हज़रत अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम

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हज़रत अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम कैटिगिरी: इमाम रज़ा (अ)

हज़रत अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम

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हज़रत अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम

हज़रत अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम

हिंदी

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मसाइबे इमामे हशतुम हज़रत अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम

हज़रत से मुताअल्लिक़ तफ़सील:

आठवें इमाम हज़रत अली रज़ा बिन मूसा अलैहिस्सलाम की विलादत और शहादत के सिलसिले मे इखतेलाफ पाया जाता है। लेकिन क़ौले मशहूर के मुताबिक़ इमाम अलैहिस्सलाम बरोज़े जुम्मेरात या जुम्मा ग्यारह ज़ीक़ादा सन 148 हिज्री क़मरी को मदीने मे पेदा हुए।

हज़रत के वालिदे गिरामी हज़रत इमाम मूसा कज़िम अलैहिस्सलाम और आपकी वालदा-ए-माजिदा हज़रत नजमा खातून , मराकिश की बाशिन्दी थीं जिसे कदीम ज़माने मे अंदलिस कहा जाता था आप को तुकतम , अरवी , ख़िज़रान , सकीना , (सकन) और सम्मान के नामो से भी पुकारा जाता था , आप की कुन्नियत और लक़ब उममुन नियान था।

हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की विलादत के बाद आप को ताहैरा नाम से पुकारा जाने लगा कनीज़ की तरह इमामे मूसा कासिम अलैहिस्सलाम के घर मे दाखिल हुईं। इमामे मूसा कज़िम अलैहिस्सलाम की वालदा-ए-गिरामी फरमाती हैं:

पैग़म्बरे इस्लाम को मेने ख़्वाब मे देखा के वो मुझ से फरमा रहे थे: ऐ हमीदा , नजमा को अपने बेटे मूसा कज़िम (अलैहिस्सलाम) को बक्श दो। और उसे (आंहज़रत की ज़ोजियत में देदो)

फ़ा इन्नहू सा यलेदो मिनहा ख़ैरुन अहलिल अर्ज़े

(अनकरीब ही उन से ज़मीन पर बहतरिन इनसान पैदा होगा)

आप होशमन्दी व ज़कावत और दयानत व इबादत और खुदावन्दे सुब्हान से लो लगाने और मुनाजात व दुआओ के सिलसिले मे ज़माने की यगाना खातून थीं।

उसूले काफ़ी (मुतरजिम) 2/402 , कश्फ़ुल ग़िमा 2/259,312 , ऐलामुल वरी 313 ­, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1/235 , इर्शाद 2/239 , उयूने अख़बारे रज़ा (अ.) 1/24 जिल्द 2 व 3 , अल बिहारुल अनवार 49/2 से 8 तक , अल मनाक़िब 4/367 , अल फ़ुसूलुल महिम्मह 226 , अल इख़तेसास 197

शैख सुदूक और शैख मुफीद के अलावा वो दुसरे अकाबरीन ने हिशाम बिन ऐहमद (ऐहमद) के हवाले से नक़्ल किया है , कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फरमाया: क्या तुम्हें कुछ ख़बर है कि मरकिश (अन्दलिस) से कोई आया है ? अर्ज़ किया नही (मुझे मालूम नहीं है) फरमाया: हाँ एक शख़्स आया है , आओ चलो मेरे साथ उस के पास चलते हैं , मरकब पर सवार हुऐ और इस आदमी तक पहुचे , देखा के एक अन्दलिसी आदमी अपने साथ कनीज़े लाया है , इमाम अलैहिस्सलाम ने उन मे से नो कनिज़ो को देखा और फरमाया: मुझे इन की ज़रूरत नही है। फिर फरमाया: और भी कोई कनीज़ है ? उस ने कहा: नही , फरमाया: है तो लेकर आओ , उस ने अर्ज़ किया: नही , खुदा की क़सम मेरे पास और कोई कनीज़ नही है , मगर ये एक बिमार कनीज़ है , इमाम ने फरमाया: फिर ले कर क्यो नही आ रहे हो ? उस ने ध्यान नही दिया उस बीमार कनीज़ को हाज़िर नही किया , इमाम अलैहिस्सलाम भी घर वापस आ गऐ।

फ़िर इमाम अलैहिस्सलाम ने दूसरे दिन सुबह मुझ से फरमाया: जाओ और जाकर जिस क़ीमत पर भी हो उस कनीज़ को खरीद लो , रावी कहता है: मैं उस के पास जाकर गोया हुआ उस ने भी कहा फ़लाँ क़ीमत से कम नही दूंगा मैने भी कहा जो क़ीमत चाहोगे दूंगा। उस अन्दलिस (मराकिश) आदमी ने कहा: कनीज़ तुम्हारी हुई लेकिल ये बताओ वो आदमी जो कल तुम्हारे साथ आया था वह कोन था ? वह बनी हाशिम घराने का है उस ने कहा , बनी हाशिम के किस घराने और क़बीला से है मेने कहा: उन में सबसे अफज़ल में से हैं वह बोला मैं चाहता हुँ कि ज़्यादा वज़ाहत करो , मेने कहा , मुझे इस से ज़्यादा मालूम नही: इस कनीज़ के सिल्सिले में तुम्हें एक वाक़ेआ बताता हुँ , वह यह कि मैंने इस कनीज़ को मराकिश के एक दूर उफतादा इलाक़े से खरीदा है: उस वक़्त एक एहले किताब औरत ने मुझ से कहा: मुनासिब नही है कि यह तुम्हारी मिलकियत क़रार पाये , क्यों कि इस को तो इस सर ज़मीन के सबसे अफज़ल इंसान की मिलकियत मे होना चाहिए , मगर यह औरत इस के पास कुछ ही वक़्त के लिए रहेगी क्योकि इस से एक ऐसा बच्चा दुनिया मे आयेगा जो आलमे मशरिक़ व मग़रिब मे ब मिसाल होगा।

