अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

क़ुरआन और सदाचार

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इस में कोई शक नही है कि सदाचार हर समय में महत्वपूर्ण रहा हैं। परन्तु वर्तमान समय में इसका महत्व कुछ अधिक ही बढ़ गया है। क्योँकि वर्तमान समय में इंसान को भटकाने और बिगाड़ने वाले साधन पूर्व के तमाम ज़मानों से अधिक हैं। पिछले ज़मानों मे बुराईयाँ फैलाने और असदाचारिक विकार पैदा करने के साधन जुटाने के लिए मुश्किलों का सामना करते हुए अधिक मात्रा मे धन खर्च करना पड़ता था। परन्तु आज के इस विकसित युग में यह साधन पूरी दुनिया मे व्याप्त हैं।जो काम पिछले ज़मानों में सीमित मात्रा में किये जाते थे वह आज के युग में असीमित मात्रा में बड़ी आसानी के साथ क्रियान्वित होते हैं। आज एक ओर विकसित हथियारों के द्वारा इंसानों का कत्ले आम किया जा रहा है। तो दूसरी ओर दुष्चारिता को बढ़ावा देने वाली फ़िल्मों को पूरी दुनिया मे प्रसारित किया जा रहा है।विशेषतः इन्टर नेट के द्वारा मानवता के लिए घातक विचारों व भावो को दुनिया के तमाम लोगों तक पहुँचाया जा रहा है। इस स्थिति में आवश्यक है कि सदाचार की तरफ़ गुज़रे हुए तमाम ज़मानों से अधिक तवज्जोह दी जाये। इस कार्य में किसी भी प्रकार की ढील हमको बहुत से संकटों में फसा सकती है। खुश क़िस्मती से हमारे पास क़ुरआने करीम जैसी किताब मौजूद है। जिसमे एक बड़ी मात्रा में अति सुक्ष्म सदाचारिक उपदेश पाये जाते हैं। दुनिया के दूसरे धर्मों के अनुयाईयों के पास ऐसी नेअमतें नही हैं। बस हमें इस बात की ज़रूरत है कि हम क़ुरआन के साथ अपने सम्बन्ध को बढ़ायें और उसके बताये हुए रास्ते पर अमल करें ताकि इस ज़माने में भटकनें से बच सकें। सदाचार विषय का महत्व सदाचार वह विषय है जिसको क़ुरआने करीम में विशेष महत्व दिया गया है। और तमाम नबीयों का उद्देश भी सदाचार की शिक्षा देना ही था। क्योँकि सदाचार के बिना इंसान के दीन और दुनिया दोनों अधूरे हैं। वास्तव में इंसान को इंसान कहना उसी समय शोभनीय है जब वह इंसानी सदाचार से सुसज्जित हो। सदाचारी न हो ने पर यह इंसान एक खतरनाक नर भक्षी का रूप भी धारण कर लेता है। और चूँकि इंसान के पास अक़्ल जैसी नेअमत भी है अतः इसका भटकना अन्य प्राणीयों से अधिक घातक सिद्ध होता है।और ऐसी स्थिति में वह सब चीज़ों को ध्वस्त करने की फ़िक्र में लग जाता है। और अपने भौतिक सुख और लाभ के लिए युद्ध करके बे गुनाह लोगों का खून बहानें लगता है। क़ुरआने करीम को पढ़ने से मालूम होता है कि बहुतसी आयात इस विषय की महत्ता को प्रकट करती हैं। जैसे सूरए जुमुआ की दूसरी आयत मे ब्यान किया गया कि “वह अल्लाह वह है जिसने मक्के वालों के मध्य एक रसूल भेजा जो उन्हीं मे से था। (अर्थात मक्के ही का रहने वाला था) ताकि वह उनके सामने आयात को पढ़े और उनकी आत्माओं को पवित्र करे और उनको किताब व हिकमत(बुद्धी मत्ता) की शिक्षा दे इस से पहले यह लोग(मक्का वासी) प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।” और सूरए आले इमरान की आयत न. 64 मे ब्यान होता है कि “यक़ीनन अल्लाह ने मोमेनीन पर एहसान (उपकार) किया कि उनके दरमियान उन्हीं में से एक रसूल भेजा जो इनके सामने अल्लाह की आयात पढ़ता है इनकी आत्माओं को पवित्र करता है और उनको किताब व हिकमत (बुद्धिमत्ता ) की शिक्षा देता है जबकि इससे पहले यह लोग प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।” उपरोक्त की दोनों आयते रसूले अकरम (स.) की रिसालत के वास्तविक उद्देश्य,आत्माओं की पवित्रता और सदाचारिक प्रशिक्षण को ब्यान कर रही हैं। