वहाबियत, वास्तविकता और इतिहास-14

मशहुर वहाबी लेखक हाफ़िज़ वहबा, वहाबियत के मूल विचारों व आस्थाओं के बारे में इस प्रकार लिखते हैं।

बिदअत अर्थात धर्म में शामिल की जाने वाली नई बातों व पापों से संघर्ष विशेष कर उन बातों से संघर्ष जो अनेकेश्वरवाद की श्रेणी में आती हैं जैसे ईश्वर के प्रिय बंदों की ज़ियारत, तवस्सुल और उनसे संबंधित वस्तुओं से विभूति चाहना, उनकी क़ब्रों के निकट नमाज़ पढ़ना, क़ब्रों पर दिया जलाना या उन पर कुछ लिखना, ईश्वर के अतिरिक्त किसी की भी सौगंध खाना, या उससे बीमारी ठीक करने की आशा रखना या उससे शेफ़ाअत करने का अनुरोध करना यह सब शिर्क या अनेकेश्वरवाद है और इनसे संघर्ष किया जाना चाहिए। इब्ने तैमिया का भी कहना है कि किसी भी क़ब्र को, चाहे पैग़म्बरों की ही क्यों न हो चूमना या हाथ लगाना अनेकेश्वरवाद है किसी भी रूप में वैध नहीं है बल्कि यह एकेश्वरवाद के विपरीत है। इस प्रकार की बातें स्वयं ही बिदअत के अतिरिक्त कुछ नहीं क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल में उनके साथी उनसे तथा उनकी वस्तुओं से विभूति प्राप्त करने का प्रयास करते थे और वे भी उन्हें इस कार्य से नहीं रोकते थे। इसका प्रमाण सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े धर्मगुरुओं में से एक इमाम बुख़ारी का कथन है। वे कहते हैं कि उरवा इब्ने मसऊद पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों को देखते थे और कहते थे कि ईश्वर की सौगंध पैग़म्बर द्वारा वुज़ू किए जाने के समय जो पानी गिरता था उसे उनके साथ अपने हाथ में ले लेते थे और अपने चेहरे तथा शरीर पर मल लेते थे। जब भी पैग़म्बर वुज़ू करते तो उनके वुज़ू का पानी लेने के लिए उनके साथियों के बीच इस प्रकार मुक़ाबला होता था कि ऐसा प्रतीत होता था कि शीघ्र ही उनके बीच टकराव हो जाएगा।
 
जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम हज के अवसर पर अपने बालों को मूंडते थे तो उनके साथी उनके सभी बालों को एकत्रित कर लेते थे और उनसे विभूति प्राप्त करते थे। इसी प्रकार जब कभी वे किसी छागल के मुंहाने से पानी पीते थे तो उनके साथ उस छागल के मुंहाने को काट कर रख लेते थे ताकि उससे विभूति प्राप्त कर सकें। उनके कवच, लाठी, तलवार, बर्तन, मुहर, अंगूठी, बाल व कफ़न से विभूति प्राप्त करने संबंधी हदीसें सहीह बुख़ारी के जेहाद एवं पैग़म्बरे इस्लाम की विशेषताओं के अध्याय में वर्णित हैं। यदि ये बातें अनेकेश्वरवाद होतीं तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम, मुसलमानों को अवश्य ही इस कार्य से रोकते और इ संबंध में कड़ाई से काम लेते। जैसा कि जब उनके पुत्र की मृत्यु को चंद्रगृहण से जोड़ने का प्रयास किया गया तो उन्होंने बड़ी कड़ाई से इस ग़लत आस्था का विरोध किया किंतु हम सुन्नी मुसलमानों की किताबों में देखते हैं कि लोगों द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम और उनकी वस्तुओं से विभूति प्राप्त करने के प्रयास के बारे में अनेक हदीसे हैं जबकि पैग़म्बर द्वारा इसके विरोध के बारे में एक भी हदीस किसी भी विश्वस्त पुस्तक में नहीं मिलती।

