ़ पृष्ठ 68 में है कि कूूफ़ा पहुँचने के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने लोगों को ख़ामोश रहने का इशारा किया , सब ख़ामोश हो गये , आप खड़े हुए ख़ुदा की हम्दो सना की। हज़रत बनी सालिम का ज़िक्र किया उन पर सलवात भेजी फिर इरशाद फ़रमाया , ऐ लोगों ! जो मुझे पहचानता है वह तो पहचानता ही है , जो नहीं पहचानता उसे मैं बताता हूँ। मैं अली इब्नुल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब (अ.स.) हूँ। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसकी बेहुरमती की गई , जिसका सामान लूट लिया गया , जिसके अहलो अयाल क़ैद कर दिये गये। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो साहिले फ़ुरात पर ज़ब्हा कर दिया गया और बग़ैर कफ़न व दफ़न छोड़ दिया गया और शहादते हुसैन (अ.स.) हमारे फ़ख़्र के लिये काफ़ी है। ऐ लोगों ! मैं तुम्हे ख़ुदा की क़सम देता हूँ ज़रा सोचो तुम ने ही मेरे पदरे बुज़ुर्गवार को ख़त लिखा और फिर तुम ने ही उनको धोखा दिया , तुम ने ही उनके साथ अहदो पैमान किया और उनकी बैअत की और फिर तुम ने ही उनको शहीद कर दिया। तुम्हारा बुरा हो कि तुम ने अपने लिये हलाकत का सामान इकठ्ठा कर लिया , तुम्हारी राहें किस क़द्र बुरी हैं , तुम किन आख़ों से रसूल (स. अ.) को देखोगे। जब रसूल बाज़ पुर्स करेंगे कि तुम लोगों ने मेरी इतरत को क़त्ल किया और मेरे अहले हरम को ज़लील किया ‘‘ इस लिये तुम मेरी उम्मत से नहीं ’’।

मस्जिदे दमिश्क़ (शाम) में आपका ख़ुत्बा

मक़तल अबी मख़नफ़ पृष्ठ 135 , बेहारूल अनवार जिल्द 10 पृष्ठ 233 , रियाज़ुल कु़द्स जिल्द 2 पृष्ठ 328 और रौज़ातुल अहबाब वग़ैरा में है कि जब हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अहले हरम समेत दरबारे यज़ीद में दाखिल किये गये और उनको मिम्बर पर जाने का मौक़ा मिला तो आप मिम्बर पर तशरीफ़ ले गये और अम्बिया की तरह शीरी ज़बान में निहायत फ़साहत व बलाग़त के साथ ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। ऐ लोगों ! जो मुझे पहचानता है वह तो पहचानता ही है , जो नहीं पहचानता उसे मैं बताता हूँ कि मैं कौन हूँ सुनो मैं अली बिन हुसैन बिन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) हूँ। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसने हज किये हैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसने तवाफ़े काबा किया है और सई की है। मैं पिसरे ज़मज़म व पृष्ठ हूँ मैं फ़रज़न्दे फ़ात्मा ज़हरा (स. अ.) हूँ मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो पसे गरदन से ज़िब्हा किया गया। मैं उस प्यासे का फ़रज़न्द हूँ जो प्यासा ही दुनिया से उठा। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिस पर लोगों ने पानी बन्द कर दिया हालां कि तमाम मख़लूक़ात पर पानी जायज़ क़रार दिया। मैं मोहम्मदे मुस्तफ़ा (स. अ.) का फ़रज़न्द हूँ। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो करबला में शहीद किया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके अनसार ज़मीन में आराम की निन्द सो गये मैं उसका पिसर हूँ जिसके अहले हरम क़ैद कर दिये गये। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके बच्चे बग़ैर जुर्मों ख़ता ज़िब्हा कर डाले गये। मैं उसका बेटा हूँ जिसके ख़ेमों में आग लगा दी गई। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो ज़मीने करबला पर शहीद कर दिया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसको न ग़ुस्ल दिया गया और न कफ़न। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसका सर नोके नैज़ा पर बुलन्द किया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके अहले हरम की करबला में बेहुरमी की गई। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसका जिस्म ज़मीने करबला पर छोड़ दिया गया और सर दूसरे मक़ामात पर नोके नैज़ा पर बुलन्द कर के फिराया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके इर्द गिर्द सिवाए दुश्मन के कोई और न था। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके अहले हरम को क़ैद कर के शाम तक फिराया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो बे यारो मददगार था। फिर इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया लोगों ख़ुदा ने हम को पाँच चीजो से फ़ज़ीलत बख़्शी है। 1. ख़ुदा की क़सम हमारे ही घर से फ़रिश्तों की आमदो रफ़्त रही और हम ही मादने नबूवत व रिसालत हैं। 2. हमारी ही शान में क़ुरआन की आयतें नाज़िल कीं और हम ने लोगों की हिदायत की। 3. शुजाअत हमारे ही घर की कनीज़ है , हम कभी किसी की क़ुव्वत व ताक़त से नहीं डरे और फ़साहत हमारा ही हिस्सा है। जब फ़सहा (ज्ञानी) फ़क़रो मुबाहात करे। 4. हम ही सिरातल मुस्तक़ीम और हिदायत का मरकज़ हैं और इसके लिये इल्म का सर चश्मा हैं जो इल्म हासिल करना चाहे और दुनियां के मोमेनीन के दिलों में हमरी मोहब्बत है। 5. हमारे ही मरतबे आसमानों और ज़मीनों में बुलन्द हैं। अगर हम न होते तो ख़ुदा दुनिया ही को पैदा न करता। हर फ़ख़्र हमारे फ़़ख़्र के सामने पस्त है। हमारे दोस्त रोज़े क़यामत सेरो सेराब होंगे और हमारे दुश्मन रोज़े क़यामत बद बख़्ती में होंगे। जब लोगों ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का कलाम सुना तो चीख़ मार कर रोने और पीटने लगे और उनकी आवाज़ें बे साख़्ता बुलन्द होने लगीं। यह हाल देख कर यज़ीद घबरा उठा कि कहीं कोई फ़ितना न खडा़ हो जाये। इसके लिये उसने रद्दे अमल में फ़ौरन मोअजि़्ज़न को हुक्म दिया कि अज़ान शुरू कर के इमाम के ख़ुत्बे को मुन्क़ता कर दे। जब मोअजि़्ज़न गुलदस्ता ए अज़ान पर गया और कहा ‘‘ अल्लाहो अकबर ’’ (ख़ुदा की ज़ात सब से बुज़ुर्ग व बरतर है) इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया तुने एक बड़ी ज़ात की बढ़ाई बयान की एक अज़ीमुश्शान ज़ात की अज़मत का इज़हार किया और जो कुछ कहा हक़ कहा। फिर मोअजि़्ज़न ने काह ‘‘ अश हदोअन ला इलाहा अल्लल्लाह ’’ (मैं गवाही देता हूँ कि नहीं कोई माबूद सिवाए अल्ला के) इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं भी इस मक़सद की हर गवाह के साथ गवाही देता हूँ और हर इन्कार करने वाले के खि़लाफ़ इक़रार करता हूँ। फिर मोअजि़्ज़न ने कहा ‘‘ अश हदो अन्ना मोहम्मदन रसूल अल्लाह ’’ (मैं गवाही देता हूँ कि मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) अल्लाह के रसूल हैं) ‘‘ फ़बका अलीउन ’’ यह सुन कर हज़रत अली बिन हुसैन (अ.स.) रो पड़े और फ़रमाया ऐ यज़ीद मैं तुझे ख़ुदा का वास्ता दे कर पूछता हूँ बता हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) मेरे नाना थे या तेरे ? यज़ीद ने कहा आपके। आपने फ़रमाया , फिर क्यों तूने उनके अहले बैत को शहीद किया ? यज़ीद ने कोई जवाब नहीं दिया और अपने महल में यह कहता हुआ चला गया ‘‘ ला हाजतः ली बिल सलवातः ’’ मुझे नमाज़ से कोई वास्ता नहीं है। इसके बाद मिन्हाल बिन उमर खड़े हुए और कहा ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आपका क्या हाल है ? फ़रमाया ऐ मिन्हाल ऐसे शख़्स का क्या हाल पूछते हो जिसका बाप निहायत बे दर्दी से शहीद कर दिया गया। जिसके मद्दगार ख़त्म कर दिये गये हों , जो अपने चारों तरफ़ अहले हरम को क़ैद देख रहा हो जिनका न परदा रह गया न चादरें रह गई , जिनका न कोई मद्दगार है। तुम तो देख ही रहे हो कि मैं मुक़य्यद हूँ , ज़लील रूसवा किया गया हूँ , ना कोई मेरा नासिर है न मद्दगार मैं और मेरे अहले बैत लिबासे कुहना में मलबूस हैं , हम पर नये लिबास हराम कर दिये गये हैं। अब जो मेरा हाल पूछते हो तो मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूँ तुम देख ही रहे हो हमारे दुश्मन हमें बुरा भला कहते हैं और हम सुब्हो शाम मौत का इन्तेज़ार करते हैं। फिर फ़रमाया अरब व अजम इस पर फ़ख्र करते हैं कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) इन में से थे और क़ुरैश अरब पर इस लिये फ़ख़्र करते हैं कि आं हज़रत (स अ व व ) क़ुरैश थे और हम इन के अहले बैत हैं लेकिन हम को क़त्ल किया गया , हम पर ज़ुल्म किया गया , हम पर मुसीबतों के पहाड़ टूट गये और हम को क़ैद कर के दर बदर फिराया गया गोया हमारा हसब बहुत गिरा हुआ है और बहुत ज़लील है , गोया हम इज़्ज़तों की बुलन्दी पर नहीं चढ़े और बुज़ुर्गियों के फ़रश पर जलवा अफ़रोज़ नहीं हुए। आज गोया तमाम यज़ीद और इसके लशकर का हो गया आले मुस्तफ़ा (स अ व व ) यज़ीद की अदना ग़ुलाम हो गई है। यह सुनना था कि हर तरफ़ से रोने पीटने की सदाए बुलन्द हो गईं। यज़ीद बहुत ख़ाएफ़ हुआ कि कोई फ़ितना न खड़ा हो जाए इसने इस शख़्स से कहा जिसने इमाम को मिम्बर पर तशरीफ़ ले जाने को गया था , ‘‘ वयहका अरदत बसअव दह ज़वाली मलकी ’’ तेरा बुरा हो तू इनको मिम्बर पर बिठा कर मेरी सलतनत ख़त्म करना चाहता है। इसने जवाब दिया , ब खु़दा मैं यह न जानता था कि यह लड़का इतनी बुलन्द गुफ़्तुगू करेगा। यज़ीद ने कहा ‘‘ क्या तू नहीं जानता कि यह अहले बैते नबूवत और मादने रिसालत की एक फ़रद है ’’ यह सुन कर मोअजि़्ज़न से न रहा गया और उसने कहा कि ऐ यज़ीद ! ‘‘ अज़कान कज़ालका फ़लम्मा क़लत अबाह ’’ जब तू यह जानता था तो तूने इनके पदरे बुज़ुर्गवार को क्यों शहीद किया ? मोअजि़्ज़न की गुफ़्तुगू सुन कर यज़ीद बरहम हो गया ‘‘ फ़मर बज़र अनक़ह ’’ और मोअजि़्ज़न की गरदन मार देने का हुक्म दिया।

मदीने के क़रीब पहुँच कर आपका ख़ुत्बा

मक़तल अबी मख़नफ़ पृष्ठ 88 में है कि एक साल तक क़ैद खा़ने शाम की सऊबत बरदाश्त करने के बाद जब अहले बैते रसूल (अ.स.) की रिहाई हुई और यह काफ़ला करबला होता हुआ मदीना की तरफ़ चला तो क़रीबे मदीना पहुँच कर इमाम (अ.स.) ने लोगों को ख़ामोश हो जाने का इशारा किया सब के सब ख़ामोश हो गये , आपने फ़रमाया:

