आत्महत्या

आत्महत्या भी इस ज़माने के समाजी समस्याओं में सबसे ऊपर है,

आज हिन्दुस्तान ही में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लोग आत्महत्या कर रहे हैं, और जान जैसी क़ीमती चीज़ ख़ुद अपने हाथों नष्ट कर रहे हैं।
आत्महत्या की एक बड़ा कारण घरेलू समस्याएं भी हैं। आम तौर पर औरतें जहेज़ के नाम पर सताई जा रही हैं, और उनके माँ-बाप से अवैध फ़ाएदा उठाया जा रहा है, कभी-कभी कम जहेज़ लाने वाली औरतों को ज़िंदा जला दिया जाता है, और कभी वो इस क़दर मजबूर हो जाती हैं कि उनके सामने आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं रहता, जहेज़ के नाम पर औरतों को डराने की कोशिश की जाती है समाज जेहालत के अंधेरों में डूबा हुआ है।
शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है, और इससे ज़्यादा ज़िंदगी का स्तर बुलंद से बुलंद तर होता जा रहा है, परिवार को उभरने के लिए पैसे की ज़रूरत है, जो किसी अच्छी नौकरी या बड़े व्यापार द्वारा ही हासिल हो सकती है, ज़िन्दगी की दौड़ में बरपा इस मुक़ाबले ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है, माँ-बाप उनसे पढ़ाई लिखाई के मैदान में अच्छी कारकर्दिगी की उम्मीद करते हैं, कभी-कभी बच्चे उनकी उम्मीदों पर पूरा नहीं उतर पाते उनमें से कुछ बच्चे हालात से समझौता कर लेते हैं और कुछ कम हौसला बच्चे हिम्मत हार बैठते हैं और अपनी ज़िन्दगी का ख़ात्मा कर लेते हैं। आत्महत्या का ये रुझान ताज़ा है और तेज़ी के साथ बढ़ रहा है। इनके इलावा भी कुछ ऐसे कारण हैं जो आदमी को आत्महत्या की तरफ़ ले जाते हैं। इंसान की घरेलू उलझनें बढ़ रही हैं, इसमें अमीर व ग़रीब का भी अंतर नहीं है, अमीर की परेशानियां दूसरी तरह की हैं, ग़रीब की मुश्किलें किसी और तरह की हैं।
आत्महत्या की जो घटनाएं दुनिया में पेश आती हैं उनमें दस प्रतिशत के पीछे घरेलू टेंशन्स होती हैं,
अल्लाह तआला ने इंसान को पैदा किया और उसे श्रेष्ठता व महानता प्रदान की, जैसा कि क़ुराने करीम में है: और हम ने सम्मान दिया है आदम की औलाद को और सवारी दी उनको जंगल और दरिया में और रोज़ी दी उनको पाक चीज़ों से, और श्रेष्ठता दी इनमें से बहुतों पर जिन्हें हमने पैदा किया (बनी इसराईल:70)
इस आयत में अल्लाह तआला ने दूसरे प्राणियों पर इंसान की श्रेष्ठता व फ़ज़ीलत व श्रेष्ठता को बयान फ़रमाया है। यह श्रेष्ठता इन विशेषताओं के कारण से है जो केवल इंसान में पाई जाती हैं इसके अलावा दूसरे प्राणियों में नहीं पाई जातीं, जैसे यह कि उसे अक़्ल व समझ दी। जिसके द्वारा वो दुनिया में फैले हुए दूसरे प्राणियों से अपने काम निकालता है, कुछ प्राणियों को वो अपनी सवारी के लिए इस्तेमाल करता है, कुछ प्राणियों के द्वारा वो अपना भोजन और कपड़े तैय्यार करता है, उसे अक़्ल व समझ के साथ उच्चारण और बोलने की क्षमता भी दी ताकि अपनी बात और अपने विचार दूसरों तक पहुंचा सके, और दूसरों के विचार आसानी के साथ समझ सके, यह अंतर व विशेषताएं हैं जिनमें इंसान का कोई शरीक व साथी नहीं है, क्या ये अक़लमंदी होगी कि इस क़दर क़ीमती जिस्म और इतनी विशेषताओं के वाहक वजूद को ख़त्म कर लिया जाए, और उसे मौत के हवाले कर दिया जाए।