हिशाम का कहना है: मेने उस कनीज़ को हज़रत मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की खिदमत मे लाकर हाज़िर किया और आप से इमामे अली बिन मूसा अर्रज़ा अलैहिस्सलाम की विलादत हुई।

विलादत:

शैख़ सुदूक ने अली बिन मिसम और उन्होंने अपने वालिद के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहा: मेने अपनी वालिदा को कहते हुऐ सुना था कि हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की वालिदा जनाबे नजमा ख़ातून को कहते हुऐ सुना है कि जब मेरे बेटे अली (बिन मूसा अर्रज़ा) अलैहिस्सलाम मेरे बतन मे थै मेने कभी भी बोझ महसूस नही किया और सौते वक़्त (सूब्हान अल्लाह) और सद़ाये लाएलाहा इल्लल्लाह की आवाज़ कानो मे ग़ूजा करती जो वह शिक्मे मादर से पढ़ा करते और अवाज़ सुन कर मे ख़ौफ ज़दा हो जाया करती और जब सो कर उठा करती तो फिर वो आवाज़े बन्द हो जाया करती थीं।

विलादत के वक़्त इस बच्चे ने अपना हाथ जमीन पर रखा , सर को आसमान की तरफ बुलन्द किया होटों को जुमबिश दी और कलाम करना शुरू कर दिया , इसी असना में उन के वालिद मूसा बिन जाफर अलैहिस्सलाम तशरीफ लाए और मुझ से फरमाया (ऐ नजमा , खुदा की यह नेमते अज़ीम तुम्हें मुबारक हो) बच्चे को सफेद कपड़े मे लपेट कर हज़रत को सोंपा , आप ने दाऐ कान मे अज़ान और बाऐ कान मे अक़ामत कही फिर फुरात का पानी तलब किया और हलक़ को फुरात से तर किया , फिर मुझे लोटाते हुऐ फरमाया:

ख़ुज़ीही फ़ाइन्नाहू बक़ीयतुल्लाहे फ़ी अरज़ेह

(इस बच्चे को लो जो कि ज़मीन पर अल्ला की निशानी और हुज्जत है)

लक़ब:

हज़रत के अलक़ाब मे रज़ा , साबिर , रज़ी , वफी , फाज़िल और सिद्दीक़ वग़ैरा सर फ़हरिस्त है।

आप की कुन्नियत: अबुल हसन और अबु अली थी।

(उयूने अख़बारे रज़ा 1/23 , बिहारुल अनवार 49/9 , कश्फ़ुल ग़िमा 2/260 , अल मुनाक़िब 4/366 , अल फ़ुसूलुल महिम्मह 226 ,)

हज़रत के दौर के ख़लीफ़ा-ए-वक़्तः

हारून रशीद , मुहम्मद अमीन , और अब्दुल्लाह मामून थे।

हज़रत की उम्र: मशहूर अक़वाल के मुताबिक़ पचपन साल थी।

और सर अंजाम सफ़र के महीने के आखरी दिनों मे सन दो से तीन हिज्री क़मरी मे मामून के ज़हरे दग़ा के ज़रिऐ शहीद कर दिए गए।

आलमे आले मुहम्मद

अल्लामा तबरसी और दुसरो ने अबा सलत के हवाले से लिख़ा है कि उन्होंने कहा मुहम्मद बिन इसहाक़ बिन मूसा जाफ़र ने मेरे लिए नक़्ल किया कि हज़रत के वालिद मूसा बिन जाफ़र अलैहिस्सलाम अपने बच्चो से फरमाया करते थेः

हाज़ा अख़ुकुम अली बिन मूसा अर्रज़ा आलिमो आले मुहम्मदिन फ़स अलूहो अन अदयानेकुम वहफ़ज़ू मा यक़ूलो लकुम , फ़ा इन्नी समेतो अबी , जाफ़र बिन मुहम्मदिन ग़ैरा मर्रातिन यक़ूलो ली , इन्ना आलेमा आले मुहम्मदिन लफ़ी सुलबेका , व लैयतनी अदरकतोहु , फ़ा इन्नहु समीयो अमीरिल मोमिनीना अलीयुन

तुम्हारा यह भाई , अली बिन मूसा अल रज़ा आलमे आले मुहम्मद है , अपने दीनी मसाइल उन से दरयाफ़्त करो क्योकि मेने अपने वालिद जाफर बिन मुहम्मद को बारहा यह फ़रमाते सुना है कि ब शक खानदाने आलेमुहम्मद का आलिम तुम्हारे सुल्ब मे है काश कि मैं अपनी मौत से पहले उस से मुलाक़ात कर पाता , और देख पाता यक़ीनन वह अमीरूल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम का हमनाम है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इबादत

शैख सुदूक़ और दुसरो ने अबा सलत से नक़्ल करते हुए लिख़ा है कि उन्होंने कहा: सर खस मे उस घर के दरवाज़े पर जिस में इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम नज़र बन्द थे मैं आया और कैद़ ख़ाने के ज़िम्मेदार से दर्खास्त की कि इमाम से मुलाक़ात करना चाहता हुँ , उस ने कहा: तुम उन से मुलाक़ात नही कर सकते हो मेने पुछा , कयो ?

