अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम रज़ा (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

आपकी तसानीफ़

उलमा ने आपकी तसानीफ़ में सहीफ़तुर रज़ा , सहीफ़तुर रिज़विया , तिब्बे रज़ा और और मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) का हवाला दिया है और बताया है कि आपकी तसानीफ़ हैं। सहीफतुर्ररज़ का ज़िक्र अल्लामा मजालिसी , अल्लामा तबरसी और अल्लामा ज़हमख़शरी ने किया है। इसका उर्दू तरजुमा हकीम इकराम अली रज़ा लखनवी ने प्रकाशित कराया था। अब जो तक़रीबन नापैद है। सहीफ़तुर अरज़ा का तरजुमा मोलवी शरीफ़ हुसैन साहब बरेलवी ने किया है। तिब्बे रज़ा का ज़िक्र अल्लामा मजलिसी शेख़ मुन्तख़बुद्दीन ने किया है। इसकी शरह फ़ज़लुल्लाह इब्ने इरावन्दी ने लिखी है इसी को रिसाला ज़हबिया भी कहते हैं और इसका तरजुमा मौलाना हकीम मक़बूल अहमद साहब क़िबला मरहूम ने भी किया है। इसका तज़किरा शमशुल उलमा अल्लामा शिबली नोमानी ने अल मामून पृष्ठ 92 में किया है। मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) का ज़िक्र अल्लामा चेलपी ने किताब मशफ़ुल ज़नून में किया है। जिसको अल्लामा अब्दुल्लाह अमरत सरी ने किताब अरजहुल मतालिब के पृष्ठ 454 पर नक़ल किया है। नाचीज़ मुअल्लिफ़ के पास यह किताब मिस्र की मतूबा मौजूद है। यह किताब 1321 हिजरी में छपी है और इसके मुरतिब अल्लामा शेख़ अब्दुल अलवासा मिस्री और महशी अल्लामा मोहम्मद इब्ने अहमद है।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने ‘‘ माऊल लहम ’’ बनाने और मौसिमयात के मुताअल्लिक़ जो अफ़दा फ़रमाया है उसका ज़िक्र किताबों में मौजूद है। तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हो।(दमए साकेबा वग़ैरा)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और शेरे क़ालीन

अल्लामा मोहम्मद तक़ी इब्ने मोहम्मद बाक़र हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के हवाले से तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के ज़माने में एक दफ़ा शदीद तरीन क़हत पड़ा। मामून ने हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ की मौला कोई तदबीर कीजिए और किसी सूरत से दुआ फ़रमाइये कि ख़ुदा वन्दे आलम नज़ूले बारां कर दे। अब मुल्क की बुरी हालत हो गई है। भूख और प्यास से लोगों के जान बहक़ होने का सिलसिला शुरू हो गया है। आपने इरशाद फ़रमाया ऐ बादशाह घबरा नहीं। मैं दो शम्बे के दिन तलबे बारीश के लिये निकलूगां। मुझे अपने परवर दिगार से बड़ी तवक़्क़ा है। इंशा अल्लाह नजूले बारां होगा और ख़ल्के़ ख़ुदा की परेशानी दूर होगी। ग़रज़ कि वक़्ते मुक़र्रर आया और इमाम (अ.स.) सहरा की तरफ़ बरामद हुए। आपने मुसल्ला बिछाया और दस्ते दुआ बारगाहे अहदीयत में बलन्द कर के दोआ फ़रमाई अभी दुआ के जुमले तमाम न होने पाए थे कि ठन्डी हवा के झोंके चलने लगे। बादल छा गया बूंदे पड़नी लगीं और इस क़दर बारिश हुई कि जल थल हो गया। बादशाह भी ख़ुश हुआ पब्लिक भी मुतमईन और आसूदा हुई और लोग अपने अपने घरों को वापस चले गए। इस करामते ख़ास और इस्तेजाबत दोआ की वजह से बहुत से हासिद जल भुन कर ख़ाकिस्तर हो गए। एक दिन जब दरबार आरास्ता था उन्हीं हासिदों में से एक ने कहा , लोग आपके बारे में बहुत से ख़ुराफ़ात नशर करते हैं और आपको बढ़ाने की सई में मुनहमिक़ हैं। सब चाहते हैं कि आपका पाया बादशाह सलामत के पाय से बलन्द कर दें और सुने सब से बड़ी करामत जो आपकी इस वक़्त मशहूर की जा रही है वह यह है कि आप ने बारिश करा दी है मैं कहता हूँ कि जब कि बारिश अर्से से नहीं हुई थी। वह आपकी दुआ करते या न करते उसे तो होना ही था लेहाज़ा मेरी नज़र में यह करामत कोई हैसियत नहीं रखती हां करामत और मोजिज़ा तो यह है कि पेशे नज़र क़ालीन और मस्नद पर जो शेर की तस्वीर बनी हुई है उसे मुजस्सम कर दीजिये और हुक्म दीजिए की मुझे फाड़ खाए।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया कि देख मैंने किसी से नहीं कहा कि मेरी करामत बयान करे और न यह कहा कि मुझे बढ़ाने की कोशिश करे। अब रह गया आबे बारानी का वाक़ेया , वह ख़ुदा की मेहरबानी और इनायत से अमल में आया है , मैं इसमें भी अपनी कोई तारीफ़ नहीं चाहता। यह सब ख़ुदा की इनायत है। अलबत्ता जो तुझे यह हौंसला है कि शेरे क़ालीन व मसनद मुजस्सम हो जाए और तुझे फाड़ खाए तो ले यह किए देता हूँ।