हम्द उस ख़ुदा की जो तमाम दुनिया का परवरदिगार है , रोज़े जज़ा का मालिक है। तमाम मख़्लूक़ात का पैदा करने वाला है जो इतना दूर है बुलन्द आसमान से भी बुलन्द है और इतना क़रीब है कि सामने मौजूद है और हमारी बातों को सुनता है। हम ख़ुदा की तारीफ़ करते हैं और उसका शुक्र बजा लाते हैं। अज़ीम हादसों , ज़माने की हौलनांक गरदिशों , दर्द नाक ग़मों , ख़तरनाक आफ़तों शदीद तकलीफ़ों और क़ल्बो जिगर को हिला देने वाली मुसीबतों के नाज़िल होने के वक़्त ऐ लोगों ! खु़दा और सिर्फ़ खु़दा के लिये हम्द है। हम बड़े बड़े मसाएब में मुबतिला किए गए , दीवारे इस्लाम में बहुत बड़ा रखना (शिग़ाफ़) पड़ गया। हज़रत अबू अब्दुल्लाह हुसैन (अ.स.) और उनके अहले बैत शहीद कर दिये गये। इनकी औरतें और बच्चे क़ैद कर दिये गये और लशकरे यज़ीद ने इनके सर हाय मुबारक को बुलन्द नैज़ों पर रख कर शहरों में फिराया। यह वह मुसीबत है जिसके बराबर कोई मुसीबत नहीं। ऐ लोगों ! तुम में से कौन मर्द है जो शहादते हुसैन (अ.स.) के बाद खु़श रहे या कौन सा दिल है जो शहादते हुसैन (अ.स.) से ग़मगीन न हो या कौन सी आंख है जो आंसू को रोक सके। शहादते हुसैन (अ.स.) पर सातों आसमान रोए। समन्दर और उसकी मौजे रोईं , आसमान और उसके अरकान रोए , ज़मीन और उसके अतराफ़ रोए। दरख़्त और उसकी शाख़ें रोईं , मछलियां और समन्दर के गिरदाब रोए। मलाएक मुक़रेबीन और तमाम आसमान वाले रोए। ऐ लोगों ! कौन सा क़ल्ब है जो शहादते हुसैन (अ.स.) की ख़बर सुन कर फट न जाए। कौन सा क़ल्ब है जो महज़ून न हो। कौन सा कान है जो इस मुसीबत को सुन कर जिससे दीवारे इस्लाम में रखना पड़ा , बहरा न हो। ऐ लोगों ! हमारी यह हालत थी कि हम कशाँ कशाँ फिराये जाते थे। दर बदर ठुकराए जाते थे। ज़लील किए गये शहरों से दूर थे गोया हम को औलादे तुर्क दकाबिल समझ लिया गया था हालां कि न हम ने कोई जुर्म किया था न किसी की बुराई का इरतेक़ाब किया था न दीवारे इस्लाम में कोई रखना डाला था और न इन चीज़ों के खि़लाफ़ किया था जो हम ने अपने आबाओ अजदाद से सुना था , ख़ुदा की क़सम अगर हज़रत नबी (स. अ.) भी इन लोगों (लशकरे यज़ीद) को हम से जंग करने के लिये मना करते तो यह न मानते जैसे कि हज़रत नबी (स. अ.) ने हमारी वसीअत का ऐलान किया और इन लोगों ने न माना बल्कि जितना उन्होंने किया है इस से ज़्यादा सुलूक करते। हम ख़ुदा के लिये हैं और खुदा की तरफ़ हमारी बशाग़त है।

रौज़ा ए रसूल (स. अ.) पर इमाम (अ.स.) की फ़रयाद

मक़तल अबी मख़नफ़ पृष्ठ 143 में है कि यह लुटा हुआ काफ़िला मदीने में दाखि़ल हुआ तो हज़रत उम्मे कुलसूम (अ.स.) गिरयाओ बुका करती हुई मस्जिदे नबवी में दाखि़ल हुईं और अर्ज़ कि , ऐ नाना आप पर मेरा सलाम हो ‘‘ अनी नाऐतहू अलैका वलदक अल हुसैन ’’ मैं आपको आपके फ़रज़न्द हुसैन (अ.स.) की ख़बरे शहादत सुनाती हूँ। यह कहना था कि क़ब्रे रसूल (स. अ.) गिरये की सदा बुलन्द हुई और तमाम लोग रोने लगे फिर हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अपने नाना की क़बे्र मुबारक पर तशरीफ़ लाए और अपने रूख़सार क़बे्र मुताहर से रगड़ते हुए यूँ फ़रयाद करने लगे।

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سبیناکماتسبی الاماء ومسنا

حبیبک مقتول ونسلک ضائع

اسیرا ومالی حامیا ومدافع

من الضرمالاتحمله الاصابع

तरजुमा:

मैं आपसे फ़रयाद करता हूँ ऐ नाना , ऐ तमाम रसूलों में सब से बेहतर आपका महबूब हुसैन (अ.स.) शहीद कर दिया गया और आपकी नस्ल तबाह व बरबाद कर दी गई। ऐ नाना हम सब को इस तरह क़ैद किया गया जिस तरह लावारिस कनीज़ों को कै़द किया जाता है। ऐ नाना हम पर इतने मसाएब ढाए गए जो उंगलियों पर गिने नहीं जा सकते।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और ख़ाके शिफ़ा

मिसबाह उल मुजतहिद में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास एक कपड़े में बंधी हुई थोड़ी सी ख़ाके शिफ़ा रहा करती थी।(मुनाक़िब जिल्द 2 पृष्ठ 329 प्रकाशित मुलतान)

हज़रत के हमराह ख़ाके शिफ़ा का हमेशा रहना तीन हाल से ख़ाली न था या उसे तबर्रूक समझते थे या उस पर नमाज़ में सजदा करते थे या उसे ब हैसीयत मुहाफ़िज़ रखते थे और लोगों को बताना मक़सूद रहता था कि जिसके पास ख़ाके शिफ़ा हो वह जुमला मसाएब व अलाम से महफ़ूज़ रहता है और इसका माल चोरी नहीं होता जैसा कि अहादीस से वाज़े है।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और मोहम्मदे हनफ़िया के दरमियान हजरे असवद का फ़ैसला

आले मोहम्मद (अ.स.) के मदीने पहुँचने के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के चचा मोहम्मद हनफ़िया ने बरावयते अहले इस्लाम से ख़्वाहिश की कि मुझे तबर्रूकाते इमामत दे दो कि मैं बुर्ज़ग ख़ानदान और इमामत का अहल व हक़दार हूँ। आपने फ़रमाया कि हजरे असवद के पास चलो वह फ़ैसला कर देगा। जब यह हज़रत उसके पास पहुँचे तो वह ब हुक्मे ख़ुदा यूं बोला , ‘‘ इमामत ज़ैनुल आबेदीन का हक़ है ’’ इस फ़ैसले को दोनों ने तसलीम कर लिया।(शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 176 )

कामिल मबरद में है कि इस वाक़िये के बाद से मोहम्मद हनफ़िया इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की बड़ी इज़्ज़त करते थे। एक दिन अबू ख़ालिद काबली ने उनसे इसकी वजह पूछी तो कहा हजरे असवद ने खि़लाफ़त का इनके हक़ में फ़ैसला दे दिया है और यह इमामे ज़माना हैं यह सुन कर वह मज़हबे इमाम का क़ाएल हो गया।(मुनाक़िब जिल्द 2 पृष्ठ 326 )

सुबूते इमामत में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का कन्करी पर मुहर लगाना

उसूले काफ़ी में है कि एक औरत जिसकी उम्र 113 साल की हो चुकी थी एक दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास आई उसके पास वह कन्करी थी जिस पर हज़रत अली (अ.स.) इमाम हसन (अ.स.) इमाम हुसैन (अ.स.) की मोहरे इमामत लगी हुई थी। उसके आते ही बिला कहे हुये आपने फ़रमाया कि वह कन्करी ला जिस पर मेरे आबाओ अजदाद की मोहरें लगी हुई हैं उस पर मैं भी मोहर कर दूँ। चुनान्चे उस ने कन्करी दे दी। आपने उसे मोहर कर के वापस कर दी और उसकी जवानी भी पलटा दी। वह ख़ुश व खुर्रम वापस चली गई।(दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 436 )

वाक़ेए हुर्रा और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

मुस्तनद तवारीख़ में है कि करबला के बेगुनाह क़त्ल ने इस्लाम में एक तहलका डाल दिया। ख़ुसूसन ईरान में एक कौमी जोश पैदा कर दिया जिसने बाद में बनी अब्बास को बनी उमय्या के ग़ारत करने में बड़ी मद्द दी चुंकि यज़ीद तारेकुस्सलात और शराबी था और बेटी बहन से निकाह करता और कुत्तों से खेलता था , उसकी मुलहिदाना हरकतों और इमाम हुसैन (अ.स.) के शहीद करने से मदीने में इस क़द्र जोश फैला कि 62 हिजरी में अहले मदीना ने यज़ीद की मोअत्तली का ऐलान कर दिया और अब्दुल्लाह बिन हनज़ला को अपना सरदार बना कर यजी़द के गर्वनर उस्मान बिन मोहम्मद बिन अबी सुफ़ियान को मदीने से निकाल दिया। स्यूती तारीख़ अल ख़ुलफ़ा में लिखता है कि ग़सील उल मलायका (हनज़ला) कहते हैं कि हम ने उस वक़्त तक यज़ीद की खि़लाफ़त से इन्कार नहीं किया जब तक हमें यह यक़ीन नहीं हो गया कि आसमान से पत्थर बरस पड़ेंगे। ग़ज़ब है कि लोग मां बहनों और बेटियां से निकाह करें , ऐलानियां शराब पियें और नमाज़ छोड़ बैठें।

यज़ीद ने मुस्लिम बिन अक़बा को जो ख़ूं रेज़ी की कसरत के सबब (मुसरिफ़) के नाम से मशहूर है फ़ौजे कसीर दे कर अहले मदीना की सरकोबी को रवाना किया। अहले मदीना ने बाब अल तैबा के क़रीब मक़ामे ‘‘ हुर्रा ’’ पर शामियों का मुक़ाबला किया। घमासान का रन पड़ा , मुसलमानों की तादाद शामियों से बहुत कम थी इस के बावजूद उन्होंने दादे मरदानगी दी मगर आखि़र शिकस्त खाई। मदीने के चीदा चीदा बहादुर रसूल अल्लाह (स. अ.) के बड़े बड़े सहाबी , अन्सार व महाजिर इस हंगामे आफ़त में शहीद हुए। शामी घरों में घुस गये। मज़ारात को उनकी ज़ीनत और आराईश की ख़ातिर मिसमार कर दिया। हज़ारों औरतों से बदकारी की। हज़ारों बाकरा लड़कियों का बकारत (बलात्कार) कर डाला। शहर को लूट लिया। तीन दिन क़त्ले आम कराया दस हज़ार से ज़्यादा बाशिन्दगाने मदीना जिन में सात सौ महाजिर और अन्सार और इतने ही हामेलान व हाफ़ेज़ाने क़ुरआन व उलेमा व सुलोहा मोहद्दिस थे इस वाक़िये में मक़्तूल हुए। हज़ारों लड़के लड़कियां गु़लाम बनाई गईं और बाक़ी लोगों से बशर्ते क़ुबूले ग़ुलामी यज़ीद की बैयत ली गई। मस्जिदे नबवी और हज़रत के हरमे मोहतरम में घोड़े बंधवाये गए। यहां तक कि लीद का अम्बार लग गए। यह वाक़िया जो तारीख़े इस्लाम में वाक़ेए हर्रा के नाम से मशहूर है 27 ज़िलहिज 63 हिजरी को हुआ था। इस वाक़िये पर मौलवी अमीर अली लिखते हैं कि कुफ़्र व बुत परस्ती ने फिर ग़लबा पाया। एक फ़िरंगी मोवरिख़ लिखता है कि कुफ्ऱ का दोबारा जन्म लेना इस्लाम के लिये सख़्त ख़ौफ़ नाक और तबाही बख़्श साबित हुआ। बक़ीया तमाम मदीने को यज़ीद का ग़ुलाम बनाया गया। जिसने इन्कार किया उसका सर उतार लिया। इस रूसवाई से सिर्फ़ दो आदमी बचे ‘‘ अली बिन हुसैन (अ.स.) और अली बिन अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास ’’ इन से यज़ीद की बैयत भी नहीं ली गई। मदारिस शिफ़ाख़ाने और दीगर रेफ़ाहे आम की इमारतें जो ख़ुल्फ़ा के ज़माने में बनाई गईं थीं बन्द कर दी गईं या मिस्मार कर दी गईं और अरब फिर एक वीराना बन गया। इसके चन्द मुद्दत बाद अली बिन हुसैन (अ.स.) के पोते जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने अपने जद्दे माजिद अली ए मुर्तुज़ा (अ.स.) का मक़तब फिर मदीना में जारी किया मगर यह सहरा में सिर्फ़ एक ही सच्चा नख़लिस्तान था इसके चारों तरफ़ जु़ल्मत व ज़लालत छाई हुई थी। मदीना फिर कभी न संभला। बनी उमय्या के अहद में मदीना ऐसी उजडी़ बस्ती हो गया कि जब मन्सूरे अब्बासी ज़्यारत को मदीने में आया तो उसे एक रहनुमा की ज़रूरत पड़ी। हवास को वह मकानात बताए जहां इब्तेदाई ज़माने के बुर्ज़ुगाने इस्लाम रहा करते थे।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 36, तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 1 पृष्ठ 191, तारीख़ फ़ख़्री पृष्ठ 86, तारीख़े कामिल जिल्द 4 पृष्ठ 49, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 132 )

वाक़ेए हुर्रा और आपकी क़याम गाह

तवारीख़ से मालूम होता है कि आपकी एक छोटी सी जगह ‘‘मुन्बा ’’ नामी थी जहां खेती बाड़ी का काम होता था। वाक़ेए हुर्रा के मौक़े पर शहरे मदीना से निकल कर अपने गाँव चले गये थे।(तारीख़े कामिल जिल्द 4 पृष्ठ 45 ) यह वही जगह है , जहाँ हज़रत अली (अ.स.) ख़लीफ़ा उस्मान के अहद में क़याम पज़ीर थे।(अक़दे फ़रीद जिल्द 2 पृष्ठ 216 )

ख़ानदानी दुश्मन मरवान के साथ आपकी करम गुस्तरी

वाक़ेए हुर्रा के मौक़े पर जब मरवान ने अपनी और अपने अहलो अयाल की तबाही और बरबादी का यक़ीन कर लिया तो अब्दुल्लाह इब्ने उमर के पास जा कर कहने लगा कि हमारी मुहाफ़ज़त करो। हुकूमत की नज़र मेरी तरफ़ से भी फिरी हुई है मैं जान और औरतों की बेहुरमती से डरता हूँ। उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया। उस वह इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास आया और उसने अपनी और अपने बच्चों की तबाही व बरबादी का हवाला दे कर हिफ़ाज़त की दरख़्वास्त की हज़रत ने यह ख़्याल किए बग़ैर कि यह ख़ानदानी हमारा दुश्मन है और इसने वाक़ेए करबला के सिलसिले में पूरी दुश्मनी का मुज़ाहेरा किया है। आपने फ़रमाया बेहतर है कि अपने बच्चों को मेरे पास बमुक़ाम मुनबा भेज दो , जहां पर मेरे बच्चे रहेंगे तुम्हारे भी रहेंगे। चुनान्चे वह अपने बाल बच्चों को जिन में हज़रत उसमान की बेटी आयशा भी थी आपके पास पहुँचा गया और आपने सब की मुकम्मल हिफ़ाज़त फ़रमाई।(तारीख़े कामिल जिल्द 4 पृष्ठ 45 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और मुस्लिम बिन अक़बा