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि आयात की तिलावत, (आवाज़ के साथ पढ़ना) किताब और हिकमत की शिक्षा को आत्माओं को पवित्र बनाने और प्रशिक्षत करने के लिए आधार बनाया गया है। और आत्माओं की पवित्रता ही सदाचारिक ज्ञान का वास्तविक उद्देश्य है। शायद यही वजह है कि अल्लाह ने क़ुरआने करीम की बहुत सी आयात में आत्मा की पवित्रता को शिक्षा से पहले ब्यान किया है। क्योँकि वास्तविक ऊद्देश्य आत्माओं की पवित्रता ही है। जबकि क्रियात्मक रूप मे शिक्षा को आत्मा की पवित्रता पर प्राथमिकता प्राप्त है। उपरोक्त लिखित दोनों आयतों में से पहली आयत में अल्लाह ने रसूले अकरम (स.) को सदाचार की शिक्षा देने वाले के रूप मे रसूल बनाने को अपनी एक निशानी बताया है। और प्रत्यक्ष रूप से भटके होनें को, शिक्षा और प्रशिक्षण के विपरीत शब्द के रूप मे पहचनवाया है। इससे मालूम होता है कि क़ुरआने करीम में सदाचार विषय को बहुत अधिक महत्ता दी गई है। और दूसरी आयत में रसूले अकरम (स.) को सदाचार के शिक्षक के रूप मे भेज कर मोमेनीन पर एहसान(उपकार) करने का वर्णन किया गया है। जो सदाचार की महत्ता के लिए एक खुली हुई दलील है। नतीजा उल्लेखित आयतों व अन्य आयतों के अध्ययन से पता चलता है कि क़ुरआन की दृष्टि में सदाचार विषय बहुत महत्व पूर्ण है। और इसको एक आधारिक विषय के रूप में माना गया है। जबकि इस्लाम के दूसरे तमाम क़ानूनों को इस के अन्तर्गत ब्यान किया गया है।सदाचार का रूर्ण विकास ही वह महत्वपूर्ण उद्देश्य है जिस पर तमाम आसमानी धर्मों ने विशेष रूप से बल दिया है। और सदाचार ही को तमाम सुधारों का मूल माना है। ज्ञान और सदाचार का सम्बन्ध अल्लाह ने क़ुरआने करीम की बहुत सी आयात में किताब और हिकमत(बुद्धिमत्ता) की शिक्षा को आत्मा की पवित्रता के साथ उल्लेख किया है। कहीं पर आत्मा की पवित्रता का ज्ञान से पहले उल्लेख किया और कहीं पर आत्मा की पवित्रता को ज्ञान के बाद ब्यान किया। इस से यह ज्ञात होता है कि ज्ञान और सदाचार के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।अर्थात अगर किसी इंसान को किसी बात की अच्छाई या बुराई का ज्ञान हो जाये तो इसका असर उसकी व्यक्तित्व पर पड़ेगा वह अच्छाई को अपनाने और बुराई से बचने की कोशिश करेगा।इंसान की बहुत सी व्यवहारिक बुराईयाँ अज्ञानता के आधार पर होती हैं। अतः अगर समाज से अज्ञानता को दूर कर दिया जाये तो समाज से बहुत सी बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगीं। और धीरे धीरे अच्छाईयाँ बुराईयों का स्थान ले लेगीं। यह बात अलग है कि यह क़ानून पूरी तरह से लागू नही होता है।और यह भी आवश्यक नही है कि सदैव ऐसा ही हो। क्योकिं इस सम्बन्ध में दो दृष्टि कोण पाये जाते हैं पहला दृष्टिकोण यह है कि ज्ञान अच्छे सदाचार के लिए कारक है। तथा समस्त सदाचारिक बुराईयाँ अज्ञानता के कारण होती हैं। इस दृष्टि कोण के अनुसार सदाचारिक बुरीय़ों को समाप्त करने का केवल एक ही तरीक़ा है और वह यह कि समाज में व्यापक स्तर पर शिक्षा का प्रसार करके समाज के विचारों को उच्चता प्रदान की जाये। दूसरा दृष्टि कोण यह है कि ज्ञान और सदाचार मे आपस में कोई सम्बन्ध नही है। और ज्ञान बदकार और दुराचारी लोगों कोउनकी बदकारी और दुराचारी में मदद करता है। और वह पहले से बेहतर तरीक़े से अपने बुरे कामों पर बाक़ी रहते हैं। लेकिन वास्तविक्ता यह है कि न तो ज्ञान और सदाचार के सम्बन्ध से पूर्ण रूप से मना किया जा सकता है और न ही पूर्ण रूप से ज्ञान को सदाचार का आधार माना जा सकता है। अर्थात यह भी नही कहा जा सकता कि जहाँ पर ज्ञान होगा वहाँ पर अच्छा सदाचार भी अवश्य होगा। क्या इन्सान के अख़लाक़ मे परिवर्तन हो सकता है ? यह एक ऐसा सवाल है जो सदाचार की समस्त बहसों से सम्बन्धित है। क्योंकि अगर इन्सान के सदाचार में परिवर्तन को सम्भव न माना जाये तो केवल सदाचार विषय ही नही अपितु तमाम नबियों की मेहनतें और तमाम आसमानी किताबो (क़ुरआन, इंजील, तौरात, ज़बूर) में वर्णित सदाचारिक उपदेश निष्फल हो जायेगें। और दण्ड विधान की समस्त सहिंताऐं भी निषकृत सिद्ध होगीं। समस्त नबियों की शिक्षा और आसमानी किताबों में सदाचार से सम्बन्धित ज्ञान का पाया जाना इस बात के लिए तर्क है कि इंसान के सदाचार मे परिवर्तन सम्भव है। हमने बहुत से ऐसे लोगों को देखा हैं जिनका सदाचार और व्यवहार सही प्रशिक्षण के द्वारा बहुत अधिक परिवर्तित हुआ है। यहाँ तक कि जो लोग कभी शातिर बदमाश थे आज वही लोग सही मार्ग दर्शन के कारण आबिद और ज़ाहिद व्यक्ति के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं। अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए क़ुरआने करीम से कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