यह फ़रमा कर आप शेर की तस्वीरों की तरफ़ मुतवज्जा हुए और आपने फ़रमाया , ‘‘ कि ऐन फ़ाजिर कि नज़दे शमाअस्त और राबदरौ असर राबाक़ी नगज़ारीद ’’ इस फ़ासिक़ व फ़ाजिर को चीर फाड़ कर खा जाओ कि इसका निशान तक बाक़ी न रहे।

इमाम (अ.स.) का यह फ़रमाना था कि दोनों शेर की तस्वीर मुजस्सम हो गयीं और उन्होंने हमहमा भर कर काफ़िर अज़ली पर हमला कर दिया जिसका नाम हमीद बिन महरान था और उसे पारा पारा कर के खा डाला। इस हंगामे को देख कर मामून बेहोश हो गया। हज़रत ने उसे होश में ला कर शेरों को हुक्म दिया कि अपनी असली हालत व सूरत में हो जाओ चुनान्चे वह फिर क़ालीन व मसनद की तसवीन बन गये।(काशेफ़ुन नक़ाब शरह उयून अख़बार रज़ा पृष्ठ 216)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ उम्मे हबीबा बिन्ते मामून की शादी और मामून का सफ़रे ईराक़

वाक़ेए वली अहदी के क़बल बाद से ले कर 202 हिजरी के शुरू तक हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मनाज़िरे , मुबाहसे और इल्मी मज़ाहिरे मामून रशीद कराता रहा। अब इसकी वजह या यह हो कि शोहरते आम्मा हो जाए और अलवी सरनिगंू रहें और अलमे ख़ुरूज बुलन्द न करें या यह हो कि अब्बासीयों पर हुज्जतें क़ायम हो जायं और हज़रत की अहलीयत व क़ाबलीयत से मरऊब हो कर वह लोग मुख़लेफ़त और तमरूद व सरकशी का क़सद न करें और ठीक से मामून को हुकूमत करते दें। या यह हो कि इमाम रज़ा (अ.स.) और उनके मानने वालों के दिल साफ़ हो जायें और किसी को बाद के आने वाले वाक़ेयात में यह शुबहा न हो कि मनाज़रे और मुबाहसे के बाद मामून ने अपने ख़ुफ़िया मक़सद की तकमील के लिये ईराक़ का सफ़र करने का फ़ैसला किया। इसके क़ब्ल इसने यह ज़रूरी समझा कि शुबहे की गुनजाईश को ख़त्म कर देने के लिये अपनी लड़की की शादी इमाम रज़ा (अ.स.) से कर दे। चुनान्चे उस ने रऊसा अल शहाद बरसरे दरबार मजिलिसे अक़्द कर के अपनी बेटी उम्में हबीब की शादी हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ कर दी।

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि ‘‘ ज़ौजा अल मामून अबनाता उम्में हबीब फी अव्वल सुन्नतह असनैन वमातैन वल मामून मतार्वज्जाहू अल ईराक़ ’’ मामून ने अवएल 202 हिजरी में अपनी लड़की उम्मे हबीबा का अक़्द हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ कर दिया , यह उस वक़्त किया जब कि वह सफ़रे ईराक़ का तहय्या कर चुका था।(नूरूल अबसार पृष्ठ 142 प्रकाशित मिस्र)

अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि उम्मे हबीबा को आपके तसर्रूफ़ में नहीं दिया गया।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 32) यह 202 हिजरी ही है जिसमें अब्बासीयों ने बग़दाद की हुकूमत से मामून को बे दख़ल कर के इसकी जगह पर इब्राहीम बिन मेहदी को ख़लीफ़ा बनाने का ऐलान कर दिया था। इस वक़्त बग़दाद की हालत यह थी कि वह इन्तेशार और बद नज़मियों का मरकज़ बन गया था।

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन वाक़िए वली अहदी के बाद के हालात के सिलसिले में लिखते हैं कि बग़दाद और उसके गिर्द व नवाह में बिल्कुल बदनज़मी फैल गई , लुच्चेख् ग़ुन्डे दिन दहाड़े लूट मार करने लगे। जुनूबी ईराक़ व हिजाज़ में भी मामलात की हालत ऐसी ही ख़राब हो रही थी। फ़ज़ल सब ख़बरों को पोशीदा रखता था । मगर इमाम रज़ा (अ.स.) ने उन्हें बा ख़बर कर दिया। बादशाह वज़ीर से बदज़न हो गया। मामून को जब इन शोरिशों की ख़बर हुई तो बग़दाद की तरफ़ रवाना हो गया। सरख़स में पहुँच कर उसने अपने वज़ीर को हम्माम में क़त्ल करा दिया। फिर जब तूस पहुँचा तो इमाम रज़ा (अ.स.) को जिनको वली अहद करने के सबब बग़दाद में बग़ावत हुई थी अग़ूरों में ज़हर दे कर शहीद कर दिया। मामून में ज़ाहिर में तो मातम किया और वहीं दफ़्न कर के मक़बरा तामीर कराया। मामून ने इमाम (अ.स.) की वफ़ात का हाल बग़दाद लिख भेजा जिससे वहां अमनो अमान क़ायम हो गया। मामून आगे बढ़ा यहां तक कि मदाएन पहुँच कर आठ दिन क़याम किया। जहां बग़दाद के जंगी सरदारों , रईसों से मिला। बनी अब्बास ने उसका इस्तक़बाल किया और उसने बाज़ अमाएद की दरख़्वास्त पर फिर वही अब्बासी सियाह रंग इख़्तेयार कर लिया। मामून के आने की ख़बर सुन कर इब्राहीम बिन मेहदी और उसके तरफ़दार भाग गये मगर फिर इब्राहीम पकड़ा गया।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 61 वल फ़ख़्री वल मामून)

मामून रशीद अब्बासी और हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि ग़ैर मासूम अरबाबे इक़्तेदार हवसे हुक्मरानी में किसी क़िस्म का सरफ़ा नहीं करते अगर हुसूले हुकूमत या तहफ़्फ़ुज़े हुक्मरानी में बाप बेटे , मां बेटी या मुक़द्दस से मुक़द्दस तरीन हस्तियों को भेंट चढा़ दे , तो वह उसकी परवाह नहीं करते। इसी बिना पर अरब में मिसाल के तौर पर कहा जाता है कि ‘‘ अल मुल्क अक़ीमुन ’’