अल्लामा मसूदी लिखते हैं कि मदीने के इन हंगामी हालात में एक दिन मुस्लिम बिन अक़बा ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को बुला भेजा। अभी वह पहुँचे न थे कि उसने अपने पास के बैठने वालों से आपकी ख़ानदानी बुराई शुरू की और न जाने क्या क्या कह डाला लेकिन अल्लाह रे आपका रोब व जलाल कि ज्यों ही आप उसके पास पहुँचे वह ब सरो क़द ताज़ीम के लिये खड़ा हो गया। बात चीत के बाद जब आप तशरीफ़ ले गये तो किसी ने मुस्लिम से कहा कि तूने इतनी शानदार ताज़ीम क्यो कि उसने जवाब दिया , मैं क़सदन व इरादतन ऐसा नहीं किया बल्कि उनके रोब व जलाल की वजह से मजबूरन ऐसा किया है।

(मरूजुल ज़हब मसउदी बर हाशिया तारीख़े कामिल जिल्द 6 पृष्ठ 106 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से बैअत का सवाल न करने की वजह

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि वाक़ेए हर्रा में मदीने का कोई शख़्स ऐसा न था जो यज़ीद की बैअत न करे और क़त्ल होने से बच जाए लेकिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बैअत न करने के बावजूद महफ़ूज़ रहे , बल्कि उसे यूं कहा जाए कि आप से बैअत तलब ही नहीं की गई। अल्लामा जलालउद्दीन हुसैनी मिसरी अपनी किताब ‘‘ अल हुसैन ’’ में लिखते हैं कि यज़ीद का हुक्म था कि सब से बैअत लेना। अली इब्नुल हुसैन को (अ.स.) को न छेड़ना वरना वह भी सवाले बैअत पर हुसैनी किरदार पेश करेंगे और एक नया हंगामा खड़ा हो जायेगा।

दुश्मने अज़ली हसीन बिन नमीर के साथ आपकी करम नवाज़ी

मदीने को तबाह बरबाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बह इब्तिदाए 64 हिजरी में मदीने से मक्का को रवाना हो गया। इत्तेफ़ाक़न राह में बीमार हो कर वह गुमराह , राहिए जहन्नम हो गया मरते वक़्त उस ने हसीन बिन नमीर को अपना जा नशीन मुक़र्रर कर दिया। उसने वहां पहुँच कर ख़ाना ए काबा पर संग बारी की और उस में आग लगा दी , उसके बाद मुकम्मिल मुहासरा कर के अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को क़त्ल करना चाहा। इस मुहासरे को चालीस दिन गुज़रे थे कि यज़ीद पलीद वासिले जहन्नम हो गया। उसके मरने की ख़बर से इब्ने ज़ुबैर ने ग़लबा हासिल कर लिया और यह वहां से भाग कर मदीना जा पहुँचा।

मदीने के दौरान क़याम में इस मलऊन ने एक दिन ब वक़्ते शब चन्द सवारों को ले कर फ़ौज के ग़िज़ाई सामान की फ़राहमी के लिये एक गाँव की राह पकड़ी। रास्ते में उसकी मुलाक़ात हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से हो गई , आपके हमराह कुछ ऊटँ थे जिन पर ग़िज़ाई सामान लदा हुआ था। उसने आप से वह ग़ल्ला ख़रीदना चाहा , आपने फ़रमाया कि अगर तुझे ज़रूरत है तो यूं ही ले ले हम इसे फ़रोख़्त नहीं कर सकते (क्यों कि मैं इसे फ़ुक़राए मदीना के लाया हूँ) उसने पूछा की आपका नाम क्या है ? आपने फ़रमाया ‘‘ अली इब्नुल हुसैन ’’ कहते हैं। फिर आपने उससे नाम दरयाफ़्त किया तो उसने कहा मैं हसीन बिन नमीर हूँ। अल्लाह रे आपकी करम नवाज़ी , आपने यह जानने के बावजूद कि यह मेरे बाप के क़ातिलों में से है उसे सारा ग़ल्ला दे दिया (और फ़ुक़रा के लिये दूसरा बन्दो बस्त फ़रमाया) उसने जब आपकी यह करम गुस्तरी देखी और अच्छी तरह पहचान भी लिया तो कहने लगा कि यज़ीद का इन्तेक़ाल हो चुका है आपसे ज़्यादा मुस्तहक़े खि़लाफ़त कोई नहीं। आप मेरे साथ तशरीफ़ ले चलें मैं आपको तख़्ते खि़लाफ़त पर बैठा दूंगा। आप ने फ़रमाया कि मैं ख़ुदा वन्दे आलम से अहद कर चुका हूँ कि ज़ाहिरी खि़लाफ़त क़बूल न करूंगा। यह फ़रमा कर आप अपने दौलत सरा को तशरीफ़ ले गये।(तरीख़े तबरी फ़ारसी पृष्ठ 644 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और फ़ुक़राऐ मदीना की किफ़ालत

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़ुक़राए मदीना के 100 घरों की किफ़ालत फ़रमाते थे और सारा सामान उन के घर पहुँचाया करते थे। उनमे बहुत ज़्यादा ऐसे घराने थे जिनमें आप यह भी मालम न होने देते थे कि यह सामान ख़ुरदोनोश रात को कौन दे जाता है। आपका उसूल यह था कि बोरियाँ पुश्त पर लाद कर घरों में रोटी और आटा वग़ैरा पहुँचाते थे और यह सिलसिला ता बहयात जारी रहा। बाज़ मोअज़्ज़ेज़ीन का कहना है कि हमने अहले मदीना को यह कहते सुना है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़िन्दगी तक हम ख़ुफ़िया ग़िज़ाई रसद से महरूम नहीं हुए।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 265, नुरूल अबसार पृष्ठ 126 )

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और खेती

अहादीस में है कि ज़राअत (खेती) व काश्त कारी सुन्नत है। हज़रत इदरीस के अलावा कि वह ख़य्याती करते थे। तक़रीबन जुमला अम्बिया ज़राअत किया करते थे। हज़रात आइम्माए ताहेरीन (अ.स.) का भी यही पेशा रहा है लेकिन यह हज़रात इस काश्त कारी से ख़ुद फ़ायदा नहीं उठाते थे बल्कि इस से ग़ुरबा , फ़ुक़रा और तयूर के लिये रोज़ी फ़राहम किया करते थे। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़रमाते हैं ‘‘ माअजरा अलज़रा लतालब अलफ़ज़ल फ़ीह वमाअज़रा अलालैतना वलहू अल फ़क़ीरो जुल हाजता वलैतना वल मना अलक़बरता ख़सता मन अल तैर ’’ मैं अपना फ़ायदा हासिल करते के लिये ज़राअत नहीं किया करता बल्कि मैं इस लिये ज़राअत करता हूँ कि इस से ग़रीबों , फ़क़ीरों मोहताजों और ताएरों ख़ुसूसन कु़बर्रहू को रोज़ी फ़राहम करूँ।(सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 1 पृष्ठ 549 )

वाज़े हो कि कु़बरहू वह ताएर हैं जो अपने महले इबादत में कहा करता है ‘‘ अल्लाह हुम्मा लाअन मबग़ज़ी आले मोहम्मद ’’ ख़ुदाया उन लोगों पर लानत कर जो आले मोहम्मद (स अ व व ) से बुग़्ज़ रखते हैं।(लबाब अल तावील बग़वी)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और फ़ित्नाए इब्ने ज़ुबैर

मुवर्रिख़ मि0 ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर जो आले मोहम्मद (स. अ.) का शदीद दुश्मन था 3 हिजरी में हज़रत अबू बकर की बड़ी साहब ज़ादी असमा के बतन से पैदा हुआ , इसे खि़लाफ़त की बड़ी फ़िक्र थी। इसी लिये जंगे जमल में मैदान गरम करने में उसने पूरी सई से काम लिया था। यह शख़्स इन्तेहाई कन्जूस और बनी हाशिम का सख़्त दुश्मन था और उन्हें बहुत सताता था। बरवाएते मसूदी उसने जाफ़र बिन अब्बास से कहा कि मैं चालीस बरस से तुम बनी हाशिम से दुश्मनी रखता हूँ। इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद 61 हिजरी में मक्का में और रजब 64 हिजरी में मुल्के शाम के बाज़ इलाक़ों के अलावा तमाम मुमालिके इस्लाम में इसकी बैअत कर ली गई। अक़दुल फ़रीद और मरूज उज़ ज़हब में है कि जब इसकी कु़व्वत बहुत बढ़ गई तो उसने ख़ुतबे में हज़रत अली (अ.स.) की मज़म्मत की और चालीस रोज़ तक ख़ुत्बे में दुरूद नहीं पढ़ा और मोहम्मद हनफ़िया और इब्ने अब्बास और दीगर बनी हाशिम को बैअत के लिये बुलाया उन्होंने इन्कार किया तो बरसरे मिम्बर उनको गालियां दीं और ख़ुत्बे से रसूल अल्लाह (स. अ.) का नाम निकाल डाला और जब इसके बारे में इस पर एतिराज़ किया गया तो जवाब दिया कि इस से बनी हाशिम बहुत फ़ुलते हैं , मैं दिल में कह लिया करता हूँ। इसके बाद उस ने मोहम्मद हनफ़िया और इब्ने अब्बास को हब्से बेजा में मय 15 बनी हाशिम के क़ैद कर दिया और लकड़िया क़ैद ख़ाने के दरवाज़े पर चिन दीं और कहा कि अगर बैअत न करोगे तो मैं आग लगा दूंगा। जिस तरह बनी हाशिम के इन्कारे बैअत पर लकड़िया चिनवा दी गई थीं। इतने में वह फ़ौज वहां पहुँच गई जिसे मुख़्तार ने उनकी मदद के लिये अब्दुल्लाह जदली की सर करदगी में भेजी थी और उसने इन मोहतरम लोगों को बचा लिया और वहां से ताएफ़ पहुँचा दिया।(अक़दे फ़रीद व मसूदी)

उन्हीं हालात की बिना पर हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अकसर फ़ित्नाए इब्ने ज़ुबैर का ज़िक्र फ़रमाते थे। आलिमे अहले सुन्न्त अल्लामा शिबली लिखते हैं कि अबू हमज़ा शुमाली का बयान है कि एक दिन हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ और चाहा कि आपसे मुलाक़ात करूँ लेकिन चूंकि आप घर के अन्दर थे , इस लिये सुए अदब समझते हुए मैंने आवाज़ न दी। थोड़ी देर के बाद ख़ुद बाहर तशरीफ़ लाए और मुझे हमराह ले कर एक जानिब रवाना हो गए। रास्ते में आपने एक दिवार की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया , ऐ अबू हमज़ा ! मैं एक दिन सख़्त रंजो अलम में इस दीवार से टेक लगाए खड़ा था और सोच रहा था कि इब्ने ज़ुबैर के फ़ितने से बनी हाशिम को क्यों कर बचाया जाए। इतने में एक शरीफ़ और मुकद्दस बुज़ुर्ग साफ़ सुथरे कपड़े पहने हुए मेरे पास आए और कहने लगे आखि़र क्यों परेशान खड़े हैं ? मैंने कहा मुझे फ़ितनाए इब्ने ज़ुबैर का ग़म और उसकी फ़िक्र है। वह बोले , ऐ अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ! घबराओ नहीं जो ख़ुदा से डरता है , ख़ुदा उसकी मद्द करता है। जो उससे तलब करता है वह उसे देता है। यह कह कर वह मुक़द्दस शख़्स मेरी नज़रों से ग़ाएब हो गये और हातिफ़े ग़ैबी ने आवाज़ दी। ‘‘ हाज़ल खि़ज़्र ना हबाक़ा ’’ कि यह जो आपसे बातें कर रहे थे वह जनाबे खि़ज्ऱ (अ.स.) थे।(नुरूल अबसार पृष्ठ 129, मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 264, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 178 ) वाज़े हो कि यह रवायत बरादराने अहले सुन्नत की है। हमारे नज़दीक इमाम कायनात की हर चीज़ से वाक़िफ़ होता है।

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की अपने पदरे बुज़ुर्गवार के क़र्ज़े से सुबुक दोशी

उलेमा का बयान है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) क़ैद ख़ाना ए शाम से छूट कर मदीने पहुँचने के बाद से अपने पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के क़र्ज़े की अदाएगी की फ़िक्र में रहा करते थे और चाहते थे कि किसी न किसी सूरत से 75 हज़ार दीनार जो हज़रत सय्यदुश शोहदा का क़र्ज़ा है मैं अदा कर दूं। बिल आखि़र आपने ‘‘ चश्मए तहनस ’’ को जो कि इमाम हुसैन (अ.स.) का बामक़ाम ‘‘ ज़ी ख़शब ’’ बनवाया हुआ था फ़रोख़्त कर के क़रज़े की अदाएगी से सुबुक दोशी हासिल फ़रमाई। चशमे के बेचने में यह शर्त थी कि शबे शम्बा को पानी लेने का हक़ ख़रीदने वाले को न होगा बल्कि उसकी हक़दार सिर्फ़ इमाम (अ.स.) की हमशीरा होंगी।