कहा क्योंके वो हर वक़्त नमाज़ और इबादत मे मशग़ूल रहते हैं और दिन व रात में यह नमाज़ें हज़ार हज़ार रकत भी हो जाया करती हैं बस दिन के इबतिदाई औक़ात और ज़ोहर से पहले और थोड़ा मग़रिब से पहले नमाज़ की हालत मे नहीं होते लेकिन इन खाली औक़ात में भी बारगाहे खुदा वन्दी में मुसल्ले पर बैठ कर दुआऐं और मुनाजात में मशग़ूल रहते थे।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/197 जिल्द 6 , बिहारुल अनवार 49/91 जिल्द 5 सफ़्हा 170 अनवारुल बहिया 332)

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम भी अपने बाप दादा की तरह खुदा की इबादत व सताइश के शैदाई और बारगाहे खुदावन्दी में अपनी बन्दगी पर फ़ख्र किया करते थे।

शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ख़ुरासान के दौरे के मौक़े पर एक हमसफ़र और हमराह के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्होंने कहाः जब इमाम (अ.) ने एहवाज़ से रवानगी फ़रमाई तो हम लोग एक दीहात पहुंचे , वहां इमाम (अ.) नमाज़ के लिये ख़ड़े हुए और जब सज्दे में गये तो मेनें सुना कि वह सज्दे की हालत में अपने पर्वरदिगार के हुज़ूर अर्ज़ कर रहे थे।

लकल हमदो इन आतैतोका वला हुज्जता ली इन असयतोका

(ख़ुदावन्द अगर तेरी इताअत करता हूँ तो हम्दो सताइश तेरे लिये मख़सूस है , और अगर तेरी नाफ़रमानी करूं तो मेरे लिये कोई बहाना नहीं होगा और मेने और दूसरों ने तेरी बन्दगी और इताअत में कोई ऐहसान नहीं किया है और मेरे लिये कोई बहाना नहीं है और अगर बुराई की , और ग़लती का इरतेकाब किया , अगर मुझ को नेकी और भलाई नसीब हुई तो ऐ ख़ुदाऐ करीम वह सब तेरी बारगाह से नसीब हुई है , ऐ ख़ुदा दुनिया के मशरिक़ व मग़रिब में जो भी मर्द और औरते हैं , उन सब को माफ़ फ़रमा।

रावी कहता हैः हम ने काफ़ी अरसे तक हज़रत के साथ नमाज़े जमाअत पढ़ी , हज़रत हमेशा ही पहली रकअत में सूरह-ए-हम्द के बाद इन्ना अंज़लनाह और दूसरी रकअत में हम्द के बाद सूरह-ए-क़ुलहो वल्लाहो अहद पढ़ा करते थे।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/222 ,हाशिया 5 , बिहारुल अनवार 49/116 हाशिया 1)

इसी तरह मरहूम सुदूक़ ने अबा सलत के हवाले से नक़्ल किया है कि जब हज़रत इमामे रज़ा (अ.) सनाबाद इलाक़े में पहुंचे तो हमीद के घर गये (वहीं पर हारून रशीद की भी क़ब्र वाक़े है) आप ने हमीद बिन उतबा के घर पहुंच कर नमाज़ क़ाएम की और जब सज्दे में गये तो पांच सो मर्तबा सुबहान अल्लाह कहा , जिस की तादाद मैंने ख़ुद शुमार की थी।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/167 हाशिया 1 , बिहारुल अनवार 49/125 हाशिया 1)

हज़रत की तिलावते क़ुरआन पर तवज्जोहः

रजाए बिन अबी ज़हाक ने मदीने से मक्के की जानिब सफ़र में हमराही के दौरान अपनी रिपोर्ट में नक़्ल करते हुये लिख़ाः

रात के वक़्त इमामे रज़ा (अ.) क़ुरआन की बहुत ज़्यादा तिलावत किया करते थे , जब भी किसी ऐसी आयत की तिलावत करते जिसमें जन्नत या दोज़ख़ का ज़िक्र आता तो बहुत ज़्यादा गिरया करते और ख़ुदावन्दे आलम से जन्नत के हुसूल की दर्ख़ास्त करते और दोज़ख़ की आग से पनाह मांगा करते थे।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/196 बिहारुल अनवार 49/94)

