दीन क्या है?

दीन अरबी शब्द है जिस का मतलब आज्ञापालन, परोतोषिक आदि बताया गया है लेकिन दीन या दीन की परिभाषा होती है इस सृष्टि के रचयता और उसके आदेशों पर विश्वास व उस के प्रति आस्था रखना इस आधार पर जो लोग किसी रचयता के वुजूद में विश्वास नहीं रखते और इस सृष्टि के वुजूद को संयोग का नतीजा मानते हैं
उन्हें बे दीन अर्थात नास्तिक कहा जाता है लेकिन जो लोग इस दुनिया को पैदा करने वाले को मानते हैं तो फिर भले ही उनके विश्वास उनकी आस्थाएं और उनके सिध्दान्तों में बहुत सी अनुचित बातें शामिल हों लेकिन उन्हें धार्मिक या आस्तिक कहा जाता है। इस तरह से इस दुनिया में मौजूद धर्मों को दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है हक़ अर्थात सत्य और बातिल अर्थात असत्य। इस आधार पर सच्चा दीन वही होता है जिस के सिद्धांत तार्किक और वास्तविकताओं से मेल खाते हों और जिन कामों को करने का आदेश दिया गया हो उस के लिए उचित व तार्किक प्रमाण मौजूद हों।

उसूल व फुरूए दीन
हम ने दीन की जो परिभाषा बताई है उस के बाद अब यह स्पष्ट हो जाता है दीन कम से कम दो हिस्सों पर आधारित है।
1.  ईमान जो जड़ और आधारशिला का स्थान रखती है।
2.  व्यवहारिक सिद्धांत अर्थात वह आदेश जिन का पालन उसी विशेष आस्था व विश्वास के अंर्तगत ज़रूरी होता है।

मत या आइडियालॉजी
आइडियालॉजी का एक मतलब है इंसान व दुनिया के बारे में कुछ विशेष तरह के विश्वास व मत और मामूहिक रूप से पूरी सृष्टि के बारे में समन्वित विचारों को आइडियालॉजी कहा जाता है। आइडियालॉजी का एक दूसरा मतलब, इंसानी व्यवहार के बारे में समन्वित विचारधाराएं भी है।
इस दो अर्थों के अनुसार हर दीन के मतों व आस्थाओं तथा उस दीन की विचारधारा और उसकी शिक्षाओं व सिध्दान्तों को आइडियालॉजी कहा जाता है लेकिन इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि आइडियालॉजी में आंशिक सिद्धांत शामिल नहीं होती इस तरह से विचारधारा में आंशिक आस्थाएं भी शामिल होती हैं। इस संदर्भ में आगे के पाठों में ज़्यादा ब्योरा दिया जाएगा।

इलाही व भौतिक विचारधाराएं
इंसान में विभिन्न तरह की विचारधाराएं पाई जाती हैं लेकिन भौतिक व अध्यात्मिक दृष्टि से उसे दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है अर्थात कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें इस भौतिक दुनिया से परे भी किसी भी लोक व दुनिया से वुजूद को स्वीकारा गया है जब कि कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिन में केवल इसी दुनिया को सब कुछ समझा गया है इस तरह से दुनिया की समस्त विचारधाराएं दो तरह की होती हैं इलाही या आध्यात्मिक विचारधारा और दुनियावी या भौतिक विचारधारा।
भौतिक विचारधारा रखने वालों को भौतिकतावादी नास्तिक व बेदीन जैसे नामों से याद किया जाता है। अगरचे वर्तमान युग में उन्हें भौतिकवादी या मेटीरियालिस्ट कहा जाता है।
भौतिकतावाद में भी विभिन्न तरह के मत पाए जाते हैं लेकिन हमारे युग में सब से ज़्यादा मशहूर मत मेटीरियाल्ज़िम डियालक्टिक है जो मार्कसिस्ट दर्शन का आधार है।