(बेहारूल अनवार , वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 249 व मनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 114 )

माविया इब्ने यज़ीद की तख़्त नशीनी और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

यज़ीद के मरने के बाद उसका बेटा अबू लैला , माविया बिन यज़ीद ख़लीफ़ा ए वक़्त बना दिया गया। वह इस ओहदे को क़बूल करने पर राज़ी न था क्यों कि वह फ़ितरतन हज़रत अली (अ.स.) की मोहब्बत पर पैदा हुआ था और उनकी औलाद को दोस्त रखता था। बा रवायत हबीब अल सैर उसने लोगों से कहा कि मेरे लिये खि़लाफ़त सज़ावार और मुनासिब नहीं है मैं ज़रूरी समझता हूँ कि इस मामले में तुम्हारी रहबरी करूँ और बता दूं कि यह मन्सब किस के लिये ज़ेबा है , सुनो ! इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मौजूद हैं उन में किसी तरह का कोई ऐब निकाला नहीं जा सकता। वह इस के हक़ दार और मुस्तहक़ हैं , तुम लोग उनसे मिलो और उन्हें राज़ी करो अगरचे मैं जानता हूँ कि वह इसे क़ुबूल न करेंगे।

मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि 64 हिजरी में यज़ीद के मरते ही माविया बिन यज़ीद की बैअत शाम में , अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर की हिजाज़ और यमन में हो गई और अब्दुल्लाह इब्ने ज़ियाद ईराक़ में ख़लीफ़ा बन गया।

माविया इब्ने यज़ीद हिल्म व सलीम अल बतआ जवाने सालेह था। वह अपने ख़ानदान की ख़ताओं और बुराईयों को नफ़रत की नज़र से देखता और अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) को मुस्तहक़े खि़लाफ़त समझता था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 37 ) अल्लामा मआसिर रक़म तराज़ हैं कि 64 हिजरी में यज़ीद मरा तो उसका बेटा माविया ख़लीफ़ा बनाया गया। उसने चालीस रोज़ और बाज़ क़ौल के मुताबिक़ 5 माह खि़लाफ़त की। उसके बाद ख़ुद खि़लाफ़त छोड़ दी और अपने को खि़लाफ़त से अलग कर लिया। इस तरह कि एक रोज़ मिम्बर पर चढ़ कर देर तक ख़ामोश बैठा रहा फिर कहा , ‘‘ लोगों ! ’’ मुझे तुम लोगों पर हुकूमत करने की ख़्वाहिश नहीं है क्यों कि मैं तुम लोगों की जिस बात (गुमराही और बे ईमानी) को ना पसन्द करता हूँ वह मामूली दरजे की नहीं बल्कि बहुत बड़ी है और यह भी जानता हूँ कि तुम लोग भी मुझे ना पसन्द करते हो इस लिये कि मैं तुम लोगों की खि़लाफ़त से बड़े अज़ाब में मुब्तिला और गिरफ़्तार हूँ और तुम लोग भी मेरी हुकूमत के सबब मुमराही की सख़्त मुसीबत में पड़े हो। ‘‘ सुन लो ’’ कि मेरे दादा माविया ने इस खि़लाफ़त के लिये उस बुज़ुर्ग से जंगो जदल की जो इस खि़लाफ़त के लिये उस से कहीं ज़्यादा सज़ावार और मुस्तहक़ थे और वह हज़रत इस खि़लाफ़त के लिये सिर्फ़ माविया ही नहीं बल्कि दूसरे लोगों से भी अफ़ज़ल थे इस सबब से कि हज़रत को हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) से क़राबते क़रीबिया हासिल थी। हज़रत के फ़जा़एल बहुत थे। ख़ुदा के यहां हज़रत को सब से ज़्यादा तक़र्रूब हासिल था। हज़रत तमाम सहाबा , महाजेरीन से ज़्यादा अज़ीम उल क़द्र , सब से ज़्यादा बहादुर , सब से ज़्यादा साहेबे इल्म , सब से पहले ईमान लोने वाले , सब से आला अशरफ़ दर्जा रखने वाले और सब से पहले हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) की सोहबत का फ़ख्ऱ हासिल करने वाले थे। अलावा इन फ़ज़ाएल व मनाक़िब के वह जनाबे हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) के चचा ज़ाद भाई , हज़रत के दामाद और हज़रत के दीनी भाई थे जिनसे हज़रत ने कई बार मवाख़ात फ़रमाई। जनाबे हसनैन (अ.स.) जवानाने अहले बेहिश्त के सरदार और इस उम्मत में सब से अफ़ज़ल और परवरदए रसूल (स. अ.) और फ़ात्मा बुतूल (स. अ.) के दो लाल यानी पाको पाकीज़ा दरख़ते रिसालत के फूल थे। उनके पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत अली (अ.स.) ही थे। ऐसे बुज़ुर्ग से मेरा दादा जिस तरह सरकशी पर आमादा हुआ उसको तुम लोग ख़ूब जानते हो और मेरे दादा की वजह से तुम लोग जिस गुमराही में पड़े उस से भी तुम लोग बे ख़बर नहीं हो। यहां तक कि मेरे दादा को उसके इरादे में कामयाबी हुई और उसके दुनिया के सब काम बन गए मगर जब उसकी अजल उसके क़रीब पहुँच गई और मौत के पंजों ने उसको अपने शिकंजे में कस लिया तो वह अपने आमाल में इस तरह गिरफ़्तार हो कर रह गया कि अपनी क़ब्र में अकेला पड़ा है और जो ज़ुल्म कर चुका था उन सब को अपने सामने पा रहा है और जो शैतनत व फ़िरऔनियत उसने इख़्तेयार कर रखी थी उन सब को अपनी आख़ों से देख रहा है। फिर यह खि़लाफ़त मेरे बाप यज़ीद के सिपुर्द हुई तो जिस गुमराही में मेरा दादा था उसी ज़लालत में पड़ कर मेरा बाप भी ख़लीफ़ा बन बैठा और तुम लोगों की हुकूमत अपने हाथ में ले ली हालां कि मेरा बाप यज़ीद भी इस्लाम कुश बातों दीन सोज़ हरकतों और अपनी रूसियाहियो की वजह से किसी तरह उसका अहल न था कि हज़रत रसूले करीम (स. अ.) की उम्मत का ख़लीफ़ा और उनका सरदार बन सके , मगर वह अपनी नफ़्स परस्ती की वजह से इस गुमराही पर आमादा हो गया और उसने अपने ग़लत कामों को अच्छा समझा जिसके बाद उसने दुनियां में जो अंधेरा किया उस से ज़माना वाक़िफ़ है कि अल्लाह से मुक़ाबला और सरकशी करने तक पर आमादा हो गया और हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) से इतनी बग़ावत की कि हज़रत की औलाद का ख़ून बहाने पर कमर बांध ली , मगर उसकी मुद्दत कर रही और उसका ज़ुल्म ख़त्म हो गया। वह अपने आमाल के मज़े चख रहा है और अपने गढ़े (क़ब्र्र) से लिपटा हुआ और अपने गुनाहों की बलाओं में फंसा हुआ पड़ा है। अलबत्ता उसकी सफ़ाकियों के नतीजे जारी और उसकी ख़ूं रेज़ियों की अलामतें बाक़ी हैं। अब वह भी वहां पहुँच गया जहां के लिये अपने करतूतों का ज़ख़ीरा मोहय्या किया था और अब किये पर नादिम हो रहा है। मगर कब ? जब किसी निदामत का कोई फ़ायदा नहीं और वह इस अज़ाब में पड़ गया कि हम लोग उसकी मौत को भूल गये और उसकी जुदाई पर हमें अफ़सोस नहीं होता बल्कि उसका ग़म है कि अब वह किस आफ़त में गिरफ़्तार है , काश मालूम हो जाता कि वहां उसने क्या उज़्र तराशा और फिर उससे क्या कहा गया , क्या वह अपने गुनाहों के अज़ाब में डाल दिया गया और अपने आमाल की सज़ा भुगत रहा है ? मेरा गुमान तो यही है कि ऐसा ही होगा। उसके बाद गिरया उसके गुलूगीर हो गया और वह देर तक रोता रहा और ज़ोर ज़ोर से चीख़ता रहा।

फिर बोला , अब मैं अपने ज़ालिम ख़ानदान बनी उमय्या का तीसरा ख़लीफ़ा बनाया गया हूँ हालां कि जो लोग मुझ पर मेरे दादा और बाप के ज़ुल्मों की वजह से ग़ज़ब नाक हैं उनकी तादाद उन लोगों से कहीं ज़्यादा है जो मुझ से राज़ी हैं।

भाईयों मैं तुम लोगों के गुनाहों के बार उठाने की ताक़त नहीं रखता और ख़ुदा वह दिन भी मुझे न दिखाए कि मैं तुम लोगों की गुमराहियां और बुराईयों के बार से लदा हुआ उसकी दरगाह में पहुँचूँ। अब तुम लोगों को अपनी हुकूमत के बारे में इख़्तेयार है उसे मुझ से ले लो और जिसे पसन्द करो अपना बादशाह बना लो कि मैंने तुम लोगों की गरदनों से अपनी बैअत उठा ली। वस्सलाम। जिस मिम्बर पर माविया इब्ने यज़ीद ख़ुत्बा दे रहा था उसके नीचे मरवान बिन हकम भी बैठा हुआ था। ख़ुत्बा ख़त्म होने पर वह बोला , क्या हज़रत उमर की सुन्नत जारी करने का इरादा है कि जिस तरह उन्होंने अपने बाद खि़लाफ़त को ‘‘ शूरा ’’ के हवाले किया था तुम भी इसे शूरा के सिपुर्द करते हो। इस पर माविया बोला , आप मेरे पास से तशरीफ़ ले जायें , क्या आप मुझे भी मेरे दीन में धोखा देना चाहते हैं। ख़ुदा की क़सम मैं तुम लोगों की खि़लाफ़त का कोई मज़ा नहीं पाता अलबत्ता इसकी तलखि़यां बराबर चख रहा हूँ। जैसे लोग उमर के ज़माने में थे , वैसे ही लोगों को मेरे पास भी लाओ। इसके अलावा जिस तारीख़ से उन्होंने खि़लाफ़त को शूरा के सिपुर्द किया और जिस बुज़ुर्ग हज़रत अली (अ.स.) की अदालत में किसी क़िस्म का शुब्हा किसी को हो भी नहीं सकता , इसको उस से हटा दिया। उस वक़्त से वह भी ऐसा करने की वजह से क्या ज़ालिम नहीं समझे गये। ख़ुदा की क़सम अगर खि़लाफ़त कोई नफ़े की चीज़ है तो मेरे बाप ने उस से नुक़सान उठाया और गुनाह ही का ज़ख़ीरा मोहय्या किया और अगर खि़लाफ़त कोई और वबाल की चीज़ है तो मेरे बाप को उस से जिस क़द्र बुराई हासिल हुई वही काफ़ी है।

यह कह कर माविया उतर आया , फिर उसकी माँ और दूसरे रिश्ते दार उसके पास गये तो देखा कि वह रो रहा है। उसकी मां ने कहा कि काश तू हैज़ ही में ख़त्म हो जाता और इस दिन की नौबत न आती। माविया ने कहा ख़ुदा की क़सम मैं भी यही तमन्ना करता हूँ फिर कहा मेरे रब ने मुझ पर रहम नहीं किया तो मेरी नजात किसी तरह नहीं हो सकती। उसके बाद बनी उमय्या उसके उस्ताद उमर मक़सूस से कहने लगे कि तू ही ने माविया को यह बातें सिखाई हैं और उसको खि़लाफ़त से अलग किया है और अली (अ.स.) व औलादे अली (अ.स.) की मोहब्बत उसके दिल में रासिख़ कर दी है। ग़र्ज़ उसने हम लोगों के जो अयूब व मज़ालिम बयान किये उन सब का बाएस तू ही है और तू ही ने इन बिदअतों को उसकी नज़र में पसंदीदा क़रार दे दिया है जिस पर उस ने यह ख़ुत्बा बयान किया है। मक़सूस ने जवाब दिया ख़ुदा की क़सम मुझ से उसका कोई वास्ता नहीं है बल्कि वह बचपन ही से हज़रत अली (अ.स.) की मोहब्बत पर पैदा हुआ है लेकिन उन लोगों ने बेचारे का कोई उज्ऱ नहीं सुना और क़ब्र खोद कर उसे ज़िन्दा दफ़्न कर दिया।

(तहरीर अल शहादतैन पृष्ठ 102, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122, हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 55, तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 232, तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 391 )

मुवर्रिख़ मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं , इसके बाद बनी उमय्या ने माविया बिन यज़ीद को भी ज़हर से शहीद कर दिया। उसकी उम्र 21 साल 18 दिन की थी। उसकी खि़लाफ़त का ज़माना चार महीने और बा रवायते चालीस यौम शुमार किया जाता है। माविया सानी के साथ बनी उमय्या की सुफ़यानी शाख़ की हुकूमत का ख़ात्मा हो गया और मरवानी शाख़ की दाग़ बेल पड़ गई।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 38 ) मुवर्रिख़ इब्नुल वरदी अपनी तारीख़ में लिखते हैं कि माविया इब्ने यज़ीद के मरने के बाद शाम में बनी उमय्या ने मुतफ़्फ़ेक़ा तौर पर मरवान बिन हकम को ख़लीफ़ा बना लिया।

मरवान की हुकूमत सिर्फ़ एक साल क़ायम रही फिर उसके इन्तेक़ाल के बाद उसका लड़का अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ख़लीफ़ाए वक़्त क़रार दिया गया।