अल्लामा वहीदुज़्ज़मा हैदार बादी लिखते हैं कि अल मुल्क अक़ीम बादशाहत बाझं है। यानी बादशाहत हासिल करने के लिये बाप बेटे की परवाह नहीं करता। बेटा बाप की परवाह नहीं करता बल्कि ऐसा भी हो जाता है कि बेटा बाप को मार कर खुद बादशाह बन जाता है।(अनवारूल लुग़त पारा 8 पृष्ठ 173) अब इस हवसे हुक्मरानी में किसी मज़हब और अक़ीदे का सवाल नहीं । हर वह शख़्स जो इख़्तेदार का भूखा होगा वह इस क़िस्म की हरकतें करेगा। मिसाल के लिये इस्लामी तवारीख़ की रौशनी में हुज़ूर रसूले करीम (स.अ.) की वफ़ात के फ़ौरन बाद के वाक़यात को देखिये। जनाबे सय्यदा (स.अ.) के मसाएब व आलाम और वजहे शहादत पर ग़ौर किजिये। इमाम हसन (अ.स.) के साथ बरताव पर ग़ौर फ़रमाईये। वाक़िया ए करबला और उसके पसे मंज़र , नीज़ दीगर आइम्मा ए ताहेरीन के साथ बादशाहाने वक़्त के सुलूक और उनकी क़ैदो बन्द और शहादत के वाक़ेयात को मुलाहेज़ा कीजिए। इन उमूर से यह बात वाज़े हो जायेगी कि हुक्मरानी के लिये क्या क्या मज़ालिम किए जा सकते हैं और कैसी कैसी हस्तियों की जानें ली जा सकती हैं और क्या कुछ किया जा सकता है। तवारीख़ में मौजूद है कि मामून रशीद अब्बासी की दादी ने अपने बेटे ख़लीफ़ा हादी को 26 साल की उम्र में ज़हर दिलवा कर मार दिया। मामून रशीद के बाप हारून रशीद अपने वज़ीरों के ख़ानदान बरामका को तबाह व बरबाद कर दिया।(अल मामून पृष्ठ 20) मरवान की बीवी ने अपने ख़ाविन्द को बिस्तरे ख़्वाब पर दो तकियों से गला घुटवा कर मरवा दिया। वलीद बिन अब्दुल मलिक ने फ़रज़न्दे रसूल इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को ज़हर से शहीद किया। हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) को ज़हर दिया। इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को मन्सूर दवान्क़ी ने ज़हर से शहीद किया। इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को हारून रशीद अब्बासी ने ज़हर से शहीद किया। इमाम अली रज़ा (अ.स.) को मामून अब्बासी ने ज़हर दे कर शहीद किया। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को मोतसिम बिल्लाह ने उम्मुल फ़ज़ल बिन्ते मामून के ज़रिये से ज़हर दिलवाया। इमाम अली नक़ी (अ.स.) को मोतमिद अब्बासी ने ज़हर से शहीद किया। ग़रज़ कि हुकूमत के सिलसिले में यह सब कुछ होता रहता है। औरंगज़ेब को देखिये , उसने अपने भाई को क़त्ल कराया और अपने बाप को सलतनत से महरूम कर के क़ैद कर दिया था। उसी ने शहीदे सालिस हज़रत नूरूल्लाह शुस्तरी (आगरा) की ज़बान गुद्दी से खिंचवाई थी। बहर हाल जिस तरह सब के साथ होता रहा। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ भी हुआ।

तारीख़े शहादत

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत 23 ज़ीक़ाद 203 हिजरी मुताबिक़ यौमे जुमा बा मुक़ाम तूस वाक़ेए हुई है। (जिलाउल उयून पृष्ठ 280, अनवारूल ग़मानीह पृष्ठ 127, जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31) आपके पास इस वक़्त अज़ीज़ अक़रबा औलाद वग़ैरा में कोई न था। एक तो आप खुद मदीना से ग़रीबुल वतन हो कर आए दूसरे यह कि दारूल सलतनत मर्व में भी आपने वफ़ात नहीं पाई बल्कि आप सफ़र की हालत में बा आलमे ग़ुरबत फ़ौत हुए। इसी लिये आपको ग़रीबुल ग़ुरबा कहते है।

वाक़िया ए शहादत के मुताअल्लिक़ मोवर्रिख़ लिखते हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया था ‘‘ फ़मा यक़तलनी वल्लाह वग़ैरह ’’ ख़ुदा की क़सम मुझे मामून के सिवा कोई और क़त्ल नहीं करेगा और मैं सब्र करने पर मजबूर हूँ।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 71)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि हर समा बिन अईन से आपने अपनी वफ़ात की तफ़सील बताई थी और यह भी बता दिया था कि अंगूर और अनार में मुझे ज़हर दिया जायेगा।(नूरूल अबसार पृष्ठ 144)

अल्लामा मआसिर लिखते हैं कि एक रोज़ मामून ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) को अपने गले से लगाया और पास बिठा कर उनकी खि़दमत में बेहतरीन अंगूरों का एक तबक़ रखा और उसमें से एक खोशा उठा कर आपकी खि़दमत में पेश करते हुए कहा , इब्ने रसूल अल्लाह यह अंगूर इन्तेहाई उम्दा हैं तनावुल फ़रमाईये। आपने यह कहते हुए इन्कार फ़रमाया कि जन्नत के अंगूर इससे बेहतर हैं। इसने शदीद इसरार किया औेर आपने उसमें से तीन दाने खा लिये। यह अंगूर के दाने ज़हर आलूद थे। अंगूर खाने के बाद आप उठ खड़े हुए। मामून ने पूछा कहां जा रहे हैं आपने इरशाद फ़रमाया जहां तूने भेजा है वहां जा रहा हूँ। क़याम गाह पर पहुँचने के बाद आप तीन दिन तक तड़पते रहे। बिल आखि़र इन्तेक़ाल फ़रमा गये।(तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 476) इन्तेक़ाल के बाद हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) बा ऐजाज़ तशरीफ़ लाए और नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और आप वापस चले गए। बादशाह ने बड़ी कोशिश की मगर न मिल सका।(मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 288)