ये सही है कि मौत एक अटल वास्तविकता है, और एक दिन हर ज़िंदा वजूद को मौत की आग़ोश में जाना है, लेकिन ये अधिकार केवल ख़ुदा को है, उसी ने पैदा किया है और वही मौत देगा, इंसान को केवल जीने का अधिकार दिया गया है, मौत का अधिकार नहीं दिया गया। यही कारण है कि इस्लाम ने आत्महत्या को हराम क़रार दिया है और उल्मा ने इसे भयानक अपराध होने के कारण, उसे कबीरा गुनाहों में गिना है। कबीरा गुनाह की विभिन्न परिभाषाएं की गई हैं। इनमें सबसे ज़्यादा व्यापक और संपूर्ण फरिभाषा यह है कि जिस गुनाह पर कोई हद (सज़ा) या लानत बयान की गई हो, या वो गुनाह किसी ऐसे गुनाह के बराबर हो जिस के अंजाम देने पर कोई लानत आई हो, हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास फ़रमाते हैं किः जिस गुनाह पर अल्लाह ने दोज़ख़ के अज़ाब की धमकी दी हो या उसे अपने ग़ुस्से और लानत का पात्र बताया हो, कबीरा है, अल्लामा इब्ने क़य्यम का ख़याल है कि जो गुनाह स्वंय निषेध हो, कबीरा हैं और जिनसे इसलिए मना किया गया हो कि वो किसी बुराई का कारण बनते हैं वो सगीरा हैं, बहेरहाल कबीरा गुनाहों पर बड़ी लानत हुई हैं, और उनके अंजाम देने वाले को सख़्त तरीन सज़ाओं का पात्र क़रार दिया गया है। वैसे तो अल्लाह चाहे तो बड़े से बड़ा गुनाह अपने फ़ज़्ल व करम से माफ़ कर सकता है, और चाहे तो छोटे से छोटे गुनाह पर पूछताछ कर सकता है, लेकिन क़ुरान व सुन्नत के सिलसिले में जो कुछ मालूम होता है वो ये है कि कबीरा गुनाह या तो कफ़्फ़ारात (सज़ा व बदले) द्वारा माफ़ होते हैं या तौबा द्वारा।
इस रौशनी में देखा जाए तो आत्महत्या ऐसा गुनाह है कि जिसके करने वाले पर कोई हद आदि जारी नहीं हो सकती और ना वो तौबा कर सकता है, क्योंकि आत्महत्या करने के बाद वो इस काबिल ही नहीं रहता कि इस पर अपराध से सम्बंधित कार्रवाई की जा सके या वो तौबा कर के अपना गुनाह माफ़ करा सके। क़ुराने करीम की नीचे दो आयतों से आत्महत्या की हुर्मत पर रौशनी पड़ती है। एक जगह इरशाद फ़रमाया गया:
"और तुम अपने आप को क़त्ल न करो, बिलाशुबा अल्लाह तआला तुम पर मेहरबान है, और जो शख़्स ज़ुल्म व अत्याचार से ऐसा करेगा तो हम उसे ज़रूर आग में डालेंगे" (अलनिसाः 29-30)
इस आयत में मुफ़स्सिरीन ने आत्महत्या को भी दाख़िल किया है। इस्लाम ने हर तरह के ख़ूँन ख़राबे को हराम क़रार दिया है, चाहे ख़ुद को क़त्ल करना हो या दूसरे को क़त्ल करना हो, और इसकी ये सज़ा भी निर्धारित कर दी है कि हम उसे आख़िरत में दोज़ख़ के अज़ाब की दर्दनाक सज़ा देंगे। एक आयत में फ़रमाया गयाः
 "और अपने आप को अपने हाथों से हलाकत में मत कर डालो।" (अल-बक़राः 195)
इस आयत से मुफ़स्सिरीन ने आम मानी मुराद लिये है यानी वो तमाम इख़्तियारी सूरतें नाजायज़ व अवैध हैं जो तबाही, बर्बादी और हलाकत की तरफ़ पहुंचाने वाली हों, फ़ुज़ूल ख़र्ची, हथियार के बिना मैदाने जिहाद में कूद पड़ना, दरिया में डूब कर, आग लगाकर, ज़हर खाकर, चाक़ू मार कर या दूसरे तरीक़ों से ख़ुद को हलाक करना यानी आत्महत्या करना, जिन इलाक़ों में वबाई बीमारियां फैल रहे हों वहां जाना आदि, क़ुराने करीम में ख़ुद को हलाक करने से मना है