अब्दुल मलिक इब्ने मरवान और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

65 हिजरी में मरवान के मरने के बाद उसका बेटा अब्दुल मलिक मिस्त्र व शाम का बादशाह तसलीम किया गया। यह बनी उमय्या का असलन नमूना था चूंकि मुसतबद फ़रेबी और ईमान से दूर था। वह अजीब क़ाबलियत के साथ अपनी खि़लाफ़त को मुस्तहकम करने में मसरूफ़ हुआ। उसकी राह में मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फी और अब्दुल्ला इब्ने ज़ुबैर रूकावट थे। उनके बाद जमादुस्सानिया 73 हिजरी में अब्दुल मलिक इब्ने मरवान तमाम मुमालिके इस्लाम का अकेला बादशाह बन गया। इब्ने ज़ुबैर से लड़ने में चूंकि हज्जाज बिन यूसुफ़ अमवी जरनल ने नुमायां किरदार अदा किया था इस लिये अब्दुल मलिक बिन मरवान ने उसे हिजाज़ का गर्वनर बना दिया था।

75 हिजरी में अब्दुल मलिक ने इसे अपनी मशरिक़ी सलतनत , ईराक़ , फ़ारस और सिस्तान , किरमान और ख़ुरासान का जिसमें काबुल और कुछ हिस्सा मावरा अल नहर का भी शामिल था वायस राय बना दिया।

हज्जाज ने अपनी हिजाज़ की गर्वनरी के ज़माने में मदीने के लोगों पर जिनमें असहाबे रसूल (स. अ.) भी थे बड़े बड़े ज़ुल्म किये। ईराक़ में अपनी बीस बरस की गर्वनरी के दौरान में उसने तक़रीबन डेढ़ लाख (1,50000 और बा रवायत मिशक़ात 5,00000 पांच लाख) बन्दगाने ख़ुदा का ख़ून बहाया था। जिनमें से बहुत लोगों पर झूठे इल्ज़ाम और बोहतान लगाये गये थे। उसकी वफ़ात के वक़्त 50,000 (पचास हज़ार) मर्द व ज़न क़ैद ख़ानों में पड़े हुए उसकी जान को रो रहे थे। बे सख़फ़ (बग़ैर छत) क़ैद ख़ाना उसी की ईजाद है।

इब्ने ख़ल्क़ान लिखता है कि अब्दुल मलिक बड़ा ज़ालिम और सफ़्फ़ाक था और ऐसे ही उसके गवरनर , हज्जाज ईराक़ में , मेहरबान ख़ुरासान में , हश्शाम इब्ने इस्माईल हिजाज़ और मग़रेबी अरब में और उसका बेटा अब्दुल्लाह मिस्त्र में , हस्सान बिन नोमान मग़रिब में , हज्जाज का भाई मोहम्मद बिन यूसुफ़ यमन में , मोहम्मद बिन मरवान जज़ीरे में , यह सब के सब ज़ालिम और सफ़्फ़ाक थे। और मसूदी लिखता है कि बे परवाही से ख़ून बहाने में अब्दुल मलिक के आमिल इसी के नक़्शे क़दम पर चलते थे मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि यह कंजूस , बे रहम , सफ़्फ़ाक , वायदा खि़लाफ़ , दग़ा बाज़ बे ईमान था। यह मतलब बरारी के लिये सब कुछ किया करता था। अख़तल इसके दरबार का मशहूर शायर और ज़हरी मशहूर मोहद्दिस था जिसने सब से अव्वल हदीस की किताब लिखी।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 42 )

ज़हरी का असल नाम इमाम अबू बकर मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अबीद उल्ला इब्ने शहाब ज़हरी मदनी शामी था। यह ताबई फ़क़ीह और मोहद्दिस था। 51 हिजरी में पैदा हो कर 124 हिजरी में फ़ौत हुआ। मदीने के नामी मोहद्दिसों और फ़की़हो में था , अब्दुल मलक और हश्शाम ख़ुल्फ़ा बनी उमय्या की सोहबत में रहा। इमाम मालिक का उस्ताद और इल्मे हदीस का मदून था।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 5 पृष्ठ 79 पृष्ठ 19, 20 )

बहुत से उलमा ने लिखा है कि अब्दुल मलक बिन मरवान ने हुक्म दे दिया था कि अली इब्ने हुसैन (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के शाम पहुँचा दिया जाए। चुनांचे आप को जंजीरों में जकड़ कर मदीने से बाहर एक ख़ेमें में ठहरा दिया गया।

ज़हरी का बयान है कि मैं उन्हें रूख़सत करने के लिये उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। जब मेरी नज़र हथकड़ी और बेड़ियों पर पड़ी तो मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े और मैं अर्ज़ परदाज़ हुआ कि काश आपके बजाए लोहे के ज़ेवरात मैं पहन लेता और आप इससे बरी हो जाते। आपने फ़रमाया ज़हरी तुम मेरी हथकड़ियां , बेड़ी और मेरे तौक़े गरां बार को देख कर घबरा रहे हो सुनों ! मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 177 व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 422 हयातुल औलिया जिल्द 3 पृष्ठ 135 प्रकाशित मिस्त्र)

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई बा हवाला ज़हरी लिखते हैं कि इस वाक़ेए के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के पास गया मैंने कहा कि ‘‘ ऐ अमीर , लैयसा अली इब्नुल हुसैन हैस तज़न अन्दा मशगू़ल बे रब्बेही ’’ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पर किसी क़िस्म का कोई इल्ज़ाम नहीं है। वह तेरी हुकूमत के मामेलात से कोई दिलचस्पी नहीं रखते वह ख़ालिस अल्लाह वाले हैं। कि ज़हरी के तज़किरे ख़ुसूसी के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ने हज्जाज बिन यूसुफ़ को लिखा कि ‘‘ अन यजूतनेबा देमा बनी अब्दुल मुत्तलिब ’’ बनी हाशिम को सताने और उनके ख़ून बहाने से इज्तेनाब करें।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 119 )

अल्लामा शिबली लिखते हैं कि बादशाह ने हज्जाज को इज्तेनाब की वजह भी लिखी थी और वह यह थी कि बनी उमय्या के अकसर बादशाह उन्हें सताकर जल्द तबाह हो गए हैं।(नूरूल अबसार पृष्ठ 127 ) ग़रज़ अब्दुल मलिक के ज़माने में इस वाक़िये के बाद से औलादे अबु तालिब हज्जाज के हाथों से अमान में रही।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 141 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और बुनियादे काबा ए मोहतरम व नसबे हजरे असवद

71 हिजरी में अब्दुल मलिक बिन मरवान ने ईराक़ पर लशकर कशी कर के मसअब बिन ज़ुबैर को क़त्ल किया फिर 72 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ को एक अज़ीम लशकर के साथ अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को क़त्ल करने के लिये मक्के मोअज़्ज़मा रवाना किया।(अबुल फ़िदा) वहीं पहुँच कर हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर से जंग की इब्ने ज़ुबैर ने ज़बर दस्त मुक़ाबला किया और बहुत सी लड़ाईयां हुईं , आखि़र में इब्ने ज़ुबैर महसूर हो गए , और हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर को काबे से निकालने के लिये काबे पर संग बारी शुरू कर दी यही नहीं बल्कि उसे खुदवा डाला। इब्नु ज़ुबैर जमादिल आखि़र 73 हिजरी में क़त्ल हुआ।(तारीख़ इब्नुल वरदी) और हज्जाज जो ख़ाना ए काबा की बुनियाद तक ख़राब कर चुका था , इसकी तामीर की तरफ़ मुतवज्जे हुआ।

अल्लामा सद्दूक़ किताब एललुश शराए में लिखते हैं कि हज्जाज के हदमे काबा के मौक़े पर लोग उसकी मिट्टी तक उठा कर ले गए और काबा को इस तरह लूट लिया कि इसकी कोई पुरानी चीज़ बाक़ी न रही। फिर हज्जाज को ख़्याल पैदा हुआ कि इसकी तामीर करानी चाहिए। चुनान्चे उस ने तामीर का प्रोग्राम मुरत्तब कर लिया और काम शुरू करा दिया। काम की अभी बिल्कुल इब्तेदाई मंज़िल थी कि एक अज़दहा बरामद हो कर ऐसी जगह बैठ गया जिसके हटे बग़ैर काम आगे नहीं बढ़ सकता था। लोगों ने इस वाक़िए की इत्तेला हज्जाज को दी , हज्जाज घबरा उठा और लोगों को जमा कर के उन से मशविरा किया कि अब क्या करना चाहिए। जब लोग इसका हल निकालने से का़सिर रहे तो एक शख़्स ने खड़े हो कर कहा कि आज कर फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) यहां आए हुए हैं बेहतर होगा कि उन से दरयाफ़्त कराया जाए यह मसला उनके अलावा कोई हल नहीं कर सकता। चुनान्चे हज्जाज ने आपको ज़हमते तशरीफ़ आवरी दी। आपने फ़रमाया हज्जाज तूने ख़ाना ए काबा को अपनी मीरास समझ लिया। तूने तो बेनाए इब्राहीम (अ.स.) उखड़वा कर रास्ते में डलवा दिया। ‘‘ सुन ! तुझे ख़ुदा उस वक़्त तक काबे की तामीर में कामयाब न होने देगा जब तक तू काबे का लूटा हुआ सामान वापस न मंगाएगा। यह सुन कर ऐलान किया कि काबे से मुतअल्लिक़ जो शय भी किसी के पास हो वह जल्द अज़ जल्द वापस करें चुनान्चे लोगों ने पत्थर मिट्टी वग़ैरा जमा कर दी। जब सब कुछ जमा हो गया तो आप उस अज़दहे के क़रीब गए और वह हट कर एक तरफ़ हो गया। आपने उसकी बुनियाद इस्तेवार की और हज्जाज से फ़रमाया कि इसके ऊपर तामीर करो ‘‘ फ़ल ज़ालिक सार अल बैत मरतफ़अन ’’ फिर इसी बुनियाद पर ख़ाना ए काबा की तामीर बुलन्द हुई। किताब अल ख़राएज वल हराए में अल्लामा कुतब रावन्दी लिखते हैं कि जब तामीरे काबा उस मक़ाम तक पहुँची जिस जगह हजरे असवद नसब करना था यह दुशवारी पैदा हुई कि जब कोई आलिम , ज़ाहिद , क़ाजी़ उसे नस्ब करता था तो ‘‘ यताज़ल ज़लव यज़तरब वला यसतक़र ’’ हजरे असवद मुताज़लज़िल और मुज़तरिब रहता और अपने मुक़ाम पर ठहरता न था बिल आखि़र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बुलाए गए और आपने बिस्मिल्लाह कह कर उसे नसब कर दिया , यह देख कर लोगों ने अल्लाहो अकबर का नारा लगाया।(दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 437 ) उल्मा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज्जाज बिन यूसुफ़ ने यज़ीद बिन माविया ही की तरह ख़ाना ए काबा पर मिनज़नीक़ से पत्थर वग़ैरा फिकवाए थे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और अब्दुल मलिक बिन मरवान का हज

बादशाहे दुनिया अब्दुल मलिक बिन मरवान अपने अहदे हुकूमत में अपने पाये तख़्त से हज के लिये रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचा और बादशाहे दीन हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) भी मदीना ए मुनव्वरा से रवाना हो कर पहुँच गए। मनासिके हज के सिलसिले में दोनों का साथ हो गया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) आगे आगे चल रहे थे और बादशाह पीछे पीछे चल रहे था। अब्दुल मलिक को यह बात नागवार हुई और उसने आपसे कहा क्या मैंने आप के बाप को क़त्ल किया है जो आप मेरी तरफ़ मुतवज्जे नहीं होते ? आपने फ़रमाया कि जिसने मेरे बाप को क़त्ल किया है उसने अपनी दुनिया व आख़ेरत ख़राब कर ली ह ,ै क्या तू भी यही हौसला रखता है ? उसने कहा नहीं। मेरा मतलब यह है कि आप मेरे पास आयें ताकि मैं आपसे कुछ माली सुलूक करूँ। आपने इरशाद फ़रमाया , मुझे तेरे माले दुनिया की ज़रूरत नहीं है , मुझे देने वाला ख़ुदा है। यह कह कर आपने उसी जगह ज़मीन पर रिदाए मुबारक डाल दी और काबे की तरफ़ इशारा कर के कहा , मेरे मालिक इसे भर दे। इमाम (अ.स.) की ज़बान से अल्फ़ाज़ का निकलना था कि रिदाए मुबारक मोतियों से भर गई। आपने उसे राहे ख़ुदा में दे दिया।(दमए साकेबा , जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 23 )

बद किरदार और रिया कार हाजियों की शक्ल

इमामुल हदीस ज़हरी का बयान है कि मैं हज के मौक़े पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास मक़ामे अराफ़ात में खड़ा हाजियों को देख रहा था। दफ़तन मेरे मुहं से निकला कि मौला कितने लाख हाजी हैं और कितना ज़बरदस्त शोर मचा हुआ है। हज़रत ने फ़रमाया कि मेरे क़रीब आओ। जब मैं बिल्कुल नज़ीद हुआ तो आपने मेरे चेहरे पर हाथ फेर कर फ़रमाया , ‘‘ अब देखो ’’ जब मैं ने फिर नज़र की तो मुझे लाखों आदमियों में दस हज़ार के एक के तनासुब से इन्सान दिखाई दिये बाक़ी सब के सब बन्दर , कुत्ते , सुअर , भेड़िये और इसी तरह के जानवर नज़र आये। यह देख कर मैं हैरान रह गया। आपने फ़रमाया कि सुनो ! जो सही नियत और सही अक़ीदे के बग़ैर हज करते हैं उनका यही हश्र होता है। ऐ ज़हरी नेक नियत और हमारी मोवद्दत व मोहब्बत के बग़ैर सारे आमाल बेकार हैं।(तफ़सीरे इमाम हसन असकरी व दमए साकेबा , जिल्द 2 पृष्ठ 438 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और एक मर्दे बल्ख़ी