इसके बाद आपको बा मुक़ाम तूस मोहल्ला सना बाद में दफ़्न कर दिया गया जो आज कल मशहदे मोक़द्दस के नाम से मशहूर है और अतराफ़े आलम के अक़ीदत मन्दों के हवाएज का मरक़ज़ है।

शहादते इमाम रज़ा (अ.स.) के मुताअल्लिक़ अबासलत हरवी का बयान

अल्लामा अब्दुर्रहमान जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि अबू सलत हरवी का बयान है कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने एक दिन मुझ से फ़रमाया कि हारून रशीद के पांयती की गिर्द की मिट्टी लाओ। जब मैं मिट्टी लाया तो आपने उसे सूंघ पर फेंक दिया और फ़रमाया कि अन्क़रीब मेरी क़ब्र के लिये इसी मुक़ाम की ज़मीन खोदेंगे और ऐसा पत्थर निकल आएगा कि उसे न कोई काट सकेगा और न उखाड़ सकेगा। फिर फ़रमाया कि हारून रशीद के सरहाने की मिट्टी लाओ मैं मिट्टी ले आया तो आपने उसे सूंघ कर फ़रमाया कि इसी मुक़ाम पर मेरी क़ब्र होगी। फिर फ़रमाया ऐ अबू सलत कल मुझे मामून तलब करेगा। सुनो जब मैं जाने लगूं तो तुम यह देख लेना कि मेरे सर पर कोई चादर वगै़रा है या नहीं। अगर हो तो मुझ से कलाम न करना और अगर न हो तो मुझसे बातें करना। अबू सलत कहते हैं कि सुबह के वक़्त इमाम (अ.स.) फ़राग़त के बाद मामून के पयाम का इन्तेज़ार करने लगे। इतने में मैंने देखा कि मामून रशीद का क़ासिद आ गया इमाम (अ.स.) इसके हमराह रवाना हो गये। जिस वक़्त आप जा रहे थे आपके सरे मुबारक पर अज़ा क़िस्म कोई तौलिया कोई कपड़ा था। मैंने हस्बे हुक्म आप से कोई कलाम नहीं किया और वह तशरीफ़ ले गए। इस वक़्त मामून के सामने अंगूरों का एक तबक़ रखा हुआ था। इसने मरासिमे ताजी़म अदा करने के बाद कहा , इब्ने रसूल (स.अ.) आपने इस से बेहतर अंगूर कभी नहीं देखा होगा। आपने फ़रमाया कि बेहिश्त के अंगूर इससे कहीं बेहतर हैं फिर मामून ने एक ख़ोशये अंगूर उठाते हुए कहा। लीजिए तनावुल फ़रमाइये। आपने फ़रमाया ऐ बादशाह इसे खाने को इस वक़्त मेरा जी नहीं चाहता , लेहाज़ा मुझे माफ़ करो। मैं इस वक़्त नहीं खाऊंगा। मामून ने शदीद इसरार करते हुए कहा ‘‘ मारमोहत्तम नी वारी ’’ आप क्यों नहीं तनावुल करते क्या आपको मुझ पर भरोसा नहीं है और क्या आप मुझ पर इत्तेहाम लगाते और मुझसे बदगुमानी करते हैं। यह कहते हुए मामून ने एक खा़ेशा उठाया और उसे खाना शुरू किया। फिर एक और खोशा उठाया और उसे इमाम (अ.स.) की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा लीजिए तनावुल कीजिए। इमाम (अ.स.) ने उसके शदीद इसरार पर उसे ले लिया और उसमें से तीन दाने तनावुल फ़रमाये । इन अंगूरों को खाते ही जौहरे वजूद में इन्के़लाब पैदा हो गया। बक़िया अंगूरों को फेंकते हुए आप उठ खड़े हुए। मामून ने कहा कहां तशरीफ़ लिये जा रहे हैं ? आपने फ़रमाया कि ‘‘ बेअन्जा के फरसतादी ’’ जहां तूने भेजा है वहां जा रहा हूँ। उसके बाद आप सरे मुबारक पर चादर डाल कर रवाना हो गये।