यह भी रिवायत की गई है कि हज़रत हर तीसरे दिन क़ुर्बान की तिलावत पूरी किया करते थे और फ़रमाया करते थेः अगर चाहूं तो इस से कम मुद्दत में भी क़ुर्आन ख़त्म कर सकता हूँ लेकिन कोई भी ऐसी आयत नहीं कि जिस की तिलावत न की हो और उस पर ग़ौरो फ़िक्र न किया हो और इस बारे में कि यह आयत कब और केसे नाज़िल हुई है इन सब पर ग़ौर व फ़िक्र करता हूँ इस लिये हर तीन दिन बाद पूरा क़ुर्आन एक बार ख़त्म कर पाता हूँ।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/193 हाशिया 4 , अल मुनाक़िब 4/360 , अल बिहार 49/90 , हाशिया 3 , कशफ़ुल ग़िमा 2/316 , आलामुल वरी 327 ,)

शैख़ सुदूक़ ने अपने सनद से रिवायत की है कि एक शख़्स ने हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम से अर्ज़ कियाः ख़ुदा की क़सम ख़ानदान और पदरी नसब के लिहाज़ से इस सरज़मीन पर आप से ज़्यादा शरीफ़ और नजीब कोई नहीं है , इमाम ने फ़रमायाः अत्तक़वा शर्राफ़ाहुम व ताअतुल्लाहे अहाज़नहुम (तक़वे ने उन्हें शरफ़ बख़शा ख़ुदा की इताअत और बन्दगी ने उन्हें सर फ़राज़ किया)

एक दूसरे आदमी ने हजरत से अर्ज़ कियाः (अन्ता वल्लाहे ख़ैरुन नास) ख़ुदा की क़सम आप बहतरीन इंसानों में से हैं , हज़रत ने फ़रमायाः क़सम मत ख़ाओ मुझ से अच्छा वह है इलाही तक़वे का मालिक हो और ख़ुदा की इताअत और बन्दगी में उसकी चाहत और लगाओ ज़्यादा हो , ख़ुदा की क़सम यह आयत नस्ख़ नहीं हुई है जिस में ख़ुदा वन्दे आलम फ़रमाता है। (इन्ना अकरमाकुम इन्दल्लाहे अतक़ाकुम) ख़ुदा के नज़दीक तुम में सब से मोहतरम और गिरामी वह है जिसका तक़वा सब से ज़्यादा हो।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/261 , हाशिया 10 , अल बिहार 49/95 , हाशिया 8)

इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का अख़लाक़ः

1- शैख़ सुदूक़ अपनी सनद में इब्राहीम बिन अब्बास के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्होंने कहाः

मैंने हज़रत रज़ा (अ.) की गुफ़तुगू के दौरान क के दौरान की यह नहीं देख़ा कि अपने कलाम के दौरान किसी पर ज़ुल्म करें और यह भी नहीं देख़ा कि हज़रत ने किसी की बात बीच से ही काटी हो उन्हों ने किसी भी ज़रूरत मन्द को मायूस नहीं किया और हत्तल मक़दूर उस की ज़रूरतों को पूरा किया करते थे। इसी तरह मैंने हज़रत को कभी भी किसी के सामने पैर फ़ैलाते हुए नहीं देख़ा वह अपने सामने बेठे हुए आदमी के मुक़ाबले में दीवार या किसी सहारे से टैक लगा कर नहीं बेठा करते थे। और इसी तरह कभी यह नहीं देख़ा कि किसी ग़ुलाम के साथ बद सुलूकी या बद ज़बानी की हो। इसी तरह कभी नहीं देख़ा कि हज़रत ने कभी किसी के सामने किसी जगह पर थूका हो , हज़रत को ज़ौर से हस्ते हुए नहीं देख़ा बल्कि उन की हसी में मुसकुराहट हुआ करती थी और जब अकेले होते और ख़ाने का दसतर ख़्वान लगता तो सभी ग़ुलामों , हत्ता कि चोकीदारों और जानवरों की देख़ भाल करने वाले ख़ादिम को भी दसतर ख़्वान पर अपने साथ बेठाया करते थे और काफ़ी में ज़िक्र हुआ है , कि इमाम अलैहिस्सलाम ने किसी के जवाब में जिस ने पूछा था कि उन लोगों के लिये अलग दसतर ख़्वान कयूं नहीं लगवाते ? फ़माया था कि ख़ामोश रहो सब का ख़ुदा एक है और सब के वालिदैन एक जैसे होते हैं और आमाल की जज़ा भी इंसानों के आमाल पर मुनहसिर है।

(रोज़तो मिनल काफ़ी 2/34 हाशिया 296)

हज़रत रात में बहुत कम सोया करते और ज़्यादा तर रात में सुब्ह तक जागते रहते , कसरत से रोज़े रख़ा करते और महीने में तीन दिन का रोज़ा कभी तर्क नहीं किया करते थे। (महीने के शुरु जुमेरात , महीने का आख़री बुद्ध और दरमियानी महीने का रोज़ा) वह फ़रमाया करते थेः महीने के यह तीन रोज़े पूरी दूनिया के बराबर हैं। हज़रत पोशीदा तौर पर सदक़े और एहसान व भलाई का काम ज़्यादा किया करते और उन की यह भलाई रात की तारीकी में ज़्यादा हुआ करती थी , लिहाज़ा अगर कोई यह ख़याल करे कि फ़ज़ीलत व नेकी में हज़रत की मानिन्द किसी ने किसी और को भी देख़ा है तो उस की बात की तसदीक़ व ताईद न करे।