वस्तुतः किसी व्यक्ति या उसकी वस्तु से विभूति प्राप्त करने के प्रयास का अर्थ यह होता है कि वह व्यक्ति ईश्वर के निकट ऊंचा दर्जा व सामिप्य रखता है किंतु इस स्थायी आस्था के साथ कि वह ईश्वर की अनुमति के बिना कोई भलाई नहीं पहुंचा सकता या किसी बुराई को दूर नहीं कर सकता। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बैठने के स्थान या मिम्बर तथा उनकी क़ब्र से विभूति की कामना, उनकी क़ब्र को छूना या चूमना, पैग़म्बर के निधन के बाद मुसलमानों में प्रचलित रहा और मदीना नगर के सबसे बड़े धर्मगुरूओं में शामिल सईद बिन मुसय्यब और यहया बिन सईद भी ऐसा किया करते थे। ईश्वर के प्रिय बंदों की क़ब्रों व अन्य वस्तुओं से विभूति प्राप्त करने की कामना इस कारण है कि हम इन वस्तुओं को उन प्रिय बंदों से संबंधित समझते हैं और हमारा मानना है कि उनकी प्रतिष्ठा एवं महानता के चलते उनकी वस्तुओं में भी प्रतिष्ठा के भाव पाए जाते हैं। जब हम क़ुरआने मजीद में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना पढ़ते हैं तो देखते हैं कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपनी ज्योति रहित आंखों को हज़रत यूसुफ़ के कुर्ते से मला और उनकी आंखें लौट आईं। यदि ईश्वर के प्रिय बंदों की वस्तुओं से विभूति की कामना, अनेकेश्वरवाद होती तो क्या क़ुरआने मजीद हज़रत याक़ूब के इस कार्य को ग़लत नहीं ठहराता? पैग़म्बरों, इमामों और ईश्वर के प्रिय बंदों की वस्तुओं के विभूतिपूर्ण होने का एक ठोस प्रमाण है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र को छूने और चूमने को अनेकेश्वरवाद बताना भी वहाबियत के भ्रष्ट विचारों एवं बिदअतों में से एक है। सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े धर्मगुरुओं में से एक अहमद बिन हम्बल ने कहा है कि इस कार्य में कोई आपत्ति नहीं है। अलबत्ता चूंकि पैग़म्बरे इस्लाम के साथी स्वयं उनके संपर्क में रहते थे इस लिए वे प्रयास करते थे कि सीधे उनसे और उनसे संबंधित वस्तुओं से विभूति प्राप्त करें किंतु हम मुसलमान जो उनके जीवन से सीधे लाभान्वित नहीं हो सकते, उनकी क़ब्र के निकट जा कर, उसे छू कर तथा चूम कर उनसे विभूति प्राप्त कर सकते हैं और उनसे अपने गहरे प्रेम का प्रदर्शन कर सकते हैं।

स्थानों की अपने आपमें कोई प्रतिष्ठा नहीं होती और ईश्वर के प्रिय बंदों द्वारा नमाज़ पढ़ने, रोज़ा रखने और ईश्वर की उपासना करने के कारण कुछ स्थानों में ख़ास विशेषताएं पैदा हो जाती हैं। अपने अच्छे बंदों के भले कर्मों के कारण ईश्वर कुछ स्थानों को अपनी दया व कृपा का पात्र बनाता है, वहां फ़रिश्ते आते हैं और वहां शांति मिलती है। यह वही विभूति है जो ईश्वर उन स्थानों को प्रदान करता है। ईमान वाला व्यक्ति इन स्थानों पर उपस्थित होकर ईश्वर पर अधिक ध्यान केंद्रत करता है और प्रार्थना व तौबा द्वारा अपने हृदय के द्वार ईश्वरीय प्रकाश की प्राप्ति के लिए खोल देता है। मस्जिदुन्नबी में और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों की क़ब्रों के निकट उपस्थित हो कर हम उनके द्वारा सहन की गई कठिनाइयों और उनकी शुद्ध उपासनाओं को याद करते हैं और इस बात का प्रयास करते हैं कि स्वयं को उनके जैसा बनाएं और ईश्वर की शुद्ध रूप से उपसना के मार्ग पर चलें।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम अपनी मेराज की यात्रा में, जो मस्जिदुल अक़सा से आरंभ हुई, मदीना, तूरे सीना और बैत लहम में रुकें और वहां पर नमाज़ अदा की। ईश्वर के निकटवर्ती फ़रिश्ते हज़रत जिब्रईल ने उनसे कहा कि आपने मदीना नगन में नमाज़ पढ़ी क्योंकि वह आपके पलायन का स्थान है, तूरे सीना पर नमाज़ पढ़ी क्योंकि वहां ईश्वर ने हज़रत मूसा से बात की थी, बैत लहम में नमाज़ अदा की क्योंकि वहां हज़रत ईसा मसीह का जन्म हुआ था। इस आधा पर ईश्वर के पैग़म्बरों के जन्म अथव दफ़्न होने के स्थल पर नमाज़ पढ़ने में कोई अंतर नहीं है बल्कि लक्ष्य, उन प्रतिष्ठित लोगों से विभूति प्राप्त करना है जिनके पवित्र शरीर उस मिट्टी और उस स्थान से जुड़े रहे हैं चाहे उनकी आयु के आरंभ में या अंत में।