अबु सलत हरवी कहते हैं कि इमाम (अ.स.) दरबार से रवाना हो कर दाखि़ले ख़ाना हुए और आपने मुझे हुक्म दिया कि दरवाज़ा बन्द कर दो। मैंने दरवाज़ा बन्द कर दिया। फिर आप बिस्तर पर लेट गए। आपक बिस्तर पर लेटना था कि मुझे रंजो अलम ने आ घेरा। तरह तरह के ख़्यालात पैदा होने लगे और मैं सख़्त हैरान हो कर परेशान हो गया। इमाम (अ.स.) बिस्तरे अलालत पर थे और मैं रंजो ग़म की हालत में बैठा हुआ था। नागाह मैंने घर के अन्दर एक ख़ूब सूरत नौजवान को देख कर उस से पूछा की आप कौन हैं ? और जब कि दरवाज़ा बन्द है आपको अन्दर किसने पहुँचा दिया। आपने इरशाद फ़रमाया मैं हुज्जते ख़ुदा मोहम्मद तक़ी (अ.स.) हूँ। मुझे बन्द मकान में वही लाया है जिसने चश्मे ज़दन में मदीने से यहां पहुँचाया है। मैं अपने पदरे बुज़ुर्गवार की खि़दमत के लिये हाज़िर हुआ हूँ। यह कह कर आप इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुए। इमाम (अ.स.) ने जैसे ही आपको देखा फ़ौरन अपने सीने से लगाया। पेशानी का बोसा दिया और चुपके चुपके आप से कुछ बातें करने लगे। थोड़ी देर के बाद आपने देखा कि रूहे मुबारक मुफ़ारेक़त कर गई और इमाम (अ.स.) वफ़ात पा गए। आपके वफ़ात फ़रमाने के बाद हज़रत मोहम्मद बिन अली (अ.स.) ने ग़ुस्लो कफ़न और हुनूत का इन्तेज़ाम फ़रमाया। फिर क़ुदरती ताबूत मंगवा कर नमाज़ पढ़ने के बाद उसमे रखा। थोड़ी देर के बाद वह ताबूत आसमान की तरफ़ चला गया। अबू सलत कहते हैं कि यह देख कर मैंने अर्ज़ कि मौला अभी मामून वग़ैरा आते होंगे मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा। आपने फ़रमाया यह ताबूत अभी वापस आ जायेगा। चुनान्चे मिस्ले साबिक़ छत शिग़ाफ़्ता हुई और ताबूत आ गया। आपने इमाम (अ.स.) को बदस्तूर बिस्तर पर लेटा दिया और मुझे हुक्म दिया कि अब दरवाज़ा खोल दो। मैंने दरवाज़ा खोल दिया तो मामून वग़ैरा दाखि़ले ख़ाना हुए और सब आहो बुका करने लगे। फिर तजहीज़ और तक़फ़ीन का अज़ सरे नौ इन्तेज़ाम हुआ और आप हारून रशीद के सरहाने दफ़्न कर दिये गए।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 212, रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 16 व अलामुल वुरा पृष्ठ 198)

अल्लामा बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि मामून ने हर चन्द चाहा कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से मिलें मगर आपके फ़ौरी चले जाने की वजह से मुलाक़ात न हो सकी।(मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 288)

अल्लामा नेमत उल्लाह जज़ाएरी लिखते हैं कि इमाम (अ.स.) की शहादत के बाद जो ख़बर सब से पहले उड़ी वह यह थी कि इमाम रज़ा (अ.स.) को मामून ने धोखे से शहीद कर दिये।(तज़किरतुल मासूमीन)

अल्लामा नेमत उल्लाह जज़ाएरी तहरीर फ़रमाते हैं कि मामून रशीद ने आपको अनार और अंगूर के ज़रिए ज़हर दिया था। (अनवार नेमानी पृष्ठ 27) अल्लामा तबरसी फ़रमाते हैं कि अनार के अरक़ में ज़हर मिला कर इसमें धागा तर कर लिया और उस धागे को सोज़न के ज़रिए अंगूर में गुज़ार कर उन्हें मसमूम कर दिया था।(आलामुल वुरा पृष्ठ 199)

शहादते इमाम रज़ा (अ.स.) के मौक़े पर इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) का ख़ुरासान पहुँचना