अल्लामा शेख़ तरही और अल्लामा मजलिसी रक़म तराज़ हैं कि बलख़ का रहने वाला एक दोस्त दारे आले मोहम्मद (अ.स.) हमेशा हज किया करता था और जब हज को आता था तो मदीने जा कर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़ियारत का शरफ़ भी हासिल किया करता था। एक मरतबा हज से लौटा तो उसकी बीवी ने कहा कि तुम हमेशा अपने इमाम की खि़दमत मे तोहफ़े ले जाते हो मगर उन्होंने आज तक तुम को कुछ न दिया। उसने कहा तौबा करो तुम्हारे लिये यह कहना सज़ावार नहीं है , वह इमामे ज़माना हैं। वह मालिके दीनो दुनियां हैं। वह फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हैं। वह तुम्हारी बातें सुन रहे हैं। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गई। अगले साल जब वह हज से फ़राग़त कर के इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की खि़दमत में पहुँचा और सलाम व दस्त बोसी के बाद आपके पास बैठा तो आप ने खाना तलब फ़रमाया। हुक्मे इमाम (अ.स.) से मजबूर हो कर उसने इमाम (अ.स.) के साथ खाना खाया। जब दोनों खाना खा चुके तो इमाम के दोस्त बलख़ी ने हाथ धुलाना चाहा। आपने फ़रमाया तू महमान है , यह तेरा काम नहीं। उसने इसरार किया और हाथ धुलाना शुरू कर दिया। जब तश्त भर गया तो आपने पूछा यह क्या है। उसने कहा ‘‘ पानी ’’ हज़रत ने फ़रमाया नहीं ‘‘ याक़ूते अहमर ’’ हैं। जब उसने ग़ौर से देखा तो वह तश्त ‘‘ याकूते सुर्ख ’’ से भरा हुआ था। इसी तरह ‘‘ ज़मुर्रदे सब्ज़ ’’ और ‘‘ दुरे बैज़ ’’ से भर गया। यानी तीन बार ऐसा ही हुआ यह देख कर वह हैरान हो गया और आपके हाथों का बोसा देने लगा। हज़रत ने फ़रमाया इसे लेते जाओ और अपनी बीवी को दे देना और कहना कि हमारे पास और कुछ माले दुनिया से नहीं है। वह शख़्स शरमिन्दा हो कर बोला , मौला आपको हमारी बीवी की बात किसने बता दी ? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया हमें सब मालूम हो जाता है। उसके बाद वह इमाम (अ.स.) से रूख़सत हो कर बीवी के पास पहुँचा। जवाहेरात दे कर सारा वाक़ेया बयान किया। बीवी ने कहा आइन्दा साल मैं भी चल कर ज़ियारत करूँगी। जब दूसरे साल बीवी हमराह रवाना हुई , तो रास्ते में इन्तेक़ाल कर गई। वह शख़्स हज़रत की खि़दमत में रोता पीटता हाज़िर हुआ। हज़रत ने दो रकअत नमाज़ पढ़ कर फ़रमाया , जाओ तुम्हारी बीवी भी ज़िन्दा हो गई है। उस ने क़याम गाह पर लौट कर बीवी को ज़िन्दा पाया। जब वह हाज़िरे खि़दमत हुई तो कहने लगी , ख़ुदा की क़सम इन्होंने मुझे मलकुल मौत से कह कर ज़िन्दा किया था और उस से कहा था कि यह मेरी ज़ायरा है। मैंने इसकी उम्र तीस साल बढ़वा ली है।

(अल मुन्तखि़ब वल बिहार)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अख़लाख की दुनियां मे

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) चूंकि फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) थे इस लिये आप में सीरते मोहम्मदिया का होना लाज़मी था। अल्लामा मोहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपको बुरा भला कहा , आपने फ़रमाया , भाई मैंने तो तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा अगर कोई हाजत रखता हो तो बता ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर आपके अख़लाख का कलमा पढ़ने लगा।

(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 267 )

अल्लामा हजरे मक्की लिखते हैं , एक शख़्स ने आपकी बुराई आपके मुंह पर की , आपने उस से बे तवज्जीही बरती। उसने मुख़ातिब कर के कहा मैं तुम को कह रह हूँ। आप ने फ़रमाया मैं हुक्मे ख़ुदा ‘‘ वा अर्ज़ अनालन जाहेलीन ’’ जाहिलों की बात की परवाह न करो , पर अमल कर रहा हूँ।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 )

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आप से आ कर कहा कि फ़लां शख़्स आपकी बुराई कर रहा था। आपने फ़रमाया कि मुझे उसके पास ले चलो , जब वहां पहुँचे , तो उस से फ़रमाया भाई जो बात तूने मेरे लिये कही है , अगर मैंने ऐसा किया हो तो खु़दा मुझे बख़्शे और अगर नहीं किया तो ख़ुदा तुझे बख़्शे कि तूने बोहतान लगाया।

एक रवायत में है कि आप मस्जिद से निकल कर चले तो एक शख़्श आपको सख़्त अल्फ़ाज़ में गालियां देने लगा। आपने फ़रमाया कि अगर कोई हाजत रखता है तो मैं पूरी करूँ , ‘‘ अच्छा ले ’’ यह पांच हज़ार दिरहम। वह शरमिन्दा हो गया।

एक रवायत में है कि एक शख़्स ने आप पर बोहतान बांधा। आपने फ़रमाया मेरे और जहन्नम के दरमियान एक खाई है अगर मैंने उसे तय कर लिया तो परवाह नहीं , जो जी चाहे कहो और अगर उसे पार न कर सकूं तो मैं इस से ज़्यादा बुराई का मुस्तहक़ हूँ जो तुमने की।(नूरूल अबसार पृष्ठ 126- 127 )

अल्लामा दमीरी लिखते हैं कि एक शामी हज़रत अली (अ.स.) को गालियां दे रहा था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने फ़रमाया , भाई तुम मुसाफ़िर मालूम होते हो , अच्छा मेरे साथ चलो , मेरे यहां क़याम करो और जो हाजत रखते हो बताओ ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर चला गया।(हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 121 )

अल्लामा तबरिसी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपसे बयान किया कि फ़लां शख़्स आपको गुमराह और बिदअती कहता है। आपने फ़रमाया अफ़सोस है कि तुम ने उसकी हम नशीनी और दोस्ती का कोई ख़्याल न रखा और उसकी बुराई मुझसे बयान कर दी। देखो यह ग़ीबत है अब ऐसा कभी न करना।(एहतेजाज पृष्ठ 304 )

जब कोई सायल आपके पास आता तो ख़ुश व मसरूर हो जाते थे और फ़रमाते थे कि ख़ुदा तेरा भला करे कि तू मेरा ज़ादे राहे आख़ेरत उठाने के लिये आ गया है।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 263 )

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) सहीफ़ा ए कामेला में इरशाद फ़रमाते हंै , ख़ुदा वन्दा मेरा कोई दरजा न बढ़ा , मगर यह कि इतना ही खुद मेरे नज़दीक मुझको घटा और मेरे लिये कोई ज़ाहिरी इज़्ज़त न पैदा कर मगर यह कि ख़ुद मेरे नज़दीक इतनी ही बातनी लज़्ज़त पैदा कर दे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला

किताब सहीफ़ा ए कामेला आपकी दुआओं का मजमूआ है। इसमें बेशुमार उलूम व फ़ुनून के जौहर मौजूद हैं। यह पहली सदी की तसनीफ़ है।(मआलिम अल उलेमा पृष्ठ 1 तबआ ईरान) इसे उलेमा ए इस्लाम ने ज़ुबूरे आले मोहम्मद (स अ व व ) और इन्जीले अहलेबैत (अ.स.) कहा है।(नेयाबुल मोअद्दता पृष्ठ 499 व फ़ेहरिस्त कुतुब ख़ाना ए तेहरान पृष्ठ 36 ) और उसकी फ़साहत व बलाग़त मआनी को देख कर उसे कुतुबे समाविया और सहफ़े लौहिया व अरशिया का दरजा दिया गया है।(रियाज़ुल सालीक़ैन पृष्ठ 1 ) इसकी चालीस हज़ार शरहें हैं जिनमें मेरे नज़दीक रियाज़ुल सालीकैन को फ़ौकी़यत हासिल है।

हश्शाम बिन अब्दुल मलिक और क़सीदा ए फ़रज़दक़

अब्दुल मलिक इब्ने मरवान का सन् 105 में ख़लीफ़ा होने वाला बेटा हश्शाम बिन अब्दुल मलिक अपने बा पके अहदे हुकूमत में एक मरतबा हज्जे बैतुल्लाह के लिये मक्के मोअज़्ज़मा गया। मनासिके हज बजा लाने के सिलसिले में तवाफ़ से फ़राग़त के बाद हजरे असवद का बोसा देने आगे बढ़ा और पूरी कोशिश के बवजूद हाजियों की कसरत की वजह से हजरे असवद के पास न पहुँच सका। आखि़र कार एक कुर्सी पर बैठ कर मजमे के छटने का इन्तेज़ार करने लगा। हश्शाम के गिर्द उसके मानने वालों का अम्बोह कसीर था। यह बैठा हुआ इन्तेज़ार ही कर रहा था कि नागाह एक तरफ़ से फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बरामद हुए। आपने तवाफ़ के बाद ज्यों ही हजरे असवद की तरफ़ रूख़ किया मजमा फटना लगा , हाजी हटने लगे , रास्ता साफ़ हो गया और आप क़रीब पहुँच कर तक़बील फ़रमाने लगे। हश्शाम जो कुर्सी पर बैठा हुआ था हालात का मुतालेआ कर रहा था जल भुन कर ख़ाक हो गया और उसके साथी बहरे हैरत में ग़र्क़ हो गये। एक मुंह चढ़े ने हश्शाम से पूछा , हुज़ूर यह कौन हैं ? हश्शाम ने यह समझते हुए कि अगर तअर्रूफ़ करा दिया और इन्हें बता दिया कि यह ख़ानदाने रिसालत के चश्मों चिराग़ हैं तो कहीं मेरे मानने वालों की निगाह मेरी तरफ़ से फिर कर उनकी तरफ़ मुड़ न जाये। तजाहुले आरोफ़ाना के तौर पर कहने लगा , ‘‘ मआ अरफ़ा ’’ मैं नहीं पहचानता। यह सुन कर शायरे दरबार जनाब फ़रज़दक़ से न रहा गया और उन्होंने शामियों की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा , ‘‘ अना अराफ़ा ’’ इसे मैं जानता हूँ कि यह कौन हैं , ‘‘ मुझ से सुनो ’’ यह कह कर उन्होंने इरतेजालन और फ़िल बदीहा एक अज़ीम उश्शान क़सीदा पढ़ना शुरू कर दिया जिसका पहला शेर यह है तरजुमा यह वह शख़्स है जिस को खाना ए काबा हिल्लो हरम सब पहचानते हैं और उसके क़दम रखने की जगह , क़दम की चाप को ज़मीन बतहा भी महसूस कर लेती है। मैं इस रदीफ़ में इस क़सीदे का उर्दू मनजूम तरजुमा दर्ज ज़ैल करता हूँ।

यह वह है जानता है मक्का जिसके नक़्शे क़दम

ख़ुदा का घर भी है , आगाह और हिल्लो हरम

जो बेहतरीन ख़लाएक़ है उस का है फ़रज़न्द

है पाक व ज़ाहिद व पाकीज़ा व बुलन्द हशम

कु़रैश लिखते हैं जब , इसे तू कहते हैं

बुर्ज़ुगियों पे हुई इसकी इन्तेहाए करम

इस क़सीदे के तमाम नाक़ेलीन ने पहला शेर यह लिखा है।

हाज़ल लज़ी ताअररूफ अल बतहा व तातहू

वाअल बैतया अरफ़हू वाअलहलव अलहरम

लेकिन यह मालूम होने के बाद कि क़सीदे के लिये मतला ज़रूरी होता है। उसे पहला शेर क़रार नहीं दिया जा सकता , अल बत्ता यह मुम्किन है कि यह समझा जाए कि शायर ने मौक़े के लेहाज़ से अपने क़सीदे की इस वक़्त पढ़ने की इब्तेदा इसी शेर से की थी और मुवर्रेख़ीन ने इसी शेर को पहला शेर क़रार दे दिया। अल्लामा अब्दुल्लाह इब्ने मोहम्मद इब्ने यूसुफ़ ज़ाज़नी अल मौतूफ़ी 231 हिजरी शरहे सबहे मुअल्लेक़ात में लिखते हैं कि इस क़सीदे का पहला शेर यह है।