(उयूने अख़बारे रज़ा 2/197 , हाशिया 7 , अल बिहार 49/90 , हाशिया 4 , कशफ़ुल ग़िमा 2/306 , आलामुल विरा 327 , अल मुनाक़िब 4/360)

ग़रीबो और हाजत मन्दों की हाजत रवाईः

शैख़ कलीनी और दूसरों ने मोअमर बिन ख़ल्लाद के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहाः इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम जब भी ख़ाना तनावुल फ़रमाने के लिये दसतर ख़्वान पर बेठते तो अपने पास एक बड़ा पियाला रख़ लिया करते और जो भी अच्छा ख़ाना होता उस में से उंडेल दिया करते फ़िर हुक्म फ़रमाते कि इस पियाले को ग़रीबों के हवाले किया जाये , फ़िर यह आयत तिलावत फ़रमाया करते (फ़ला अक़तहामल अक़ाबता) पस उस मोड़ से नहीं गुज़र सकते हैं। इय आयत के ज़िम्न में ज़िक्र हुआ है कि उक़बा का मतलब बन्दे का आज़ाद करना है या फ़क़्र व दंगदस्ती के मोक़े पर ख़ाना ख़िलाना है।

फ़िर इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ख़ुदा वन्दे आलम जानता है कि हर किसी में बन्दों या ग़ुलामों को आज़ाद करने की सलाहियत नहीं होती है फिर उन के लिये जन्नतमें दाख़िल होने का रास्ता क़रार दिया है ताकि मिसकीनों को ख़ाना ख़िला कर रास्ता अपना सकें।

(अल काफ़ी 2/52 , हाशिया 12 , अल मुहासिन 2/151 , अल बिहार 49/97 , हाशिया 11 , अनवारुल बहय्यत 333 ,)

इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की एक ख़ुरासानी को मददः

शैख़ कलीनी और दूसरों ने बसा बिन हमज़ा के हवाले से नक़्ल करते हुए लिख़ा है कि उन्हें ने कहाः मैं हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में दूसरे लोगों के हमराह एक बेठक में मौजूद था और लोग हलाल व हराम से मुतअल्लिक़ मसाइल इमाम अलैहिस्सलाम से दरयाफ़्त कर रहे थे अचानक एक बुलन्द क़द गन्दुमू चाहने वाला और आप के वालिद और दादा के शैदाईयों में से एक हूं , अभी सफ़रे हज से लोटा हूं , मेरे असासा और माल व असबाब गुम हो गया है , यहां तक कि घर तक पहुंचने के लिये कुछ भी नहीं बचा है अगर आप मुनासिब समझें तो मेरी कुछ मदद करें ताकि मैं अपने घर पहुंच सकूं , ख़ुदा वन्दे आलम ने मुझे नेमत अता की है वहां पर मैं दौलत मन्द आदमी हूं जब अपने वतन पहुंच जाऊंगा तो जो रक़म आप मुझे देंगे उतना ही सदक़ा और ख़ैरात मैं आप की तरफ़ से बांट दूंगा क्यों कि मैं ख़ुद ग़रीब नहीं हूं और सदक़े व ख़ैरात का मुसतहक़ भी नहीं हूं इमाम अलैहिस्सलाम ने उस से फ़रमायाः ख़ुदा की तुम पर रहमत हो , बैठ जाओ , फ़िर हाज़रीन की तरफ़ रुख़ कर के उन से गुफ़तगू करनी शुरु कर दी और जब सभी लोग चले गए और वहां सिर्फ़ हज़रत और सुलैमान जाफ़री व हेसमा और मैं रह गया तो इमाम ने फ़रमायाः मुझे इजाज़त दें मैं घर के अन्दर जाना चाहता हूं , सुलैमान ने अर्ज़ कियाः ख़ुदा वन्दे आलम आप के काम में वुसअत अता करे।

इमाम अलैहिस्सलाम घर के अन्दर तशरीफ़ ले गऐ और थोड़ी देर बाद पावस लोटो , दरवाज़ा बन्द किया और फ़रमायाः वह ख़ुरासानी आदमी कहां है ? इमाम ने दाख़िल होने से पहले बस अपना हाथ ही निकाला था अर्ज़ कियाः मैं यहां हूं , फ़रमायाः यह दो सौ दीनार रख़ो और अपने ज़ादे सफ़र पर ख़र्च करो इसे तबर्रुक समझ कर रख़ो और मेरी तरफ़ से सदक़ा देने की ज़रूरत भी नहीं है , जाओ मैं तुम्हे न देखूं और तुम भी मुझे न देखना फ़िर वह आदमी चला गया सुलैमान जाफ़री ने हज़रत से अर्ज़ कियाः मेरी जान आप पर फ़िदा होः आप ने बहुत ज़्यादा करम व एहसान किया है फ़िर इस आदमी से ख़ुद को छुपाना क्यों ? हज़रत ने फ़रमायाः मैं इस बात से डरता था कि कहीं जो दरख़ास्त इस ने मुझ से की है यह इस के चहरे पर शरमिन्दगी के आसार न देख़ लूं मैं नहीं चाहता था कि वह शरमिन्दा हो क्या रसूले ख़ुदा (स.) की यह हदीस नहीं सुनी कि जिस में उन्हों ने प़रमाया है (अल मुसततेरू बिल हसानते...............) जो कोई अपनी नेकी को छुपाता है उसका सवाब सत्तर हज के बराबर है और जो कोई ख़ुले आम तौर पर गुनाह करता है वह ज़लील व ख़्वार होता है लेकिन जो कोई इस को पोशीदा रखता है उस की बख़शिश हो जाती है।

