लिबास के आदाब और आरास्तगी ए लिबास की फ़ज़ीलत

अकसर मोतबर हदीसों से साबित है कि अपने मुनासिबे हाल नफ़ीस और उम्दा लिबास, जो हलाल कमाई से मिला हो पहनना सुन्नते पैग़म्बर (स) और ख़ुदा की ख़ुशनूदी हासिल करने का सबब है और अगर तरीक़ ए हलाल से मयस्सर न हो तो जो मिल जाये उस पर क़नाअत कर ले। यह न हो कि तरह तरह के लिबास हासिल करने की फ़िक्र इबादते ख़ुदा में हरज पैदा करने लगे अगर हक़ तआला किसी की रोज़ी में इज़ाफ़ा करे तो मुनासिब है कि उसके मुताबिक़ खाये, पहने, ख़र्च करे और बरादराने ईमानी के साथ मेहरबानी करे और जिस की रोज़ी तंग हो उसे लाज़िम है कि क़नाअत करे और अपने आप को हराम और वह चीज़ें जिन के जायज़ होने का यक़ीन नही है उन से परहेज़ करे।

मोतबर हदीस में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से नक़्ल है कि ख़ुदा वंदे आलम अपने किसी बंदे को नेमत अता फ़रमाए और उस नेमत का असर उस पर ज़ाहिर हो तो उस को ख़ुदा का दोस्त कहेगें और उस का हिसाब अपने परवरदिगार का शुक्र अदा करने वालों में होगा और अगर उस पर कोई असर ज़ाहिर न हो तो उसे दुश्मने ख़ुदा कहेगें और उस की हिसाब क़ुफ़राने नेमत करने वालों में होगा।

दूसरी हदीस में आप से नक़्ल किया गया है कि जब अल्लाह तआला किसी बंदे को नेमत अता फ़रमाए तो वह इस बात को दोस्त रखता है कि उसे नेमत का असर उस बंदे पर ज़ाहिर हो और वह (अल्लाह) देखे।

हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) से नक़्ल है कि मोमिन के लिये ज़रूरी है कि वह अपने बरादरानी ईमानी के लिये ऐसी ही ज़ीनत करे जैसी उस बैगाने के लिये करता है जो चाहता हो कि उस शख़्स को उम्दा तरीन लिबास में अच्छी शक्ल या सरापे में देखे।