या साएली एन हल अलजदू व अल करम

अन्दी बयान अज़ा , तलाबहा क़दम

क़सीदाऐ फ़रज़दक़ के मुतालिक़ एक ग़लत फ़हमी और उसका इज़ाला

इमामे अहले सुन्नत मोहम्मद अब्दुल क़ादिर सईद अलराफ़ई ने 1927 ई0 में शाएर अरब अबू अलतमाम हबीब अदस बिन हारस ताई आमली शामी बग़दाद के कीवान ‘‘ हमासह ’’ के मिस्र प्रकाशित कराया है। इसकी जिल्द 2 पृष्ठ 284 पर इस क़सीदे के इब्तेदाई 6 अश्आर को नक़ल कर के लिखा है कि यह अश्आर ‘‘ हज़ीन अल कनानी ’’ के हैं। इसने उन्हें अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान की मदह में कहे थे , साथ ही साथ यह भी लिखा है ‘‘व अलनास यरोदन हाज़ह अल बयात अलप फ़रज़ोक़ यमदह बहा अली इबनुल हुसैन बिन अबी तालिब व हैग़लतमन रदहाफ़ह लान हाज़ा लेस ममायदहा बेही मिस्ल अली बिन अल हुसैन व लहमन अल फ़ज़ल अलबा हरमालैसा ला हद फ़ी वक़तहू ’’ और लोग जो इन अबयात के मुताअल्लिक़ यह रवायत करते हैं कि यह फ़रज़दक़ के हैं और उसने उन्हें मदहे ‘‘ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ‘‘ में कहा है ग़लत है क्यों कि यह अशआर उनके शायाने शान नहीं हैं वह तो अपने वक़्त के सब से बड़े साहेबे फ़ज़ीलत थे। मैं कहता हूँ कि यह अशआर फ़रज़दक ही के हैं क्यों कि इसे बेशुमार फ़हूल उलमा व मुवर्रेख़ीन ने उन्हीं के अश्आर तसलीम किए हैं जिनमें इमाम अल मोहक़ेक़ीन अल्लामा शेख़ मुफ़ीद अलै हिर रहमा मौतूफ़ी 413 हिजरी व इमाम ज़दज़नी अल मौतूफ़ी 431 हिजरी व अल्लामा इब्ने हजर मक्की व हाफ़िज़ अबू नईम और साहेबे मज़ा फिल अदब शामिल हैं। मुलाहेज़ा हो इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 399 प्रकाशित ईरान 1303 इन उलमा के तसलीम करने के बाद किसी फ़रदे वाहिद के इनकार से कोई असर नहीं पड़ा।

पहुँच गया है यह इज़्ज़त की उस बुलन्दी पर

जहां पर जा सके इस्लाम के अरब व अजम

यह चाहता है कि ले हाथों हाथ रूकने हतीम

जो चूमने हजरे असवद , आए निज़्दे हरम

छड़ी है हाथ में , जिसके महकती है ख़ुशबू

व्ह हाथ जो नहीं इज़्ज़त में और शान में कम

नज़र झुकाए हैं सब यह हया है रोब से लोग

जो मुस्कुराए तो आजाए , बात करने का दम

जबीं के नूरे हिदायत से , कुफ्ऱ घटता है यूँ

ज़ियाए महर से तारीकियाँ , हों जैसे कम

फ़ज़ीलत और नबीयो की इसके जद से है पस्त

तमाम उम्मतें , उम्मत से इसके रूतबे में कम

यह वह दरख़्त है जिसकी है जड़ खुदा का रसूल

इसी से फ़ितरत व आदात भी हैं पाक बहम

यह फ़ात्मा का है , फ़रज़न्द ‘‘ तू नहीं वाक़िफ़ ’’

इसी के जद से नबियों का बढ़ सका न क़दम

अज़ल से लिखी है , हक़ ने शराफ़तों अज़्ज़त

चला इसी के लिये लौह पर खु़दा का क़लम

जो कोई ग़ैज़ दिला दे , तो शेर से बढ़ जाए

सितम करे कोई इस पर तो मौत का नहीं ग़म

ज़र्र न होगा उसे तू , बने हज़ार अन्जान

इसे तो जानते हैं सब अरब तमाम अजम

बरसते हब्र हैं हाथ इसके जिनका फ़ैज़ है आम

वह बरसा करते हैं , यकसाँ कभी नहीं हुए कम

वह नरम है , कि डर जल्द बाज़ियों का नहीं

है हुसने ख़ुल्क , इसी की तो ज़ीनते बाहम

मुसिबतों में क़बीलों के , बार उठाता है

हैं जितने खूब शमाएल , हैं इतने खूब करम

कभी न उसने कहा ‘‘ ला ’’ बजुज़ तशहुद के

अगर न होता तशहुद तो होता ‘‘ ला ’’ भी नअम

खि़लाफ़े वादा नहीं करता , यह मुबारक ज़ात

है मेज़ बान भी , अक़ल व इरादह भी है बहम

तमाम ख़लक़ पे एहसाने आम है इसका

इसी से उठ गया अफ़लासो रंजो फ़क्रा क़दम

मोहब्बत इसकी है ‘‘ दीन ’’ और अदावत इसकी है कुफ़्र

है क़ुरबा इसका , निजातो पनाह का आलम

शुमार ज़ाहिदों का हो , तो पेशवा यहा हो

कि बेहतरीन ख़लाएक़ , इसीको कहते है हम

पहुँचना इसकी सख़ावत , ग़ैर मुम्किन है

सख़ी हों लाख न पांएगे इसकी गरदे क़दम

जो क़हत की हो यह अबरे बारां हैं

जो भड़के जंग की आतिश यह शेर से नहीं कम

न मुफ़लिसी का असर है , फ़राग़ दस्ती पर

कि इसको ज़र की ख़ुशी है न बेज़री का अलम

इसी की चाह से जाती है आफ़त और बदी

इसी की वजह से आती है नेकी और करम

इसी का ज़िक्र मुक़द्दम है बाद ज़िक्रे खु़दा

इसी के नाम से हर बात ख़त्म करते हैं हम

मज़म्मत आने से इसके क़रीब भागती है

करीमे ख़लक़ हैं होती नहीं सख़ावत कम

ख़ुदा बन्दों में है कौन ऐसा जिसका सर

इसी घराने के एहसान से हुआ न हो ख़म

ख़ुदा को जानता है जो इसे भी जानता है

इसी के घर से मिला उम्मतों को दीन बहम

इस क़सीदे को सुन कर हश्शाम ग़ैज़ो ग़ज़ब से पेचो ताब खाने लगा और उसका नाम दरबारी शोअरा की फ़ेहरीस्त से निकाल कर उसे बमुक़ाम असफ़ान क़ैद कर दिया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जब इसकी क़ैद का हाल मालूम हुआ तो आपने बारह हज़ार दिरहम उसके पास भेजा। फ़रज़दक़ ने यह कह कर वापिस कर दिया कि मैंने दुनियावी उजरत के लिये क़सीदा नहीं कहा है इस से मैं क़सदे सवाब का इरादा रखता हूँ। हज़रत ने फ़रमाया कि हम आले मोहम्मद (अ.स.) का यह उसूल है कि जो चीज़ दे देते हैं फिर उसे वापस नहीं लेते। तुम इसे ले लो। खुदा तुम्हारी नियत का अजरे अज़ीम देगा , वह सब कुछ जानता है। ‘‘ फ़ा क़बलहल फ़रज़दक़ ’’ फ़रज़दक़ ने उसे क़ुबूल कर लिया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 226, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 403, मजालिसे अदब , जिल्द 6 पृष्ठ 254, वसीलतुन नजात पृष्ठ 320, तारीख़े अहमदी पृष्ठ 328, तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 369, हुलयतुल अवलिया हाफ़िज़ अबू नईम रिसाला हक़ाएक लख़नऊ)

अल्लामा इब्ने हसन जारचवी लिखते हैं कि ‘‘ हश्शाम उनको एक हज़ार दीनार सालाना दिया करता था जब उसने यह रक़म बन्द कर दी तो यह बहुत परेशान हुए। माविया बिने अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़रे तय्यार ने कहा , फ़रज़दक़ घबराते क्यों हो , कितने साल ज़िन्दा रहने की उम्मीद है ? उन्होंने कहा यही बीस साल। फ़रमाया कि यह बीस हज़ार दीनार ले लो और हश्शाम का ख़्याल छोड़ दो। उन्होंने कहा मुझे अबू मोहम्मद अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ने भी रक़म इनायत फ़रमाने का इरादा किया था मगर मैंने क़बूल नहीं किया। मैं दुनिया का नहीं आख़ेरत के अज्र का उम्मीदवार हूँ।

बेहारूल अनवार में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने चालीस दीनार अता फ़रमाये और हुआ भी ऐसी ही कि फ़रज़दक़ उसके बाद चालीस साल और ज़िन्दा रहे।(तज़किरा मोहम्मद (स. .अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) जिल्द 2 पृष्ठ 190)

फ़रज़न्दे रसूल (स अ . व . व . ) इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और मुख़्तार आले मोहम्मद

अब्दुल मलिक बिन मरवान के अहदे खि़लाफ़त में हज़रते मुख़्तार बिन अबू उबैदा सक़फी क़ातेलाने हुसैन से बदला लेने के लिये मैदान में निकल आये।

अल्लामा मसूदी लिखते हैं कि इस मक़सद में कामयाबी हासिल करने के लिये उन्होंने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की बैअत करनी चाही मगर आपने बैअत लेने से इन्कार कर दिया।(मरूजुल ज़हब जिल्द 3 पृष्ठ 155 ) अल्लामा नुरूल्लाह शूस्तरी शहीदे सालिस तहरीर फ़रमाते हैं कि अल्लामा हिल्ली ने मुख़्तार को मक़बूल लोगों में शुमार किया है। इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ने उन पर नुक़ता चीनी करने से रोका है और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने उनके लिये रहमत की दुआ की है।(मजालेसुल मोमेनीन जिल्द 346 )

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने उनकी कार गुज़ारी के लिससिले में ख़ुदा का शुक्र अदा किया है।

(जिलाउल उयून)

आप कूफ़े के रहने वाले थे। जनाबे मुस्लिम इब्ने अक़ील को आप ही ने सब से पहले मेहमान रखा था। आपको इब्ने ज़ियाद ने आले मोहम्मद (अ.स.) से मोहब्बत के जुर्म में कै़द कर दिया था। वहां से छूटने के बाद आप ने ख़ूने हुसैन (अ.स.) का बदला लेने का अज़मे बिल जज़म कर लिया था। चुनान्चे 26 हिजरी में एक बड़ी जमाअत के साथ बरामद हो कर कूफ़े के हाकिम बन बैठे और आपने किताब , सुन्नत और इन्तेक़ामे ख़ूने हुसैन (अ.स.) पर बैअत ले कर बड़ी मुस्तैदी से इन्तेक़ाम लेना शुरू कर दिया। शिम्र को क़त्ल कर दिया , ख़ूली को क़त्ल कर के आग में जला दिया , उमर बिन सअद और उसके बेटे हफ़स को क़त्ल किया।(तारीख़ अबुल फ़िदा)

मुल्ला मुबीन लिखते हैं कि शिम्र को क़त्ल कर के उसकी लाश को उसी तरह घोड़ों की टापों से पामाल कर दिया जिस तरह उसने इमाम हुसैन (अ.स.) की लाशे मुबारक को पामाल किया था।(वसीलतुन नजात) 67 हिजरी में इब्ने ज़ियाद को गिरफ़्तार करने के लिये इब्राहीम इब्ने मालिके अशतर की सरकरदगी में एक बड़ा लशकर मूसल भेजा जहां का वह उस वक़्त गर्वनर था। शदीद जंग के बाद इब्राहीम ने उसे क़त्ल किया और उसका सर मुख़्तार के पास भेज कर बाक़ी बदन नज़रे आतश कर दिया।(अबुल फ़िदा) फिर मुख़्तार के हुक्म से कै़स इब्ने अशअस की गरदन मारी गई। बजदल इब्ने सलीम (जिसने इमाम हुसैन (अ.स.) की उंगली एक अंगूठी के लिये काटी थी) के हाथ पाओं काटे गये। फिर हकीम इब्ने तुफ़ैल पर तीर बारानी की गई। उसने अलमदारे करबला हज़रत अब्बास (अ.स.) को शहीद किया था। इसी के साथ यज़ीद इब्ने सालिक , इमरान बिन ख़ालिद , अब्दुल्लाह बिजली , अब्दुल्लाह इब्ने क़ैस ज़रआ इब्ने शरीक , सबीह शामी और सनान बिन अनस तलवार के घाट उतारे गये।(हबीब उल सैर) उमर बिन हज्जाज भी गिरफ़्तार हो कर क़त्ल हुआ।(रौज़तुल सफ़ा)

मिन्हाल बिन उमर का कहना है कि मैं इसी दौरान में हज के लिये गया तो हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से मुलाक़ात हुई। आपने पूछा हुरमुला बिन काहिल असदी का क्या हश्र हुआ ? मैंने कहा वह तो सालिम था। आपने आसमान की तरफ़ हाथ उठा कर फ़रमाया , ख़ुदाया उसे आतशे तेग़ का मज़ा चखा। जब मैं कूफ़े वापस आया और मुख़्तार से मिला और उन से वाक़ेया बयान किया तो वह इमाम (अ.स.) की बद दुआ की तकमील पर सजदा ए शुक्र अदा करने लगे।ग़र्ज़ कि आपने बेशुमार क़ातेलाने हुसैन (अ.स.) को तलवार के घाट उतार दिया।