(अल काफ़ी 4/23 , हाशिया 3 , अल मुनाक़िब 4/360 , अल बिहार 49/101 हाशिया 19)

इमाम अलैहिस्सलाम सभी लोगों हत्ता जानवरों की भी पनाह गाह थे। रवानदी औऱ इबने शहरे आशूब और दूसरों ने सुलैमान जाफ़री के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहा एक बाग़ मैं हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के साथ उन की ख़िदमत में हाज़िर थे कि अचानक एक चुड़िया आई और हज़रत के सामने आकर बैठ गई और फ़रयाद करनी शुरु कर दी वह बहुत ज़्यादा मुज़तरिब और परेशान थी हज़रत ने मुझ से फ़रमायाः यह चुड़िया कह रही है मेरे घोसले में सांप आ गया है और मेरे बच्चों को खा जाना चाहता है , तुम यह छड़ी लेकर जाओ और उस सांप को मार डालो। सुलैमान कहते हैं मेने छड़ी उठाई और वहां जाकर देख़ा तो वाक़ेअन सांप घोसले में घुस कर चुड़िया के बच्चों को खाने ही वाला था मैंने उस सांप को मार डाला।

(अल मुनाक़िब 4/334 , अल बिहार 49/88 , नक़्ल अज़ बसाएरुद दराजात सातवां हिस्सा बाब 14 हाशिया)

इमाम अलैहिस्सलाम की पनाह में हिरनः

शैख़ सुदूक़ और इबने शहर आशूब ने नक़्ल किया है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम अपने दौर-ए-मरू के दौरान रास्ते में फ़रवीनी या फ़ोज़ा नामी जगह पर क़याम फ़रमा हुऐ , वहां हज़रत के हुक्म पर एक हमाम तय्यार किया गया (शैख़ सुदूक़ का कहना है) कि इस वक़्त वह हमाम इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के नाम से मंसूब है। उस वक़्त वहां पर एक झरना भी था जिस का पानी कम हो चुका था आप ने हुक्म फ़रमाया कि उस की तामीर की जाऐ फ़िर उसका पानी ज़्याजा हो गया। फ़िर उसके ऊपर ही एक हौज़ बनाया गया , इमामे रज़ा (अ.) उस हौज़ में दाख़िल हुऐ , ग़ुस्ल फ़रमाया फ़िर बाहर निकले और उस हौज़ के पास नमाज़ अदा की , लोग भी वहां आये और उन्हों ने नमाज़ पढ़ी , लोग जूक़ दर जूक़ आते उसका पानी पीते और ग़ुस्ल किया करते थे और तबर्रुक के तौर पर अपने साथ भी ले जाया करते थे , आज वह झरना खान के नाम से मशहूर है और लोगों का वहां मजमा लगा रहता है।

इब्ने शहरे आशूब का कहना हैः वा रोवेया अन्नहू.......................... ऐसी हालत में जबकि हज़रत अपने असहाब के साथ उस झरने के पास बेठे हुऐ थे एक हिरन आया और हज़रत के पास पनाह हासिल की (शायद कि उस हिरन का कोई शिकार करना चाहता था , जिस ने इमाम (अ.) के पास आकर पनाह हासिल की और उसकी जान बच गई , इसी लिये हज़रत को या हज़रते ज़ामिने आहू (हिरन की जान की ज़मानत लेने वाला) कहा जाता है , इब्ने हम्माद नामी शाएर अपने अशआर में इसी बात की तरफ़ इशारा करते हुऐ कहता है।

अल लज़ी ला ज़ाबेही....................

ऐसा इमाम जिस की पनाह में हिरन पनाह हासिल करे जब कि वहां लोगों का इजतेमा हो यह वह है जिस के जद्दे बुज़ुर्गवार अली-ए-मुर्तज़ा हैं जो कि पाक व पाकीज़ा और आला मर्तबे व बावक़ार हसती हैं।

(कशफ़िल ग़ुमा 2/305 , इसबातुल हिदायत 3/296 , हाशिया 126 , अख़बारे उयूने रज़ा 2/145 , अल मुनाक़िब 4/348 , अल बिहार 49/123 , हाशिया 5-)

हम अपने महमान से ख़िदमत नहीं लिया करतेः

आइम्मा अतहार (अ.) का शयवाह यह था कि अपने महमानों की ख़िदमत किया करते थे , उन की ताज़ीम व तकरीम किया करते थे और महमानों को अपने लिये काम नहीं कि करने दिया करते थे। शैख़ कलीनी अपनी सनद के हवाले से नक़्ल करते हैं कि एक मर्तबा एक महमान हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के पास आया और वह इमाम के सामने बेठा फ़ुरुज़ां शमा दान के पास महवे गुफ़तुगू था , अचानक फ़ानूस बुझ गई , महमान ने अपना हाथ आगे बढ़ाया कि फ़ानूस को दोबारह से रौशन करे लेकिन इमाम (अ.) ने उस को इस काम से रोका और ख़ुद उठ कर फ़ानूस को रौशन किया और फ़रमायाः इन्ना क़ौमुन ला नसतख़देमो अज़याफ़ना (हम ऐसे घराने के लोग हैं जो अपने महमानों से काम नहीं लिया करते)