निश्चित रूप से ईश्वर के प्रिय बंदों यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र पर सजदा करना सही नहीं है क्योंकि सजदा मनुष्य की विनम्रता का चरम बिंदु है और यह भावना केवल ईश्वर के समक्ष ही स्वीकार्य है। तफ़सीरे क़ुरतुबी में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा। न तो क़ब्र की ओर नमाज़ पढ़ो और न ही उस पर बैठो। अर्थात क़ब्रों को क़िबला न बनाओ कि उनकी ओर मुख करके नमाज़ पढ़ो या उन पर सजदा करो। यहूदियों और ईसाइयों ने ऐसा ही किया और अंततः वे क़ब्र में दफ़्न व्यक्ति की उपासना करने लगे। किंतु पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र के निकट नमाज़ पढ़ने का अर्थ उनसे विभूति चाहना है। ईश्वर पवित्र क़ुरआन में हाजियों को आदेश देता है कि वे मक़ामे इब्राहीम को अपनी नमाज़ का स्थान बनाएं। सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 125 में कहा गया है। और मक़ामे इब्राहीम से अपने लिए उपासना स्थल का चयन करो। अन्य पैग़म्बरों की क़ब्रों के निकट नमाज़ पढ़ना, मक़ामे इब्राहीम के निकट नमाज़ अदा करने जैसा ही है। अंतर यह है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का शरीर एक या कई बार इस स्थान से लगा है जबकि उन क़ब्रों में पैग़म्बरों के पवित्र शरीर सदा के लिए आराम कर रहे हैं।

क़ुरआने मजीद, सूरए आले इमरान की सत्रहवीं आयत में ईश्वर के कुछ प्रिय बंदों का उल्लेख इस प्रकार करता हैः वे संयम रखने वाले, सच बोलने वाले, (ईश्वर के समक्ष) विनम्र, दान देने वाले, आज्ञापालन करने वाले और भोर समय प्रायश्चित करने वाले हैं। अब यदि कोई आधी रात को उठ कर नमाज़ के लिए खड़ा हो तथा गिड़गिड़ा कर ईश्वर से यह प्रार्थना करे कि प्रभुवर! मैं चाहता हूं कि तू भोर समय तुझ से क्षमा मांगने वालों के वास्ते मेरे पापों को क्षमा कर दे, तो क्या यह कार्य वैध है? अबू नईम ने अपनी किताब हिलयतुल औलिया में अनस इब्ने मालिक का कथन लिखा है कि जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम की माता फ़ातेमा बिन्ते असद का निधन हुआ तो उनके लिए एक क़ब्र खोदी गई। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम स्वयं क़ब्र खोदने के लिए नीचे उतरे और उन्होंने अपने हाथों से क़ब्र की मिट्टी बाहर फेंकी। जब क़ब्र पूर्ण रूप से तैयार हो गई तो वे उसमें लेटे गए और फिर उन्होंने कहाः ईश्वर ही है जीवन व मृत्य देता है और वह स्वयं ऐसा जीवित है जिसके लिए मृत्यु की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रभुवर! मेरी माता फ़ातेमा बिन्ते असद को क्षमा कर, उन्हें उनके तर्क से अवगत करा और उनके स्थान को विस्तृत कर दे। तुझे तेरे पैग़म्बर और मुझसे पहले वाले पैग़म्बरों का वास्ता कि तू सबसे अधिक दयावान है।