इलाही दीन और उनके सिद्धान्त
विभिन्न धर्मों के वुजूद में आने के बारे में बुद्धिजीवियों और दीन के इतिहास के जानकारों तथा समाज शारित्रयों के बीच मतभेद पाए जाते हैं।
लेकिन इस्लामी दृष्टिकोण से जो बातें समझ में आती हैं वह यह हैं कि दीन के वुजूद में आने का इतिहास, इंसान के वुजूद के साथ ही है और ज़मीन पर आने वाले सबसे पहले इंसान अर्थात हज़रत आदम इलाही दूत और तौहीद की ओर बुलाने वाले थे और अनेकिश्वरवादी दीन वास्तव में सच्चे इलाही दीन का बिगड़ा हुआ रूप है अर्थात कुछ लोगों ने राजा महाराजाओं को ख़ुश करने के लिए इलाही धर्मों में कुछ बातें मिला दीं या कुछ बातों को कम कर दिया।
तौहीद परस्त अर्थात एकेश्वरवादी दीन जो वास्तव में सच्चे दीन हैं उन सब में तीन संयुक्त सिद्धान्त पाए जाते हैं:
1.  एक अल्लाह में विश्वास
2. आख़ेरत में हर इंसान के एक अनंत जीवन में विश्वास
3. और इस दुनिया में किए गये कामों के फल तथा मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए इलाही पैग़म्बरों के आगमन पर विश्वास।
यह तीन सिद्धान्त वास्तव में हर आदमी के इस तरह के सवालों के आरंभिक जवाब हैं कि सृष्टि का आरंभ कहा से हुआ जीवन का अंत क्या होगा और किस रास्ते पर चल कर सही रूप से जीवन व्यतीत करना सीखा जा सकता है। तो इस तरह से इलाही संदेश अर्थात वही द्वारा इंसान को जीवन यापन का जो कार्यक्रम हासिल होता है उसे ही धार्मिक आइडियालॉजी कहते हैं जिस का आधार इलाही विचारधारा होती है।
इंसान सिद्धान्त व आस्था के लिए बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत होती है जो एक साथ मिल कर किसी मत या विचारधारा को वुजूद प्रदान करती हैं और इन्हीं बातों में मतभेद के कारण ही विभिन्न तरह के धर्मों और मतों का जन्म होता है। उदहारण स्वरूप कुछ इलाही पैग़म्बरों के बारे में मतभेद और इलाही किताब के निर्धारण अलग अलग मत ही यहूदी ईसाई और इस्लाम दीन के बीच मतभेद का मूल कारण हैं कि जिस के आधार पर शिक्षाओं की दृष्टि से इस तीनों धर्मों में बहुत अंतर हो गया है कभी कभी तो यह अंतर इतना ज़्यादा हो जाता है कि इस से मूल आस्था व विश्वास को भी नुकसान पहुँचता है। उदाहरण स्वरूप ईसाई त्रीश्वर को मानते हैं जो उन की एकेश्वरवादी विचारधारा से मेल नहीं खाता हैं अगरचे ईसाई दीन में विभिन्न प्रकार से इस विश्वास के औचित्य दर्शन का प्रयास किया गया है कि इसी तरह इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के अत्तराधिकारी के निर्धारण की शैली के बारे में मतभेद, अर्थात यह कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के उत्तराधिकारी का निर्धारण अल्लाह करता है या जनता शिया व सुन्नी मुसलमानों के बीच मतभेत का मुख्य व मूल कारण है।
तो फिर नतीजा यह निकलता है कि समस्त इलाही धर्मों में एकेश्वरवाद, इलाही पैग़म्बर और क़यामत मूल सिद्धान्त व मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन इन सिद्धान्तों की व्याख्या के नतीजे में जो दूसरे विश्वास व आस्थाएँ सामने आई हैं उन्हें मुख्य शिक्षा व सिद्धान्त का भाग मात्र कहा जा सकता है। उदाहरण स्वरुप अल्लाह के वुजूद पर विश्वास को आधार और एकेश्वरवाद को उस का एक भाग माना जा सकता हैं कि बहुत से शिया बुद्धिजीवियों ने अद्ल (न्याय) को उसूले दीन अर्थात दीन के मुख्य सिद्धान्तों में गिना है और इमामत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकार को भी इस में शामिल किया है।