क़ाज़ी मेबज़ी ने शरहे दीवाने मुतर्ज़वी में लिखा है कि मुख़्तारे आले मोहम्मद(स. अ.) के हाथों से क़त्ल होने वालों की तादाद अस्सी हज़ार तीन सौ तीन (80,303) थी।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जनाबे मुख़्तार के सामने जिस वक़्त इब्ने ज़ियाद मलऊन का सर रखा गया था तो एक सांप आ कर उसके मुंह में घुस कर नाक से निकलने लगा। इसी तरह देर तक आता जाता रहा। वह यह भी लिखते हैं कि हज़रते मुख़्तार ने इब्ने ज़ियाद का सर हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की खि़दमत में मदीना ए मुनव्वरा भेज दिया। जिस वक़्त वह सर पहुँचा तो आपने शुक्रे ख़ुदा अदा किया और मुख़्तार को दुआएं दीं। मुवर्रेखी़न का यह भी बयान है कि उसी वक़्त औरतों ने बालों में कंघी करनी और सर में तेल डालना और आंखों में सुरमा लगाना शुरू किया जो वाक़ेए करबला के बाद से इन चीज़ों को छोड़े हुये थीं।(अक़दे फ़रीद जिल्द 2 पृष्ठ 251, नुरूल अबसार पृष्ठ 124, मजालिसे मोमेनीन , बेहारूल अनवार) ग़र्ज़ कि जनाबे मुख़्तार ने इन्तेक़ामे ख़ूने शोहदा लेने के सिलसिले में कारहाय नुमायां किये। बिल आखि़र 14 रमज़ान 67 हिजरी को आप कूफ़े के दारूल इमाराह के बाहर शहीद कर दीये गये। ‘‘ इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’(तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हो किताब मुख़्तार आले मोहम्मद (स. अ.) मोअल्लेफ़ा हक़ीर मतबूआ लाहौर)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की निगाह में

86 हिजरी में अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के इन्तेक़ाल के बाद उसका बेटा वलीद बिन अब्दुल मलिक ख़लीफ़ा बनाया गया। यह हज्जाज बिन यूसुफ़ की तरह निहायत ज़ालिमों जाबिर था। इसके अहदे ज़ुल्मत में उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ जो कि चचा ज़ाद भाई था , हिजाज़ का गर्वनर मुक़र्रर हुआ। यह बड़ा मुनसिफ़ मिजाज़ और फ़य्याज़ था। उसी के अहदे गर्वनरी का एक वाक़ेया यह है कि 87 हिजरी में सरवरे कायनात के रौज़े की एक दीवार गिर गई थी। जब उसकी मरम्मत का सवाल पैदा हुआ और उसकी ज़रूरत महसूस हुई कि किसी मुक़द्दस हस्ती के हाथ से इसकी इब्तेदा की जाय तो उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ही को सब पर तरजीह दी।(वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 1 पृष्ठ 386 ) इसी ने फ़िदक वापस किया था और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) पर से तबर्रा की वह बिदअत जो माविया ने जारी की थी बन्द कराई थी।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की शहादत

आप अगर चे गोशा नशीनी की ज़िन्दगी बसर फ़रमा रहे थे लेकिन आप के रूहानी इक़तेदार की वजह से बादशाहे वक़्त वलीद बिन अब्दुल मलिक ने आपको ज़हर दिया और आप बतारीख़ 25 मोहर्रमुल हराम 95 हिजरी मुताबिक़ 714 ई0 को दरजा ए शहादत पर फ़ाएज़ हो गये। इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने नमाज़े जनाज़े पढ़ाई और आप मदीने के जन्नतुल बक़ी में दफ़्न कर दिये गये।

अल्लामा शिब्लन्जी , अल्लामा इब्ने सबाग़ मालेकी , अल्लामा सिब्ते इब्ने जोज़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ व अनल लज़ी समआ अल वलीद बिन अब्दुल मलिक ’’ जिसने आपको ज़हर दे कर शहीद किया वह वलीद बिन अब्दुल मलिक ख़लीफ़ा ए वक़्त है।(नूरूल अबसार पृष्ठ 128, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120, फ़ुसूल अल महमा , तज़किराए सिब्ते जौज़ी , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 444, मनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 121 ) मुल्ला जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि आपकी शहादीन के बाद आपका नाक़ा क़ब्र पार नाला व फ़रियाद करता हुआ तीन रोज़ में मर गया।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 179 ) शहादत के वक़्त आपकी उम्र 57 साल की थी।

आपकी औलाद

उलेमा ए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि आपने ग्यारह लड़के और चार लड़कियां छोड़ीं।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 444 )

अल्लामा शेख़ मुफ़ीद फ़रमाते हैं कि उन 15 अवलादों के नाम यह हैं।

1. हज़रत इमाम मोहम्मद (अ.स.) आपकी वालेदा हज़रत इमाम हसन (अ.स.) की बेटी अम्मे अब्दुल्लाह जनाबे फ़ात्मा थीं।

2. अब्दुल्लाह ,

3. हसन ,

4. ज़ैद ,

5. उमर ,

6. हुसैन ,

7. अब्दुल रहमान ,

8. सुलैमान ,

9. अली ,

10. मोहम्मद असग़र ,

11. हुसैन असग़र

12. ख़दीजा ,

13. फ़ात्मा ,

14. आलीया

15. उम्मे कुल्सूम।

(इरशाद मुफ़ीद फ़ारसी पृष्ठ 401 )

जनाबे ज़ैद शहीद

आपकी औलाद में हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) के बाद सब से नुमाया हैसियत जनाबे ज़ैद शहीद की है। आप 80 हिजरी में पैदा हुये। 121 हिजरी में हश्शाम बिन अब्दुल मलिक से तंग आ कर आप अपने हम नवा तलाश करने लगे और यकुम सफ़र 122 हिजरी को चालीस हज़ार (40000) कूफ़ीयों समैत मैदान में निकल आये। ऐन मौक़ा ए जंग में कूफ़ीयों ने साथ छोड़ दिया। बाज़ मआसरीन लिखते हैं कि कूफ़ीयों के साथ छोड़ने का सबब इमाम अबू हनीफ़ा की नकस बैअत है क्यों कि उन्होंने पहले जनाबे ज़ैद की बैअत की थी फिर जब हश्शाम ने आपको दरबार में बुला कर इमामे आज़म का खि़ताब दिया तो यह हुकूमत के साथ हो गये और उन्होंने ज़ैद की बैअत तोड़ दी। इसी वजह से उनके तमाम मानने वाले उन्हें छोड़ कर अलग हो गये। उस वक़्त आपने फ़रमाया ‘‘ रफ़ज़त मूनी ’’ ऐ कूफी़यों ! तुम ने मेरा साथ छोड़ दिया। इसी फ़रमाने की वजह से कूफ़ीयों को राफ़ज़ी कहा जाता है। जहां उस वक़्त चंद अफ़राद के सिवा कोई भी शिया न था सब हज़रते उस्मान और अमीरे माविया के मानने वाले थे। ग़रज़ के दौराने जंग में आपकी पेशानी पर एक तीर लगा जिसकी वजह से आप ज़मीन पर तशरीफ़ लाये यह देख कर आपका एक ख़ादिम आगे बढ़ा और उसने आपको उठा कर एक मकान में पहुँचा दिया। ज़ख़्म कारी था , काफ़ी इलाज के बवजूद जां बर न हो सके फिर आपके ख़ादिमों ने ख़ुफ़िया तौर पर आप को दफ़्न कर दिया और क़ब्र पर से पानी गुज़ार दिया ताकि क़ब्र का पता न चल सके लेकिन दुश्मानों ने सुराग लगा कर लाश क़ब्र से निकाल ली और सर काट कर हश्शाम के पास भेजने के बाद आपके बदन को सूली पर लटका दिया। चार साल तक यह जिस्म सूली पर लटका रहा। ख़ुदा की क़ुदरत तो देखिये उसने मकड़ी को हुक्म दिया और उसने आपके औरतैन (पोशीदा मक़ामात) पर घना जाला तान दिया।(ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 357 व हयातुल हैवान) चार साल के बाद आपके जिस्म को नज़रे आतश कर के राख दरियाए फ़रात में बहा दी गई।(उमदतुल मतालिब पृष्ठ 248 )

शहादत के वक़्त आपकी उम्र 42 साल की थी। हज़रत ज़ैद शहीदे अज़ीम मनाक़िब व फ़ज़ाएल के मालिक थे। आपको ‘‘ हलीफ़ अल क़ुरआन ’’ कहा जाता था। आप ही की औलाद को ज़ैदी कहा जाता है और चूंकि आपका क़याम बा मक़ाम वासित था इस लिये बाज़ हज़रात अपने नाम के साथ ज़ैदी अल वास्ती लिखते हैं। तारीख़ इब्नुल वरदी में है कि 38 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ ने शहरे वासित की बुनियाद डाली थी। जनाबे ज़ैद के चार बेटे थे जिनमें जनाबे याहया बिन ज़ैद की शुजाअत के कारनामे तारीख़ के अवराख़ में सोने के हुुरूफ़ से लिखे जाने के क़ाबिल हैं। आप दादहियाल की तरफ़ से हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और नानिहाल की तरफ़ से जनाबे मोहम्मद बिन हनफ़िया की यादगार थे। आपकी वालेदा का नाम ‘‘ रेता ’’ था जो मोहम्मद बिन हनफ़िया की पोती थीं। नसले रसूल (स. अ.) में होने की वजह से आपको क़त्ल करने की कोशिश की गई। आपने जान के तहफ़्फ़ुज़ के लिये यादगार जंग की। बिल आखि़र 125 हिजरी में आप शहीद हो गये। फिर वलीद बिन यज़ीद बिन अब्दुल मलिक के हुक्म से आपका सर काटा गया और हाथ पाओं काटे गये। उसके बाद लाशे मुबारक सूली पर लटका दी गई फिर एक अरसे के बाद उसे उतार कर जलाया गया और हथौड़े से कूट कूट कर रेज़ा रेज़ा किया गया फिर एक बोरे में रख कर कशती के ज़रिये से एक एक मुठ्ठी राख दरियाए फ़रात की सतह पर छिड़क दी गई। इस तरह इस फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) के साथ ज़ुल्मे अज़ीम किया गया।

1. उन्होंने सलतनते हश्शाम में दावा ए खि़लाफ़त किया था बहुत से लोगों ने बैअत कर ली थी। तदाएन , बसरा , वास्ता , मूसल , ख़ुरासान , रै , जरजान के अलावा सिर्फ़ कूफ़े ही के 15 हज़ार शख़्स थे। जब यूसुफ़ सक़फ़ी उनके मुक़ाबले में आया तो यह सब लोग उन्हें छोड़ कर भाग गये। ज़ैद शहीद ने फ़रमाया ‘‘ ज़फ़ज़र अल यौम ’’ उस दिन से राफ़ज़ी का लफ़्ज़ निकाला...... इनके चार फ़रज़न्द थे। 1. यहीया , 2. हुसैन , 3. ईसा , 4. मोहम्मद। सादाते बाराह व बिल गिराम का नसब मोहम्मद बिन ईसा तक पहुँचता है।(किताब रहमतुल आलेमीन जिल्द 2 पृष्ठ 142 )

ईसा बिन ज़ैद

यह भी जनाबे ज़ैद शहीद के निहायत बहादुर साहब ज़ादे थे। ख़लीफ़ा ए वक़्त आपके भी ख़ून का प्यासा था। आप अपना हसब नसब ज़ाहिर न कर सकते थे। ख़लीफ़ा ए जाबिर की वजह से रूपोशी की ज़िन्दगी गुज़ारते थे। कूफ़े में आब पाशी का काम शुरू कर दिया था और वहीं एक औरत से शादी कर ली थी और उस से भी अपना हसब नसब ज़ाहिर नहीं किया था। इस औरत से आपकी एक बेटी पैदा हुई जो बड़ी हो कर शादी के क़ाबिल हो गई। इसी दौरान में आपने एक मालदार बेहिश्ती के वहां मुलाज़ेमत कर ली जिसके एक लड़का था। मालदार बेहिश्ती ने जनाबे ईसा की बीवी से अपने लड़के का पैग़ाम दिया। जनाबे ईसा की बीवी बहुत ख़ुश हुई कि मालदार घराने से लड़की का रिश्ता आया है जब जनाबे ईसा घर तशरीफ़ लाये तो उनकी बीवी ने कहा कि मेरी लड़की की तक़दीर चमक उठी है क्यों कि मालदार घराने से पैग़ाम आया है यह सुनना था कि जनाबे ईसा सख़्त परेशान हुयें बिल आखि़र खुदा से दुआ की , बारे इलाहा सैदानी ग़ैरे सय्यद से बिहाई जा रही है मालिक मेरी लड़की को मौत दे दे। लड़की बीमार हुई और दफ़अतन उसी दिन इन्तेक़ाल कर गई। उसके इन्तेक़ाल पर आप रो रहे थे उनके एक दोस्त ने कहा कि इतने बहादुर हो कर आप रोते हैं उन्होंने फ़रमाया कि इसके मरने पर नहीं रो रहा हूँ मैं अपनी इस बे बसी पर रो रहा हूँ कि हालात ऐसे हैं कि मैं इस से यह तक नहीं बता सका कि मैं सय्यद हूँ और यह सय्यद ज़ादी है।(उमदतुल मतालिब पृष्ठ 278, मिनहाज अल नदवा पृष्ठ 57 )

अल्लामा अबुल फ़रज़ असफ़हानी अल मतूफ़ी 356 हिजरी लिखते हैं कि जनाबे ईसा बिन ज़ैद ने अपने दोस्त से कहा था कि मैं इस हालत में नहीं हूँ कि इन लोगों को यह बता सकूं ‘‘ बाना ज़ालेका ग़ैर जाएज़ ’’ कि यह शादी जाएज़ नहीं है इस लिये कि यह लड़का हमारे कफ़ो का नहीं है।(मक़ातिल अल तालेबैन पृष्ठ 271, मतबुआ नजफ़े अशरफ़ 1385 हिजरी)

[[अलहम्दो लिल्लाह ये किताबः अबु मोहम्मद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जो कि किताबः चौदह सितारे एक हिस्सा है , पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क) के लिऐ टाइप कराया।]]

16-07-2016