अबू मखनफ़ का बयान है कि जब हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) को ख़ुरासान में ज़हर दे दिया और आप बिस्तरे अलालत पर करवटें लेने लगे तो ख़ुदा वन्दे आलम ने इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को वहां भेजने का बन्दो बस्त किया। चुनान्चे इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) जब कि मस्जिदे मदीना में मशग़ूले इबादत थे एक हातिफ़े ग़ैबी ने आवाज़ दी कि ‘‘ अगरमी ख़्वाही पदर खुद रा ज़िन्दा दरयाबी क़दम दर्राह न ’’ अगर अपने वालिदे बुज़ुर्ग वार से उनकी ज़िन्दगी में मिलना चाहते हो तो फ़ौरन ख़ुरासान के लिये रवाना हो जाएं यह आवाज़ सुनना था कि आप मस्जिद से बरामद हो कर दाखि़ले ख़ाना हुए और आपने अपने आइज़्ज़ा अक़रूबा को शहादते पदरे बुज़ुर्गवार से आगाह किया। घर में कोहराम बरपा हो गया। उसके बाद आप वहां से रवाना हो कर एक साअत में ख़ुरासान पहुँचे। वहां पहुँच कर देखा कि दरबान ने दरवाज़ा बन्द कर रखा है। आपने फ़रमाया कि दरवाज़ा खोल दो। मैं अपने पदरे बुज़ुर्गवार की खि़दमत में जाना चाहता हूँ। आपकी आवाज़ सुनते ही इमाम (अ.स.) ख़ुद अपने बिस्तर से उठे और दरवाज़ा खोल कर इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को अपने गले से लगाया और बेपनाह गिरया फ़रमाया। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) पदरे बुज़ुर्गवार की बेबसी , बेकसी और ग़ुरबत पर आंसू बहाने लगे फिर इमाम (अ.स.) तबरूकाते इमामत फ़रज़न्द के सुपुर्द कर के राहिए मुल्के बक़ा हो गए। इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन। (कनज़ुल अनसाब पृष्ठ 95) अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी बा हवाला आलामिल वुरा तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को ज्यों ही ख़बर मिली , ख़ुरासान तशरीफ़ ले गए और अपने वालिद बुज़ुर्गवार को दफ़्न करके एक साअ में वापस और यहां पहुँच कर लोगों को हुक्म दिया कि इमाम (अ.स.) का मातम करें।(मुन्तहल माल जिल्द 2 पृष्ठ 312)

बहस व नज़र

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जिस तरह ख़लीफ़ा मामून ने हालात की रौशनी में अपने भाई की मातहती क़ुबूल कर ली। फिर उसे क़त्ल कर दिया और जिस तरह फ़ज़ल बिन सुहेल (जूल रियासतैन मालिक निसान व क़लम ‘‘ अल फ़ख़री ’’) को वज़ीरे जंग बनाया फिर उसे ब मुक़ाम सरख़स हमाम में क़त्ल करा दिया और जिस तरह ताहिर को वज़ीरे आज़म बनाया और उसी की वजह से इस्तक़रार खि़लाफ़त हासिल किया। फिर उसे क़त्ल करा दिया। बिल्कुल इसी तरह अपनी ज़रूरत के वक़्त हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) को खि़लाफ़त का वली अहद बनाया। इनके साथ अपनी लड़की की शादी की और काम निकलने केे बाद उन्हें अपने हाथों से शहीद कर दिया। यानी जब अलवियों का ज़ोर हुआ तो उनकी बग़ावत को रोक देने के लिये शदीद इन्कार के बवजूद इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहद बनाया और जब अब्बासीयों का ज़ोर बढ़ा तो उन्हें राज़ी करने के लिये इमाम रज़ा (अ.स.) को शहीद कर दिया। इसे कहते हैं सियासत जिसमें हर क़िस्म का हरबा इस्तेमाल करना जाएज़ है।

इमाम रज़ा (अ.स.) को किसने ज़हर दिया। इसके मुताअल्लिक़ अल्लामा शिब्ली नोमानी ने जो कुछ तहरीर फ़रमाया है उसका ख़ुलासा यह है कि तमाम मुवर्रेख़ीन व उलमाए अहले तशीय बिला इसतसना इस पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) को ख़ुद मामून ने ज़हर दिया है लेकिन मुवर्रेख़ीन अहले तसन्नुन में से एक मुवर्रिख़ ने मामून पर इस इल्ज़ाम के लगाने की जुर्रत नहीं की।(किताब अल मामून पृष्ठ 62)

मैं समझता हूँ कि अल्लामा शिब्ली इस मामले में या तो बिल्कुल मामून के साथ हुसने ज़न से काम ले रहे हैं या उन्हें इल्म ही न था। उन्होंने तो साफ़ साफ़ लिखा है कुतुब अहले तशीय हमारे पास नहीं हैं लेकिन यह नहीं लिखा है कि हम ने तमाम क़ुतुब अहले सुन्नत को देख लिया है।