1- इस दुनिया में अम्बिया और आसमानी किताबों का आना इस बात के लिए सबसे अच्छा तर्क है कि हर व्यक्ति को प्रशिक्षित करना और उसके व्यवहार को बदलना सम्भव है। जैसे कि सूरए जुमुआ की दूसरी आयत में ब्यान हुआ है जिसका वर्णन पीछे भी किया जा चुका है। और इसी के समान दूसरी आयतों से यह ज्ञात होता है कि रसूले अकरम (स.) के इस दुनिया में आने का मुख्य उद्देश्य लोगों का मार्ग दर्शन करना उनको शिक्षा प्रदान करना तथा उनकी आत्माओं को पवित्र करना है जो प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।और यह सब तभी सम्भव है जब इंसान के व्यवहार में परिवर्तन सम्भव हो।

2- क़ुरआन की वह समस्त आयतें जिन में अल्लाह ने पूरी मानवता को सम्बोधित किया है और सदाचारिक विशेषताओं को अपनाने का आदेश दिया है यह समस्त आयतें इन्सान के सदाचार मे परिवर्तन सम्भव होने पर सबसे अचछा तर्क हैं। क्योंकि अगर यह सम्भव न होता हो अल्लाह का पूरी मानवता को सम्बोधित करते हुए इसको अपनाने का आदेश देना निष्फल होगा। इन आयात पर एक आपत्ति व्यक्त की जा सकती है कि इन आयात में से अधिकतर आयात अहकाम को ब्यान कर रही हैं। और अहकाम का सम्बन्ध इंसान के क्रिया कलापो से है। जबकि सदाचार का सम्बन्ध इंसान की आन्तरिक विशेषताओं से है। अतः यह कहना सही न होगा कि इन आयात में सदाचार की शिक्षा दी गई है। इस आपत्ति का जवाब यह है कि इंसान के सदाचार और क्रिया कलापो में बहुत गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। यह पूर्ण रूप से एक दूसरे पर आधारित हैं। और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इंसान के अच्छे क्रिया कलाप उसके अच्छे सदाचार का नतीजा होते हैं।जिस तरह उसके बुरे क्रिया कलाप उसके दुराचार का नतीजा होते हैं।

3- क़ुरआने करीम की वह आयात जो स्पष्ट रूप से सदाचार को धारण करने और बुराईयों से बचने का निर्देश देती हैं वह इंसान के सदाचार मे परिवर्तन के सम्भव होने के विचार को दृढता प्रदान करती हैं। जैसे सूरए शम्स की आयत न.9 और 10 में कहा गया है कि “क़द अफ़लह मन ज़क्काहा व क़द ख़ाबा मन दस्साहा” जिस ने अपनी आत्मा को पवित्र कर लिया वह सफ़ल हो गया और जिसने अपनी आत्मा को बुराईयों मे लीन रखा वह अभागा रहा। इस आयत में एक विशेष शब्द “ दस्साहा” का प्रयोग हुआ है और इस शब्द का अर्थ है किसी बुरी चीज़ को दूसरी बुरी चीज़ से मिला देना। इस से यह सिद्ध होता है कि पवित्रता इंसान की प्रकृति मे है और बुराईयाँ इस को बाहर से प्रभावित करती हैं अतः दोनों मे परिवर्तन सम्भव है। अल्लाह ने सूरए फ़ुस्सेलत की आयत न.34 मे कहा है कि “तुम बुराई का जवाब अच्छे तरीक़े से दो” इस तरह इस आयत से यह ज्ञात होता है कि मुहब्बत और अच्छे व्यवहार के द्वारा भयंकर शत्रुता को भी मित्रता में बदला जा सकता है। और यह उसी स्थिति में सम्भव है जब अख़लाक़ मे परिवर्तन सम्भव हो।

 

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zaid:mashallah
2014-02-06 13:38:18

mashallah achchi jankari he allah qubul kre

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