इमाम अलैहिस्सलाम ने अजनबी आदमी की मालिश कीः

इब्ने शहरे आशूब ने रिवायत की है इमाम (अ.) ग़ुस्ल करने के लिये हमाम तशरीफ़ ले गऐ एक आदमी ने जो उस हमाम के अन्दर नहा रहा था और इमाम (अ.) को नहीं पहचानता था , हज़रत से कहने लगा कि उस के बदन की मालिश कर दें , इमाम (अ.) भी उठे और उसके बदन की मालिश शुरु कर दी जब कुछ लोग हमाम में दाख़िल हुऐ और उन्हों ने हज़रत को पहचान लिया फ़िर जब उस आदमी को भी इमाम (अ.) के बारे में पता चला तो उसने हज़रत से माज़रत तलब की और शरमिन्दगी का इज़हार किया फ़िर भी इमाम (अ.) ने मालिश जारी रख़ी।

(अल मुनाक़िब 4/362 , अल बिहार 49/99 , हाशिया 61)

अपने एक चाहने वाले पर शिया पर महरबानीः

इब्ने शहरे आशूब मूसा बिन सय्यार के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहाः कि मैं हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में हाज़िर था और आप शहरे तूस पहुंच ने ही वाले थे कि अचानक हम लोगों ने नाला व फ़रयाद की बुलन्द आवाज़ सुनी , मैं उस आवाज़ की सिम्त बढ़ा तो एक जनाज़ा देखा , जब उस जनाज़े की तरफ़ देखा तो क्या देखा कि इमाम (अ.) अपने मरकब से उतर गऐ और उस जनाज़े को उठाने के साथ ही ख़ुद को जनाज़े से चिपका लिया जिस तरह कोई भैड़ अपने बच्चे को गोद में सटा लिया करती है , फ़िर मेरे तरफ़ रुख़ कर के फ़रमायाः या मूसा बिन सय्यारिन मन शय्येआ....................... (ऐ मूसा बिन सय्यार , जो कोई मेरे शिआ का जनाज़ा उठाऐगा , उस के गुनाह धुल जाऐंगे इस तरह जैसे कि जिस तरह बच्चा अपने माँ के बतन से ऐसी हालत में पैदा होता है कि वह बिल्कुल बे गुनाह हुआ करता है)

जब जनाज़ा ज़मीन पर रखा गया तो मैंने देखा कि मेरे मौला इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम , मय्यत की तरफ़ बढ़े , लोगों को पीछे हटाया और ख़ुद को जनाज़े तक पहुंचाया और अपना हाथ मय्यत के सीने पर रखा और फ़रमायाः ऐ फ़लां इब्ने फ़लां तुम्हें जन्नत की बशारत दी जाती है इस के बाद से तुम्हारे लिये ख़ौफ़ व हिरास नहीं पाया जाता। मैंने अर्ज़ कियाः मौला आप पर में फ़िदा हो जाऊं , क्या आप इस मुर्दा इंसान को जानते हैं ? जबकि ख़ुदा गवाह है कि पहले कभी आप यहां तशरीफ़ नहीं लाऐ थे ? फ़रमायाः मूसा इब्ने सय्यार क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि हर सुब्ह व शाम को हमारे शियों के आमाल हमारे हुज़ूर में पैश किये जाते हैं ? और जब रात में हम उन के आमाल में कोई ग़लती देख़ते हैं तो ख़ुदा से दरख़ास्त करते हैं कि उन्हें माफ़ कर दे और जब कोई नेकी देखते हैं तो ख़ुदा का शुक्रिया अदा करते हैं और उस इंसान के लिये जज़ा-ए-ख़ैर तलब करते हैं।

(अल मुनाक़िब 4/341 , अल बिहार 49/98 , हाशिया 13 , अनवारुल बहय्यत 337-)

हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने वाक़फ़िया गिरोह के एक सरकरदा के अज़ाब की ख़बर दी हज़रत इमामे मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद एक कड़वा वाक़ेआ पैश हुआ , वह गिरोह वाक़फ़िया की तशकील और उसका मारिज़ वुजूद में आना था , उन्हों ने हज़रत इमामे रज़ा (अ.) की इमामत को नहीं माना और इमामे मूसा काज़िल (अ.) की इमामत तक ही इस सिलसिले को रोक दिया , इस की एहम वजह यह थी कि उस गिरोह के सरकरदा लोग अली बिन अबी हमज़ा बताएनी , ज़ियाद बिन मरवाने क़नदी , और उसमान बिन ईसा वग़ैरा ने दुनियावी उमूर के लालच में आकर , चूंकि वह ईमामे मूसा काज़िम (अ.) के नुमाइंदे थे और बहुत सामान व असासा जमा कर रखा था , उस माल व असबाब को इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के हवाले न करने की नीयत से उन की इमामत का इंकार कर बैठे थे , इमामे रज़ा (अ.) ने ऐसे गिरोह को , मलऊन , मुशरिक , और काफ़िर क़रार दिया है और लोगों को उन की सोहबत और उन के पास उठने और बेठने से मना किया है।