मेरे ख़्याल से वह अपनी किताबों से भी न वाक़िफ़ थे और उनकी तंग नज़री ने उनसे मज़कूरा जुमले लिखवा दिए। मैं कहता हूँ कि बहुत से उलमा व मुवर्रेख़ीन अहले सुन्नत इस वाक़िए को अपनी किताबों में लिखा है बाज़ ने तो बड़ी तफ़सील के साथ वाक़िए शहादत और हादसए ज़हर ख़्वानी को तहरीर किया है और बहुतों ने इशारतन ‘‘ व कनायतन ’’ इस पर रौशनी डाली है। मिसाल के लिए मुलाहेजा़ हो।

1. तारीख़ रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 16, 2. तारीख़ शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 202, 3. तारीख़े कामिल जिल्द 6 पृष्ठ 116, 4. तारीख़ मरूज अलज़हब मसूदी जिल्द 9 पृष्ठ 33, 5. तारीख़ नूरूल अबसार पृष्ठ 144, 6. तारीख़ अल फ़ख़री पृष्ठ 163, 7. मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 288, 8. तारीख़ हबीब अल सियर जिल्द 2 जुज़ अव्वल पृष्ठ 51, 9. तारीख़े आले मोहम्मद पृष्ठ 64, 10. रवाहे अल मुस्तफ़ा पृष्ठ 174, 11. किताब इन्साब समानी , 12. ख़ुलासा तहज़ीब अल कमाल , 13. मुख़तसिर अख़बार अल खुलफ़ा , 14. तारीख़ तबरी फ़ारसी जिल्द 4 पृष्ठ 792, 15. तारीख़ इब्ने तूलून पृष्ठ 98, 16. इन्साब समानी , 17. अख़बार अल ख़ुलफ़ा , 18. तारीख़े इस्लाम ग़ुलाम रसूल महरिज 2 पृष्ठ 58........

मेरे नज़दीक मज़कूरह बाला हवाला जात की मौजूदगी में अल्लामा शिब्ली का यह कहना है कि एक सुन्नी मुवर्रिख़ ने भी मामून पर इस इल्जा़म लगाने की जुर्रत नही की। (अल मामून पृष्ठ 92)

और इब्ने ख़लदून और जस्टिस अमीर अली का यह फ़रमाना कि बाज़ लोगों का यह ख़्याल............ कि मामून ने खुद इमाम रज़ा (अ.स.) को ज़हर दे कर हलाक किया बिल्कुल लग़ो और फ़ुज़ूल है।( तारीख़े इस्लाम अमीर अली पृष्ठ 186) हद दर्जा मोहमल , लगव फ़ुज़ूल और न क़ाबिले ऐतबार है।

मैं इन मुनकिराने हक़ाएक़ से पूछता हूँ कि अगर मामून ने ख़ुद ज़हर नहीं दिया , तो क्या किसी एक तारीख़ में भी यह मौजूद है कि उसने वाक़िए क़त्ल की तहक़ीक़ात कराई ? हरगिज़ नहीं। नीज़ यह कि उसने आपकी वफ़ात को 24 घन्टे छुपाया क्यों ?(मक़ातिल अल तालबैन पृष्ठ 378 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

मैं यह सच कहता हूँ कि फ़रज़न्दे रसूल की जैसी शख़्सीयत के क़त्ल की तहक़ीक़ात न करानी और सिर्फ़ रो पीट कर मगरमच्छ के आँसुओं की तरह आंसू बहा कर अरबाबे नज़र की निगाहों में उसे इल्ज़ामे क़त्ल से बरी नहीं कर सकता।

मालूम होना चाहिये कि मामून को इमाम रज़ा (अ.स.) वली अहदी और फ़ज़ल बिन सहल की वज़ारते जंग पर तक़र्रूरी के बाद इस वक़्त तक सुकून नसीब नहीं हुआ जब तक वह इन दोनो को निस्त नाबूद नहीं कर सका। बग़दादियों की बग़ावत रोकने के लिये चुंकि इन दोनों को ख़त्म करना ज़रूरी था इस लिये उसने एक ही सफ़र में दोनों का ख़ात्मा कर दिया। इसके बाद अहले बग़दाद को देखा कि अब क्या चीज़ बाक़ी है जिसकी तुम शिकायत कर सकते हो। शिबली लिखता हैं कि इन दोनों के क़त्ल होने से अहले बग़दाद की शिकायतों को फ़ैसला हो गया।(अल मामून पृष्ठ 92) यानी इन दोनो के क़त्ल से मामून की ग़रज़ पूरी हो गई। अहले बग़दाद की बग़ावत का ख़ात्मा हो गया। अब्बासी क़ब्ज़े में आ गए और हुकूमत अज़ सरे नौ जम गई।