कभी कहा जाता है कि चूंकि रचयिता पर रचना का कोई अधिकार नहीं होता अतः ईश्वर को रचना का वास्ता देना वैध नहीं है। इसका उत्तर यह है कि स्वयं कृपाशील ईश्वर ने अपने प्रिय बंदों के लिए स्वयं पर कुछ अधिकारों को स्वीकार किया है। कुरआने मजीद के सूरए रूम की सैंतालीसवीं आयत में हम पढ़ते हैं कि और ईमान वालों की सहायता करना हमारे ज़िम्मे एक स्थायी अधिकार है। इसी प्रकार सूरए यूनुस की आयत संख्या 103 में कहा गया हैः इसी प्रकार हमारा अधिकार है कि हम ईमान वालों को मुक्ति दें। क़ुरआने मजीद की इन आयतों के अतिरिक्त कुछ हदीसें भी हैं जो रचयिता पर रचना के अधिकार की ओर संकेत करती हैं। प्रख्यात सुन्नी धर्मगुरू जलालुद्दीन सुयूती की पुस्तक जामेउस्सग़ीर में वर्णित है। ईश्वर के लिए आवश्यक है कि उस व्यक्ति की सहायता करे जो अपनी पवित्रता की रक्षा और ईश्वरीय वर्जनाओं से बचने के लिए विवाह करे। इसी प्रकार सुनन इब्ने माजा में लिखा हुआ है कि तीन गुटों की सहायता ईश्वर के ज़िम्मे है। वह मुजाहिद जो ईश्वर की राह में युद्ध करता है, वह दास जो पैसे देकर स्वयं को स्वतंत्र कराने का प्रयास करे और वह व्यक्ति जो अपनी नैतिक पवित्रता की रक्षा के लिए विवाह करे।

इन हदीसों और दुआओं में ईश्वर पर बंदों के अधिकार का तात्पर्य वह स्थान और दर्जा है जो ईश्वर उनके द्वारा उसके आज्ञापालन के कारण उन्हें प्रदान करता है और यह बंदों के अधिकार नहीं बल्कि ईश्वर की दया व कृपा के कारण है। अत्यंत स्पष्ट सी बात है कि किसी भी बंदे का चाहे वह शताब्दियों तक ईश्वर की उपासना करे, ईश्वर पर कोई अधिकार नहीं हो सकता क्योंकि बंदों को जो अनुंपाएं मिली हैं वे सबकी सब ईश्वर की ही दी हुई हैं। इस आधार पर जिस अधिकार का हम ईश्वर को वास्ता देते हैं वह, वह अधिकार है जिसे ईश्वर ने अपनी दया व कृपा से स्वयं के लिए स्वीकार किया है। दयावान ईश्वर सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 245 में कहता हैः कौन है जो ईश्वर को अच्छा ऋण दे? जबकि सभी जानते हैं कि जो कुछ हमारे पास है वह ईश्वर का ही दिया हुआ है। इस प्रकार की बातें ईश्वर द्वारा अपने प्रिय बंदों पर दया व कृपा को दर्शाती हैं, यहां तक कि वह स्वयं को बंदों का ऋणी तक कहता है। वस्तुतः इस प्रकार ईश्वर लोगों को अपने आज्ञापालन के लिए प्रोत्साहित करना चाहता है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि कट्टरपंथी और संकीर्ण सोच वाले वहाबी धर्म में विभिन्न प्रकार की बिदअतें पैदा करके अधिकांश मुसलमानों को काफ़िर एवं अनेकश्वरवादी और केवल स्वयं को सच्चा धर्मावलम्बी समझते हैं जबकि इस्लाम के सच्चे धर्मगुरुओं ने अपने बीच गहरे मतभेदों के बावजूद कभी भी एक दूसरे को काफ़िर या पथभ्रष्ट नहीं कहा।