शैख़ कशी ने उन्हीं में से एक सरकरदा पर जिस का नाम अली बिन अबी हमज़ा बताएनी था , अज़ाब नाज़िल होने की ख़बर को हज़रत इमामे रज़ा (अ.) से नक़्ल किया है। अब्दुल रहमान एक रिवायत नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहाः मैं इमामे रज़ा (अ.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ आप ने मुझ से फ़रमायाः क्या अली बिन अबी हमज़ा की मौत वाक़े हो गई ? मैंने अर्ज़ किया हां , तो आप ने फ़रमायाः क़द दख़ालन नार बैशक दौज़ख़ में दाख़िल हुआ है। रावी कहता है , मैं यह बात सुन कर बेचैन हो गया , आप ने फ़रमायाः जान लो कि मेरे वालिद के बाद होने वाले इमाम के बारे में उस से पूछा गया तो उस ने जवाब दियाः उन के बाद मैं किसी इमाम को नहीं पहचानता हूं। फ़िर उसके बाद उस की क़ब्र पर एक ज़रबत लगाई गई जिस की वजह से उसकी क़ब्र से आज के शौले उठने लगे।

एक दूसरी रिवायत में आया है कि हज़रत इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमायाः अली बिन अबी हमज़ा को उस की क़ब्र में बिठा कर सभी आइम्मा अलैहिमुस्सलाम ने एक एक कर के पूछा , उसने सब का नाम लेकर जवाब दिया और जब मेरी बारी आई और रहा तो उस के सर पर एक ऐसी ज़रबत लगी जिसकी वजह से उसकी क़ब्र आग से भर गई।

(रिजालुल कशी 444 , हाशिया 833-834 , तनक़ीहुल मक़ाल 2/261 , मोजिमे रिजाले हदीस 11/217-)

इब्ने शहरे आशूब माज़ंदेरानी ने इस मोज़ू को हसन बिन अली विशा के हवाले से ज़्यादा वज़ाहत के साथ नक़्ल किया है।

वह कहते हैः मेरे मौला हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने (मर्द) में मुझे तलब किया और फ़रमायाः ऐ हसन , आज अली बिन अबी हमज़ा बताएनी की मौत वाक़े हो गई है और अभी उसको क़ब्र में दफ़्न कर दिया गया है और मलाऐका उसकी क़ब्र में दाख़िल हुऐ हैं और उस से पूछा है कि मन रब्बोका ? फ़ क़ाला अल्लाह (तेरा पर्वरदिगार कौन है) उसने कहा अल्लाह , फ़िर पूछा तुम्हारा नबी कौन है ? जवाब दिया मुहम्मद (स.) फ़िर पूछा तुम्हारा इमाम व वली कौन है ? उसने जवाब दिया अली बिन अबी तालिब , कहा उन के बाद कौन है ? उसने कहाः हसन (अ.) सवाल किया गया उनके बाद कौन है ? उसने जवाब दिया हुसैन (अ.) पूछा उन के बाद कौन है ? कहा अली बिन हुसैन (अ.) पूछा उन के बाद कौन हैं ? कहा मुहम्मद बिन अली , पूछा गया उन के बाद कौन है ? कहाः जाफ़र इब्ने मुहम्मद , पूछा फ़िर उन के बाद कौन है ? उसकी ज़बान लड़खड़ाई और कोई जवाब नहीं दे पाया , फ़िर पूछा गया मूसा इब्ने जाफ़र के बाद तुम्हारा इमाम कौन है ? वह जवाब नहीं दे पाया और ख़ामौश रहा , पूछा गया क्या इमाम मूसा इब्ने जाफ़र (अ.) ने तुम्हें इस तरह का हुक्म दिया था ? उसके बाद उन्होंने उसको आग के गुर्ज़ से मारा इस तरह कि क़यामत तलक उसकी क़ब्र में आग के शौले भड़कते रहेंगे।

रावी का कहना हैः मैं हज़रत के पास से निकल कर बाहर आया और उस दिन और तारीख़ को नौट कर के रख लिया अभी कुछ ही वक़्त गुज़रा था कि कूफ़े के एक शख़्स ने मूझे ख़त लिखा जिस में बताएनी के मौत की ख़बर का ज़िक्र किया गया था और जो दिन व तारीख़ मैंने लिखी थी वोह ही थी जिस को इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने बताया था।

(अल मुनाक़िब 4/337 , अल बिहार 49/58 ,)

हज़रत इमामे मूसा काज़िल (अ.) ने उस के पहले फ़रमाया थाः मन ज़लामा इब्नी............. (जो कोई मेरे इस फ़र्ज़न्द के हक़ में ज़ुल्म करेगा और मेरे बाद उसकी इमामत का मुनकिर होगा (जैसा कि फ़िर्क़-ए-वाक़फ़िया ने किया) वह ऐसा होगा जिसने कि अली इब्ने अबी तालिब के हक़ में जफ़ा किया होगा और रसूले ख़ुदा के बाद उन की इमामत का इंकार किया होगा।

(उसूले काफ़ी 3/102 , ज़ीला/हाशिया 61 , कशफ़ुल ग़िमा 2/272 , उयूने अख़बारे रज़ा 1/40 , हाशिया 29 , किताबुल ग़ीबत 25)